एनालिसिस ऑफ सेक्शन 377 ऑफ़ इंडियन पीनल कोड,1860 (भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 377 का विश्लेषण)

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Indian Penal Code 1860
Image Source- https://rb.gy/iuj3ri

इस ब्लॉगपोस्ट में, आरजीएनयूएल, पंजाब की छात्र Rajnandini Mahajan ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 का आलोचनात्मक (क्रिटिकली)विश्लेषण किया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

भारतीय दंड संहिता की धारा 377 अप्राकृतिक अपराधों (अननेचरल ऑफेंस) से संबंधित है। यह अप्राकृतिक अपराधों के रूप में – कोई भी  अपनी इच्छा से किसी भी पुरुष, महिला या जानवर के साथ प्रकृति के आदेश के खिलाफ शारीरिक संभोग (कार्नल इंटरकोर्स) करता है, उसे आजीवन कारावास, या किसी एक ठराविक अवधि और समय के लिए कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसे दस साल तक बढ़ाया जा सकता है, और जुर्माना के लिए भी उत्तरदायी होगा।

स्पष्टीकरण (एक्सप्लेनेशन) – प्रवेश (पेनिट्रेशन) इस धारा में वर्णित अपराध के लिए आवश्यक शारीरिक संभोग का गठन करने के लिए पर्याप्त है।

इस खंड (क्लॉज़) की शाब्दिक व्याख्या (लिटरल इंटरप्रेटेशन) का अर्थ है कि यह पशुता (बेस्टियालिट), पीडोफिलिया, यौन शोषण (सेक्सुअल अब्यूज) और समलैंगिकता (होमोसेक्सुअलिटी) को दंडनीय बनाता है। संक्षेप में, यह विषमलैंगिक लिंग-योनि (हेट्रोसेक्सुअल पेनाइल-वजाइनल) संभोग को छोड़कर हर तरह के संभोग को प्रतिबंधित (प्रोहीबिट) करता है। इसके अलावा, ऐसे मामलों में व्यक्तियों की सहमति महत्वहीन है। इस खंड ने पिछले एक दशक में बहुत सारे विवादों को आकर्षित किया है और समलैंगिकता को अपराध से मुक्त (डिक्रिमिनलाइज) करने की मांग बढ़ती जा रही है। इस कारण के लिए पहली याचिका (पेटिशन)1994 में एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन द्वारा दायर की गई थी।

नाज़ फाउंडेशन बनाम एन. सी. टी. दिल्ली (2009)

इस मामले में 2001 में, एचआईवी/एड्स को रोकने  के लिए काम कर रहे एक गैर सरकारी संगठन (नॉन गवर्नमेंटल ऑर्गेनाइजेशन), नाज़ फाउंडेशन ने उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका  दायर की जिसमें धारा 377 में अपराध की गई यौन गतिविधियों को इस हद तक अपराध से मुक्त करने की मांग की गई कि दो समझदार वयस्कों (सेन अडल्ट) के बीच सहमति से यौन संबंध को इसके दायरे में नहीं लाया जाना चाहिए। याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि याचिकाकर्ताओं (पेटिशनर) का इस मामले में कोई अधिकार नहीं है। नाज़ फाउंडेशन ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक अपील की, जिसने उनकी दलील (कंटेन्शन)को स्वीकार कर लिया और दिल्ली हाई कोर्ट को उनकी याचिका को स्वीकार करने का आदेश दिया जो एक जनहित का मुकदमा था।

याचिकाकर्ताओं की दलील (आर्गुमेंट बाय द पेटिशनर)

याचिकाकर्ताओं, नाज़ फाउंडेशन ट्रस्ट ने तर्क दिया कि धारा की वर्तमान स्थिति ने एलजीबीटी समुदाय को कोठरी (क्लोसेट) से बाहर आने और एचआईवी / एड्स के खिलाफ उपचार (रेमेडीज) का लाभ उठाने के लिए निरुत्साहित  (डिस्कोरेज) किया। इसने आगे तर्क दिया कि यह प्रकृति में भेदभावपूर्ण (डिस्क्रिमिनेटरी) है और यौन अभिविन्यास (ओरिएंटेशन) के आधार पर मनमाने ढंग से वर्गीकृत (क्लासिफाई आर्बिट्रारिली) करता है। उन्होंने यह भी बताया कि धारा 377 जो ‘प्रकृति के आदेश’ के खिलाफ यौन कृत्यों को अपराधी बनाती है, पारंपरिक यहूदी-ईसाई नैतिक मानकों (ट्रेडिशनल जुडेओ-क्रिस्टियन मोरल स्टैंडर्ड) पर आधारित है जो समलैंगिकों का दुरुपयोग करते हैं। धारा 377 पुलिस द्वारा एलजीबीटी समुदाय के उत्पीड़न (हैरेसमेंट), जबरन यौन संबंध और दुर्व्यवहार की ओर ले जाती है।

दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला (जजमेंट ऑफ़ द देल्ही हाई कोर्ट)

2009 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने नाज़ फाउंडेशन बनाम एनसीटी दिल्ली सरकार में धारा को असंवैधानिक (अनकंस्टीट्यूशनल) और अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 के उल्लंघन के रूप में खारिज कर दिया। अदालत ने व्यापक (ब्रॉडली) रूप से तर्कपूर्ण (रीजन्ड) निर्णय दिया जहां उसने कहा कि समलैंगिकता को अपराधी बनाना प्रजननात्मक (प्रोक्रिएटिव) संभोग और गैर-प्रजनन (नॉन प्रोक्रिएटिव) संभोग के बीच एक मनमाना भेद करता है। इस प्रकार अनुच्छेद 14 में निहित समानता के अधिकार की भावना के खिलाफ है। इसने आगे कहा कि यह निजता के अधिकार (राइट टू प्राइवेसी) का वॉयलेशन है और प्रकृति में भेदभावपूर्ण है। निर्णय पर पहुंचने में, उच्च न्यायालय ने विदेशी निर्णयों, विभिन्न सिद्धांतों (प्रिंसिपल) और दुनिया भर के साहित्य (लिटरेचर) सहित कई दस्तावेजों (डॉक्यूमेंट्स) पर भरोसा किया, जिसमें योग्याकार्ता सिद्धांतों को व्यापक रूप से कामुकता और यौन अभिविन्यास का अध्ययन करने के लिए शामिल किया गया था। इसने समलैंगिकता के संबंध में वैश्विक रुझानों (ग्लोबल ट्रेंड्स) को भी ध्यान में रखा। यह देखा गया कि “समलैंगिकता का अपराधीकरण (क्रिमिनलाइजेशन) समाज के एक बड़े वर्ग की निंदा करता है और उन्हें कानून प्रवर्तन तंत्र (लॉ एनफोर्समेंट मशीनरी) के हाथों उत्पीड़न, शोषण (एक्सप्लॉयटेशन), अपमान, क्रूर और अपमानजनक व्यवहार (डिग्रेडिंग ट्रीटमेंट) की छाया में अपना जीवन जीने के लिए मजबूर करता है।”

इस फैसले की घोषणा के बाद समाज के कई वर्ग खुश हुए, वहीं दूसरी ओर इसने कई सामाजिक संगठनों (सोशियल ऑर्गेनाइजेशन) ने क्रोध को भी आमंत्रित किया। नतीजतन (कंसीक्वेंटली), कई नागरिकों और सामाजिक संगठनों द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ विशेष अनुमति याचिकाएं [(स्पेशल लिव पेटिशन) (एस एल पी)] दायर की गईं।

सुरेश कौशल और अन्य बनाम नाज़ फाउंडेशन

कोर्ट ने इस मामले में एसएलपी को लिया और 2013 में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया। समलैंगिकता को फिर से अपराधी बना दिया गया। निर्णय पर पहुंचने में सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति सिंघवी द्वारा दर्ज किए गए कारण हैं:

  • जहां तक ​​संसद (पार्लियामेंट) द्वारा पारित कानून का संबंध है, संवैधानिकता (कंस्टीट्यूशनलिटी) का अनुमान (प्रिजंप्शन) है। आजादी के बाद भारतीय दंड संहिता में कई बार संशोधन (अमेंडमेंट) किया गया। हालांकि, धारा 377 अछूती (अनटच) रही। इससे पता चलता है कि संसद ने धारा को हटाना या उसमें संशोधन करना उचित नहीं समझा।
  • इस मामले में पृथक्करण का सिद्धांत (डॉक्ट्राइन ऑफ सेवरेबिलिटी) (जहां एक खंड के एक हिस्से को तब तक हटाया जा सकता है जब तक वह संविधान के साथ असंगत (इनकंसिस्टेंट) है) को लागू नहीं किया जा सकता है। समलैंगिकता से संबंधित भाग को पूरे खंड को प्रभावित किए बिना समाप्त नहीं किया जा सकता है जो कि पीडोफिलिया और यौन शोषण को कवर करने वाला एकमात्र खंड है।
  • धारा 377 लिंग तटस्थ (जेंडर न्यूट्रल) है और पुलिस द्वारा एलजीबीटी समुदाय के साथ किए गए व्यवहार को न तो माफ करती है और न ही अनिवार्य करती है। यह समलैंगिकों और विषमलैंगिकों के बीच वर्गीकरण नहीं करता है। इसके अलावा, यह अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।

जटिल विश्लेषण (क्रिटिकल एनालिसिस)

सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत प्रावधानों की एक बहुत ही संकीर्ण (नैरो) परिभाषा दी है। इसने दुनिया में बदलती प्रवृत्तियों (ट्रेंड्स) और विभिन्न यौन अभिविन्यासों की व्यापक स्वीकृति (वाइडर एक्सेप्टेंस) को ध्यान में नहीं रखा है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय संस्कृति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (हिस्टोरिकल बैकग्राउंड) और मूल्यों पर विचार नहीं किया है, जहां समलैंगिकता की व्यापकता (प्रेवलेंस) के प्रमाण हैं। कई मंदिरों में लोगों के समान लिंग वाले संभोग के दृश्य दिखाई देते हैं जिसे आज समाज अश्लील (ओबसीन) मानता है। इस प्रकार, उत्तरदाताओं (रिस्पॉन्डेंट) का यह तर्क (आर्गुमेंट ) कि समलैंगिकता एक पाप है, एक पश्चिमी अवधारणा (कांसेप्ट) है और भारतीय हमेशा इसे स्वीकार करते आये है। समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करने से एचआईवी/एड्स की रोकथाम के तरीकों के बेहतर कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) और पुलिस और अन्य सार्वजनिक प्राधिकरणों (पब्लिक अथॉरिटी) के दुरुपयोग से एलजीबीटी समुदाय की सुरक्षा जैसे कई लाभ प्राप्त होंगे। यह उनके सम्मान के साथ जीने का अधिकार सुनिश्चित (इंश्योर) करता। भारत में अनुमानित (एस्टिमेटेड) 25 लाख समलैंगिक आबादी है और उनमें से लगभग 7 प्रतिशत (1.75 लाख) को एचआईवी है। इस प्रकार, आबादी के इस बड़े हिस्से की कामुकता को स्वीकार करने और उन्हें भारत के सम्मानित नागरिकों के रूप में जीने देने की आवश्यकता है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने धारा 377 के संबंध में आईपीसी में बदलाव करने के लिए संसद पर छोड़ दिया है, इसलिए डॉ शशि थरूर द्वारा प्रयास किए गए थे। उन्होंने दो वयस्कों के बीच सहमति से यौन संबंध को अपराध से मुक्त करने के लिए एक निजी सदस्य का विधेयक (प्राईवेट मेम्बरस् बिल) पेश किया। हालांकि, यह प्रस्ताव पराजित (डिफीटेड) हो गया था। यहां तक ​​कि वित्त मंत्री (फाइनेंस मिनिस्टर) अरुण जेटली ने भी कहा है कि सुप्रीम कोर्ट को धारा 377 पर अपने फैसले की समीक्षा (रीव्यू) करने की जरूरत है। संसद को इस मामले पर यथोचित बहस (रीजनेबल डिबेट) करने और एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रावधान (प्रोविजन) बनाने की आवश्यकता है। इस दिशा में पहला कदम वास्तव में आवश्यक संशोधन (अमेंडमेंट) करके समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करना होगा।

संदर्भ (रेफरेंसेंस)

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