मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 के भाग III के तहत साक्ष्य की स्वीकार्यता

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Arbitration and Concilliation Act 1996

यह लेख लॉसिखो से बौद्धिक संपदा (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी), मीडिया और मनोरंजन कानूनों में डिप्लोमा कर रही Yesha Kapadia द्वारा लिखा गया है और इसे Oishika Banerji (टीम लॉसिखो) द्वारा संपादित किया गया है। इस लेख में वह मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के भाग III के तहत साक्ष्य की स्वीकार्यता (एडमिसिबिलिटी) पर चर्चा करते है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

परिचय 

एक अच्छे समाधान की पहचान, समय पर और सहमति से लिया गया निर्णय है, लेकिन मुकदमेबाजी में मामलों पर समय पर निर्णय देने में कमी आती है, और इस प्रकार विवादों के शीघ्र निपटान के लिए वैकल्पिक विवाद समाधान (एडीआर) का विकल्प चुनने वाले पक्ष की मांग में वृद्धि हुई है। मध्यस्थता और सुलह (आर्बिट्रेशन एंड कॉन्सिलिएशन) अधिनियम, 1996 मामले को अधिक समय तक चलने से रोकता है, और मध्यस्थ को अनुमानित समय के भीतर एक पंचाट (अवॉर्ड) पारित करना होता है। एडीआर में मध्यस्थता, सुलह, बिचवाई (मीडिएशन), वार्ता (नेगोसिएशन) और लोक अदालत शामिल हैं, जिनमें से सभी का एक समान लक्ष्य है जो विवादों को सहमतिपूर्ण तरीके से त्वरित समाधान देना है। इस लेख का मुख्य उद्देश्य मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के भाग III की धारा 81, जो सुलह पर केंद्रित है पर चर्चा करना है।

सुलह क्या है

सुलह का अर्थ है बिना मुकदमेबाजी के विवादों का निपटारा करना। मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में उल्लिखित “सुलह” की कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं है। हालांकि, अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता पर अनसीट्रल मॉडल कानून (2002) का अनुच्छेद 1 (2) “सुलह” को एक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित करता है, चाहे वह अभिव्यक्ति सुलह, मध्यस्थता या समान प्रकार की अभिव्यक्ति द्वारा संदर्भित हो, जिसके तहत पक्ष किसी तीसरे व्यक्ति या व्यक्तियों (“सुलहकर्ता”) से अनुरोध करते हैं कि वे संविदात्मक या अन्य कानूनी संबंधों से उत्पन्न या उससे संबंधित अपने विवाद के सौहार्दपूर्ण (एमीकेबल) समाधान तक पहुंचने के प्रयास में उनकी सहायता करें। सुलहकर्ता के पास पक्षों पर विवाद का समाधान थोपने का अधिकार नहीं है।

एक मध्यस्थ की तरह, एक सुलहकर्ता को भी एक निष्पक्ष पक्ष माना जाता है, इससे पक्षों को उन पर भरोसा करने और अपने विवाद के समाधान के लिए सुलह की प्रक्रिया में पूरी तरह से शामिल होने में मदद मिलेगी। सुलहकर्ता मामले की परिस्थितियों और पक्षों की इच्छाओं और विवाद के शीघ्र निपटान की वांछनीयता (डिजायरेबिलिटी) को ध्यान में रखते हुए, इस तरह से सुलह कार्यवाही संचालित कर सकता है जैसा वह उचित समझे। किसी समझौते पर पहुंचने में सुलहकर्ता के पास व्यापक प्रक्रियात्मक विवेक होता है, उदाहरण के लिए, सुलहकर्ता सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 से बाध्य नहीं है, लेकिन यदि वह आवश्यक समझे तो वह अपने विवेक से उनका उपयोग कर सकता है। 

सुलह का तरीका चुनने के लिए औपचारिक समझौता करना आवश्यक नहीं है। क्योंकि जहां मध्यस्थता खंड को समझौते में शामिल किया जाता है, तो यह निहित होता है कि मामले को पहले सुलह के लिए भेजा जाएगा और यदि सौहार्दपूर्ण समाधान विफल हो जाता है, तभी इसे मध्यस्थता के लिए भेजा जाता है। एक बार जब पक्ष सुलह की कार्यवाही शुरू कर देते हैं, तो सुलहकर्ता उन्हें मौखिक या लिखित रूप से संवाद करने के लिए आमंत्रित कर सकता है। यह पक्षों का निर्णय है और यदि कोई भी पक्ष निर्णय लेने में सक्षम नहीं है तो सुलहकर्ता निर्णय करेगा। विवाद के पक्ष अधिनियम की धारा 61 के तहत सुलह के माध्यम से अपने विवाद को हल करने के लिए सहमत हो सकते हैं। यदि पक्ष सुलह के लिए सहमत हो गए हैं लेकिन समझौता हासिल करने में असमर्थ हैं, तो वे मध्यस्थता के लिए आगे बढ़ सकते हैं। सुलह कार्यवाही के दौरान दिए गए प्रस्ताव को किसी अन्य कार्यवाही (मध्यस्थता में भी) में प्रकट नहीं किया जा सकता है। यह सुरक्षा मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 द्वारा ही प्रदान की गई है। इसलिए पक्ष बिना किसी जोखिम के सुलह का प्रयास कर सकते हैं। वह प्रावधान जो यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी पक्ष सुलह कार्यवाही के किसी भी सबूत का उपयोग नहीं कर सकता है, धारा 81 के तहत है। 

धारा 81: अन्य कार्यवाहियों में साक्ष्य की स्वीकार्यता 

इस धारा को स्पष्ट रूप से पढ़ने पर, कोई यह समझ सकता है कि साक्ष्य की स्वीकार्यता की यह धारा तब संबंधित है जब पक्ष सुलह कार्यवाही में सौहार्दपूर्ण समाधान निकालने में सक्षम नहीं होते हैं और उसमें मध्यस्थता या न्यायिक कार्यवाही के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं, तो उस मामले में पक्ष बाद की कार्यवाही में इन साक्ष्यों का उपयोग नहीं कर सकते हैं –

  • समझौते की संभावना के संबंध में दोनों पक्षों में से किसी के भी विचार या राय।
  • सुलह कार्यवाही के दौरान पक्षों द्वारा किया गया कोई भी प्रस्तुतीकरण (सबमिशन)।
  • सुलहकर्ता द्वारा दिया गया कोई भी प्रस्ताव।
  • यह तथ्य कि कार्यवाही के दौरान किसी भी पक्ष ने सुलहकर्ता के समझौते के प्रस्ताव को स्वीकार करने की इच्छा दिखाई थी। 

यह पूरे भाग III में सिर्फ एक छोटा सी धारा हो सकती है लेकिन यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न केवल एडीआर के रूप में सुलह कार्यवाही के उपयोग को मान्य करती है बल्कि यह भी पुष्टि करती है कि जो मामले सुलह में लिए गए हैं वे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यदि पक्ष सुलह के लिए सहमत हो गए हैं लेकिन किसी समझौते पर पहुंचने में असमर्थ हैं, तो वे मध्यस्थता के लिए आगे बढ़ सकते हैं। 

धारा 81 सुलह प्रक्रिया में गोपनीयता (कॉन्फिडेंशियलिटी) की गारंटी देती है, जिससे पक्षों को अपनी असहमति पर स्वतंत्र रूप से चर्चा करने की अनुमति मिलती है क्योंकि वे किसी भी बाद की कानूनी कार्यवाही में उनके खिलाफ उनकी टिप्पणियों के इस्तेमाल के खतरे के बिना संभावित समाधान तलाशते हैं। गोपनीयता बनाए रखने का उद्देश्य सुलह प्रक्रिया के दौरान पक्षों को स्वतंत्र रूप से बोलने के लिए प्रोत्साहित करना और सौहार्दपूर्ण समाधान की सुविधा प्रदान करना है। यदि पक्षों को डर है कि सुलह के दौरान दिए गए उनके बयानों या प्रस्तावों का इस्तेमाल किसी भी बाद की कार्यवाही में उनके खिलाफ किया जा सकता है, तो वे इस प्रक्रिया में पूरी तरह से शामिल होने या जानकारी के साथ आने के लिए तैयार नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार, गोपनीयता पक्षों को सद्भाव के साथ वार्ता करने और समय पर और कुशल तरीके से समाधान तक पहुंचने के लिए प्रोत्साहित करती है। इसके अलावा, धारा 80(2) यह स्पष्ट करती है कि सुलहकर्ता को किसी भी मध्यस्थता या न्यायिक कार्यवाही में पक्षों द्वारा गवाह के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। 

गोपनीयता बनाए रखना पक्षों का दायित्व है

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 75 सुलह कार्यवाही की गोपनीयता से संबंधित है। यह धारा सुलह कार्यवाही से संबंधित सभी मामलों की गोपनीयता बनाए रखने के लिए पक्षों पर दायित्व लगाती है। इसका मतलब यह है कि सुलह प्रक्रिया के दौरान साझा की गई कोई भी जानकारी या दस्तावेज़, अदालतों और मध्यस्थ न्यायाधिकरणों (ट्रिब्यूनल) सहित किसी भी तीसरे पक्ष को प्रकट नहीं किया जा सकता है, जब तक कि कानून द्वारा आवश्यक न हो। यह धारा सुलह प्रक्रिया से उत्पन्न होने वाले किसी भी निपटान समझौते के लिए गोपनीयता के इस दायित्व को भी बढ़ाता है। इसका मतलब यह है कि सुलह प्रक्रिया के दौरान पक्षों द्वारा किया गया कोई भी समझौता गोपनीय होता है और सभी पक्षों की सहमति के बिना इसका खुलासा नहीं किया जा सकता है।

धारा 75 धारा 42A से मेल खाती है जो अधिनियम के 2019 संशोधन के दौरान डाली गई थी, जो कहती है कि उस समय लागू किसी भी अन्य कानून में कुछ भी शामिल होने के बावजूद, मध्यस्थ, मध्यस्थ संस्था और मध्यस्थता समझौते के पक्ष पंचाट को छोड़कर सभी मध्यस्थ कार्यवाहियों की गोपनीयता बनाए रखेंगे, जहां इसका प्रकटीकरण (डिस्क्लोजर) पंचाट के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) और प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के उद्देश्य से आवश्यक है। मध्यस्थ पंचाट के संबंध में एक खाका तैयार किया गया था जहां पंचाट के कार्यान्वयन और प्रवर्तन के उद्देश्य से ऐसा प्रकटीकरण आवश्यक था।

हालाँकि धारा 75 और धारा 42A अलग-अलग संदर्भों में गोपनीयता से संबंधित हैं लेकिन दोनों एडीआर कार्यवाही में गोपनीयता के महत्व पर जोर देते हैं। गोपनीयता का दायित्व पक्षों को कार्यवाही के दौरान स्वतंत्र रूप से और खुलकर बोलने का अवसर सुनिश्चित करता है, बिना किसी डर के की किसी बाद की कार्यवाही के उनके खिलाफ किसी भी जानकारी को इस्तेमाल किया जा सकता है। यह प्रक्रिया की अखंडता (इंटीग्रोटी) को बनाए रखने में भी मदद करता है और पक्षों को अपने विवादों के सार्वजनिक होने के डर के बिना समझौते पर पहुंचने के लिए प्रोत्साहित करता है।

बाद की कार्यवाही में साक्ष्यात्मक रहस्योद्घाटन (रिवीलेशन) 

अधिनियम में ऐसे प्रावधान उपलब्ध हैं जो स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हैं कि यदि धारा 81 या 75 का उल्लंघन किया गया है या पंचाट धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से प्रेरित है तो मध्यस्थता में पंचाट को उचित साक्ष्य के साथ रद्द करने के लिए चुनौती दी जा सकती है। और यदि धारा 34 के तहत पंचाट या मध्यस्थ पंचाट को रद्द करना समाप्त हो गया है या अस्वीकार कर दिया गया है, तो 3 महीने की सीमा के भीतर पंचाट के प्रवर्तन को अधिनियम की धारा 36 के भीतर निलंबित किया जा सकता है और उसके बाद इसे सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी), 1908 के तहत लागू किया जा सकता है, जैसे कि यह अदालत द्वारा दी गई डिक्री हो। हालाँकी, इंटरनेशनल एल्युमीनियम कंपनी लिमिटेड बनाम प्रेसटील एंड फैब्रिकेशन (2005), के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया कि धारा 34 के तहत आवेदन दाखिल करने पर पंचाट के प्रवर्तन पर स्वत: निलंबन (सस्पेंशन)/स्थगन (स्टे) की व्यवस्था करना समय की मांग है। 

यह सुनिश्चित करने के लिए कि धारा 34 के तहत केवल एक आवेदन दाखिल करने से पंचाट के प्रवर्तन पर स्वत: रोक नहीं लग जाती है, यह संशोधन किया गया है। संक्षेप में, वे अंततः याचिकाएँ बन जाती हैं जो लागू होने की प्रतीक्षा में अदालत में लंबित हैं। मध्यस्थ न्यायाधिकरण का कठिन रास्ता केवल उन अवशिष्ट विवादों के लिए रह जाता है जिन्हें पक्ष वृद्धि अनुक्रम (सीक्वेंस) के प्रारंभिक स्तरों पर हल करने में असमर्थ थे।

धारा 81 के अंतर्गत साक्ष्य को गोपनीय रखने का दोष 

मध्यस्थता और मुकदमेबाजी में गोपनीयता के सिद्धांत को अक्सर शामिल पक्षों के हितों की रक्षा के लिए आवश्यक माना जाता है। यह पक्षों के बीच स्पष्ट और खुले संचार (कम्युनिकेशन) की अनुमति देता है, निपटान को बढ़ावा देता है और यह सुनिश्चित करता है कि संवेदनशील जानकारी सार्वजनिक न हो। हालाँकि, इस सिद्धांत के अपने नकारात्मक पहलू भी हो सकते हैं। सबूतों की सख्त गोपनीयता कभी-कभी अन्याय, सत्ता का दुरुपयोग और यहां तक ​​कि कदाचार (मिसकंडक्ट) का कारण बन सकती है। इसके परिणामस्वरूप कार्यवाही की निष्पक्षता और पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) पर असर पड़ सकता है।

धारा 81 के अनुसार, सुलह कार्यवाही के दौरान पक्षों द्वारा दिए गए किसी भी विचार, सुझाव, स्वीकारोक्ति (एडमिशन), प्रस्ताव पर भरोसा नहीं किया जा सकता है या उन्हे किसी भी मध्यस्थ या न्यायिक कार्यवाही में सबूत के रूप में पेश नहीं किया जा सकता है। इसके परिणामस्वरूप पक्ष अन्य कानूनी कार्यवाहियों में अपने मामले का समर्थन करने के लिए महत्वपूर्ण साक्ष्य का उपयोग करने में असमर्थ हो सकते हैं।

इसके अलावा, साक्ष्य की गोपनीय प्रकृति भी पक्षों की बातचीत करने और सुलह कार्यवाही के बाहर समझौते तक पहुंचने की क्षमता को सीमित कर सकती है। चूँकि साक्ष्य का उपयोग अन्य कानूनी कार्यवाहियों में नहीं किया जा सकता है, इसलिए पक्ष सुलह के दौरान स्वीकारोक्ति करने या निपटान की शर्तों का प्रस्ताव करने में झिझक महसूस कर सकते हैं, क्योंकि बाद की कार्यवाहियों में उनके पास समान सुरक्षा या लाभ नहीं हो सकता है। 

कुछ मामलों में, साक्ष्य की गोपनीयता निष्पक्षता और पारदर्शिता के बारे में चिंताओं को भी जन्म दे सकती है, खासकर यदि साक्ष्य सार्वजनिक हित या सुरक्षा के मुद्दों से संबंधित हो। उदाहरण के लिए, यदि साक्ष्य उपभोक्ता सुरक्षा या पर्यावरण संरक्षण से जुड़े विवाद से संबंधित है, तो ऐसे साक्ष्य की गोपनीय रखने से जनता को संभावित जोखिमों या खतरों के बारे में पूरी तरह से सूचित होने से रोका जा सकता है। इसलिए, जबकि धारा 81 के तहत साक्ष्य की गोपनीयता सुलह कार्यवाही के दौरान खुली और स्पष्ट चर्चा को बढ़ावा देने में फायदेमंद हो सकती है, इसमें कुछ कमियां भी हो सकती हैं जिन पर पक्षों और कानूनी चिकित्सकों द्वारा विचार करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष 

संक्षेप में, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 के भाग III के तहत साक्ष्य की स्वीकार्यता विवाद समाधान प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण घटक है। अधिनियम की धारा 81 सुलह प्रक्रिया के बाद मध्यस्थ कार्यवाही में साक्ष्य की अस्वीकार्यता का बुनियादी नियम स्थापित करती है। हालाँकि, इस मानदंड के कई अपवाद हैं जिन्हें अदालतों द्वारा मान्यता दी गई है। अधिनियम की धारा 75 गोपनीय जानकारी का खुलासा करने पर जुर्माना लगाकर सुलह प्रक्रिया की गोपनीयता को मजबूत करती है। हालाँकि यह पक्षों को स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए प्रोत्साहित करता है, लेकिन यह भी हो सकता है कि पक्ष उन कार्यवाहियों के दौरान कुछ ऐसा स्वीकार कर सकते हैं जो उनके मामले को साबित करने के लिए बाद की कार्यवाही में मजबूत सबूत हो सकता है, यह धारा उन सबूतों का उपयोग करने पर एक सीमा लगाती है। कुल मिलाकर, इस प्रकार की एडीआर कार्यवाही को चुनने से पहले, पक्षों को अपने अनुबंध के संबंध में जटिलताओं और लाभों का सावधानीपूर्वक आकलन करना चाहिए ताकि साक्ष्य की अस्वीकार्यता और/या सुलह प्रक्रिया की गोपनीयता के नियम में बाधा न आए; इससे उन्हें किसी भी अप्रत्याशित (अनएक्सपेक्टेड) परिणाम से बचने में मदद मिल सकती है।

संदर्भ

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