लैच का सिद्धांत: एक व्यापक विश्लेषण

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यह लेख गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, दिल्ली की कानून की छात्रा Kanisha Goswami ने लिखा है। यह लेख भारत में लैच के सिद्धांत के बारे में बात करता है। सिद्धांत लैटिन मैक्सिम “विजिलेंटिबस एट नॉन डॉर्मिएंटिबस जुरा सबवेनियंट” पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि इक्विटी सतर्क व्यक्ति को प्राप्त होती है, न कि वह व्यक्ति को जो अपने अधिकारों को अनदेखा करता है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash द्वारा किया गया है।

परिचय

प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार और दायित्व होते हैं जो उसे एक राज्य में रहते हुए प्राप्त होते हैं। एक सिद्धांत, कुछ नियमों का समूह, या स्थिति है, जिसे आमतौर पर कानून की अदालतों द्वारा इस्तेमाल और बरकरार रखा जाता है। लैच का सिद्धांत एक कानूनी कहावत है जो उस व्यक्ति का समर्थन करता है जो अपने कानूनी अधिकार से अवगत है, और उन लोगों तक पहुंच से इनकार करने की ओर इशारा करता है, जो नियत समय में मुकदमा दायर करने में लापरवाह होते हैं। यह उन आवेदकों को कोई सहायता प्रदान नहीं करेगा, जिन्होंने अनुचित रूप से अपना मुकदमा दर्ज करने में देरी की है।

यह कहावत स्पष्ट रूप से परिभाषित करती है कि कानून केवल न्याय प्रदान करने में अदालत की मदद करेगा, न कि उन लोगों को जो सही समय पर अपने अधिकारों का दावा करना भूल जाते हैं।

लैच के सिद्धांत का अर्थ

एक याचिका या शिकायत दर्ज करने में होने वाली अत्यधिक देरी से निपटने के लिए अदालतों द्वारा लैच के सिद्धांत का उपयोग किया जाता है। इसका मतलब है कि यदि आपका कोई कानूनी दावा है, तो आपको तुरंत अदालत का दरवाजा खटखटाना होगा। लैच एक निष्पक्ष सिद्धांत या एक न्यायसंगत बचाव है। अदालतें उस व्यक्ति की मदद नहीं करेंगी जो अपने अधिकारों को अनदेखा करता रह जाता है बल्कि उन लोगों की मदद करता है, जो अपने अधिकारों के बारे में जानते हैं। एक व्यक्ति को उस मामले में उचित देरी के बाद अपने अधिकारों की पुष्टि करने के लिए अदालत में आने पर दंड के लिए उत्तरदायी माना जाता है। जो व्यक्ति लैच का दावा कर रहा है, उस पर यह साबित करने का भार है कि उस पर यह लागू होता है। कई मामलों में, मामला दर्ज करने में देरी से विरोधी पक्ष को उचित बचाव करने से रोकने का प्रभाव पड़ता है। उस देरी के कारण, सबूत गायब हो जाते हैं, यादें खराब हो जाती हैं, और गवाह अपने रास्ते चले जाते हैं। जो व्यक्ति सिद्धांत का दावा करना चाहता है या उसे अपने लिए मदद के रूप में सोचता है, वह आशा का द्वार खोलता है, लेकिन कानूनी दृष्टि से, लैच शब्द एक अवसर है, जो अब खो गया है।

सिविल अदालत में, यह नुकसान के रूप में कानूनी उपचार प्रदान करता है जो कि मौद्रिक राहत है या विशिष्ट प्रदर्शन के रूप में समान राहत प्रदान करता है।

लैच के सिद्धांत के तत्व

याचिकाकर्ता को कार्रवाई के कारण से रोकने के लिए इस सिद्धांत पर विचार करने के लिए कुछ तत्वों को संतुष्ट होना चाहिए:

  • मामले को लाते समय, विलम्ब अतार्किक (अनरीज़नेबल) होना चाहिए;
  • दावे या अधिकार का दावा करने में लापरवाही;
  • याचिकाकर्ताओं के दावे की अग्रिम (एडवांस) जानकारी

उदाहरण

  • Y और Z किसान थे। उनकी जमीनें एक-दूसरे के ठीक बगल में थीं। Y, Z की भूमि पर फसलों की खेती करके अपनी संपत्ति का विस्तार करना शुरू कर देता है। Z इस बात से अच्छी तरह वाकिफ था लेकिन उसने Y के साथ इस मुद्दे को कभी नहीं उठाया। 18 साल बाद, Z ने Y के खिलाफ मामला दर्ज किया। इस मामले में, यह कहा गया कि Z ने वाद दायर करने के लिए बहुत अधिक समय लिया, भले ही Z मामले से अच्छी तरह से वाकिफ था और उसने कोई कार्रवाई न करने का फैसला किया था। इस प्रकार, प्रतिवादी लैच के सिद्धांत का समर्थन ले सकता है और यह साबित कर सकता है कि Z अपने अधिकारों पर सो रहा था।
  • अंजलि ने अपने कार्यालय सहयोगी के खिलाफ यौन उत्पीड़न का दावा किया, लेकिन उसने मामला दर्ज करने के लिए सात साल इंतजार किया। उस समय के दौरान, उसने अपनी नौकरी बदल ली थी, सहकर्मी दूसरे शहर में चला गया है, अन्य सहयोगी जो गवाह थे, वह अलग अलग जगह चल गए थे, और कार्यालय प्रबंधन में भी बड़े बदलाव हुए थे। प्रबंधन और दोषी सहयोगी दोनों यहां लैच के सिद्धांत का दावा कर सकते हैं। अदालत ने कहा कि अंजलि ने मुकदमा दायर करने में बहुत अधिक समय लिया है। न्यायाधीश के लिए इस मामले पर विचार करना मुश्किल होगा। वह इस सिद्धांत के कारण उसके दावे को खारिज कर सकता है।

यहां, लैच का सिद्धांत बताता है कि एक अनुचित देरी को उचित नहीं ठहराया जा सकता है। अदालत मामले की परिस्थितियों और तथ्यों को देखेगी और मुकदमा दायर करने में देरी के संभावित कारणों का पता लगाएगी।

लैच के सिद्धांत का उद्देश्य

ज्यादातर मामलों में, याचिकाकर्ता द्वारा मुकदमा दायर करने में देरी विपरीत पक्ष के लिए एक फायदा है। देरी के कारण, गवाह चले जाते हैं, और सबूत गायब हो जाते हैं। यह प्रतिवादी को इस सिद्धांत को बचाव पर रखने में मदद करता है और यह याचिकाकर्ता पर सबूत का बोझ डाल देता है। याचिकाकर्ता को देरी के लिए एक उचित बयान देना होता है। अनुच्छेद 32 न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार सुनिश्चित करता है, लेकिन यह न्यायाधीश के राहत देने के निर्णय को प्रतिबंधित नहीं करता है।

लैच के सिद्धांत से संबंधित मामले

हरियाणा स्टेट हैंडलूम बनाम जैन शूल सोसाइटी, 29 अक्टूबर (2003) के मामले में भूमि अधिग्रहण अधिनियम (लैंड एक्वीजीशन एक्ट), 1894 की धारा 17 के तहत 26 अक्टूबर 1976 को एक अधिसूचना जारी की गई थी, जिसमें भूमि का कब्जा लिया गया था और सरकार को निहित किया गया था। इस आधार को चुनौती देते हुए प्रतिवादी ने एक रिट याचिका दायर की। उत्तरदाताओं द्वारा यह प्रस्तुत किया गया था कि उन्होंने इन सभी वर्षों के लिए धैर्यपूर्वक यह देखने के लिए इंतजार किया था कि क्या भूमि का उपयोग उसी उद्देश्य के लिए किया गया था जिसके लिए इसे अधिग्रहित किया गया था। इस बात पर सहमति बनी कि उच्च न्यायालय का आदेश निष्पक्ष और न्यायसंगत है। अदालत ने कहा कि प्रतिवादी को आदेश को चुनौती देने के लिए 22 साल तक इंतजार करने की जरूरत नहीं है क्योंकि एक आदेश जारी होने के 17 साल बाद एक रिट याचिका दायर की गई थी। प्रतिवादी एक छिपे हुए मकसद के कारण जमीन को चुनौती देने का इंतजार कर रहा था। इधर, पक्ष द्वारा दायर रिट याचिका खारिज की गई थी। यह माना गया कि प्रतिवादी की ओर से लैच का सिद्धांत यहां उचित नहीं था या पक्ष द्वारा की गई देरी उचित नहीं थी।

डॉ. कर्ण सिंह बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य और अन्य (1986) के मामले में, अपीलकर्ता महाराजा हरि सिंह का पुत्र है, जो जम्मू और कश्मीर के पूर्व शासक थे। उन्होंने ‘तोशाखना’ (राज्य का खजाना) के लिए एक आवेदन दायर किया, जिसे उन्होंने अपनी निजी संपत्ति के रूप में घोषित किया और कहा कि उनके पिता के शासन के उन्मूलन (अबॉलिशन) से उनकी निजी संपत्ति के स्वामित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, जो राज्य की संपत्ति से अलग है। अपीलकर्ता ने तोशखाना में पड़ी सभी वस्तुओं पर दावा किया जैसे सोना, चांदी के बर्तन, कालीन, विरासत आदि। अदालत ने आवेदन को खारिज कर दिया और कहा कि महाराजा हरि सिंह ने अपनी निजी संपत्तियों की सूची दी और अपने पत्र, दिनांक 1-06-1949 में, उन्होंने अपनी सभी निजी संपत्तियों को संबोधित किया था। सूची को भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया था। उच्च न्यायलय ने अपीलकर्ता के अनुरोध को खारिज कर दिया। अपीलकर्ता ने अपने आवेदन में संशोधन किया और रिट याचिका को जोड़ा। न्यायलय ने कहा कि अपीलकर्ता को 30 साल बाद इस मुद्दे को फिर से खोलने का कोई अधिकार नहीं है और इसे बिना किसी अपवाद या उचित आधार के इस मुद्दे को फिर से नहीं खोला जा सकता है, जो वर्तमान मामले में कोई नहीं है।

वेद प्रकाश गोयल बनाम एस.डी. सिंह (2020) के मामले में, याचिकाकर्ता ने वरिष्ठता सूची से संबंधित आदेश को चुनौती दी है, जिसे मई 2005 में अंतिम रूप दिया गया था। ऐसा कोई कारण नहीं है जो किसी भी परिस्थिति की व्याख्या करता है जिसने याचिकाकर्ता को इस मुद्दे को उचित समय के भीतर उठाने से रोका हो। याचिकाकर्ता द्वारा उठाया गया मुद्दा दूसरों को भी प्रभावित करेगा, और यदि किसी मुद्दे को फिर से खोलना अन्य पक्षों के तय अधिकारों को प्रभावित करता है, तो उस दावे पर विचार नहीं किया जाएगा। यदि मामला भुगतान या पेंशन से संबंधित किसी निर्धारण से संबंधित था, तो इस पर विचार किया जा सकता है क्योंकि यह तीसरे पक्ष के अधिकारों को प्रभावित नहीं करेगा। लैच के सिद्धांत की यहां रक्षा नहीं की जाएगी क्योंकि याचिकाकर्ता द्वारा देरी के लिए कोई उचित कारण नहीं दिया गया था।

मैरिको लिमिटेड बनाम श्री मुकेश कुमार और अन्य (2018) के मामले में, वादी एक ऐसी कंपनी थी जो एक विस्तृत श्रृंखला में उत्पादों के निर्माण, वितरण और बिक्री में लगी हुई थी जिसमें तेल, सौंदर्य उत्पाद, बालों का तेल, व्यक्तिगत देखभाल उत्पाद, आदि शामिल है। उन्होंने मुकदमे में कहा कि प्रतिवादी ने अपनी कंपनी के ट्रेडमार्क, हरे नारियल के पेड़ के साथ बोतल का रंग और सफेद रंग में अक्षरों को अपनाया है, और 1999 में पंजीकृत (रजिस्टर) भी किया था। वादी को प्रतिवादी को नोटिस भी देना पड़ा, लेकिन उस नोटिस को अनसुना कर दिया गया था। इस मामले में, न्यायलय ने माना कि लैच की रक्षा इक्विटी की रक्षा है। अदालत ने आगे कहा, अगर कोई चीज जो आम जनता को किसी व्यक्ति या कंपनी द्वारा निर्मित सामान खरीदने के लिए गुमराह करती है, तो उस बिंदु पर निषेधाज्ञा (इन्जंक्शन) जारी की जानी चाहिए क्योंकि आम जनता का हित व्यक्ति के हित से अधिक महत्वपूर्ण है।

लैच के सिद्धांत और सीमा (लिमिटेशन) के क़ानून के बीच अंतर

जब कोई व्यक्ति लैच के सिद्धांत में आता है, तो अचानक एक प्रश्न मन में आता है कि सीमा का क़ानून और लैच के सिद्धांत एक जैसे हैं। दोनों क़ानूनों की उत्पत्ति यह सुनिश्चित करना है कि दावों को एक उचित अवधि के भीतर लाया जाना चाहिए ताकि गवाह और सबूत आसानी से मिल सकें। सीमा का क़ानून एक ऐसा कानून है जो विवाद में शामिल पक्षों को किए गए अपराध की तारीख से कानूनी कार्यवाही शुरू करने के लिए अधिकतम समय प्रदान करता है। लैच का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि दावों को उचित समय में लाया जाए क्योंकि इससे गवाहों से संपर्क करने और आसानी से सबूत खोजने में भी मदद मिलेगी।

लैच का सिद्धांत  सीमा की क़ानून
1. लैच एक ऐसे व्यक्ति को सीमित करता है, जो अपने अधिकारों को अनदेखा करता है या अपने अधिकारों के बारे में जानता है लेकिन उचित अवधि के भीतर कार्रवाई नहीं करता है।  1. यह किसी व्यक्ति को उसके अधिकार क्षेत्र के आधार पर निर्धारित समय से अधिक समय तक मुकदमा दायर करने से रोकता है।
2. कानून का पालन अनिवार्य है।  2. यह न्यायाधीश का विवेक है कि वह देरी को उचित या अनुचित पाता है।
3. यह सिद्धांत समानता के सिद्धांत पर आधारित है।  3. यह क़ानून सार्वजनिक नीति पर आधारित है।
4. यह एक तथ्य आधारित बचाव है।  4. यह एक कानूनी बचाव है।
5. अगर कोई पत्नी अपने पति की मृत्यु के आठ साल बाद उसकी वसीयत से अपने हिस्से का दावा करती है, तो यह न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करता है कि वह कारण को उचित मानते है या नहीं।  5. न्यूयॉर्क में, किसी भी प्रकार के अनुबंध से संबंधित विवादों के लिए सीमा 6 वर्ष है।

उदाहरण

Z भूमि के एक निश्चित भूखंड (प्लॉट) का स्वामी है। Z की जमीन का एक हिस्सा गलती से Y की सेल डीड में शामिल कर लिया गया था, जिसे W ने खरीद लिया था। Z सब कुछ जानता था और इस तथ्य को जानता था कि उसके प्लॉट को गलती से W की सेल डीड में शामिल कर लिया गया है। यह Z का कर्तव्य है कि वह W को उसके स्वामित्व के बारे में सूचित करे। यहाँ, Z अप्रत्यक्ष रूप से W को निर्माण पूरा करने की अनुमति देता है। Z को यहां पर रोक लगा दी जाएगी लेकिन मामला दर्ज करने की सीमा की अवधि अभी भी उपलब्ध है। यहां, यह बताता है कि कानून द्वारा निर्धारित समय अवधि समाप्त होने से पहले लैच के सिद्धांत का उपाय वर्जित हो सकता है।

निष्कर्ष

यह सिद्धांत प्रतिवादी को उन मामलों में राहत देता है जहां याचिकाकर्ता ने मुकदमा दायर करने में बहुत अधिक समय बिताया है। यह प्रतिवादी के लिए किसी भी आरोप से अपने दायित्व से बचने का बचाव है। इस सिद्धांत का अंतर्निहित हिस्सा न्यायाधीश के अच्छे विश्वास पर निर्भर करता है। यह बिना किसी संदेह के स्वीकार किया जाता है कि सिद्धांत ने न्यायिक प्रक्रिया में समानता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालाँकि, शिक्षा की कमी और एक विशेष समय में अपने कानूनी अधिकारों का प्रयोग करने में याचिकाकर्ता का आलस्य प्रतिवादी के लिए इस सिद्धांत को जारी करने का एक फायदा है और सबूत का बोझ याचिकाकर्ता पर होगा। लैच के सिद्धांत का अनुप्रयोग असंहिताबद्ध है क्योंकि यह न्यायाधीश पर निर्भर करता है कि वह मामले के इर्द-गिर्द घूमने वाली स्थितियों के आधार पर मामलों को सीमित करने पर निर्णय लेता है।

इसलिए, यह कहा जा सकता है कि यह सिद्धांत न्याय की कानूनी प्रणाली में एक प्रहरी है, जो गारंटी देता है कि केवल सही मामलों पर विचार किया जाना चाहिए और मुकदमा दायर करने में कोई भी अनुचित देरी याचिकाकर्ता के लिए गलत है।

संदर्भ

 

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