मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 9 और 17 के बीच अंतर

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Arbitration and Conciliation Act

यह लेख लॉसिखो से आर्बिट्रेशन: स्ट्रैटेजी, प्रोसीजर एंड ड्राफ्टिंग में सर्टिफिकेट कोर्स कर रहे Abhishek Narsing द्वारा लिखा गया है। इस लेख का संपादन (एडिट) Aatima Bhatia (एसोसिएट, लॉसिखो) और Smriti Katiyar  (एसोसिएट, लॉसिखो) ने किया है। इस लेख में लेखक मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (आर्बिट्रेशन एंड कॉन्सिलिएशन एक्ट) की धारा 9 और 17 के बीच अंतर बताते है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय 

मध्यस्थता पक्षों के बीच किए गए समझौते से संबंधित है और मध्यस्थता की प्रक्रिया मध्यस्थता के लिए समझौते से शुरू होती है और मध्यस्थ न्यायाधिकरण (आर्बिटरल ट्रिब्यूनल) द्वारा पारित पंचाट (अवॉर्ड) के साथ समाप्त होती है। अनुबंध से उत्पन्न होने वाले सभी विवादों को मध्यस्थता के लिए भेजा जाता है। मध्यस्थता वाणिज्यिक (कमर्शियल) विवादों को सुलझाने के लिए विवाद समाधान का एक अधिक पसंदीदा तरीका रहा है, यह प्रमुख रूप से भारतीय अदालत प्रणाली के अत्यधिक बोझ के कारण और निम्नलिखित पहलुओं के कारण भी है: 

  1. शासी कानून, 
  2. न्यायालय का पर्यवेक्षी अधिकार क्षेत्र (सुपरवाइजरी ज्यूरिसडिक्शन), 
  3. मध्यस्थ न्यायाधिकरणों का गठन, 
  4. और मध्यस्थता के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया। 

इस प्रकार, पक्ष की स्वायत्तता (ऑटोनोमी) का आधार सिद्धांत मध्यस्थता के कानून के निर्माण के पीछे का कारण है। हाल ही में सेंट्रोट्रेड मिनरल्स एंड मेटल इनकॉरपोरेशन बनाम हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थता समझौतों की वैधता का आकलन करने में पक्षों की स्वायत्तता (ऑटोनोमी) के महत्व को रेखांकित किया और कहा कि ‘पक्ष की स्वायत्तता वास्तव में मध्यस्थता का महत्वपूर्ण पहलू है’ और यह कि उसकी राय में ‘मध्यस्थता समझौते के पक्षों के पास न केवल पालन किए जाने वाले प्रक्रियात्मक कानून बल्कि मूल कानून पर भी पंचाट लेने की स्वायत्तता है’। इस प्रकार, विवादित पक्षों के हितों की रक्षा के लिए, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 9 और धारा 17 के तहत, मध्यस्थता न्यायाधिकरण या कानून की अदालत से सुरक्षा के अंतरिम (इंटरिम) उपायों की मांग की जा सकती है, मध्यस्थता से पहले या उसके दौरान और मध्यस्थता की कार्यवाही पूरी होने के बाद भी सुरक्षा की मांग की जा सकती है।

धारा 17 के तहत अंतरिम उपायों का आदेश देने के लिए एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण की शक्ति

भारत में बैठी मध्यस्थताओं के लिए, अधिनियम की धारा 17 मध्यस्थ न्यायाधिकरण को अनुबंधित पक्षों को अंतरिम राहत प्रदान करने का अधिकार देती है। 2015 के संशोधन अधिनियम (2015 के संशोधन) से पहले, मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा प्रदान की जा सकने वाली अंतरिम राहत के प्रकारों को चित्रित नहीं किया गया था, यहां केवल यह कहा गया था कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण अपने विवेक पर, किसी पक्ष को सुरक्षा का कोई भी अंतरिम उपाय करने का आदेश देता है जिसे विवाद के विषय के संबंध में मध्यस्थ न्यायाधिकरण आवश्यक मानता है। गुलमाली अमरुल्लाह बाबुल बनाम शब्बीर सालेभाई माहिमवाला के मामले में, यह माना गया था कि धारा 17 के तहत किए गए आदेश को लागू करने की मांग करने वाला पक्ष बाद में मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा किए गए आदेश के आधार पर उसी राहत के लिए धारा 9 के तहत याचिका दायर करेगा। इस प्रकार, धारा 9 के तहत कार्यवाही मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा की गई प्रवर्तन (एंफोर्समेंट) कार्यवाही नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेश को किसी भी तरह से लागू नहीं किया जा सकता है, यहां तक ​​कि अदालत भी धारा 9 की कार्यवाही के तहत यही विचार रख सकती है।

लेकिन, 2015 का संशोधन यह सुनिश्चित करता है कि धारा 17 के तहत मध्यस्थ न्यायाधिकरण की शक्तियों को अधिनियम की धारा 9 के तहत अदालत की शक्तियों के साथ संरेखित किया गया है, न्यायाधिकरण को अधिनियम की धारा 9(1) के तहत दिए जा सकने वाले सभी उपायों को प्रदान करने का अधिकार है। बाद में, उपखंड (3) को धारा 9 के तहत डाला गया था जो बताता है कि एक बार जब एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण का गठन किया जाता है तो; एक अदालत अंतरिम उपायों के लिए एक आवेदन पर विचार नहीं करेगी, जो कि धारा 17 के तहत अप्रभावी हो सकता है। 2015 के संशोधन के माध्यम से, धारा 17 के तहत मध्यस्थ न्यायाधिकरण न केवल मध्यस्थता की कार्यवाही के दौरान बल्कि पंचाट देने के बाद किसी भी समय लेकिन इसके प्रवर्तन से पहले, अंतरिम उपाय प्रदान कर सकता है। लेकिन, “मध्यस्थता पंचाट दिए जाने के बाद किसी भी समय लेकिन इसके लागू होने से पहले” शब्दों को 2019 संशोधन (2019 संशोधन अधिनियम) के द्वारा हटा दिया गया था, क्योंकि यह मध्यस्थता अधिनियम की धारा 32 के साथ असंगत था, जो प्रदान करता है कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण का अधिदेश (मैंडेट) मध्यस्थता कार्यवाही की समाप्ति के साथ समाप्त हो जाएगा। अधिनियम की धारा 17 के तहत एक आदेश, मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा अंतरिम उपाय देने या देने से इनकार करने पर अधिनियम की धारा 37(2)(b) के तहत अपील की जा सकती है। हालाँकि, किसी भी दूसरी अपील की अनुमति नहीं है, लेकिन पक्ष अभी भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के असाधारण अधिकार क्षेत्र का आह्वान कर सकते हैं, जिससे अपील करने के लिए एक विशेष अनुमति मिलती है।

हालाँकि, 2015 के संशोधन के बाद, धारा 17 के तहत निहित शक्तियाँ धारा 9 के विधायी इरादे को खत्म नहीं कर सकती हैं और अदालतों ने समय-समय पर यह स्पष्ट किया है कि, एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण वे सभी आदेश नहीं दे सकता है जो एक अदालत सामान्य रूप से दे सकती है, जैसे कि प्रदीप के.एन. बनाम स्टेशन हाउस ऑफिसर के मामले में चर्चा की गई थी कि एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने अधिनियम की धारा 17 के तहत एक अंतरिम उपाय के रूप में एक वाहन को जब्त करने का आदेश दिया था, तो अदालत ने कहा था कि कब्जे का आदेश केवल एक सिविल अदालत के माध्यम से किया जा सकता है। एक अंतरिम आदेश पारित करने के लिए एक सिविल अदालत की शक्ति एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण को प्रदान करने का मतलब यह नहीं है कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण को प्रवर्तन की शक्ति प्रदान की जाती है।

धारा 9 के तहत अंतरिम उपायों का आदेश देने के लिए न्यायालय की शक्ति

विवाद उत्पन्न होने और पंचाट पारित होने के बीच की समय अवधि के कारण, अंतरिम उपाय घरेलू और साथ ही अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता में एक महत्वपूर्ण उपाय निभाते हैं। हालाँकि, कुछ परिस्थितियों में, अंतरिम उपाय का आदेश प्राप्त करने के लिए मध्यस्थ न्यायाधिकरण का सहारा संभव या प्रभावी नहीं हो सकता है; ऐसा मध्यस्थ न्यायाधिकरण की संस्था के कारण या मध्यस्थ न्यायाधिकरण के पास निहित सीमित शक्तियों के कारण हैं। ऐसी परिस्थितियों में, पक्ष को अधिनियम की धारा 9 के तहत मध्यस्थता प्रक्रिया से पहले या उसके दौरान या मध्यस्थता पंचाट के बाद किसी भी समय अंतरिम उपाय के लिए अदालत में आवेदन करना पड़ता था। लेकिन, जो व्यक्ति मध्यस्थता समझौते का पक्ष नहीं है, वह अंतरिम उपायों के लिए अदालत में आवेदन नहीं कर सकता है। 

हालांकि, 2015 के संशोधन के बाद, धारा 9 के तहत पेश किए गए शब्द “न्यायालय स्वीकार नहीं करेगा” स्पष्ट रूप से उन शब्दों को बताता है कि पक्ष मध्यस्थता और मध्यस्थ न्यायाधिकरण को लागू करने के लिए सहमत हुए हैं। यहां यह उल्लेख करना उचित है कि ‘साफ नियत का सिद्धांत’, जिसका अर्थ है कि अदालत में आने वाले व्यक्ति का इरादा अच्छा होना चाहिए और दुर्भावनापूर्ण नहीं, अधिनियम की धारा 9 के तहत अंतरिम उपायों की सुरक्षा हासिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, धारा 9 एक पक्ष को अंतरिम उपायों के संरक्षण के लिए आवेदन करने की अनुमति देती है जो एक विवेकाधीन उपाय है और ऐसा करने के लिए न्यायालय को उचित और सुविधाजनक प्रतीत होता है। उप्पल इंजीनियरिंग कंपनी (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम सिमको बिरला लिमिटेड, जहां याचिकाकर्ता यह खुलासा करने में विफल रहा कि उन्होंने मध्यस्थता न्यायाधिकरण से इसी तरह की राहत मांगने के लिए धारा 17 के तहत एक आवेदन दायर किया था, अदालत ने कहा कि चूंकि याचिकाकर्ता ने महत्वपूर्ण तथ्यों को छुपाया था, इसलिए वह इस आधार पर धारा 9 के तहत राहत पाने का हकदार नहीं था। एस. रमिंदर सिंह बनाम एनसीटी ऑफ दिल्ली के एक अन्य मामले में, याचिकाकर्ता इस तथ्य का खुलासा करने में विफल रहा था कि उसने इसी तरह की राहत का दावा करने के लिए अन्य कानूनी कार्यवाही (एक सिविल वाद (सूट) और रिट कार्यवाही सहित) शुरू की थी और इन मामलों में राहत के लिए उसका अनुरोध अन्य कार्यवाहियों को संबंधित अदालतों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था जहां कार्यवाही शुरू की गई थी। अदालत ने कहा कि धारा 9 की याचिका अकेले इस आधार पर खारिज करने के लिए उत्तरदायी थी क्योंकि याचिकाकर्ता ने साफ नियत से अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया था।

जहां मध्यस्थता का स्थान भारत के बाहर है वहां अंतरिम उपाय प्रदान करने की न्यायालय की शक्ति 

अधिनियम की धारा 9 के तहत अंतरिम उपाय संरक्षण भारत में बैठे घरेलू मध्यस्थता और अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता दोनों के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता है, हालांकि अधिनियम के भाग 1 के प्रावधान अब भारत के बाहर अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के संबंध में भी उपलब्ध हैं। यह प्रावधान न्यायालय को निम्नलिखित के संबंध में अंतरिम उपायों का आदेश देने की विस्तृत शक्ति प्रदान करता है:

  1. माल का संरक्षण और हिरासत जो मध्यस्थता समझौते की विषय वस्तु है;
  2. विवाद में राशि सुरक्षित करना;
  3. चल या अचल संपत्ति का निरोध (डिटेंशन) या संरक्षण;
  4. साक्ष्य प्राप्त करना जो मध्यस्थता की कार्यवाही में उत्पन्न हो सकता है।

 

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम “घरेलू मध्यस्थता”, “अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता” और “विदेशी मध्यस्थता पंचाट के प्रवर्तन” से संबंधित कानून को समेकित (कंसोलिडेट) और संशोधित करने का उद्देश्य रखता है। अधिनियम का भाग I लागू होगा “जहां मध्यस्थता का स्थान भारत में है”, और जहां विवाद के सभी पक्ष भारतीय नागरिक हैं और मध्यस्थता का स्थान भारत में है, यह “घरेलू मध्यस्थता” होगी। इसके विपरीत, अधिनियम की धारा 2(1)(f) “अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता” की परिभाषा दो तत्वों पर केंद्रित है:

  1. मध्यस्थता भारत में लागू कानून के तहत वाणिज्यिक माने जाने वाले कानूनी संबंध से उत्पन्न विवाद से संबंधित होनी चाहिए और 
  2. समझौते के लिए कम से कम एक पक्ष अधिनियम की धारा 2 (1) उप खंड(f)(i) से (iv) में सूचीबद्ध श्रेणियों में से किसी एक के अंतर्गत आता है।

डोमिनेंट ऑफसेट प्राइवेट लिमिटेड बनाम एडमोवस्के स्ट्रोजिर्नी के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने कहा कि, “भले ही मध्यस्थता का स्थान भारत के बाहर हो, अधिनियम की धारा 9 के प्रावधान लागू होंगे और अदालत के पास सुरक्षा के अंतरिम उपायों का आदेश देने का अधिकार क्षेत्र है। उन्होंने यह भी कहा कि धारा 2 की उप धारा (2) का एक सादा पठन एक समावेशी (इन्क्लूसिव) परिभाषा है और यह उन मध्यस्थताओं के लिए अधिनियम के भाग -1 की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) को बाहर नहीं करता है जो भारत में नहीं हो रही हैं। संक्षेप में, उपरोक्त व्याख्या को धारा 2 की उप-धारा 5 के प्रावधानों से समर्थन मिलता है, जिसमें कहा गया है कि भाग 1 सभी मध्यस्थताओं और उससे संबंधित सभी कार्यवाहियों पर लागू होगा, जिसमें, मेरी राय में, एक अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता भी शामिल होगा।”

हालाँकि, भारत के बाहर बैठे अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के भाग I के प्रावधानों के आवेदन की सीमा, बहुत बहस और आलोचना का विषय रही है।

भारत के बाहर बैठे अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के भाग I की प्रयोज्यता के बाद, इसे पहली बार भाटिया इंटरनेशनल बनाम बल्क ट्रेडिंग एस.ए के मामले में मान्यता दी गई है, जहां माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अधिनियम के भाग 1 के प्रावधान भारत के बाहर अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता पर भी लागू होंगे। मामले के संक्षिप्त तथ्य यह थे कि मध्यस्थता समझौते के अनुसार, मध्यस्थता की कार्यवाही अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य मंडल के नियमों के अनुसार थी, और मध्यस्थता की सीट पेरिस में थी। मामले के याचिकाकर्ता ने सुरक्षा के अंतरिम उपायों की मांग करते हुए एक भारतीय अदालत के समक्ष अधिनियम की धारा 9 के तहत याचिका दायर की। प्रतिवादी द्वारा दिया गया तर्क कि अधिनियम की धारा 9 के तहत आवेदन लागू करने योग्य नहीं था, क्योंकि मध्यस्थता अधिनियम की धारा 2(2) के तहत अधिनियम का भाग I केवल घरेलू मध्यस्थता या भारतीय-स्थित मध्यस्थता पर लागू होता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विवाद को खारिज कर दिया और अधिनियम की धारा 2 (2) की व्याख्या की, इसका अर्थ यह है कि यह भारत में होने वाली मध्यस्थता पर अनिवार्य रूप से लागू होगी, पक्षों के बीच समझौते की परवाह किए बिना, यह भारत के बाहर अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता पर भी लागू होगी। यह भारत के बाहर बैठे पक्षों की स्वतंत्रता पर होगा कि वे समझौते द्वारा भाग I प्रावधान के आवेदन को स्पष्ट रूप से या निहित रूप से बाहर कर दें, यदि वे ऐसा करने में विफल रहे, तो अधिनियम का भाग I लागू होगा।

हालांकि, भारत एल्युमिनियम कंपनी (बाल्को) बनाम कैसर एल्युमिनियम टेक्निकल सर्विसेज इनकॉर्पोराशन में सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने भाटिया इंटरनेशनल के फैसले को खारिज कर दिया था और कहा था कि भारत के बाहर आयोजित अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता पर अधिनियम का भाग I लागू नहीं होगा और अंतरिम उपाय के लिए अधिनियम की धारा 9 के तहत कोई आवेदन लागू करने योग्य नहीं होगा। 

निष्कर्ष

अंतरिम राहत का उद्देश्य मध्यस्थता अधिनियम के तहत विवादित पक्षों को उपाय प्रदान करना है, लेकिन समय-समय पर, भारतीय अदालतों ने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि अंतरिम उपाय प्रदान करने की शक्ति प्रकृति में विवेकाधीन है, और निहित करती है कि समझौते के पक्ष निम्नलिखित स्थापित करने के लिए आवश्यक है 

  1. इसके पक्ष में एक प्रथम दृष्टया मामल
  2. अंतरिम उपायों के अनुदान के पक्ष में सुविधा का संतुलन, और 
  3. अंत में, यदि ऐसा अनुरोध नहीं दिया गया तो एक अपूरणीय (इररिपेरेबल) क्षति होगी। 

इसके अलावा, उपरोक्त आवश्यकताओं के निष्कर्ष में, भारत के विधि आयोग ने अपनी 246 वीं रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें बाल्को मामले के बाद की चिंता को दूर करने के लिए संशोधनों का प्रस्ताव दिया गया था, यह प्रस्तावित किया गया था कि धारा 2(2) उस राज्य में संशोधित होगी जहां “केवल” भाग I लागू होगा और मध्यस्थता की सीट भारत में होगी। यह भारत में अंतरिम उपायों को प्राप्त करने के लिए एक विदेशी सीट अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के लिए एक पक्ष को सक्षम करेगा। इसके अलावा, 2015 का संशोधन, अधिनियम की धारा 17 के तहत मध्यस्थ न्यायाधिकरण को सशक्त करते हुए उसे धारा 9 के तहत दी गई अदालत की शक्ति के साथ संरेखित (एलाइन) करता है। हालाँकि, वर्तमान में, मध्यस्थ न्यायाधिकरण की परिभाषा अधिनियम की धारा 2(d) के तहत आपातकालीन मध्यस्थता को शामिल करने के लिए संशोधित नहीं की गई है, भारत के विधि आयोग की 246वीं रिपोर्ट में सिफारिश के बाद भी उक्त प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया गया था और 2015 के संशोधन अधिनियम तक कोई बदलाव नहीं किया गया था। इस प्रकार, यदि मध्यस्थता भारत में स्थित है, तो मध्यस्थता अधिनियम के भाग 1 के प्रावधान, जिसमें धारा 17 भी शामिल है, जो कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण के आदेशों और पंचाट के प्रवर्तन से संबंधित है, पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिवली) रूप से, आपातकालीन मध्यस्थता और आपातकालीन मध्यस्थता द्वारा पारित किसी भी आदेश को मध्यस्थता अधिनियम की धारा 17 के तहत एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण का आदेश माना जाएगा।

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