एजस्डेम जेनेरिस की अवधारणा और निजी बैंकों पर इसका प्रभाव

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Constituion of India
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यह लेख Vansh Ved और Saurabh Kumar के द्वारा लिखा गया है। इस लेख में लेखक, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 पर चर्चा करते हुए, एजस्डेम जेनेरिस की अवधारणा और निजी बैंकों पर इसके प्रभाव के बारे में बात की हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

यह लेख, यह समझने का एक प्रयास है कि राज्य की परिभाषा, जिसे आम बोलचाल में “सरकार” कहा जाता है, वह वर्षों से कैसे विकसित हुई है और विभिन्न मामलों में विभिन्न अदालतों द्वारा एक कालानुक्रमिक (क्रोनोलॉजिकल) सेट-अप पर, इसे कैसे संवैधानिक कानूनों की व्याख्या द्वारा आकार दिया जा रहा है। इसका उद्देश्य आगे यह समझाना है कि क्या वर्तमान परिभाषा ही इसके लिए काफी अच्छी है या आगे विस्तार की आवश्यकता है, और यदि है तो इस तरह के विस्तार से दायर किए जाने वाले मामलों की संख्या में वृद्धि आएगी।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 12 निम्नलिखित घटकों (कंपोनेंट) को एक राज्य के रूप में परिभाषित करता है:

  • भारत सरकार या केंद्र सरकार और भारत की संसद जो लोक सभा और राज्य सभा के सदन हैं।
  • राज्य आधारित सरकारें और विधायी निकाय (लेजिस्लेटिव बॉडीज)।
  • स्थानीय प्राधिकरण (अथॉरिटीज) जैसे नगर पालिकाएं, पंचायत, बंदरगाह ट्रस्ट आदि।
  • अन्य सभी प्राधिकरण जो भारतीय क्षेत्र में मौजूद हैं या भारतीय सरकारों की देख रेख में काम कर रहे हैं।

इनमें से सबसे आखिर में प्रदान किया गया वाक्यांश, “अन्य प्राधिकरण”, एक व्यापक शब्द है इस अनुच्छेद में एक महत्वपूर्ण बदलाव को प्रभावित किया है और कई मामलों में चर्चा का विषय रहा है, जिन्होंने कई मामलों में इसे परिभाषित करने के लिए अपने स्वयं के मानदंड (क्राइटेरिया) निर्धारित किए हैं, जैसे राजस्थान विद्युत (इलेक्ट्रिसिटी) का मामला, सुख देव बनाम भगत राम का मामला आदि। जब राज्य शब्द को परिभाषित करने की बात आती है तो यह एक महत्वपूर्ण भाग बन जाता है क्योंकि यह एक व्यापक क्षितिज (होरिजोन) से संबंधित है और राज्यों को परिभाषित करने के बारे में इस गंभीर पहलू को तय करते समय अदालतों को अक्सर एक बहुत ही उत्कृष्ट संतुलन (डेलिकेट बैलेंस) बनाना पड़ता है।

इस परिभाषा का उपयोग विभिन्न अनुच्छेदो के तहत भी किया गया है, जैसे की अनुच्छेद 36 (भाग IV) के तहत किया गया है, जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से संबंधित है, अनुच्छेद 152 (भाग VI) जो राज्यों के कामकाज और संचालन से संबंधित है और अनुच्छेद 308 (भाग XIV)) जो संघ (यूनियन) और राज्यों के तहत आवंटित (एलोकेटेड) सेवाओं से संबंधित है।

एजस्डेम जेनेरिस की अवधारणा किस बारे में बात करती है?

यह “एक ही सामान्य समूह से” अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) के लिए एक लैटिन वाक्यांश है। यह भारतीय राज्य की स्थापना के बाद पहली बार था, कि जब सर्वोच्च न्यायालय को “राज्य” शब्द को परिभाषित करने के लिए नए मानदंड तैयार करने के लिए कहा गया था। इस शब्दावली का प्रयोग सबसे पहले न्यायमूर्ति वी.एस. अय्यर राजमन्नार के द्वारा, 1951 में, मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांता बाई के मामले में किया गया था। इस मामले में उन्होंने सुझाव दिया था कि इस शब्द का इस्तेमाल विभिन्न निकायों (बॉडीज) को राज्य के रूप में परिभाषित करने के लिए किया जा सकता है, यदि वह निकाय ऐसे कार्य करते हैं जिन्हें सरकारी कार्यों का पर्याय कहा जा सकता है।

इस प्रकार इस वाक्यांश ने किसी भी ऐसे कार्य को ध्यान में रखा जिसे “संप्रभु कार्य (सोवरेन फंक्शन)” या कोई संबद्ध (एलाइड) कार्य कहा जा सकता है लेकिन यह सटीक नहीं था और इसमें न्यायाधीशों के विवेक के आधार पर बहुत अधिक व्यक्तिपरकता (सब्जेक्टिविटी) शामिल थी। यहां पर यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि और सब की तुलना में यह एक संकीर्ण (नैरो) शब्द है और बाद में राजस्थान विद्युत के मामले में इसे खारिज कर दिया गया था, लेकिन बाद में न्यायमूर्ति अलागिरी स्वामी ने सुख देव बनाम भगत राम के मामले में अपनी असहमतिपूर्ण राय के द्वारा इसका इस्तेमाल किया था क्योंकि उन्होंने “संप्रभु कार्यों” को परिभाषित किया था।

राज्य शब्द की परिभाषा से निपटने के दौरान इस शब्द को भारतीय अदालतों में व्यापक रूप से मान्यता नहीं दी गई थी। यह इस तथ्य के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है कि यह वाक्यांश संकीर्ण है और उन घटकों से संबंधित नहीं है जो व्यापक रूप से एक राज्य का गठन करते हैं।

भारतीय अदालतों के द्वारा एजस्डेम जेनेरिस की अस्वीकृति

इस वाक्यांश को, विद्युत बोर्ड, राजस्थान, एस.ई.बी. बनाम मोहन लाल (राजस्थान विद्युत का मामला) के मामले में वर्ष 1967 में विकसित किया गया था। एजस्डेम जेनेरिस की अवधारणा को असंगत (इनकोहरेंट) और अपूर्ण होने के कारण पूरी तरह से खारिज कर दिया गया था और इसके बजाए विधियों या कानूनों और/या भारतीय संविधान द्वारा बनाई गई “अन्य प्राधिकरणों” की अवधारणा को स्वीकृत किया गया था। यह निश्चित रूप से शांताबाई के मामले में दिए गए निर्णय से ऊपर था, क्योंकि इसने किसी भी ऐसे निकाय को कानून की मंजूरी देने पर ध्यान केंद्रित किया था जिसे राज्य, उसके सहायक या किसी अन्य संगठन के रूप में कहा जा सकता है और जिसे किसी भी प्रकार के सरकारी कार्य करने के लिए कहा जा सकता है। लेकिन यह ज्ञात होना चाहिए कि यह अधिक सटीक शब्दावली ला सकता था और उन निकायों को शामिल करने का दायरा बढ़ा सकता था जो किसी क़ानून या संविधान द्वारा नहीं बनाए गए थे, लेकिन प्रतिनियुक्ति (डेप्युटेशन) द्वारा एक महत्वपूर्ण या संबंधित सरकारी कार्य में लगे हो सकते थे। इस प्रकार, एजस्डेम जेनेरिस की अवधारणा की तुलना में, इसकी स्पष्टता और अधिक स्वीकार्यता के कारण इस शब्द के उपयोग कि अवधि बड़ी थी।

सुख देव बनाम भगत राम (1975)

इस मामले के फैसला को 1975 में सुनाया गया था और निर्णयों के तीन संग्रहों (सेट्स) के कारण इसे बहुत महत्वपूर्ण कहा जा सकता है, जो विभिन्न  न्यायाधीशों के अपने स्वयं के विचारों के परिणामस्वरूप सामने आए थे, जिसके तहत एक राज्य के रूप में किसे परिभाषित किया जा सकता है, इसकी अवधारणा के बारे में बात की गई थी।

इस संवैधानिक पीठ के फैसले में मुख्य न्यायाधीश रेय, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति गुप्ता की बहुमत राय थी, जिसमें न्यायमूर्ति मैथ्यू और न्यायमूर्ति अलागिरी स्वामी भी शामिल थे, जो आंशिक (पार्शियल) रूप से क़ानून या संविधान की अवधारणा से सहमत थे, जैसा कि राजस्थान विद्युत के मामले में चर्चा की गई थी और इसने दो अन्य मानदंड के संग्रहों को भी जोड़ा गया था, जो इस प्रकार थे:

  • संगठन के पास नियम और विनियम (रेगुलेशन) बनाने की शक्ति थी जिन्हें बाध्यकारी माना जाता था।
  • व्यापक सरकारी नियंत्रण का अस्तित्व था।

इस प्रकार, यह अधिक व्यापक था और राजस्थान विद्युत के मामले में निहित अवधारणा पर आधारित था, लेकिन इसने फिर से कानून की मंजूरी पर जोर दिया था, जो की अनुपस्थित थी, और जिसके कारण सार्थक कानूनी उपायों का पालन करते समय समस्याएं पैदा हो सकती थी।

दूसरी ओर, न्यायमूर्ति मैथ्यू ने इस विषय पर एक अलग लेकिन समवर्ती (कंकर्रेंट) राय दी, जहां उन्होंने सुझाव दिया कि किसी भी कार्य को राज्य की परिभाषा के तहत लाने के लिए निम्नलिखित दो परीक्षणों को संचयी (कम्युलेटिव) रूप से लिया जाना चाहिए, इसमें शामिल निम्नलिखित हैं:

  • किसी राज्य की वाद्य यंत्रता (इंस्ट्रूमेंटलिटी) या एजेंसी;
  • यदि किए जा रहे कार्यों को “सार्वजनिक सेवा” के रूप में देखा जा सकता है।

कार्यों के इस संग्रह को अधिक समावेशी (इन्क्लूसिव) कहा जा सकता है और यह “राज्य” शब्द के दायरे के तहत, संगठनों के विभिन्न संग्रहों को शामिल करने का अवसर प्रदान करता है। यह किसी क़ानून या संविधान के द्वारा किसी निकाय में निर्माण की आवश्यकता की अनुमति नहीं देता है, बल्कि यह ऐसे किसी भी निकाय के मूल सिद्धांतों को भी ध्यान में रखता है। यह अलागिरी स्वामी द्वारा दिए गए असहमति के निर्णय के अतिरिक्त था, लेकिन शायद मैथ्यू का निर्णय सबसे महत्वपूर्ण और तार्किक (लॉजिकल) लगता है।

अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब (1981)

1981 में, इस मामले में, न्यायमूर्ति भगवती ने “सार्वजनिक सेवा” को परिभाषित करने के लिए छह मानदंड निर्धारित किए थे, जो इस प्रकार थे –

  1. क्या पूरी शेयर पूंजी सरकार के नियंत्रण में है?
  2. क्या सरकार द्वारा वित्तीय सहायता के बारे में कहा जाता है कि यह लगभग पूरा होने वाला खर्च है?
  3. क्या निगम को राज्य द्वारा आवंटित या संरक्षित किसी भी प्रकार का एकाधिकार (मोनोपॉली) प्राप्त है?
  4. क्या गहरा और व्यापक राज्य नियंत्रण है?
  5. यदि निकाय के कार्य सार्वजनिक महत्व के हैं और सरकारी कर्तव्यों से निकटता से संबंधित हैं?
  6. यदि सरकार के किसी विभाग का इस निकाय में स्थानांतरण (ट्रांसफर) किया गया है?

इस अवधारणा के साथ एक बड़ी गलती जुड़ी हुई है, वह यह है कि यह अवधारणा स्पष्ट नहीं करती है कि क्या ये कार्य संचयी रूप से, व्यक्तिगत रूप से या कुछ संग्रहों या संयोजनों (कॉम्बिनेशन) में काम करते हैं। इस प्रकार यह सटीक नहीं है और इनमें से कुछ मानदंडों की उपलब्धता या अनुपलब्धता के बारे में न्यायाधीशों को अपने विवेक से निर्णय लेना पड़ता है।

राज्य की कार्रवाई का सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑफ़ स्टेट एक्शन)

इस अवधारणा पर वर्ष 1986 में, म.सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में चर्चा की गई थी; यह मूल रूप से अमेरिकी संविधान में निहित अवधारणा है। इस विचार के पीछे दिया गया तर्क यह है कि ऐसे मामलों में जहां एक निजी कार्य में शामिल राज्य सहायता, नियंत्रण और विनियमन की सीमा इतनी अधिक है, तो ऐसे में इसे राज्य की कार्रवाई कहा जा सकता है। लेकिन, न्यायमूर्ति भगवती ने महसूस किया था कि यह अवधारणा संविधान के अनुच्छेद 15 (2) के अनुरूप नहीं है और इस प्रकार इस अवधारणा को घरेलू कानून के तहत शामिल करने और इसे भारत की आवश्यकताओं के अनुसार ढालने की आवश्यकता है।

तीन सूत्री नियम (थ्री पॉइंट रूल)

राज्य के गठन पर रूमा पाल की राय नवीनतम है और देखा जाए तो एक अर्थ में वर्ष 2002 में प्रदीप कुमार बिस्वास बनाम इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी के मामले में सबसे पूर्ण राय है। इस सिद्धांत ने अजय हसिया के निर्णय के महत्त्व को कम कर दिया था और 2006 में ज़ी टेलीफिल्म्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के हाई प्रोफाइल मामले में भी इसका इस्तेमाल किया गया था, जो की इस मुद्दे पर था की बी.सी.सी.आई. एक राज्य था या नहीं, तो इस मामले में रुमा पाल द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों (गाइडलाइंस) का पालन करते हुए, यह नकारात्मक रूप मे निर्धारित किया गया था की यह राज्य की परिभाषा के तहत नहीं आता है।

निजी बैंकों पर अनुच्छेद 12 का प्रभाव 

दावे का आधार (बेसिस ऑफ़ ए क्लेम)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 12, संविधान के तहत निकायों को, ‘राज्य’ की परिभाषा के तहत शामिल करता है। भारत सरकार, संसद के साथ-साथ विधायिका और राज्यों की सरकारें भी, स्थानीय और अन्य प्राधिकरणों के साथ ‘राज्य’ की परिभाषा के तहत शामिल होती हैं। मेसर्स पियर्सन ड्रम्स एंड बैरल्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम महाप्रबंधक (जनरल मैनेजर), भारतीय रिजर्व बैंक के उपभोक्ता (कंज्यूमर) शिक्षा और संरक्षण प्रकोष्ठ (सैल) और अन्य के हाल ही के मामले में आर.बी.आई. के निर्णय ने एक मिसाल (प्रिसिडेंट) कायम की, जो आर.बी.आई. और उसके तहत काम कर रहे बैंकों के साथ-साथ बैंकिंग उद्योग (इंडस्ट्री) में निजी खिलाड़ियों के काम करने के तरीके को बदल सकती है।

यह मामला पियर्सन ड्रम्स एंड बैरल्स प्राइवेट लिमिटेड (जिसे इस लेख में आगे याचिकाकर्ता के रूप में संदर्भित किया गया है) द्वारा सी.ई.पी.सी., आर.बी.आई. के एक आदेश के खिलाफ दायर किया गया था, जो इंडसइंड बैंक की ओर से सामान्य संविदात्मक (कॉन्ट्रैक्चुअल) नियमों के अनुपालन न करने की घटना से पहले था। न्यायमूर्ति सब्यसाची भट्टाचार्य की अध्यक्षता में कलकत्ता उच्च न्यायालय के निर्णय में कहा गया था कि भारतीय रिजर्व बैंक स्पष्ट रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 में दी गई राज्य की परिभाषा के अंतर्गत आता है। उन्होंने यह भी कहा था कि निजी बैंक ज्यादातर समय ‘सार्वजनिक कार्यों’ को पुरा करने के लिए काम करते हैं और इसलिए ‘राज्य-अभिनेता’ कहे जाने के टैग से बच नहीं सकते हैं। यह निर्णय बहुत सी चीजों को बदलता है और यह स्थापित करने का एक तरीका ढूंढता है कि आर.बी.आई., उसके निकाय और निजी बैंक रिट क्षेत्राधिकार (ज्यूरिस्डिकशन) के अंतर्गत आते हैं। इस लेख में, इस निर्णय पर आने की पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड) प्रदान की गई है और इसके अतिरिक्त, निजी बैंकों पर अनुच्छेद 12 की इस तरह की व्याख्या के संभावित प्रभाव पर विस्तार से बताया गया है।

मामले के पीछे पृष्ठभूमि और तर्क

उपर्युक्त मामले में ‘याचिकाकर्ता’ को 25 करोड़ रुपये से अधिक की राशि के लिए ‘सैद्धांतिक (इन प्रिंसिपल)’ मंजूरी दी गई थी। बैंक ने बाद में प्रसंस्करण शुल्क (प्रोसेसिंग फि) के साथ दरों और करों (0.60%) के बारे में एक ई मेल भेजा, जिसे याचिकाकर्ता द्वारा भुगतान किया जाना था। उक्त प्रसंस्करण शुल्क की राशि 14,27,850 रूपये निर्धारित हुई थी जो, बैंक ने आश्वासन दिया, कि यदि ‘किसी भी कारण’ से मंजूरी पूरी नहीं होती है या बस, ‘बैंक की ओर से’ नहीं होती है, तो बैंक इस पूरी राशि को वापस कर देगा।

कुछ दिनों के बाद, बैंक ने याचिकाकर्ता को प्रसंस्करण शुल्क को वापस न करने के लिए एक खंड (क्लॉज) सहित प्रतिबंधों का एक ‘नया’ संग्रह भेजा, जिसे अन्य शर्तों के साथ जोड़ा गया था और जब याचिकाकर्ता के द्वारा इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया गया और प्रसंस्करण शुल्क वापस मांगा गया था तो, बैंक के द्वारा उसी की वापसी के संबंध में यह कारण बताते हुए उसे खारिज कर दिया गया था कि चूंकि याचिकाकर्ता के द्वार अंतिम प्रतिबंधों पर हस्ताक्षर करने से इनकार किया गया था, इसलिए यह याचिकाकर्ता ही था जो लेनदेन न होने के लिए जिम्मेदार था। न्यायमूर्ति सब्यसाची भट्टाचार्य ने बैंक के इस फैसले में त्रुटि की ओर इशारा करते हुए कहा कि बैंक याचिकाकर्ता के साथ 5 दिन बाद भेजे गए क्रेडिट प्रतिबंधों की तुलना में पूरी तरह से अलग-अलग संग्रह के लिए सहमत था, और यहां तक ​​​​कि उसे ‘नए’ के रूप में नाम भी दिया गया था, इसलिए यह स्पष्ट रूप से स्थापित किया गया था कि यह बैंक की गलती थी कि मंजूरी नहीं मिली और इस प्रकार यह ‘किसी भी कारण’ और ‘बैंक की तरफ से’ को पूरा करता है जिसका उन्होंने याचिकाकर्ता के साथ अपने संचार (कम्युनिकेशन) में प्रसंस्करण शुल्क ई मेल की 100% वापसी के संबंध में उल्लेख किया था। याचिकाकर्ता द्वारा बार-बार पत्रों और अनुरोधों पर, बैंक के साथ-साथ बैंक के एम.डी., सी.ई.पी.सी., आर.बी.आई. कोलकाता के सहायक प्रबंधक ने याचिकाकर्ता के अनुरोध पर प्रसंस्करण शुल्क के 100% की वापसी के संबंध में ध्यान देने से इनकार कर दिया था।

इस प्रकार याचिकाकर्ता ने पूरे लेन देन शुल्क और पुनर्भुगतान (रीपेमेंट) में देरी करने के लिए ब्याज की वापसी के लिए एक रिट याचिका दायर करने का फैसला किया था। यह याचिका न केवल इंडसइंड बैंक के खिलाफ वापसी के लिए बल्कि सी.ई.पी.सी., आर.बी.आई. के सहायक महाप्रबंधक के खिलाफ भी थी। इस याचिका की अनुरक्षणीयता (मेंटेनिबिलिटी) पर सवाल उठाया गया था, लेकिन यह माना गया था कि याचिका को बनाए रखा जा सकता है क्योंकि आर.बी.आई. स्पष्ट रूप से ‘राज्य का एक साधन’ है और निजी बैंक सार्वजनिक भूमिका में काम कर रहा है, इसलिए वह एक रिट याचिका दायर करने के लिए पात्र है। न्यायाधीश के द्वारा यह भी कहा गया था कि यह मुद्दा केवल एक पक्ष से संबंधित नहीं है जिसने इसके खिलाफ आवाज उठाई है और इसलिए इस मामले में स्थापित मिसाल के संदर्भ में इसका व्यापक दायरा और प्रभाव है। यह दावा कि याचिका अनुरक्षणीय नहीं थी, उन्हे उपर्युक्त सभी कारणों के द्वारा ठुकरा दिया गया था।

चूंकि नई मंजूरी, जिसमें ‘स्वीकृति के बाद’ वापस न करने योग्य प्रसंस्करण शुल्क का खंड शामिल था, उसे याचिकाकर्ता द्वारा कभी स्वीकार नहीं किया गया था इसलिए यहां बैंक याचिकाकर्ता के प्रसंस्करण शुल्क को पूरी तरह वापस करने के लिए उत्तरदायी है क्योंकि वे उस स्थिति से पीछे नहीं हट सकते हैं जो उन्होंने प्रसंस्करण शुल्क के संबंध में अपने प्रारंभिक ई मेल में किए गए वादे के रूप में लिया था। यह, और याचिकाकर्ता द्वारा दायर की गई रिट याचिका की अनुरक्षणीयता, निर्णय में प्रदान किया गया अनुपात निर्णायक (रेश्यो डिसीडेंडी) है जिसे न्यायमूर्ति भट्टाचार्य द्वारा दिया गया था, जिसने याचिकाकर्ता के पक्ष में निर्णय लिया कि प्रसंस्करण शुल्क की राशि के साथ-साथ अतिरिक्त, वापस राशि का भुगतान करने में देरी के लिए 6% ब्याज के लिए बैंक को उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए। 

निजी बैंकों पर इस फैसले का प्रभाव

इस फैसले का निजी बैंकों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ने का कारण यह है कि इसने बैंकिंग उद्योग में निजी खिलाड़ियों की भर्ती करने वालों और ऋण देने वाले अधिकारियों और विश्लेषकों (एनालिस्ट) के लिए एक चौकोर और सुसंगत (कोहरेंट) नियम स्थापित किया था। वह नियम यह है कि वास्तव में उनके खिलाफ एक रिट याचिका दायर की जा सकती है और हम अनिवार्य रूप से यहां पर परमादेश (मैंडेमस) और यथा वारंट (क्यू वारंटो) जैसे विशेषाधिकार (प्रीरोगेटिव) रिट की बात नहीं कर रहे हैं।

भारत में उच्च न्यायालय, विशेषाधिकार रिट के अलावा रिट याचिकाएं भी जारी कर सकते हैं और उन्हें स्वीकार कर सकते हैं और संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत, सार्वजनिक कार्य करने वाले किसी भी व्यक्ति या प्राधिकरण के खिलाफ एक रिट याचिका दायर की जा सकती है। मेसर्स पियर्सन ड्रम्स एंड बैरल्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम महाप्रबंधक, भारतीय रिजर्व बैंक के उपभोक्ता शिक्षा और संरक्षण प्रकोष्ठ और अन्य के मामले में पास किए गए निर्णय ने एक मिसाल कायम की कि आर.बी.आई., उसके किसी भी निकाय के साथ-साथ निजी बैंकों के खिलाफ एक रिट याचिका दायर की जा सकती है, जो सार्वजनिक प्रकृति के कार्यों का निर्वहन करते है। यदि एक याचिका में उठाए गए प्रश्न न केवल याचिकाकर्ता को प्रभावित करते हैं, बल्कि उत्तरदायी संस्था के दायित्व के संबंध में इसका एक बड़ा प्रभाव और निहितार्थ (इंप्लीकेशन) भी लगता है, तो ऐसी याचिका को कानून की अदालत में बनाए रखने योग्य होने का अधिकार है। 

इस मामले में, न्यायमूर्ति भट्टाचार्य की यह व्याख्या हमें एक बहुत ही महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर ले जाती है। एक निजी बैंक, शुरू में एक गैर-राज्य अभिनेता माना जाता था, जो देनदारियों (लाइबिलिटी) और कर्तव्यों से मुक्त होता है जो की एक राज्य निकाय या राज्य द्वारा संचालित संस्थान द्वारा किए जाते है। जिस तरह 2015 के जाने माने नौकरी अस्वीकृति के मामले में, एक 22 वर्षीय एम.बी.ए. स्नातक (ग्रेजुएट), ज़ेशान खान को नौकरी से वंचित कर दिया गया था और सिर्फ मुस्लिम होने के कारण उसे हटा दिया गया था। भर्ती करने वाले, एक हीरा निर्यातक (एक्सपोर्टर) के द्वारा स्पष्ट रूप से, मिस्टर खान को नौकरी से केवल इस कारण से इनकार कर दिया गया था कि वह एक मुस्लिम था। एक निजी बैंक शुरू में इस तरह का एक संदिग्ध कार्य कर सकता है और इससे दूर हो सकता है जैसे हीरा निर्यातक ने किया था, लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता है। एक उम्मीदवार को, उसके धर्म के आधार पर नौकरी से इनकार कर देने का कार्य, संविधान के तहत समान अवसर के मौलिक अधिकार का सीधे रूप में उल्लंघन है और एक व्यक्ति के धर्म के आधार पर एक पूर्ण भेदभावपूर्ण कार्य है। इस तरह के दावे का व्यापक निहितार्थ है और, उल्लेख नहीं करने के लिए, एक निजी बैंक के मामले में एक सख्त दायित्व है और इसलिए, इस मामले में एक रिट याचिका शत-प्रतिशत बनाए रखने योग्य है।

ऐसा ही उदाहरण उस स्थिति में हो सकता है जब बैंक आम जनता को व्यक्तिगत ऋण दे रहे हों। यह सामान्य ज्ञान है कि कई ऋण अनुरोध निजी बैंकों द्वारा सामान्य कारण से ठुकरा दिए जाते हैं कि संभावित ग्राहक एक विशेष धर्म से संबंधित हैं। यदि बैंक अनुरोध की अस्वीकृति को चतुराई से कवर नहीं करते हैं, तो वे कानूनी रूप से उनके खिलाफ उत्पन्न होने वाले कारण कि वजह से परेशानी में पड़ सकते हैं क्योंकि एक व्यक्ति सार्वजनिक कार्य के निर्वहन के दौरान भेदभाव का मामला बना सकता है और जिसके परिणामस्वरूप वह एक रिट याचिका दायर कर सकता है। 

यह इंडसलैंड बैंक और पियरसन ड्रम्स एंड बैरल्स कंपनी के उपर्युक्त मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा की गई हाल की व्याख्या से निकाला गया एक और निष्कर्ष है। कैलाश देवी बनाम शाखा प्रबंधक और अन्य के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 3 दिसंबर, 2020 के एक आदेश के द्वारा यह निष्कर्ष निकाला गया कि निजी वित्तीय संस्थान जो अपने वाणिज्यिक (कमर्शियल) व्यवसाय करते हैं, भले ही उनके कार्य सार्वजनिक कार्य से संबंधित हों, तब भी वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत राज्य की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आते हैं।

निष्कर्ष

इस प्रकार, इस लेख में हमने 1951 से 2005 तक की समयरेखा की व्याख्या की है और इन वर्षों में यह शब्द कैसे विकसित हुआ है यह भी देखा है। राज्य शब्द की अवधारणा व्यापक है और पिछले कुछ वर्षों में संविधान के अनुच्छेद 12 में “अन्य प्राधिकरण” वाक्यांश की व्याख्या न्यायपालिका के कारण विकसित हुई है। यह अवधारणा इन वर्षों में न्यायाधीशों की व्याख्या, शामिल सामाजिक-आर्थिक कारकों आदि जैसे कारकों के आधार पर विकसित हुई है। अब तक यह किसी भी तरह से एक स्थिर विचार नहीं रहा है। “अन्य प्राधिकरणों” की वर्तमान अवधारणा में वे निकाय शामिल हैं जो सरकार द्वारा वित्तीय (फाइनेंशियल), कार्यात्मक (फंक्शनल) और प्रशासनिक रूप से नियंत्रित हैं, जैसा कि प्रदीप कुमार विश्वास बनाम इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी के मामले में तय किया गया था। इस प्रकार अनुच्छेद 12 इस दावे पर चुनौती या टिप्पणी नहीं करता है कि क्या एक निजी तौर पर संचालित बैंकिंग संस्थान अनुच्छेद 12 के तहत राज्य की परिभाषा के तहत आता है या आना चाहिए, जैसा कि उपरोक्त लेख में बताया गया है, लेकिन यह वास्तव में, उसी मामले की एक और व्याख्या को चुनौती देता है है कि क्या ऐसी संस्था रिट क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आती है या नहीं। जबकि इलाहाबाद मामले में न्यायाधीश ने इसके विपरीत आयोजित किया था, और इसलिए कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय इस लेख द्वारा दिए गए निष्कर्ष के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण मामला बना हुआ है।

संदर्भ 

  • The Constitution of India, Article 12.
  • 1967 AIR 1857.
  • AIR 1975 SC 1331.
  • The Constitution of India, Article 36.
  • The Constitution of India, Article 152.
  • The Constitution of India, Article 308.
  • AIR 1954 Mad 67.
  • Supra note 2.
  • Supra note 3.
  • Supra note 8.
  • Id.
  • Supra note 9.
  • Id.
  • Id.
  • 1981 AIR 487.
  • 1987 AIR 1086.
  • (2002) 5 SCC 111.
  • AIR 2005 SC 2677.
  • 1 1966 SCR (3) 744.

 

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