प्लीडिंग्स: अकॉर्डिंग टू ऑर्डर 6 ऑफ कोड  ऑफ सिविल प्रोसीजर, 1908 (अभिवचन: (आदेश 6) सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत)

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1976
CPC 1902
Image Source-https://rb.gy/thhdva

इस लेख में, Yogesh Sharma, आदेश 6 नियम 17 के तहत अभिवचनों (प्लीडिंग्स) के संशोधनों पर चर्चा करते हैं। इस लेख को Divyansha Saluja द्वारा अनुवादित किया गया है।

Table of Contents

अभिवचन क्या होते है (व्हाट आर प्लीडिंग्स)?

अभिवचनों (प्लीडिंग्स) के संशोधन (अमेंडमेंट) को समझने से पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि अभिवचन क्या होते हैं और इसके क्या नियम होते है। अभिवचन वे बयान (स्टेटमेंट) हैं जो हर दीवानी वाद (सिविल सूट) का मुख्य सहारा है। अभिवचन न होने पर कोई सविनय वाद अस्तित्व में नहीं आ सकता। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (कोड  ऑफ सिविल प्रोसीजर,1908) के आदेश 6 नियम 1 ( ऑर्डर 6 रूल 1) के तहत अभिवचन को परिभाषित किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि अभिवचन एक वाद पत्र (प्लेंट) या एक लिखित कथन/बयान  है। वादी अपने दावे को साबित करने के लिए एक सविनय न्यायालय (सिविल कोर्ट) में वादपत्र के द्वारा अपना बयान दायर करता है जबकि लिखित  कथन, सी पी सी के आदेश 8 नियम 1 में परिभाषित किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि प्रतिवादी को समन जारी होने की तारीख से 30 दिनों तक के समय अंतराल (टाइम लिमिट) में लिखित बयान दर्ज करना चाहिए। प्रतिवादी द्वारा अपने बचाव के लिए लिखित बयान न्यायालय में दाखिल किए जाते हैं। वाद पत्र को सी.पी.सी में  कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया, लेकिन इसे वादी के अभिवचन भी कहा जा सकता है, जिसके कारण ही न्यायालय में एक सविनय वाद शुरू होता है। अभिवचनों का प्रलेख (ड्राफ्ट) ठीक तरीके से किया जाना चाहिए और इसमें कोई अस्पष्ट या स्पष्ट बयान (वेग एंड अनएंबीगुआस) नहीं होना चाहिए। अभिवचन वे भौतिक तथ्य (मेटेरियल फैक्ट) हैं जो वादी को, कार्रवाई के कारण (कॉज़ ऑफ एक्शन) को परिभाषित करने में मदद करते हैं और प्रतिवादी (डिफेंडेंट) को सविनय वाद में अपना बचाव (डिफेन्स) स्थापित करने में मदद करता है।

अभिवचनों का प्रलेख तैयार करते समय किन नियमों का पालन किया जाना चाहिए (व्हाट रूल्स टू बी फॉलोड वाइल ड्राफ्टिंग प्लीडिंग्स)?

  1. अभिवचन में तथ्य (फैक्ट) शामिल होने चाहिए लेकिन अभिवचन में कोई की विधि (लॉ) लिखित नहीं होना चाहिए। अभिवचनों में बताए गए तथ्य के आधार पर कानून को लागू करने की शक्ति केवल न्यायालय के पास ही है। गौरी दत्त गणेश लाल फर्म बनाम माधो प्रसाद के मामले में, माननीय न्यायालय ने  यह कहा कि वादों को चार शब्दों में परिभाषित किया जाना चाहिए – “अभिवादन तथ्य, कानून नहीं (प्लीड फैक्ट, नाट लो)”।
  2. अभिवचनों में भौतिक तथ्य होने चाहिए। पक्षकारों को अभिवचनों में सारहीन या अप्रासंगिक तथ्यों (इमैटेरियल एंड इररिलेवेंट) के प्रयोग से बचना चाहिए। वीरेंद्र नाथ बनाम सतपाल सिंह  के मामले में, न्यायालय ने यह है कहा कि भौतिक तथ्य वे तथ्य शामिल होते हैं जो वादी (प्लेंटिफ) को अपनी कार्रवाई के कारण को परिभाषित करने में और प्रतिवादी को अपना बचाव मजबूत करने में मदद करते हैं।
  3. पक्षकारों को अभिवचनों में साक्ष्य (एविडेंस) नहीं शामिल करने चाहिए जिनसे तथ्य सिद्ध (प्रूव) किए जा सकते हैं।
  4. अभिवचनों में भौतिक तथ्य संक्षिप्त (ब्रिफ) रूप में होने चाहिए। पक्षकारों को वादपत्र का प्रलेख तैयार करते समय अप्रासंगिक या सारहीन बयानों का उपयोग करने से बचना चाहिए।

आदेश VI नियम 17 सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (ऑर्डर VI रूल 17 ऑफ़ सिविल प्रोसीजर कोड, 1908)

17.अभिवचनों में संशोधन (अमेंडमेंट इन प्लीडिंगज़) – न्यायालय कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी पक्ष को अपने अभिवचनों को इस तरह से और ऐसी शर्तों पर बदलने या संशोधित करने की अनुमति दे सकता है, और ऐसे कोई भी संशोधन किए जा सकते हैं जो दोनों पक्षों के बीच असली विवाद को निर्धारित करने के उद्देश्य के लिए आवश्यक हो सकते हैं। 

बशर्ते कि, न्यायालय में मुकदमा शुरू होने के बाद संशोधन के लिए किसी को भी आवेदन (एप्लीकेशन) की अनुमति नहीं दी जाएगी, जब तक कि अदालत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती कि उचित परिश्रम (ड्यू  डिलिजेंस) के बावजूद ही, पक्ष परीक्षण शुरू होने से पहले मामले को नहीं उठा सकता था। ”

दीवानी वाद के अभिवचन के किस चरण में संशोधन किया जा सकता है (इन व्हिच स्टेज ऑफ सिविल सूट प्लीडिंग्स कैन बी अमेंडेड)?

अभिवचनों के संशोधन से संबंधित प्रावधान (प्रोविजन), दीवानी न्यायालय को पक्षकारों को, कार्यवाही के किसी भी चरण में अभिवचनों को बदलने, संशोधित करने या संशोधित करने की अनुमति देता है। अभिवचनों में संशोधन का प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 नियम 17 में लिखा हुआ है। लेकिन  न्यायालय संशोधन की अनुमति तभी देती है जब  दोनों पक्ष के बीच के विवाद को निर्धारित करने के लिए यह संशोधन आवश्यक हो। इस प्रावधान का उद्देश्य न्याय को बढ़ावा देना है न कि कानून को हराना।

आदेश 6 नियम 17  के प्रावधान में कहा यह गया है कि, परीक्षण शुरू शुरू होने के बाद, अदालत तब तक संशोधन के आवेदन की अनुमति नहीं देगी, जब तक कि अदालत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती है कि उस पक्ष ने परीक्षण शुरू होने से पहले प्रासंगिक तथ्यों को नहीं उठाया। यह प्रावधान अदालत को सुनवाई शुरू होने के बाद याचिकाओं के आवेदन पर निर्णय लेने के लिए विवेकाधीन शक्ति (डिस्क्रीशनरी पावर) देता है। अभिवचनों में संशोधन के लिए आवेदन करने के लिए वाद को संस्थापन आवश्यक है।

यह प्रावधान सिविल प्रक्रिया (संशोधन) संहिता, 1999 ( कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर (अमेंडमेंट), 1999) द्वारा हटा दिया गया था, और यह इसलिए किया गया था ताकि नागरिक संहिता में नए परिवर्तनों में निरंतरता (कंसिस्टेंसी) सुनिश्चित की जा सके। लेकिन बाद में, इसे सिविल प्रक्रिया (संशोधन) संहिता, 2000 (कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर (अमेंडमेंट), 2000) द्वारा पुन: स्थापित कर दिया गया। इस संशोधन ने अदालत को कुछ पाबंदी (लिमिटेशन) के साथ अभिवचनों के आवेदन की अनुमति देने की शक्ति दी थी।

गुरदयाल सिंह बनाम राज कुमार अनेजा के मामले में, अदालत ने यह कहा था कि कोई भी व्यक्ति जो याचिका में संशोधन के लिए आवेदन कर रहा है, उसे यह बताना चाहिए कि मूल याचिकाओं (ओरिजिनल प्लीडिंग) में क्या बदलाव (अल्टरेशन), संशोधन या परिवर्तन (मॉडिफिकेशन) किया जाना चाहिए।

राजेश कुमार अग्रवाल एवं अन्य बनाम के.के. मोदी और अन्य, अदालत ने कहा कि अभीवचनों के संशोधन में दो भाग शामिल होते हैं:

पहले भाग यह है कि, शब्द ‘मे’ न्यायालय को अभिवचनों के आवेदन की अनुमति देने या अस्वीकार करने के लिए विवेकाधीन शक्ति देता है।

दूसरे भाग यह है कि,शब्द ‘करेगा (शैल)’ दीवानी न्यायालय को वादों के आवेदन की अनुमति देने के लिए अनिवार्य निर्देश (ऑब्लिगेटरी डायरेक्शन) देता है, कि यदि यह संशोधन दोनों पक्षों के बीच विवाद में वास्तविक प्रश्नों को निर्धारित करने के उद्देश्य से आवश्यक है।

न्यायालय अभिवचनों में संशोधन की अनुमति क्यों देता है (व्हाई कोर्ट अलाउज़ अमेंडमेंट ऑफ प्लीडिंग्स)?

याचिका में संशोधन के लिए आवेदन की अनुमति देने के लिए अदालत का प्राथमिक उद्देश्य न्याय के अंत को सुरक्षित करना होता है और अन्य पक्षों के साथ अन्याय को रोकना होता है। साथ ही, यह संशोधन पक्षों के बीच विवाद में वास्तविक प्रश्नों के निर्धारण के उद्देश्य  के लिए आवश्यक  होता है। अभिवचनों के संशोधन से पक्षकारों को अभिवचनों में अपनी गलतियों को सुधारने के लिए सहायता मिलती है। क्रॉपर बनाम स्मिथ के मामले में, अदालत ने यह कहा था कि अभिवचनों में संशोधन के पीछे का उद्देश्य, पक्षों के अधिकारों की रक्षा करना होता है न कि उनके द्वारा अभिवचन में की गई गलती के लिए उन्हें दंडित करना।

अभिवचनों में क्या संशोधन किया जा सकता है (व्हाट कैन बी अमेंडेड इन प्लीडिंग्स)?

  1. वादी द्वारा दायर किया गया वाद पत्र 
  2. प्रतिवादी द्वारा दायर लिया गया लिखित बयान

अभिवचनों के संशोधन में वापस संबंध के सिद्धांत का महत्व (इंपॉर्टेंस ऑफ डॉक्ट्रिन ऑफ़ रिलेशन बैक इन अमेंडमेंट ऑफ प्लीडिंग्स)

जब अदालत अभिवचनों के संशोधन के आवेदन की अनुमति दे देती है तो यह मुकदमे की तारीख से संबंधित होती है। लेकिन संपत कुमार बनाम अय्याकन्नू के मामले में, अदालत ने कहा कि कुछ विशेष मामलों में, अदालत यह निर्देश दे सकती है कि अभिवचनों में संशोधन का संबंध मुकदमे की तारीख से नहीं होगा।

अभिवचनों के संशोधन को कब मंजूर किया जाता है (अमेंडमेंट ऑफ प्लीडिंग्स व्हेन ग्रांटेड)

किशन दास विठोबा स्नातक के मामले में, अदालत ने यह कहा कि याचिकाओं में संशोधन के लिए अनुमति (लीव) देने से पहले दो आवश्यक शर्तों को पूरा करना होगा:

  1. अनुमति के इस अनुदान (ग्रांट) से दूसरे पक्ष के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए।
  2. पक्षकारों के बीच विवाद के वास्तविक प्रश्न (रियल क्वेश्चन ऑफ कॉन्ट्रोवर्सी) को निर्धारित करने के लिए अभिवचनों का यह संशोधन आवश्यक है।

राजकुमार गुरवारा (मृत), एल.रु. बनाम एस.के. सरवागी के द्वारा एंड कंपनी प्रा.लिमिटेड. और अन्य, के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ शर्तों को बताया जब अभिवचनों में संशोधन की अनुमति दी जा सकती है, वह शर्तें हैं:

  • यदि अभिवचनों में संशोधन के लिए आवेदन की अनुमति देकर मामला प्राकृतिक रूप से बदल जाए,
  • यदि संशोधन के आवेदन की अनुमति देकर कार्रवाई का एक नया कारण उत्पन्न हो जाए, या
  • यदि अभिवचनों के संशोधन, परिसीमा अधिनियम (लॉस ऑफ लिमिटेशन) के कानूनों को पराभूत (डिफीट) कर देते हैं।

अन्य स्थितियां जहां पर अभिवचनों के संशोधन को स्वीकृति दी जा सकती है: 

  • जब वादों की बहुलता (मल्टीपलीसिटी) से बचने के लिए संशोधन का आवेदन दायर किया जाता है।
  • जब वाद में पक्षकारों या लिखित कथनों का गलत वर्णन किया गया हो, या
  • जब वादी वाद पत्र में कुछ गुण जोड़ने से चूक जाता है।

अभिवचनों में संशोधन की अस्वीकृति कब दी जा सकती है (अमेन्ड्मन्ट ऑफ प्लीडिंग्स व्हेन रिफ्यूज़्ड)

  1. जब पार्टियों के बीच विवाद के वास्तविक प्रश्न को निर्धारित करने के लिए यह संशोधन आवश्यक नहीं  होता है, तो अभिवचनों के संशोधन के आवेदन को अदालत द्वारा खारिज कर दिया जाता है।
  2. अभिवचनों में संशोधन के आवेदन को तब खारिज कर दिया जाता है जब यह बिल्कुल एक नए मामले की शुरूआत की ओर ले जाता हो। मोदी स्पिनिंग एंड वीविंग मिल्स बनाम लधा राम एंड संस, के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि “प्रतिवादी को लिखित बयान के कुछ प्रकरण (पैराग्राफ) में लिखें गए मामले में पूरी तरह से परिवर्तन करने और पुराने मामले को पूरी तरह से अलग और नए मामले में बदलने की अनुमति नहीं दी जा सकती है”।
  3. जब वादी या प्रतिवादी लापरवाह (नेगलिजेंट) होते हैं।
  4. जब प्रस्तावित (प्रपोज़्ड) परिवर्तन या संशोधन अन्यायपूर्ण हो।
  5. अभिवचनों के संशोधन के आवेदन को तब अस्वीकार कर दिया जाता है, जब यह कानूनी अधिकारों का उल्लंघन (वॉयलेट) करता है या दूसरे पक्ष के साथ अन्याय करता है, या
  6. जब यह संशोधन मामले को अनावश्यक जटिलताओं (कॉम्प्लिकेशंस) की ओर ले जाता है तो संशोधन की अनुमति देने से इनकार कर दिया जा सकता है।
  7. जब पक्षकारों द्वारा वाद दायर (फाइल) करने में अत्यधिक विलम्ब (एक्सेसिव डिले) किया गया हो तो उस स्थिति में संशोधन की अनुमति अस्वीकार कर दी जाती है।
  8. संशोधन के आवेदन को अस्वीकार कर दिया जाता है जब वह विवादों के प्राकृतिक रूप को बदल देता है। 
  9. अदालत अभिवचनों में संशोधन के आवेदन को मंजूरी नहीं देगी, अगर यह दुर्भावनापूर्ण इरादे (मलाफाईड इंटेंशन) से किया गया है।
  10. जहां पक्षकारों को अभिवचनों में संशोधन के लिए आवेदन करने के अनेक अवसर दिए जाते हैं। लेकिन वे आवेदन करने में विफल (फेल) हो जाते हैं।

अभिवचनों के संशोधन के लिए आवेदन दाखिल करने की चरण-दर-चरण प्रक्रिया (स्टेप बाय स्टेप प्रोसीजर फॉर फाइलिंग ऐन एप्लीकेशन फॉर अमेंडमेंट ऑफ प्लीडिंग्स)

चरण 1 – सबसे पहले वादी या प्रतिवादी जो अपनी अपने अभिवचनों में संशोधन करना चाहता है, वह संबंधित दीवानी न्यायालय में अभिवचनों के संशोधन के लिए एक आवेदन पत्र लिख सकता है।

चरण 2 – आवेदन का प्रालेख तैयार करने के बाद आवेदक ( एप्लीकेंट) को संबंधित सिविल जज के समक्ष आवेदन प्रस्तुत करना होगा। 

चरण 3 – उसे न्यायालय शुल्क अधिनियम, 1870 (कोर्ट फीस एक्ट, 1870) के तहत आवश्यक कोर्ट फीस का भुगतान करना जरूरी होता है।

चरण 4- आवेदक को अपने आवेदन में परिवर्तन का उद्देश्य बताना होगा।

चरण 5 – न्यायाधीश आवेदन को पढ़ेंगे और यदि वह उचित समझता है कि यह परिवर्तन या संशोधन पक्षों के बीच विवाद में वास्तविक प्रश्नों के निर्धारण के उद्देश्य से आवश्यक है तो वह अभिवचन के लिए संशोधन की अनुमति देंगे।

चरण 6 – न्यायालय से आदेश प्राप्त करने के बाद, आवेदक को निर्धारित समय (प्रेस्क्राइब्ड टाइम) के भीतर नई याचिका दायर करने की आवश्यकता होती है और यदि अदालत द्वारा कोई समय निर्धारित नहीं किया गया हो तो उसे आदेश की तारीख से 14 दिनों में इसे दाखिल करना होगा।

चरण 7 – उसे विपरीत पक्ष को बदले हुए अभिवचनों का एक प्रतिरूप भी देना होगा। 

यदि परिसीमन अधिनियम द्वारा वाद को विवर्जित किया जाता है तो क्या अभिवचनों में संशोधन किया जा सकता है? (कैन द प्लीडिंग्स बी अमेंडेड इफ द सूट इज डीबार्ड् बाय द लिमिटेशन एक्ट)

  1. एलजे लीच एंड कंपनी लिमिटेड बनाम जार्डिन स्किनर एंड कंपनी, के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि अदालत अभिवचनों में संशोधन के आवेदन को अस्वीकार कर सकती है यदि इसे परिसीमन अधिनियम द्वारा प्रतिबंधित (डीबार्ड्) किया गया है। लेकिन अदालत के पास इस आवेदन को न्याय के लक्ष्य को सुरक्षित करने की अनुमति देने की विवेकाधीन शक्ति है। परिसीमा आवेदन को खारिज करने का आधार हो सकती है लेकिन अदालत अनुमति दे सकती है अगर अदालत को लगता है कि संशोधन मामले के लिए आवश्यक है।
  2. दक्षिण कोंकण डिस्टिलरीज और एनआर बनाम प्रभाकर गजानन नाइक और अन्य के मामले में, अदालत ने यह कहा कि, यह तय सिद्धांत है कि अदालत संशोधन के आवेदन को अस्वीकार कर सकती है यदि आवेदन दाखिल करने की तिथि पर इसे परिसीमा से रोक दिया गया हो। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अदालत आवेदन के लिए अनुदान (ग्रांट ऑफ एप्लीकेशन) का आदेश नहीं दे सकती। न्याय के हित (इंटरेस्ट ऑफ जस्टिस) को सुरक्षित करने के लिए, न्यायालय के पास अभिवचन में संशोधन के आवेदन की अनुमति देने की विवेकाधीन शक्ति है।
  3. पंकजा और एनआर बनाम येलप्पा (डी) एल आर और अन्य, के मामले में, अदालत ने यह कहा था कि, ऐसा कोई तय सिद्धांत नहीं है जो कहता हो कि अदालत संशोधन के आवेदन को अस्वीकार कर सकती है क्योंकि वह आवेदन दाखिल करने की तारीख पर ही आवेदन परिसीमा अधिनियम द्वारा वर्जित हो चुका था। अदालत ने कहा कि आवेदन की अनुमति देने या न देने का विवेक मामले की तथ्यात्मक पृष्ठभूमि (फैक्चूअल बैकग्राउंड) पर निर्भर करता है। यदि मामले के तथ्य और परिस्थिति स्पष्ट रूप से यह स्थापित करते हैं कि, कार्रवाई का कारण निर्धारित करने और आगे  की मुकदमेबाजी (लिटिगेशन) से बचने के लिए यह संशोधन आवश्यक है तो अदालत को इस आवेदन को अनुमति देनी चाहिए।
  4. रागु थिलक डी. जॉन बनाम एस. रायप्पन के मामले में, अदालत ने यह कहा कि, यह विवादित तथ्य है कि संशोधन के आवेदन की अनुमति देनी चाहिए या नहीं, जब इसे परिसीमा से वर्जित कर दिया गया हो। लेकिन कई मामलों में परिसीमा के मुद्दे को वाद में मुद्दा बना दिया जाता है, तो फिर उन मामलों संशोधन के आवेदन की अनुमति  दे दी जाती है  ताकि मामले का निपटारा (डिस्पोजल) जल्दी हो जाए।
  5. विश्वंभर बनाम लक्ष्मीनारायण के मामले में, अदालत ने माना कि याचिका में संशोधन के लिए आवेदन, आवेदन भरने की तारीख से संबंधित होता है न कि मुकदमा दायर करने की तारीख से।

आदेश 6 नियम 17 की आलोचना क्यों की जाती है? (व्हाई ऑर्डर 6 रूल 17 इज़ बिन क्रिटिसाइज्ड)

  • संशोधनों के आवेदन से न्याय में देरी (डिले इन जस्टिस) होती है। “जस्टिस, कोर्ट्स एंड डिलेस” नामक पुस्तक के वरिष्ठ वकील-लेखक अरुण मोहन ने अपनी पुस्तक में बताया कि संशोधन के लिए लगभग 80% आवेदन, कार्यवाही में देरी के एकमात्र उद्देश्य से दायर किए जाते हैं।
  • भारतीय अदालतों के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक मुकदमों से बोझिल (बैक्लॉग) होना है। दीवानी अदालत पहले से ही बहुत से मामलों से बोझिल है और अभिवचनों में संशोधन से दीवानी अदालतों पर अधिक बोझ पड़ता है।
  • आदेश 6 नियम 17 सर्वाधिक दुरूपयोग (मोस्ट मिस्यूज़ड) वाला कानून है।
  • मामले के त्वरित निस्तारण (स्पीडी डिस्पोजल) में यह बाधा है।
  • इसमें दूसरे पक्ष के कानूनी अधिकारों के उल्लंघन की अधिक संभावनाएं होती हैं।
  • कभी-कभी पार्टियों के बीच विवाद के असली सवाल का पता लगाना मुश्किल हो जाता है।
  • कार्यवाही में संशोधन और सीमा के बीच विवाद अभी भी सुलझा नहीं है। अलग-अलग मामलों में, इस नियम की अलग-अलग व्याख्याएँ दी गई हैं।
  • कई आवेदक दुर्भावनापूर्ण इरादे से संशोधन के लिए आवेदन दाखिल करते हैं। दीवानी न्यायालय के लिए पार्टियों के दुर्भावनापूर्ण इरादे को स्थापित करना आसान नहीं होता।

क्या होता है जब कोई आवेदक निर्धारित समय में संशोधन करने में विफल रहता है? (व्हाट हैपन व्हेन एन एप्लीकेंट  फेलस टू अमेंड इन ए प्रीस्क्राइब्ड टाइम)

प्रावधान : आदेश VI नियम 18 सिविल प्रक्रिया (प्रोविजन: ऑर्डर VI रूल 18 सिविल प्रोसीजर)

  1. आदेश के बाद संशोधन करने में विफलता (फेल्यर टू अमेंड आफ्टर ऑर्डर): यदि कोई पक्ष, जिसने संशोधन के लिए आदेश प्राप्त किया है, और वह आदेश द्वारा उस उद्देश्य के लिए सीमित समय के भीतर तदनुसार संशोधन नहीं करता है, या यदि कोई समय सीमित नहीं है तो आदेश की तारीख से 14 दिनों के भीतर , उसे पूर्वोक्त ऐसे सीमित समय की समाप्ति के बाद या ऐसे 14 दिन, जैसा भी मामला हो, की समाप्ति के बाद संशोधन करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, जब तक कि समय न्यायालय द्वारा बढ़ाया न जाए।

आदेश VI नियम 18 में कहा गया है कि जब किसी पक्ष के पास संशोधन के लिए आवेदन था और इसे अदालत द्वारा आदेश के माध्यम से अनुमति दी जाती है। लेकिन पार्टी आदेश में निर्धारित समय के भीतर इसमें संशोधन नहीं करती है या यदि कोई समय निर्धारित नहीं है, तो आदेश जारी होने के 14 दिनों के भीतर पार्टी को संशोधन करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

अभिवचन हर दीवानी वाद में महत्वपूर्ण होती हैं। अभिवचन, वादपत्र या लिखित विवरण के रूप में हो सकते हैं। अभिवचनों में संशोधन का अर्थ है न्यायालय में आवेदन द्वारा मूल अभिवचनों में परिवर्तन, संशोधन और बदलाव। वादों की बहुलता से बचने के लिए, न्यायालय अभिवचनों में संशोधन के आवेदन की अनुमति देता है। लेकिन यह सच है कि अभिवचनों में संशोधन न्याय में देरी का एक बड़ा कारण है। अदालत को एक संशोधन के लिए आवेदनों की अनुमति देनी चाहिए जो सद्भाव (गुड फेथ) में किए गए जाते हैं और पार्टियों के बीच विवाद के वास्तविक प्रश्न को निर्धारित करते हैं। अदालत को ऐसे आवेदन की अनुमति नहीं देनी चाहिए जो दुर्भावनापूर्ण इरादे से या कार्यवाही में देरी के लिए किए गए हो। अभिवचनों  में संशोधन वादों में गलतियों को सुधारने के लिए एक अच्छा कानून है लेकिन इसे उचित सावधानी और परिश्रम के साथ अनुमति दी जानी चाहिए।

संदर्भ (रेफरेंसेंस)

  • Nichhalbhai Vallabhai V. Jaswantlal Zinabhai, AIR 1966 SC 997
  • AIR 1943 PC 147: 209 IC 192.
  • (2007) 3 SCC 617: AIR 2007 SC 581
  • Order VI, Rule 17 Code of Civil Procedure, 1908
  • AIR 2002 SC 1003 (1010) :(2002) 2 SCC 445.
  • (2006) 4 SCC 385
  • AIR 2002 SC 3369(3372)
  • (1976) 4 SCC 320(321): AIR 1977 SC 680.
  • AIR 1957 SC 357
  • (2008) 14 SCC 632
  • AIR 2004 SC 4102
  • (2001) 2 SCC 472
  • (2001) 6 SCC 163

 

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