यह लेख लॉसिखो से एडवांस्ड कॉन्ट्रैक्ट ड्राफ्टिंग, नेगोशिएशन और विवाद समाधान में डिप्लोमा कर रही Adeline Coelho द्वारा लिखा गया है और Shashwat Kaushik द्वारा संपादित (एडिट) किया गया है। इस लेख में वह भारत में लैंगिक समानता और साथ ही संविधान में उसके संबंध में प्रावधान पर चर्चा करते है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय
भारत में सदियों से पितृसत्तात्मक (पैट्रियार्कल) समाज रहा है और अब समय आ गया है कि महिलाएं अपने लिए खड़ी हों। आज के आधुनिक युग में भी पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता विस्तार पर देखी जाती है। हम ये भेदभाव न केवल कार्यस्थलों पर बल्कि अपने घरों में भी पाते हैं। प्राचीन परंपराएँ और रीति-रिवाज हमारे भारतीय समाज में इतने लंबे समय से इतनी गहराई से बसे हुए हैं कि वे महिलाओं की स्वतंत्र इच्छा, स्वतंत्रता और व्यक्तिगत विचारों पर रोक लगाते हैं। महिलाओं को अवसरों से वंचित रखा जाता है; उन्हें अपनी राय रखने की अनुमति नहीं है और वे अपने घरों तक ही सीमित हैं, जिससे वे पूरी तरह से पुरुषों पर निर्भर हैं।
भारतीय समाज की पारंपरिक मानसिकता
सदियों से महिलाओं से अपेक्षा की जाती रही है कि वे शादी करें, अपने पतियों की सेवा करें और परिवार की देखभाल करें। पारंपरिक दृष्टिकोण से ऐसा प्रतीत होता है कि पुरुष बाहर जाते थे, काम करते थे और पैसा कमाते थे जबकि महिलाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे घर पर रहें, खाना पकाएँ और बच्चों की देखभाल करें। अधिकांश मामलों में महिलाओं की इच्छा के विरुद्ध यह आज भी जारी है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी नौकरी छोड़कर घर बैठें और अपने पति और ससुराल वालों की सेवा करें। लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी लैंगिक भूमिकाओं के अनुसार कार्य करें। पुरुष शक्ति और प्राधिकार (अथॉरिटी) की स्थिति रखते हैं और अधिकांश चीजों में अंतिम निर्णय लेते हैं। लड़कों को एक आशीर्वाद माना जाता था क्योंकि परिवार में एक पुरुष उत्तराधिकारी (हेयर) हो सकता था, और लड़की होने को हेय दृष्टि से देखा जाता था और बोझ माना जाता था, और पूरे मामले के लिए लड़की की माँ को दोषी ठहराया जाता था।
भारतीय संविधान और लैंगिक समानता
लैंगिक समानता का अर्थ है हर क्षेत्र में पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान अवसर प्रदान करना, चाहे वह कार्यस्थल हो, अर्जित वेतन हो, या प्रदान किए गए अवसर हों। स्त्री-पुरुष में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 16 और अनुच्छेद 39 कुछ महत्वपूर्ण अनुच्छेद हैं जो समानता की अवधारणा से संबंधित हैं।
अनुच्छेद 14
अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार की बात करता है। यह एक मौलिक अधिकार है और यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक भारतीय नागरिक को कानून के समक्ष समान व्यवहार दिया जाए और नस्ल, जाति, वर्ग, धर्म, लिंग आदि के आधार पर समानता से इनकार न किया जाए। क्योंकि महिलाओं को कम उम्र में शादी करने के लिए मजबूर किया जाता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनके लिए उच्च शिक्षा हासिल करना और नौकरी पाना मुश्किल हो जाता है, जिससे वे हर छोटी-छोटी चीज के लिए पुरुषों पर निर्भर हो जाती हैं।
अनुच्छेद 15
राज्य जाति, वर्ग, धर्म, लिंग आदि के आधार पर लोगों के बीच भेदभाव नहीं करेगा। कार्यस्थलों पर दिया जाने वाला वेतन और पुरुषों और महिलाओं के साथ किया जाने वाला व्यवहार असमान नहीं होना चाहिए।
अनुच्छेद 16
सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों की नियुक्ति से संबंधित मामलों में भारत के सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान किए जाने चाहिए और ऐसे रोजगार के लिए धर्म, लिंग, जाति आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
अनुच्छेद 39
अनुच्छेद 39 पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समान वेतन की बात करता है। पुरुषों और महिलाओं को उनके द्वारा किए जा रहे समान कार्य के लिए दिए जाने वाले वेतन में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
लैंगिक समानता से संबंधित भारतीय कानून
कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013
यह अधिनियम महिलाओं को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए प्रदान किया गया है। यह महिलाओं के मौलिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है और उनकी शील (मॉडेस्टी) के लिए सुरक्षा प्रदान करता है। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह आवश्यक नियम और कानून बनाए, जिससे उनके लिए एक सुरक्षित वातावरण प्रदान किया जा सके।
दहेज निषेध अधिनियम, 1961
दहेज लेने और देने की सदियों पुरानी परंपरा को खत्म करने की जरूरत है। पत्नी और उसके परिवार से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने परिवार की स्थिति की परवाह किए बिना महंगे उपहारों के रूप में अपने पति और ससुराल वालों की मांगों को पूरा करें। आवश्यक मांगों को पूरा न करने पर, पत्नी के साथ उसके पति और ससुराल वालों द्वारा दुर्व्यवहार किया जाता है, और प्रताड़ित किया जाता है, कुछ मामलों में अंततः दहेज हत्या हो जाती है। दहेज निषेध अधिनियम दहेज देने और लेने की प्रथा को खत्म करने और इसे दंडनीय बनाने के लिए बनाया गया था।
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005
घरेलू हिंसा आज भी कई घरों में प्रचलित है। पत्नी के साथ उसका पति बुरा व्यवहार करता है, उसे घरेलू हिंसा का शिकार बनाया जाता है, उसके ससुराल वालों द्वारा उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है और उसे पीड़ित किया जाता है। इन मामलों पर यह सोचकर ध्यान नहीं दिया जाता कि यह एक पारिवारिक मामला है और इसे परिवार में ही सुलझाया जाना चाहिए, जिससे ऐसे अपराध करने वाले लोग बच नहीं पाते। इस अधिनियम को लाने का उद्देश्य लोगों को यह समझाना था कि घरेलू हिंसा गैरकानूनी है और कानून द्वारा दंडनीय है। घरेलू हिंसा को सामान्य नहीं बनाया जाना चाहिए।
सती (रोकथाम) अधिनियम, 1987
सती प्रथा एक ऐसी प्रथा मानी जाती थी जिसमें यदि पति मर जाए तो पत्नी को भी सामाजिक संस्कार के रूप में उसके साथ जलाकर मार दिया जाता था। प्राचीन काल में कम उम्र की लड़कियों की शादी अधेड़ या बूढ़े पुरुषों से कर दी जाती थी। यह बिल्कुल स्पष्ट था कि वे पुरुष जल्दी मर जाते थे, और उनकी मृत्यु पर, महिलाओं को सती होने के लिए मजबूर किया जाता था, जिससे दुखद और दर्दनाक मौत होती थी। यह अधिनियम इस प्रथा को समाप्त करने और किसी को अपनी मर्जी से सती होने के लिए मजबूर करने या ऐसा करने का प्रयास करने को कानून के तहत दंडनीय बनाने और जुर्माने के साथ-साथ आजीवन कारावास की सजा देने के लिए बनाया गया था।
न्यायिक घोषणाएँ
शायरा बानो बनाम भारत संघ और अन्य (2017)
यह मामला तीन तलाक की अवधारणा के बारे में बात करता है, जिसमें रिजवान अहमद ने शादी के 15 साल बाद 2016 में अपनी पत्नी शायरा बानो को तलाक दे दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने शायरा बानो के पक्ष में फैसला सुनाया, जिससे तीन तलाक को असंवैधानिक माना गया। तीन तलाक अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है क्योंकि पति अपनी पत्नी के विचार या विवाह को बचाने के प्रयास के बिना तुरंत विवाह संबंध तोड़ सकता है।
विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य और अन्य (1997)
यह मामला भंवरी देवी नाम की महिला के बारे में है, जो राजस्थान में एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। वह बाल विवाह के पक्ष में नहीं थीं और उन्होंने इसे रोकने के लिए प्रयास किये। उसने एक शिशु का विवाह रोकने की कोशिश की जो एक वर्ष का भी नहीं था; इससे गुस्से और बदले की भावना में उसका यौन उत्पीड़न और बलात्कार किया गया, जिसके कारण विशाखा दिशानिर्देश बनाए गए। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इन दिशानिर्देशों को इस मुद्दे से निपटने के लिए कानून पारित होने तक लागू किया जाना चाहिए।
श्रीमती मैरी रॉय, आदि बनाम केरल राज्य और अन्य (1986)
इस मामले में, मैरी रॉय, एक विधवा, को उसके माता-पिता की पारिवारिक विरासत से वंचित कर दिया गया था। उसके भाइयों ने धोखे से सारी संपत्ति ले ली, लेकिन वह इसे पाने के लिए दृढ़ थी क्योंकि यह उसका अधिकार था। उसे लगा कि उसके समानता के अधिकार का उल्लंघन किया गया है और इसलिए वह अपने भाइयों के खिलाफ मामला लड़ने के लिए अदालत में गई। यह मामला हमारे भारतीय समाज में लंबे समय से चली आ रही पितृसत्तात्मक मानसिकता और प्रभुत्व को दर्शाता है।
संविधान-पूर्व और संविधान के बाद का युग
संविधान-पूर्व युग
अतीत में, अंग्रेजों ने भारत पर शासन किया था; इसलिए, कोई योग्य कानून नहीं थे। अंग्रेजों को एहसास हुआ कि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति, इंग्लैंड की महिलाओं की तरह सुरक्षित नहीं है। इसलिए, उन्होंने विशेष रूप से भारत में महिलाओं के जीवन की बेहतरी के लिए कानून बनाए। कुछ महिला केन्द्रित कानून इस प्रकार हैं:
- गुलामी और तस्करी (ट्रैफिकिंग)- कई लड़कियों और महिलाओं को उचित भोजन और रहने की स्थिति प्रदान किए बिना ले जाया जाता है, तस्करी की जाती है और श्रम में डाल दिया जाता है। उन्हें अमानवीय वातावरण में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और अंततः दयनीय जीवन जीना पड़ता है। कानून इसलिए बनाया गया था ताकि गुलामी और तस्करी की अनुमति न दी जाए और ऐसा करने वालों को दंडित किया जाए।
- गर्भपात (मिसकैरेज), भ्रूणहत्या (फेटिसाइड) और शिशुहत्या- यह प्रावधान किया गया कि गर्भपात स्वेच्छा से नहीं होने दिया जाएगा। कई बार परिवार में लड़की पैदा होने पर उसे मार दिया जाता था। कन्या भ्रूण हत्याएँ बढ़ रही थीं, और इसलिए ऐसे बुरे कार्यों को रोकने के लिए सख्त कानून बनाना पड़ा।
- शील भंग करना- शील भंग करने के कई तरीके हैं जैसे छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न आदि। ऐसे अपराधों की बढ़ती सीमा और तीव्रता हमें एहसास दिलाती है कि यह सिर्फ शील भंग करने से कहीं अधिक है। महिलाओं को सुरक्षित माहौल प्रदान कराया जाना चाहिए।
संविधान के बाद का युग
महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए सख्त कानून बनाये गये हैं। महिलाओं और समाज के अन्य सभी लोगों के बीच जागरूकता पैदा की जाती है ताकि वे अपने अधिकारों के बारे में जागरूक हों और उनका उपयोग अपनी सुरक्षा के लिए कर सकें। उदाहरण के लिए, घरेलू हिंसा के मामले।
भारत में संरचनात्मक और सांस्कृतिक परिवर्तन और महिलाओं के अधिक शिक्षित होने और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने से उनके जीवन में कई बदलाव और अवसर आए हैं। विभिन्न महिला संगठन और गैर सरकारी संगठन हैं जो विशेष रूप से महिलाओं के मुद्दों के लिए काम करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि उनकी स्वतंत्रता पर रोक न लगे और उन्हें उचित न्याय मिले। महिला पुलिस अधिकारियों को विशेष रूप से संवेदनशील मामलों की जिम्मेदारी सौंपी गई है, जिनमें घरेलू हिंसा के मामले भी शामिल हैं। भारत विकास कर रहा है और समय के साथ हमें बहुत सारे बदलाव देखने को मिल सकते हैं।
लैंगिक असमानता की समस्या को दूर करने के संभावित समाधान
पुरुषों और महिलाओं के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए, चाहे वह कार्यस्थल पर हो या हमारे अपने घरों में। लेकिन हम कार्यस्थलों पर पुरुषों और महिलाओं को उनके द्वारा किए गए समान काम के लिए दिए जाने वाले वेतन में अंतर देखते हैं; ऐसा फिल्म अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के साथ भी देखा जाता है। इसलिए बदलाव की जरूरत है। लैंगिक असमानता की समस्या को दूर करने के लिए कुछ समाधान हैं:
सोशल मीडिया के माध्यम से जागरूकता पैदा करना
आज की टेक्नोलॉजी से प्रेरित दुनिया में ज्यादातर लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। यह किसी मुद्दे को सामने लाने और महिलाओं द्वारा अनुभव की जाने वाली विभिन्न समस्याओं के बारे में जागरूकता फैलाने का सबसे अच्छा मंच है। यह बड़ी संख्या में लोगों के साथ किसी मुद्दे को संबोधित करने और अंततः उच्च अधिकारियों तक पहुंचने का सबसे तेज़ तरीका है। इस माध्यम से हम महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक कर सकते हैं और उन्हें विभिन्न समस्याओं से उबरने में मदद कर सकते हैं।
बच्चों का पालन-पोषण सही तरीके से करें
प्राचीन काल से जो असमानताएँ हम देखते हैं, वे लोगों द्वारा अपनाई जाने वाली पुरानी परंपराओं के कारण हैं। लड़कियों को बोझ समझा जाता था, और उन्हें यह एहसास कराया जाता था कि उनका काम केवल अपने पति की सेवा करना और अपने बच्चों और परिवार की देखभाल करना है, इस प्रकार यह मानसिकता एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चली जाती है, जबकि बेटों के साथ बहुत अच्छे तरीके से व्यवहार किया जाता है और उसे यह सिखाया जाता है कि खाना बनाना और सफाई का काम सिर्फ महिलाओं के लिए है। अगर लोग अपने बच्चों के साथ सही तरीके से व्यवहार करना शुरू कर दें, लड़की और लड़के दोनों को एक समान समझें, दोनों को अवसर प्रदान करें और उन्हें यह एहसास कराएं कि काम को समान रूप से विभाजित करने की आवश्यकता है, तो हमारा देश खूबसूरती से बदल जाएगा।
निष्कर्ष
जब भी हमारे घर पर मेहमान या रिश्तेदार आते हैं, तो हम हमेशा परिवार के पुरुषों को मेज के चारों ओर बैठे, खाते हुए, बातें करते हुए और आनंद लेते हुए पाते हैं, जबकि परिवार की महिलाएं आमतौर पर रसोई में खाना बनाती हैं, मेहमानों को भोजन परोसती हैं, और जो भोजन फर्श पर गिरा दिया जाता है उसे उठती हुई दिखाई देती है, आदि। पुरुष और महिलाएं समान रूप से जिम्मेदारी क्यों नहीं साझा कर सकते?
भले ही पति-पत्नी दोनों कमा रहे हों, पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह नाश्ता तैयार करे और चीजें तैयार रखे, जबकि पति के पास उसके लिए सब कुछ तैयार है। यह सब ज्यादातर जगहों पर होता है, लेकिन जैसे-जैसे हमारा देश विकसित हो रहा है, हम बदलाव देख रहे हैं, पुरुष महिलाओं की मदद कर रहे हैं और जिम्मेदारियां साझा कर रहे हैं। लेकिन कुछ जगहों पर महिलाओं को अभी भी इस असमानता का सामना करना पड़ता है। लैंगिक समानता एक ऐसा विषय है जिस पर हम लंबे समय से बात करते रहे हैं। अब समय आ गया है कि ये सैद्धांतिक पहलू व्यावहारिक कार्यों में बदल जाएं।
संदर्भ