भारतीय कानून में प्राकृतिक कानून सिद्धांतों की प्रयोज्यता

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यह लेख विधि संकाय, जागरण लेक सिटी यूनिवर्सिटी से बी.ए. एलएलबी (ऑनर्स), की पढ़ाई कर रही Kashish Khurana द्वारा लिखा गया है। इस ब्लॉग पोस्ट मे प्राकृतिक कानून सिद्धांत और उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सिद्धांतों की चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

परिचय

माना जाता है कि सामाजिक न्याय की खोज और मुक्ति की खोज प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों से ही पूरी होती है। ये सिद्धांत अलग-अलग समय और अलग-अलग स्थानों पर शांति, सद्भाव और न्याय को बढ़ावा देने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। प्राकृतिक कानून के सिद्धांत व्यक्तियों और समाज को समाज के अपराधियों के साथ-साथ राजा राज्य के प्रतिनिधियों के अन्याय, अत्याचार और कुशासन से बचाने के लिए हैं।

राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों कानूनों की उत्पत्ति प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों में निहित है। यह इसकी सार्वभौमिक प्रकृति के कारण है। ये राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानून प्राकृतिक कानून के इन सिद्धांतों से अपना बल और अधिकार प्राप्त करते हैं। यह समाज के सभी व्यक्तियों और समूहों को नियंत्रित करते है और उनके अधिकारों और हितों की रक्षा करता है।

इन सिद्धांतों के परिणामस्वरूप कानून के विभिन्न डोमेन बने हैं। मानवाधिकार दर्शन और सामाजिक-आर्थिक न्याय का विकास ऐसे विकास के दो उदाहरण हैं। यह ऐसे विभिन्न पहलुओं को बढ़ावा देने के लिए उत्प्रेरक (कैटलिस्ट) के रूप में कार्य कर रहा है जो सामाजिक न्याय प्रदान करने के उद्देश्य को पूरा करते हैं।

प्राकृतिक कानून – अर्थ एवं परिभाषा

‘प्राकृतिक कानून’ शब्द दूसरों के विपरीत कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं रखता है। न्यायविदों की अलग-अलग व्याख्याओं के साथ-साथ इस शब्द का अर्थ और परिभाषा भी भिन्न-भिन्न है।  ऐसी व्याख्याएँ मुख्यतः कानूनी विचारों और प्रणालियों के विकास पर निर्भर करती हैं। 

आर.डब्ल्यू.एम डायस के अनुसार, प्राकृतिक कानून एक ऐसा कानून है जो राज्य या उसकी एजेंसियों द्वारा पहले से प्रख्यापित (प्रोमुलगेटेड) कानून से, जीवित और जैविक गुणों द्वारा विभेदित, अपने स्वयं के अंतर्निहित मूल्यों से अपनी वैधता प्राप्त करता है। इसके अलावा, कोहेन ने प्राकृतिक कानून को चीजों को देखने का एक तरीका और न्यायाधीशों और न्यायविदों का मानवतावादी दृष्टिकोण बताया, और अदालतों द्वारा लागू किए गए वास्तविक अधिनियमित या व्याख्या किए गए कानून का निकाय नहीं। ब्लैकस्टोन ने प्राकृतिक कानून की प्रकृति को निम्नलिखित शब्दों में आगे बढ़ाया, ‘प्राकृतिक कानून मानव जाति के साथ सह-अस्तित्व में है और स्वयं ईश्वर से उत्पन्न होता है, अन्य सभी कानूनों से बेहतर है। यह हर समय सभी देशों के लिए बाध्यकारी है और कोई भी मानव निर्मित कानून वैध नहीं होगा यदि यह प्रकृति के कानून के विपरीत है।’

समग्रता में, न्यायशास्त्र के पहलू से प्राकृतिक कानून का अर्थ किसी ऐसे स्रोत से विकसित नियमों और सिद्धांतों के रूप में समझा जा सकता है जिसे किसी राजनीतिक प्राधिकरण (अथॉरिटी) से उत्पन्न होने के बजाय सर्वोच्च माना जाता है। इस न्यायशास्त्रीय पहलू के बावजूद, विभिन्न न्यायशास्त्री शब्दावली के बारे में अलग-अलग राय रखते हैं। उनमें से कुछ का मानना है कि प्राकृतिक कानून की उत्पत्ति दैवीय है;  कुछ का मानना है कि यह प्रकृति में मौजूद है जबकि कुछ अन्य इसे तर्क की उपज मानते हैं।

आधुनिक विचारधारा वाले विभिन्न समाजशास्त्रीय न्यायविदों और यथार्थवादियों ने समाज के विभिन्न व्यक्तियों या समूहों के बीच उत्पन्न होने वाले विवादों को सुलझाने के लिए प्राकृतिक कानून का सहारा लिया। इन समाजशास्त्रीय न्यायविदों द्वारा अपनी विचारधारा का समर्थन और पुष्टि करने के लिए यह सहारा अपनाया गया है।

प्राकृतिक कानून का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

ऐसा माना जाता है कि प्राकृतिक कानून की अवधारणा यूनानी दार्शनिकों, अरस्तू और प्लेटो द्वारा निर्धारित की गई थी। अरस्तू ने प्रारंभ में प्रकृति और कानून के बीच अंतर प्रस्तुत किया। उनके बीच अंतर के इस रिश्ते ने उन्हें प्राकृतिक कानून की शुरुआत के लिए प्रेरित किया। दूसरी ओर, हालांकि प्लेटो ने स्पष्ट रूप से प्राकृतिक कानून पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था, बल्कि यह उनका सिद्धांत था जो उनमें प्राकृतिक कानून की उपस्थिति को दर्शाता था।

प्राकृतिक कानून के सिद्धांत को सिसरो द्वारा समाज में अच्छे कार्यों के योगदान की अवधारणा के रूप में परिभाषित करते हुए और अधिक पुष्ट किया गया। प्राचीन यूनानी दार्शनिकों की इन व्याख्याओं से सामाजिक अनुबंध सिद्धांत जैसे प्राकृतिक कानूनी सिद्धांतों का आधुनिक विकास हुआ।

प्राकृतिक कानून की विशेषताएं 

शब्दावली की विभिन्न व्याख्याओं के बावजूद, एक अवधारणा के रूप में प्राकृतिक कानून को एक आदर्श कानून स्रोत माना गया है। प्राकृतिक कानून की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

  • प्राकृतिक कानून की मुख्य विशेषता यह है कि यह अनुभवजन्य (एंपायरिकल) पद्धति का अनुसरण करता है। इसका मतलब यह है कि प्राकृतिक कानून के सिद्धांत बिना किसी पुष्टि के केवल निष्कर्ष को स्वीकार करने के बजाय विषय वस्तु के बारे में उचित जांच या विश्लेषण करने के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के विचार का पालन करते हैं।
  • प्राकृतिक कानून प्रकृति में सार्वभौमिक है और नैतिक विचारों पर आधारित है।
  • प्राकृतिक कानून प्रकृति में गतिशील है और इस प्रकार इसका प्रमुख परिवर्तन समाज की आवश्यकताओं के अनुसार होता है।
  • यह न्याय, नैतिकता, कारण और नीति पर आधारित कानूनी दर्शन और नैतिक न्यायशास्त्र का एक सामान्य आधार प्रदान करता है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और भारत में क्रमशः ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ और ‘कानून के शासन’ का सिद्धांत प्राकृतिक कानून के दर्शन पर आधारित है।
  • किसी व्यक्ति के बुनियादी अधिकारों की उत्पत्ति और मानवाधिकार न्यायशास्त्र के विकास का पता 19वीं शताब्दी में प्राकृतिक कानून के दर्शन से लगाया जा सकता है।

सिद्धांत का आलोचनात्मक मूल्यांकन

प्राकृतिक कानून का सिद्धांत एक प्रकार का है और कानूनी प्रणाली के विकास में इसका बड़ा योगदान है। कानूनी प्रणाली न्याय, समानता और अच्छे विवेक द्वारा शासित होती है जिन्हें प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों के रूप में जाना जाता है। ये कानून अपरिहार्य (इंडेस्पेंसेबल) और अनिवार्य हैं, मानव निर्मित कानूनों के विपरीत जो प्रकृति में मनमाने हैं। प्राकृतिक अधिकारों के इस सिद्धांत ने न केवल सुधार के लिए अनुकूल माहौल प्रदान किया बल्कि मानव अधिकारों की बुनियादी नींव भी रखी।

सभी खूबियों के अलावा, प्राकृतिक कानून सिद्धांत निम्नलिखित कमजोरियों से भी ग्रस्त है:

  • सिद्धांत का वह पहलू जिसमें नैतिक दायित्व शामिल है, हमेशा समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होता है। कुछ प्रतिबंधों और भेदभाव का अस्तित्व होना चाहिए।
  • नैतिकता की अवधारणा स्थिर नहीं है;  यह अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग होती है। यह किसी व्यक्ति या समूह के विवेक के अनुसार भिन्न होती है। इसलिए, यह कहना अनुचित है कि प्राकृतिक कानून सिद्धांत प्रकृति में सार्वभौमिक है।
  • नैतिकता के सिद्धांत स्थान परिवर्तन के साथ भिन्न होते हैं लेकिन समय परिवर्तन के साथ स्थिर रहते हैं। दूसरी ओर, कानून में समय-समय पर समाज की आवश्यकताओं के अनुसार बदलाव की आवश्यकता होती है।
  • कानूनी पहलुओं से जुड़े विवादों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है लेकिन नैतिक संघर्ष को न्यायिक जांच के माध्यम से हल नहीं किया जा सकता है। भले ही इसे अदालत में चुनौती दी गई हो, लेकिन ऐसे कोई दिशानिर्देश नहीं हैं जो किसी व्यक्ति की नैतिकता की अवधारणा को नियंत्रित करते हों।

इन सभी कमियों के बावजूद कानूनी व्यवस्था के विकास में प्राकृतिक कानून की भूमिका अधिक है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है।

भारतीय कानून के अंतर्गत प्राकृतिक कानून के सिद्धांत

भारतीय कानूनी प्रणाली समानता, न्याय, अच्छे विवेक और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है। प्राकृतिक कानून की अवधारणा आधुनिक न्यायिक प्रणाली का विकास नहीं है बल्कि प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति की जड़ों में समाहित है। प्राचीन काल में प्राकृतिक कानून का सिद्धांत ‘धर्म’ के रूप में था। इसे उस धार्मिक आचार संहिता के रूप में समझा जा सकता है जो समाज में व्यवस्थित जीवन जीने के लिए निर्धारित की गई थी। प्राकृतिक कानून के ये सिद्धांत जो धर्म की अवधारणा में शामिल हैं, भगवान और ग्रह के सभी जीवित प्राणियों के प्रति मनुष्य के कर्तव्यों को संदर्भित करते हैं।

प्राकृतिक कानून के इन सिद्धांतों को भारत के संविधान के विभिन्न प्रावधानों में गहराई से शामिल किया गया है संविधान के निर्माता प्राकृतिक कानून की अवधारणा से अच्छी तरह वाकिफ थे और देश के कानून के भीतर इसके समावेश के महत्व को समझते थे। प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत भारत के संविधान में प्राकृतिक कानून सिद्धांतों के अनुप्रयोग का सटीक प्रमाण दर्शाते हैं।

विधायी निकाय ने भी समय में बदलाव के साथ समान न्याय और मुफ्त समान सहायता का अधिकार, समाज के वंचित वर्गों के लिए विशेष प्रावधान आदि जैसे प्रावधानों को संशोधन के माध्यम से शामिल करके समाज की आवश्यकता की सराहना की है।

विधायी निकायों के साथ-साथ, राष्ट्रों की न्यायिक संस्थाओं ने भी विभिन्न व्याख्याओं के माध्यम से राष्ट्र के कानूनों के भीतर प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों की खोज की है और उन्हें शामिल किया है। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य का मामला प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को संवैधानिक न्यायशास्त्र में शामिल करने के न्यायपालिका के प्रयास का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मामले में अदालत ने प्राकृतिक कानून के पुनरुत्थानवादी (रिवाइवलिस्ट) दृष्टिकोण को अपनाया और कहा कि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार प्रकृति में पूर्ण नहीं हैं। उन्होंने आगे कहा कि ऐसे अधिकारों में परिवर्तन केवल समाज में न्यायसंगत और समान सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ही किया जा सकता है।

इसके अलावा, मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र के उद्देश्य को मजबूत करने के लिए नए आदर्शों और मूल्यों को स्थापित करके प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों को एक नया आयाम दिया। माननीय न्यायालय ने वर्तमान मामले में प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय की अवधारणा विकसित की। ये निर्णय शुरू में न्यायिक और अर्ध-न्यायिक निर्णयों तक ही सीमित थे लेकिन न्यायिक व्याख्याओं के माध्यम से संविधान के विकास के साथ, इसे प्रशासनिक मामलों में भी लागू किया गया। मेनका गांधी बनाम भारत संघ के मामले में अदालत ने पहली बार प्रशासनिक मामलों में प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों को लागू किया। अदालत ने आगे कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की प्रयोज्यता के लिए न्यायिक, अर्ध-न्यायिक या प्रशासनिक मामलों के बीच कोई अंतर नहीं किया जा सकता है। उद्देश्य सिर्फ एक ऐसे निर्णय पर पहुंचना है जो उचित, निष्पक्ष और न्यायसंगत हो।

अदालत ने एक कहावत के माध्यम से प्राकृतिक न्याय के एक और प्रमुख सिद्धांत को भी लागू किया है यानी निमो डेबिट एस्से ज्यूडेक्स इन प्रोप्रिया सुआ कॉसा जिसका अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति को उसके ही मामले में अलग-अलग मौकों पर परखा नहीं जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य के मामले में न्याय तक पहुंच को न्यायशास्त्र के प्राकृतिक कानून सिद्धांत के एक हिस्से के रूप में भी शामिल किया है। इसके अलावा, त्वरित सुनवाई और जांच की अवधारणा की व्याख्या माननीय न्यायालय द्वारा रघुवीर सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में प्राकृतिक कानून के एक भाग के रूप में की गई थी। प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों के विकास और विधायिका और न्यायपालिका द्वारा इसके समावेश ने इसे कानून, न्यायिक प्रणाली और राष्ट्र के अन्य सभी न्यायिक निकायों का एक अविभाज्य हिस्सा बना दिया है। ये संस्थाएं अब अपने निर्णयों में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को शामिल करने के लिए बाध्य हैं।

निष्कर्ष

हमारे देश की कानूनी व्यवस्था में प्राकृतिक कानून सिद्धांत को शामिल करने का उद्देश्य दोहरा था। इसके शामिल होने का प्राथमिक कारण भारत के प्राचीन इतिहास और संस्कृति में इसके निशानों का अस्तित्व है। प्राकृतिक कानून के सिद्धांत ‘धर्म’ की पौराणिक और प्राचीन अवधारणा से संचालित होते हैं। इसे शामिल करने का दूसरा कारण यह है कि भविष्य की हर स्थिति की भविष्यवाणी करना और उसके लिए कानून शामिल करना असंभव है। देश के कानून में प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों को शामिल करने से न्यायिक, अर्ध-न्यायिक और प्रशासनिक न्यायाधिकरणों (ट्रिब्यूनल्स) को तर्कहीन या मनमाने ढंग से या समाज के किसी भी व्यक्ति के साथ अन्याय किए बिना निर्णय लेने की स्वतंत्रता मिलती है।

प्राकृतिक कानून के सिद्धांत व्यक्ति की नैतिकता और अच्छे विवेक पर आधारित हैं। हालाँकि किसी की नैतिकता और अच्छे विवेक की मान्यताओं पर आधारित निर्णयों को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है, लेकिन अगर ऐसी नैतिक मान्यताएँ सामाजिक भलाई के खिलाफ हैं, तो यह सिद्धांत के उद्देश्य को नकार देती है।

 

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