परमादेश की रिट और जॉन पीपीली बनाम केरल राज्य के मामले के आलोक में इसका उपयोग

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Constitution of India

यह लेख गवर्नमेंट लॉ कॉलेज, तिरुवनंतपुरम के छात्र  Adhila Muhammed Arif द्वारा लिखा गया है। यह लेख परमादेश (मैंडेमस) की रिट और जॉन पैली बनाम केरल राज्य के मामले में इसके उपयोग को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय 

भारत का संविधान अपने नागरिकों को कुछ बुनियादी अधिकारों और स्वतंत्रता की गारंटी देता है जैसे कि जीवन का अधिकार, बोलने और अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता, समानता आदि, जो भारतीय संविधान के भाग III में निहित हैं। हालाँकि, केवल अधिकार प्रदान करना पर्याप्त नहीं है। राज्य को भारतीय नागरिकों के संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकारों को बनाए रखने और उनकी रक्षा करने के लिए कार्रवाई करनी चाहिए। जब राज्य के किसी भी हिस्से में किसी के साथ अन्याय होता है, तो राज्य को गलत या अन्याय को ठीक करने के लिए कुछ उपाय प्रदान करना चाहिए। एक निवारण तंत्र होना चाहिए जिसके बाद नागरिक अपने अधिकारों का उल्लंघन होने पर न्याय प्राप्त कर सकें। यहीं से रिट की अवधारणा को आधार मिलता है। 

भारत में, केवल उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के पास रिट जारी करने की शक्ति है। रिट जारी करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 में निहित है, जबकि रिट जारी करने की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति अनुच्छेद 32 में निहित है । यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि रिट और आदेश अलग-अलग हैं। हालांकि एक आदेश अपने दायरे में व्यापक है और किसी भी मामले के संबंध में जारी किया जा सकता है, लेकिन असाधारण उपाय प्रदान करने के लिए एक रिट जारी की जाती है। 

भारतीय संविधान में पाँच प्रकार के रिटों की गणना की गई है जो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों द्वारा जारी किए जाते हैं। वे परमादेश, उत्प्रेषण (सर्टियोररी), बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबियस कॉर्पस), अधिकार पृच्छा (क्यू वारंटो) और प्रतिषेध (प्रोहिबिशन) हैं। परमादेश की रिट किसी भी प्राधिकारी (अथॉरिटी) को सौंपे गए सार्वजनिक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए आदेश देने के लिए जारी की जाती है। जॉन पैली और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य के हाल ही के मामले में, परमादेश की रिट जारी करने का अनुरोध किया गया था और इसलिए, अदालत के निर्णय और उसके तर्क के साथ-साथ उपाय का अनुरोध करने में याचिकाकर्ता के औचित्य (जस्टिफिकेशन) का पता लगाना महत्वपूर्ण है।

 

परमादेश की रिट: एक अंतर्दृष्टि 

अर्थ

‘परमादेश’ शब्द का अर्थ है ‘आदेश’। यह किसी भी व्यक्ति, निगम (कॉरपोरेशन), निचली अदालत या सरकार को सार्वजनिक कर्तव्य, जिससे वे कानूनी रूप से बाध्य हैं, को निभाने के लिए निर्देशित करने के लिए जारी किए गए आदेश को संदर्भित करता है। कोई भी व्यक्ति जो इस तरह के सार्वजनिक कर्तव्य के उल्लंघन या दुरुपयोग से प्रभावित है और उसे उस कार्य को करवाने का अधिकार है, वह परमादेश जारी करने के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में आवेदन कर सकता है। 

परमादेश जारी करने की शर्तें 

परमादेश रिट जारी करने से पहले निम्नलिखित शर्तों को पूरा किया जाना चाहिए: 

  1. जिस व्यक्ति या प्राधिकारी के खिलाफ रिट जारी करने की मांग की गई है, उसके पास प्रदर्शन करने के लिए कुछ सार्वजनिक कर्तव्य होना चाहिए, जिसे करने में वह विफल रहता है। 
  2. इस तरह के सार्वजनिक कर्तव्य प्रकृति में अनिवार्य होने चाहिए न कि विवेकाधीन और इसके प्रदर्शन में विफलता होनी चाहिए। 
  3. याचिकाकर्ता के पास कानून द्वारा समर्थित अधिकार होना चाहिए कि वह उस प्राधिकरण या व्यक्ति को बाध्य कर सके जिसके खिलाफ वह परमादेश जारी करना चाहता है। 
  4. जब याचिकाकर्ता ने प्राधिकरण से अपना सार्वजनिक कर्तव्य निभाने का आह्वान किया तब उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया। 

परमादेश का उद्देश्य 

अनुच्छेद 32 और 226 की तुलना करने पर, हम यह पता लगा सकते हैं कि जिन उद्देश्यों के लिए उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा परमादेश जारी किया जा सकता है, उनमें अंतर है। 

निम्नलिखित उद्देश्य हैं जिनके लिए परमादेश रिट जारी की जा सकती है: 

  1. मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए, अदालत द्वारा परमादेश जारी किया जाएगा जो सार्वजनिक अधिकारी या सरकार को पीड़ित व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करने से रोकेगा। 
  2. ऐसे अन्य उद्देश्य भी हैं जिनके लिए उच्च न्यायालय द्वारा परमादेश जारी किया जा सकता है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नहीं। 

ये उद्देश्य निम्नलिखित हैं: 

  1. किसी असंवैधानिक कानून को लागू करने से सरकारी अधिकारी या सरकार को रोकना। 
  2. किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) को अपने अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) का प्रयोग करने के लिए बाध्य करना जब उसने ऐसा करने से मना कर दिया हो। 
  3. किसी भी व्यक्ति को अपने सार्वजनिक कर्तव्यों का पालन करने के लिए मजबूर करना जो या तो संवैधानिक है या वैधानिक है। 
  4. जब कोई अधिकारी अपने सार्वजनिक अधिकार का अत्यधिक, या गैरकानूनी रूप से, या दुर्भावना से, या ऐसे तरीके से प्रयोग करता है जिसमें वह अपना दिमाग नहीं लगाता है, या अपनी विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग करता है।  

इसके प्रयोज्यता (एप्लीकेशन) के अपवाद  

कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जिनके विरुद्ध परमादेश की रिट जारी नहीं की जा सकती। परमादेश की प्रयोज्यता की निम्नलिखित सीमाएँ हैं: 

  1. राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों (गवर्नर) के विरुद्ध परमादेश की कोई रिट नहीं दी जा सकती है। 
  2. यह उन निजी व्यक्तियों और कंपनियों के विरुद्ध प्रदान नहीं की जाएगी जिनके पास प्रदर्शन करने के लिए कोई सार्वजनिक कर्तव्य नहीं है। 
  3. यह एक विधायिका के खिलाफ जारी नहीं की जा सकती है, जिसे उसे आदेश देने या कानून बनाने से रोका जा सके। 

परमादेश के प्रकार 

भारतीय कानूनी प्रणाली में तीन प्रकार के परमादेश हैं जो कि परमादेश से संबंधित निर्णयों को देखकर मिल सकते हैं। परमादेश के तीन प्रकार निम्नलिखित हैं: 

  1. उत्प्रेषित परमादेश: उत्प्रेषण की रिट एक ऐसे मामले के लिए न्यायिक समीक्षा (रिव्यू) प्रदान करने के उद्देश्य से कार्य करती है जिस पर पहले से ही एक निचली अदलत द्वारा विचारण (ट्रायल) किया जा चुका है या जब उसके अधिकार क्षेत्र में अधिकता हो गई है। इसके जारी होते ही निचली अदालत का आदेश निरस्त हो जाएगा। परमादेश की रिट तब जारी की जा सकती है जब अधिकार क्षेत्र के प्रयोग से इनकार किया गया हो। कुछ मामलों में, परमादेश की रिट और उत्प्रेषण की रिट सह-अस्तित्व और एक दूसरे के पूरक (कॉम्प्लीमेंट) हो सकती हैं। जब उत्प्रेषण की रिट द्वारा किसी मामले को रद्द कर दिया जाता है, तो परमादेश की रिट बाद में जारी की जाती है तो कानून की प्रक्रिया के अनुसार इसपर फिर से विचारण किया जा सकता है।  
  2. प्रत्याशित (एंटीसिपेटरी) परमादेश: कई निर्णयों में यह पुष्टि की गई है कि याचिकाकर्ता की मात्र इस आशंका पर परमादेश का रिट जारी नहीं किया जा सकता है कि उसके मौलिक या किसी अन्य वैधानिक अधिकारों का उल्लंघन होने की संभावना है या एक सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा उनके सार्वजनिक कर्तव्य के प्रदर्शन को छोड़ने की संभावना है।
  3. निरंतर (कंटीन्यूइंग) परमादेशः कुछ मामलों में परमादेश रिट जारी होने के बाद निरंतर पर्यवेक्षण (सुपरविजन) की भी आवश्यकता होती है। ऐसे मामलों में, अदालत निगरानी के लिए अंतरिम (इंटरिम) निर्देश जारी कर सकती है और अनुपालन रिपोर्ट जमा करने के लिए भी कह सकती है। 

जॉन पैली और अन्य बनाम केरल राज्य का मामला

जॉन पैली व अन्य बनाम केरल राज्य व अन्य [डब्ल्यूपीसी 428/2021] (एलएल 2021 एससी 227) के हाल ही के मामले में, एक रिट याचिका की सुनवाई न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एमआर शाह ने की थी, जो सर्वोच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ थी। याचिकाकर्ताओं ने कुछ राहत मांगी और न्यायालय से अनुच्छेद 32 के तहत परमादेश की रिट जारी करने के लिए कहा। 

पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड)

याचिका में के.एस वर्गीस बनाम सेंट पीटर्स एंड सेंट पॉल्स सीरियन ऑर्थोडॉक्स चर्च (2017) के मामले के संचालन को रोकने की कोशिश की गई थी। इस मामले का फैसला केरल के उच्च न्यायालय द्वारा किया गया था और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई थी। इस मामले का आधार सेंट पीटर चर्च के नियंत्रण को लेकर रूढ़िवादी संप्रदाय (फैक्शन) और पितृसत्ता (पैट्रिआर्क) संप्रदाय, जिसे जेकोबाइट्स भी कहा जाता है, के बीच लगातार विवाद था। यह निर्णय रूढ़िवादी संप्रदाय के पक्ष में दिया गया था, जैसे कि चर्चों के प्रबंधन पर विवादो पर पहले के अधिकांश निर्णय थे। परिणामस्वरूप, वर्तमान मामले में याचिकाकर्ताओं ने पितृसत्ता संप्रदाय के सदस्यों के रूप में व्यथित महसूस किया। उन्होंने महसूस किया कि उनके धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया है और इस प्रकार, उन्होंने अपने मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए परमादेश की रिट जारी करने के लिए एक याचिका दायर की। 

याचिकाकर्ता की दलील 

याचिकाकर्ताओं की दलीलें निम्नलिखित हैं: 

  1. याचिकाकर्ता चाहते थे कि न्यायालय सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से बने एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण की स्थापना के लिए एक परमादेश प्रकृति के निर्देश जारी करे ताकि वे प्रत्येक पैरिश चर्च के दावों पर गौर कर सकें और यह निर्धारित कर सकें कि कौन सा संप्रदाय इसे नियंत्रित करेगा। 
  2. याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि चर्चों के प्रबंधन को उनके संबंधित संप्रदायों को सौंपकर या सभी विवादित चर्चों और उनकी संपत्तियों को एक समान तरीके से विभाजित करके न्यायाधिकरण के फैसलों को निष्पादित (एक्जीक्यूट) करने का आदेश होना चाहिए। 
  3. उन्होंने यह भी तर्क दिया कि केरल राज्य को उन चर्चों की सुरक्षा के लिए कानून बनाना चाहिए जो पितृसत्ता संप्रदाय के सदस्यों से संबंधित हैं और धार्मिक स्वतंत्रता का प्रयोग करने के अपने अधिकार को बनाए रखने के लिए भी कानून बनाना चाहिए। 
  4. याचिका में संविधान के  अनुच्छेद 14, 21, 25 और 26 के तहत दिए गए याचिकाकर्ताओं के मौलिक अधिकारों को लागू करने और बनाए रखने के लिए केरल राज्य को निर्देश देने की भी मांग की गई है।
  5. याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि एक घोषणा जारी की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी पिछला निर्णय याचिकाकर्ताओं और संप्रदाय के सदस्यों की मान्यताओं के खिलाफ काम नहीं करता है। 
  6. और अंत में, याचिकाकर्ताओं ने अदालत से एक घोषणा पत्र जारी करने के लिए कहा, जिसमें कहा गया हो कि संप्रदाय के सदस्यों को अपने धर्म का पालन करने, मानने और प्रचार करने का अधिकार है। 

न्यायालय के निष्कर्ष 

न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियां निम्नलिखित हैं: 

  1. न्यायालय ने पाया कि यह याचिका जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर की गई थी, प्रक्रिया का पूर्ण दुरुपयोग है। 
  2. याचिका का उद्देश्य स्पष्ट है, जो एक ही मामले पर सर्वोच्च न्यायालय के पिछले किसी भी फैसले के संचालन के खिलाफ दिशा-निर्देश प्राप्त करना है। न्यायालय के सामने यह स्पष्ट था कि याचिकाकर्ताओं ने के.एस वर्गीज बनाम सेंट पीटर्स एंड सेंट पॉल्स सीरियन ऑर्थोडॉक्स चर्च (2017) के मामले में दिए गए फैसले से खुद को असंतुष्ट माना था। 
  3. न्यायालय ने यह भी कहा कि एक पक्ष जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित एक न्यायिक निर्णय से व्यथित है, वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उपाय की मांग करने वाली याचिका दायर नहीं कर सकता है। 

निर्णय 

सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने फैसला सुनाया कि न्यायालय परमादेश की रिट जारी करके न्यायाधिकरण की स्थापना का निर्देश नहीं दे सकता है। न्यायालय ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 और 246 के मुताबिक अदालत राज्य की विधायिका को किसी भी मामले में कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकती है। फैसले में यह भी कहा गया कि इस तरह की याचिका पर विचार नहीं किया जा सकता है और याचिका को तदनुसार खारिज कर दिया गया। 

अन्य प्रासंगिक मामले 

सोहनलाल बनाम भारत संघ (1957) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि परमादेश की रिट केवल एक निजी व्यक्ति के खिलाफ जारी होगी यदि यह साबित हो जाता है कि वह एक सार्वजनिक प्राधिकरण के साथ एकीकृत (इंटीग्रेट) है।

राशिद अहमद बनाम म्युनिसिपल बोर्ड (1950) के  मामले में, यह माना गया था कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में वैकल्पिक उपाय उपलब्ध होने पर भी, रिट जारी करने की मांग को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है।

शरीफ अहमद बनाम एचटीए, मेरठ (1977) के मामले में, जब प्रतिवादी ने न्यायाधिकरण के आदेशों का पालन नहीं किया, तो याचिकाकर्ता ने न्यायाधिकरण के आदेशों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिवादी को न्यायाधिकरण के आदेशों का पालन करने का आदेश देते हुए परमादेश जारी किया। 

एस.पी गुप्ता बनाम भारत संघ (1981) के ऐतिहासिक मामले में, न्यायाधीशों ने फैसला सुनाया कि भारत के राष्ट्रपति के खिलाफ कोई रिट जारी नहीं हो सकती है, जो उन्हें उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या तय करने और रिक्तियों को भरने का निर्देश देती है । न्यायालय राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे व्यक्तियों के विरुद्ध परमादेश रिट जारी नहीं कर सकता है। 

सी.जी गोविंदन बनाम गुजरात राज्य (1991) के मामले में, न्यायालय ने अनुच्छेद 229 के तहत उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा निर्धारित अदालत के कर्मचारियों के वेतन को मंजूरी देने के लिए राज्यपाल के खिलाफ परमादेश जारी करने से इनकार कर दिया। यह फैसला सुनाया गया कि राज्यपाल के विरुद्ध परमादेश रिट जारी नहीं की जा सकती। 

निष्कर्ष 

संक्षेप में, परमादेश की रिट कानून का एक साधन है जिसका उपयोग नागरिकों द्वारा किया जा सकता है जब वे किसी प्राधिकरण द्वारा सार्वजनिक कर्तव्य के प्रदर्शन में उल्लंघन से पीड़ित होते हैं, जो उनके मौलिक या किसी वैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। यह सुनिश्चित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाता है कि राज्य अपने नागरिकों के प्रति जवाबदेह है और राज्य द्वारा शक्ति के अत्यधिक उपयोग के खिलाफ नागरिकों की रक्षा करता है। हालाँकि, इसकी प्रयोज्यता की कुछ सीमाएँ और शर्तें हैं। जैसा कि जॉन पैली और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य  के मामले में देखा गया था। विधायिका को कानून बनाने के लिए बाध्य करने के लिए परमादेश की रिट जारी नहीं की जा सकती है। यह भी देखा गया कि याचिका के पीछे मुख्य इरादा सर्वोच्च न्यायालय के पिछले फैसले के संचालन से बचना था और इसके परिणामस्वरूप, याचिका बनाए रखने योग्य नहीं थी। 

संदर्भ 

 

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