दंड प्रक्रिया संहिता के तहत जमानत के प्रावधान

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Criminal Procedure Code
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यह लेख Santosh Bhagwan Waghmare द्वारा लिखा गया है, जो लॉसिखो से कानूनी प्रारूपण के परिचय: अनुबंध, याचिकाएं, राय और लेख में सर्टिफिकेट कोर्स कर रहे हैं। यह लेख भारत के दंड प्रक्रिया संहिता में दिए गए जमानत के प्रावधान पर चर्चा करता है। लेख का संपादन प्रशांत बाविस्कर (एसोसिएट, लॉसिखो) और जिगिशु सिंह (एसोसिएट, लॉसिखो) ने किया है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash द्वारा किया गया है।

परिचय

भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 सभी व्यक्तियों को जीवन की सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यह मानवीय गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ जीने के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है, जो बदले में हमें किसी भी कानून प्रवर्तन प्राधिकरण (लॉ एनफोर्समेंट अथॉरिटी) द्वारा गिरफ्तार किए जाने पर जमानत मांगने का अधिकार देता है।

दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (इसके बाद सीआरपीसी या आपराधिक प्रक्रिया संहिता के रूप में संदर्भित) के तहत अग्रिम जमानत (एंटीसिपेटरी बेल) का प्रावधान धारा 438 में पेश किया गया था। यह भारत के विधि आयोग की सिफारिश पर आधारित है, जिसने अपनी 41वीं रिपोर्ट में अग्रिम जमानत के प्रावधान को शामिल करने की सिफारिश की थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि “अग्रिम जमानत देने की आवश्यकता मुख्य रूप से इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि कभी-कभी प्रभावशाली व्यक्ति अपने प्रतिद्वंद्वियों (राइवल) को बदनाम करने के उद्देश्य से या अन्य उद्देश्यों के लिए उन्हें जेल में बंद करके झूठे मामलों में फंसाने की कोशिश करते हैं। झूठे मामलों के अलावा, जहां यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति के फरार होने की संभावना नहीं है, या अन्यथा वह जमानत पर रहते हुए अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग नहीं करता है, वहां उसे पहले हिरासत में लेने की आवश्यकता का कोई औचित्य नहीं लगता है और वह कुछ दिनों के लिए जेल में रह कर फिर जमानत के लिए आवेदन कर सकता है। ”

‘जमानत’ का प्रावधान, विशेष रूप से अग्रिम जमानत, “निर्दोषता की धारणा (प्रिजंप्शन ऑफ इनोसेंस)” के कानूनी सिद्धांत पर आधारित है, अर्थात किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को दोषी साबित होने तक निर्दोष माना जाता है। यह एक मौलिक सिद्धांत है जिसका उल्लेख मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स) के तहत अनुच्छेद 11 में किया गया है।

जमानत का अर्थ

जमानत‘ कुछ अपराधों के आरोपित व्यक्ति की रिहाई की प्रक्रिया को अदालत में सुनवाई के लिए अदालत में उसकी भविष्य की उपस्थिति सुनिश्चित करने और उसे अदालत के अधिकार क्षेत्र में रहने के लिए मजबूर करने की प्रक्रिया को दर्शाता है।

ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार जमानत की परिभाषा यह है कि – “जमानत में कैदी की रिहाई के लिए अदालत द्वारा आवश्यक सुरक्षा प्रदान की जाती है, जिसे भविष्य में अदालत में पेश होना होता है।” गिरफ्तारी का उद्देश्य आरोपी को न्यायालय के समक्ष पेश कर न्याय दिलाना है। हालांकि, अगर बिना किसी गिरफ्तारी के एक ही उद्देश्य हासिल किया जा सकता है, तो उसकी स्वतंत्रता का उल्लंघन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए आरोपी व्यक्ति को सशर्त रिहाई (कंडीशनल रिलीज) के लिए जमानत दी जा सकती है।

जमानत की कानूनी स्थिति

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत ‘जमानत’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। केवल ‘जमानती अपराध’ और ‘गैर-जमानती अपराध’ शब्द को सीआरपीसी की धारा 2 (a) के तहत परिभाषित किया गया है। जमानत और जमानत बांड से संबंधित प्रावधानों का उल्लेख दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436-450 के तहत किया गया है।

जमानत की श्रेणियाँ

जमानत के उद्देश्य से, अपराधों को जमानती और गैर-जमानती अपराधों में वर्गीकृत किया जाता है जिनकी चर्चा नीचे की गई है:

जमानती अपराध

सीआरपीसी की धारा 2 (a) के अनुसार जमानती अपराध का मतलब ऐसा अपराध है जिसे संहिता की पहली अनुसूची में जमानती के रूप में वर्गीकृत किया गया है, या जिसे किसी अन्य कानून के तहत जमानती के रूप में वर्गीकृत किया गया है। एक आरोपी जमानत का दावा अधिकार के रूप में कर सकता है यदि उस पर जमानती अपराध करने का आरोप है। यदि आरोपी जमानत देने के लिए तैयार है तो पुलिस अधिकारी या किसी अन्य प्राधिकारी को जमानत खारिज करने का कोई अधिकार नहीं है। सीआरपीसी 1973 की धारा 436 के तहत, बिना वारंट के किसी भी समय गिरफ्तारी के दौरान और कार्यवाही के किसी भी चरण में जमानती अपराध के आरोपी व्यक्ति को जमानत पर रिहा होने का अधिकार है।

गैर-जमानती अपराध

एक गैर-जमानती अपराध को किसी भी अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है जो जमानती अपराध नहीं है। गैर-जमानती अपराध का आरोपी व्यक्ति जमानत का दावा अधिकार के रूप में नहीं कर सकता। गैर-जमानती अपराधों के आरोपी व्यक्ति को जमानत दी जा सकती है, बशर्ते आरोपी निम्नलिखित शर्तों को पूरा नहीं करता है:

  • यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि उसने मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध किया है।
  • यह कि आरोपी ने संज्ञेय अपराध किया है और उसे पहले मौत, आजीवन कारावास या सात साल या उससे अधिक के कारावास या यदि आरोपी को संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और गैर-जमानती अपराध के दो या अधिक मामलों में दोषी ठहराया गया है, या उसे दंडनीय अपराध का दोषी ठहराया गया है।

ऐसे असाधारण मामले भी होते हैं, जिनमें कानून उन मामलों के पक्ष में विशेष ध्यान देता है जहां आरोपी नाबालिग, महिला, बीमार व्यक्ति आदि है। [धारा 437 (1) सीआरपीसी]।

विभिन्न प्रकार की जमानत

नियमित जमानत (रेगुलर बेल)

इसके माध्यम से न्यायालय गिरफ्तार व्यक्ति को जमानत के रूप में एक राशि का भुगतान कर पुलिस हिरासत से रिहा करने का आदेश देता है। एक आरोपी सीआरपीसी की धारा 437 और धारा 439 के तहत नियमित जमानत के लिए आवेदन कर सकता है।

अंतरिम जमानत (इंटरिम बेल)

यह अदालत का सीधा आदेश है कि आरोपी को तब तक अस्थायी (टेंपररी) और अल्पकालिक (शॉर्ट टर्म) जमानत दी जाए जब तक कि उसकी नियमित या अग्रिम जमानत की अर्जी अदालत के समक्ष लंबित (पेंडिंग) न हो। सर्वोच्च न्यायालय ने रुक्मणी महतो बनाम झारखंड राज्य में आरोपी द्वारा अंतरिम जमानत के दुरुपयोग पर ध्यान दिया था।

अग्रिम जमानत

यह किसी अपराध के आरोपी को गिरफ्तारी से पहले जमानत देने के लिए सत्र या उच्च न्यायालय का सीधा आदेश है। जब व्यक्ति को गिरफ्तार होने की आशंका हो तो वह व्यक्ति अग्रिम जमानत के लिए आवेदन कर सकता है। कभी-कभी, अग्रिम जमानत के लिए एक आवेदन व्यक्ति के खिलाफ जा सकता है, क्योंकि यह एक जांच एजेंसी को उस व्यक्ति के अपराध में शामिल होने के बारे में सचेत कर सकता है।

भारत में अग्रिम जमानत देते समय इन महत्वपूर्ण कारकों पर विचार किया जाना चाहिए

सीआरपीसी की धारा 438 (1) के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय ने अग्रिम जमानत का फैसला करते समय विचारों की एक विस्तृत सूची की गणना की है। वे इस प्रकार हैं:-

  • गिरफ्तारी से पहले अपराध की गंभीरता और आरोपी की भूमिका को समझना चाहिए।
  • गैर जमानती अपराध के संबंध में दोषसिद्धि पर किसी भी कारावास के अभियुक्तों के पिछले रिकॉर्ड की जांच की जानी चाहिए।
  • संभावना है कि आवेदक न्याय से भाग जाएगा।
  • समान या अन्य अपराधों की पुनरावृत्ति (रिपीटिशन) की संभावना।
  • आरोप लगाने के पीछे की मंशा यह है कि आवेदक को गिरफ्तार करके उसे चोट पहुंचाई जाए या अपमानित किया जाए।
  • आरोपी की सटीक भूमिका पर विचार करें।
  • सबूतों, गवाहों के साथ छेड़छाड़ और शिकायतकर्ता को धमकी देने की उचित आशंका।

अग्रिम जमानत देते समय मानक शर्तें (स्टैंडर्ड कंडीशंस)

  • आरोपी को जब कभी भी पेश होने के लिए कहा जाए तो उसे जांच कार्यालय द्वारा पूछताछ के लिए खुद को पेश करना चाहिए।
  • आरोपी को प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) या परोक्ष (इंडिरेक्टली) रूप से मामले से संबंधित किसी भी व्यक्ति को, जो मामले के तथ्यों को जानता है, उसे प्रेरित करने, धमकी देने या वादा करने का प्रयास नहीं करना चाहिए, ताकि उसे अदालत या जांच अधिकारी के सामने तथ्य का खुलासा करने से रोका जा सके।
  • आरोपी को न्यायालय की पूर्व अनुमति से देश नहीं छोड़ना चाहिए।
  • कोई अन्य शर्त जो माननीय न्यायालय उचित समझे।

जमानत रद्द करना

सीआरपीसी की धारा 437 (5) के तहत, जिस अदालत ने जमानत दी है, वह कुछ शर्तों के तहत आवश्यक पाए जाने पर इसे रद्द कर सकती है। धारा 439 (2) के अनुसार, सत्र न्यायालय, उच्च न्यायालय, या सर्वोच्च न्यायालय, आरोपी को दी गई जमानत को स्वत: रद्द कर सकता है और आरोपी को हिरासत में स्थानांतरित कर सकता है। धारा 389 (2) के अनुसार, एक अपीलीय अदालत भी आरोपी की जमानत रद्द कर सकती है और आरोपी को गिरफ्तार कर हिरासत में भेजने का आदेश दे सकती है।

नए मामले

  1. रे: दिगेंद्र सरकार – सीआरपीसी की धारा 438 के तहत, अग्रिम जमानत के लिए आवेदन, प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ आई आर) दर्ज होने से पहले ही किया जाता है। इसलिए, प्रथम सूचना रिपोर्ट अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करने के लिए एक शर्त नहीं हो सकती है।
  2. सुरेश वासुदेव बनाम राज्य – धारा 438 (1) केवल गैर-जमानती अपराधों पर लागू होती है।
  3. सुशीला अग्रवाल बनाम राज्य – सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अग्रिम जमानत एक निश्चित अवधि के लिए नहीं होनी चाहिए, लेकिन अगर कोई विशेष शर्त आवश्यक हो तो अग्रिम जमानत के कार्यकाल को सीमित करने के लिए अदालत का दरवाज़ा खुला है।
  4. गुरबक्ष सिंह सिब्बिया और अन्य बनाम पंजाब राज्य – सर्वोच्च न्यायालय ने राय दी:
  • गिरफ्तारी से पहले अग्रिम जमानत देने की समय सीमा के संबंध में सीआरपीसी में कोई प्रावधान नहीं है।
  • संबंधित अदालत के पास आवश्यक विशेष परिस्थितियों पर विचार करने के अधीन, सीमित अवधि की सुरक्षा आदि सहित अग्रिम जमानत देने के लिए शर्तें लगाने का विवेकाधिकार (डिस्क्रिशन) है।

मौलिक अधिकार के रूप में अग्रिम जमानत

भारत के संविधान के तहत प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार है। अनुच्छेद 21 हमारे संविधान में निहित है। इस अनुच्छेद का उद्देश्य कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करना नहीं है। चूंकि कोई व्यक्ति अपने मामले को सलाखों के पीछे से मुकदमे के लिए तैयार नहीं कर सकता है, इसलिए कानून में जमानत का प्रावधान प्रदान किया जाता है, ताकि उनके मामले को हर संभव उपायों से लड़ने का उचित मौका दिया जा सके। इसके अलावा चूंकि एक आरोपी को दोषी साबित होने तक निर्दोष माना जाता है, किसी भी रूप में कैद व्यक्ति को बदनाम करता है और उसे अपने दैनिक मामलों में जाने से रोकता है। इसलिए ऐसी कठिनाइयों से बचने के लिए, एक व्यक्ति को अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करने का उपाय प्रदान किया जाता है।

खंड 4 को धारा 438 में आपराधिक संशोधन विधेयक (क्रिमिनल अमेंडमेंट बिल), 2018 के माध्यम से जोड़ा गया था। विधायिका ने धारा 438 के तहत चार खंड जोड़े। संशोधन के अनुसार, 16 साल से कम, 12 साल से कम, 16 साल से कम उम्र की महिला से सामूहिक बलात्कार और 12 साल से कम उम्र की महिला से सामूहिक बलात्कार उम्र की महिला से बलात्कार करने के अपराध के आरोपी व्यक्ति को अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती है। यह भारतीय दंड संहिता (बलात्कार की सजा) 1860 की धारा 376 (3), धारा 376 AB, धारा 376 DA और धारा 376 DB के तहत दंडनीय है। 

बलात्कार एक जघन्य अपराध है और दोषी को दंडित करने के लिए कानून के तहत सख्त प्रावधान होने चाहिए। हालाँकि, एक आरोपी और एक दोषी घोषित किए जाने के बीच अंतर है। एक मुकदमे के बाद एक आरोपी के बरी होने की उच्च संभावना है और इसलिए जमानत के अधिकार से इनकार करना पूरी तरह से न्याय की भावना के खिलाफ है। बलात्कार एक गंभीर अपराध है लेकिन आजकल लोग बदला लेने के लिए या किसी भी व्यक्ति को बदनाम करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, इसलिए बलात्कार के झूठे मामले दर्ज करने के मामले भी बढ़ रहे हैं। इसलिए, यह संशोधन अन्यायपूर्ण रूप से अग्रिम जमानत पाने के अधिकार को प्रतिबंधित करता है।

निष्कर्ष

धारा 438 को अधिनियमित करने का उद्देश्य किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना है। अग्रिम जमानत की आवश्यकता मुख्य रूप से तब उत्पन्न होती है जब किसी व्यक्ति के पास यह मानने का कारण होता है कि उसे गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है। अग्रिम जमानत किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित है और उनकी बेगुनाही मानती है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ की अगुवाई (लेड) वाली पांच जजों की सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य के मामले में कहा था कि धारा 438 (1) की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 21 के आलोक में की जानी है। जबकि न्यायालयों ने बार-बार व्यक्तियों की स्वतंत्रता को बनाए रखने और उन्हें मनमानी गिरफ्तारी से बचाने की आवश्यकता पर जोर दिया है, यह याद रखने की जरूरत है कि अग्रिम जमानत अन्य प्रकार की जमानत की तरह अधिकार का मामला नहीं है।

संदर्भ

 

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