आईपीसी 1860 के तहत एक्स्ट्रा-टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन- एक विस्तृत विश्लेषण

0
1985
Indian penal Code
Image Source- https://rb.gy/wjn3rp

यह लेख Akanksha Chowdhury ने लिखा है। इस लेख में इस बात का संक्षिप्त परिचय दिया गया है कि जुरिसडिक्शन शब्द का क्या अर्थ है, इसके बाद इंट्रा टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन की परिभाषा दी गई है और फिर लेख पूरी तरह से आईपीसी के तहत एक्स्ट्रा टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन पर केंद्रित है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar ने किया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

एक्स्ट्रा टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन के बारे में बात करने से पहले यह जानना बहोत जरूरी है कि जुरिसडिक्शन शब्द का आईपीसी के तहत क्या अर्थ है। 

जुरिसडिक्शन शब्द में दो अलग-अलग शब्द शामिल हैं, “ज्यूरिस” जिसका अर्थ है कानून और “डिसर” जिसका अर्थ है बोलना। सरल शब्दों में जुरिसडिक्शन का अर्थ है विभिन्न कानूनी निकायों (बॉडीज) को दिया गया अधिकार या शक्ति ताकि यह अधिकार के अपने परिभाषित क्षेत्र के भीतर न्याय प्रदान कर सके।

कानूनी निकाय में सभी अदालतें, सरकारी और राजनीतिक निकाय शामिल हैं। अब एक सवाल उठ सकता है कि जुरिसडिक्शन की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) क्यों पेश की गई थी: ऐसा इसलिए किया गया था ताकि सभी कानूनी निकायों को पता चल सके कि उन्हें किन मामलों पर निर्णय लेना है और यह भी सुनिश्चित करना है कि अदालतें किसी भी तरह से अपनी सीमाओं को पार न करें।

आईपीसी के तहत टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन है जिसे आगे दो अन्य जुरिसडिक्शन्स में विभाजित किया गया है: 

  1. इंट्रा टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन
  2. एक्स्ट्रा टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन

जैसा कि हम जानते है भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) 1860 में सामने लाई गई थी, यह हमें सभी तरह के अपराधों के बारे में गहराई से जानकारी देती है और कानून के विद्यार्थियों के लिए बहोत ही महत्वपूर्ण है, और यह पूरे भारत में लागू है। चूंकि यह कभी कभी टेरीटोरियल जुरिसडिक्शन को भी लागू होती है। 

इस लेख में हम मुख्य रूप से आईपीसी के तहत एक्स्ट्रा टेरिटोरियल (अतिरिक्त प्रादेशिक) जुरिसडिक्शन पर ध्यान केंद्रित करेंगे, हालांकि आइए हम समझते हैं कि इंट्रा टेरिटोरियल (अंतःक्षेत्रीय) जुरिसडिक्शन का क्या अर्थ है।

इंट्रा-टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन 

परिभाषा (डेफिनिशन)- आईपीसी की धारा 2 इंट्रा-टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन से संबंधित है। 

धारा 2- भारत के भीतर किए गए अपराधों की सजा: 

इस संहिता के प्रावधानों के प्रतिकूल हर कार्य या लोप (ओमिशन) के लिए जो व्यक्ति भारत में दोषी होगा, वह इसी संहिता के अंदर दंडनीय होगा अन्यथा नहीं।

धारा 5 – कुछ अधिनियमों पर इसका प्रभाव नही पड़ेगा:

यह धारा अधिनियम में कोई बात भारत सरकार की सेवा के अफसरों सैनिकों नौसैनिकों या वायु सैनिकों द्वारा विद्रोह और अभीत्यजन (एबोंडनमेंट) को दंडित करने वाले किसी अधिनियम के प्रावधानों या किसी विशेष या लोकल कानून के प्रावधानों, पर प्रभाव नहीं डालेगी।  

एक्स्ट्रा टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन 

परिभाषा- 

एक विशेष अपराध को एक्स्ट्रा टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन माना जाता है जब यह किसी विशेष देश में होता है लेकिन मुकदमा किसी अन्य देश में होता है।

अब आईपीसी की धारा 3 और 4 एक्स्ट्रा टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन से संबंधित है।

उदाहरण- B, भारत का नागरिक, लंदन में एक हत्या करता है। उस पर भारत में किसी भी स्थान पर हत्या का मुकदमा चलाया जा सकता है और उसे दोषी ठहराया जा सकता है, जिस जगह वह भारत में पाया जाता है। 

धारा 3

भारत के बाहर किए गए अपराधों के लिए दंड, लेकिन जिसका कानून द्वारा भारत के भीतर मुकदमा चलाया जा सकता है – किसी भी भारतीय कानून के लिए उत्तरदायी (लाएबल) किसी भी व्यक्ति को भारत से बाहर किए गए अपराध के लिए इस संहिता के प्रावधानों के अनुसार किसी भी कार्य के लिए उसी तरह निपटाया जाएगा (भारत) से जैसे कि ऐसा कृत्य भारत में किया गया था। 

धारा 4

बाहरी अपराधों के लिए कोड का विस्तार – इस कोड के प्रावधान किसी भी अपराध पर लागू होते हैं:

  1. भारत के बाहर के किसी भी स्थान पर भारत का कोई भी नागरिक द्वारा।
  2. भारत में पंजीकृत (रजिस्टर्ड) किसी भी जहाज या विमान पर कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कहीं भी हो।
  3. भारत के बाहर किसी भी स्थान पर कोई भी व्यक्ति भारत में स्थित कंप्यूटर संसाधन (रिसोर्सेस) को निशाना बनाकर अपराध करता है।

A – ‘अपराध’ शब्द में भारत के बाहर किया गया प्रत्येक कार्य शामिल है जो यदि भारत में किया गया होता तो इस संहिता के तहत दंडनीय होता।

B – ‘कंप्यूटर संसाधनों का अर्थ आईटी एक्ट, 2000, की धारा 2 की उपधारा (1) के खंड (k) में दिया गया है। 

धारा 3 और धारा 4 का दायरा (स्कोप): भारतीय दंड संहिता 

जैसा कि हमने पहले पढ़ा, ये दोनों खंड भारत की क्षेत्रीय सीमाओं के बाहर किए गए अपराधों से संबंधित हैं।

धारा 3 को लागू करने से पहले 2 शर्तें पूरी करने की आवश्यकता है जो इस प्रकार हैं:

सबसे पहले- यह आरोप होना चाहिए कि भारत के नागरिक ने भारत के बाहर कोई अपराध किया है या नहीं, जो अगर भारत में किया गया होता तो आईपीसी के तहत दंडनीय होता।

दूसरा- वह व्यक्ति किसी भारतीय कानून के तहत उस अपराध के लिए भारत में मुकदमा चलाने के लिए उत्तरदायी है।

जब ये दोनों शर्तें पूरी हो जाती हैं तो आरोपी व्यक्ति के साथ आईपीसी के प्रावधानों के अनुसार उसी तरह से व्यवहार करना आवश्यक है जैसे कि भारत में विशेष अपराध किया गया था। 

धारा 3 और 4 से संबंधित शुरुआती मामलों में से एक मामला नीचे दिया गया है:

राव शिव बहादुर सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ विंध्य प्रदेश 

इस मामले में, शिव बहादुर सिंह और एक अन्य व्यक्ति तत्कालीन (फॉर्मर) संयुक्त राज्य (यूनाईटेड स्टेट्स) विंध्य प्रदेश के उद्योग विभाग के उद्योग मंत्री और सचिव थे। पन्ना राज्य विंध्य प्रदेश के घटक राज्यों में से एक था। पन्ना नामक स्थान पर हीरे बड़े पैमाने पर पाए जाते हैं और खनन (माइनिंग) किए जाते हैं। 1936 में, पन्ना दरबार ने हीरे की खदानों (माइन) को संचालित करने के लिए पन्ना हीरा खनन सिंडिकेट के साथ 15 साल का लीज कॉन्ट्रैक्ट किया। अक्टूबर 1947 में जब उपर्युक्त दो व्यक्ति मंत्री और सचिव थे, तो मेरी अनुमति को इस आधार पर अचानक समाप्त कर दिया गया था कि सिंडिकेट उचित तरीके से संचालन नहीं कर रहा था।

फरवरी 1949 तक यह आरोप लगाया गया था कि दोनों व्यक्तियों ने एक साथ साजिश रची थी और रद्द (रिवोक) करने के आदेश को रद्द करने के उद्देश्य से पैसे की मांग कर रहे थे। उन पर संविधान भवन (कंस्टीट्यूशन हाउस), दिल्ली में 25000 रुपये तक की अवैध रिश्वत लेने का भी आरोप लगाया गया था। हालांकि, निचली अदालत ने उन्हें बरी कर दिया था, हालांकि अपीलीय अदालत ने उन्हें दोषी ठहराया और तीन साल के कारावास की सजा सुनाई। साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि हालांकि पन्ना की धारा 3 और 4 के राज्य के बाहर परितोषण (ग्रेटीफिकेशन) राशि देने का अपराध हुआ, आईपीसी ने स्पष्ट रूप से क्षेत्र को कवर किया और जब सीपीसी की धारा 188 के साथ पढ़ा गया तो उसके खिलाफ अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) शुरू करने की अनुमति दी गई। अपीलकर्ता इसलिए प्रथम अपीलकर्ता द्वारा किए गए एक्स्ट्रा टेरीटोरियल अपराध सहित अपीलकर्ताओं की दोषसिद्धि को चुनौती के लिए खुला नहीं माना गया।           

भारत में किए गए अपराधों के लिए एक विदेशी के दायित्व के बारे में 

एक भारतीय नागरिक को विदेशी भूमि में की गई किसी भी चीज के लिए अभियोजन के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है यदि किया गया कार्य भारत में एक अपराध है, हालांकि यह उस विदेशी देश में अपराध नहीं हो सकता है जहां यह किया गया है। इसी तरह, एक विदेशी भले ही वह वास्तविक घटना के समय भारत में नहीं था, फिर भी भारत में वह कार्य अधिनियम में निहित होने पर भी उत्तरदायी होगा। 

मुबारक अली के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निम्नलिखित बातें रखीं:

  1. एक विदेशी जो भारत के भीतर अपराध करता है, वह दोषी है और उस समय भारत में उसकी शारीरिक उपस्थिति के रूप में बिना किसी सीमा के दंडित किया जा सकता है। 
  2. धारा 2, आईपीसी एक विदेशी पर लागू होता है जिसने भारत के भीतर अपराध किया है, भले ही वह शारीरिक रूप से बाहर मौजूद था।
  3. एक विदेशी नागरिक होने का मतलब यह नहीं है कि विदेशी देश में आपराधिक काम के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। वास्तव में, राष्ट्रीयता आपराधिक जुरिसडिक्शन के संबंध में एक सीमित सिद्धांत (लिमिटेड प्रिंसिपल) नहीं हो सकती है जो मुख्य रूप से राज्य और राज्य के नागरिकों की सुरक्षा से संबंधित है। 

एक विदेशी का दायित्व जो एक विदेशी के रूप में अपराध करने के बाद भारतीय नागरिकता प्राप्त करता है

आईपीसी स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि कोई भारतीय भारत के बाहर अपराध करता है तो वह धारा 3 और 4 के तहत उत्तरदायी होगा। आईपीसी भर की अदालतों को यह शक्ति प्रदान करता है कि जब कोई फोरेनर किसी दूसरे देश में कोई अपराध करता है और उसके बाद भारत की नागरिकता प्राप्त कर लेता है तो, भारत की नागरिकता का तथ्य उसने किए हुए अपराध के लिए भारत में उत्तरदाई नई माना जाएगा, जब वह कार्य भारत में भी अपराध है फिर भी वह उस अपर्ध के लिए भारत के कानून के अंतर्गत उत्तरदाई नई होगा।   

नौवाहन विभाग/एडमिरल्टी जुरिसडिक्शन 

उच्च समुद्रों पर किए गए अपराधों की कोशिश करने के जुरिसडिक्शन को एडमिरल्टी जुरिसडिक्शन के रूप में जाना जाता है। यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि ऊँचे समुद्र (हाई सीज) पर एक जहाज एक तैरता हुआ द्वीप (आइसलैंड) है जो उस राष्ट्र का है जिसका झंडा उस पर फहराता है।

इसे आगे बढ़ाते है: 

  1. समुद्र में भारतीय जहाजों पर किए गए अपराध 
  2. भारतीय क्षेत्रीय जल (वॉटर जुरिसडिक्शन) में विदेशी जहाजों पर किए गए अपराध 
  3. समुद्री डकैती

एडमिरल्टी जुरिसडिक्शन पहले उपलब्ध नहीं था, हालांकि एडमिरल्टी अपराध अधिनियम 1894 और मर्चेंट शिपिंग एक्ट 1894 के बाद मजिस्ट्रेटों को समुद्र या नदी, क्रीक या स्थान पर किसी भी व्यक्ति द्वारा किए गए सभी अपराधों का जुरिसडिक्शन प्रदान किया जाता है। (किसी भी व्यक्ति शब्द का अर्थ भारतीय और गैर-भारतीय दोनों है) जो भारतीय जहाजों और भारत में पंजीकृत विमानों में किए गए अपराधों के लिए उत्तरदायी होंगे। 

केसेस 

मोहम्मद साजिद बनाम केरल राज्य 

इस मामले में खंडपीठ (कंस्टिट्यूशनल बेंच) ने फैसला सुनाया कि पुलिस किसी विदेशी देश में जांच कर सकती है, हालांकि जांच के प्रयोजनों (पर्पजेस) के लिए केंद्र सरकार की पूर्व मंजूरी आवश्यक नहीं है।

सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम राज नारायण

इस मामले में राज नारायण नाम का एक व्यक्ति मुल्तान नामक स्थान का निवासी था, भागीदारी (पार्टनरशिप) से ठीक पहले उसे 3 लाख की नकद ऋण सीमा (क्रेडिट लिमिट) प्रदान की गई थी और उसने विभाजन के दौरान 2 लाख का स्टॉक गिरवी रखा था। हालाँकि बैंक ने शिकायत की कि बाकी का पैसा उन्हिके पास है, यह भी कहा गया था कि उन्होंने उन शेयरों को अवैध रूप से प्राप्त किया था और कराची में बेच दिया था और बाद में वे भारत चले गए, बैंक ने उनसे पैसे लेने की कोशिश की लेकिन वे असफल रहे हर बार अंत में उन्हें सीपीसी की धारा 188 के तहत केंद्र सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती थी।

राज नारायण ने यह कहते हुए विरोध किया कि जब यह सब हुआ, वह एक पाकिस्तानी नागरिक था और इसलिए उसे उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है, आखिरकार जब मामला सर्वोच्च न्यायालय में ले जाया गया और यह माना गया कि आईपीसी की धारा 4 के अनुसार अपराध करते समय जब वह भारतीय है तो वह एक अपराध है और वह कब किया गया है इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि अपराध कहां किया गया था। हालांकि, यदि अपराध किए जाने के समय आरोपी भारतीय नागरिक नहीं है, तो यह धारा लागू नहीं होगी। 

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

इस लेख के माध्यम से हमें जुरिसडिक्शन के उदाहरणों के साथ-साथ उन मामलों के क्षेत्र पर एक स्पष्ट तस्वीर मिली जहां हमने इसके आवेदन (एप्लीकेशन) को देखा है। यह लेख आईपीसी के तहत आने वाले कानूनों और यह कैसे काम करता है यह जानने के उद्देश्य से लिखा गया है। यह सरकारों को एक विचार भी देता है ताकि उन्हें यह पता चल सके कि वे किसी की राष्ट्रीयता की परवाह किए बिना अपनी शक्तियों का उपयोग कैसे कर सकते हैं। कोई भी अधिकारी बीच में बिना किसी बाधा के अपनी इच्छा के अनुसार दावा कर सकता है। लेकिन यहां जो मुख्य बात सामने आती है, वह यह है कि यह कानूनी प्राधिकारियों (अथॉरिटीज) के दोनों पक्षों के एक समझौते (एग्रीमेंट) के साथ किया जाना चाहिए। इसमें राज्यों द्वारा प्रयोग की जाने वाली एक्स्ट्रा टेरिटोरियल शक्तियां शामिल हैं ताकि दोषियों को दंडित किया जा सके। 

संदर्भ (रेफरेंसेस)

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here