नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत मामलों का शीघ्र निपटान

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1892
Negotiable Instrument Act
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यह लेख विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज की छात्रा Somya Jain द्वारा लिखा गया है। लेख ने नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत दायर शिकायतों के लिए त्वरित (स्पीडी) सुनवाई की आवश्यकता को स्थापित किया है और हाल के निर्णयों और सुप्रीम कोर्ट द्वारा उसी के लिए की गई सिफारिशों पर विचार करने का प्रयास किया है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय कानूनी प्रणाली (सिस्टम) में खोजे जा सकने वाले मामलों के सबसे बड़े बैकलॉग में से एक नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत चेक के अनादर (डिसऑनर) से संबंधित है। श्री सिद्धार्थ लूथरा की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, जिन्हें एक स्वत: (सुओ मोटो) रिट याचिका मामले में एक न्याय मित्र (एमिकस क्यूरे) के रूप में नियुक्त किया गया था, ने एक तर्क दिया कि अदालतों के समक्ष लंबित आपराधिक मामलों की कुल संख्या 2.31 करोड़ है। इनमें से 35.16 लाख केवल नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज मामलों से संबंधित हैं।

जबकि इतनी बड़ी संख्या में मामले न्यायपालिका के समक्ष निपटान के लिए लंबित हैं, मौजूदा कानूनों की दक्षता (एफिशिएंसी) पर सवाल उठता है कि जो नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत मामलों के अवलोकन (ऑब्जरवेशन) के लिए तैयार किए गए हैं। ऐसे मामलों में अदालतों द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया की व्यापक मात्रा मामलों के निपटान में अनुचित देरी से मेल खाती है। इन मामलों के लंबित रहने से अन्य आपराधिक मामलों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस दागी व्यवस्था (टेंटेड सिस्टम) को जारी रखना कहाँ तक उचित है जबकि कोई इसमें संशोधन (अमेंडमेंट) कर सकता है?

लेख नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज मामलों के निपटारे के लिए अतिरिक्त अदालतों की स्थापना की आवश्यकता को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। यह संबंधित प्रावधानों (प्रोविजन) के साथ ऐसे मामलों के संचय (एक्यूमुलेशन) के कारणों की व्याख्या करता है।

नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 का एक सिंहावलोकन (ओवरव्यू)

नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 चेक के अनादर के मामलों से संबंधित है। यह उन परिस्थितियों को स्थापित करता है जिनके तहत चेक के अनादर का मामला दर्ज किया जाता है। इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाले एक मामले के लिए आवश्यक आवश्यकताएं हैं:

  1. किसी ऋण (डेब्ट) या दायित्व (लायबिलिटी) के संबंध में धन के भुगतान के लिए एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को चेक आहरित (ड्राड) किया जाना चाहिए
  2. चेक 3 महीने के भीतर (आर बी आई अधिसूचना के अनुसार) या इसकी वैधता की अवधि के भीतर जो भी पहले हो, प्रस्तुत किया जाना है
  3. बैंक द्वारा या तो धन की कमी के कारण या उस विशेष खाते से भुगतान करने के लिए बैंक के साथ की गई व्यवस्था से अधिक राशि के कारण चेक बिना भुगतान के वापस कर दिया जाता है
  4. आदाता (पेयी) या चेक धारक, आहरणकर्ता (ड्रावर) को राशि के भुगतान के लिए लिखित रूप में नोटिस के माध्यम से मांग करेगा। यह उसके द्वारा भुगतान न किए गए चेक की वापसी के संबंध में सूचना प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर किया जाना है।
  5. अंत में, चेक के भुगतान (पेमेंट) का नोटिस प्राप्त होने के 15 दिनों के भीतर आदाता या चेक धारक को आहरित चेक का भुगतान करने में विफल रहा है।

नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 का उद्देश्य चेक के माध्यम से अधिक विश्वसनीयता के साथ बैंकों की प्रभावशीलता को बढ़ाना था। इस अधिनियम का उद्देश्य बेईमानी से चेक के आहरण (ड्रॉ) को रोकना और ईमानदार आहरणकर्ताओं को अनुचित अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) से बचाना था।

इस प्रावधान के आधार पर मामलों की ओवरलोडिंग के कारण

यह ध्यान देने योग्य है कि वाणिज्यिक वैश्वीकरण (कमर्शियल ग्लोबलाइजेशन) के साथ, चेक के उपयोग में वृद्धि हुई है। इससे चेक बाउंस होने के मामले और बढ़ जाते हैं। इन मामलों के शीघ्र निपटान में भारतीय न्यायपालिका के सामने मुख्य समस्याओं में से एक यह है कि हर साल शिकायतों की लगातार वृद्धि के साथ, निपटान की दर शिकायतों की संस्था की दर से मेल नहीं खाती है। निपटान में देरी के परिणामस्वरूप प्राप्तकर्ता को असाध्य (इनक्यूरेबल) हानि, चोट और असुविधा होती है और चेक जारी करने की विश्वसनीयता कम हो जाती है।

कानूनी बिरादरी (फ्रेटरनिटी) द्वारा मामलों के संचय के मुद्दे से निपटने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। भारत के विधि आयोग (लॉ कमीशन ऑफ़ इंडिया) ने वर्ष 2008 में प्रस्तुत अपनी 213 वीं रिपोर्ट में धारा 138 से संबंधित डॉकेट एक्सप्लोजन के सांख्यिकीय (स्टैटिस्टिकल), ढांचागत (इंफ़्रास्ट्रक्चरल) और कानूनी आयामों (डाइमेंशन्स) का सर्वेक्षण किया और विस्तृत सिफारिशें दीं। रिपोर्ट ने व्यापक (कॉम्प्रिहेंसिव) रूप से स्थिति का अध्ययन किया और कानूनी प्रणाली के कामकाज में प्रासंगिक (रिलेवेंट) परिवर्तनों को व्यक्त किया जो मामलों के जल्दी से निपटान को सुनिश्चित करेगा। इसने भारत के संविधान के अनुच्छेद (आर्टिकल) 21 के तहत गारंटीकृत जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) को भी महत्व दिया, यदि अदालत द्वारा आपराधिक कार्यवाही के शीघ्र निपटान में कोई देरी हो तो उसका उल्लंघन किया जा सकता है। विधि आयोग द्वारा अपनी रिपोर्ट के माध्यम से दिए गए प्रमुख सुझावों में से एक फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना करना था।

रिपोर्ट के अनुसार, अदालतों की चिंताजनक स्थिति में त्वरित और निष्पक्ष (फेयर) सुनवाई की आवश्यकता है, जो इन विशेष अदालतों के माध्यम से हासिल किया जा सकता था। इन सिफारिशों के आधार पर, कुछ राज्यों ने इस उद्देश्य के लिए विशेष अदालतों की स्थापना की, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार, यह नीति बुरी तरह विफल रही है। यह अदालत के सामने आया कि नीति बेतरतीब (हैपहैजर्ड) और अतार्किक (इल्लॉजिकल) थी जिसके परिणामस्वरूप केवल मामलों का संचय हुआ था।

लंबित मामलों के पीछे के कुछ कारण नीचे सूचीबद्ध हैं। वे है:

समन की सेवा (सर्विस ऑफ़ समन)

नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज मामलों के निपटारे में देरी का एक बड़ा कारण आरोपी को समन जारी करने में अपनाई जाने वाली व्यापक प्रक्रिया है। दंड प्रक्रिया संहिता (कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर), 1973 के अध्याय 6 के तहत समन की प्रक्रिया को शामिल किया गया है। मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान (कॉग्नाइजेंस) लेने और शिकायत में उचित आधार स्थापित करने के बाद आरोपी को समन जारी करेगा। यदि आरोपी अदालत के समक्ष पेश होने से परहेज करता है, तो अदालत द्वारा गैर-जमानती वारंट जारी किया जा सकता है। फिर भी यदि आरोपी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में विफल रहता है तो अदालत जमानती वारंट जारी करेगी। आरोपियों को समन जारी करने की पूरी प्रक्रिया इन मामलों के त्वरित निपटान में बाधक है।

समरी ट्रायल को समन ट्रायल में बदलना

धारा 143 के अनुसार, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 262 से 265 अदालत को सभी अपराधों को ट्राई करने का अधिकार देती है। उक्त धारा के दूसरे प्रावधान में कहा गया है कि मजिस्ट्रेट के पास समरी ट्रायल को समन ट्रायल में बदलने की शक्ति है यदि उसके अनुसार कारावास की सजा एक वर्ष से अधिक है या यदि मामले को संक्षेप में देखना अवांछनीय (अनडिजायरेबल) है। अदालत द्वारा इस धारा का व्यापक रूप से उपयोग किया गया है और इसके परिणामस्वरूप, अधिकांश मामलों को नियमित रूप से समन परीक्षण में परिवर्तित कर दिया जाता है। इसके अलावा, यह नोट किया गया है कि मजिस्ट्रेट इन मामलों में, इसके कारणों को दर्ज किए बिना परिवर्तित करने में लिप्त रहे हैं। इससे चेक के अनादर के मामलों के निपटान में अत्यधिक विलंब होता है। धारा 143 का उद्देश्य, जो 138 के तहत मामलों के त्वरित निपटान से संबंधित है, अदालत की प्रथाओं से बहुत कम आंका (अंडरमाइन) गया है।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 202 के तहत जांच

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 202 के अनुसार, यदि आरोपी अदालत के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) से बाहर रहता है तो मजिस्ट्रेट की ओर से जांच करना अनिवार्य है। कई उच्च न्यायालयों का विचार था कि एक मजिस्ट्रेट के लिए केवल इसलिए जांच करना अनिवार्य नहीं होना चाहिए क्योंकि आरोपी अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहता है। इससे मौजूदा न्यायपालिका पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है और मामलों का तेजी से निपटान करना और भी मुश्किल हो जाता है।

धारा 202 (2) में कहा गया है कि मजिस्ट्रेट गवाहों की जांच करेगा और शपथ पर साक्ष्य दर्ज करेगा, जबकि धारा 143 में कहा गया है कि शिकायतकर्ता के साक्ष्य को हलफनामे (एफिडेविट) के माध्यम से दर्ज किया जाएगा। यह कानून में एक कमी पैदा करता है और अदालत की सामान्य प्रथा के अनुसार, मजिस्ट्रेट धारा 138 के मामलों के तहत गवाहों के साक्ष्य को व्यक्तिगत रूप से लेता है न कि हलफनामे के माध्यम से। अदालतों के इस तरह के कार्य न्यायपालिका पर लंबित मामलों के बोझ को बढ़ाने के लिए बाध्य हैं।

कार्यवाही की बहुलता (मल्टिप्लिसिटी ऑफ प्रोसीडिंग्स)

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 219 के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति पर 12 महीने की समय सीमा के भीतर एक ही तरह के एक से अधिक अपराध करने का आरोप लगाया जाता है, तो इनमें से तीन अपराधों का संयुक्त रूप से मुकदमा चलाया जा सकता है। यह प्रावधान तीनों अपराधों की सीमा से अधिक होने पर अपराधों को संयुक्त रूप से ट्राई करने के अवसर को समाप्त कर देता है। अदालतें एक ही अपराध के लिए और एक ही आरोपी के खिलाफ कई शिकायतें देखती हैं। अपराधों के अलग-अलग ट्राई करने से मामलों का अनुपातहीन संचयन (डिसप्रोपोर्शनेट एक्यूमुलेशन) होता है और मामलों के निपटान में अनुचित देरी होती है।

न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति (इन्हेरेंट पावर ऑफ द कोर्ट)

सामान्य नियम के अनुसार, नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 143 को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 251 और धारा 258 के साथ पढ़ा जाता है। सीआरपीसी की धारा 258 में कहा गया है कि आरोपी द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष एक याचिका पर कि ऐसी कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की जानी चाहिए क्योंकि अपराध का कोई सार नहीं है, अगर कोई उचित आधार स्थापित नहीं किया जा सकता है तो मजिस्ट्रेट उसके खिलाफ कार्यवाही छोड़ सकता है। इस प्रावधान ने उस तंत्र (मेकेनिज्म) को अनदेखा किया है जो पार्टियों के हितों की रक्षा के लिए पहले ही प्रदान किया जा चुका है। यह आगे न्यायपालिका की ओर से अनावश्यक देरी और गैरजिम्मेदारी पैदा करता है।

नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 का अवलोकन इस क्षेत्र से संबंधित प्रासंगिक प्रावधानों को समझे बिना ठीक से नहीं किया जा सकता है। धारा 138 के तहत मामलों का पता लगाने में इन प्रावधानों को लागू करते समय, कुछ कमियों को अदालत के सामने पेश किया जाता है जिसकी व्याख्या की जानी है। यह देखा गया है कि अदालत इनसे निपटने के दौरान सामान्य अभ्यास का पालन करती है। अक्सर कहा जाता है कि ये प्रथाएं कार्यवाही में देरी करने में एक प्रमुख हिस्सा हैं। इस प्रकार, प्रावधानों की समग्र रूप से व्याख्या करना और अधिनियम के अंतर्निहित (इन्हेरेंट) उद्देश्य पर विचार करना उचित है।

मामले में सर्वोच्च न्यायालय का हालिया फैसला (द रीसेंट जजमेंट ऑफ सुप्रीम कोर्ट इन द मैटर)

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि न्यायपालिका लंबित मामलों से भरी पड़ी है जिन्हें बिना किसी निर्णय के विनियोजित (अप्रोप्रियेटेड) किए वर्षों तक घसीटा जाता है। जबकि अधिकांश मामले चेक के अनादर से संबंधित हैं, अदालत ने विलंबित (डिलेड) कार्यवाही की जांच करने और इसे तेज करने के लिए एक समाधान प्रदान करने का निर्णय लिया। अदालत ने त्वरित निपटान के महत्व पर और कार्यवाही में देरी से न्याय तंत्र पर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, इनपर विचार किया है। इस विचार को ध्यान में रखते हुए, हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स की धारा 138 के तहत रिपोर्ट किए गए मामलों के त्वरित निपटान के सुझावों पर विचार करने के लिए “नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 की धारा 138 के तहत मामलों का त्वरित परीक्षण” शीर्षक से एक स्वप्रेरणा (सुओ मोटो) रिट याचिका दर्ज की है।

रिट याचिका की पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड ऑफ द रिट पिटिशन)

उक्त स्वप्रेरणा रिट याचिका उन मामलों के बैकलॉग के अनुसरण (पर्सुएंस) में देखी गई, जिन्होंने न्याय की डिलीवरी को अक्षम (इनएफिशिएंट) बना दिया। अदालत ने एमिकी क्यूरे, श्री सिद्धार्थ लूथरा और श्री के परमेश्वर को उक्त मामलों के निपटान में तेजी लाने के लिए सुझाव देने का निर्देश दिया। यह अदालत ने मकवाना मंगलदास तुलसीदास बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात और अन्य (2020) के मामले में देखा था ।

यह मामला एक विशेष अनुमति याचिका (स्पेशल लीव पेटिशन) (आपराधिक) संख्या के माध्यम से स्थापित किया गया था। 2016 का 5464 जो 27.01.2005 को 1,70,000/- रुपये की राशि के दो चेकों के अनादर से संबंधित था। विवाद 16 वर्षों से अधिक समय से लंबित था, जिसे निचली अदालत द्वारा अपनी स्थापना के 6 महीने के भीतर संक्षेप में निपटाया जाना चाहिए था। निचली अदालत को इस मामले को निपटाने में करीब 7 साल लग गए। इसके अलावा, मामला अदालत के विभिन्न स्तरों पर वर्षों तक लंबित रहा जिससे न्याय प्रणाली में बाधा उत्पन्न हुई।

सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट के पीछे विधायिका (लेजिस्लेचर) का इरादा बैंकिंग संचालन की प्रभावकारिता और चेक पर कारोबार करने में विश्वसनीयता सुनिश्चित करना था। धारा 138 के तहत बढ़ते अपराधों को कम करने के लिए चेक अनादर का अपराधीकरण किया गया था। विभिन्न न्यायालयों द्वारा दिए गए विभिन्न संशोधनों और मिसालों के बावजूद, न्याय व्यवस्था कानून के इरादे को पूरा करने में विफल रही है। निचली अदालतें कई लंबित मामलों के बोझ तले दबी हैं।

अदालत ने कहा कि मामलों के लंबित रहने का एक सबसे स्पष्ट कारण आरोपी का अदालत के समक्ष पेश नहीं होना है। उसी के लिए उपाय सुझाते हुए, अदालत ने कहा कि समन की तामील (सर्व) तेजी से की जानी चाहिए। मजिस्ट्रेट स्पीड पोस्ट, ई-मेल या किसी अन्य तेज तरीके से सेवाएं प्रदान कर सकते है। अदालत ने आगे कहा कि बैंक संबंधित लेनदेन में प्रमुख हितधारक (स्टेकहोल्डर) होने के नाते, लेनदेन और संबंधित पक्षों के आवश्यक विवरण प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

बेंच ने इस प्रावधान के तहत दर्ज मामलों में पूर्व-मुकदमा मध्यस्थता (प्री-लिटिगेशन मिडिएशन) की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) पर जोर दिया। राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी), इस संबंध में जिम्मेदार प्राधिकारी होने के नाते, मुकदमेबाजी पूर्व चरण में चेक बाउंस मामलों के निपटान की एक योजना स्थापित कर सकता है। पूर्व-मुकदमेबाजी वैकल्पिक विवाद समाधान (प्री-लिटिगेशन अल्टरनेटिव डिस्प्यूट रेसोल्यूशन) (एडीआर) के निर्णय को एक सिविल डिक्री के बराबर माना जाएगा, जिससे डॉकेट बोझ को कम करने में योगदान होगा।

लंबित मामलों की भयावहता (मैग्नीट्यूड) पर विचार करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया कि उच्च न्यायालय धारा 138 से संबंधित मामलों से निपटने के लिए विशेष अदालतें स्थापित कर सकती हैं, खासकर जहां मामलों का एक बड़ा बैकलॉग है। उच्च न्यायालय कानूनी आवश्यकता के अनुसार समय-सीमा के भीतर मामलों के निपटान को अतिरिक्त महत्व देते हुए इस संबंध में दिशानिर्देश तैयार कर सकता है।

समाज के साथ हुए घोर अन्याय के कारण, सर्वोच्च न्यायालय ने मामले में विभिन्न हितधारकों से सुझाव आमंत्रित करते हुए स्वत: रिट याचिका के माध्यम से लंबित मामलों की स्थिति की जांच करने का निर्णय लिया।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाए गए सुझाव

नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881।की धारा 138 के तहत मामलों का त्वरित परीक्षण, अदालत ने मामलों के त्वरित निपटान के लिए समाधान प्रदान करने का प्रयास किया गया। इस मामले में एमिकस क्यूरी द्वारा प्रस्तुत प्रारंभिक रिपोर्ट में विभिन्न संशोधनों का सुझाव दिया गया था जिन्हें मामलों के निपटान में तेजी लाने के लिए शामिल किया जा सकता है। मामलों के अनुचित बैकलॉग के कारणों को निर्धारित करते हुए, सीजेआई एस ए बोबडे की 5 जजों की बेंच ने उसी के निवारण के लिए कुछ आवश्यक सुझाव दिए।

इनमे से कुछ सुझावे हैं:

  1. समन की सेवा के मुद्दे से निपटने के लिए, अदालत ने कहा कि सेवा एसएमएस, व्हाट्सएप, ईमेल और डाक सेवाओं के माध्यम से संचालित (इश्यू) की जानी चाहिए। इसके अलावा, भारतीय संघ, भारतीय रिजर्व बैंक और भारतीय बैंक संघ (इंडियन बैंक एसोसिएशन) को इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से समन की प्रभावी सेवा के लिए एक नोडल सेवा एजेंसी बनाना चाहिए।
  2. बैंक लेन-देन में महत्वपूर्ण हितधारकों में से एक है, जो अनादर पर्ची जारी करने के साथ-साथ आरोपी के ठिकाने के बारे में विवरण प्रदान कर सकता है जो चेक के आहरणकर्ता के फोन नंबर, ई-मेल पते और डाक पते को प्रकट करेगा।
  3. सर्वोच्च न्यायालय ने मजिस्ट्रेट को समरी ट्रायल को समन ट्रायल में बदलने से पहले ठोस और उचित आधार दर्ज करने का निर्देश दिया। उच्च न्यायालय ट्रायल कोर्ट को ट्रायल को परिवर्तित करने के कारणों को रिकॉर्ड करने का निर्देश देने वाले दिशानिर्देश तैयार कर सकता है।
  4. न्यायालय द्वारा यह देखा गया है कि यदि आरोपी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का निवासी नहीं है तो मजिस्ट्रेट को धारा 138 के तहत शिकायतें प्राप्त होने पर जांच करनी चाहिए। इसके बाद अदालतों द्वारा उचित आधारों के आधार पर यह तय किया जाना चाहिए कि आरोपी के साथ आगे बढ़ना है या नहीं।
  5. अदालत के अनुसार, संहिता की धारा 202(2) को नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 143 के अनुरूप (कंसोनेन्स) में पढ़ा जाना चाहिए। अदालत ने निर्देश दिया कि शिकायतकर्ता के साथ गवाहों को हलफनामे के रूप में बयान के माध्यम से पेश किया जाए और केवल असाधारण परिस्थितियों में ही मजिस्ट्रेट गवाह से व्यक्तिगत रूप से पूछताछ कर सकता है। उपयुक्त मामलों में, मजिस्ट्रेट गवाहों की जांच पर जोर दिए बिना जांच को दस्तावेजों की जांच तक सीमित कर सकता है।
  6. बेंच ने सिफारिश की, कि संहिता की धारा 219 में उल्लिखित प्रतिबंध के बावजूद, अदालत केवल 12 महीने की समय सीमा के भीतर किए गए तीन समान अपराधों को समेकित (कंसोलिडेट) करने के बजाय चेक के अनादर के मामलों से संबंधित एक ही व्यक्ति के खिलाफ कई अपराधों को ट्राई कर सकती है।
  7. उच्च न्यायालय को एक शिकायत में समन की तामील (सर्विस) को उसी अदालत के समक्ष दायर एक ही लेन-देन का हिस्सा बनने वाली सभी शिकायतों के हिस्से के रूप में माना गया और सेवा के रूप में व्यवहार करने के लिए ट्रायल कोर्ट को निर्देश जारी करना होगा।
  8. यह दोहराया जाता है कि निचली अदालतों के पास समन के मुद्दे को वापस बुलाने या समीक्षा (रिव्यू) करने की कोई अंतर्निहित शक्ति नहीं है। लेकिन यह निचली अदालत के समन जारी करने के आदेश पर फिर से विचार करने के अधिकार को कम नहीं करता है अगर यह पाया जाता है कि शिकायत पर विचार करने के लिए उसके पास अधिकार क्षेत्र नहीं है।
  9. संहिता की धारा 258 नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज मामलों पर लागू नहीं होती क्योंकि यह पाया गया कि धारा 258 “शिकायतों” से नहीं निपटती है, जबकि चेक का अनादर करना सक्षम प्राधिकारी (कंपीटेंट अथॉरिटी) के पास शिकायत दर्ज करने के बराबर है।

बेंच ने माननीय जस्टिस श्री आर.सी. चव्हाण, बंबई उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश को विशेष रूप से अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायतों की सुनवाई के लिए अतिरिक्त अदालतों की स्थापना की आवश्यकता पर विचार-विमर्श करने के लिए कहा। इसके अलावा, प्रारंभिक (प्रिलिमिनरी) रिपोर्ट के भीतर जिन मामलों को निपटाया नहीं गया है, वे उपरोक्त समिति द्वारा विचार-विमर्श का विषय होंगे। अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायतों के शीघ्र निपटान से संबंधित किसी अन्य मुद्दे पर भी समिति द्वारा विचार किया जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संदर्भित फैसले (जजमेंट्स रेफर्ड बाय सुप्रीम कोर्ट)

न्यायालय के समक्ष मामला अदालतों द्वारा दिए गए कुछ न्यायिक निर्णयों में स्पष्टीकरण के समान था। एमीकस क्यूरी ने विलंबित (डिलेड) कार्यवाही के कारणों की व्याख्या करते हुए प्रावधानों के दायरे पर सवाल उठाते हुए विभिन्न उदाहरणों का उल्लेख किया।

अदालत ने के एम मैथ्यू बनाम स्टेट ऑफ केरल और अनदर, (1991) के मामले को देखा कि प्रक्रिया के जारी करने के गलत आदेश को वापस लेने के लिए कानून के किसी विशेष प्रावधान की आवश्यकता नहीं है और माना कि मजिस्ट्रेट को कार्यवाही छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रक्रिया जारी करने वाला आदेश केवल अंतरिम (इंटरिम) आदेश है न कि निर्णय हैं। यह अदालत प्रसाद बनाम रूपलाल जिंदल और अन्य (2004) और सुब्रमण्यम सेथुरमन बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र और अन्य (2004) के निर्णयों के विपरीत आयोजित किया गया था। संज्ञान लेने वाले आदेश में यह देखा गया कि निचली आपराधिक अदालतों के पास संहिता के अनुसार कोई अंतर्निहित शक्ति नहीं है। इस प्रकार, के.एम. मैथ्यू के मामले के तहत स्थापित कानून का मामला सही नहीं था।

अदालत ने मीटर्स एंड इंस्ट्रूमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड और अन्य बनाम कंचन मेहता (2017) को भी संदर्भित किया। इस मामले में कहा गया कि यदि शिकायतकर्ता को पर्याप्त मुआवजा दिया गया है, तो मजिस्ट्रेट आरोपी को आरोपमुक्त कर सकता है। इस फैसले ने नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 143 के तहत, संहिता की धारा 258 के साथ ,अदालत की अंतर्निहित शक्ति को मंजूरी दी, जहां मजिस्ट्रेट लिखित में कारणों के साथ किसी भी स्तर पर कार्यवाही को रोक सकता है। वर्तमान बेंच के अनुसार, उपर दिए गए मामले में लिया गया निर्णय एक खराब कानून था क्योंकि धारा 258 में शिकायतों के माध्यम से दर्ज मामले शामिल नहीं थे। उपर दिए गए मामले में निर्णय धारा 143 के तहत “जहाँ तक संभव हो” शब्दों पर निर्भर करता है, जो केवल सारांश प्रक्रिया (समरी प्रोसीजर) के लिए है और धारा 258 के संबंध में इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है। इस प्रकार, संहिता के 258 में, चेक के अनादर के मामलों को धारा के तहत कवर नहीं किया जा सकता है।

उपरोक्त निर्णय ने त्वरित सुनवाई के संबंध में कुछ जनादेश (मैंडेट) स्थापित किया।

  1. अधिनियम की धारा 138 से संबंधित मामलों की सुनवाई सारांश परीक्षण की प्रकृति के साथ होनी चाहिए, जब तक कि समन ट्रायल के लिए कारण की आवश्यकता न हो, जो हमेशा असाधारण होता है।
  2. शिकायतकर्ता का साक्ष्य मामला सौंपे जाने के 3 महीने के भीतर प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
  3. शिकायत दर्ज करने की तारीख से 6 महीने के भीतर मुकदमे को समाप्त करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
  4. जब तक अन्यथा करने के लिए कारण मौजूद न हों, परीक्षण, जहां तक ​​संभव हो, दिन-प्रतिदिन के आधार पर आयोजित किया जाना चाहिए।

एक अन्य मामला, वाणी एग्रो एंटरप्राइजेज बनाम स्टेट ऑफ गुजरात और अन्य (2019 ) में, स्पष्टीकरण के लिए इसे अदालत के सामने पेश किया गया था। इस मामले में, अदालत ने चार चेकों के अनादर और उसके बाद की चार अलग-अलग शिकायतों का निपटारा किया था। उसमें चारों मामलों के चकबंदी का मुद्दा उठाया गया था। संहिता की धारा 219 के अनुसार, केवल तीन मामलों को जोड़ा जा सकता है जो सार में समान हैं। उपर दिए गए मामले में अदालत ने मामलों को संयुक्त रूप से चलाने का आदेश दिया था। बेंच ने इस विचार को उचित पाया और एक ही अदालत के समक्ष संयुक्त रूप से समान प्रकृति के कई मामलों की सुनवाई के लिए अधिनियम में संशोधन करने का भी आदेश दिया।

अदालत ने बलबीर बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा और अन्य, (2000) के मामले में फैसले पर भरोसा किया था। यह देखा गया कि एक ही लेन-देन का हिस्सा बनने वाले आरोपी द्वारा कथित तौर पर किए गए सभी अपराधों को संहिता की धारा 219 के बावजूद एक साथ ट्राई करने की कोशिश की जाएगी। इन अपराधों की सुनवाई उसी अदालत द्वारा की जा सकती है, भले ही वह किसी बड़े षड्यंत्र का हिस्सा ही क्यों न हो।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को भारतीय कानूनी व्यवस्था में तेजी के रूप में देखना

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने अदालती प्रक्रियाओं को बंद करने का प्रयास किया है और आगे जाकर यह तुरंत न्याय देकर बड़े पैमाने पर समाज को राहत भी प्रदान करेगा। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित आवश्यक संशोधनों के साथ, मामलों के तुरंत निपटान को प्राप्त करने के लिए एक कदम आगे बढ़ाते हुए कानून की खामियों को कम किया गया है।

पूर्व-मुकदमेबाजी मध्यस्थता के अंतर्निहित प्रावधान पर बहुत जोर दिया गया है जो न्यायपालिका के बोझ को कम करने में योगदान देगा। यह लागत प्रभावी और समयबद्ध भी होगा और अदालतों को एक नई उम्मीद भी देगा। इसके अलावा, कोविड ​​​​-19 महामारी की मौजूदा स्थिति को देखते हुए, अदालत ने आरोपी को शारीरिक रूप से बुलाने के बजाय ऑनलाइन मध्यस्थता आयोजित करने की भी सिफारिश की है।

विधायी मंशा (लेजिस्लेटिव इंटेंट) के अनुरूप अदालत द्वारा दिए गए सुझावों के अलावा, अदालत ने अलग अदालतें स्थापित करने का प्रावधान दिया है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 247 केंद्र सरकार को त्वरित निपटान के लिए अतिरिक्त या विशेष अदालतें स्थापित करने का अधिकार देता है। अदालत ने कहा कि पिछले अनुभव साबित करते हैं कि अलग अदालतें स्थापित करने से मामलों का त्वरित निपटान हुआ है।

अदालत के फैसले और सुझावों ने भारतीय कानूनी व्यवस्था को एक नया क्षितिज (होराइजन) दिया है। इसने समग्र दृष्टिकोण के माध्यम से न्याय पाने के लिए समाज की पहुंच को बढ़ाया है। लंबित मामलों में कमी के साथ, भारतीय कानूनी प्रणाली में न्याय प्रदान करने में भी तेजी देखेगी।

अदालत द्वारा की गई सिफारिशों ने अधिनियम में संशोधन करके कानून के दायरे का विस्तार किया है। लेकिन मुख्य सवाल उक्त परिवर्तनों के क्रियान्वयन (इम्प्लीमेंटेशन) को लेकर उठता है। फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना के लिए अतिरिक्त मानव और न्यायिक संसाधनों की आवश्यकता होती है और यदि उनकी गणना नहीं की जाती है तो यह मामलों को आगे बढ़ा सकता है। यह योजना पहली बार में लाभदायक लग सकती है लेकिन चुनौती इसके भीतर है।

निष्कर्ष

भारतीय न्यायिक प्रणाली बार-बार नई चुनौतियों का सामना कर रही है और उन्होंने अत्यंत सटीकता के साथ उनका मुकाबला किया है। त्वरित न्याय प्रदान करने के लिए कानून के दायरे का विस्तार करना एक ऐसा कदम है जो समाज में बड़े पैमाने पर कानून के शासन के लिए विश्वास पैदा करेगा और सम्मान पैदा करेगा। समाज के मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करने वाली न्यायपालिका उक्त निर्णय के तहत स्वतंत्र और त्वरित परीक्षण के अधिकार की रक्षा करती है। यह ठीक ही कहा गया है कि न्याय में देरी न्याय से वंचित है। इसलिए, न्यायपालिका को प्रभावी और त्वरित न्याय देने के साथ-साथ पक्षों के हितों को संतुलित करना होगा।

​​संदर्भ

 

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