हाथरस मामला

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यह लेख Nimisha Dublish द्वारा लिखा गया है। यह लेख वर्ष 2020 में हुए हाथरस मामले की विभिन्न बारीकियों पर चर्चा करता है। यह मामला एक ऐतिहासिक और अनुस्मारक है कि हमारी न्याय प्रणाली को सामूहिक बलात्कार और महिलाओं की हत्या जैसे संवेदनशील मामलों से निपटने के लिए कई अद्यतन (अपडेट) और सुधारों की आवश्यकता है, खासकर हाशिये पर रह रही महिलाओं की हत्या के मामलों से निपटने के लिए। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

यह सितंबर 2020 था, वह महीना जिसने पूरे देश को उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुए दिल दहला देने वाले अपराध से हिलाकर रख दिया था। जब देश, जो निर्भया मामले (2012) जैसे विभिन्न बलात्कार और हत्या के मामलों से उबरने की कोशिश कर रहा था, तब एक और दर्दनाक और दिल दहला देने वाला अपराध देखा गया। यह अपराध न केवल एक युवा दलित लड़की के खिलाफ बल्कि भारत की महिलाओं के खिलाफ भी किया गया था। उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक लड़की के साथ क्रूरतापूर्वक बलात्कार किया गया और उसे खेतों में मरने के लिए छोड़ दिया गया था। लोग पुलिस अधिकारियों पर निर्भर रहते हैं क्योंकि वे न्याय वितरण प्रणाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे हमारी सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हैं। ये वे लोग हैं जिनके माध्यम से कोई भी सुरक्षित महसूस कर सकता है और विश्वास कर सकता है कि एक दिन उन्हें न्याय मिलेगा। पुलिस अधिकारी न्याय के वाहक हैं। वे समाज में होने वाली गलतियों की अन्वेषण करते हैं और उसके बारे में जानकारी देश के न्याय अधिकारियों तक पहुंचाते हैं। लेकिन यहां इस मामले में पुलिस एक बार फिर ऐसा करने में नाकाम रही। अपराध अपने आप में पर्याप्त नहीं था; उत्तर प्रदेश में पुलिस अधिकारियों ने मृत युवा लड़की के शरीर को जला दिया, जबकि परिवार को उनके घर में बंद कर दिया गया था। ऐसे कई सवाल हैं जो हमारे मन में उठते हैं। अगर लड़की ऊंची जाति की होती तो क्या होता? क्या उस स्थिति में पुलिस उसके साथ भी ऐसा ही करती? और पुलिस ने सबूत यानी मृत युवा दलित लड़की के शव को मिटाने की कोशिश क्यों की? आपके मन में ये सवाल उठना सामान्य बात है। इस मामले को लेकर पूरे देश में कई अफवाहें और बहसें हुईं, लेकिन बहुत कम लोग थे जिन्होंने वास्तविक कहानी का पता लगाने की कोशिश की और न्याय मिलने का इंतजार किया। 

युवा लड़की के माता-पिता और अभियुक्तों के बीच लगभग 2.5 साल की लड़ाई के बाद, 2 मार्च 2023 को फैसला सुनाया गया। अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति न्यायालय ने चार में से तीन अभियुक्तों को बरी कर दिया, और उनमें से किसी को भी सामूहिक बलात्कार का दोषी नहीं पाया गया। अभियुक्त ऊंची जाति के थे और उसके कारण जाति व्यवस्था और होने वाले अन्याय को लेकर कई सवाल थे। इसके बाद अन्वेषण (इन्वेस्टिगेशन) केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को सौंप दी गई और केवल 20 साल के संदीप को भारतीय दंड संहिता की धारा 304 के तहत गैर इरादतन मानव वध (कल्पेबल होमीसाइड) का दोषी पाया गया। अभियुक्तों पर एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के तहत कुछ अपराधों का आरोप लगाया गया है। अन्य तीन अभियुक्त लव कुश (23 वर्ष), रामू (26 वर्ष) और रवि (35 वर्ष) को अदालत ने दोषी नहीं पाया। 

हाथरस मामले के तथ्य

घटना- 14 सितंबर 2020

उत्तर प्रदेश के हाथरस गांव में एक 19 वर्षीय दलित लड़की के साथ ऊंची जाति के लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया। घटना सुबह 9.30 बजे की है। पीड़िता अपनी मां के साथ खेत में घास काटने गई थी। इसके बाद चारों अभियुक्त व्यक्तियों ने पीड़िता के साथ बलात्कार किया और उसे खेतों में मरने के लिए छोड़ दिया। उसकी चीख सुनकर उसकी मां को उसका शव मिला। उसे पुलिस स्टेशन ले जाया गया, जहां पुलिस ने कथित तौर पर मामले की रिपोर्ट करने से इनकार कर दिया। बाद में, उसने एक अभियुक्त संदीप सिसौदिया का नाम लिया और फिर भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई। यह धारा किसी महिला की लज्जा भंग करने के इरादे से उस पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग से संबंधित है। 

बाद में उसी दिन, उसे पुलिस द्वारा स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया। उन्होंने उसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज में भेज दिया। उसे शाम 4.30 बजे भर्ती कराया गया, कुल यात्रा का समय दो घंटे था, लेकिन उसे शाम को भर्ती कराया गया, यानी उसे भर्ती करने में लगने वाले वास्तविक समय से अधिक। देरी इसलिए हुई क्योंकि पुलिस अधिकारियों ने शुरुआत में प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार कर दिया था।  

गंभीर स्थिति- 15 सितंबर 2020

पीड़िता की हालत खराब हो गई और वह अपने परिवार से बात करने के लिए होश में आई। 

बयान दर्ज करना – 19 सितंबर 2020

पीड़िता का बयान लिया गया, जिसमें उसने अभियुक्त का नाम बताया। पुलिस ने हत्या के प्रयास के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 307 जोड़ दी। पीड़िता का बयान दर्ज करने के बाद संदीप को गिरफ्तार कर लिया गया। उसने उल्लेख किया कि उस पर इसलिए हमला किया गया क्योंकि उसने अभियुक्त की यौन गतिविधियों का विरोध किया था। 

पूरक बयान दर्ज करना – 21 सितंबर 2020

पीड़िता द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष पूरक बयान दिये गये। उसने हमलावरों के रूप में संदीप, रवि, रामू और लवकुश का नाम लिया। उसने उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया और पुलिस ने उन चारों पर सामूहिक बलात्कार और हत्या का आरोप लगाया। मेडिकल रिपोर्ट से पता चला कि कुछ बल प्रयोग किया गया था, लेकिन डॉक्टरों ने पेनेट्रेटिव यौन शोषण की पुष्टि के लिए फोरेंसिक रिपोर्ट का इंतजार किया। 

पहला स्वैब परीक्षण- 22 सितंबर 2020

यौन उत्पीड़न का पता लगाने के लिए सबसे पहले स्वाब परीक्षण किया गया था। लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि ये एक हफ्ते बाद आयोजित किया गया। इस प्रकार, शुक्राणु (स्पर्म) के निशान के संबंध में कोई सबूत ढूंढना लगभग असंभव था। बाकी अभियुक्तों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और पीड़िता की हालत बिगड़ने लगी।

पीड़िता को दिल्ली स्थानांतरित करना – 28 सितंबर 2020

पीड़िता को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में स्थानांतरित किया गया था। उनकी हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी और उनके बचने की संभावना कम होती जा रही थी। एएमयू डॉक्टरों ने दावा किया कि उन्होंने उसे एम्स भेज दिया था, लेकिन उसे सफदरजंग अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया।

पीड़िता की मौत- 29 सितंबर 2020

पीड़िता ने चोटों के कारण दम तोड़ दिया और बाद में 29 सितंबर 2020 की सुबह उसकी मृत्यु हो गई। अस्पताल में राजनीतिक दलों का विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया। किसी को बिना बताए पीड़िता के शव का अंतिम संस्कार करने की कोशिश की गई। बाद में पीड़िता के शव को बूलगढ़ी गांव ले जाया गया। 

पीड़िता के शव का अंतिम संस्कार – 30 सितंबर 2020

पीड़िता की मां द्वारा लगाए गए आरोपों के अनुसार, शव को पुलिस ने जबरन उनसे ले लिया और उन्होंने रात 2.30 बजे उसका अंतिम संस्कार कर दिया। अधिकारियों ने आरोपों से इनकार किया और कहा कि यह सहमति से हुआ था।

राज्य सरकार ने मामले की अन्वेषण के लिए एक विशेष अन्वेषण दल का गठन किया। इस घटना को लेकर सरकार और प्रशासनिक तंत्र को कई विरोध और आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। यूपी के एडीजी प्रशांत कुमार ने दावा किया कि रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि पीड़िता के साथ बलात्कार नहीं हुआ है। इस तरह के बयान देने के लिए उनकी आलोचना भी हुई क्योंकि हमला होने के एक हफ्ते से ज्यादा समय बाद स्वैब परीक्षण किया गया था। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि उसकी रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोटें आईं और उसकी गर्दन पर कई निशान थे, जो गला घोंटने के प्रयास का परिणाम थे। 

सीआरपीसी की धारा 144 लागू की गई- 1 अक्टूबर 2020

बूलगढ़ी गांव में सीआरपीसी की धारा 144 लागू कर दी गई थी। यह धारा गांव में चार से अधिक लोगों के एकत्र होने पर रोक लगाने से संबंधित है। इससे कई नेताओं को गांव में प्रवेश करने और पीड़ित परिवार से मिलने से रोक दिया गया।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा लिया गया स्वत: संज्ञान – 1 अक्टूबर 2020

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मामले में स्वत: संज्ञान लिया और प्रशासनिक अधिकारियों को मामले की सुनवाई में उपस्थित रहने के लिए समन जारी किया। अदालत इस बात से नाराज़ थी कि अधिकारियों ने कथित तौर पर बिना किसी सहमति के पीड़िता के शव का अंतिम संस्कार कर दिया। 

यूपी सरकार ने हलफनामा दाखिल किया- 6 अक्टूबर 2020

यूपी सरकार ने हलफनामा दायर कर पुलिस अधिकारियों के कृत्य को सही ठहराया। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने दावा किया कि पुलिस ने तुरंत अपराध दर्ज कर लिया था। अव्यवस्था से बचने के लिए शव का अंतिम संस्कार करना जरूरी हो गया था। दाह संस्कार के दौरान पीड़ित परिवार भी मौजूद था। 

संदीप का पत्र – 8 अक्टूबर 2020

संदीप की ओर से पुलिस को एक पत्र लिखा गया है, जिसमें दावा किया गया है कि उसकी पीड़िता से दोस्ती थी। वे कभी-कभी फोन कॉल पर बात करते थे। उन्होंने पीड़िता की मां और भाई पर प्रताड़ित करने का आरोप लगाया। उन्होंने संकेत दिया कि ऑनर किलिंग की संभावना है। कॉल हिस्ट्री से पता चलता है कि उनके बीच 104 बार कॉल की गईं थी।

पुलिस और सुरक्षा तैनात की गई – 9 अक्टूबर 2020

परिवार की सुरक्षा के लिए अधिकारियों द्वारा कर्मियों को तैनात किया गया है। क्षेत्र की निगरानी और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सीसीटीवी कैमरे भी लगाए गए थे। 

सीबीआई की संलिप्तता (इंवोलेवमेंट)- 11 अक्टूबर 2020

प्राथमिकी दर्ज करने के तुरंत बाद सीबीआई ने अन्वेषण अपने हाथ में ले ली। बढ़ते विरोध प्रदर्शन और न्याय की मांग के कारण मामले की अन्वेषण की जरूरत महसूस की गई। साथ ही, आधी रात में पीड़िता के शव का अंतिम संस्कार करने के लिए भी उनकी व्यापक आलोचना हुई।

पीड़िता का परिवार न्यायालय के समक्ष- 12 अक्टूबर 2020

कड़ी सुरक्षा के बीच पीड़ित परिवार की इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच में पेशी हुई। न्यायालय ने मामले को 2 नवंबर 2020 तक के लिए स्थगित कर दिया। जिला मजिस्ट्रेट ने कहा कि स्थिति की कानून व्यवस्था पर विचार करने के बाद दाह संस्कार का निर्णय लिया गया।

सीबीआई ने अन्वेषण जारी रखी- 13 अक्टूबर 2020

सीबीआई ने परिवार से मुलाकात की और दाह संस्कार स्थल से साक्ष्य एकत्र किए। स्थानीय पुलिस से भी पूछताछ की गई और मामले के दौरान एकत्र की गई सभी जानकारी और सबूत देने के लिए कहा गया। घटना के बाद पीड़िता को जिस स्थानीय अस्पताल में ले जाया गया, वहां उस दिन का सीसीटीवी फुटेज नहीं था। उन्होंने कहा कि उन्होंने सिर्फ 7 दिन का ही बैकअप रखा है। 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सीबीआई अन्वेषण की निगरानी की – 27 अक्टूबर 2020

इलाहाबाद उच्च न्यायालय को सीबीआई अन्वेषण की निगरानी करने और पीड़ित परिवार और सभी गवाहों को सीपीआरएफ सुरक्षा प्रदान करने का आदेश दिया गया था। उक्त आदेश भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया था।  

दाह संस्कार पर उठे सवाल- 4 नवंबर 2020

एसआईटी की रिपोर्ट पीड़िता के शव के अंतिम संस्कार पर कई सवाल उठाती है। अधिकारियों को उन लोगों के खिलाफ आगे की कार्रवाई करनी थी जो दाह संस्कार में शामिल थे, जो परिवार की सहमति के बिना किया गया था।

सीबीआई से स्टेटस रिपोर्ट- 6 नवंबर 2020

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सीबीआई से स्टेटस रिपोर्ट मांगी और पूछा कि मामले की अन्वेषण पूरी करने के लिए उन्हें और कितना समय चाहिए होगा। उन्हें 25 नवंबर 2020 से पहले स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया गया, जो अगली सुनवाई की तारीख भी थी।

ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ परीक्षण – 23 नवंबर 2020

चारों अभियुक्तों को ब्रेन इलेक्ट्रिकल ऑसिलेशन सिग्नेचर परीक्षण (बीईओएस) से गुजरना पड़ा, जो प्रकृति में गैर-आक्रामक हैं। उन्हें बीईओएस और पॉलीग्राफिक परीक्षण के लिए गुजरात ले जाया गया।

सरकारी वकील उपस्थित हुए – 25 नवंबर 2020

ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारी वकील पीड़िता के जल्दबाजी में दाह संस्कार को उचित ठहराते हैं। न्यायालय ने वकील की बात सुनी। वकील ने तथ्य सुनाए और तर्क दिया कि जिला मजिस्ट्रेट ने कोई गलत काम नहीं किया। पीड़ित के परिवार, उत्तर प्रदेश राज्य और सीबीआई द्वारा प्रस्तुतियाँ दी गईं। 

सीबीआई द्वारा दायर आरोप पत्र – 18 दिसंबर 2020

सीबीआई ने अभियुक्तों के खिलाफ विशेष न्यायाधीश बीडी भारती की अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया। उन पर आईपीसी और एससी/एसटी अधिनियम के तहत प्रावधानों के आरोप लगाए गए थे। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि यूपी पुलिस की ओर से खामियां थीं।

चारों अभियुक्तों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया। सीबीआई द्वारा जो धाराएं लगाई गईं वे इस प्रकार थीं-

  1. हत्या के लिए सजा के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 302
  2. बलात्कार की सजा के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 376
  3. भारतीय दंड संहिता की धारा 376A (बलात्कार करते समय) पीड़िता को चोट पहुंचाने और जिसके परिणामस्वरूप पीड़िता की मृत्यु हो जाए, के लिए सजा का प्रावधान है।
  4. सामूहिक बलात्कार के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 376D
  5. दलित लड़की के रूप में पीड़ित के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(2)(v)

मामले का अंत – 2 मार्च 2023

लगभग ढाई साल की लड़ाई के बाद न्यायालय ने 2 मार्च 2023 को अपना फैसला सुनाया। फैसले में चार अभियुक्तों में से एक को दोषी ठहराया गया। संदीप को आईपीसी की धारा 304 और एससी/एसटी अधिनियम के प्रावधानों के तहत अपराध का दोषी ठहराया गया था। उन्हें बलात्कार और हत्या का दोषी नहीं ठहराया गया। उन्हें आजीवन कारावास के साथ-साथ 50,000 रुपये के जुर्माने से दंडित किया गया। नमूनों के विलंबित संग्रह के लिए पुलिस अधिकारियों की व्यापक रूप से आलोचना की गई, जिसके कारण अंततः अन्वेषण विफल हो गई। 

हाथरस मामले में अभियुक्तों की संक्षिप्त पृष्ठभूमि

संदीप सिसौदिया (चंदू)

संदीप सिसौदिया हाथरस सामूहिक बलात्कार मामले में मुख्य और अप्राथमिकी अभियुक्त थे। शुरू में उन पर कई अपराधों का आरोप लगाया गया था। इन अपराधों में बलात्कार, हत्या का प्रयास और एससी/एसटी अधिनियम के तहत अपराध शामिल हैं। पीड़ित के बयान में उसका नाम काफी उजागर किया गया और घटना के तुरंत बाद उसकी गिरफ्तारी कर ली गई थी।

रवि

रवि अन्य तीन अभियुक्तों में से एक था। उस पर सामूहिक बलात्कार, हत्या आदि के आरोप भी लगे। पीड़िता के बयान के अनुसार, रवि पर मुख्य रूप से मारपीट का आरोप था।

रामू

रामू भी अन्य तीन अभियुक्तों में से एक था, जिस पर सामूहिक बलात्कार, हत्या और अन्य अपराधों का आरोप लगाया गया था। पीड़िता के बयान के मुताबिक, उसे मारपीट के आरोप में भी फंसाया गया था।

लवकुश

वह पीड़िता द्वारा नामित चौथा अभियुक्त था और उस पर हमला, सामूहिक बलात्कार और हत्या का आरोप लगाया गया था। 

चारों अभियुक्त एक ही गांव के थे लेकिन अलग-अलग जाति समूह के थे। 

हाथरस मामले में यूपी सरकार और उसका प्रशासन

भारत में न्याय प्रणाली के बारे में जनता द्वारा कई चिंताएँ उठाई गईं। हाथरस मामले की त्रासदी के बाद, तथ्यों और सूचनाओं को दबाने और नष्ट करने के लिए यूपी का प्रशासन गहन अन्वेषण के घेरे में आ गया। उन्होंने पीड़ित परिवार को भी कमज़ोर किया और पीड़ित परिवार को सहायता और मुआवजा प्रदान करने के अदालती आदेशों द्वारा दी गई राहत को चुनौती दी। उन्होंने सामूहिक हिंसा से बचने के लिए खुफिया विभाग द्वारा सुझाई गई रणनीति के रूप में दाह संस्कार की घटना को उचित ठहराने की कोशिश की। प्रशासन और सरकार द्वारा की गई कुछ कार्रवाइयां इस प्रकार हैं-

दाह संस्कार 

पुलिस अधिकारियों ने जल्दबाजी में मृतक के शव का अंतिम संस्कार कर दिया, जिससे उन पर कई सवाल खड़े हो गए। पीड़िता के परिवार की सहमति के बिना ही पीड़िता के शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया था। वे ठीक से यह बताने में सक्षम नहीं थे कि उन्होंने ऐसा क्यों किया, और उनके द्वारा की गई कार्रवाई का कारण साबित करने के लिए उनके द्वारा कोई उचित औचित्य नहीं दिया गया था। परिवार प्रशासन से अनुरोध कर रहा था कि उन्हें उनकी बेटी का अंतिम संस्कार पूरा करने की अनुमति दी जाए। लेकिन प्रशासन ने उन्हें अनुमति नहीं दी और आधी रात में लगभग 2:30 बजे उनका अंतिम संस्कार कर दिया। प्रशासन के इस कृत्य को सबूतों को मिटाने और जाति व्यवस्था और लड़की का दलित परिवार से होने के कारण होने वाले विरोध को रोकने के प्रयास के रूप में देखा गया। प्रशासन के कृत्यों की व्यापक आलोचना हुई और बाद में, सरकार ने कुछ उचित कार्रवाई की, मामले की उचित अन्वेषण के लिए एक टीम का गठन किया, लेकिन कुछ चीजों को पूर्ववत नहीं किया जा सकता है। 

मीडिया पर प्रतिबंध 

उत्तर प्रदेश सरकार ने मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया और पीड़ित परिवार को किसी से मिलने की इजाजत नहीं दी गई। सरकार की ओर से उठाया गया कदम मामले की गोपनीयता बनाए रखने के लिए था। हालाँकि, यह कहा गया कि परिवार को दी गई सुरक्षा उन्हें किसी भी नुकसान से बचाने के लिए थी; इसका उद्देश्य मीडिया के माध्यम से आम जनता तक मामले से संबंधित जानकारी के प्रवाह को सीमित करना था। सरकार के इस कार्य से अन्वेषण में पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर चिंताएं पैदा हो गईं। 

राजनेताओं पर प्रतिबंध

कई राजनीतिक नेताओं को परिवार से मिलने पर रोक लगा दी गई। यह अधिनियम व्यवस्था के विरुद्ध परिवार की हेराफेरी को रोकने के लिए किया गया था, लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह अधिनियम पीड़ित परिवार को लोगों से किसी भी तरह का समर्थन प्राप्त करने से रोकने के लिए किया गया था। साथ ही यह कार्य मामले की अन्वेषण को रोकने और परिवार से ही तथ्यों का पता लगाने के लिए किया गया था।

अदालत के आदेशों को चुनौती

परिवार के पक्ष में न्यायालय के आदेश को प्रशासन और सरकार ने चुनौती दी थी। जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सीबीआई द्वारा विशेष अन्वेषण का आदेश पारित किया, तो सरकार ने इसे चुनौती दी। हालाँकि, बाद में मामले की स्थिति को देखते हुए उन्होंने यह अपील वापस ले ली।

मुआवज़ा

शुरुआत में सरकार ने पीड़ित परिवार को मुआवजा देने से इनकार कर दिया। बलात्कार मामले के प्रति सरकार की असंवेदनशीलता का हवाला देते हुए सरकार के इस कृत्य की काफी आलोचना भी की गई। सरकार की ऐसी अनिच्छा ने पीड़ित परिवार की परेशानी बढ़ा दी। मुआवज़ा एक ऐसी चीज़ है जो अपराधों, विशेषकर यौन हिंसा के मामलों के पीड़ितों को दिया जाता है। 

धमकी और सहानुभूति की कमी

परिवार को अपने बयान बदलने के लिए डराने-धमकाने के लिए प्रशासन की आलोचना की गई और वे दबाव में थे क्योंकि उन्हें स्वतंत्र रूप से बोलने की अनुमति नहीं थी। विशेष रूप से अन्वेषण के प्रारंभिक चरण में, पुलिस अधिकारी मामले के प्रति असंवेदनशील थे और परिवार जिस आघात से गुजर रहा था उसे समझने में विफल रहे 

हाथरस मामले में न्यायालय के फैसले का विश्लेषण

यहां इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले का विवरण दिया गया है। 

दोषसिद्धि

न्यायालय ने संदीप सिसौदिया (चंदू) को दोषी पाया। उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 304 और एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत दोषी पाया गया। यह गैर इरादतन मानव वध जो हत्या नही है से संबंधित है। न्यायालय ने कहा कि संदीप इस घटना में शामिल था, इसमें कोई सवाल नहीं है, लेकिन उसके द्वारा किया गया कृत्य कोई सोची-समझी हत्या नहीं थी। दुपट्टे से घसीटे जाने के कारण पीड़िता की मौत हो गई। इससे वह बेहोश हो गई और बाद में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। 

उन्होंने पोस्टमार्टम मेडिकल रिपोर्ट और न्यायालय में मां की गवाही जैसे सबूतों पर भरोसा करते हुए संदीप को दोषी पाया। मुख्य कारक संयुक्ताक्षर (लिगेचर) के निशान और पीड़िता और उसकी मां द्वारा दी गई गवाही थी। हालाँकि, अदालत ने फैसला सुनाया कि हालाँकि पीड़िता की मौत उसे घसीटे जाने के कारण हुई थी, लेकिन उसकी हत्या करने का कोई स्पष्ट इरादा नहीं था।

दोषमुक्ति

इस मामले में रवि, रामू और लवकुश को बरी कर दिया गया। चार में से तीन अभियुक्तों को न्यायालय ने रिहा कर दिया। वकील मृत्यु पूर्व बयान और साक्ष्य मामले में उनकी संलिप्तता को निर्णायक रूप से स्थापित करने में सक्षम नहीं थे। बलात्कार और हत्या सहित सभी आरोप वापस ले लिए गए। अदालत को उन्हें हत्या और सामूहिक बलात्कार का दोषी साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं मिले। पीड़िता के बयान में कई अनिश्चितताएं और अस्पष्टताएं थीं, जिसके कारण इन तीनों के खिलाफ स्पष्ट दोषसिद्धि साबित नहीं हो सकी। इस बात की बहुत कम संभावना थी कि पीड़िता को उससे मिलने वाले नेताओं के राजनीतिक प्रभाव से पढ़ाया जा सकता है। यह भी नोट किया गया कि ‘फाल्सस इन यूनो फाल्सस इन ओम्निबस’ का सिद्धांत भारत में लागू नहीं है। इस कहावत का अर्थ है कि जो एक चीज़ में झूठ है वह हर चीज़ में झूठ है। इसका मतलब यह है कि सिर्फ इसलिए कि पीड़िता के बयान में विसंगतियां थीं, इसका मतलब यह नहीं है कि उसका पूरा बयान सच नहीं था। 

तथ्यपरक परीक्षण

अदालत ने मामले की गहराई में जाकर इसमें शामिल तथ्यों की विस्तृत अन्वेषण की। यह तथ्य कि लड़की एक दलित परिवार से है, उन परिस्थितियों में से एक के रूप में उजागर किया गया था जिसके कारण 14 सितंबर 2020 को दिल दहला देने वाली घटना हुई। अदालत ने देखा कि परिवार को शुरुआती चरणों में प्राथमिकी दर्ज करते समय समस्याओं का सामना करना पड़ा। पुलिस भी मामले के प्रति असंवेदनशील थी, जिसके कारण भारत की प्रशासनिक व्यवस्था की व्यापक आलोचना हुई। मामले को संभालने के तरीके के कारण पुलिस को कई आलोचनाएँ मिलीं। 

आरोप और सबूत 

निम्नलिखित के तहत अभियुक्तों पर आरोप तय किये गये 

  1. हत्या के लिए सजा के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 302।
  2. बलात्कार की सजा के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 376।
  3. भारतीय दंड संहिता की धारा 376A (बलात्कार करते समय) पीड़िता को चोट पहुंचाने और जिसके परिणामस्वरूप पीड़िता की मृत्यु हो जाए, के लिए सजा का प्रावधान है।
  4. सामूहिक बलात्कार के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 376D।
  5. दलित लड़की के रूप में पीड़ित के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(2)(v)।

पीड़िता द्वारा अस्पताल में आखिरी सांसें गिनते समय दिया गया बयान भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के तहत मृत्यु पूर्व दिया गया बयान माना जाता है। साक्ष्य का यह टुकड़ा मामले का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। संदीप सिसौदिया (चंदू) की सजा मृत्यु पूर्व दिए गए बयान और पीड़िता की मां द्वारा दिए गए बयानों पर काफी हद तक निर्भर थी।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पीड़िता को लगी चोटों की पुष्टि हुई है। इससे यह साबित हो गया कि उसकी गर्दन पर चोट के निशान दुपट्टे के कारण थे और उसे संदीप सिसौदिया ने दुपट्टे से खींचा था। 

फाल्सस इन यूनो फाल्सस इन ओम्निबस  का सिद्धांत

न्यायालय ने कहा कि ‘फाल्सस इन यूनो, फाल्सस इन ओम्निबस’ का सिद्धांत भारत में लागू नहीं है। इस सिद्धांत का अर्थ है एक चीज़ में झूठ, हर चीज़ में झूठ है। ऐसी संभावना है कि पीड़िता के बयानों में तथ्यों और घटनाओं का अनावश्यक अतिशयोक्ति (एक्सैगरेशन) हो सकती है। बयान में उठाए गए सवाल में गवाही में झूठ का कुछ तत्व हो सकता है। न्यायालय ने कहा कि यह अदालत का कर्तव्य है कि वह साक्ष्य के विश्वसनीय हिस्से की पहचान करे और उसका अत्यंत सावधानी से विश्लेषण करे और उसे अविश्वसनीय हिस्सों से अलग करे। हालाँकि, यह नहीं कहा जा सकता कि पीड़िता का बयान पूरी तरह से झूठा है। 

इरादा 

अदालत ने कहा कि सबूतों से पीड़ित की हत्या करने का स्पष्ट इरादा स्थापित नहीं हुआ। चूँकि घटना घटित होने के आठ दिन बाद लड़ाई के बाद पीड़ित की मृत्यु हो गई, इसलिए इस मामले में हत्या का कोई स्पष्ट कारण स्थापित नहीं किया जा सकता है। 

पुलिस द्वारा दुर्व्यवहार

परिस्थितिजन्य (सर्कमस्टेंशियल) साक्ष्य मिलने के बाद भी स्थानीय पुलिस ने शुरुआती स्तर पर बलात्कार का आरोप तय नहीं किया। प्रारंभिक प्राथमिकी में बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के किसी भी आरोप का उल्लेख नहीं किया गया था। इसमें आईपीसी की धारा 354 शामिल थी, जो एक कम सजा के प्रावधान से संबंधित है। एक सप्ताह बाद बलात्कार का आरोप जोड़ा गया। सीबीआई ने अन्वेषण अपने हाथ में लेने के बाद आईपीसी की धाराएं और एससी/एसटी अधिनियम लगाते हुए प्राथमिकी दर्ज की। हालाँकि, ऐसे कई सबूत थे जो अन्वेषण के शुरुआती चरण में खो गए थे। उन्होंने यह भी घोषित किया कि, फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला (एफएसएल) की रिपोर्ट के अनुसार, लड़की के साथ बलात्कार नहीं किया गया था क्योंकि कोई वीर्य नहीं पाया गया था। चिकित्सा विशेषज्ञों ने इस विचार की आलोचना की कि नमूने वास्तविक अपराध होने के 72-90 घंटों के भीतर एकत्र किए जाने चाहिए। यह भी प्राथमिकता दी जाती है कि पीड़ित ने आदर्श रूप से पेशाब, शौच या स्नान न किया हो। अदालत ने कहा कि बलात्कार और हत्या के मामलों में अन्वेषण काफी हद तक भौतिक साक्ष्यों पर निर्भर करती है। इस मामले में पुलिस अधिकारियों की अक्षमता को सबूतों के गलत इस्तेमाल और देरी से एकत्र किए जाने के कारण देखा जा सकता है।

सीबीआई की दलीलें

सीबीआई ने हाथरस की एक विशेष अदालत में आरोप पत्र दायर किया और एससी/एसटी अधिनियम के साथ-साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या की धाराएं भी लगाईं। उनका तर्क था कि अगर पुलिस ने ठीक से अन्वेषण की होती तो पीड़िता शुरुआती दौर में ही इस बारे में बता पाती। उन्होंने यह भी कहा कि पीड़िता और उसके परिवार को उनकी दलित पहचान के कारण पुलिस अधिकारियों द्वारा ध्यान और सम्मान नहीं दिया गया। यदि उनके द्वारा शुरुआती चरण में ही मामले की ठीक से अन्वेषण की गई होती तो फैसला अलग हो सकता था।     

हाथरस मामले के लिए सुधार और उसके बाद के विचार

2012 में निर्भया कांड होने के बाद, भारत में आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 पेश किया गया था। इसे निर्भया अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है। यह यौन अपराधों के अपराधियों को सख्त दंड प्रदान करने के लिए अस्तित्व में आया। इसमें कुछ मामलों में मृत्युदंड भी शामिल है। इन परिवर्तनों और प्रावधानों के बावजूद, कानून के प्रक्रियात्मक हिस्से में अभी भी कमी है। अपराधी मामले के प्रक्रियात्मक पहलू में खामियां ढूंढने में सफल हो जाते हैं और न्यूनतम या बिना किसी दंड के बच निकलने में सफल हो जाते हैं। 

जाति-आधारित भेदभाव और लिंग-आधारित यौन हिंसा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए, किसी को उन बारीकियों और गंभीरता को समझना चाहिए जो ये संवेदनशील मामले अपने साथ लेकर चलते हैं। कई हज़ार साल पीछे जाकर, कोई भी इस तथ्य की सराहना कर सकता है कि जाति-आधारित भेदभाव भारत की नसों में निहित है। यह एक ऐसी प्रणाली है जहां किसी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके सामाजिक पदानुक्रम और उस श्रेणी के आधार पर किया जाता है जिसमें वह खड़ा है। पदानुक्रम (हायरार्की), सामाजिक पदानुक्रम में ‘ब्राह्मणों’ को शीर्ष पर और ‘दलितों’ को सबसे नीचे होने का संकेत देता है। ऐतिहासिक रूप से, दलितों को जाति-आधारित भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक हाशिए पर रखा जाना आदि का शिकार होना पड़ा। हाथरस मामले ने इस समुदाय से संबंधित होने के कारण लड़की द्वारा सामना की जाने वाली कमजोरियों को दर्शाया। वे हिंसा, शोषण और दुर्व्यवहार के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। 

भारत में लिंग आधारित हिंसा लगातार होती रही है। इसमें बलात्कार, घरेलू हिंसा, एसिड हमले और दुर्व्यवहार के अन्य रूप शामिल हैं। हाथरस मामले ने निर्भया जैसे यौन हिंसा के पिछले दिल दहला देने वाले मामलों की यादें ताजा कर दीं। इस मामले के कारण देश भर में विरोध प्रदर्शन और न्याय की मांग के साथ-साथ कानूनी ढांचे में भी बदलाव की मांग उठी। इन तमाम विरोध प्रदर्शनों और सुधारों की मांग के बावजूद एक के बाद एक मामले होते रहे है।

निष्कर्ष

हाथरस सामूहिक बलात्कार भारत में न्याय प्रणाली की स्थिति पर कई गहरे सवाल और चिंताएँ पैदा करता है। भारत के हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए विशेष चिंताएँ व्यक्त की जाती हैं। मामले में कई जटिलताएँ थीं, और सबूतों की प्रकृति और इसके विलंबित संग्रह के कारण अपराध साबित करना काफी कठिन था। इस फैसले ने महत्वपूर्ण संदेह और निराशा पैदा की। तीन अभियुक्तों का बरी होना न्याय प्रणाली की कमियों को उजागर करता है। साक्ष्य और मृत्यु पूर्व बयान के बावजूद तीनों अभियुक्तों को क्लीन चिट देकर बरी कर दिया गया। 

फैसला मौजूदा न्याय प्रणाली की कमियों की ओर इशारा करता है और निष्पक्ष अन्वेषण को बढ़ावा देने के लिए पुलिस और प्रशासनिक प्रणालियों में बड़े और प्रभावी सुधारों की आवश्यकता है। मामला इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि न्याय, समानता और जातिगत भेदभाव की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। सुरक्षित और निष्पक्ष जीवन जीने के लिए समाज में अभी भी बदलाव की सख्त जरूरत है। हालाँकि, हाथरस मामला भारत में लिंग-आधारित हिंसा और जाति-आधारित भेदभाव को संबोधित करने के लिए एक स्पष्ट अनुस्मारक है। कानूनी सुधारों के साथ-साथ समाज को अपनी मानसिकता बदलने की भी जरूरत है। मुद्दे कहीं न कहीं एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं और असफलताओं से प्रभावी ढंग से लड़ने और अधिक न्यायसंगत और न्यायसंगत समाज सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयासों के साथ-साथ व्यापक कार्रवाई की आवश्यकता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

हाथरस मामले में क्या फैसला आया?

चारों अभियुक्तों में से एक संदीप सिसौदिया को भारतीय दंड न्यायालय की धारा 304 और एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत गैर इरादतन हत्या का दोषी ठहराया गया था।

भारत के किस राज्य में बलात्कार के आँकड़े सबसे अधिक हैं?

रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में पूरे भारत में बलात्कार के मामलों की संख्या सबसे अधिक राजस्थान में है। इसके बाद मध्य प्रदेश का स्थान है। कुल मिलाकर उस साल बलात्कार के 31 हजार मामले सामने आए थे।

संदर्भ

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