भारत में मध्यस्थता की प्रक्रिया के लिए गाइड

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यह लेख एडवांस्ड सिविल लिटिगेशन: प्रैक्टिस, प्रोसीजर एंड ड्राफ्टिंग में सर्टिफिकेट कोर्स कर रहे Prabhanshu Sharma द्वारा लिखा गया है और Shashwat Kaushik द्वारा संपादित (एडिट) किया गया है। इस लेख में भारत देश में मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) के बारे में सब कुछ बताया गया है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

परिचय

मध्यस्थता का अंग्रेजी शब्द आर्बिट्रेशन, लैटिन मूल का है। अपने शाब्दिक अर्थ में, अंग्रेजी शब्द आर्बिट्रेशन की उत्पत्ति लैटिन शब्द ‘आर्बिट्रारी’ से हुई है, जिसका अर्थ है “न्याय करना।” आम तौर पर, मध्यस्थता को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें एक विशिष्ट प्रकृति का विवाद, पक्षों के समझौते से, एक या एक से अधिक मध्यस्थों (आर्बिट्रेटर्स) (निश्चित रूप से विषम (ऑड) संख्या में) को प्रस्तुत किया जाता है, जो तब उनके सामने लाए गए विवाद पर फैसला सुनाते हैं जो पक्षों पर बाध्यकारी होता है।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 की धारा 2(1)(a) के अनुसार, “मध्यस्थता” का अर्थ कोई भी मध्यस्थता है, चाहे वह स्थायी मध्यस्थ संस्था द्वारा प्रशासित हो या नहीं। मध्यस्थता अदालतों और न्यायिक प्रणाली के बाहर विवादों को सुलझाने की एक विधि है। पक्ष विवाद (विवादों) को मध्यस्थता के लिए केवल तभी संदर्भित कर सकते हैं जब समझौते के संबंधित पक्षों के बीच मध्यस्थता समझौता मौजूद हो। दूसरे शब्दों में, किसी भी प्रकार की मध्यस्थता को मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के दायरे में लाकर भारत में मध्यस्थता के किसी भी रूप को वैधानिक रूप से मान्यता दी गई है। इसमें एक सरल परीक्षण शामिल है, जिसमें साक्ष्य के सरल नियम हैं और कोई खोज नहीं की जाती है। मध्यस्थता परीक्षण आमतौर पर सार्वजनिक रिकॉर्ड का मामला नहीं होती है। 

मध्यस्थता का उपयोग आमतौर पर उन विवादों में किया जाता है जो व्यावसायिक प्रकृति के होते हैं। मध्यस्थता आम तौर पर अदालती मुकदमेबाजी की तुलना में एक तेज़ प्रक्रिया है, और यही कारण है कि वाणिज्यिक (कमर्शियल) प्रकृति के उच्च जोखिम वाले मामलों को मध्यस्थता के लिए भेजा जाता है।

मध्यस्थता के प्रकार

मध्यस्थता की प्रकिया के निम्नलिखित प्रकार हो सकते हैं:

स्वैच्छिक और अनिवार्य मध्यस्थता

कभी-कभी किसी समझौते में अनिवार्य मध्यस्थता खंड को शामिल करके मध्यस्थता लागू की जा सकती है। जब पक्ष एक अनुबंध में सहमत होते हैं कि वे केवल मध्यस्थता के माध्यम से विवादों को हल करेंगे और वे विवाद समाधान तंत्र के रूप में मुकदमेबाजी को प्राथमिकता नहीं देंगे, और यदि उक्त पक्षों के बीच कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो यदि एक पक्ष मामले में मध्यस्थता करने के लिए अनिच्छुक है, तो ऐसी परिस्थितियों में, दूसरा पक्ष, अदालत के हस्तक्षेप से, दूसरे पक्ष को ऐसे विवाद को मध्यस्थता के माध्यम से हल करने के लिए मजबूर कर सकता है। अनिवार्य मध्यस्थता खंड पर सहमत होते समय, संबंधित पक्षों को कुछ अधिकारों को छोड़ना पड़ता है।

स्वैच्छिक मध्यस्थता में, सारे पक्ष, अपनी पहल पर, अपने विवादों को मध्यस्थता के माध्यम से हल करने के लिए एक निष्पक्ष तीसरे पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए आगे बढ़ते हैं। इस प्रकार की मध्यस्थता में पक्ष अदालतों का समय बर्बाद नहीं करते हैं और अपनी लागत और समय भी बचाते हैं। स्वैच्छिक मध्यस्थता में, पक्ष विवाद-पूर्व मध्यस्थता समझौता कर सकते हैं या विवाद उत्पन्न होने के बाद अपने विवाद को मध्यस्थता में प्रस्तुत करने के लिए मध्यस्थता समझौते में प्रवेश कर सकते हैं।

बाध्यकारी और गैर-बाध्यकारी मध्यस्थता

एक बाध्यकारी मध्यस्थता समझौते में, सारे पक्ष मध्यस्थ पंचाट (अवार्ड) के खिलाफ मुकदमा करने या अपील करने का अपना अधिकार छोड़ देते हैं, जबकि गैर-बाध्यकारी समझौते में ऐसा मामला नहीं होता है। तुलनात्मक रूप से, बाध्यकारी मध्यस्थता दोनों पक्षों के लिए अधिक अनुकूल है क्योंकि यह पक्षों और साथ ही, अदालतों के लिए मूल्यवान समय बचाता है, और यह दोनों पक्षों के लिए कानूनी पेशेवरों की लागत भी बचाता है। एक गैर-बाध्यकारी मध्यस्थता समझौते में, यदि पक्षों को मध्यस्थ पंचाट के साथ कोई विवाद है तो वे अदालत में जाने के लिए स्वतंत्र होते हैं।

संस्थागत मध्यस्थता

संस्थागत मध्यस्थता एक विशेष मध्यस्थता संस्था की छत्रछाया में की जाती है। इस प्रकार की मध्यस्थता में जिस मध्यस्थता संस्था से संपर्क किया जाता है वह मध्यस्थता की कार्यवाही में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इन मध्यस्थता संस्थानों ने विवादों के समाधान के लिए की जाने वाली कार्यवाही के लिए नियम निर्धारित किए हैं। ये नियम मध्यस्थता की प्रक्रिया के लिए एक बुनियादी ढांचा प्रदान करते हैं, जिसमें पालन की जाने वाली समयसीमा और प्रक्रियाएं शामिल होती हैं। संस्थागत मध्यस्थता में विवादित पक्ष समझौते द्वारा अपना विवाद एक मध्यस्थता संस्था को सौंपते हैं, जो तब मध्यस्थता की कार्यवाही का प्रबंधन करती है। यह अपने पैनल से मध्यस्थों की नियुक्ति करता है और फिर मामले के लिए प्रबंधन सेवाएं, सचिवीय सेवाएं, कार्यवाही की निगरानी, ​​स्थान तय करना और मध्यस्थता परीक्षण आयोजित करना प्रदान करता है।

तदर्थ (एड- हॉक) मध्यस्थता

तदर्थ मध्यस्थता का सीधा सा अर्थ होता है, यह एक ऐसे प्रकार की मध्यस्थता है जिसे कोई मध्यस्थता संस्था प्रबंधित नहीं करती है। तुलनात्मक रूप से, तदर्थ मध्यस्थता संस्थागत मध्यस्थता की तुलना में कम महंगी होती है। तदर्थ मध्यस्थता में, सारे पक्ष कम या ज्यादा खुद ही कार्यवाही के सभी पहलुओं के लिए जिम्मेदार होते हैं, जैसे मध्यस्थों का निर्णय, लागू कानून और कार्यवाही का सुचारू संचालन।

घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता

घरेलू मध्यस्थता एक प्रकार का वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र है जो एक ही अधिकार क्षेत्र के भीतर होता है, जिसमें एक ही अधिकार क्षेत्र से दोनों पक्षों के पक्ष होते हैं। इस प्रकार की मध्यस्थता में, उस विशेष देश के मध्यस्थता कानून लागू होते हैं जिसमें कार्यवाही आयोजित की जा रही होती है। इस लंबी कहानी को अगर संक्षेप में कहें तो, यदि मध्यस्थता कार्यवाही के सभी पहलू एक विशिष्ट एकल अधिकार क्षेत्र से संबंधित होते हैं, तो ऐसी कार्यवाही को घरेलू मध्यस्थता कार्यवाही के रूप में पहचाना जाना चाहिए।

दूसरी ओर, यदि मध्यस्थता कार्यवाही का कोई पहलू किसी विदेशी क्षेत्र से जुड़ा हुआ होता है, तो ऐसी स्थिति में मध्यस्थता कार्यवाही को अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता कार्यवाही माना जाता है।

मध्यस्थता की प्रक्रिया के लाभ

मध्यस्थता की प्रक्रिया के लाभ इस प्रकार हैं:

  • मध्यस्थता लागत-प्रभावी कार्यवाही है: ज्यादातर मामलों में, मध्यस्थता कार्यवाही की लागत मध्यस्थता के पक्षों के बीच विभाजित हो जाती है। यह पक्षों को मुकदमेबाजी में होने वाली भारी लागत से भी बचाता है। चूँकि आप बहुत समय बचाते हैं, आप अदालत और मुकदमेबाजी में समय बर्बाद करने के बजाय व्यावसायिक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए अधिक पैसा कमा सकते हैं।
  • मध्यस्थता एक तेज़ प्रक्रिया है: यदि आप मुकदमेबाजी के बजाय मध्यस्थता का विकल्प चुनते हैं, तो आपके विवाद मुकदमेबाजी की तुलना में तेजी से हल हो जाएंगे। इससे संबंधित पक्षों का काफी समय बचता है और वे इस समय को अधिक उत्पादक कार्यों में निवेश कर सकते हैं।
  • कार्यवाही का नियंत्रण: मध्यस्थता के मामले में कार्यवाही का नियंत्रण पक्षों के हाथ में अधिक रहता है, जो मुकदमेबाजी के मामले में संभव नहीं होता है। मुकदमेबाजी में, विवादों को सुलझाने की कार्यवाही पर अदालतों और देश के प्रक्रियात्मक कानून का अधिक नियंत्रण होता है।
  • विवाद पर बाध्यकारी निर्णय: किसी विवाद पर मध्यस्थ न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) द्वारा दिया गया निर्णय पंचाट कहलाता है। और ऐसा पंचाट, यदि पक्षों द्वारा विवाद के पहले ही सहमति व्यक्त की गई हो, तब एक बाध्यकारी निर्णय होता है और लागू करने योग्य भी होता है।
  • शामिल पक्षों की आपसी सहमति: मध्यस्थता की कार्यवाही तब तक शुरू नहीं की जा सकती जब तक कि समझौते से संबंधित पक्षों के बीच कोई मध्यस्थता समझौता मौजूद न हो। ऐसी सहमति से विवाद सुलझने की संभावना बढ़ जाती है।
  • मध्यस्थ चुनने और प्रक्रिया का संचालन करने के लिए स्वतंत्र: मध्यस्थता कार्यवाही में पक्ष मध्यस्थ चुनने के लिए स्वतंत्र होते हैं, जिससे इसमें शामिल पक्षों के साथ पक्षपात की संभावना कम हो जाती है।
  • मध्यस्थता में सरल प्रक्रिया शामिल है: मध्यस्थता में मुकदमेबाजी की तुलना में इतनी कठिन प्रक्रियाएं शामिल नहीं होती हैं। मुकदमेबाजी की तुलना में, मध्यस्थता की कार्यवाही अधिक अनौपचारिक (इनफॉर्मल) और सरल होती है।
  • मध्यस्थता में गोपनीयता बरकरार रहती है: मध्यस्थता की कार्यवाही को मुकदमेबाजी की तरह रिपोर्ट और प्रकाशित नहीं किया जाता है। मध्यस्थता कार्यवाही में मामले की गोपनीयता बरकरार रखी जाती है।
  • मध्यस्थ पंचाट के लिए समय सीमा तय की जा सकती है: मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 29A में निर्धारित प्रावधानों के अनुसार, मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा पंचाट देने की समय सीमा दलील पूरी होने की तारीख से बारह महीने होती है। और पक्षों की सहमति के अधीन ऐसी समय सीमा केवल छह महीने के लिए बढ़ाई जा सकती है।

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मध्यस्थता की प्रकिया के नुकसान

मध्यस्थता की प्रकिया के नुकसान इस प्रकार हैं:

  • मध्यस्थता में कोई अपील नहीं की जा सकती है: किसी मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ कोई अपील नहीं की जा सकती है। पंचाट प्राप्त करने के बाद, यदि विवाद का कोई पक्ष पंचाट से असंतुष्ट होता है या यह सोचता है कि निर्णय सटीक और विवेकपूर्ण नहीं है, तो वह इसके बारे में कुछ नहीं कर सकता है।
  • मध्यस्थता की प्रक्रिया में बहुत आसान कार्यवाही और साक्ष्य के नियम होते है: इसे एक फायदा यह भी कहा जा सकता है कि मध्यस्थता की कार्यवाही में कार्यवाही और साक्ष्य के नियम बहुत आसान, अनौपचारिक और सरल होते हैं, और क्योंकि 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार, गवाहों की जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) और परीक्षा शपथ पर नहीं की जाती है, इससे कभी-कभी मध्यस्थ पंचाटों में अशुद्धि हो जाती है।

मध्यस्थता की प्रक्रिया के अधिक नुकसान नहीं हैं, क्योंकि इस प्रक्रिया में दोनो पक्ष आपस में सहमत होते हैं और विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करने के लिए अपनी सहमति देते हैं।

मध्यस्थ न्यायाधिकरण क्या है

एक मध्यस्थ या मध्यस्थता न्यायाधिकरण मध्यस्थों या एकमात्र मध्यस्थों का एक पैनल होता है जो विवाद (विवादों) पर निर्णय देता है और मध्यस्थता कानूनों के अनुसार अनुबंध करने वाले पक्षों के बीच विवाद (विवादों) को हल करता है। एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण में एक एकमात्र मध्यस्थ शामिल हो सकता है, या इसमें पक्षों की पसंद के आधार पर बड़ी संख्या में मध्यस्थ भी शामिल हो सकते हैं, बशर्ते कि ऐसी संख्या एक विषम संख्या नहीं होगी। यदि पक्ष मध्यस्थों की संख्या निर्धारित करने में विफल रहते हैं, तो मध्यस्थ न्यायाधिकरण में एकमात्र मध्यस्थ ही शामिल हो सकता है।

पक्षों के समझौते के अधीन, किसी भी राष्ट्रीयता का व्यक्ति मध्यस्थ बन सकता है। पक्ष मध्यस्थ न्यायाधिकरण की नियुक्ति की प्रक्रिया तय करने के लिए स्वतंत्र हैं। यदि पक्ष किसी मध्यस्थ न्यायाधिकरण को चुनने की प्रक्रिया पर सहमत नहीं होता हैं, तो तीन मध्यस्थों वाले न्यायाधिकरण में, प्रत्येक पक्ष एक मध्यस्थ का चयन करेगा, और वे चयनित मध्यस्थ तीसरे मध्यस्थ का चयन करेंगे, जो तब न्यायाधिकरण के पीठासीन अधिकारी (प्रिसाइडिंग ऑफिसर) के रूप में कार्य करेगा।

मध्यस्थ न्यायाधिकरण का अधिकार क्षेत्र

मध्यस्थ न्यायाधिकरण अपने अधिकार क्षेत्र के तहत निर्णय दे सकता है, और यह मध्यस्थता समझौते की वैधता या अस्तित्व पर नियम बना सकता है। मध्यस्थ न्यायाधिकरण यह निर्णय ले सकता है कि क्या उसके समक्ष अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने के लिए कोई याचिका दायर की गई है। एक पक्ष मध्यस्थता कार्यवाही जारी रखते हुए अंतरिम (इंटरीम) राहत के लिए आवेदन कर सकता है। किसी मध्यस्थ न्यायाधिकरण के निर्णय से व्यथित पक्ष मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 में निर्धारित प्रावधानों के अनुसार ऐसे दोषपूर्ण मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के लिए आवेदन दायर कर सकता है।

मध्यस्थता में प्रक्रियाएं

  • एक मध्यस्थता प्रक्रिया की कार्यवाही सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908, या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 से बंधी हुई नहीं है। परिसीमा (लिमिटेशन) का कानून मध्यस्थता पर उसी तरह लागू होता है जैसे यह अदालती कार्यवाही पर लागू होता है।
  • मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया पर सहमत होने की पर्याप्त स्वतंत्रता है। मध्यस्थता के पक्ष मध्यस्थता का स्थान चुनने के लिए भी स्वतंत्र होते हैं। मध्यस्थता कार्यवाही की भाषा पर सहमत होने के संबंध में भी पक्षों को स्वतंत्रता दी गई है।
  • यदि कोई भी पक्ष किसी प्रक्रिया पर सहमत नहीं होते हैं, तो न्यायाधिकरण संबंधित मामले में जिस तरीके से उचित समझे, कार्यवाही कर सकता है।
  • यदि सारे पक्ष मध्यस्थता कार्यवाही संचालित करने के लिए स्थान चुनने में विफल रहते हैं, तो मध्यस्थता न्यायाधिकरण पक्षों के अनुरूप कार्यवाही संचालित करने के लिए एक उपयुक्त स्थान का चयन कर सकता है।
  • यदि पक्षों के बीच कार्यवाही की भाषा पर कोई सहमति नहीं होती है, तो मध्यस्थ न्यायाधिकरण कार्यवाही की भाषा निर्धारित कर सकता है।
  • मध्यस्थ न्यायाधिकरण किसी भी साक्ष्य की स्वीकार्यता (एडमिसिबिलिटी), प्रासंगिकता, भौतिकता (मेटेरियलिटी) निर्धारित कर सकता है।
  • मध्यस्थ न्यायाधिकरण के पास यह आदेश देने का विवेक है कि किसी भी दस्तावेजी साक्ष्य के साथ उस भाषा (भाषाओं) में अनुवाद किया जाएगा जिस पर पक्षों द्वारा सहमति व्यक्त की गई है या मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारित किया गया है।
  • पक्षों के समझौते के अधीन, किसी विशेष विवाद की प्रासंगिकता में मध्यस्थ कार्यवाही उस तारीख से शुरू होगी जिस दिन संबंधित विवाद को मध्यस्थ न्यायाधिकरण में भेजने का अनुरोध प्रतिवादी द्वारा प्राप्त किया जाता है।

  • निर्धारित समय के भीतर, मध्यस्थता के पक्षों द्वारा सहमति व्यक्त की गई या न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारित, दावेदार को अपने दावे का समर्थन करने के लिए लिखित रूप में तथ्य प्रस्तुत करना होगा, जिसमें मुद्दे के बिंदु भी शामिल होंगे (कुछ वैसा ही जैसा कि वादी ने सीपीसी, 1908 के अनुसार अदालत में प्रस्तुत किया था) और राहत या उपाय मांगा जाएगा। प्रतिवादी को दावों के संबंध में अपने बचाव में तथ्यों से युक्त एक दस्तावेज प्रस्तुत करना होगा (सीपीसी, 1908 के अनुसार अदालत में प्रस्तुत लिखित बयान के समान)।
  • सारे पक्ष अपने दावे या बचाव के समर्थन में वे सभी दस्तावेज़ या साक्ष्य प्रस्तुत कर सकते हैं जिन्हें वे प्रासंगिक मानते हैं।
  • मध्यस्थ कार्यवाही के दौरान, प्रतिवादी अपने मामले के समर्थन में प्रतिदावा (काउंटर क्लेम) भी प्रस्तुत कर सकता है या वह मामले को  मुजरा (सेट- ऑफ) करने का अनुरोध भी कर सकता है। पक्ष कुछ शर्तों के अधीन, बहस में संशोधन या पूरक कर सकते हैं। दावे या बचाव का विवरण मध्यस्थ न्यायाधिकरण की नियुक्ति की तारीख से छह महीने के भीतर मध्यस्थ न्यायाधिकरण को प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
  • मध्यस्थ न्यायाधिकरण यह तय करेगा कि मामले के साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए, मौखिक तर्क के लिए मौखिक परीक्षण की जाए या नहीं, या फिर कार्यवाही दस्तावेजों पर आधारित होगी या नहीं।
  • मध्यस्थ न्यायाधिकरण पर्याप्त कारण के बिना कोई स्थगन (एडजोर्नमेंट) नहीं देगा और यह अपने विवेक के आधार पर, पर्याप्त कारण बताए बिना स्थगन चाहने वाले पक्षों पर जुर्माना भी लगा सकता है।
  • पक्षों को दस्तावेजी साक्ष्य, सामान, या किसी अन्य संपत्ति के निरीक्षण के लिए आयोजित होने वाली परीक्षण या मध्यस्थ न्यायाधिकरण की बैठक की अग्रिम सूचना दी जाएगी। मध्यस्थ न्यायाधिकरण के समक्ष प्रस्तुत की गई प्रत्येक सामग्री, दस्तावेज़, साक्ष्य, दी गई जानकारी या आवेदन के बारे में किसी अन्य पक्ष को भी सूचित किया जाएगा।
  • वह सब कुछ जिस पर मध्यस्थ न्यायाधिकरण निर्णय लेने के लिए निर्भर कर रहा है या करने वाला है, सभी पक्षों को सूचित किया जाएगा।
  • यदि दावेदार धारा 23(1) में निर्धारित प्रावधान के अनुसार अपना बयान प्रस्तुत करने में विफल रहता है, तो मध्यस्थ न्यायाधिकरण कार्यवाही समाप्त कर देगा, लेकिन यदि प्रतिवादी पैराग्राफ में उपरोक्त प्रावधान के अनुसार अपना बचाव पक्ष प्रस्तुत करने में विफल रहता है, तो न्यायाधिकरण ऐसी विफलता को दावे के बयान में आरोपों की स्वीकृति के रूप में मानते हुए कार्यवाही जारी रखेगा।
  • मध्यस्थता न्यायाधिकरण उसके द्वारा निर्धारित किए जाने वाले विशिष्ट मुद्दों पर रिपोर्ट करने के लिए एक या अधिक विषय-वस्तु विशेषज्ञों को नियुक्त कर सकता है।
  • यह किसी भी पक्ष को संबंधित मामले के बारे में कोई भी सामग्री उपलब्ध कराने का निर्देश दे सकता है।
  • यह विशेषज्ञ गवाह को मौखिक परीक्षण में उपस्थित रहने का भी निर्देश दे सकता है ताकि निष्कर्ष निकालने के लिए उनसे प्रासंगिक प्रश्न पूछे जा सकें।
  • मध्यस्थ न्यायाधिकरण या मध्यस्थ न्यायाधिकरण की मंजूरी वाला कोई भी पक्ष साक्ष्य लेने में सहायता मांगने के लिए अदालत में आवेदन कर सकता है। अदालत वही प्रक्रियाएँ जारी करने के आदेश दे सकती है जो वह आम तौर पर उसके समक्ष मुकदमों की परीक्षण में जारी करती है।

मध्यस्थ कार्यवाही पर लागू होने वाले कानून/ नियम

यदि मध्यस्थता की प्रक्रिया का स्थान भारत में स्थित है, तो, अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के अलावा, अन्य सभी कार्यवाही उस समय भारत में लागू कानूनों के द्वारा शासित होती हैं। अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता में, न्यायाधिकरण उन कानूनों के अनुसार विवाद का फैसला करेगा जिन पर अनुबंध के पक्षों द्वारा स्पष्ट रूप से सहमति व्यक्त की गई है।

मध्यस्थ पंचाट के प्रपत्र और सामग्री

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 31 में निर्धारित प्रावधानों के अनुसार, कोई भी मध्यस्थ पंचाट आवश्यक रूप से लिखित रूप में होगा और यह मध्यस्थता न्यायाधिकरण के सभी पैनलिस्टों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। यदि किसी भी कारण से किसी मध्यस्थ पैनलिस्ट के हस्ताक्षर छूट जाते हैं, तो ऐसे कारण को लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिए। मध्यस्थ पंचाट में वह तर्क भी बताया जाना  चाहिए जिस पर यह आधारित है। मध्यस्थ पंचाट में वह स्थान भी शामिल होगा जिसमें इसे बनाया गया है। मध्यस्थ पंचाट समाप्त होने के बाद, इसकी एक हस्ताक्षरित प्रति प्रत्येक पक्ष को सौंपी जाएगी। यदि मध्यस्थ पंचाट पैसे के भुगतान के लिए है, तो इसमें ब्याज और दरों के साथ राशि, और वह अवधि जिसके लिए इसका भुगतान किया जाना है और जिसके दौरान इसका भुगतान किया जाना है, भी शामिल की जाएगी।

मध्यस्थता की लागत मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 31A में निर्धारित प्रावधानों के अनुसार मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा तय की जाएगी।

दोषपूर्ण मध्यस्थ निर्णय के विरुद्ध उपाय

एक मध्यस्थ पंचाट जो एक पक्ष को लगता है कि दोषपूर्ण है, के खिलाफ एक उपाय मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 में पंचाट को रद्द करने के लिए आवेदन दायर करके मांगा जा सकता है। धारा 34 में पंचाट को रद्द करने के लिए कुछ आधार दिए गए हैं:

  • आवेदन करने वाला एक पक्ष, मध्यस्थ न्यायाधिकरण के रिकॉर्ड के आधार पर, यह स्थापित करेगा कि दूसरा पक्ष किसी प्रकार की अक्षमता के अधीन था;
  • मध्यस्थता समझौता कार्यवाही पर लागू कानून के तहत मान्य नहीं था;
  • मध्यस्थता न्यायाधिकरण को लागू कानूनों द्वारा नियुक्त नहीं किया गया था, या आवेदन करने वाले पक्ष को ऐसी नियुक्ति की उचित सूचना नहीं दी गई थी;
  • मध्यस्थता पंचाट में मध्यस्थता प्रस्तुत करने के दायरे से बाहर के मामले पर निर्णय शामिल है;
  • मध्यस्थता के तहत मामला फिलहाल लागू कानून के तहत मध्यस्थता द्वारा निर्णय लेने में सक्षम नहीं है; और
  • मध्यस्थ पंचाट भारत की सार्वजनिक नीति का उल्लंघन है।

पंचाट की प्रवर्तनीयता (एंफोर्सबिलिटी) और अंतिमता

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के भाग 1 में निर्धारित प्रावधानों के अधीन, एक मध्यस्थता पंचाट अंतिम होगा और मध्यस्थता की प्रक्रिया के पक्षों पर बाध्यकारी भी होगा।

यदि मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34 के तहत एक मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के लिए आवेदन करने का समय समाप्त हो गया है, तो ऐसा पंचाट सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के प्रावधानों के अनुसार उसी तरह लागू किया जाएगा जैसे कि यह एक न्यायालय की डिक्री थी। यहां तक ​​कि अगर पंचाट को रद्द करने के लिए ऐसा कोई आवेदन दायर किया गया है, तो ऐसा आवेदन अदालत द्वारा दिए गए एक अलग आवेदन के प्रावधानों के अनुसार मध्यस्थ पंचाट के निष्पादन (एक्जिक्यूशन) पर रोक लगाने का आदेश दिए बिना पंचाट को लागू करने के लिए अयोग्य है और वह एक उचित उद्देश्य नहीं बनाते है। स्थगन आवेदन दाखिल करने पर, अदालत अपने विवेक से संबंधित मध्यस्थ पंचाट के संचालन पर स्थगन दे सकती है।

अपील

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 37 के अनुसार, अपील उस अदालत में की जाएगी जो उन मामलों में उक्त आदेश या डिक्री पारित करने वाली अदालत से अपील पर विचार करने के लिए अधिकृत है, जहां अधीनस्थ अदालत धारा 8 के तहत पक्षों को मध्यस्थता के लिए संदर्भित करने से इनकार कर सकती है, धारा 9 और धारा 17 के तहत पक्षों को कोई अंतरिम राहत देने या इससे इनकार करता है, अधिकार क्षेत्र से संबंधित मुद्दों में धारा 34 के अनुसार मध्यस्थ पंचाट को रद्द कर देता है या रद्द करने से इनकार कर देता है।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 37 के तहत अपील में पारित आदेशों से दूसरी अपील की अनुमति नहीं है, लेकिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अपील पर कोई रोक भी नहीं है।

विदेशी पंचाट

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 का भाग II विदेशी पंचाटों के बारे में बात करता है। इस भाग में विदेशी पंचाटों को कानूनी संबंधों से उत्पन्न व्यक्तियों के बीच विवादों पर पंचाट के रूप में परिभाषित किया गया है, चाहे वह संविदात्मक हो या नहीं और भारत में लागू कानून के तहत वाणिज्यिक माना जाता है।

कोई भी विदेशी पंचाट भारतीय कानूनों के अनुसार लागू होगा और अनिवार्य रूप से मध्यस्थता के सभी संबंधित पक्षों पर भारत के पूरे क्षेत्र में बाध्यकारी माना जाएगा। किसी विदेशी पंचाट को लागू करने के लिए, मध्यस्थता की प्रक्रिया के किसी पक्ष को आवेदन के साथ, मूल पंचाट या उस देश के कानूनों के अनुसार प्रमाणित मूल पंचाट की एक प्रति, मूल मध्यस्थता समझौता या उसकी प्रमाणित प्रति प्रस्तुत करनी होगी, और साथ ही ऐसे अन्य साक्ष्य जो मध्यस्थता समझौते और पंचाट को साबित करने के लिए भी आवश्यक हो सकते हैं।

निष्कर्ष

मध्यस्थता की प्रक्रिया में बहुत गुंजाइश है क्योंकि यह समय बचाने वाला, लागत बचाने वाला और उस इकाई के लिए सुविधाजनक है जो इसे विवाद समाधान तंत्र के रूप में पसंद करता है। मध्यस्थता पंचाट अदालती डिक्री या आदेश की तरह ही पक्षों पर बाध्यकारी होता है। दुनिया भर में अधिक से अधिक मध्यस्थता हो रही है और पक्ष मध्यस्थता को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि यह मुकदमेबाजी की तुलना में कम तकनीकी है। शुरू से अंत तक, यह एक त्वरित प्रक्रिया है ताकि सारे पक्ष, लंबे समय तक किसी विवाद में शामिल हुए बिना, व्यावसायिक गतिविधियों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकें।

मध्यस्थता एक गोपनीय प्रक्रिया है जो तब तक बरकरार रहती है जब तक कि किसी मध्यस्थ आदेश के खिलाफ अपील नहीं की जाती है। अदालती कार्यवाही के विपरीत, मध्यस्थता में, पक्षों का कार्यवाही पर अधिक नियंत्रण होता है। मध्यस्थता, क्योंकि यह एक समयबद्ध प्रक्रिया है, इसे मुकदमेबाजी से अधिक प्राथमिकता दी जाती है।

एक कैरियर के रूप में, मध्यस्थता अभी एक विकल्प के रूप में विकसित होने लगी है और इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि भविष्य में, अधिक से अधिक लोग कैरियर क्षेत्र के रूप में मध्यस्थता कानून का चयन करेंगे।

संदर्भ

 

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