क्षेत्राधिकार का अभाव – वापसी या स्थानांतरण 

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Difference between Arbitration and Mediation

यह लेख R. Sai. Aravind द्वारा लिखा गया है। यह लेख क्षेत्राधिकार (ज्यूरिसडिक्शन) के अभाव से संबंधित प्रावधानों और उन्हें लागू करने की स्थिति का विश्लेषण (एनालिसिस) करता है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है। 

परिचय

वाद (सूट) एक अदालत में संस्थित (इंस्टीट्यूशन) होने के बाद विभिन्न कारणों से क्षेत्राधिकार खो देता है। उचित क्षेत्राधिकार के बिना अदालत वाद की जांच नहीं कर सकती है। इसलिए, वाद को सक्षम (कंपीटेंट) क्षेत्राधिकार की अदालत में भेजा जाना चाहिए। ऐसे मामले में उपलब्ध विकल्प सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (बाद में “सीपीसी” के रूप में संदर्भित) के आदेश VII नियम 10 और धारा 24(5) हैं।

आदेश VII नियम 10 के अनुसार, यदि क्षेत्राधिकार में कोई दोष है, तो मामले के किसी भी चरण में सक्षम क्षेत्राधिकार की अदालत में एक वाद वापस किया जा सकता है। जबकि, धारा 24(5) जिला न्यायालय और उच्च न्यायालय को, क्षेत्राधिकार की कमी के कारण, किसी भी मामले को स्थानांतरित (ट्रांसफर) करने का अधिकार देती है। जब इन दोनों प्रावधानों को एक साथ रखा जाता है, तो हम कारण के अलावा कुछ भी सामान्य नहीं पाते हैं। सीपीसी के तहत कोई दिशानिर्देश भी नहीं है जो बताते हो कि किसे कब लागू करना है।

यह अनुसंधान (रिसर्च) दोनों प्रावधानों के कार्य और उन्हें लागू करने की स्थिति का विश्लेषण करता है। यह मुख्य रूप से विभिन्न न्यायिक घोषणाओं का विश्लेषण करके किया गया है।

आदेश VII नियम 10- वादपत्र (प्लेंट) की वापसी

जब क्षेत्राधिकार के आभाव के कारण आदेश VII नियम 10 के तहत एक वादपत्र वापस किया जाता है, तो लौटाया गया वाद जारी नहीं रखा जा सकता है और इसे नए वाद के रूप में नए न्यायालय में दायर किया जाना चाहिए अर्थात एक नए सिरे से विचार करने हेतु (डी नोवो ट्रायल)। इसलिए, वाद चाहे किसी भी चरण में हो यदि क्षेत्राधिकार का अभाव है और वादपत्र वापस कर दिया जाता है, तो वाद को शुरू से ही विचारित (ट्राइड) किया जाना चाहिए। ओएनजीसी लिमिटेड बनाम मॉडर्न कंस्ट्रक्शन एंड कंपनी (इसके बाद “मॉडर्न कंस्ट्रक्शन मामले” के रूप में संदर्भित) में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जब गलत अदालत से वापस आने के बाद उचित अदालत में एक वादपत्र दायर किया जाता है, तो यह वाद की निरंतरता नहीं हो सकती है और जब एक वाडपत्र उचित अदालत में दायर किया जाता है तो वाद को शुरू करने पर विचार किया जाना चाहिए। इसमें यह भी कहा गया है कि परिसीमा (लिमिटेशन) अधिनियम की धारा 14 के तहत वादी पिछली अदालत से पहले की अवधि को शामिल न करने के लिए भी हकदार है और भुगतान किए गए अदालती शुल्क में समायोजन (एडजस्टमेंट) की मांग भी कर सकता है।

इससे पहले जोगिंदर तुली बनाम एस.एल. भाटिया, में सर्वोच्च न्यायालय ने एक विपरीत राय दी थी। जहां वादपत्र के संशोधन से वाद का मूल्य बढ़ गया और आर्थिक (पिक्यूनियरी) क्षेत्राधिकार समाप्त हो गया था। उच्च न्यायालय ने आदेश VII नियम 10 के तहत वादपत्र वापस करने के आदेश में पुनरीक्षण (रिवीजन) पर नए सिरे से वाद के बजाय मामले को जहां से स्थानांतरित किया गया था, उसे आगे बढ़ाने का निर्देश दिया। उच्च न्यायालय के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय ने इस आधार पर बरकरार रखा कि मामला पक्षों द्वारा साक्ष्य प्रस्तुत करने के चरण से आगे निकल चुका था।

इसके अलावा, ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी बनाम तेजपारस एसोसिएट्स एंड एक्सपोर्ट्स प्राईवेट लिमिटेड के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश VII के नियम 10A की व्याख्या की। सिविल प्रक्रिया (संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा नियम 10A और 10B को आदेश VII में जोड़ा गया था। नियम 10A जो कि वादपत्र की वापसी के आदेश देता है प्रथम दृष्टया (फर्स्ट इंस्टेंस) न्यायालय को नए न्यायालय के क्षेत्राधिकार में दोनों पक्षों की उपस्थिति की तारीख तय करने का अधिकार देता है। यह निर्धारित किया गया कि संशोधन से पूर्व, जब वादपत्र वापस करने का आदेश हुआ तो मामले को न्यायालय से अलग कर दिया गया था। लेकिन संशोधन के आधार पर, अदालत ने कहा कि नियम 10A अदालत को सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय के समक्ष उपस्थिति की तिथि तय करने की अनुमति देता है। जिसके कारण यह निर्धारित किया गया कि लौटाया गया वादपत्र नए सिरे से वाद दायर करने के रूप में नहीं पाया जा सकता है और यह एक निरंतरता है। अदालत जोगिंदर तुली बनाम एस.एल. भाटिया को संदर्भित करते हुए ही इस निष्कर्ष पर पहुंची थी।

हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की बेंच ने मेसर्स ईएक्सएल करियर और अन्य बनाम फ्रैंकफिन एविएशन सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड, में सर्वोच्च न्यायालय के ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम तेजपारस एसोसिएट्स एंड एक्सपोर्ट्स प्राईवेट लिमिटेड और जोगिंदर तुली बनाम एस.एल. भाटिया दोनों मामलों को खारिज कर दिया था। पूर्व के संबंध में, यह माना गया था कि नियम 10A केवल सक्षम क्षेत्राधिकार की अदालत में वादपत्र वापस आने के बाद प्रतिवादियों पर सम्मन तामील (सर्व) करने की आवश्यकता को समाप्त करने के लिए जोड़ा गया है। जिसके द्वारा यह निहित है कि नियम का पिछले न्यायालय से कोई लेना-देना नहीं है और वाद को नए सिरे से शुरू करना है। बाद के मामले में, अदालत ने पाया कि यह एक गलत कानून है क्योंकि इसने इस विषय में किसी भी पूर्व मामले (प्रेसीडेंस) का उल्लेख नहीं किया है।

इन सभी का विश्लेषण करने पर, सर्वोच्च न्यायालय ने मॉडर्न कंस्ट्रक्शन मामले को कानून की सही स्थिति बताने वाला माना। इन प्रस्तावों के बावजूद, अदालत ने उच्च न्यायालय के उस आदेश को बरकरार रखा जिसने नए सिरे से सुनवाई को खारिज कर दिया था। जिससे वाद को नए सिरे से सुनवाई के बजाय सक्षम न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया जाता है। न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय के आदेश को मॉडर्न कंस्ट्रक्शनमामले में निर्धारित कानून के तहत टिकाऊ नहीं माना है। लेकिन मामले के तथ्यों पर विचार करने पर जहां दोनों पक्षों द्वारा सबूत प्रस्तुत किए गए थे और मामले को अंतिम सुनवाई के लिए तय किया गया था, सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 148 के तहत अपनी शक्ति के माध्यम से आदेश को बरकरार रखा और सुनवाई को नए सिरे से आयोजित करने की अनुमति नहीं दी।

इसलिए, यह अच्छी तरह से तय है कि क्षेत्राधिकार के अभाव के लिए आदेश VII नियम 10 के तहत लौटाए गए एक वादपत्र को जारी नहीं रखा जा सकता है और इसे केवल नए सिरे से सुनवाई के रूप में पेश किया जाता है।

धारा 24(5)- वाद का स्थानांतरण

वही सिविल प्रक्रिया (संशोधन) अधिनियम, 1976 जिसने आदेश VII में नियम 10A और 10B जोड़ा था, धारा 24(5) को भी जोड़ा है। धारा 24(5) के अनुसार, एक वाद या कार्यवाही को एक ऐसी अदालत से स्थानांतरित किया जा सकता है जिसके पास इसकी सुनवाई का अधिकार नहीं है। उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय के पास यह शक्ति है कि वह अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) न्यायालय के समक्ष किसी भी वाद या कार्यवाही को सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में स्थानांतरित कर सकता है।

पुष्पा कपाल बनाम शिव कुमार मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने सीपीसी की धारा 24(5) को लागू करने के पीछे का कारण बताया है। जिसमें आर्थिक क्षेत्राधिकार के अभाव में न्यायालय ने आदेश VII नियम 10 के तहत वादपत्र की वापसी का आदेश दिया था। जिसके द्वारा वाद को उस स्थिति में नए सिरे से शुरू करना होगा जहां पक्षों द्वारा पहले ही सबूत पेश किए जा चुके हैं। इसलिए, सीपीसी की धारा 151 के साथ पठित धारा 24(5) के तहत एक आवेदन उच्च न्यायालय के समक्ष दायर किया गया था, जहां से कार्यवाही को स्थानांतरित करने के लिए कहा गया था। इस आवेदन की अनुमति दी गई और वाद स्थानांतरित कर दिया गया था। अदालत ने माना कि धारा 24 की उप धारा 5 को पक्षों को किसी भी उत्पीड़न से बचाने और विचारण के शीघ्र निपटान (डिस्पोजल) को बढ़ाने के लिए अधिनियमित किया गया था। धारा 24(5) के तहत आवेदन से पहले साक्ष्य पेश करने के बाद भी वाद को नए वाद के रूप में दायर करने के लिए स्थानांतरित कर दिया गया था। इसलिए धारा 24(5) उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय को ऐसी गलतियों को दूर करने का अधिकार देती है।

प्रावधान के लागू होने के तुरंत बाद इसी तरह का परिदृश्य (सिनेरियो) रेल चंद बनाम अटल चंद में देखा जा सकता है जहां वाद दस साल के लिए अक्षम (इनकॉम्पीटेंट) क्षेत्राधिकार की अदालत में लंबित था। धारा 24(5) के द्वारा, वाद को वापस करने के बजाय सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया था।

आदेश VII नियम 10 के संबंध में, दिल्ली उच्च न्यायालय दोनों प्रावधानों के सामंजस्यपूर्ण (हार्मोनियस) और रचनात्मक अनुप्रयोग (कंस्ट्रक्टिव एप्लीकेशन) का आग्रह करता है। एविएट केमिकल्स बनाम मैग्ना लेबोरेटरी में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने सीपीसी की धारा 24 के तहत छह स्थानांतरण याचिकाओं के बारे में सकारात्मक जवाब दिया। जिसमें वादपत्र के संशोधन से आर्थिक क्षेत्राधिकार की हानि हुई है और प्रतिवादी के विरुद्ध स्थायी निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) पारित की गई थी। चूँकि न्यायालय के क्षेत्राधिकार का अभाव समाप्त हो गया था, यदि वादपत्र वापस करने का आदेश दिया जाता है तो इस तरह के निषेधाज्ञा के अमान्य होने का जोखिम था। इस तरह की अमान्यता वाद के उद्देश्य को विफल कर देती है। इसलिए, वादी ने स्थानांतरण के लिए धारा 24(5) के तहत एक आवेदन दिया। जिसके लिए प्रतिवादी ने क्षेत्राधिकार की कमी के प्रासंगिक (रिलेवेंट) प्रावधान के रूप में आदेश VII नियम 10 को बरकरार रखते हुए बचाव किया और नए सिरे से सुनवाई की मांग की।

इस मामले में अदालत ने क़ानून की मंशा पर जोर दिया जो कि पर्याप्त न्याय करना और वाद का तेजी से फैसला करना है। यह पाया गया कि आदेश VII नियम 10 के तहत उन मामलों में एक नई सुनवाई जो निश्चित चरण से गुजर चुके है और वर्षों से लंबित है, केवल न्याय को और अधिक निराश करेगा। अदालत ने कहा कि धारा 24(5) और आदेश VII नियम 10 दो प्रकार की कार्रवाई के रूप में उपलब्ध है और इसे पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) के तत्वों, प्रक्रिया के कानून के पालन, समानता और न्याय की उपलब्धि को ध्यान में रखते हुए मामले के तथ्यों पर लागू किया जाना है। अदालत ने एक ऐसी कार्रवाई पर जोर दिया जिससे पक्षों को कोई पूर्वाग्रह न हो। इसलिए, अदालत ने न्याय के हित में धारा 24(5) के तहत वाद को इस शर्त पर स्थानांतरित करने का आदेश दिया कि इस तरह के स्थानांतरण पर प्रतिवादियों को कोई पूर्वाग्रह नहीं होगा।

निष्कर्ष

इन व्याख्याओं से हम स्पष्ट अंतर का अनुमान लगा सकते हैं कि क्षेत्राधिकार की कमी के लिए आदेश VII नियम 10 के तहत लौटाए गए वादपत्र को एक नए वाद के रूप में दायर किया जाता है, जबकि धारा 24(5) के तहत स्थानांतरित किए गए वाद को उस बिंदु से आगे बढ़ाया जा सकता है जहां यह था। एक वादपत्र प्रथम दृष्टया न्यायालय द्वारा लौटाया जाता है जिसमें क्षेत्राधिकार नहीं होता है लेकिन एक वाद केवल एक जिला न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा स्थानांतरित किया जा सकता है।

तो, यह हमें अंतिम प्रश्न पर लाता है कि- एक वाद की वापसी या स्थानांतरण क्या तय करता है? आम तौर पर, ये प्रावधान उस सिद्धांत (डोमेन) पर काम करते हैं जहां ऐसा आवेदन लाया जाता है। लेकिन एविएट केमिकल्स बनाम मैग्ना लेबोरेटरी जैसे मामलों में, अदालत के पास या तो वाद की वापसी या स्थानांतरण के साथ जाने का विकल्प था। तभी अदालत ने न्याय और वाद के जल्द निपटान को अहमियत दी। ऐसी स्थिति में अदालत द्वारा दी गई निषेधाज्ञा रद्द हो जाती है और मामले को फिर से शुरू करने के लिए वर्षों से चल रहे मामले शून्य हो जाते हैं। ऐसा मेसर्स ईएक्सएल करियर और अन्य बनाम फ्रैंकफिन एविएशन सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड में भी देखा जा सकता है जहां सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय के हित में आदेश VII नियम 10 के तहत आदेश को अवैध ठहराने के बावजूद वाद को स्थानांतरित करने के आदेश की अनुमति दी। यह ध्यान रखना उचित है कि उस मामले में कोई स्थानांतरण आवेदन दायर नहीं किया गया था। क्षेत्राधिकार में परिवर्तन अपरिहार्य (इनेविटेबल) कारणों से होता है। ऐसी स्थिति में न्याय का उपहास करने की आवश्यकता नहीं है। धारा 24(5) के तहत जिन मामलों में स्थानांतरण किया गया है, उन मामलों के अवलोकन पर यह देखा जा सकता है कि जो मामले लंबे समय से अक्षम न्यायालय में लंबित थे या पिछले महत्वपूर्ण चरणों के मामलों को पक्षों के उत्पीड़न को रोकने और शीघ्र निपटान को प्रोत्साहित करने के लिए स्थानांतरित किया जाता है। इस प्रकार धारा 24(5) के तहत स्थानांतरण आदेश VII नियम 10 के तहत वादपत्र की वापसी से अलग है। धारा 24(5) एक लाभकारी प्रावधान है। आदेश VII नियम 10 मामले के किसी भी चरण में वादपत्र की वापसी के लिए प्रदान कर सकता है, लेकिन यह समझना होगा कि यह धारा 24(5) को जोड़ने से पहले क्षेत्राधिकार की कमी से निपटने वाला एक प्रारंभिक क़ानून है। वादपत्र की ऐसी वापसी उन मामलों में क्षेत्राधिकार की कमी के लिए उपयुक्त है जिनमें कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है।

 

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