यह लेख विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज (वी आई पी एस) से Jasmine Madan द्वारा लिखा गया है। यह एक विस्तृत लेख है जो दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय XXVIII का वर्णन करता है जो इस बात से संबंधित है कि कोड के तहत मौत की सजा की पुष्टि कैसे की जाती है। इस लेख का अनुवाद Ilashri Gaur द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
1991 के बाद से, भारत में कुल तीस फांसी हो चुकी हैं। केवल सीमित अपराध में ही सजा के रूप में मृत्युदंड (डेथ पेनल्टी) का प्रावधान हैं जिसमें शामिल हैं-
- बलात्कार (भारतीय दंड संहिता 1860 (आईपीसी) की धारा 376)
- हत्या (आईपीसी की धारा 302),
- हत्या के साथ डकैती (आईपीसी की धारा 396),
- भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने या छेड़ने का प्रयास (आईपीसी की धारा 121),
- पिछली दोषसिद्धि (कनविक्शन) के बाद कुछ अपराध (मादक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 की धारा 31ए), और
- सती प्रथा को बढ़ावा देना या सहायता करना (सती आयोग (रोकथाम) अधिनियम, 1987 की धारा 4(1))।
सवाल यह उठता है कि मौत की सजा का फैसला कौन सुना सकता है? इसकी पुष्टि की प्रक्रिया क्या है? सेशन कोर्ट के जज द्वारा मौत की सजा सुनाये जाने के बाद क्या होता है? दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 366–371 ‘पुष्टि के लिए मौत की सजा जमा करने’ से संबंधित है।
उच्च न्यायालय में रचना के लिए प्रस्तुत करना (धारा 366) (सबमिशन फॉर कन्फर्मेशन टू हाई कोर्ट (सेक्शन 366))
धारा 366 आंशिक (पार्शियली) रूप से इस सवाल का जवाब देती है कि कौन फैसला सुना सकता है। इस धारा में प्रावधान है कि यदि कोई सत्र (सेशन) न्यायालय अभियुक्तों (एक्यूज़्ड) के विरुद्ध मृत्युदंड पारित (पास) करता है तो उच्च न्यायालय को उसके प्रभाव में आने से पहले उसकी पुष्टि करने की आवश्यकता होती है। इसलिए, उच्च न्यायालय के समक्ष कार्यवाही प्रस्तुत करना आवश्यक है और उच्च न्यायालय से पुष्टि के बाद ही निष्पादन (एक्जिक्यूशन) को लागू किया जा सकता है, न कि उससे पहले।
मृत्युदंड सजा का उच्चतम स्तर (हाईएस्ट लेवल) है और यह ‘दुर्लभतम से दुर्लभ (रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर)’ के सिद्धांत का पालन करता है (असामान्य अपराध या जो सामान्य विवेक के व्यक्ति (आर्डिनरी प्रूडेंस मैन) के लिए असामान्य है, जो पूरे न्यायपालिका और समाज में झटके का कारण बनता है)। यह खंड न्याय के उद्देश्यों को पूरा करते हुए त्रुटि को कम करने के लिए एक एहतियाती कदम (प्रिकॉशनरी स्टेप) के रूप में कार्य करता है।
पंजाब राज्य बनाम काला राम काला सिंह (2018) के मामले में, अदालत ने माना कि सीआरपीसी की धारा 366 (2) के तहत अदालत दोषी ठहराते समय दोषी व्यक्ति को वारंट के तहत जेल हिरासत (कस्टडी) की सजा देगी इसका मतलब व्यक्ति को हिरासत में रखा जाएगा लेकिन सजा के तौर पर नही। जेल हिरासत में ‘सुरक्षित रखना’ जेलर का सीमित अधिकार क्षेत्र है। यह अधीक्षक (सुप्रिटेंडेंट) के हाथ में एक ट्रस्टीशिप है, न कि वास्तविक अर्थों (रीयल सेंस) में कारावास।
विद्या राम बेदिया के पुत्र बंटू बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2006 का मामला सीआरपीसी की धारा 366 के तहत आगरा के सत्र न्यायालय से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था। आरोपी ने दुष्कर्म (रेप), हत्या और अपहरण का अपराध किया था। बलात्कार इतना भीषण था कि पोस्टमार्टम के दौरान उसकी योनि (वजाइना) से एक फीट से अधिक का एक तना (स्टेम) निकाला गया जिसे आरोपी ने अपराध करते हुए डाला था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आरोपी की मौत की सजा को यह कहते हुए बरकरार रखा कि यह दुर्लभतम से दुर्लभ मामला है।
आगे की धाराएं सीआरपीसी की धारा 366 के तहत प्रस्तुत मामलों के संबंध में उच्च न्यायालय की शक्तियां प्रदान करती हैं।
आगे की जांच करने या अतिरिक्त साक्ष्य लेने का निर्देश देने की शक्ति (धारा 367) (पावर टू डायरेक्ट फरदर इन्क्वायरी और टू टेक एडिशनल एविडेंस (सेक्शन 367))
सी.आर.पी.सी की धारा 367 की उप-धारा (1) में प्रावधान है कि जब मृत्युदंड की पुष्टि के लिए कार्यवाही उच्च न्यायालय को प्रस्तुत की जाती है और यह अभियुक्त की निर्दोषता (इनोसेंस) या अपराध के किसी भी बिंदु को नोटिस करता है, तो खुद इसकी आगे जांच करने या अतिरिक्त सबूतों को ध्यान में रखने के लिए वह खुद या सत्र न्यायालय को निर्देश दे सकता है। यह आमतौर पर तब किया जाता है जब उच्च न्यायालय को लगता है कि सत्र न्यायालय ने कुछ बिंदु या कारक छोर दिए हैं।
धारा 367 की उप-धारा (2) में प्रावधान है कि दोषी को इस तरह की जांच या सबूत लेने के दौरान अपनी उपस्थिति से दूर रहने का निर्देश दिया जा सकता है जब तक कि उच्च न्यायालय अन्यथा निर्देश न दे।
धारा 367 की उप-धारा (3) में प्रावधान है कि यदि सत्र न्यायालय (उच्च न्यायालय के अलावा अन्य प्राधिकारी (अथॉरिटी)) जांच करता है या ऐसे साक्ष्य पर विचार करता है तो इसे सत्र न्यायालय द्वारा प्रमाणित (सर्टिफाइड) किया जाएगा।
बालक राम आदि बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में (1974) सर्वोच्च न्यायालय ने अंतिम निर्णय में कहा कि उच्च न्यायालय अभियोजक (प्रॉसिक्यूटर) के गवाहों (विटनेस) के साक्ष्य के टुकड़ों पर ठीक से विचार करने में विफल रहा है और कहा कि मृत्युदंड के मामले की जांच करते समय या सबूत के विभिन्न टुकड़ों को ध्यान में रखते हुए, उच्च न्यायालय साक्ष्य के सभी टुकड़ों को ध्यान में रखेगा क्योंकि यह उसका कर्तव्य है।
सजा की पुष्टि करने या दोषसिद्धि को रद्द करने की उच्च न्यायालय की शक्ति (धारा 368) (पावर टू द हाई कोर्ट टू कन्फर्म सेंटेंस और एनुअल कन्विक्शन (सेक्शन 368))
धारा 368 में प्रावधान है कि जब आपराधिक संहिता की धारा 366 के तहत उच्च न्यायालय में मामला प्रस्तुत किया जाता है, तो उच्च न्यायालय कर सकता है;
- सत्र न्यायालय द्वारा पारित सजा की पुष्टि करें, या एक और सजा पारित करें, बशर्ते कि यह कानून द्वारा जरूरी हो, या
- सत्र न्यायालय द्वारा पारित दोषसिद्धि को रद्द करें, और इसके बजाय या तो आरोपी को किसी अन्य अपराध के लिए दोषी ठहराएं, जिसके लिए सत्र न्यायालय ने उसे दोषी ठहराया था या एक संशोधित आरोप या उसी आरोप पर मुकदमे के लिए आदेश दिया था, या
- उसके ऊपर लगे आरोपों से आरोपी को बरी करें।
धारा के प्रावधान में कहा गया है कि जब तक फैसले के खिलाफ अपील दायर करने की सीमा अवधि (पीरियड) समाप्त नहीं हो जाती है, या अपील अभी भी लंबित (पेंडिंग) है या निपटारा नहीं किया जाता है, तब तक न्यायालय पुष्टि का आदेश पारित नहीं कर सकता है।
करतारे और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1975) के मामले में, सत्र न्यायालय ने मौत की सजा की घोषणा करते हुए फैसला पारित किया था जिसे बाद में उच्च न्यायालय ने बदल दिया था। जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो यह देखा गया कि उच्च न्यायालय ने सबूतों या अतिरिक्त सबूतों की जांच करने में गंभीर गलती की है।
इसमें कहा गया है कि उच्च न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह सबूतों की समग्रता (टोटैलिटी) में ‘पुनर्मूल्यांकन (रीप प्रेज)’ करे और यह मामले के गुण-दोष (मेरिट) के आधार पर उनके सभी पहलुओं की कार्यवाही पर विचार करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा। बचाव (डिफेंस) साक्ष्य पर समान रूप से विचार करना महत्वपूर्ण है और इसकी उपेक्षा नहीं करना है क्योंकि यह प्रथा और कानून के स्थापित नियम के विपरीत है।
दो न्यायाधीशों द्वारा हस्ताक्षर किए जाने की पुष्टि या नई सजा (धारा 369) (कन्फर्मेशन और न्यू सेंटेंस टू बी साइंड बाय ट्वो जजेस (सेक्शन 369)
धारा 369 में प्रावधान है कि जब भी सीआरपीसी की धारा 366 के तहत उच्च न्यायालय में कोई मामला प्रस्तुत किया जाता है तो उसकी सुनवाई एक डिवीजनल बेंच यानी कम से कम दो या अधिक न्यायाधीशों द्वारा पुष्टि की जाएगी:
- सजा, या
- कोई नई सजा, या
- कोई आदेश।
उच्च न्यायालय द्वारा पारित दो या दो से अधिक न्यायाधीशों द्वारा ‘बनाया, पारित और हस्ताक्षरित (साइंड)’ किया जाएगा। यह एक आवश्यक शर्त है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
मतभेद के मामले में प्रक्रिया (धारा 370) (प्रोसीजर इन केस ऑफ़ डिफरेंस ऑफ़ ओपिनियन (सेक्शन 370))
अब एक प्रश्न यह उठता है कि क्या होता है जब न्यायाधीशों के समान अनुपात (प्रोपोर्शन) में परस्पर विरोधी राय होती है? सीआरपीसी की धारा 370 इसका जवाब देती है और कहती है कि सीआरपीसी की धारा 392 में दिए गए तरीके का पालन उस मामले में किया जाएगा जब मामले की सुनवाई करने वाले मौजूदा जज मामले के बारे में राय में समान रूप से विभाजित (डिवाइडेड) हों। पार्टियों को इसे अदालत में निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) करने की आवश्यकता नहीं है, अदालत स्वत: संज्ञान (सुओ मोटो) लेती है और सीआरपीसी की धारा 392 के अनुसार प्रक्रिया का पालन करती है।
धारा 392 में कहा गया है कि जब उच्च न्यायालय की पीठ किसी मामले की सुनवाई करती है और विभाजित राय रखती है, तो ऐसे मामले में अलग राय के साथ अपील उसी न्यायालय के न्यायाधीश के समक्ष रखी जाएगी। वह न्यायाधीश, न्यायाधीशों को सुनने के बाद ही अपनी राय देगा, और उस राय के बाद निर्णय या आदेश का पालन किया जाएगा।
धारा के खण्ड में कहा गया है कि यदि कोई भी वर्तमान न्यायाधीश, या वह न्यायाधीश जिसके समक्ष इस धारा के तहत विचाराधीन (इन क्वेश्शन) निर्णय या आदेश रखा गया है, अपील की फिर से सुनवाई या न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ द्वारा सुनवाई की आवश्यकता है, तो यह किया जाएगा।
इस धारा को श्री डी एन श्रीनिवास रेड्डी बनाम कर्नाटक राज्य (2018) के मामले में लागू किया गया है। इस मामले में, न्यायाधीशों ने मामले का फैसला करते समय मतभेद के कारण बहुमत का फैसला पारित करने में सक्षम नहीं थे, इसलिए धारा 392 के तहत वर्णित प्रक्रिया का पालन किया गया था। सीआरपीसी की धारा 370 के तहत मामले की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश ने छापेमारी (रेड) के दौरान गिरफ्तार किए गए आरोपियों के खिलाफ कार्यवाही रद्द कर दी।
पुष्टि के लिए उच्च न्यायालय को प्रस्तुत मामले में प्रक्रिया (धारा 371) (प्रोसीजर इन ए केस सबमिटेड टू कोर्ट फॉर कन्फर्मेशन (सेक्शन 371))
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 371 में प्रावधान है कि मौत की सजा के मामले जो सत्र न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय में निर्णय लेने के बाद प्रस्तुत किए जाते हैं, उन्हें सत्र न्यायालय को भेजा जाएगा। उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश धारा 368 में प्रदान किए गए विकल्पों में से एक होगा अर्थात पुष्टि, दोषसिद्धि की समाप्ति, अभियुक्तों का बरी होना आदि। उच्च न्यायालय के संबंधित अधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश की एक प्रति बिना किसी देरी के, उच्च न्यायालय की मुहर के तहत और अपने आधिकारिक हस्ताक्षर से सत्यापित (अटेस्टेड) करके सत्र न्यायालय को भेजे।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
किसी व्यक्ति का जीवन लेना युगांतरकारी निर्णयों (इपोच मेकिंग डिसीजन) में से एक है। यह शुरू से ही एक बहस का विषय रहा है क्योंकि हमेशा यह आशंका बनी रहती है कि किसी निर्दोष व्यक्ति को उस अपराध के लिए फांसी नहीं दी जाएगी जो उसने किया ही नहीं है। दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 23 में दिए गए सभी खंड त्रुटि (एरर) की संभावना को कम करने के लिए एक उपकरण के रूप में काम करते हैं। पार्टी सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकती है यदि वह उच्च न्यायालय के फैसले से संतुष्ट नहीं है और उसे लगता है कि अन्याय हुआ है या अदालत ने गलती की है।
सबसे पहले, मौत की सजा के संबंध में सत्र न्यायालय के फैसले के बाद धारा 366 के तहत पुष्टि के लिए उच्च न्यायालय को प्रस्तुत किया जाएगा। फिर, अदालत जांच कर सकती है या सबूत पर विचार कर सकती है, जैसा कि धारा 367 में प्रदान किया गया है। उच्च न्यायालय तब धारा 368 के अनुसार आदेश पारित करता है जिस पर धारा 369 में उल्लिखित कम से कम दो उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा हस्ताक्षर किए जाने की आवश्यकता है। राय में संघर्ष के मामले में, मामले को तीसरे न्यायाधीश के पास भेजा जाएगा और उनकी राय अंतिम फैसला करेगी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 392 के साथ धारा 370 के अनुसार। अंत में, पुष्टि या किसी अन्य निर्णय के बाद, इसे संबंधित अधिकारी द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 371 में प्रदान किए गए अनुसार सत्र न्यायालय को भेजा जाता है।
संदर्भ (रेफरेन्सेस)