झूठा कन्फेशन 

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Indian Evidence Act
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यह लेख अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के फैकल्टी ऑफ लॉ की छात्रा Rida Zaidi, द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत झूठे कन्फेशन और विभिन्न देशों द्वारा इससे निपटने के तरीके पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय 

स्वीकृति (एडमिशन) एक आपराधिक कार्यवाही के तहत साक्ष्य मूल्य के सबसे आवश्यक अंग में से एक है। पूरा मामला, अदालत के सामने प्रदान किए गए साक्ष्य मूल्य पर निर्भर करता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत कन्फेशन को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन अधिनियम की धारा 17 के तहत इसके लिए एक अनुमान दिया गया है, यह अनुमान स्वीकृति और कन्फेशन दोनों पर लागू होता है। इसके अनुसार, कन्फेशन स्वीकृति के दायरे में आती है। स्वीकृति, जैसा कि धारा 17 द्वारा परिभाषित किया गया है, मौखिक रूप से या लिखित रूप में या इलेक्ट्रॉनिक रूप में दिया गया एक बयान है जो सुझाव देता है:

  1. मुद्दे के तथ्य या प्रासंगिक (रिलेवेंट) तथ्य के बारे में एक संदर्भ, और 
  2. जहां इसे किसी व्यक्ति द्वारा, कुछ परिस्थितयों में बनाया गया है, जिनका उल्लेख इसके बाद किया गया है। 

ऐसी ‘इसके बाद की परिस्थितियों’ का उल्लेख भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 17 से 23 के तहत किया गया है। अंग्रेजी कानून के तहत, स्वीकृति शब्द का उपयोग दीवानी मामलों के तहत किया जाता है और कन्फेशन शब्द का उपयोग आपराधिक मामलों के तहत किया जाता है। लेकिन भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत दोनों के बीच ऐसा कोई अंतर नहीं किया गया है। कन्फेशन एक व्यक्ति द्वारा अपराध की स्वीकृति है जो यह बताती है या सुझाव देती है कि वह कोई अपराध करने का दोषी है। 

सी.बी.आई. बनाम वी.सी. शुक्ला (1998) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकृति और कन्फेशन के बीच अंतर को इंगित किया था। कन्फेशन उस व्यक्ति द्वारा अपराध की वास्तविक स्वीकृति है जिसने अपराध किया है जबकि स्वीकृति के मामले में यदि कन्फेशन वास्तविक स्वीकृति तक नहीं हो पाती, तो इसे स्वीकृति के लिए सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

कन्फेशन साक्ष्य का एक पर्याप्त रूप है क्योंकि आरोपी स्वयं अपने अपराध को स्वीकार करता है जो दोषसिद्धि का आधार हो सकता है लेकिन यह दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है। यह इस कारण से था कि इसकी पुष्टि अन्य सबूतों के साथ की जानी चाहिए क्योंकि कभी-कभी आरोपी जांच अधिकारियों को झूठा कन्फेशन प्रदान कर सकता है जो उसे जेल में डाल देगा क्योंकि हमारे न्याय तंत्र का उद्देश्य यह है कि कई दोषी अपराधियों को रिहा किया जा सकता है लेकिन एक निर्दोष को दोषी साबित नहीं किया जाना चाहिए। 

यह लेख आरोपियों द्वारा की गई झूठा कन्फेशन, किन परिस्थितियों में इसे बनाया जाता है, और विभिन्न देशों के संबंधित कानूनी प्रणालियों के अनुसार झूठे कन्फेशन से निपटने के तरीके के बारे मे बताता है।

एक कन्फेशन क्या है?

‘कन्फेशन’ शब्द आरोपी द्वारा अपराध को स्वीकार करना है। यह किसी अपराध के किए जाने के बारे में ज्ञान या स्वीकृति है। व्यक्ति द्वारा अपने खिलाफ एक कन्फेशन की जाती है जो न्यायालय को अपने निर्णय तक पहुंचने और निर्णय को प्रभावी ढंग से पारित करने में सक्षम बनाती है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में कहीं भी कन्फेशन को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन धारा 24-30 कन्फेशन की स्वीकार्यता के संबंध में विभिन्न प्रावधानों से संबंधित है। एक कन्फेशन में, या तो पूरे अपराध को स्वीकार करना चाहिए जो कि किया गया है या सभी तथ्यों को स्वीकार करना चाहिए, जो एक अपराध के कमीशन का गठन करते है। स्वीकृति और कन्फेशन एक ही धारणा पर निर्मित होते हैं कि एक आरोपी अपने हितों के खिलाफ बयान देकर झूठ नहीं बोलेगा। इस प्रकार, कन्फेशन स्वीकृति की एक मात्र श्रेणी है। दी गई कन्फेशन के संबंध में निर्धारित परीक्षण, जिसके माध्यम से न्यायालय संतुष्ट हो सकता है की-

  1. कन्फेशन आरोपी या सह-आरोपी द्वारा अपनी इच्छा से की गई है।
  2. कन्फेशन सत्य पर आधारित है और इस पर भरोसा किया जा सकता है।

यदि न्यायालय पहले प्रदान किए गए अन्य सभी सबूतों के साथ पहला परीक्षण आयोजित करने के बाद सोचता है कि यह सब सच है जो भी बताया गया है, तो दूसरा परीक्षण पूरा हो जाता है।

पकाला नारायण स्वामी बनाम किंग एंपरर (1939) के मामले में प्रिवी काउंसिल ने माना कि आरोपियों द्वारा की गई कन्फेशन आंशिक (पार्शियल) रूप से कन्फेशन और आंशिक रूप से स्वीकृति है। लॉर्ड अकिन द्वारा किए गए अवलोकन (ऑब्जर्वेशन) इस प्रकार थे: 

  • कन्फेशन आंशिक रूप से कन्फेशन थी और आंशिक रूप से एक स्वीकृति थी।
  • कन्फेशन को अपराध की शर्तों या अपराध का गठन करने वाले कारकों को स्वीकार करना चाहिए।
  • भले ही कन्फेशन, पूर्ण कन्फेशन से कम हो, लेकिन अगर उस बयान से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसने अपराध किया है, तो इसे कन्फेशन ही माना जाएगा।
  • भले ही आरोपी गंभीर रूप से आरोप लगाने वाला बयान देता है, लेकिन तब भी यह कन्फेशन नहीं होगी।

पलविंदर कौर बनाम पंजाब और हरियाणा राज्य (1952) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अदालत को कन्फेशन को पूरी तरह से स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वह कन्फेशन में केवल अपराध करने वाले हिस्से को स्वीकार नहीं कर सकती और ना ही के बल बचाव योग्य हिस्से को अस्वीकार कर सकती है क्योंकि न्यायालय ऐसा करने में सक्षम नहीं है।  

कन्फेशन का रूप

कन्फेशन किसी भी रूप में हो सकती है। अदालत में, किसी अन्य व्यक्ति को या स्वयं बातचीत करते समय एक कन्फेशन की जा सकती है। साहू बनाम यूपी राज्य (1966) के मामले में न्यायालय ने कहा कि यह अनिवार्य नहीं है कि किसी अन्य व्यक्ति को कन्फेशन की जानी चाहिए; यह पर्याप्त और स्वीकार्य है भले ही कन्फेशन स्वयं से की गई हो। 

कन्फेशन के प्रकार

कन्फेशन को निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है:

न्यायिक कन्फेशन

किसी आपराधिक कार्यवाही के दौरान किसी आरोपी द्वारा न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के समक्ष अपने अपराध को स्वीकार करने के संबंध में दिए गए बयान को न्यायिक कन्फेशन या औपचारिक कन्फेशन के रूप में जाना जाता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत किसी आरोपी द्वारा न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के समक्ष की गई कन्फेशन स्वीकार्य है। इसे अपराध की दलील के रूप में जाना जाता है और न्यायिक कन्फेशन के आधार पर आरोपी को दोषसिद्ध (कन्विक्ट) किया जा सकता है लेकिन जिस शर्त को संतुष्ट करने की आवश्यकता है वह यह है कि कन्फेशन अपनी इच्छा से और सत्य पर आधारित होनी चाहिए। यह सुनिश्चित करना न्यायिक अधिकारी या मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि आरोपी का शोषण न हो और उसे अनुच्छेद 20(3) के प्रावधानों के अनुसार संरक्षित किया जाए। साक्ष्य मूल्य, भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 80 के तहत दिया जाता है, कि एक न्यायिक कन्फेशन वास्तविक साक्ष्य है और यद्यपि एक दोषसिद्धि इसके एकमात्र आधार पर सावधानी के एक नियम के रूप में की जा सकती है, इसकी पुष्टि अन्य साक्ष्यों के साथ की जानी चाहिए।

भगवान सिंह और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2003) के मामले में अदालत ने देखा कि अनैच्छिक रूप से की गई एक कन्फेशन अस्वीकार्य और अविश्वसनीय थी और वापस ले ले ली गई थी, इसलिए इसे साक्ष्य के एक स्वीकृत हिस्से के रूप में भी नहीं माना जा सकता है।

अतिरिक्त न्यायिक (ज्यूडिशियल) कन्फेशन

आत्म-बातचीत के दौरान या न्यायिक मजिस्ट्रेट सहित किसी अन्य व्यक्ति के सामने किसी व्यक्ति से की गई कन्फेशन को अतिरिक्त-न्यायिक कन्फेशन या अनौपचारिक कन्फेशन के रूप में जाना जाता है। वे एक न्यायाधीश या न्यायिक मजिस्ट्रेट की अनुपस्थिति में बनाए जाते हैं। यह स्वीकार्य है, भले ही इसे दूसरों ने सुना हो और सबूत के हिस्से को साबित किया जा सकता है यदि न्यायालय संतुष्ट है कि यह मूल सबूत है जो आरोपी के खिलाफ जाता है लेकिन इसकी पुष्टि कुछ अन्य सबूतों के साथ की जानी चाहिए। अतिरिक्त न्यायिक कन्फेशन उनके साक्ष्य मूल्य के मामले में न्यायिक कन्फेशन की तुलना में तुलनात्मक रूप से कमजोर है। अनौपचारिक कन्फेशन पर भी यही सिद्धांत लागू होता है जो न्यायिक कन्फेशन पर लागू होता है, जो यह है कि आरोपी को अनुच्छेद 20 (3) के तहत संरक्षित किया जाना चाहिए जो आत्म-अपराध की बात करता है कि एक व्यक्ति को अपने खिलाफ कन्फेशन देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। यह अनैच्छिक नहीं होना चाहिए और विश्वसनीय होना चाहिए।

राजस्थान राज्य बनाम राजा राम (2003) के मामले में अदालत ने माना कि अतिरिक्त न्यायिक कन्फेशन, अगर अपनी इच्छा से और स्वस्थ दिमाग से की जाती है, तो यह कमजोर सबूत नहीं है, जैसा की अनुमान लगाया जाता है कि अतिरिक्त-न्यायिक कन्फेशन एक कमजोर प्रकार के साक्ष्य है।  इसकी विश्वसनीयता मामले के तथ्यों और परिस्थितियों और गवाहों की विश्वसनीयता पर निर्भर करती है।

प्रत्यादिष्ट (रिस्ट्रिक्टेड) कन्फेशन

प्रत्यादिष्ट कन्फेशन एक कन्फेशन है जिसे किसी भी कारण से किए जाने के बाद वापस ले लिया या रद्द कर दिया जाता है, चाहे वह किसी का डर हो या समाज में बदनाम होने का डर हो, लेकिन इसे अपनी इच्छा से किया जाना चाहिए न कि धमकी, प्रलोभन (इंड्यूसमेंट) या किसी वादे से। प्रत्यादिष्ट कन्फेशन कमजोर सबूत है क्योंकि इसे वापस ले लिया जाता है, लेकिन इसका इस्तेमाल आरोपी के खिलाफ किया जा सकता है अगर इसे अदालत के सामने साबित किया जा सके और अगर अदालत संतुष्ट है कि विशेष रूप से प्रत्यादिष्ट कन्फेशन को दोषसिद्धि के आधार के रूप में माना जा सकता है, तो यह स्वीकार्य है। 

भारत बनाम यूपी राज्य (1969) के मामले में, न्यायालय ने माना कि एक कन्फेशन की, उसकी स्वैच्छिक प्रकृति और उसकी सत्यता के आधार पर जांच की जाती है और प्रत्यादिष्ट कन्फेशन को भी न्यायालय द्वारा ध्यान में रखा जा सकता है। न्यायालय को कन्फेशन और प्रत्यादिष्ट कन्फेशन की तुलना एक साथ करनी चाहिए और फिर यह तय करना चाहिए कि क्या कन्फेशन जिसको अपराधि की इच्छा से किया गया है, उसको वापस लेने से प्रभावित किया गया है या नहीं। 

महाराष्ट्र राज्य बनाम भारत छगनलाल राघानी और अन्य (2001) के मामले में न्यायालय ने माना कि प्रत्यादिष्ट कन्फेशन की स्वीकार्यता के लिए भी थोड़ी पुष्टि की आवश्यकता है और कानून के नियम के आधार पर नहीं बल्कि प्रासंगिकता के अधार पर ही, केवल कन्फेशन ही दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त है।

सह-आरोपी द्वारा कन्फेशन

जब एक या एक से अधिक व्यक्तियों पर एक ही अपराध के लिए विचारण (ट्रायल) किया जा रहा हो तो एक आरोपी द्वारा स्वीकार किया जाना अन्य सभी सह-आरोपियों के विरुद्ध स्वीकार्य होगा। सह-आरोपी द्वारा कन्फेशन एक कमजोर प्रकार का साक्ष्य है।

दिल्ली राज्य एन.सी.टी. बनाम नवजोत संधू (2005) के मामले में, अदालत ने माना कि एक आरोपी द्वारा की गई कन्फेशन के लिए पुष्टि की आवश्यकता होती है, लेकिन अगर अदालत कन्फेशन की प्रासंगिकता से संतुष्ट है, तो एकमात्र आधार पर दोष सिद्ध किया जा सकता है।

झूठा कन्फेशन 

झूठा कन्फेशन क्या है?

एक झूठा कन्फेशन एक आरोपी द्वारा अपराध की कन्फेशन है जो वास्तव में उसने नहीं किया है। लोग धमकी, जबरदस्ती, या मानसिक अक्षमताओं के तहत झूठा कन्फेशन देते हैं, जहां वे उन सवालों को समझने में सक्षम नहीं होते हैं जो उनसे पूछताछ के दौरान पूछे जाते हैं या वह ऐसे सवालों के जवाब देने के लिए उसके मन के दायरे में नहीं होते हैं। समाज का सबसे कमजोर समूह जो झूठा कन्फेशन का दावा करता है, वे बच्चे हैं क्योंकि वे डर के मारे कुछ ऐसा स्वीकार कर सकते हैं जो उन्होंने नहीं किया है। झूठा कन्फेशन अस्वीकार्य हैं और पुलिस को आरोपी की जांच करने और सच्चाई का खुलासा करने के लिए पूरी तरह से पूछताछ करनी चाहिए। झूठा कन्फेशन सदियों से मौजूद है और इसने हमारे देश के न्याय तंत्र में बाधा डाली है। यह किसी मामले की सुनवाई की प्रक्रिया में देरी करती है और अंत में एक निर्दोष व्यक्ति को सलाखों के पीछे डाल सकता है और जो असली अपराधी होता है वह बच कर भाग जाता है जिससे न्याय सही तरह से प्रदान नहीं किया जाता। 

अहम राजा खिमा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1955) के मामले में, अपीलकर्ता ने कहा कि जैसे ही उसे जेल में डाला गया, उसे पुलिस द्वारा झूठा कन्फेशन देने के लिए मजबूर किया गया और डर के कारण उसने पुलिस के निर्देशानुसार झूठा कन्फेशन दे दी, जिसे बाद में उन्होंने ठुकरा दिया। 

झूठा कन्फेशन के प्रकार

किसी मामले के तथ्यों और परिस्थितियों और की गई कन्फेशन की गंभीरता के आधार पर झूठा कन्फेशन को कई श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।

स्वैच्छिक झूठा कन्फेशन

ये कन्फेशन एक अंतर्निहित मानसिक विकलांगता या मानसिक विकार के परिणामस्वरूप होती है। यह आमतौर पर पुलिस अधिकारियों की अनुपस्थिति में बनाई जाती है। यह उन मामलों में होती है जहां मानसिक रूप से परेशान व्यक्ति अपने अपराध को समाप्त करने के लिए आत्म-दंड की मांग कर रहा है या जहां वह अपनी कल्पना और वास्तविकता के बीच के अंतर को समझने में सक्षम नहीं है या जहां वह असली अपराधी की रक्षा करना चाहता है जो उसके परिवार का सदस्य, रिश्तेदार या सिर्फ एक साथी हो सकता है, इसके अलावा किसी से बदला लेने के लिए भी वह ऐसा कर सकता है। पुलिस स्वैच्छिक झूठा कन्फेशन को अविश्वसनीय मानती है।

प्रसिद्ध लिंडबर्ग अपहरण मामले (1932) में जहां दो बच्चों का अपहरण कर लिया गया था और वे अपने घर से 5 मील से भी कम दूरी पर मृत पाए गए थे। यह पाया गया कि अपराधी को पुलिस द्वारा, फिरौती के पत्र की तरह समान पत्र लिखने के लिए बोला गया था। बाद में उसे फांसी पर लटका दिया गया।

शिकायत झूठा कन्फेशन

पुलिस हिरासत में आरोपी से पूछताछ का माहौल डरावना, अपरिचित, तनावपूर्ण होता है और इससे आरोपी घबरा सकता है। पूछताछ के दौरान पुलिस की सबसे आम प्रथाओं में से एक आरोपी को भयभीत करना है, जिससे उसे विश्वास हो जाता है कि अगर वह अभी कबूल करता है तो मुकदमे के दौरान उसका फायदा उठाया जाएगा और न्यायाधीश उदार होगा जो कि ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता है। आरोपी अधिकारियों पर भरोसा करता है और सोचता है कि अगर वह कबूल करता है तो पूछताछ का पूरा परिदृश्य (सिनेरियो) खत्म हो जाएगा और इस तरह वह कन्फेशन कर देता है। आरोपी पहले ही सलाखों के पीछे होता है, उसका आत्म-सम्मान बहुत कम हो जाता है, और कभी-कभी उसका जवाब अधिकारियों को संतुष्ट नहीं करता है जिसके परिणामस्वरूप उसके खिलाफ शारीरिक यातना (टॉर्चर) और मानसिक दबाव का उपयोग किया जा सकता है जिसके परिणामस्वरूप अंततः उसके द्वारा झूठा कन्फेशन की जाती है।

न्यूयॉर्क सेंट्रल पार्क जॉगर (1989) के प्रसिद्ध मामले में, चार व्यस्कों (टीनेजर) को गिरफ्तार किया गया था, जिनके बारे में यह माना गया था कि उन्होंने बलात्कार का जघन्य (हीनियस) अपराध किया था। बाद में उनके बयानों से पता चला कि वे निर्दोष थे और डी.एन.ए. रिपोर्ट महिला के डी.एन.ए. से मेल नहीं खाती थी।

प्रेरक (परसुएसिव) झूठा कन्फेशन

यह आरोपी द्वारा की गई कन्फेशन है जहां पुलिस अधिकारी ऐसी चाल और रणनीति का उपयोग करते हैं जहां आरोपी अपनी याददाश्त पर संदेह करता है और आत्म-संदेह में पड़ जाता है कि उसने ही वह अपराध किया होगा। आरोपी से पूछताछ के दौरान जो परिदृश्य बनता है, वह ऐसा होता है कि आरोपी को चिंता और भय होता है। इसके अलावा, पुलिस अधिकारी उससे पूछताछ करते समय अपराध के दृश्यों को आरोपी के सामने इस तरह से लाते हैं कि वह अपने कार्यों के बारे में सोचने लगता है और उस पर विश्वास करने लगता है। यह एक तरह का मनोवैज्ञानिक सम्मोहन (हिप्नोटाइजेशन) है जहां आरोपी की मानसिक क्षमता को उसकी जांच करने वाले अधिकारियों के अनुसार ढाला जाता है। 

झूठा कन्फेशन के कारण

विशेषज्ञ रिचर्ड लियो के अनुसार झुठी कन्फेशन पर झूठा बयान देने के तीन प्रमुख कारण हैं। ये कारण हो सकते हैं: 

त्रुटि (एरर) का गलत वर्गीकरण

पहली त्रुटि जो पुलिस अधिकारी करते हैं, वह यह है की वह निर्दोष लोगों के बारे में संदेह पैदा करते हैं, जो अंततः कई मामलों में झुठी कन्फेशन की ओर ले जाता है। जब किसी संदिग्ध के बारे में अनुमान लगाया जाता है तो यह लगभग माना जाता है कि उसने पुलिस अधिकारियों की नजर में अपराध किया है और यह ध्यान में रखते हुए पूछताछ की जाती है कि संदिग्ध ही संभावित अपराधी है। संदिग्धों के संबंध में व्यवहार विश्लेषण, पुलिस के लिए उसके शरीर की चाल-ढाल के बारे में अधिक पुष्टि करता है कि वह कैसे बोलता है, वह कैसे पुष्टि करता है और इनकार करता है और उत्तर देते समय वह आश्वस्त या घबराया हुआ है या नहीं। हालांकि ये परीक्षण पूरी तरह से दिखावा हैं क्योंकि प्रत्येक संदिग्ध प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से भिन्न होता है।

जबरदस्ती त्रुटि

यह वह त्रुटि है जहां पुलिस, आरोपी को ठिकाने लगाने के लिए इस तरह के उपाय अपनाती है कि अगर वह कबूल नहीं करता है तो उसे कड़ी सजा दी जाएगी या आरोपी को अपना अपराध स्वीकार करना होगा क्योंकि यह पूछताछ का एक हिस्सा है, कुछ परिस्थितियों में कन्फेशन के बदले आरोपी को पैसे या फिरौती की पेशकश की जाती है। पुलिस अधिकारी कुछ मामलों में आरोपी को भोजन, पानी, शौचालय की सुविधा आदि जैसी आवश्यकताओं से वंचित करके उसे शारीरिक और मानसिक यातना देते हैं। आरोपी असुविधा और पीड़ा से गुजरता है और फंसा हुआ और असहाय महसूस करता है और जो उसे बताया जाता है, वह उस पर कन्फेशन करने के लिए सहमत हो जाता है। 

संदूषण (कंटेमिनेशन) त्रुटि

पूछताछकर्ता आरोपी को ढालने और उस अपराध के लिए अपने अपराध को स्वीकार करने में विशेषज्ञ हैं जो उस आरोपी ने नहीं किया है। ये वर्षों तक एक ही काम करने के नतीजे हैं और अभी के लिए वे जानते हैं कि ऐसी कहानी कैसे बनाई जाती है जो वास्तविक को चित्रित करती है और अदालत और न्यायाधीश के लिए विश्वसनीय होती है। आरोपी को अपराध स्वीकार करने में हेरफेर किया जाता है क्योंकि वह एक अधिकारी के साथ अपरिचित और अप्रिय परिवेश (सराउंडिंग) में सीमित है, जिसका एकमात्र मकसद अपराध के कमीशन के संबंध में कन्फेशन करने वाले को अपना अपराध कबूल करना है।

झूठा कन्फेशन की स्वीकार्यता

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 धारा 24 से धारा 30 तक कन्फेशन से संबंधित प्रावधान दिए गए है, जिसके तहत कन्फेशन स्वीकार्य है क्योंकि वे आरोपी की इच्छा से की गई हैं और सत्यता पर आधारित है। हालांकि, भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत झूठा कन्फेशन पूरी तरह से अस्वीकार्य है। झूठा कन्फेशन के मामलों से निपटने के लिए हर देश का एक अलग तरीका होता है और उनमें से कुछ की चर्चा नीचे की गई है।

भारत

भारतीय कानूनी प्रणाली के तहत, यदि यह न्यायालय के संज्ञान में आता है कि एक गलत कन्फेशन की गई है, तो न्यायाधीश को इसकी निंदा करने और इसे पूरी तरह से रद्द करने का पूरा अधिकार है। कुछ नियम हैं जिन्हें कन्फेशन नियम के रूप में जाना जाता है। भारतीय कानूनी प्रणाली निम्नलिखित तरीकों से झूठा कन्फेशन से निपटती है:

  1. न्यायाधीश, अदालत की अवमानना (कंटेंप्ट ऑफ़ कोर्ट), 1971 का आरोप लगा सकता है यदि यह न्यायालय के कामकाज में बाधा डालता है या विरोधी पक्ष से सहयोग की कमी की ओर जाता है। 
  2. झूठी गवाही देना, यानी अदालत में झूठ बोलना भारतीय दंड संहिता के तहत एक गंभीर अपराध है और धारा 193 के तहत निपटा जाता है। इसकी सजा, 7 साल की कैद है, जो धारा 196 के तहत दी जाती है।
  3. पुलिस अधिकारी से झूठ बोलने के अपराध को भारतीय दंड संहिता की धारा 182 के तहत निपटाया जाता है, जहां एक व्यक्ति, जहां कोई व्यक्ति इस आशय से झूठी जानकारी देने का इरादा रखता है कि लोक सेवक कानून की शक्ति का उपयोग किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाने के लिए करता है, जो उसे नहीं करना चाहिए था या यदि वह तथ्यों को जानता होता तो ऐसा नहीं करता, ऐसे व्यक्ति को छह महीने या उससे अधिक के कारावास या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जाएगा।

यूनाइटेड किंगडम

ब्रिटेन ने साक्षात्कार (इंटरव्यू) की तकनीक को अपनाया है जहां जांच दर्ज की जाती है ताकि आरोपी का शोषण न हो और उसके हितों की रक्षा हो सके। ब्रिटेन ने हमेशा आरोपी को पीड़ित करने के बजाय जानकारी एकत्र करने का लक्ष्य रखा है। आरोपी के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से समझौता किए बिना साक्ष्य की गुणवत्ता (क्वालिटी) हमेशा उपयुक्त रही है।

कैनेडा

कैनेडा एक तकनीक का उपयोग करता है जिसे लीड तकनीक के रूप में जाना जाता है। इसमें तीन चरण शामिल हैं- तथ्य विश्लेषण, साक्षात्कार और पूछताछ। संदिग्ध से इस तरह से पूछताछ की जाती है कि वह अपने कार्यों के बारे में आत्म-संदेह में चला जाता है और वह सोचने लगता है कि उसने अपराध किया होगा, उसे गलत तरीके से बताया जाता है कि उसका डी.एन.ए. मिलाया गया है या कुछ अन्य सबूत मिलते हैं जो साबित करते हैं कि वह दोषी है। कैनेडा की कानूनी प्रणाली के तहत बहुत सारे अन्यायपूर्ण और अनुचित व्यवहार मौजूद हैं। इसकी कमियों को दूर करने के लिए कई सुझाव दिए गए हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका

संयुक्त राज्य अमेरिका के पास दुनिया के सबसे विशेषज्ञ जांचकर्ताओं में से एक है। उन्होंने आरोपी के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए इसका सहारा लिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने झूठा कन्फेशन के मामलों में पूछताछ करते समय ध्यान में रखने के लिए कई दिशानिर्देश घोषित किए हैं। वे इस प्रकार हैं-

  1. डी.एन.ए. परीक्षण और छूट 

डी.एन.ए. पूरी तरह से मामलों का न्याय करता है कि संदिग्ध असली अपराधी है या नहीं। यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी निर्दोष को उसके द्वारा किए गए अपराध के लिए गलत तरीके से हिरासत में नहीं लिया गया है।

2. अमरीका ने आरोपियों के साथ किए गए कठोर और अमानवीय व्यवहार को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है। इसका उद्देश्य संदिग्धों के जीवन की कीमत पर जानकारी हासिल करना नहीं है।

3. आरोपियों को उनके अधिकारों से अवगत कराया जाता है और उन्हें कानूनी सलाह के संबंध में सहायता के लिए एक वकील प्रदान किया जाता है।

ब्राजील

ब्राजील अपने संदिग्धों को प्रताड़ित करने की प्रथा को अपनाता है। आरोपियों के पास झूठा बयान देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। अधिकारी गरीबों और समाज के हिंसक संदिग्धों को निशाना बनाते हैं। इस प्रथा का पालन करने के लिए देश की निंदा की जाती है।

चीन

चीन का लोगों, अप्रवासियों और कमजोर लोगों को गलत तरीके से हिरासत में रखने का एक लंबा इतिहास रहा है। चीनी कानूनी प्रणाली ने वीडियो साक्षात्कार की प्रणाली को मूर्त रूप दिया है जो अधिकारियों को संदिग्धों के साथ उचित व्यवहार करने में सक्षम बनाता है।

निष्कर्ष

कन्फेशन के पहलुओं में से एक झुठी कन्फेशन है जहां एक संदिग्ध अपराध करने के लिए अपने आरोप को स्वीकार करता है जो उसने नहीं किया है और वह इस तथ्य से अवगत है कि वह निर्दोष है, लेकिन शायद सामाजिक दबाव के कारण, पूछताछ के दौरान पुलिस द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली मनोवैज्ञानिक रणनीति के कारण, आरोपी कभी-कभी अपने परिवार के सदस्य, रिश्तेदार या परिचित को बचाने की कोशिश करता है जिसने अपराध किया है या जहां वह पुलिस अधिकारियों की पूछताछ को समझने के लिए मानसिक रूप से अयोग्य है। झुठी कन्फेशन कानूनी प्रणाली के तहत स्वीकार्य नहीं हैं क्योंकि यह अविश्वसनीय है और झूठ पर आधारित है। यदि झूठा कन्फेशन न्यायालय की कार्यवाही में देरी करती है या विरोधी पक्ष को सहयोग की कमी करती है, तो किसी व्यक्ति पर भारतीय दंड संहिता के तहत न्यायालय की अवमानना ​​या झूठी गवाही का आरोप लगाया जा सकता है, जहां वह न्यायालय के समक्ष झूठ बोलता है। अलग-अलग देशों में अपनी-अपनी कानूनी प्रणालियों के तहत झुठी कन्फेशन से निपटने के अलग-अलग तरीके हैं। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका डी.एन.ए. परीक्षण की तकनीक का उपयोग करता है और पूछताछ के दौरान कठोर उपायों को रोकता है, जबकि ब्राजील अपने संदिग्धों के कन्फेशन से निपटने के लिए अमानवीय तरीके अपनाता है। हर देश की कानूनी व्यवस्था में उनके व्यवहार के तरीकों के संबंध में बहुत सारे बदलाव किए जा रहे हैं। लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि झुठी कन्फेशन हमेशा मौजूद रही है और हाल के दिनों में उनकी दर में कुछ वृद्धि हुई है। अंत में, विभिन्न देशों में प्रचलित झुठी कन्फेशन के पूरे परिदृश्य और आरोपियों से निपटने के लिए विभिन्न तकनीकों का विश्लेषण करने के बाद, लेखक का विचार है कि झुठी कन्फेशन के संबंध में कानून सख्त होने चाहिए और ऐसे आरोपी को, न्यायालय को गुमराह करने के लिए दंडित किया जाना चाहिए। 

संदर्भ

 

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