यह लेख एलएलएम (संवैधानिक कानून) की छात्रा Diksha Paliwal द्वारा लिखा गया है। यह लेख अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के महत्वपूर्ण पहलुओं पर केंद्रित है, साथ ही प्रासंगिक मामलो पर भी चर्चा करता है। यह उन लोगों के लिए उपलब्ध उपायों के बारे में भी जानकारी प्रदान करता है जिन पर एससी एसटी अधिनियम के अपराधों के तहत झूठा आरोप लगाया गया है। यह लेख अधिनियम के दुरुपयोग और इसके लिए कानून के तहत प्रदान की गई सजा के मुद्दे से भी संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।
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परिचय
जाति व्यवस्था की धारणा प्रारंभिक काल से ही भारतीय सभ्यता का हिस्सा रही है। इसने लंबे समय से समाज के पिछड़े वर्ग के लोगों को परेशान किया है। हालाँकि, हमारे देश का सर्वोच्च कानून, यानी, भारत का संविधान का भाग XVI अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों के कल्याण और सुरक्षा के प्रावधान प्रदान करता है। ये प्रावधान भारतीय समाज के हाशिए पर रहने वाले (मार्जिनलाइज्ड) समुदायों की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (बाद में 1989 के अधिनियम के रूप में संदर्भित है), एक और ऐसा कदम है जो इन पिछड़े वर्गों (एससी और एसटी) के लोगों को सामाजिक न्याय प्रदान करने की दृष्टि से उठाया गया है।
हालाँकि, पिछले कुछ वर्षों में, यह देखा गया है कि कुछ लोग इन प्रावधानों का दुरुपयोग करते हुए पाए गए हैं, जो अन्यथा उनके कल्याण और सुरक्षा के लिए बनाए गए थे। 1989 के अधिनियम के अपराधों के तहत अक्सर लोगों पर झूठा आरोप लगाया जाता है। ऐसे मामले में, कानून प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) एजेंसियों के लिए इस अधिनियम के दुरुपयोग को रोकने के लिए प्रासंगिक उपाय और सुरक्षा उपाय करना महत्वपूर्ण हो जाता है।
वर्तमान लेख में अधिनियम के महत्वपूर्ण प्रावधानों के साथ-साथ महत्वपूर्ण मामलो जिसमें अधिनियम के दुरुपयोग के मुद्दे को बार-बार संबोधित किया गया है, पर विस्तार से चर्चा की गई है।
एससी एसटी अधिनियम क्या है?
1989 का अधिनियम जाति व्यवस्था की उन बुराइयों को रोकने के लिए लागू किया गया था, जिन्होंने भारतीय समाज को सदियों से परेशान किया है। विधायिका का उद्देश्य अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों पर होने वाले अत्याचारों को दूर करना था। इसका उद्देश्य समाज में एससी और एसटी की सक्रिय भागीदारी और समावेशन (इंक्लूजन) को बढ़ाना भी है।
इस अधिनियम का उद्देश्य समाज के पिछड़े वर्गों, मुख्य रूप से एससी और एसटी की रक्षा करना है, जिससे इन संप्रदायों को उनके साथ होने वाले अत्याचारों से बचाया जा सके। इसका उद्देश्य इन जनजातियों के खिलाफ समाज के अन्य वर्गों द्वारा किए गए अपराधों को रोकना है। यह विशेष रूप से बनाई गई अदालतें प्रदान करता है जो विशेष रूप से ऐसे अपराधों की सुनवाई के लिए स्थापित की जाती हैं जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के खिलाफ किए गए हैं। धारा 21 के तहत अधिनियम ऐसे अपराधों के पीड़ितों के लिए पुनर्वास और अन्य आवश्यक राहत का भी प्रावधान करता है।
इन क्षेत्रों की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में सुधार, समग्र रूप से देश की समग्र उन्नति और प्रगति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया है। समाज के ये कमजोर वर्ग सैकड़ों वर्षों से समाज के उच्च जाति के सदस्यों के निशाने पर थे और अमानवीय व्यवहार का सामना कर रहे थे। इस प्रकार इस तरह के अपमान, अत्याचार और अन्यायपूर्ण व्यवहार को रोकने और इन अमानवीय कार्यों के पीछे के अपराधियों को दंडित करने के लिए यह अधिनियम बनाया गया था। समाज के कुछ वर्गों को सिर्फ इसलिए प्रताड़ित करना क्योंकि वे नीचे वर्ग के एक विशेष समुदाय से हैं, पूरी तरह से गलत है और इन कमजोर लोगों को बचाने के उद्देश्य से यह अधिनियम 11.09.1989 को लागू किया गया था। बदलती सामाजिक परिस्थितियों को समायोजित करने के लिए तब से इसमें कई बार संशोधन किए गए है। यह अधिनियम अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पीड़ितों की सुरक्षा के लिए निवारक और दंडात्मक उपाय पेश करता है। यह गैर एससी-एसटी द्वारा एससी और एसटी के खिलाफ किए गए अपराधों को रोकने का प्रयास करता है।
भारतीय दंड संहिता और अन्य मौजूदा कानूनों के प्रावधानों की अपर्याप्तता के कारण 1989 का अधिनियम लागू हुआ था।
एससी एसटी अधिनियम का उद्देश्य
भारत में जाति-आधारित उत्पीड़न के कई उदाहरण देखे गए हैं। पिछड़े समुदायों के इन लोगों को, जिन्हें “दलित” भी कहा जाता है, अछूत माना जाता है और जिस जाति से वे आते हैं, उसके कारण उन्हें बहुत भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इन समुदायों के लोगों पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए, अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 लागू किया गया था। अधिनियम की प्रस्तावना (प्रिएंबल) में ही कहा गया है कि इसके अधिनियमन का उद्देश्य एससी और एसटी के खिलाफ अपराधों और अत्याचारों पर रोक लगाना है। संसद का विचार था कि तत्कालीन मौजूदा कानून जैसे आईपीसी, नागरिक अधिकार अधिनियम, 1955, आदि एससी और एसटी के खिलाफ अपराधों को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं थे, और इसलिए सुरक्षा के लिए एक नया कानून बनाने की आवश्यकता थी और इन लोगों के हितों की रक्षा की भावना महसूस की गई थी। इसका उद्देश्य निचली जाति को न्याय प्रदान करना और अस्पृश्यता (अनटचैबिलिटी) की कुप्रथाओं को समाप्त करना है।
मंगल प्रसाद बनाम पांचवें अतिरिक्त जिला न्यायाधीश (1992) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि एससी एसटी अधिनियम मुख्य रूप से दलितों को समाज का अभिन्न (इंटीग्रल) अंग बनाने और उन्हें बेहतर अवसर प्रदान करने के साथ-साथ उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है।
अधिनियम के अंतर्गत महत्वपूर्ण प्रावधान
यह अधिनियम उन दांडिक प्रावधानों से संबंधित है जिनका भारतीय दंड संहिता 1860, नागरिक अधिकार अधिनियम 1955 और कई अन्य मौजूदा कानूनों में निपटान नहीं किया गया है। यह समाज के सबसे कमजोर वर्गों के खिलाफ किए गए अपराधों के लिए कड़ी सजा का भी प्रावधान करता है, इस दृष्टिकोण के साथ कि कड़ी सजा से इन वर्गों पर होने वाले अत्याचारों को खत्म करने और उन पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी।
एससी एसटी अधिनियम इन लोगों को सुरक्षा प्रदान करता है और विभिन्न अत्याचारों जैसे शोषण, दुर्भावनापूर्ण अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन), हमला, उनके सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों का उल्लंघन और ऐसे सभी अपराध जो गैर एससी-एसटी व्यक्ति द्वारा एससी और एसटी के खिलाफ किए जाते हैं, को शामिल करता है। यह पीड़ितों को मौद्रिक हर्जाना, पुनर्वास और अन्य राहतें भी प्रदान करता है। यह अधिनियम विशेष अदालतों की स्थापना का प्रावधान करता है जो इस अधिनियम के तहत अपराधों की सुनवाई करती हैं, साथ ही इन समुदायों की सुरक्षा और अन्य नियमित जाँच सुनिश्चित करने के लिए अधिकारियों की भी व्यवस्था करती है।
आइए अधिनियम के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों पर चर्चा करें।
- अधिनियम की धारा 2 विभिन्न परिभाषाओं से संबंधित है, अर्थात् अत्याचार, संहिता, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का अर्थ, विशेष अदालतें और विशेष लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) आदि। धारा का खंड (2) आगे ऐसी स्थिति के बारे में बात करता है जिसमें इस अधिनियम में किया गया कोई भी संदर्भ किसी विशेष क्षेत्र में लागू नहीं है, तो ऐसी स्थिति में, उस संदर्भ का संबंधित कानून लागू होगा।
- अधिनियम की धारा 3 में विभिन्न अपराध जो एससी एसटी के खिलाफ अत्याचार का गठन करते हैं, के लिए दंड का प्रावधान है, जैसे, एक गैर एससी-एसटी व्यक्ति द्वारा एससी-एसटी जनजाति के सदस्य को जबरदस्ती शराब पिलाना या कोई हानिकारक पदार्थ खिलाना, या किसी एससी-एसटी सदस्य का अपमान करना, या चोट पहुंचाना या चोट पहुंचाने का इरादा रखना आदि। कुछ मामलों में अधिकतम सज़ा सात साल तक या कुछ मामलों में 5 साल तक हो सकती है, जैसा कि धारा 3 के विभिन्न खंडों और उप खंडों के तहत प्रदान किया गया है।
- अधिनियम की धारा 4 में लोक सेवक जो जानबूझकर अपने कर्तव्यों जिन्हें इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार पालन करना आवश्यक है, की उपेक्षा करता है, के लिए सजा का प्रावधान है। सज़ा की न्यूनतम अवधि 6 महीने है जिसे एक साल तक बढ़ाया जा सकता है।
- इसके अलावा अधिनियम बाद में दोषी पाए जाने पर सजा का भी प्रावधान करता है, जो एक वर्ष से कम नहीं होगी, लेकिन उस विशेष अपराध के लिए प्रदान की गई सजा तक बढ़ सकती है। यह अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत वर्णित है। इसके अलावा, अधिनियम विशेष अदालत को कुछ अपराधों में संपत्ति को जब्त करने का आदेश देने की शक्ति भी प्रदान करता है, जैसा कि अधिनियम की धारा 7 के तहत निर्धारित है।
- इसमें राजपत्रित अधिसूचना (गैजेटेड नोटिफिकेशन) प्रकाशित करके किसी भी सरकारी अधिकारी को पुलिस अधिकारी की शक्ति प्रदान करने का भी प्रावधान है, यदि राज्य सरकारें न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक समझती हैं। यह शक्ति अधिनियम की धारा 9 के तहत प्रदान की गई है।
- धारा 10 के तहत विशेष अदालत को किसी भी व्यक्ति को किसी विशेष क्षेत्र की सीमा से बाहर निकालने की शक्ति है, यदि शिकायत प्राप्त होने पर या अन्यथा अदालत को लगता है कि वह व्यक्ति इस अधिनियम के तहत कोई अपराध कर सकता है। इसके अलावा, धारा 11 ऐसे व्यक्ति की हिरासत या गिरफ्तारी का प्रावधान करती है जिसने अधिनियम की धारा 10 के तहत दिए गए निर्देशों का पालन नहीं किया है। इसमें आगे प्रावधान है कि विशेष अदालत अस्थायी रूप से हटाए गए व्यक्ति को उस क्षेत्र में वापस लौटने की अनुमति दे सकती है।
- धारा 15 के तहत अधिनियम अदालत में मामलों के संचालन के उद्देश्य से एक विशेष लोक अभियोजक की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
हाल ही के संशोधन
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति संशोधन नियम, 2016
ये संशोधन नियम अत्याचार के पीड़ितों को त्वरित न्याय सुनिश्चित करने, महिला पीड़ितों की ओर विशेष ध्यान देने और जाति-आधारित उत्पीड़न के पीड़ितों के लिए उचित राहत तंत्र सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए थे। नियमों में अदालत में साठ दिनों के भीतर आरोप पत्र (चार्जशीट) दाखिल करने और जांच पूरी करने का प्रावधान है। इसमें बलात्कार पीड़ितों के लिए राहत के प्रावधान भी प्रदान किए गए है। संशोधन मुख्य रूप से विभिन्न स्थितियों में पीड़ितों के लिए कई राहत प्रावधानों पर केंद्रित था। इसमें एससी और एसटी के अधिकारों और हकदारियों के लिए योजनाओं की नियमित समीक्षा (रिव्यू) का भी प्रावधान किया गया।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2018
2018 का यह संशोधन अधिनियम मुख्य रूप से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए 2018 महाजन मामले के फैसले के प्रभाव को खत्म करने के लिए पेश किया गया था। संशोधन अधिनियम में कहा गया है कि 1989 के अधिनियम के तहत अपराधों के लिए प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज करने से पहले कोई प्रारंभिक जांच आवश्यक नहीं है। इसमें आगे कहा गया है कि इस अधिनियम के तहत गिरफ्तारी से पहले पुलिस अधीक्षक (सुपरिटेंडेंट) से पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं है। इसमें यह भी कहा गया है कि इस अधिनियम के तहत अभियुक्त व्यक्ति किसी भी अग्रिम (एंटीसिपेटरी) जमानत का हकदार नहीं होगा।
एससी एसटी अधिनियम का दुरुपयोग एवं उसके परिणाम
अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, हमारे देश में अपनाई जाने वाली दमनकारी जाति व्यवस्था के कारण समाज के इन कमजोर वर्गों पर होने वाले अत्याचारों को रोकने और उन पर अंकुश लगाने के लिए लागू किया गया था। दुख की बात है कि पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों से पता चलता है कि इस अधिनियम का इस्तेमाल लोगों को परेशान करने या गलत इरादे हासिल करने के लिए एक उपकरण के रूप में किया जा रहा है। साल 2016 में हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक पता चला कि इस कानून के तहत कुल 11060 मामलों की जांच की गई, जिनमें से 5347 मामले झूठे थे। यहां तक कि देश की अदालतें भी कई मामलों में इस कानून के दुरुपयोग के मुद्दे पर चिंता जता चुकी हैं।
भले ही कुछ गुप्त उद्देश्यों के लिए एससी एसटी अधिनियम के दुरुपयोग का शिकार होने वाले व्यक्ति के लिए कानून के तहत कोई स्पष्ट प्रावधान प्रदान नहीं किया गया है, फिर भी अधिनियम के तहत कुछ ऐसी कानूनी कार्रवाइयां हैं जिनको झूठा आरोप लगाया गया व्यक्ति न्यायपालिका से मांग सकता है। कोई व्यक्ति रिट याचिका दायर करके और यह तर्क देकर उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत उसके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया गया है। प्रारंभ में, रिट याचिका का अधिकार क्षेत्र केवल राज्य या उसके उपकरणों के खिलाफ ही लागू किया जा सकता था, हालांकि, कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2016) के मामले के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने अब यह माना है कि अनुच्छेद 19 और 21 को निजी व्यक्तियों के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है।
इसके अलावा, जिस व्यक्ति पर झूठा आरोप लगाया गया है, वह एससी-एसटी के उस सदस्य के खिलाफ जवाबी शिकायत दर्ज कर सकता है जिसने उस पर झूठा आरोप लगाया है। भले ही अधिनियम में एससी एसटी अधिनियम के तहत अपराधों में अग्रिम जमानत के प्रावधान का उल्लेख नहीं है, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के कुछ फैसलों में झूठे एससी-एसटी मामलों में आरोपियों को अग्रिम जमानत दी है।
जिस व्यक्ति पर झूठा आरोप लगाया गया है, वह भी भारतीय दंड संहिता में दिए गए मानहानि (डेफामेशन) के प्रावधान के तहत यह कहकर शरण ले सकता है कि उसे दूसरे व्यक्ति द्वारा बदनाम किया जा रहा है जिसने उस पर एससी एसटी अधिनियम के तहत अपराधों का झूठा आरोप लगाया है। अधिनियम का अगला भाग इस उपाय पर विस्तार से चर्चा करता है।
एक्स बनाम केरल राज्य और अन्य (2022)
मामले के तथ्य
वर्तमान मामले में, विशेष न्यायाधीश द्वारा गिरफ्तारी पूर्व जमानत को खारिज करने को चुनौती देते हुए केरल उच्च न्यायालय में एक अपील दायर की गई थी। अभियुक्त पर आरोप था कि वह शिकायतकर्ता को उसकी जाति के नाम से बुलाता था। शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति समुदाय से था, और उसे अभियुक्त ने उस समय बुलाया था जब शिकायतकर्ता अपने द्वारा लिए गए बैंक ऋण का ब्याज चुकाने के लिए वलप्पड सर्विस को-ऑपरेटिव बैंक आया था। शिकायतकर्ता ने कहा कि अभियुक्त (गैर एससी-एसटी) जो कि वलप्पड बैंक का कर्मचारी है, ने शिकायतकर्ता को सार्वजनिक रूप से उसकी जाति के नाम से बुलाया और उसके साथ दुर्व्यवहार किया। अभियुक्त पर 1989 के अधिनियम की धारा 3(1)(s) के तहत मामला दर्ज किया गया था।
मामले में शामिल मुद्दा
एससी एसटी अधिनियम के तहत कोई मामला बनता है या नहीं। साथ ही, क्या अभियुक्त को जमानत दी जानी चाहिए?
निर्णय और अवलोकन
केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि यह देखने के लिए तथ्यों पर गौर करना जरूरी है कि गलत निहितार्थ (इंप्लीकेशन) की कोई संभावना है या नहीं। आगे यह देखा गया कि, जहां शिकायतकर्ता और अभियुक्त के बीच पहले कड़वे रिश्ते थे या मुकदमेबाजी का इतिहास था, वही शिकायतकर्ता के मामले पर प्रथम दृष्टया संदेह करने का एक वैध कारण हो सकता है। न्यायालय ने झूठे मामलों और अत्याचार विरोधी कानूनों के दुरुपयोग के मुद्दे को भी संबोधित किया और कहा कि वर्तमान स्थिति को देखना वास्तव में चौंकाने वाला और निराशाजनक है, जिसमें निर्दोष लोग ऐसे झूठे मामलों का शिकार बन रहे हैं। केरल उच्च न्यायालय ने कुछ शर्तें लगाने के बाद अभियुक्त को गिरफ्तारी से पहले जमानत दे दी, जिससे विवादित आदेश रद्द हो गया।
जावेद खान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2022)
मामले के तथ्य
वर्तमान मामले में, अभियुक्त पर भारतीय दंड संहिता की धारा 294, 323, और 506 और 1989 के अधिनियम की धारा 3(1)(r), 3(1)(s), और 3(2)(ba) के तहत अपराध का आरोप लगाया गया था। वर्तमान मामले में शिकायतकर्ता ने कहा कि वह पंचायत सचिव है और अभियुक्त उपसरपंच है। शिकायतकर्ता द्वारा यह तर्क दिया गया कि अभियुक्त द्वारा उसे गंदी भाषा में गाली दी गई और अभियुक्त ने धमकी भी दी। हालाँकि, अपीलकर्ता द्वारा यह तर्क दिया गया था कि धन के गबन (एंबेजलमेंट) के किसी अन्य मामले के कारण शिकायतकर्ता द्वारा उसे झूठा फंसाया गया था।
मामले में शामिल मुद्दा
मामले के तथ्यों पर उचित विचार करने के बाद अभियुक्त को अग्रिम जमानत दी जाए या नहीं।
निर्णय और अवलोकन
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को जमानत देते हुए कहा कि अदालतों के पास जमानत देने की शक्ति है जब ऐसा प्रतीत होता है कि कथित अपराध कानून का सरासर दुरुपयोग है।
अत्याचार के फर्जी मामलों का मुकाबला कैसे करें
भारत की अदालतों ने कई मामलों में अत्याचार विरोधी कानूनों के दुरुपयोग के मुद्दे को न्यायिक रूप से संबोधित किया है। लोग इसे अपने गुप्त उद्देश्यों को पूरा करने के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग करते हैं, जैसे ब्लैकमेलिंग और विवादों को निपटाना, चाहे वे मौद्रिक या किसी अन्य प्रकार के राजनीतिक विवाद हों, आदि। जैसा कि महाजन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा है कि “यह देखा जा सकता है कि निहित स्वार्थों की संतुष्टि के लिए परोक्ष उद्देश्य से बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा है।” दूसरी ओर, संसद ने इस दुरुपयोग को रोकने के लिए कोई भी सुरक्षा उपाय या प्रावधान लाने से स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया है। संसद का कहना है कि यह उस अधिनियम के मूल सार को ही नष्ट कर देगा जिसके लिए इसे लागू किया गया है। हालाँकि, कानून का जो दुरुपयोग हो रहा है, उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह जरूरी है कि इस दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ कड़े कानून बनाए जाएं। इस मुद्दे पर अंकुश लगाने के लिए उचित प्रारंभिक जांच का प्रावधान स्थापित किया जा सकता है। साथ ही, अग्रिम जमानत के प्रावधान को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए, जैसा कि महाजन फैसले में किया गया था। हालाँकि, बाद में इसे उलट दिया गया। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि यह अधिनियम गैर एससी-एसटी की छवि के शोषण का साधन न बने। निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी को रोकने के लिए अभियुक्तों की गिरफ्तारी के लिए उचित दिशानिर्देश भी जारी किए जाने चाहिए।
आईपीसी की धारा 499 और 500 के तहत सहारा
भारतीय दंड संहिता की धारा 499 मानहानि का प्रावधान बताती है। सरल भाषा में, “मानहानि” शब्द का अर्थ किसी अपमानजनक या झूठे शब्दों, कार्यों, संकेतों, इशारों आदि के माध्यम से एक व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाना या किसी एक व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने का इरादा है। हालाँकि, मानहानि के अपराध के लिए किसी पर आरोप लगाते समय, यह महत्वपूर्ण है कि जिस व्यक्ति ने कोई मानहानिकारक कार्रवाई की है, उसे यह पता हो कि उसके द्वारा किया गया कार्य संबंधित व्यक्ति की प्रतिष्ठा को बर्बाद कर देगा। किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को बर्बाद करने का इरादा एक आवश्यक घटक है।
मानहानि के अपराध के लिए आईपीसी की धारा 500 के तहत सजा का प्रावधान है। इसमें अभियुक्त के लिए दो साल तक की साधारण कैद या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है।
इस प्रावधान का उपयोग उन लोगों द्वारा एक सहारे के रूप में किया जा सकता है जिन पर झूठा आरोप लगाया गया है या जिन्हें धमकी दी जा रही है कि उनके खिलाफ फर्जी अत्याचार का मामला दायर किया जाएगा। भारतीय कानून में वर्तमान में अत्याचार विरोधी कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है, हालांकि, भारतीय दंड संहिता के इन दो प्रावधानों का उपयोग उन पीड़ितों द्वारा किया जा सकता है जो एससी एसटी जनजाति के सदस्यों के अवैध या गुप्त उद्देश्यों के कारण झूठे मामलों का शिकार हुए हैं।
न्यायिक घोषणाएँ
सुरेंद्र कुमार मिश्रा बनाम उड़ीसा राज्य एवं अन्य (2022)
मामले के तथ्य
वर्तमान मामले में, अभियुक्त पर 1989 के अधिनियम की धारा 3(1)(x) के अलावा आईपीसी की धारा 294, 323 और 506 के तहत अपराध का आरोप लगाया गया है। बताया जाता है कि घटना को उस समय अंजाम दिया गया जब घटना स्थल पर मजदूरी का काम चल रहा था। यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता ने प्राथमिकी दर्ज करने वाले मुखबिर के साथ दुर्व्यवहार किया। सूचना देने वाले ने कहा कि साइट पर काम करने के दौरान होने वाले शोर के कारण याचिकाकर्ता ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया और कहा कि उसके जाति नाम का इस्तेमाल किया, इसके बाद उस पर छड़ी से हमला किया। विद्वान विशेष न्यायाधीश ने याचिकाकर्ता की याचिका खारिज कर दी, जिससे प्राथमिकी रद्द करने से इनकार कर दिया गया। हालाँकि, याचिकाकर्ता द्वारा यह तर्क दिया गया था कि भले ही, तर्क के लिए, यह माना जाता है कि याचिकाकर्ता ने शिकायतकर्ता की जाति के नाम का इस्तेमाल किया था, उसका इरादा उसकी जाति के आधार पर उसका अपमान करना नहीं था, और इसलिए एससी एसटी अधिनियम के तहत कोई अपराध नहीं बनता है।
मामले में शामिल मुद्दा
अधिनियम 1989 की धारा 3(1)(x) के तहत कोई मामला बनता है या नहीं।
निर्णय और अवलोकन
उड़ीसा उच्च न्यायालय ने माना कि 1989 के अधिनियम की धारा 3(1)(x) केवल इसलिए लागू नहीं होगी क्योंकि अभियुक्त ने पीड़िता की जाति का नाम कहा था, यह आवश्यक है कि यह कथन उसका अपमान करने, डराने या अपमानित करने के इरादे से किया गया हो, सिर्फ इसलिए कि वह एससी एसटी समुदाय से है। जहां तक 1989 के अधिनियम के तहत आरोपों का सवाल है, याचिकाकर्ता की याचिका को स्वीकार कर लिया गया। अदालत ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता ने सूचना देने वाले को अचानक गुस्से में गाली दी, इसलिए नहीं कि वह किसी विशेष समुदाय से था।
सुरेश राम विश्वकर्मा बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2023)
मामले के तथ्य
वर्तमान मामले में, अभियुक्त अपीलकर्ता ने नाबालिग पीड़िता के साथ उसकी सहमति के बिना यौन संबंध बनाया। इस घटना के आधार पर पीड़िता की मां ने अभियुक्त के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी थी। बाद में, पीड़िता की चिकित्सकीय जांच की गई और रिपोर्ट में पुष्टि हुई कि उसके साथ यौन उत्पीड़न किया गया था। उचित जांच के बाद, पुलिस द्वारा आरोप पत्र दायर किया गया था। मुकदमे में साक्ष्य दर्ज करने के बाद अभियुक्त को आईपीसी की धारा 376(2)(i) (असंशोधित) और पॉक्सो अधिनियम की धारा 5 के साथ पढ़ी जाने वाली धारा 6 के तहत दोषी ठहराया। इससे व्यथित होकर अपीलकर्ता उच्च न्यायालय चला गया।
मामले में शामिल मुद्दा
अदालत के सामने मुद्दा यह तय करना था कि विचारणीय (ट्रायल) न्यायालय ने आरोप सही ढंग से तय किए हैं या नहीं।
निर्णय और अवलोकन
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने माना कि केवल इस आधार पर कि पीड़िता एससी एसटी समुदाय से है, यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त ने पीड़िता का यौन शोषण करने के लिए उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे मजबूर किया, ऐसा कार्य जो अन्यथा 1989 के अधिनियम की धारा 3(1)(xii) के तहत दंडनीय है। यह टिप्पणी करते हुए छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने निचली अदालत के आदेश को रद्द करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष ने आरोपियों के खिलाफ अस्पष्ट रूप से आरोप लगाए हैं।
हालाँकि, अदालत ने कहा कि निचली अदालत ने अभियुक्त को आईपीसी की धारा 376(2)(i) (असंशोधित) और पॉक्सो अधिनियम की धारा 5 (i/k/m) के साथ पढ़ी जाने वाली धारा 6 के तहत सही दोषी ठहराया था, लेकिन इसमें आगे कहा गया कि सजा की गंभीरता को चुनना यह सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीका नहीं है कि न्याय मिल रहा है, और परिणामस्वरूप 1989 के अधिनियम के तहत आरोप हटा दिए गए।
सिजी वी शिवराम बनाम केरल राज्य (2023)
मामले के तथ्य
वर्तमान मामले में, याचिकाकर्ता ने केरल उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और 1989 के अधिनियम की धारा 14(A) के तहत अग्रिम जमानत देने का अनुरोध किया, जिसे पहले निचली अदालत ने खारिज कर दिया था। वर्तमान मामले में अभियुक्त पर भारतीय दंड संहिता की धारा 143, 147, 148, 323, 324, 308, 379, 427 और धारा 149 के साथ पठित धारा 506 और एससी एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(r) और 3(1)(s) के तहत आरोप लगाए गए हैं।
मामले में शामिल मुद्दा
अदालत के समक्ष मुद्दा यह तय करना था कि विशेष अदालत द्वारा 1989 के अधिनियम के तहत अग्रिम जमानत खारिज करने के बाद, अभियुक्त नए सिरे से जमानत के लिए आवेदन कर सकता है या नहीं। बशर्ते कि उक्त अपील को खारिज करने की पुष्टि उचित रूप से स्थापित अपील के माध्यम से उच्च न्यायालय द्वारा की गई हो। सीधे शब्दों में कहें तो, ऊपर बताई गई अपील खारिज होने के बाद अदालत को नए जमानत आवेदन की सुनवाई पर फैसला करना था।
निर्णय और अवलोकन
केरल उच्च न्यायालय ने अभियुक्त का आवेदन खारिज करते हुए कहा कि ऐसी याचिका सुनवाई योग्य नहीं है और अभियुक्त के पास अब एकमात्र सहारा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आवेदन दायर करना है। इस प्रकार, अदालत ने माना कि एससी एसटी अधिनियम के तहत अभियुक्त अग्रिम जमानत या नियमित जमानत के लिए सीधे उच्च न्यायालय से संपर्क नहीं कर सकता है।
डॉ. शुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2018) (उलट)
मामले के तथ्य
यह अपील बॉम्बे उच्च न्यायालय के फैसले से व्यथित होकर वर्तमान अपीलकर्ता द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई थी। वर्तमान मामले में अभियुक्त पर भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 182, 192, 193, 203, और धारा 34 के साथ पठित धारा 219 के साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(ix), 3(2)(vi), और 3(2)(vii) के तहत आरोप लगाया गया था। अभियुक्त महाराष्ट्र में तकनीकी शिक्षा विभाग के निदेशक (डायरेक्टर) के पद पर कार्यरत था। शिकायतकर्ता भी उसी विभाग के अंतर्गत निचले पद पर कार्यरत था। प्राथमिकी में शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि अभियुक्त के पास अभियुक्त और एक अन्य व्यक्ति द्वारा शिकायतकर्ता को दी गई कुछ मंजूरी देने/अस्वीकार करने की शक्ति नहीं थी।
मामले में शामिल मुद्दा
क्या एससी एसटी अधिनियम के दुरुपयोग को रोकने के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय हो सकते हैं कि बाहरी कारणों से उनका दुरुपयोग न हो।
निर्णय और अवलोकन
सर्वोच्च न्यायालय ने अभियुक्त को जमानत देते समय अत्याचार विरोधी कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ शर्तें रखीं, जो निम्नलिखित हैं;
- यदि अदालत को प्रथम दृष्टया पता चलता है कि कोई मामला नहीं बनता है या अदालत को कोई गलत इरादे नजर आते हैं तो अभियुक्त को अग्रिम जमानत देने पर ऐसी कोई रोक नहीं है।
- झूठे मामलों से बचने के लिए डीएसपी द्वारा प्रारंभिक जांच की जा सकती है, ताकि पता चल सके कि आरोप सही हैं या बेबुनियाद है।
- ऐसी स्थिति में जहां यह स्पष्ट हो कि कानून का कुछ दुरुपयोग हो रहा है, ऐसे मामले में गिरफ्तारी लोक सेवक के मामले में नियुक्ति प्राधिकारी की मंजूरी के बाद की जानी चाहिए। ऐसे मामले में जहां गिरफ्तारी गैर-लोक सेवक की है, यह एसएसपी की मंजूरी के बाद होगी।
- उपरोक्त दिशानिर्देशों का अनुपालन न करना अवमानना (कंटेंप्ट) माना जाएगा।
पृथ्वी राज चौहान बनाम भारत संघ और अन्य (2020)
मामले के तथ्य
यह याचिका याचिकाकर्ता ने दायर की थी, जिसमें उन्होंने एससी एसटी अधिनियम की धारा 18A की वैधता को चुनौती दी थी। यह धारा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2018 महाजन निर्णय सुनाए जाने के बाद डाली गई थी। इस फैसले के बाद देश के सभी हिस्सों में आदिवासियों और अन्य हाशिए पर मौजूद समुदाय के सदस्यों द्वारा व्यापक विरोध प्रदर्शन देखा गया। इसके अलावा, विधायिका और कुछ कानून शोधकर्ताओं द्वारा यह भी तर्क दिया गया था कि ये सुरक्षा उपाय अत्याचार विरोधी कानूनों की प्रभावशीलता में बाधा उत्पन्न करेंगे। 2018 का फैसला एससी एसटी अधिनियम के बढ़ते दुरुपयोग के मद्देनजर दिया गया था। हालाँकि, संसद, 2018 के फैसले के प्रभाव को ख़त्म करने के लिए, 2018 में संशोधन विधेयक लेकर आई, जिसके तहत 1989 के अधिनियम में धारा 18A शामिल की गई।
मामले में शामिल मुद्दा
- 2018 का संशोधन संवैधानिक रूप से वैध है या नहीं।
- क्या एससी एसटी अधिनियम के अपराधों के तहत अग्रिम जमानत देना कानूनी रूप से वैध है।
- महाजन मामले में जारी निर्देश संवैधानिक रूप से वैध हैं या नहीं।
निर्णय और अवलोकन
सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 2018 संशोधन की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। अदालत ने आगे चलकर महाजन मामले में दी गई राय से अलग रुख अपनाया और कहा कि ये दिशानिर्देश एससी एसटी लोगों पर अनावश्यक रूप से दबाव डालते हैं।
निष्कर्ष
एससी/एसटी अधिनियम हाशिए पर रहने वाले समुदाय के हितों की रक्षा करने और उन्हें भारत में प्रचलित जाति दमनकारी व्यवस्था के कारण होने वाले अत्याचारों से बचाने के लिए बनाया गया था। हालाँकि, पिछले कुछ वर्षों में, आँकड़े बताते हैं कि झूठे मामले दर्ज करने और निर्दोष व्यक्तियों पर सूचना देने वाले या शिकायतकर्ता के गुप्त उद्देश्यों को पूरा करने का आरोप लगाने में बड़ी वृद्धि हुई है। वर्तमान में, हमारे पास अत्याचार विरोधी कानूनों के दुरुपयोग को रोकने के लिए कोई सख्त कानून नहीं है क्योंकि संसद का मानना है कि एससी एसटी अधिनियम समाज के कमजोर वर्गों के साथ होने वाले गंभीर अन्याय और अपमान को रोकने के लिए बनाया गया है और ऐसे निवारक प्रावधानों को लागू करने से एससी/एसटी अधिनियम के उद्देश्य को पूरा करने में बाधा उत्पन्न होगी।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या पीड़ित की जाति का उल्लेख एससी एसटी अधिनियम की धारा 3 के तहत अपराध है, जब तक कि ऐसे किसी जाति-आधारित अपमान का इरादा न हो?
शैलेश कुमार बनाम कर्नाटक राज्य (2023) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने माना कि किसी व्यक्ति को धारा 3 में उल्लिखित अपराध के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता है यदि वह पीड़ित की जाति का नाम बताता है जब तक कि अभियुक्त का ऐसा कोई इरादा था कि वह पीड़ित का अपमान करे क्योंकि वह एक निश्चित समुदाय से है।
क्या अपने ही घर में सीटी बजाना एससी एसटी अधिनियम के तहत अपराध होगा?
योगेश लक्ष्मण पांडव और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (2023), के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि यदि कोई व्यक्ति अपने घर में सीटी की आवाज़ कर रहा है तो उस पर 1989 के अधिनियम के तहत यौन इरादे के अपराध के लिए मामला दर्ज नहीं किया जा सकता है।
क्या एससी एसटी अधिनियम में 2018 का संशोधन और पृथ्वी राज चौहान बनाम भारत संघ और अन्य (2020) के मामले में दिया गया निर्णय – दोनों एक ही उद्देश्य की पूर्ति करते हैं?
हां, 2018 के संशोधन ने व्यावहारिक रूप से डॉ. सुभाष महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2018), के फैसले को उलट दिया और पृथ्वी राज चौहान मामले में 2020 के फैसले द्वारा भी ऐसा ही किया गया था।
संदर्भ
- Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989