हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955 के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली की कांस्टीट्यूशनलिटी

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Hindu Marriage Act

इस लेख में Manan Katyal मैरिज एक्ट के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित प्रावधानों की कांस्टीट्यूशनलिटी पर चर्चा करते हैं। इस लेख का अनुवाद Sakshi kumari ने किया है, जो फैरफील्ड ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नलॉजी से बी ए एलएलबी कर रही हैं।

वैवाहिक अधिकारों की बहाली (रेस्टिट्यूशन ऑफ कंजूगल राइट्स)

हिंदू कानून की स्थापना के बाद से, विवाह को एक संस्कार (सैक्रामेंट) के रूप में माना गया है। शायद, किसी अन्य व्यक्ति ने विवाह की संस्था को आदर्श बनाने की कोशिश (एंडेवर्ड) नहीं किया, जैसा कि हिंदुओं ने किया है। लेकिन, विवाह के संबंध में हिंदू कानूनों के संहिताकरण (कोडिफिकेशन) के बाद से, हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के अनुसार, यह एक ही समय में एक अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) और एक संस्कार माना जाता है।

ज्विस लॉ में वैवाहिक अधिकारों की बहाली की उत्पत्ति पाई जाती है। यह उपाय (रेमेडी) भारतीय विधायिका (लेजिस्लेचर) में न तो धर्मशास्त्र से और न ही भारतीय उपमहाद्वीप (सब-कंटीनेंट्स) में किसी भी व्यक्तिगत कानून से, बल्कि ब्रिटिश राज के इंग्लिश कॉमन लॉ के माध्यम से अपनाया गया था। इसे भारत में पहली बार 1866[1] में, प्रिवी काउंसिल द्वारा लागू किया गया था और ज्यूडिशियल इंटरप्रेटेशन और लेजिस्लेटिव एक्शन के माध्यम से हिंदू मैरिज एक्ट, 1955[2], स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954[3] , पारसी मैरिज एंड डाइवोर्स एक्ट, 1988 [4], डाइवोर्स एक्ट, 1869 [5] और मुस्लिम पर्सनल लॉ में अपना रास्ता पाया।[6]

वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) की उत्पत्ति प्राचीन काल से हुई है, जब विवाह की संस्था पति के मालिकाना अधिकारों पर आधारित थी। विवाह दोनों पति-पत्नी पर एक-दूसरे के साथ रहने का दायित्व (ऑब्लिगेशन) डालता है। भारतीय न्यायपालिका (इंडियन ज्यूडिशियरी) ने यह माना कि एक पत्नी का पहला कर्तव्य अपने पति के प्रति आज्ञाकारी रूप से प्रस्तुत करना और उसकी छत और संरक्षण के नीचे रहना है, जो कि एक बहुत ही पुरातन (अर्चैक) और ढुलमुल दृष्टिकोण (प्लातितुडिनस) बनाए रखा था। [7] पत्नी को पति की संपत्ति के रूप में माना जाता था और इसलिए, हर समय पति के संघ (कंसोर्टियम) रहना आवश्यक था। यहां तक ​​कि पति और पत्नी के बीच अलग रहने के आपसी समझौते  को भी शून्य (वॉयड) माना जाता था क्योंकि, इसे सार्वजनिक नीति (पब्लिक पॉलिसी) के विपरीत माना जाता था।[8]

वैवाहिक अधिकारों की बहाली के माध्यम से, पति पत्नी के वैवाहिक समाज का हकदार बन जाता है और यदि वह ऐसा करने से इनकार करती है, और इसके विपरीत जाती हैं तो कानूनी प्रक्रिया द्वारा पति पत्नी को अपने क्षेत्र में रहने के लिए मजबूर कर सकता है। यदि कोई भी पक्ष अनुचित (अनरीजनेबल) रूप से दूसरे के वैवाहिक समाज से हट (विदड्रॉ) जाता है और जानबूझकर अपने पति या पत्नी के साथ एक घर साझा (शेयर) नहीं करने का विकल्प चुनता है, तो पीड़ित पक्ष वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए याचिका (पिटिशन) दायर कर सकता है। यदि प्रतिवादी (रेस्पोंडेन्ट) के पास याचिकाकर्ता (पीटिशनर) से अलग रहने का वैध आधार है, तो बाद वाला उक्त पिटिशन के अनुसरण (पर्सुएंस) में सफल नहीं हो सकता है।

एक कोर्ट के लिए याचिकाकर्ता के पक्ष में एक डिक्री पारित करने के लिए, 3 शर्तों को पूरा करना आवश्यक है: [9]

  1. प्रतिवादी बिना किसी उचित बहाने के याचिका कर्ता की समाज से हट गया है
  2. वापसी (विथड्रावल), याचिकाकर्ता के कार्यों का परिणाम नहीं थी
  3. कोई कानूनी आधार मौजूद नहीं है कि, राहत क्यों नहीं दी जानी चाहिए

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के तहत प्रोविजंस

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 धारा 9 के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली का प्रोविजंस प्रदान करता है, जो इस प्रकार है:

9.वैवाहिक अधिकारों की बहाली –जब पति या पत्नी में से कोई भी उचित कारण के बिना दूसरे के समाज से हट गया हो, पीड़ित पक्ष वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में पिटिशन द्वारा आवेदन कर सकता है और कोर्ट, ऐसी पिटिशन में दिए गए बयानों की सच्चाई से संतुष्ट होने पर और यह कि कोई कानूनी आधार नहीं है कि आवेदन क्यों नहीं दिया जाना चाहिए, तदनुसार वैवाहिक अधिकारों की बहाली की डिक्री कर सकते हैं।

एक्सप्लेनेशन – जहां यह प्रश्न उठता है कि क्या समाज से हटने के लिए उचित बहाना है, उचित बहाना साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जो समाज से हट गया है।’

1976 के अमेंडमेंट एक्ट, के बाद जो एक्सप्लेनेशन जोड़ा गया था, स्पष्ट करता है कि इस तरह की वापसी के लिए उचित बहाना साबित करने का भार उस पार्टी पर है जो वैवाहिक समाज से पीछे हट गई है। अमेंडमेंट से पहले, सेक्शन इस बिंदु (प्वाइंट) पर साइलेंट था और न्यायिक निर्णयों ने यह माना कि याचिकाकर्ता पर यह साबित करने का भार (बर्डेन) था कि प्रतिवादी बिना किसी उचित बहाने के अपने वैवाहिक समाज से हट गया था। [10]

वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित प्रोविजंस की कॉन्स्टिट्यूशनालिटी 

वैवाहिक अधिकारों की बहाली के उपाय का प्रयोग करने की कंस्ट्यूशनलिटी का प्रश्न पहली बार1983 में आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया गया था। टी. सरिता बनाम वेंकट सुब्बैया [11] के मामले में, इस कोर्ट में यह तर्क दिया गया था कि, निजता का अधिकार (राइट टु प्राइवेसी) एक विवाह के पक्ष को ‘बच्चों के जन्म के लिए उसके शरीर का उपयोग, कहाँ, कैसे और किसके द्वारा किया जाना है’ और धारा 9 [12] के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली के उपाय को मान्यता देकर राज्य भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 द्वारा गारंटीकृत मौलिक स्वतंत्रता (फंडामेंटल लिबर्टी), निजता और गरिमा (डिग्निटी) का उल्लंघन कर रहा है। इसके अलावा, चूंकि उपाय विवाहित पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए उपलब्ध था, इसलिए यह तर्क (कंटेंटेड) दिया गया कि पत्नी और पति, जो स्वाभाविक रूप से असमान हैं, उनको समान मानते हुए, आक्षेपित धारा (इंपयूज्न्ड आर्टिकल) समान संरक्षण के नियम (इक्वल प्रोटेक्शन ऑफ लॉ ) का उल्लंघन करती है और इसलिए, आर्टिकल 14 के तहत दी गई समानता के अधिकार (राइट टू इक्वालिटी) का विरोधाभासी (कोंट्राडिक्टरी) है।

निर्णय की घोषणा करते हुए, न्यायमूर्ति पी.ए. चौधरी ने उपर्युक्त तर्कों को स्वीकार कर लिया और प्रतिवादी का पक्ष लिया। उनका मानना ​​था कि, पति और पत्नी को एक-दूसरे के साथ रहने को तैयार नहीं होने के कारण जबरदस्ती साथ रहने या सहवास (कोहबिटेशन) करने से पत्नी के खिलाफ जबरदस्ती संभोग (सेक्सुअल इंटरकोर्स) हो सकता हैं। उन्होंने इस मुद्दे पर स्पष्ट रूप से विचार करते हुए कहा था कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक डिक्री लागू करने से पत्नी के जीवन पद्धति में परमानेंट रूप से बदलाव होने की संभावना है, जबकि पति पहले की तरह ही रह सकते हैं, क्योंकि यह पत्नी है जिसे बच्चे को सहन (बीयर) करना पड़ता है। न्यायाधीश ने आगे यह कहकर एक पुरातन दृष्टिकोन अपनाया कि इस रीमेडी के लागू होने का अपरिहार्य परिणाम (इनेविटबल कंसीक्वेंस) पत्नी की भविष्य की योजनाओं को पंगु (क्रिपल्) बना देना है। पत्नी के दृष्टिकोण से उन्होंने धारा 9 के तहत अधिकार को जोड़ा था, एक आत्म-विनाशकारी उपाय (सेल्फ डिस्ट्रक्टिव रिमेडी) के रूप में, आंशिक (पर्सियल) और एकतरफा है क्योंकि यह व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) रूप से केवल पति के लिए उपलब्ध था। नतीजतन, न्यायमूर्ति चौधरी ने धारा 9  को अनकॉन्स्टिट्यूशनल) माना क्योंकि इसके प्रोविजंस संविधान के आर्टिकल 14 और 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों  के विपरीत थे।

न्यायाधीश के दृष्टिकोण से, यह निष्कर्ष (कंक्लुडेड)  निकाला जा सकता है कि, उन्होंने पति के दृष्टिकोण से वैवाहिक अधिकारों की बहाली के पूरे प्रश्न पर विचार किया है। ऐसा लगता है कि, उन्होंने इस बात को पूरी तरह से नजरअंदाज (ओवर्लूक) कर दिया कि पत्नी द्वारा वैवाहिक अधिकारों की बहाली का भी दावा किया जा सकता है।

न्यायिक व्याख्या (ज्यूडिशियल इंटरप्रेटेशन)

इसके बाद, एक वर्ष से भी कम समय के अन्दर ही, धारा 9 की कॉन्स्टिट्यूशनलिटी का मुद्दा फिर से पेश हुआ था, इस बार दिल्ली हाई कोर्ट के समक्ष हरविंदर कौर बनाम हरमंदर सिंह [13] के मामले में जहां आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के विचार से असहमति जताई गई थी। विवादित धारा की कॉन्स्टिट्यूशनलिटी के संबंध में विवाद की स्थिति को माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा उसी वर्ष सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार [14] के मामले में हल किया गया था, जहां न्यायमूर्ति सब्यसाची मुखातजी ने हरविंदर मामले को बरकरार (कंटिन्यू) रखा था और निम्नलिखित कारणों से टी. सरिता का मामले खारिज (रिजेक्ट) कर दिया था।

वैवाहिक अधिकारों की बहाली के डिक्री का उद्देश्य केवल पति या पत्नी को एक साथ रहने के लिए एक प्रलोभन (इंड्यूसमेंट) देना है और न कि अनिच्छुक पत्नी को अपने पति के साथ सेक्सुअल इंटरकोर्स करने के लिए मजबूर करने पर जोर देना है। डिक्री का उद्देश्य केवल अलग-अलग (डिफरेंट) पक्षों के बीच सहवास लाना था ताकि वे वैवाहिक घर में एक साथ रह सकें। इसलिए, वैवाहिक अधिकारों की  बहाली का उद्देश्य साथ रहने के लिए हैं न कि केवल सेक्सुअल इंटरकोर्स।

सीधे शब्दों में कहें

इस कालभ्रमित (एनाक्रोनिस्टिक) उपाय की अधिक अमानवीय (इन्हुमन) के रूप में आलोचना की गई है और इसे अत्याचार से भी बुरा देखा गया है। [15] पूरी दुनिया के, ज्यूरिस्ट और समाजशास्त्रियों (सोसिलॉजिस्ट) का विचार है कि, यह उपाय किसी व्यक्ति की निजता और वैवाहिक अधिकारों को प्रभावित करने के लिए एक ठोस आधार स्थापित नहीं करता है। इतना ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के अधिकांश कोर्ट में, इसके पुराने दृष्टिकोण के कारण इसे निरस्त (रिपील्ड) कर दिया गया है। वास्तव में, धारा 9 की व्युत्पत्ति (डेरिवेशन) 1970 में मर्टिमोनियल प्रोसीडिंग्स एंड प्रॉपर्टी एक्ट के माध्यम से करने के बाद इसे निरसन(रिपील) कर दिया है जिसके  बाद से ब्रिटिश कानूनों से यह धारा अपने आप में मान्य नहीं है।

वैवाहिक अधिकारों की बहाली का उपाय व्यक्ति के होने के मूल सार (बेसिक एसेंस) पर हमला करता हैं किसके साथ रहना है और किसके साथ नहीं रहना है, यह चुनने के अधिकार को असक्षम करके। पितृसत्ता (पैट्रियार्ची) या महिलाओं की आर्थिक निर्भरता (इकोनोमिक डिपेंडेंसी) कारण विवाह में दोनों पक्ष हमेशा समान स्थिति में नहीं होते हैं, और अपने खर्च पर विवाह को पूरी तरह से भंग (डिसोल्व) करने का या तोड़ने का विकल्प नहीं चुन सकते हैं। महिलाओं को अभी भी अपने पति की संपत्ति के रूप में माना जाता है और शादी के बाद उनके परिवारों द्वारा त्याग दिया जाता है। ऐसे क्षेत्र में मुद्दों को ब्लैक एंड व्हाइट ऐप्रोच से हल नहीं किया जा सकता है। एक ऐसे देश में जहां 21वीं सदी में तलाक को अभी भी एक सामाजिक दोष (सोशल फैलेसी) या वर्जित (टैबू) माना जाता है, कई लोगों के लिए जो खुद का समर्थन करने या अपने परिवारों पर भरोसा करने में असमर्थ हैं, यह उपाय तलाक के बिना अलग होने की उनकी क्षमता का अतिक्रमण (एंच्रोच) करता है। यह धारा, कोर्ट को व्यक्तियों को उनकी इच्छा के बिना  और  कहा जाए तो इच्छा के विरुद्ध अपने सहयोगियों के साथ रहने के लिए मजबूर करने का अधिकार देता है, जो कई मामलों में उनकी रक्षा, सुरक्षा और यहां तक ​​कि जीवन के लिए खतरा पैदा कर सकता है। मेरी राय में कोर्ट ने, धारा की  कॉन्स्टिट्यूशनलिटी के पक्ष में फैसला सुनाते हुए इसके व्यावहारिक पहलू (प्रैक्टिकल एस्पेक्ट) और मुद्दे की अवहेलना (वॉयलेशन) की है।

संदर्भ (रेफरेंसस)

[1] Moonshee Bazloor v. Shamsoonaissa Begum, 1866-67 (11) MIA 551

[2] Sec. 9.

[3] Sec. 22, Ins. by Marriage Laws (Amendment) Act, 1976.

[4] Sec. 32, Ins. by Parsi Marriage and Divorce (Amendment) Act, 1988.

[5] Sec. 32.

[6] Abdul Kadir v. Salima, ILR (1886) 8 All 149 (FB).

[7] Tirath Kaur v. Kartar Singh, AIR 1964 Punj 28.

[8] Tekait v. Basanta, 28 Cal. 751.

[9] Surinder v. Gurdeep, 1973 P&H 134.

[10] Reba Rani v. Ashit, AIR 1965 Cal. 102.

[11] AIR 1983 AP 356.

[12] Hindu Marriage Act, 1955.

[13] AIR 1984 Del. 66.

[14] AIR 1984 SC 1562.

[15] Paras Diwan, Modern Hindu Law, 184 (20th ed., 2009)

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