विवाह विच्छेद अधिनियम 1869 के तहत संरक्षण आदेश

0
1743
Divorce Act 1869

यह लेख Mariya Masood Khan द्वारा लिखा गया है, जो एडवोकेट बालासाहेब आप्टे कॉलेज ऑफ़ लॉ मुंबई महाराष्ट्र में द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं और लॉसिखो से एडवांस्ड कॉन्ट्रैक्ट ड्राफ्टिंग, नेगोशिएशन एंड डिस्प्यूट रेजोल्यूशन में डिप्लोमा कर रही हैं। इसे Oshika Banerji (टीम लॉसिखो) द्वारा संपादित (एडिट) किया गया है। इस लेख में विवाह विच्छेद अधिनियम 1869 के तहत संरक्षण आदेश के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है। 

परिचय

संरक्षण आदेश विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 के अध्याय 6 (धारा 27, 28, 29, 30, 31) के तहत परिभाषित किए गए हैं। परित्यक्त (डेजर्टेड) पत्नी के हितों की रक्षा के लिए अदालत द्वारा संरक्षण आदेश दिए जाते हैं। अगर वह बिना किसी व्यवहार्य (फीजिबल) कारण के परित्यक्त हो जाती है, तो विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 27 के आधार पर, पत्नी अपने हितों की संरक्षण के लिए अदालत में जाने की स्वतंत्रता रखती है। अदालत से शरण लेने के लिए, बिना किसी उचित कारण के परित्याग होना चाहिए। एक बार परित्याग समाप्त हो जाने पर अदालत दिए गए आदेशों को खारिज कर सकती है। यह लेख एक संरक्षण आदेश की अवधारणा का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है जैसा कि 1869 के विवाह विच्छेद अधिनियम के तहत दिया गया है। 

संरक्षण आदेश क्या है

एक सामान्य अर्थ में, संरक्षण आदेश कानूनी निर्देश या अदालत द्वारा दिए गए आदेश हैं जो किसी व्यक्ति को किसी अन्य (पीड़ित व्यक्ति) या उसकी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाने का निर्देश देते हैं। विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 के तहत पति के खिलाफ परित्यक्त पत्नी की संपत्ति के संबंध में संरक्षण आदेश दिए जाते हैं।

भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 के तहत संरक्षण आदेशों से संबंधित प्रावधान

  1. धारा 27 (परित्यक्ता पत्नी संरक्षण के लिए न्यायालय में आवेदन कर सकती है):

एक परित्यक्त पत्नी अपने हितों की रक्षा के लिए परित्यक्त होने के बाद किसी भी समय किसी भी जिला अदालत में सक्षम अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) में जा सकती है। धारा 27 के तहत परित्यक्त पत्नियों में वे शामिल हैं जिन पर भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 की धारा 4 लागू नहीं होती (भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदुओं, मुस्लिम, बौद्ध, सिख और जैन पर लागू नहीं होता)।

2. धारा 28 (अदालत संरक्षण आदेश दे सकती है):

न्यायालय अपनी विवेकाधीन (डिस्क्रिशनरी) शक्ति का उपयोग करके संपत्ति के संबंध में संरक्षण आदेश प्रदान कर सकते हैं या नहीं भी कर सकते हैं। यदि न्यायालय संतुष्ट है या इस बात से सहमत है कि परित्याग अनुचित या बेतुके आधार पर और पत्नी की सहमति के बिना हुआ है, और पत्नी अपनी संपत्ति या किसी व्यवसाय या उद्योग या अपने पति की संपत्ति के उस हिस्से से अपना भरण-पोषण कर रही है जो पत्नी के हित में है या जिसका उसके पास अधिकार है, तो ऐसे आधार पर वह पत्नी को संरक्षण आदेश दे सकता है। इस तरह से दिए गए आदेश बीत चुके समय के लिए निर्णायक (कंक्लूसिव) होने चाहिए।

3. धारा 29 (आदेशों का निर्वहन (डिस्चार्ज) या परिवर्तन):

धारा 29 के तहत, जैसा कि अदालत के पास संरक्षण आदेश देने की विवेकाधीन शक्ति है, उसके पास किसी भी तर्क के आधार पर या पहले से वितरित संरक्षण आदेश में किसी भी बदलाव की आवश्यकता होने पर उसे खारिज करने की अतिरिक्त (एडिशनल) शक्ति है। जिन आधारों पर, मौजूदा आदेश का निर्वहन या परिवर्तन हो सकता है, उन्हें यहां सूचीबद्ध किया गया है:

  • यदि परित्याग खत्म हो चुका है और पति अपनी पत्नी के साथ फिर से एक हो चुका है और पत्नी के साथ अपने वैवाहिक दायित्वों को आगे बढ़ाने का आश्वासन देता है, या
  • पत्नी न्यायालय द्वारा दी गई संरक्षण का दुरुपयोग करती है, या
  • किसी अन्य उचित आधार के लिए।

4. धारा 30 (आदेश की सूचना के बाद पत्नी की संपत्ति को जब्त करने वाले पति का दायित्व):

यदि पति या उसके लेनदार या उसके अधीन दावा करने वाला कोई अन्य व्यक्ति अदालत के आदेशों के खिलाफ जाकर ऐसी संपत्ति को जब्त कर लेता है या रखता है, तो ऐसे मामलों में पत्नी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा दायर करने की हकदार है। विशिष्ट (स्पेसिफिक) संपत्ति पति द्वारा उचित स्थिति के तहत पत्नी को सौंपी या वापस की जाएगी और वह पत्नी को मुआवजे के रूप में एक राशि का भुगतान करने के लिए भी उत्तरदायी होगा, और मुआवजा ऐसी विशेष संपत्ति के मूल्य का दोगुना होगा।

5. धारा 31 (आदेश की निरंतरता (कंटिन्यूएंस) के दौरान पत्नी की कानूनी स्थिति):

यदि पत्नी को न्यायालय से संरक्षण आदेश प्राप्त होता है,

  • उसे उसके पति द्वारा उचित कारण के बिना परित्यक्त माना जाएगा,
  • वह सभी पदों के संबंध में संपत्ति पर उसका पूर्ण अधिकार होगा,
  • उसे संपत्ति के संबंध में समझौते में प्रवेश करने का अधिकार होगा,

इस तरह के अधिकार की रक्षा करने के लिए वह अन्य लोगों पर मुकदमा चलाने की स्थिति में होगी जो संपत्ति पर उसके अधिकार का उल्लंघन करते हैं और संरक्षण आदेश की निरंतरता के दौरान उस पर भी मुकदमा चलाया जा सकता है।

अनुचित कारण से किए गए परित्याग का क्या अर्थ है

भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 3(9) इसे परित्यक्त होने वाले व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध परित्याग के रूप में परिभाषित करती है। सावित्री बनाम प्रेम चंद्र पांडे (2002) में अदालत ने कहा कि “परित्याग” का अर्थ स्थायी रूप से त्यागने और दूसरे की सहमति के बिना एक साथी का अपने पति या पत्नी से व्यवहार्य कारण के बिना उसका परित्याग करने के इरादे से, वैवाहिक दायित्वों से पीछे हटना है न कि किसी स्थान से वापसी। दूसरे शब्दों में यह विवाह के दायित्वों का पूर्ण खंडन है।

का एर्सिलियन लिंगदोह बनाम यू कोर्डिंग राव सद (1986) के मामले में परित्याग की अनिवार्यता (एसेंशियल्स) निर्धारित की गई थी, जैसा कि यहां सूचीबद्ध किया गया है:

  1. एक पति या पत्नी का दूसरे से अलग होना;
  2. परित्याग करने वाले पति या पत्नी का बिना किसी उचित बहाने के वैवाहिक सहवास (कोहेबिटेशन) को समाप्त करने का इरादा।
  3. इन तथ्यों की अनुपस्थिति भी होनी चाहिए:
  • दूसरे पक्ष की सहमति; और
  • यथोचित आचरण जिससे परित्यक्त पति या पत्नी सहवास को समाप्त करने का इरादा बना लें।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 में कहा गया है कि परित्याग तब तक स्थापित नहीं किया जाएगा जब तक कि परित्याग की अवधि दो वर्ष से कम न हो। जब लगातार दो वर्षों तक एक पति या पत्नी दूसरे को छोड़ देता है, तो उसे परित्याग कहा जा सकता है। इसलिए परित्याग हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(b) के तहत विवाह विच्छेद के लिए एक वैध आधार है।

अनुचित कारण को समझने के लिए उसके अर्थ को समझना चाहिए। उचित कारण का मतलब है कि पक्ष विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 10 के तहत अदालत से वैवाहिक राहत का लाभ उठा सकता है। इसलिए, जब पति या पत्नी बेतुके आधार या अतार्किक कारण से दूसरे को छोड़ देते हैं, तो इसे परित्याग कहा जाता है। 

संरक्षण आदेशों के तहत संपत्ति का क्या मतलब है

विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 3(10) के तहत, पत्नी के मामले में संपत्ति में कोई भी ऐसी संपत्ति शामिल होती है, जिसके लिए वह शेष या प्रत्यावर्तन (रिवर्जन) या एक ट्रस्टी, निष्पादक (एग्जीक्यूट्रिक्स), या प्रशासक (एडमिनिस्ट्रेट्रिक्स) के रूप में संपत्ति की हकदार होती है। इस अधिनियम की धारा 27 के तहत, संपत्ति को स्पष्ट रूप से एक ऐसी संपत्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जिस पर एक पत्नी संरक्षण का अनुरोध कर सकती है, जो कि वह संपत्ति है जिसे उसने अर्जित किया है, या जिसे वह प्राप्त कर सकती है, या उसके कब्जे में है।

विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 के तहत किन न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र है

भारतीय विवाह विच्छेद (संशोधन) अधिनियम, 2001 के माध्यम से, उच्च न्यायालय के बोझ को कम करने के उद्देश्य से, उच्च न्यायालयों के बजाय जिला अदालतों पर अधिकार क्षेत्र का निवेश करने के लिए धारा 27 में संशोधन किया गया था। इसलिए, जिला अदालत के पास इस अधिनियम के तहत वैवाहिक विषय के मामलों में व्यापक अधिकार क्षेत्र है, जिससे उन्हें संपत्ति के संबंध में संरक्षणत्मक आदेश देने का अधिकार है। विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 3(3) के तहत, जिला अदालतों के पास ऐसी सभी याचिकाओं के मामले में अधिकार क्षेत्र है, जिसमें 1869 के अधिनियम के तहत संरक्षण आदेश देना शामिल है, जो इस प्रकार है:

  1. साधारण अधिकार क्षेत्र रखने वाले जिला न्यायाधीश के न्यायालय,
  2. जहां पति और पत्नी अपना विवाह संपन्न करते हैं या,
  3. जहां पति और पत्नी निवास करते हैं या उनके परित्याग से पहले अंतिम बार एक साथ रह चुके हैं।

घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 से महिलाओं की संरक्षण के लिए संरक्षण आदेश 

घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 में महिलाओं की संरक्षण के तहत, अदालतें संरक्षण आदेश देती हैं जो केवल उसके भौतिक अर्थ तक ही सीमित हैं। न्यायालय प्रतिवादियों (रिस्पॉन्डेंट) को पीड़ित पक्ष से संपर्क करने से रोक सकते हैं या प्रतिवादी को उस स्थान पर प्रवेश करने से रोक सकते हैं जहां पीड़ित पक्ष कार्यरत है या रह रहा है। 2005 के अधिनियम के तहत, पीड़ित पक्ष को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए, राज्य सरकार जिला स्तर पर एक संरक्षण अधिकारी नियुक्त करती है जो घरेलू हिंसा मामले के सभी आवश्यक पहलुओं को देखेगा।

न्यायिक घोषणाएं 

सुधन्या के.एन. बनाम उमाशंकर वलसन (2013) (केरल उच्च न्यायालय):

सुधन्या के.एन. बनाम उमाशंकर वलसन (2013), में याचिकाकर्ता (प्रतिवादी की पत्नी) ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत यह घोषित करने के लिए एक रिट याचिका दायर की कि एक व्यक्ति घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 18 और 19 के तहत राहत पाने के लिए परिवार न्यायालय में निषेध की रिट जारी कराके घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 26 को लागू करने का हकदार होगा। 

उपरोक्त मामले में, केरल उच्च न्यायालय ने कहा था कि एक पारिवारिक अदालत के पास धारा 28 के तहत अंतरिम आदेश और संरक्षण आदेश पारित करने का अधिकार क्षेत्र है, क्योंकि प्रावधान जिला अदालत को संरक्षण आदेशों की घोषणा करने की शक्ति देता है ताकि परित्यक्त पत्नी की संपत्ति की रक्षा की जा सके। 

रवि कुमार बनाम जुल्मी देवी (2010) (भारत का सर्वोच्च न्यायालय)

रवि कुमार बनाम जुल्मी देवी (2010) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि विवाह में अपने पति या पत्नी को छोड़ने का इरादा परित्याग के अस्तित्व को निर्धारित करने में सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। इस चर्चित मामले में दोनों पक्षों का विवाह हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार 13.12.1988 को हुआ था और मार्च 1990 में उनके यहां एक लड़की का जन्म हुआ। पति का आरोप है कि बच्ची के जन्म के बाद उसकी पत्नी गांव समलेट स्थित मायके चली गई और वहां काफी समय बिताया। ऐसा आगे आरोप था कि उसकी पत्नी, जो कार्यरत थी, गरली से छौकू में स्थानांतरित होने पर, अपने वैवाहिक घर के बजाय छौकू में रुकी थी, जो उसकी पोस्टिंग के स्थान से केवल 3 किमी की दूरी पर था। हालांकि, पति ने स्वीकार किया कि मई 1994 में उसकी पत्नी कुछ समय के लिए उसके घर आई और मई, 1994 तक उसके साथ रही। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को परित्याग का मामला निर्धारित किया था। 

निष्कर्ष

संरक्षण आदेश की अवधारणा एक कल्याणकारी (वेलफेयर) अवधारणा है जिसका उद्देश्य परित्यक्त महिलाओं के हितों को बढ़ावा देना है ताकि वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन जी सकें। इसलिए, इस लेख में इसे दिया गया महत्व महिलाओं को संरक्षण आदेशों के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता को सामने रखता है ताकि वे अपने कर्तव्यों को पहचानने के साथ-साथ जीवन जीने के विकल्पों का प्रयोग करने के लिए कानूनी रूप से सशक्त हों और उन्हें दी गई संरक्षण का दुरुपयोग न करें। 

संदर्भ 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here