द्विविवाह: आई.पी.सी. की धारा 494

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5558
Indian Penal Code
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यह लेख पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज ऑफ लॉ, उस्मानिया विश्वविद्यालय की छात्रा R Sai Gayatri, एमिटी लॉ स्कूल, दिल्ली, की छात्रा Shivani Panda, और के.आई.आई.टी. स्कूल ऑफ लॉ, भुवनेश्वर की छात्रा Soma-Mohanty के द्वारा लिखा गया है। इस लेख मे, भारत में द्विविवाह (बाइगेमी) के अपराध और कानूनों में इसके प्रावधानों, इसके आवश्यक तत्वों, दूसरी पत्नी की स्थिति और विभिन्न धर्मों में बहुविवाह की स्थिति के बारे में बात की गई है। इसमें सरला मुद्गल मामले पर भी चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

विवाह को सांस्कृतिक और कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त संघ के रूप में समझा जा सकता है, जो की आमतौर पर दो लोगों के बीच होता है। ब्लैक की लॉ डिक्शनरी इसे ऐसे परिभाषित करती है, “एक पुरुष और एक महिला की नागरिक स्थिति, जो पूरे जीवन भर के लिए कानून के तहत एक हो जाते हैं, और ऐसी स्थिति के तहत वह एक दूसरे और पूरे समुदाय के लिए कर्तव्यों का निर्वाहन करते हैं, जो कानूनी रूप से उन लोगों पर निर्भर करते है जिनके संबंध लिंग के भेद पर स्थापित होते हैं।” इस प्रकार एक ही बार विवाह करना एक पारंपरिक नियम है जिसे पूरी दुनिया में कानूनी प्रणालियों द्वारा मान्यता प्रदान की गई है और इस सामान्य नियम का उल्लंघन, द्विविवाह या बहुविवाह है।

द्विविवाह एक व्यक्ति द्वारा, किसी अन्य व्यक्ति के साथ विवाह करने का कार्य है जब पहला व्यक्ति पहले से ही कानूनी रूप से किसी दूसरे व्यक्ति से विवाहित है। उदाहरण के लिए, यदि A कानूनी रूप से B से विवाहित है और वह B के साथ अपने विवाह के दौरान C से विवाह करने के लिए आगे बढ़ता है तो ऐसे में A द्विविवाह के लिए उत्तरदायी होगा। हालांकि, अगर किसी कारण से पहले विवाह को अमान्य घोषित कर दिया जाता है, तो विवाह से बंधे दोनो व्यक्तियों को अपनी पसंद के किसी भी व्यक्ति से विवाह करने की स्वतंत्रता है। जब कोई जोड़ा तलाक की प्रक्रिया से गुजर रहा होता है, तो उनमें से कोई भी तब तक विवाह नहीं कर सकता जब तक कि कानून की नजर में तलाक अंतिम नहीं हो जाता है।

वर्तमान समय में, कई देशों में द्विविवाह को दंडित किया जाता है क्योंकि उनकी विचारधारा एक ही विवाह के पक्ष में है, हालांकि कुछ ऐसे देश हैं जहां कानूनी रूप से द्विविवाह की अनुमति दी जाती है। आइए इस लेख के माध्यम से द्विविवाह, इससे संबंधित कानून और उसी के ऐतिहासिक निर्णयों के बारे में विस्तृत में जानते हैं।

द्विविवाह के अपराध का गठन करने के लिए आवश्यक तत्व

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 के अनुसार द्विविवाह के अपराध को गठित करने के लिए निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं –

  • पहले वैध विवाह का अस्तित्व में होना

द्विविवाह के अपराध में, आवश्यक तत्वों में से एक पूर्व वैध विवाह का मौजूद होना है। एक पूर्व वैध विवाह के मौजूद होने से ही बाद के विवाह को शून्य घोषित कर दिया जाता है क्योंकि यह ऐसे व्यक्ति की जीवित पत्नी या पति के अस्तित्व में होने की पुष्टि करता है। यदि पूर्व विवाह कानून की नजर में वैध नहीं है तो दोबारा विवाह करना द्विविवाह नहीं माना जाएगा।

  • बाद के विवाह की वैधता

पहले दिए तत्व से यह समझा जा सकता है कि पूर्व विवाह वैध होना चाहिए, हालांकि, दूसरा आवश्यक तत्व यह है कि बाद में होने वाला विवाह भी कानूनी रूप से वैध होना चाहिए। विवाह करने के इच्छुक जोड़े को सभी अनिवार्य अनुष्ठानों (रिचुअल्स) और समारोहों में भाग लेना चाहिए, जैसा कि उनके विवाह को नियंत्रित करने वाले व्यक्तिगत कानून में आवश्यक है। यदि बाद के विवाह को आवश्यक अनुष्ठानों का पालन या प्रर्दशन किए बिना अनुबंधित किया जाता है तो यह अपने आप में शून्य होगा जो बदले में यह बताता है कि द्विविवाह का अपराध गठित नहीं किया जा सकता है।

इस तत्व को सत्या देवी बनाम खेम चंद (2013) के मामले के माध्यम से अच्छी तरह से समझा जा सकता है, जिसमें पत्नी ने अपने अपने पति के खिलाफ द्विविवाह और क्रूरता के अपराध के लिए मामला दर्ज किया था। हालांकि, वह यह साबित नहीं कर सकी कि उसका विवाह कानून के अनुसार अनुबंधित था, इसलिए दूसरा विवाह वैध रहा और उसके विवाह को शून्य घोषित कर दिया गया था। इसलिए मामला खारिज कर दिया गया था।

  • पूर्व वैध विवाह के साथी का जीवित होना चाहिए

दूसरे विवाह के शून्य होने का एकमात्र कारण, पूर्व वैध विवाह के साथी के जीवित रहने की वजह से है। इसका मतलब यह है कि पूर्व वैध विवाह से ऐसे व्यक्ति की पत्नी या पति को बाद के विवाह के समय जीवित होना चाहिए ताकि इसे अमान्य घोषित किया जा सके और द्विविवाह का मामला स्थापित किया जा सके। यह ध्यान देने योग्य है कि यह तत्व उन मामलों पर लागू नहीं होता है जहां बाद के विवाहों को शरिया कानून जैसे व्यक्तिगत कानूनों द्वारा अनुमति दी जाती है।

भारत में द्विविवाह और उसका इतिहास

भारत में द्विविवाह की उपस्थिति का पता प्राचीन काल से लगाया जा सकता है जब योद्धा संप्रदायों (सेक्ट) और धनी व्यापारियों की एक ही समय में दो से अधिक जीवित पत्नियां होती थीं। यह कई कारणों से किया जाता था जैसे कि शासक क्षेत्र का विस्तार करने के लिए, शांति संधियों (पैस्ट्स) को सील करने के लिए, क्षेत्र के खजाने को बढ़ाने के लिए, आदि। विवाह का नियम हमेशा मनुस्मृति की अवधि से ही एक विवाह की अवधारणा पर आधारित था, लेकिन साथ ही कुछ कुछ स्थितियों में बहुविवाह को भी स्वीकार किया जाता था।

मनुस्मृति के ग्रंथ, जो की हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के प्राथमिक स्रोतों (प्राइमरी सोर्स) में से एक है, यह स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हैं कि यदि पत्नी किसी बीमारी से पीड़ित है, या यदि वह बच्चे को जन्म नहीं दे सकती है, या ऐसे दोष पूर्ण प्रकृति की होती है कि उसका स्थान कोई और ले सकता है, तो ऐसी पत्नी का पति किसी अन्य महिला से विवाह कर सकता है अर्थात ऐसे में दूसरे विवाह को कानूनी रूप से वैध माना जाएगा। हालांकि  शर्त यह है कि पहली पत्नी हमेशा दूसरी पत्नी कि तुलना में श्रेष्ठ ही मानी जाएगी और पहली पत्नी के पहले जन्मे बेटे को उसके पति के अन्य बेटों पर प्रमुखता दी जाएगी। हालांकि, भारत में ब्रिटिश शासन के आने के साथ, कानून में कई बदलाव किए गए थे, जिसमें एक हिंदू पुरुष जो पहले से ही एक बार विवाह कर चुका है, वह बिना किसी को कोई कारण बताए या अपनी पत्नी की सहमति के बिना, फिर से विवाह कर सकता है।

समय बीतने के साथ, विभिन्न धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों को प्राथमिक महत्व दिया जा रहा था, जिसने बदले में कई प्रावधानो में द्विविवाह को अपराध घोषित कर दिया था। पारसी विवाह और तलाक अधिनियम (1936), बॉम्बे हिन्दू द्विविवाह की रोकथाम अधिनियम (बॉम्बे प्रीवेंशन ऑफ़ हिंदू बाइगेमेस मैरिज एक्ट) (1946) और मद्रास हिंदू द्विविवाह (रोकथाम और तलाक) अधिनियम (1949) जैसे कानून कई ऐसे कानूनों में से थे, जिन्होंने द्विविवाह के अपराध को पहचाना और उसे दंडित किया। 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, एक विवाह की अवधारणा को सभी हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के लिए अनिवार्य बनाता है। यदि कोई हिंदू पुरुष अपनी पहली पत्नी के जीवित होने के दौरान किसी अन्य महिला से विवाह करता है, तो उसे भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 के तहत दंडित किया जाएगा। इसी तरह, विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अनुसार, कोई भी विवाह जिसे उक्त अधिनियम के प्रावधानों और शर्तों के अनुसार किया जाता है, उस को द्विविवाह का रूप लेने से प्रतिबंधित किया जाएगा।

जब मुसलमानों के व्यक्तीगत कानून यानी की शरिया कानून की बात आती है तो बहुविवाह की प्रथा को कानूनी रूप से अनुमति दी जाती है, हालांकि बहुपतित्व (पॉलीएंड्री) की प्रथा को सख्ती से वर्जित किया जाता है। पवित्र कुरान सभी मुसलमानों पर शासन करती है और यह कहती है कि एक मुस्लिम पुरुष एक ही समय में चार महिलाओं से विवाह कर सकता है, हालांकि उसे उनकी देखभाल करने में सक्षम होना चाहिए। इसलिए, यह समझा जा सकता है कि इस्लाम द्विविवाह को प्रतिबंधित नहीं करता है।

राधिका समीना बनाम एस.एच.ओ. हबीब नगर पुलिस स्टेशन, (1996) के मामले में, यह माना गया था कि विशेष विवाह अधिनियम, 1956 के तहत विवाहित एक मुस्लिम पुरुष को आई.पी.सी. की धारा 494 के तहत दोषी माना जाएगा यदि वह मुस्लिम कानून के अनुसार दूसरे विवाह में प्रवेश करता है। चूंकि उसका पिछला विवाह  विशेष विवाह अधिनियम के तहत हुआ था न कि मुस्लिम कानून के तहत, तो यहां पर विशेष विवाह अधिनियम के प्रावधान लागू होंगे न कि मुस्लिम कानून के, इस प्रकार इस मामले मे प्रतिवादी के विवाह को अमान्य माना गया था।

द्विविवाह और भारतीय कानून

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत, धारा 5 में कुछ शर्तें दी गई हैं, जिन्हें पूरा करके विवाह को कानूनी रूप से पूरा किया जा सकता है। अधिनियम की धारा 5 (i) में कहा गया है कि दो हिंदुओं के बीच विवाह केवल तभी अनुबंधित किया जा सकता है जब “किसी भी पक्ष के पास विवाह के समय जीवित पति या पत्नी न हो।” यहां, ‘हिंदू’ में कोई भी व्यक्ति शामिल है जो बौद्ध, जैन और सिख है। इसके अलावा, धारा 11 उन सभी विवाहों को शून्य घोषित करती है जो इस अधिनियम के अधिनियमित (इनेक्ट) होने के बाद किए गए हैं, जो कि धारा 5 (i) के उल्लंघन में है। अंत में, धारा 17 भारतीय दंड संहिता की धारा 494 और 495 के अनुसार द्विविवाह के लिए दंड का प्रावधान करती है, जिसकी चर्चा नीचे विस्तार से की गई है। इसके अलावा, एक पत्नी के लिए धारा 11 के तहत मामला दर्ज करने के लिए, उसे विवाह का हिस्सा बनने की जरूरत है।

अजय चंद्राकर बनाम उषाबाई के मामले में, एक पति ने दूसरा विवाह किया, लेकिन पहला विवाह तब अस्तित्व में था, तो पहली पत्नी द्वारा दूसरे विवाह को अमान्य और शून्य घोषित करने की याचिका खारिज कर दी गई थी और अदालत ने माना कि धारा 11 के तहत उपाय दूसरी पत्नी के लिए उपलब्ध है, जो बाद के विवाह में एक पक्ष है।

भारतीय दंड संहिता, 1860

द्विविवाह को आई.पी.सी. की धारा 494 के तहत अपराध माना जाता है, जो कि द्विविवाह के अंग्रेजी कानून पर आधारित है। इसके अलावा, आई.पी.सी.की धारा 495 में द्विविवाह के गंभीर रूप को शामिल किया गया है।

धारा 494

भारतीय दंड संहिता, 1860 धारा 494 के तहत द्विविवाह की व्याख्या करती है। उक्त प्रावधान में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जिसकी/जिसका पहले से ही एक जीवित पत्नी या पति है जिसके साथ उसने कानूनी रूप से विवाह किया था, यदि वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाह करने के लिए आगे बढ़ता है, तो उसे कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसकी अवधि सात साल तक बड़ाई जा सकती है, और वह जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा। इसके अलावा, इस तरह के विवाह को किसी भी मामले में शून्य माना जाएगा।

उपरोक्त प्रावधान के कुछ अपवाद हैं, जिसमें एक व्यक्ति, जो किसी अन्य व्यक्ति से विवाह करता है, उसे द्विविवाह के लिए दंडित नहीं किया जाएगा। अपवाद इस प्रकार हैं-

  1. उक्त प्रावधान किसी भी ऐसे व्यक्ति पर लागू नहीं होता है, जिसका पूर्व विवाह, उसके साथी के साथ, सक्षम अधिकार क्षेत्र (कॉम्पिटेंट ज्यूरिस्डिक्शन) की अदालत द्वारा शून्य घोषित कर दिया गया है।
  2. उक्त प्रावधान किसी भी ऐसे व्यक्ति पर लागू नहीं होता है, जो अपने पूर्व साथी के जीवनकाल के दौरान विवाह का अनुबंध करता है, जिसमें ऐसे व्यक्ति के दूसरे विवाह के समय ऐसे साथी के बारे में सात साल की अवधि तक के लिए कुछ भी सुना नहीं गया था या जहां उसके जीवित होने की कोई जानकारी नहीं थी। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 108 के तहत प्रदान किए गए अनुमान के आधार पर, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि एक व्यक्ति जो सात साल से अधिक समय से लापता है, उसे मृत माना जाता है और जब व्यक्ति दूसरा विवाह करता है, तो यह समझा जाता कि दूसरे विवाह के समय कोई भी पति या पत्नी जीवित नहीं है और इस प्रकार, द्विविवाह का अपराध नहीं बनता है। इस अपवाद को शामिल करने वाली शर्त यह है कि दूसरा विवाह करने वाले व्यक्ति को, दूसरा विवाह होने से पहले, उस व्यक्ति को अपने पिछले साथी के बारे में जानकारी के अनुसार सूचित करना चाहिए।

इस धारा को आकर्षित करने के लिए, पहला और दूसरा विवाह दोनों वैध होने चाहिए, यानी की आवश्यक समारोह एक धर्म के व्यक्तिगत कानून के अनुसार होने चाहिए। यदि विवाह वैध नहीं है, तो यह कानून की नजर में विवाह नहीं है।

यह धारा पुरुष मुसलमानों को छोड़कर, किसी व्यक्ति के भी धर्म की परवाह किए बिना, पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए इसे अपराध बनाती है। मुस्लिम कानून के तहत, पुरुष मुसलमानों को बहुविवाह की अनुमति है और उनकी ज्यादा से ज्यादा चार पत्नियां हो सकती हैं। इस प्रकार, यह धारा एक मुस्लिम व्यक्ति पर लागू होती है जो पहले के चार विवाहों के निर्वाह के दौरान पांचवीं पत्नी से विवाह करता है। इसके अलावा, चारों शादियां मुस्लिम कानून के तहत होनी चाहिए। यदि विवाह विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत होता है, तो बाद के विवाह को शून्य माना जाएगा, और व्यक्ति को द्विविवाह का दोषी माना जाएगा।

यह अपराध असंज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल), जमानती, क्षमनीय (कंपाउंडेबल) और प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

धारा 495 

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 495 आगे द्विविवाह के अपराध के बारे में बात करती है, लेकिन साथ ही इसमें किसी तथ्य को छुपाने का दोष भी शामिल है। जब कोई व्यक्ति अपने पूर्व विवाह के तथ्य को उस व्यक्ति से छुपाकर द्विविवाह का कार्य करता है जिसके साथ उन्होंने अपना दूसरा विवाह किया है, तो ऐसे व्यक्ति को धारा 495 के तहत दोषी ठहराया जाएगा। ऐसे व्यक्तियों को किसी एक अवधि के लिए दोनों में से किसी भी प्रकार के कारावास से दंडित किया जाएगा जिसे दस साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है। इसके अलावा, यदि व्यक्ति पहले विवाह के तथ्य को छुपाता है तो आई.पी.सी.की धारा 415 के तहत धोखाधड़ी की शिकायत दर्ज की जा सकती है।

यह अपराध असंज्ञेय, जमानती, गैर-शमनीय और द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

धारा 493: कपटपूर्ण विवाह

आई.पी.सी.की धारा 493 के अनुसार

  • जब कोई पुरुष किसी महिला को चालाकी से फँसाता है ताकि वह यह मान सके कि वे दोनों कानूनी रूप से विवाहित हैं और इस तथ्य के विश्वास के साथ वह उसके साथ यौन संबंध बनाती है, इस तथ्य के बावजूद कि वह विवाह शून्य है।
  • इस मामले में, व्यक्ति को एक अवधि के लिए कारावास से दंडित किया जाएगा जिसे 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
  • वह जुर्माने का भुगतान करने के लिए भी उत्तरदायी होगा; या
  • उसे कारावास और जुर्माना दोनों से भी दंडित किया जा सकता है।

आई.पी.सी. की धारा 496 के अनुसार

  • जब कोई व्यक्ति दोबारा विवाह करता है और उसे पर्याप्त ज्ञान होता है कि यह विवाह कानून के अनुसार वैध नहीं है और इस तथ्य को छुपाता है।
  • तो, इस मामले में, उसे कारावास से दंडित किया जाएगा जो सात साल से अधिक हो सकता है।
  • वह जुर्माना भरने के लिए भी उत्तरदायी हो सकता है।

अपराध का वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन)

  • यह एक असंज्ञेय अपराध है।
  • यह एक जमानती अपराध है
  • क्षमनीय अपराध
    • द्विविवाह के तहत अपराध केवल तभी क्षमनीय होते हैं जब पत्नी की सहमति होती है और यदि सक्षम अदालत अनुमति देती है।

इस अपराध के तहत शिकायत कौन दर्ज कर सकता है?

  • कोई भी व्यक्ति जिसे उसके पति या पत्नी ने धोखा दिया है, वह शिकायत दर्ज करा सकता है।
  • पत्नी के मामले में उसके पिता, माता, भाई, बहन या रक्त से संबंधित कोई भी व्यक्ति अदालत की अनुमति से उसकी ओर से शिकायत दर्ज करा सकता है।
  • पति के मामले में, केवल उसे ही शिकायत दर्ज करने की अनुमति है, लेकिन सशस्त्र बलों के व्यक्ति के मामले में, जो शिकायत दर्ज करने के लिए छुट्टी लेने में सक्षम नहीं है, उसे छूट प्रदान की जा सकती है।

द्विविवाह के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया

पीड़ित व्यक्ति, द्विविवाह का मामला थाने में या अदालत में दर्ज करा सकता है। ऐसी पीड़ित महिला के पिता भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 और धारा 495 के तहत भी शिकायत दर्ज कर सकते है। बाद के विवाह को शून्य घोषित करने का अनुरोध ऐसे बाद के विवाह के पक्ष द्वारा दर्ज किया जा सकता है, न कि पहले साथी द्वारा।

द्विविवाह अवैध क्यों है? 

  • जब पहले विवाह के मौजूद होते हुए द्विविवाह किया जाता है और पति या पत्नी के सामने तथ्यों का खुलासा नहीं किया जाता है, तो इसे अवैध माना जाता है।
  • जब कोई व्यक्ति अपने पिछली विवाह के तथ्य को छुपाता है और फिर से विवाह करता है, तो यह कपटपूर्ण कार्य का गठन करता है और इसलिए ऐसे में यह अवैध होता है।
  • पहला विवाह जो वैध है, उस के अस्तित्व के होने के मामले में जब एक व्यक्ति दूसरा विवाह करने के लिए आगे बढ़ता है तो दूसरा साथी उन अधिकारों से वंचित हो जाता है जो उस व्यक्ति को विवाह के दौरान कानून द्वारा प्राप्त हुए थे और कानून के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा प्रदान अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता है।

द्विविवाह और बहुविवाह के बीच अंतर

आधार  द्विविवाह बहुविवाह (पॉलीगेमी) 
अर्थ  जब कोई व्यक्ति, किसी अन्य व्यक्ति से विवाह करता है, इस तथ्य के बावजूद कि उसका कानूनी रूप से पहले ही विवाह हो चुका है। जब एक व्यक्ति के, एक समय में एक से अधिक जीवनसाथी होते हैं।
धार्मिक अभ्यास  यह कोई धार्मिक प्रथा नहीं है।
  • इसे एक धार्मिक प्रथा माना जाता है।
  • इसे ज्यादातर मुस्लिम धर्म में देखा जाता है।
ज्ञान
  • दूसरे पति या दूसरी पत्नी को पहले विवाह के बारे में शायद पता नहीं होता है।
  • पहले पति या पत्नी को उनके साथी के दूसरे विवाह के बाद ही इस बात का पता चलता है।
  • चूंकि उनमें से अधिकांश एक ही स्थान पर रहते हैं, तो वे इस तथ्य से अवगत होते हैं।
वैधता 
  • किसी भी देश में द्विविवाह कानूनी नहीं है।
  • लेकिन कुछ मामलों में जहां पहला विवाह, पहले ही भंग हो जाता है, वहां दूसरे विवाह को कानूनी माना जा सकता है 
  • भारत, पाकिस्तान, फिलीपींस आदि देशों में बहुविवाह को वैध माना जाता है। 
सज़ा 
  • भारत में, एक व्यक्ति जिसने द्विविवाह का अपराध किया है, उसे आई.पी.सी. की धारा 494 के तहत दोषी ठहराया जाता है।
सज़ा के प्रावधान यहां लागू नहीं होते हैं।
महत्त्वपूर्ण मामले भाऊराव शंकर लोखंडे व अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य।  जफर अब्बास रसूल मोहम्मद मर्चेंट बनाम स्टेट ऑफ गुजरात और अन्य। 

मुस्लिम बहुविवाह

इसका मूल (ओरिजिन)

  • उहुद की लड़ाई के बाद, यह देखा गया था कि कई मुसलमान पैगंबर के साथ-साथ इस्लाम के लिए लड़ते हुए मारे गए थे।
  • जिसकी वजह से कई महिलाएं बिना पति के रह गईं थी और उनके बच्चे अनाथ हो गए थे।

इस प्रकार अल्लाह उनकी पीड़ा के बारे में चिंतित थे और इसलिए बहुविवाह को निम्नानुसार पेश किया गया था।

  • मुस्लिम विवाह के कानून के अनुसार, एक पति की ज्यादा से ज्यादा चार पत्नियां हो सकती हैं।
  • भारत में मुस्लिम बहुविवाह को समाप्त नहीं किया गया है।
  • मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के अनुसार, एक मुस्लिम पुरुष को उसकी पिछली विवाह की वैधता की उपस्थिति में फिर से विवाह करने की अनुमति है।
  • बहुविवाह की वैधता कुरान के अध्याय 4 से आती है।
  • ज्यादातर जगहों पर, मुस्लिम बहुविवाह पत्नी की सहमति के बिना किया जाता है।
  • इस प्रकार, पाकिस्तान ने 1961 में मुस्लिम परिवार कानून अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) पास किया गया था, जिसमें एक पति को संघ परिषद (यूनियन काउंसिल) के अध्यक्ष से अनुमति लेने की आवश्यकता होती है, जो एक निर्वाचित (इलेक्टेड) स्थानीय सरकारी निकाय (बॉडी) है।
  • यह नियम आदमी को गुप्त तरीके से विवाह करने से रोकता है।
  • मुस्लिम कानून, एक आदमी को बहुविवाह की अनुमति देता है लेकिन साथ ही यह आदमी को अपनी पहली पत्नी को अपने साथ रखने के लिए मजबूर करने के लिए प्रतिबंधित करता है। 

ईसाई बहुविवाह

  • ओल्ड टेस्टामेंट के अनुसार बहुविवाह को स्पष्ट रूप से वर्जित किया गया है।
  • एक चर्च के धर्म मंत्री और विवाह रजिस्ट्रार वे अधिकारी हैं जो ईसाई विवाह का प्रबंधन (एडमिनिस्टर) करते हैं।
  • प्रावधान के मुताबिक विवाह के दो मापदंड (क्राईटेरिया) होते हैं: 
    • उस व्यक्ति का विवाह पहली बार होना चाहिए।
    • विवाह करने वाले व्यक्ति का कोई जीवित जीवनसाथी नहीं होना चाहिए।
  • लेकिन मौजूदा विवाह का कोई दायरा नहीं है।
  • और जो व्यक्ति झूठी शपथ लेता है और अपने पिछले विवाह और जीवित पति या पत्नी के बारे में तथ्य को छुपाता है, उसे आई.पी.सी. की धारा 193 के तहत दंडित किया जाता है।

धर्म परिवर्तन और द्विविवाह – कानूनी विरोधाभास (पैराडॉक्स)

जैसा कि ऊपर बताया गया है की हिंदू कानून द्विविवाह पर सख्ती से रोक लगाता है, इसलिए हिंदू धर्म के पुरुषों ने अपने पहले विवाह के चलते हुए भी, फिर से विवाह करने में सक्षम होने के लिए इस्लाम में परिवर्तित होना शुरू कर दिया। चूंकि ये लोग इस्लाम में परिवर्तित हो गए थे, जहां बहुविवाह की प्रथा की अनुमति दी गई है, वे हिंदू कानून के प्रावधानों से उत्पन्न होने वाले कानूनी परिणामों से आसानी से बच सकते थे, जो द्विविवाह को दंडित करते हैं।

सरला मुद्गल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1995) के ऐतिहासिक मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस सवाल पर विचार किया कि क्या इस्लाम में परिवर्तित होने के बाद दूसरा विवाह करना वैध माना जाएगा या नहीं और यदि नहीं, माना जाएगा तो क्या ऐसे व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 के अनुसार द्विविवाह के लिए दंडित किया जाएगा या नहीं। इस मामले पर नीचे विस्तार से चर्चा की गई है:

सरला मुद्गल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 

हमारा संविधान किसी भी धर्म को मानने और पालन करने की स्वतंत्रता देता है, जिसमें किसी भी ऐसे अन्य धर्म में परिवर्तित होने की स्वतंत्रता भी शामिल की गई है, जो किसी व्यक्ति को जन्म से नहीं सौंपा गया था। हालांकि, विभिन्न धर्मों और व्यक्तिगत कानूनों के साथ, इस प्रावधान का कभी-कभी दुरुपयोग किया जाता है। आई.पी.सी. के तहत द्विविवाह सभी धर्मों के लिए दंडनीय है, सिवाय उन जनजातियों या समुदायों के जिनके व्यक्तिगत कानून बहुविवाह की अनुमति देते हैं, जैसे कि मुस्लिम कानून। द्विविवाह का अभ्यास करने के लिए, एक व्यक्ति को केवल अपने धर्म को त्यागने की जरूरत होती है और इस्लाम को अपनाना होता है। ऐसा करने वाले पुरुषों के उदाहरण बहुत आम हैं। पारसी विवाह और तलाक अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम के तहत, किसी भी पक्ष का दूसरा विवाह शून्य है यदि पहला विवाह पहले से ही इस अधिनियम के तहत अस्तित्व में है। दूसरे शब्दों में, किसी अन्य धर्म में परिर्वतन के बाद द्विविवाह की अनुमति देने वाला दूसरा विवाह मान्य नहीं होता है। हालांकि , हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 ने धर्म परिर्वतन के बाद विवाह करने वाले व्यक्ति की स्थिति को निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) नहीं किया है। इसमें यह घोषित किया गया है कि दो हिंदुओं के बीच बाद में किया गया विवाह शून्य होता है यदि उनका साथी जीवित होता/ होती है और उन्होंने उस समय तलाक नहीं लिया है। सरला मुद्गल और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के ऐतिहासिक मामले में इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा लंबी जांच की गई थी, और इस मामले ने कानून का उल्लंघन करके धर्म बदलने वाले लोगों के अधिकारों, कर्तव्यों और दायित्वों से संबंधित अस्पष्टता को भी सुलझाया गया है। अदालत ने माना कि धर्म परिवर्तन किसी व्यक्ति को कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने और द्विविवाह करने की अनुमति नहीं देता है। इस मामले का विस्तृत विश्लेषण नीचे दिया गया है।

मामले के तथ्य

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में चार याचिकाएं दायर की गईं थी, जिन पर एक साथ सुनवाई हुई थी। सबसे पहले, रिट याचिका 1079/89 में जहां दो याचिकाकर्ता थे। याचिकाकर्ता 1, सरला मुद्गल थीं, जो कल्याणी नामक एक पंजीकृत (रजिस्टर्ड) सोसायटी, जो एक गैर लाभकारी संगठन था, की अध्यक्ष थीं, जो जरूरतमंद परिवारों और परेशानी में रह रहीं महिलाओं की मदद के लिए काम करती थी। याचिकाकर्ता 2, मीना माथुर थीं, जिनका विवाह 1978 में जितेंद्र माथुर के साथ हुआ था और उनके तीन बच्चे भी थे। याचिकाकर्ता 2 को पता चला कि उनके पति ने एक अन्य महिला, सुनीता नरूला उर्फ ​​फातिमा से विवाह कर लिया था, जब वे दोनों ने खुद को इस्लाम में परिवर्तित कर लिया था। उनका तर्क यह था कि उनके पति का इस्लाम में धर्म परिवर्तन  केवल सुनीता से विवाह करने के लिए किया गया था, जिससे आई.पी.सी. की धारा 494 से बचा जा सके। प्रतिवादी का दावा था कि इस्लाम में परिवर्तित होने के बाद, उसकी चार पत्नियां हो सकती हैं, इस तथ्य के बावजूद कि उसकी पहली पत्नी हिंदू बनी हुई थी।
  • एक अन्य याचिका सुनीता नरूला उर्फ ​​फातिमा द्वारा दायर की गई थी, जिसे रिट याचिका 347/1990 के रूप में पंजीकृत किया गया था, जिसमें उसने तर्क दिया था कि उसने और प्रतिवादी ने विवाह करने के लिए इस्लाम धर्म को अपना लिया था, और उस विवाह से एक बच्चे का जन्म भी हुआ था। हालांकि, मीना माथुर के प्रभाव में, प्रतिवादी ने 1988 में एक वचन दिया था, कि वह वापस हिंदू धर्म में परिवर्तित हो जाएगा और अपनी पहली पत्नी और तीन बच्चों का भरण पोषण (मेंटेन) करेगा। लेकिन क्योंकि वह मुस्लिम बन गई है, इसलिए उसका भरण पोषण उसके पति द्वारा नहीं किया जा रहा था और किसी भी व्यक्तिगत कानून के तहत उसे कोई सुरक्षा नहीं दी गई थी।
  • तीसरा, शीर्ष अदालत में रिट याचिका 424/1992 के रूप में पंजीकृत एक याचिका दायर की गई थी। याचिकाकर्ता गीता रानी का विवाह 1988 में हिंदू रीति रिवाज में प्रदीप कुमार के साथ हुआ था। दिसंबर 1991 में, याचिकाकर्ता को पता चला कि उसके पति ने इस्लाम धर्म अपना लिया है और दूसरी महिला दीपा से विवाह कर लिया है। याचिकाकर्ता का दावा था कि इस्लाम में धर्म परिवर्तन का एकमात्र उद्देश्य दूसरे विवाह को सुविधाजनक बनाना था।
  • अंत में, सुष्मिता घोष, जो सिविल रिट याचिका 509/1992 में याचिकाकर्ता थीं, उन्होंने 1984 में हिंदू संस्कारों के अनुसार जी.सी. घोष के साथ विवाह किया था। 1992 में, उसके पति/प्रतिवादी ने उसे आपसी सहमति से तलाक के लिए सहमत होने के लिए कहा क्योंकि वह अब उसके साथ नहीं रहना चाहता था। याचिकाकर्ता चौंक गई, और जब उसने उससे और पूछताछ की, तो उसने खुलासा किया कि उसने इस्लाम धर्म अपना लिया है और वह विनीता गुप्ता से विवाह करेगा। रिट याचिका में, उसने प्रार्थना की कि उसके पति को दूसरे विवाह में प्रवेश करने से रोका जाना चाहिए।

मुद्दे

  • क्या हिंदू कानून के तहत विवाहित एक हिंदू पति, इस्लाम धर्म अपनाकर दूसरा विवाह कर सकता है?
  • क्या कानून के तहत पहले विवाह को भंग किए बिना ऐसा विवाह वैध विवाह होगा क्योंकि जो पहली पत्नी है वह अब भी हिंदू बनी हुई है?
  • क्या धर्म को त्यागने वाला पति आई.पी.सी. की धारा 494 के तहत अपराध का दोषी होगा?

दोनों पक्षों की ओर से दिए गए तर्क

याचिकाकर्ताओं की तरफ से दिए गए तर्क

सभी याचिकाकर्ताओं ने सामूहिक रूप से तर्क दिया कि प्रतिवादियों ने आई.पी.सी. की धारा 494 के तहत दिए गए द्विविवाह के प्रावधानों का उल्लंघन किया है और अन्य महिलाओं के साथ दूसरा विवाह करने के लिए खुद को इस्लाम में परिवर्तित कर लिया है।

प्रतिवादियो की तरफ से दिए गए तर्क

सभी याचिकाओं में प्रतिवादियो ने एक आम तर्क पर जोर दिया कि एक बार जब वे इस्लाम में परिवर्तित हो जाते हैं, तो उनकी पहली पत्नी होने के बावजूद उनकी चार पत्नियां हो सकती हैं, जो हिंदू बनी रहती हैं। इस प्रकार, वे हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और आई.पी.सी. के तहत दिए गए प्रावधानों के अधीन नहीं हैं।

निर्णय

अदालत ने सभी मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की और निम्नलिखित निर्धारित किया:

  • जब हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत एक विवाह होता है, तो दोनों पक्षों द्वारा कुछ अधिकार और दर्जा हासिल कर लिया जाता है, और यदि एक पक्ष को एक नया व्यक्तिगत कानून अपनाने और लागू करके विवाह को भंग करने की अनुमति दी जाती है, तो यह उस जीवनसाथी के मौजूदा अधिकारों को नष्ट कर देता है, जो अभी भी हिंदू है। अधिनियम के तहत किए गए विवाह को उसी अधिनियम की धारा 13 के तहत दिए गए आधारों को छोड़कर भंग नहीं किया जा सकता है। जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक न तो दोबारा विवाह कर सकते हैं। इसलिए, धर्म को त्यागने वाले का दूसरा विवाह उसकी पत्नी के लिए अवैध विवाह होगा, जिसने अधिनियम के तहत उससे विवाह किया और जो अब भी हिंदू है। निर्णय में आगे कहा गया था कि इस तरह का विवाह न्याय, समानता और अच्छे विवेक का उल्लंघन है। इसने कानून की दो प्रणालियों के सामंजस्यपूर्ण (हार्मोनियस) कामकाज की आवश्यकता पर भी जोर दिया, उसी तरीके से जैसे की दो समुदायों के बीच सद्भाव लाया गया था।
  • दूसरा तर्क जो, अदालत ने आगे बताया वह यह कि धर्म को त्यागने वाला पति आई.पी.सी. की धारा 494 के तहत दोषी होगा। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और भारतीय दंड संहिता में प्रयुक्त अभिव्यक्ति ‘शून्य’ के अलग-अलग उद्देश्य हैं। इस्लाम में धर्म परिवर्तन करके फिर से विवाह करने से, अधिनियम के तहत पिछले हिंदू विवाह को भंग नहीं किया जा सकता है, लेकिन यह तलाक का आधार होगा। हालांकि, उपरोक्त में विस्तार से वर्णित धारा 494 के अवयवों (इंग्रेडिएंट्स) से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दूसरा विवाह शून्य होगा और धर्म को त्यागने वाले पति को आई.पी.सी. के तहत दोषी माना जाएगा।
  • अंत में, अदालत ने भारतीय कानूनी प्रणाली में समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) (इसके बाद यू.सी.सी.) की आवश्यकता की वकालत की, जो भारतीयों को एक दूसरे के व्यक्तिगत कानून का उल्लंघन करने से रोकेगा। अदालत ने भारत सरकार को कानून और न्याय मंत्रालय के सचिव (सेक्रेटरी) के माध्यम से भारत के नागरिकों के लिए एक यू.सी.सी. हासिल करने की दिशा में भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में एक हलफनामा (एफिडेविट) दायर करने का निर्देश दिया।

असहमतिपूर्ण  राय

मामले के अनुपात (रेश्यो डिसीडेंडी) के बारे में कोई असहमतिपूर्ण राय नहीं थी कि इस्लाम में परिवर्तित होने के बाद दूसरा विवाह आई.पी.सी. के तहत शून्य और दंडनीय है, और यह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत पहले विवाह को भंग नहीं करता है। हालांकि, मामले के ओबिटर डिक्टा में, जिसमें शीर्ष अदालत ने संघर्ष से बचने के लिए भारतीय कानूनी प्रणाली में यू.सी.सी. के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) की सलाह दी थी, माननीय न्यायमूर्ति आर.एम. सहाय ने इसका विरोध किया था।  उनका तर्क था कि:

  • यू.सी.सी. के कार्यान्वयन से अच्छा होने की वजह ज्यादा बुरा होगा। इससे विभिन्न धर्मों में असंतोष और विघटन (डिसइंटीग्रेशन) होगा। भारत का संविधान किसी भी धर्म को मानने की स्वतंत्रता को कायम रखता है, और नागरिकों पर यू.सी.सी. थोपना मनमाना और असंवैधानिक होगा।
  • इसके अलावा, एक समान व्यक्तिगत कानून तभी निर्धारित किया जा सकता है जब सभी धर्मों के लोगों के बीच सामंजस्य हो, और जब उनके धर्म को खतरा महसूस न हो।
  • उन्होंने सरकार से किसी भी धर्म द्वारा धर्म के दुरुपयोग को रोकने के लिए ‘धर्म परिवर्तन अधिनियम’ को लागू करने के लिए एक समिति स्थापित करने की भी सिफारिश की थी। यह अधिनियम सभी नागरिकों पर उनके धर्म के बावजूद बाध्यकारी होगा और विवाह के लिए धर्म परिवर्तन पर रोक लगाएगा। उत्तराधिकारियों के बीच हितों के टकराव से बचने के लिए भरण पोषण और उत्तराधिकार (सक्सेशन) के प्रावधान भी प्रदान किए जाएंगे।

 

मामले के बाद का विकास 

लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया

2000 में, लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरला मुद्गल के फैसले की समीक्षा (रिव्यू) की गई थी, इस आधार पर कि विवादित मामले में निर्णय, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20, 21, 25 और 26 के तहत जीवन और स्वतंत्रता और किसी भी धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है। 

अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता का यह तर्क कि सरला मुद्गल का निर्णय अंतरात्मा (कॉन्सिएंस) की स्वतंत्रता और संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत धर्म के स्वतंत्र पालन, अभ्यास और प्रचार (प्रोपेगेशन) की गारंटी का उल्लंघन है, बहुत ही अस्वभाविक है और इस चीज का सहारा वहीं लोग लेते है जो कानून से बचने के लिए धर्म की आड़ में छिप जाते हैं।

अदालत ने आगे कहा कि संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत गारंटीकृत स्वतंत्रता ऐसी स्वतंत्रता है जो अन्य व्यक्तियों की समान स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं करती है। याचिका में यह भी दावा किया गया था कि धर्म परिर्वतन करने वालों को बहुविवाह करने के लिए उत्तरदायी बनाना इस्लाम के खिलाफ होगा। शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ताओं की अज्ञानता को देखा और कहा कि इस्लामी कानून के तहत भी, पैगंबर मोहम्मद द्वारा विवाह की शुद्धता को बरकरार रखा गया था।

आधुनिक (मॉडर्न) अर्थों में इस्लामी कानून की व्याख्या अपने धर्म में इस तरह के कार्यों की अनुमति कभी नहीं देगी। इस्लाम एक प्रगतिशील (प्रोग्रेसिव), पवित्र और सम्मानित धर्म है जिसे एक संकीर्ण (नैरो) अवधारणा नहीं दी जा सकती जैसा कि याचिकाकर्ताओं द्वारा कथित तौर पर किया गया है।

धर्म परिवर्तन की स्वैच्छिक कानूनी घोषणा पर विधि आयोग (लॉ कमीशन) 

2010 में भारत के विधि आयोग की 235वीं रिपोर्ट में किसी व्यक्ति के धर्म परिवर्तन की घोषणा करने के लिए एक स्वैच्छिक कानूनी प्रक्रिया की सिफारिश की गई थी। प्रक्रिया धर्म परिवर्तन पर किसी व्यक्ति की कानूनी स्थिति के बारे में विवादों से बचने में मदद कर सकती है। आयोग द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के बारे में नीचे संक्षेप में चर्चा की गई है:

  • धर्म परिवर्तित व्यक्ति, विवाह पंजीकरण के लिए जिम्मेदार प्राधिकारी को एक महीने के भीतर धर्म परिवर्तन की घोषणा भेज सकता है। पुष्टि की तारीख तक कार्यालय के नोटिस बोर्ड पर घोषणा को प्रदर्शित किया जाएगा।
  • घोषणा में उस धर्म का उल्लेख किया जाएगा जिससे मूल रूप से धर्म परिवर्तन किया गया था और जिस धर्म में वह परिवर्तित हुआ था। व्यक्ति की वैवाहिक स्थिति के साथ- साथ दिनांक, परिवर्तन के स्थान का उल्लेख करना अनिवार्य होगा।
  • परिवर्तनकर्ता 21 दिनों के भीतर पंजीकरण कार्यालय में घोषणा का सत्यापन (वेरिफाई) करेगा, और अधिकारी इसे पुष्टि और आपत्ति, यदि कोई हो, के साथ आपत्तिकर्ता के विवरण के साथ दर्ज करेगा। रजिस्टर से घोषणा, पुष्टि, आपत्ति और उद्धरणों (एक्सट्रैक्ट) की प्रतियां परिवर्तनकर्ता को भेजी जाएंगी।

लेखक सम्मानपूर्वक अनुरोध करता है कि विधि आयोग द्वारा दी गई प्रक्रिया निम्नलिखित कारणों से स्थापित होने पर प्रभावी नहीं होगी:

  • यह एक स्वैच्छिक प्रक्रिया है जिससे अधिकांश धर्म परिवर्तन कर रहे लोग परहेज करेंगे। विवाह के अनिवार्य पंजीकरण की तरह धर्म परिवर्तन की अनिवार्य घोषणा का पालन किया जाना चाहिए।
  • आयोग द्वारा निर्धारित प्रक्रिया अप्रचलित (ऑब्सोलीट) है। प्रक्रिया के कामयाब होने के लिए, एक ऑनलाइन घोषणा प्रक्रिया के बारे में सोचा जा सकता है, क्योंकि कार्यालय के नोटिस बोर्ड में घोषणा का ऑफ़लाइन प्रदर्शन व्यावहारिक नहीं है। यह प्रक्रिया धर्मांतरित और आपत्ति, यदि कोई हो, दोनों के लिए सहायक हो सकती है।
  • आयोग द्वारा निर्धारित ऑफ़लाइन प्रक्रिया को उन लोगों के लिए विकल्प के रूप में अपनाया जाना चाहिए जो इसे ऑफ़लाइन पंजीकृत करना चाहते हैं।

भारत में दूसरी पत्नी की स्थिति 

वर्तमान समय में भी, जब हम अपने समाज में दूसरी पत्नियों की स्थिति के बारे में सोचते हैं तो कई नकारात्मक (नेगेटिव) पहलू सामने आते हैं। ये विवाह की मान्यता की कमी, लोगों से शर्म और घृणा को सहन करने का बोझ, अपने बच्चों को कानूनी दर्जा न दे पाने का दर्द जिसमें संपत्ति के उत्तराधिकार की समस्या शामिल है, आदि के कारण हो सकता है।

भारतीय दंड संहिता, 1860 द्विविवाह को सख्ती से प्रतिबंधित करती है और इस कारण से दूसरी पत्नी के लिए कानूनी मान्यता प्राप्त करने की कोई संभावना नहीं है, हालांकि, उसके विवाह  की परिस्थितियों के अनुसार, उसे कुछ अधिकार और कानूनी समर्थन दिया जा सकता है। एक उदाहरण जहां दूसरी पत्नी अधिकारों और कानूनी समर्थन का दावा कर सकती है, वह यह है जब पति अपने पहले विवाह के तथ्य को छुपाता है। ऐसे में दूसरी पत्नी का पति भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 495 के तहत उत्तरदायी होगा।

दूसरी पत्नी का भरण पोषण

दूसरे विवाह के प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) मामले में, यह पहली बार प्रतीत हो सकता है कि दूसरा विवाह कानूनों के अनुसार शून्य और अमान्य है और इस प्रकार दूसरी पत्नी किसी भी भरण पोषण के लिए हकदार नहीं होगी, लेकिन माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक मामले, पाइला मुत्यालम्मा @ सत्यवती बनाम पाइला सूरी डेमुडु और अन्र (2011) के माध्यम से कहा कि दूसरी पत्नी भी अपने पति से भरण पोषण का दावा कर सकती है। इसमें आगे कहा गया कि विवाह की वैधता के आधार पर भरण-पोषण के दावे को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।

उपरोक्त मामले में, अपीलकर्ता पाइला मुत्यालम्मा उर्फ ​​सत्यवती प्रतिवादी पाइला सूरी डेमुडु की दूसरी पत्नी थी। दोनों पक्षों ने वर्ष 1974 में हिंदू रीति रिवाजों के अनुसार एक मंदिर में विवाह किया था। उनके तीन बच्चे थे और उनके विवाह के 25 साल बाद, प्रतिवादी ने उसे छोड़ दिया। दोनों पक्षों को सुनने के बाद, आंध्र प्रदेश में निचली अदालत ने भरण पोषण के रूप में 500 / – रुपये से सम्मानित किया और प्रतिवादी की अपील पर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए आदेश को रद्द कर दिया कि चूंकि अपीलकर्ता प्रतिवादी की दूसरी पत्नी थी, इसलिए वह भरण पोषण के लिए हकदार नहीं थी। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश से परेशान होकर अपीलार्थी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की।

सर्वोच्च न्यायालय  ने कहा कि अगर दूसरी पत्नी को उसके पति ने छोड़ दिया है, तो वह विवाह की वैधता के बावजूद, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत उससे भरण पोषण पाने की हकदार होगी। सी.आर.पी.सी. की धारा 125 डी फैक्टो विवाह पर लागू होती है न कि डी ज्यूरे विवाह पर। इसलिए, यदि सी.आर.पी.सी. की धारा 125 की अन्य आवश्यकताएं पूरी हो रहीं हैं तो विवाह की वैधता भरण पोषण से इनकार करने का आधार नहीं हो सकती है। वर्तमान मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दूसरी पत्नी की अपील को स्वीकार कर लिया और निचली अदालत के उस आदेश को बहाल (रिस्टोर) कर दिया जिसने उसे भरण पोषण के रूप में 500/- रुपये दिए थे।

पिता की संपत्ति पर दूसरे विवाह से पैदा हुए बच्चों के अधिकार

दूसरे विवाह से पैदा हुए बच्चों को अपने पिता की संपत्ति का अधिकार होगा। रेवनसिद्दप्पा बनाम मल्लिकार्जुन (2011) के मामले में, यह माना गया था कि दूसरे विवाह से पैदा हुए बच्चों को अपने पिता की पैतृक संपत्ति का अधिकार होता है। इसके अलावा, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16(3) के तहत एक नाजायज बच्चे के संपत्ति के अधिकार पर किसी प्रतिबंध का उल्लेख नहीं किया गया है। हालांकि, ऐसे संपत्ति के अधिकार केवल ऐसे नाजायज बच्चों के माता-पिता की संपत्ति तक ही विस्तारित होते हैं। इस प्रकार, ऐसे बच्चों का अपने माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार होगा चाहे वह खुद से अर्जित (एक्वायर) हो या पैतृक हो।

विद्याधारी और अन्य बनाम सुखराना बाई और अन्य (2008), के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह आयोजित किया गया था कि दूसरे विवाह से पैदा हुए बच्चे अपने पिता की संपत्ति में हिस्से के हकदार हैं, हालांकि दूसरा विवाह शून्य है। यदि कोई व्यक्ति अपने पहले विवाह के निर्वाह के दौरान दूसरी बार विवाह करता है, तो ऐसे विवाह से पैदा हुए बच्चे अभी भी वैध होंगे।

दूसरे विवाह मे शामिल होने के लिए उकसाना अपराध होगा या नहीं?

दूसरा विवाह में शामिल होने के लिए उकसाना अपराध नहीं होगी क्योंकि इस तरह के दूसरे विवाह के होने के दौरान उपस्थित लोगों की ओर से कोई उकसावे या प्रारंभिक कार्य मौजूद नहीं है। मंजू वर्मा और अन्य बनाम राज्य और अन्य (2012), के मामले में यह माना गया था कि दूसरे विवाह में केवल कुछ लोगो की उपस्थित को उकसाने का अपराध नहीं माना जाएगा क्योंकि ऐसे उपस्थित लोगों या रिश्तेदारों की ओर से द्विविवाह के लिए समर्थन, तैयारी या सक्रिय सुझाव (एक्टिव सजेशन) की कमी थी।

इसके अलावा, मुथम्मल और अन्य बनाम मारुथथल (1981) के मामले में, यह माना गया था कि केवल जब यह साबित करने के लिए सबूत हैं कि उपस्थित लोगों ने वास्तव में द्विविवाह के अपराध के लिए मुख्य अपराधी के कार्यों को उकसाया या उत्तेजित किया है, तभी ऐसे लोगों को दूसरे विवाह के लिए उकसाने के लिए उत्तरदायी ठहराया जाएगा।

लिव-इन रिलेशनशिप और द्विविवाह

लंबे समय से भारतीय समाज में लिव-इन रिलेशनशिप को वर्जित माना जाता रहा है और ऐसे रिश्तों को स्वीकार न करने के मुख्य कारक कानूनी मान्यता की कमी, विवाह पूर्व शारिरिक संबंध और नाजायज बच्चे हैं। लेकिन यहां मुख्य सवाल यह है कि क्या लिव-इन रिलेशनशिप पर द्विविवाह विरोधी कानून लागू होते हैं या नहीं। द्विविवाह का अपराध लिव-इन रिलेशनशिप तक विस्तृत नहीं है क्योंकि दोनों पक्षों के बीच कानूनी रूप से वैध विवाह अनुबंधित होने की कोई उपस्थिति नहीं है।

खुशबू बनाम कन्नियाम्मल और अन्य (2010) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब एक पुरुष और महिला बिना विवाह के साथ रहते हैं, तो इसे अपराध नहीं माना जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना था कि ऐसा कोई कानून नहीं है जो लिव-इन रिलेशनशिप या विवाह से पहले शारीरिक संबंधों को प्रतिबंधित करता हो।

इसके अलावा, तुलसी बनाम दुर्गटिया और अन्य (2008) के मामले में, यह माना गया था कि लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चों को नाजायज नहीं माना जाना चाहिए। हालांकि, कुछ शर्तें हैं जैसे कि माता-पिता को एक छत के नीचे काफी समय तक सहवास करना चाहिए ताकि समाज उन्हें पति और पत्नी के रूप में पहचान सके, यानी यह समझ सके की ऐसे जोड़े के बीच विवाह का अनुमान है। एक और महत्वपूर्ण मामला जब लिव-इन रिलेशनशिप की बात आती है तो वह रमेशचंद्र डागा बनाम रामेश्वरी डागा (2004) का मामला है, जिसने अवैध विवाह या ऐसे अन्य अनौपचारिक (इनफॉर्मल) संबंधों में बंधी महिलाओं के भरण पोषण के अधिकारों को मान्यता दी और उन्हें बरकरार रखा।

गोवा में द्विविवाह

  • कोई भी मुस्लिम व्यक्ति जिसने गोवा में अपने विवाह का पंजीकरण कराया है, उसे बहुविवाह करने की अनुमति नहीं है।
  • लेकिन गोवा कुछ मामलों में बहुविवाह और द्विविवाह की अनुमति देता है जैसे कि
    • जब पिछले विवाह से पत्नी बच्चे को जन्म देने में सक्षम नहीं होती है और वह 25 वर्ष की आयु तक पहुंच जाती है।
    • जब पिछले विवाह से पत्नी 30 वर्ष की आयु पूरी करने के बाद भी एक बालक को जन्म देने में सक्षम नहीं होती है।
    • जब गोवा नागरिक संहिता के प्रावधानों के अनुसार पिछले विवाह को भंग कर दिया जाता है।

समान नागरिक संहिता

यू.सी.सी. के इतिहास का पता 1950 के दशक से लगाया जा सकता है, जब नव स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू, हिंदू संहिता बिल के तहत इस तरह के संहिता को लागू करना चाहते थे। इस बिल में एक विवाह की अवधारणा, हिंदू संयुक्त परिवार व्यवसाय में बेटियों को विरासत, तलाक आदि को  विभिन्न आलोचनाएं मिलीं। चूंकि यह अधिनियम केवल हिंदुओं पर लागू होता था, अन्य धर्मों और जनजातियों को उनके कानूनों के तहत शासित होने के लिए छोड़ दिया गया था।

इसके अलावा, इसे संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के रूप में स्थापित किया गया था ताकि नागरिकों के लिए भारत के पूरे क्षेत्र में एक यू.सी.सी. सुरक्षित हो सके। हालांकि, 1985 में शाह बानो का मामला सामने आने तक यू.सी.सी. के बारे में चर्चा और बहस बंद हो गई थी। इस मामले में न्यायपालिका द्वारा यू.सी.सी. की दिशा में एक निरर्थक (फ्यूटाइल) प्रयास किया गया, जिसे भारत सरकार ने नजरअंदाज कर दिया और मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पास कर दिया। 

यू.सी.सी. की अगली चर्चा सरला मुद्गल मामले में हुई, जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। 21वीं सदी में न्यायपालिका द्वारा यू.सी.सी. को लागू करने पर लगातार चर्चा होती रही है, जो अब तक नाकाम साबित हुई है। शायरा बानो बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के हाल के ऐतिहासिक फैसले में, जिसने तलाक-उल-बिद्दत या तीन बार तालक की प्रथा को अमान्य कर दिया था, उसमें भी यू.सी.सी. की विषय-वस्तु पर विस्तार से चर्चा की गई थी। हालांकि, धार्मिक समुदायों के विरोध के कारण या राजनीतिक प्रतिक्रिया के डर के कारण संसद द्वारा इसके कार्यान्वयन की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है।

निष्कर्ष

द्विविवाह एक व्यक्ति से विवाह करने का कार्य है जब वह व्यक्ति पहले से ही कानूनी रूप से किसी दूसरे व्यक्ति से विवाहित है। भारतीय कानूनी प्रणाली इसे तभी मान्यता देती है जब एक पुरुष और एक महिला के बीच वैध विवाह होता है। भारतीय दंड संहिता, 1860 धारा 494 के तहत द्विविवाह की व्याख्या करती है। उक्त प्रावधान में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जिसकी पहले से ही पत्नी या पति जीवित है, और ऐसी पत्नी या पति से कानूनी रूप से विवाहित होने के दौरान वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाह करने के लिए आगे बढ़ता है, तो उसे किसी भी प्रकार के कारावास से दंडित किया जाएगा जो सात साल तक का हो सकता है, और वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा। इसके अलावा, इस तरह के विवाह को किसी भी मामले में शून्य माना जाएगा। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 495 आगे द्विविवाह के अपराध के बारे में बात करती है, लेकिन इसमें छुपाने का दोष भी शामिल है। जब कोई व्यक्ति अपने पूर्व विवाह के तथ्य को उस व्यक्ति से छुपाकर द्विविवाह का कार्य करता है जिसके साथ उसने अपने दूसरे विवाह का अनुबंध किया है तो ऐसा व्यक्ति धारा 495 के तहत उत्तरदायी होगा। इस प्रकार कई कानून प्रदान किए गए हैं जो इस प्रथा को प्रतिबंधित करने की कोशिश करते हैं।

आगे इस लेख में लिव इन रिलेशनशिप पर भी बात की गई है जहां हाल ही में लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता दी गई थी, लेकिन यदि एक व्यक्ति जो किसी अन्य व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध बना रहा है, जबकि उसका पहला विवाह अभी भी चल रहा है, तो उसको भारत में द्विविवाह के रूप में स्वीकार किया जाना बाकी है। प्रणाली में यू.सी.सी. को शामिल करना धर्मनिरपेक्षता (सेक्युलर) की दिशा में एक कदम है, और विधायिका इसे भारतीय कानूनी ढांचे में अधिनियमित करने के लिए कदम उठाएगी। प्रोफेसर एच.एल.ए. हार्ट ने आधुनिक विश्लेषणात्मक कानूनी प्रत्यक्षवाद (एनालिटिकल लीगल पॉजिटिविज्म) के सिद्धांत को प्रतिपादित (प्रोपाउंड) किया, जहां उन्होंने एक स्थिर और गैर-स्थिर समाज में अंतर बताया था। सभ्यता को आगे बढ़ाने के लिए दोनों समाजों में परिवर्तन के नियम को प्राथमिक सिद्धांतों के साथ लागू किया जाना चाहिए।

इस प्रकार, द्विविवाह के अपराध को रोकने और दंडित करने के लिए कड़े कानूनों का होना महत्वपूर्ण है, इस प्रकार भारतीय दंड संहिता, 1860 की उपस्थिति लोगों को द्विविवाह के अपराध के लिए लाइसेंस के रूप में धर्म के परिर्वतन का उपयोग करने से रोकने के लिए आवश्यक है। यह कानून के लिए मौलिक है कि वह समाज में बदलाव के साथ तालमेल बिठाए। इस प्रकार, भारत में द्विविवाह और व्यक्तिगत कानूनों में सुधार आधुनिक भारतीय समाज की आवश्यकता के अनुरूप उचित है।

संदर्भ

  • MANU/SC/0068/1965
  • MANU/GJ/1225/2015
  • Itwari vs. Asghari and Ors.  MANU/UP/0196/1960
  • MANU/SC/0290/1995

 

 

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