सी.आर.पी.सी. के तहत समन मामलों का विचारण

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Criminal Procedure Code
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इस लेख में, Rachna Dalal, सी.आर.पी.सी. के तहत समन मामलों के विचारण (ट्रायल) पर चर्चा करती है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

“समन” एक दस्तावेज है जो एक व्यक्ति को अदालत के सामने पेश होने और उसके खिलाफ की गई शिकायत का जवाब देने का आदेश देता है। मजिस्ट्रेट द्वारा, सी.आर.पी.सी., 1973 की धारा 204(1)(A) के तहत आरोपी को समन जारी किया जाता है। “समन मामले” का अर्थ एक अपराध से संबंधित मामला है, जो वारंट मामला नहीं है। समन मामलों को वारंट मामले की परिभाषा से संदर्भित किया जा सकता है, अर्थात, मृत्युदंड, आजीवन कारावास और दो साल से अधिक की अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध, जिन्हें वारंट मामले कहा जाता है। तो समन मामले वे हैं जिनमें सजा दो साल के कारावास से अधिक नहीं होती है। यह कहा जा सकता है कि समन मामले गंभीर प्रकृति के नहीं होते हैं, इसलिए निष्पक्ष विचारण की आवश्यकताओं को समाप्त किए बिना, इसे शीघ्रता से तय करने की आवश्यकता होती है। सी.आर.पी.सी., 1973 की धारा 251 से 259 में ऐसे मामले से निपटने की प्रक्रिया प्रदान की गई है जो अन्य परीक्षणों की तरह गंभीर/औपचारिक (फॉर्मल) नहीं है (जैसे सत्र (सेशन) विचारण, पुलिस रिपोर्ट पर दर्ज़ किए गए वारंट मामला और पुलिस रिपोर्ट के अलावा दर्ज़ किए गए वारंट मामले)।

वर्तमान लेख में मुख्य जोर समन मामलों की प्रक्रिया पर दिया गया है। समन मामले में प्रक्रिया के सामान्य चरण अन्य विचारण के समान होते हैं, लेकिन यह विचारण त्वरित उपचार के लिए कम औपचारिक होता है।

समन-मामलों में विचारण की प्रक्रिया

अपराध के विवरण का स्पष्टीकरण (एक्सप्लेनेशन)

धारा 251 में प्रावधान है कि आरोप तय करना अनिवार्य नहीं है, लेकिन जब आरोपी को अदालत में पेश किया जाता है तो धारा अपराध के विवरण के स्पष्टीकरण से दूर नहीं होती है। ऐसा आरोपी को अपने ऊपर लगे आरोपों के लिए संज्ञान (कॉग्निजेंस) लेने के लिए किया जाता है। विवरण देने में असमर्थ होने की स्थिति में, मुकदमा खराब नहीं होगा और इससे आरोपी के साथ पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) नहीं होगा क्योंकि यह अनियमितता (इरेगलेरिटी) संहिता की धारा 465 के तहत उपचार योग्य है। धारा 251 के तहत अदालतें आरोपी से पूछती हैं कि क्या आरोपी ने अपना दोष स्वीकार किया है, और धारा 252 और 253 का पालन दोषसिद्धि के लिए किया जाना चाहिए, जब दोषी अपना दोष स्वीकर कर लेता है।

दोषियों के द्वारा दोष की स्वीकृति पर दोषसिद्धि

धारा 252 और 253 दोषी के द्वारा दोष की स्वीकृति पर दोषसिद्धि प्रदान करती है। धारा 252 सामान्य रूप से दोषी के द्वारा दोष की स्वीकृति का प्रावधान करती है और धारा 253 छोटे मामलों में दोषी के द्वारा दोष की स्वीकृति का प्रावधान करती है। यदि आरोपी अपना दोष स्वीकार करता है, तो उत्तर कानून के अनुसार सकारात्मक होता है, अदालत आरोपी के सटीक शब्दों में उसकी स्वीकृति दर्ज करती है जिसके आधार पर आरोपी को न्यायालय के विवेक पर दोषी ठहराया जा सकता है। यदि सकारात्मक नहीं है तो अदालत को धारा 254 के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है। यदि आरोपी अपना दोष स्वीकार करता है, और उसके खिलाफ लगाए गए आरोप कोई अपराध नहीं बनते हैं, तो केवल स्वीकृति के आधार पर ही आरोपी की दोषसिद्धि नहीं होगी। चूंकि मजिस्ट्रेट के पास उसकी स्वीकृति पर उसे दोषी ठहराने या न ठहराने का विवेक है, तो अगर स्वीकृति पर आरोपी को दोषी ठहराया जाता है तो मजिस्ट्रेट धारा 360 के अनुसार आगे बढ़ेगे, अन्यथा आरोपी को सजा के सवाल पर सुनेंगे और उसे कानून के अनुसार सजा दी जाएगी। यदि दोषी की स्वीकृति को स्वीकार नहीं किया जाता है तो मजिस्ट्रेट धारा 254 के अनुसार कार्यवाही करेंगे।

अगर आरोपी को स्वीकृति पर दोषी नहीं ठहराया जाता है तो उसके लिए प्रक्रिया

धारा 254 में अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) और बचाव, दोनों मामलों के बारे में प्रावधान है यदि आरोपी को धारा 252 और 253 के तहत स्वीकृति पर दोषी नहीं ठहराया जाता है।

अभियोजन मामला

मजिस्ट्रेट आरोपी की बात सुनेंगे और सारे सबूत लेंगे। विचारण में अभियोजन पक्ष को उन तथ्यों और परिस्थितियों को रखकर अपना मामला खोलने का मौका दिया जाएगा जो मामले का गठन करते हैं और उन सबूतों को प्रकट करते हैं जिन पर उसने भरोसा किया था की वह मामले को साबित करने के लिए आवश्यक होगे। अभियोजन पक्ष के आवेदन पर मजिस्ट्रेट किसी भी गवाह को उपस्थित होने और कोई दस्तावेज या चीज पेश करने के लिए समन जारी करते है। मजिस्ट्रेट धारा 274 के अनुसार साक्ष्य का ज्ञापन (मेमोरेंडम) तैयार करेंगे। समन मामलों में अन्य विचारण की तरह ही मजिस्ट्रेट धारा 279 अर्थात आरोपी को साक्ष्य की व्याख्या और धारा 280 अर्थात गवाहों के आचरण की रिकॉर्डिंग का पालन करेंगे।

बचाव पक्ष की सुनवाई  :- (बचाव मामला)

धारा 254 के तहत अभियोजन के साक्ष्य और धारा 313 के तहत बचाव पक्ष की जांच के बाद, अदालत धारा 254 (1) के तहत बचाव पक्ष के विचारण के साथ आगे बढ़ेगी। बचाव पक्ष के विचारण में आरोपी से अभियोजन पक्ष के साक्ष्य के विरुद्ध साबित करने के लिए कहा जाएगा। किसी भी मामले में आरोपी सुनवाई में विफलता आपराधिक मुकदमे में मौलिक त्रुटि (एरर) होगी और इसे धारा 465 के तहत ठीक नहीं किया जा सकता है। आरोपी द्वारा पेश किए गए साक्ष्य उसी तरह दर्ज किए जाएंगे जैसे धारा 274, 279, 280 के तहत अभियोजन के मामले में दर्ज किए गए थे। बचाव पक्ष को साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद, उसे धारा 314 के तहत अपने तर्क प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाएगी।

दोषमुक्ति (एक्वीटल) या दोषसिद्धि

धारा 254 के तहत साक्ष्य दर्ज करने के बाद मजिस्ट्रेट आरोपी को दोषी न पाए जाने पर बरी कर देंगे। यदि आरोपी दोषी है तो मजिस्ट्रेट धारा 360 या 325 के अनुसार कार्यवाही करेंगे अन्यथा उसे कानून के अनुसार सजा देंगे।

शिकायतकर्ता का उपस्थित न होना या उसकी मृत्यु होना

धारा 256 के अनुसार आरोपी की उपस्थिति के लिए निर्धारित तिथि पर, शिकायतकर्ता की अनुपस्थिति अदालत को आरोपी को बरी करने का अधिकार देगी जब तक कि अदालत के पास मामले को किसी और दिन के लिए स्थगित करने का कारण न हो। शिकायतकर्ता की मृत्यु के मामले में भी धारा 256(1) लागू होती है। यदि मृत शिकायतकर्ता का प्रतिनिधि (रिप्रेजेंटेटिव) 15 दिनों तक उपस्थित नहीं होता है, जहां प्रतिवादी पेश हुआ, तो प्रतिवादी को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरी किया जा सकता है। 

समन मामलों में कार्यवाही रोक देना

शिकायत के अलावा अन्य तरीके से दर्ज मामलों को समन, धारा 258 किसी भी स्तर पर प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट को अधिकृत (ऑथराइज) करती है कि वह मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व मंजूरी के साथ कार्यवाही को रोक सके। इसलिए यदि वह ‘सबूत को रिकॉर्ड करने के बाद’ कार्यवाही को रोक देते है, तो यह बरी होने के फैसले की घोषणा होगी, और यदि वह मामले में ‘सबूत को रिकॉर्ड करने से पहले’ रोक देते है, तो यह माना जाएगा की मामले को रोक दिया गया है।

यह विवादास्पद है कि शिकायत पर दर्ज समन मामले में मजिस्ट्रेट के पास मामले को रोकने की कोई शक्ति नहीं है, भले ही उनके पास आरोपी के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार न हो। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर मजिस्ट्रेट ऐसा करते है तो वह अपने ही आदेश को वापस ले लेंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रक्रिया का मुद्दा मजिस्ट्रेट का अंतरिम (इंटरिम) आदेश होगा, फैसला नहीं, इसलिए इसे वापस लिया जा सकता है। ऐसी परिस्थितियों में मामले को रोकने के लिए मजिस्ट्रेट को सशक्त बनाने के लिए किसी प्रावधान की आवश्यकता नहीं है। शिकायत पर दर्ज़ किए गए समन मामलों में मजिस्ट्रेट प्रक्रिया के मुद्दे के आदेश को निर्वहन, समीक्षा (रिव्यू) और वापस नहीं ले सकते है।  समन मामलों में निचली अदालत के मजिस्ट्रेट को कानून में इस तरह के प्रावधान के अभाव में कार्यवाही छोड़ने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में एक व्यक्ति सी.आर.पी.सी. की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। समन मामलों में आरोप मुक्त करने का कोई प्रावधान नहीं है, शिकायत पर आरोपित को या तो दोषी ठहराया जाएगा या बरी किया जाएगा।

विश्लेषण (एनालिसिस)

समन मामलों की विचारण अन्य विचारण प्रक्रिया की तुलना में कम औपचारिक है, क्योंकि यह केवल त्वरित उपचार के लिए है। इसलिए धारा 258, जो पर्याप्त आधार के अभाव में भी मजिस्ट्रेट को मामले को छोड़ने का अधिकार नहीं देती है, वह किसी भी तरह से आरोपी के लिए पूर्वाग्रह है। न्यायालय की राय, के.एम. मैथ्यू के मामले में यह थी कि यदि आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोप किसी भी अपराध को साबित नहीं करते है, तो मजिस्ट्रेट के पास मामले को छोड़ने की निहित शक्ति है। विभिन्न न्यायिक घोषणाओं में, इसे असहमति जताई है। अरविंद केजरीवाल के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कानून विशेष रूप से धारा 258 के तहत मामले को छोड़ने के संबंध में मजिस्ट्रेट को अधिकार नहीं देता है और धारा 482 के तहत मामले से निपटने के लिए, मामले को उच्च न्यायालय में पास कर दिया जाता है। लेकिन इस बिंदु पर विचार करने की आवश्यकता है कि उच्च न्यायालय के द्वारा भी फिर से मामले को देखने की जरूरत होती है ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या आरोपी के खिलाफ आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार है, यह सब समन मामले के मुख्य उद्देश्य, यानी त्वरित विचारण को बाधित करता है। हालांकि इस मुद्दे को विभिन्न मामलों में शीर्ष अदालत के समक्ष संबोधित किया गया था, लेकिन निष्पक्ष विचारण और ऐसी परिस्थितियों में आरोपी के अधिकार को खतरे में डालने के लिए इसकी फिर से जांच की जानी चाहिए।

संदर्भ

  • Section 2(w) of Criminal procedure code, 1973
  • Section 2(x) of Criminal procedure Code, 1973
  • Manbodh Biswal v. Samaru Pradhan 1980 Cri LJ 1023(ori); Nayan Ram v. Prasanna Kumar, 1953 cri LJ 1574;
  • S. Rama Krishna v. S Rami Reddy (2008) 5 SCC 535
  • K. M. Matthew v. State of Kerala (1992) 1 SCC 217
  • Subramanium Sethuraman v. State of Maharashtra & Anr, (2004) 13 SCC 324
  • Arvind Kejriwal and others v. Amit Sibal & Anr (2014) 1 High Court Cases (Del) 719
  • R.K. Aggarwal v. Brig Madan Lal Nassa & Anr 2016 SCC Online Del 3720

 

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