भरण पोषण के प्रकार का एक विस्तृत अवलोकन

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An exhaustive overview of types of maintenance

यह लेख नोएडा के सिम्बायोसिस लॉ स्कूल में पढ़ने वाले छात्र Ayush Tiwari के द्वारा लिखा गया है। इस लेख में लेखक के द्वारा हिंदू और मुस्लिम कानून के तहत भरण-पोषण के प्रकारों के बारे में संक्षेप में लिखा गया है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारत में भरण पोषण मांगने का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है जिसे एक समझौते द्वारा नहीं छोड़ा जा सकता है। भरण पोषण को अदालती कार्यवाही (यानी की मेंटेनेंस पेंडेंट लाइट) के माध्यम से या कार्यवाही पूरी होने के बाद (अंतिम भरण पोषण), जो स्थायी भरण पोषण है, के द्वारा प्रदान किया जा सकता है। पत्नी, बच्चे और माता-पिता सभी को भरण पोषण पाने का अधिकार है। विशेष व्यक्तिगत कानूनों के तहत, यहां तक कि पति को (जो खुद का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हैं) भी भरण-पोषण प्राप्त करने के लिए पात्र हैं। 

भरण पोषण की कानूनी परिभाषा, औपचारिक (फॉर्मल) अलगाव या तलाक के बाद एक पति के द्वारा पत्नी को भुगतान की जाने वाली मौद्रिक सहायता है। यह वित्तीय सहायता पत्नी या तलाकशुदा पत्नी की आजीविका, उसके बच्चों, संपत्ति के रख-रखाव और, कुछ स्थितियों में, उसे विवाद में उचित रूप से प्रतिनिधित्व करने की अनुमति देने के लिए भी है। विभिन्न कानूनों में भरण पोषण के बारे में अलग-अलग नियम हैं। हालाँकि, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 में भरण पोषण का एक धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) नियम है। हिंदुओं के भरण-पोषण के नियम उनके निजी कानूनों में पाए जाते हैं, जबकि मुसलमानों के भरण-पोषण के नियम मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में पाए जाते हैं।

हिंदू कानून के तहत भरण पोषण 

भरण पोषण के मामले में, पारंपरिक हिंदू कानून को अब संहिताबद्ध (कोडिफाई) कर दिया गया है। अब, ऐसे कई कानून हैं जो पति-पत्नी, बच्चों और उनके आश्रितों के भरण-पोषण पर लागू होते हैं। ये कानून पारिवारिक न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) में हैं, जिन्हें 1984 के परिवार न्यायालय अधिनियम के अनुसार स्थापित किया गया था। निम्नलिखित क़ानून हैं जिनके तहत हिंदू कानून में भरण पोषण प्रदान किया जाता है:

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (एच.एम.ए.) की धारा 2 कहती है कि सिख, जैन और बौद्ध सहित सभी हिंदू, हिंदू कानून के सभी कानूनों के अधीन हैं।

हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण अधिनियम, 1956   (एच.ए.एम.ए.) की धारा 3 (b) के अनुसार भरण पोषण में निम्नलिखित शामिल हैं:

  • सभी स्थितियों में भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, चिकित्सा और उपचार की व्यवस्था।
  • अविवाहित पुत्री के मामले में उसके विवाह के आयोजन का उचित खर्च।

भरण पोषण के प्रकार 

अस्थायी भरण पोषण

इसे अदालती कार्यवाही के दौरान भरण पोषण के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यह अदालतों द्वारा दिया जाता है, जबकि तलाक की प्रक्रिया अभी भी चल रही है। इसका लक्ष्य दावेदार को उसके रहने के खर्चों के साथ-साथ प्रक्रियाओं की लागतों को शामिल करने के लिए पर्याप्त धन की आपूर्ति करना है। यदि आप आवश्यकताओं को पूरा करते हैं तो न्यायालय इसे प्रदान कर सकता है। इस प्रकार के भरण पोषण को हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 24 के तहत संबोधित किया जाता है। सी.आर.पी.सी. की धारा 125(1) का उपयोग भी दावा करने के लिए किया जा सकता है। इस तरह के भरण पोषण का दावा पति या पत्नी द्वारा किया जा सकता है।

स्थायी भरण पोषण

जैसा कि नाम से पता चलता है, यह अदालत की कार्यवाही समाप्त होने के बाद नियमित आधार पर या मासिक आधार पर राशि देने से संबंधित है। यह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25 में दिया गया है। यह किसी भी पति या पत्नी के लिए उपलब्ध है।

भरण पोषण का दावा कौन कर सकता है 

भरण पोषण का दावा निम्नलिखित के द्वारा किया जा सकता है: 

  • पत्नी,
  • बच्चे (वैध और नाजायज बेटे, अविवाहित वैध और नाजायज बेटियां, विवाहित बेटी जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं),
  • अभिभावक (गार्जियन),
  • अन्य आश्रित।

भरण पोषण की गणना के लिए मानदंड (क्राइटेरिया)

हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 23(2) के अनुसार पत्नी, बच्चों या वृद्ध या बीमार माता-पिता को दिए जाने वाले भरण-पोषण की राशि निम्नलिखित कारकों द्वारा निर्धारित की जाती है:

  • पक्षों की स्थिति;
  • दावेदार की वैध जरूरतें;
  • अगर दावेदार अलग रह रहा है, और अगर अलगाव का वारंट है;
  • दावेदार की संपत्ति का मूल्य और उससे प्राप्त कोई आय, या दावेदार की अपनी आय से, या किसी अन्य स्रोत से भी निर्धारित की जा सकती है;
  • इस अधिनियम के तहत भरण पोषण के हकदार लोगों की संख्या से निर्धारित की जा सकती है।

उपरोक्त अधिनियम की धारा 23(3) के अनुसार आश्रित को दिए जाने वाले भरण-पोषण की राशि निम्नलिखित कारकों द्वारा निर्धारित की जाती है:

  • एक मृत व्यक्ति की संपत्ति का मूल्य उसके सभी ऋणों का भुगतान करने के बाद;
  • मृतक की वसीयत के तहत आश्रित का प्रावधान, यदि कोई हो;
  • किस हद तक दोनों संबंधित हैं;
  • आश्रित की वैध जरूरतें;
  • आश्रित और मृतक के पिछले संबंध;
  • आश्रित की संपत्ति का मूल्य, साथ ही इससे उत्पन्न आय, उसकी कमाई, या कोई अन्य स्रोत;
  • आश्रितों की संख्या जो इस अधिनियम के तहत सहारे के लिए पात्र हैं।

विवाह में भरण पोषण की बाध्यता

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 और 25 के प्रावधान भरण पोषण प्रदान करने से संबंधित हैं। धारा 24 अंतरिम भरण-पोषण प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त करती है। अदालत मामले के तथ्यों जैसे कि भरण पोषण का अनुरोध करने वाला पति या पत्नी नियोजित (एंप्लॉयड) है या नहीं और यदि भरण-पोषण की मांग करने वाले पति या पत्नी की कमाई पर्याप्त है या नही के आधार पर  इस धारा के तहत पति या पत्नी को भरण पोषण का भुगतान करने का आदेश दे सकती है। धारा 24 के तहत देय समर्थन की राशि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी की संबंधित आय द्वारा निर्धारित की जाती है। धारा 25(1) स्थिति के आधार पर पति या पत्नी में से किसी एक को स्थायी सहायता प्रदान करती है। धारा 25(2) और 25(3) परिस्थितियों में बदलाव के कारण धारा 25(1) के तहत जारी मूल भरण पोषण आदेश में संशोधन की अनुमति देती है। इन नियमों की विशिष्ट विशेषता यह है कि ये पति को अपनी पत्नी से भरण-पोषण की मांग करने की अनुमति देते हैं यदि वह काम करने में असमर्थ है। कल्याण डे चौधरी बनाम रीता डे चौधरी नी नंदी (2017), के मामले में वादी कल्याण डे चौधरी थे। न्यायाधीश आर भानुमति और एमएम संतनगौदर के पैनल ने निर्धारित किया कि 95,527 मासिक वेतन वाले एक व्यक्ति को अपनी पूर्व पत्नी को प्रति माह 20,000 रुपये तक का भुगतान करना होगा।

रानी सेठी बनाम सुनील सेठी (2011) में विचारणीय (ट्रायल) अदालत ने कहा कि पत्नी को भरण पोषण का भुगतान करना होगा और उसे प्रतिवादी को 20,000/- रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया और 10,000 रुपये मुकदमेबाजी के खर्च के रूप में भुगतान करने का आदेश दिया। साथ ही मामले की परिस्थितियों और तथ्यों के आधार पर, उसके उपयोग और सुविधा के लिए उसे एक ज़ेन कार प्रदान की।

हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण अधिनियम, 1956 

1956 का हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम के तहत धारा 18(1), महिला को अपने शेष जीवन के लिए अपने पति से भरण पोषण का दावा करने का अधिकार प्रदान करती है।

इसी अधिनियम की धारा 18(2) के तहत कहा गया है कि एक विवाहित हिंदू महिला भरण पोषण की हकदार है यदि वह अपने पति की सहमति से अलग रहती है। यह अधिनियम उन शर्तों को निर्धारित करता है जिनके तहत एक पत्नी अपने पति से अलग रह सकती है और भरण पोषण प्राप्त कर सकती है:

  • यदि पति ने पत्नी को छोड़ दिया है, अर्थात् बिना किसी अच्छे कारण के और बिना उसकी अनुमति के या उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे त्याग दिया है, या यदि उसने जानबूझकर उसकी उपेक्षा की है;
  • यदि पति ने पत्नी के साथ इतनी कठोरता से व्यवहार किया है कि उसे उचित भय है कि उसके पति के साथ रहना उसके लिए हानिकारक या खतरनाक होगा;
  • यदि उसे विशेष रूप से गंभीर प्रकार का कुष्ठ रोग (लेप्रोसी) है;
  • अगर उसकी दूसरी जीवित पत्नी है;
  • यदि वह अपनी पत्नी के रूप में एक ही निवास में एक उपपत्नी रखता है या एक उपपत्नी के साथ नियमित रूप से कहीं और रहता है;
  • यदि वह हिंदू न रहने के बाद दूसरे धर्म में परिवर्तित हो जाता है;
  • अगर उनके अलग रहने का कोई और कारण है।

धारा 18(3) – यदि कोई महिला कभी यौन संबंध नहीं रखती है या किसी अन्य धर्म में परिवर्तित हो जाती है और हिंदू नहीं रहती है, तो वह एक अलग घर और समर्थन का दावा करने का अधिकार खो देती है। इसके अलावा, यदि कोई तलाक के बाद पुनर्विवाह करता है, तो भरण-पोषण का अधिकार समाप्त हो जाता है।

पति-पत्नी का भरण पोषण न्यायालय द्वारा विभिन्न कारकों के अस्तित्व पर निम्नानुसार निर्धारित किया जाता है:

  • विवाह की अवधि।
  • आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है। भरण पोषण या गुजारा भत्ता देने से पहले, मूल्यांकन करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि भरण पोषण का अनुरोध करने वाले पति या पत्नी के पास आय का एक अलग स्रोत है या वह पूरी तरह से अपने पति की आय पर निर्भर है।
  • बच्चों की परवरिश से जुड़ा खर्च।
  • दोनों पक्षों की उम्र और स्वास्थ्य की स्थिति।
  • अलग होने से पहले, दोनों पक्षों के जीवन स्तर।
  • पत्नी और पति की कमाई, साथ ही अन्य संपत्तियां।
  • स्वयं का भरण-पोषण करने और जीविकोपार्जन आदि के लिए पति/पत्नी की कुशलता, योग्यता और शैक्षिक पृष्ठभूमि आदि।

बच्चों, माता-पिता और आश्रितों को बनाए रखने की बाध्यता

अपने बच्चे और बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल करना एक जिम्मेदारी है।

1955 का हिंदू विवाह अधिनियम

एच.एम.ए.  के तहत केवल बच्चों के भरण-पोषण की व्यवस्था की जाती है। जिसके तहत न्यायालय धारा 26 के अनुसार बच्चों की अभिरक्षा (कस्टडी), सहायता और शिक्षा से संबंधित आदेश समय-समय पर जारी कर सकता है या ऐसे किसी पूर्व आदेश को निरस्त कर सकता है। अदालत इस तरह के फैसले करते समय बच्चों की प्राथमिकताओं का सम्मान करती है।

1956 का हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण अधिनियम

एच.ए.एम.ए के तहत बुजुर्ग माता-पिता के साथ-साथ बच्चों के भरण-पोषण की व्यवस्था की जाती है। धारा 20 के अनुसार, यह एक हिंदू का दायित्व है, चाहे वह पुरुष हो या महिला, की वह अपने वैध या नाजायज नाबालिग बच्चों, बुजुर्ग माता-पिता, या अविवाहित वयस्क बेटी का समर्थन करे जो किसी भी तरह से खुद का समर्थन करने में असमर्थ हैं।

एच.ए.एम.ए की धारा 21 और धारा 22– यह कुछ लोगों को, जिन्हें आश्रित कहा जाता है, को नए अधिकार देती है। आश्रित एक मृत हिंदू के रिश्तेदार हैं जो वारिसो द्वारा धारित मृतक की संपत्ति से समर्थन मांगते हैं। वे सभी लोग जिन्हें मृतक की विरासत सौंपी जाती है, वारिस कहलाते हैं। आश्रितों का संपत्ति के खिलाफ दावा होता है, लेकिन व्यक्तिगत रूप से वारिसों के खिलाफ दावा नहीं होता है। यह व्यक्ति के जीवनकाल में नहीं होता है; आश्रितों की पहचान उनकी मृत्यु के बाद ही की जाती है।

अभिलाषा बनाम प्रकाश के मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया था कि “धारा 20 के तहत एक अविवाहित बेटी की अपने पिता से भरण-पोषण की मांग करने की क्षमता जब वह खुद का समर्थन करने में असमर्थ है, और धारा 20 के तहत उसे जो अधिकार प्रदान किया गया है वह एक व्यक्तिगत कानून अधिकार है जिसे वह अपने पिता के खिलाफ बहुत प्रभावी ढंग से लागू कर सकती है।”

पद्मजा शर्मा बनाम रतनलाल शर्मा के मामले में, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि जब एक जोड़ा तलाक लेता है और दोनों अच्छी कमाई करते हैं, तो बच्चों का समर्थन करना केवल पिता की ही जिम्मेदारी नहीं होती है। ऐसी स्थिति में माता और पिता दोनों ही बच्चे के भरण पोषण करने के लिए समान रूप से हकदार होते हैं।

जी.ए कल्ला मैस्त्री बनाम कन्नियाम्मल के मामले में, यह पाया गया था कि विवाहेतर संभोग से पैदा हुआ एक नाजायज बच्चा धारा 20 के तहत समर्थन की वैध मांग कर सकता है।

मुस्लिम कानून के तहत भरण पोषण 

पत्नी का भरण पोषण

मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में भरण पोषण की धारणा अलग है और भारत में अन्य समूहों के व्यक्तिगत कानून में व्यक्त की गई अवधारणाओं के विपरीत है। भरण पोषण को मुस्लिम कानून में ‘नफकाह’ कहा जाता है। इसमे रोटी, कपड़ा और मकान सब कुछ शामिल है। एक महिला भरण पोषण की हकदार है यदि उसकी शादी मुस्लिम कानून के अनुसार संपन्न हुई है और वह उस उम्र तक पहुंच गई है जब वह अपने पति को वैवाहिक अधिकार दे सकती है। मुस्लिम पति अपनी पत्नी को भरण-पोषण की राशि देने के लिए बाध्य नहीं है यदि विवाह अमान्य या अनियमित है जब तक कि अपर्याप्त गवाह न हों। उनकी शादी की वैधता और पूर्व-विवाह पूर्व व्यवस्था की स्थिति के कारण, पारंपरिक मुस्लिम कानून पति द्वारा महिला को भरण पोषण प्रदान करता है। पत्नी को पालने की यह प्रतिबद्धता महिला की आय पर आधारित है, लेकिन ऐसा करना पति की जिम्मेदारी है। हालाँकि, ऐसा कर्तव्य महिला पर निर्भर है कि वह अपने पति के प्रति वफादार रहे और उसकी उचित माँगों का पालन करे। महिला का यह अधिकार भी इस शर्त के अधीन है कि पत्नी हठी नहीं है या बिना किसी औचित्य (जस्टिफिकेशन) के अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है। पति के उत्तरदायित्व के अतिरिक्त शादी से पहले विवाह पूर्व समझौते अलग-अलग पक्षों द्वारा किए जा सकते हैं। 

1986 का मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम इस्लामी तलाक कानून का वैधानिक कानून है। यह कई महत्वपूर्ण भरण पोषण नियमों को संहिताबद्ध करता है। यह उस सहायता की मात्रा को निर्दिष्ट करता है जो पत्नी अपनी इद्दत अवधि के दौरान पाने की हकदार है। यह एक मुस्लिम पत्नी को उसके अवैतनिक मेहर या इसके साथ-साथ अन्य विशेष संपत्ति को लागू करने की भी अनुमति देता है। यह क़ानून स्पष्ट रूप से कहता है कि एक पति का अपनी पत्नी के लिए प्रदान करने का दायित्व इद्दत अवधि के अंत तक जारी रहता है। यदि इद्दत की अवधि समाप्त होने के बाद महिला खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो वह अपने रिश्तेदारों जो उसकी मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति प्राप्त करने के हकदार होंगे से उचित और समान भरण-पोषण की मांग कर सकती है।

एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के पुनर्विवाह तक भरण पोषण 

एक मुस्लिम पति, मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा(3)(a) के तहत अपनी तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए पर्याप्त और न्यायसंगत भरण पोषण प्रदान करने के लिए बाध्य है। इसमें उसका भरण पोषण भी शामिल है। नतीजतन, अधिनियम की धारा 3(1)(a) के तहत, पति को इद्दत अवधि से परे पत्नी के समर्थन के लिए उचित प्रावधान प्रदान करना चाहिए।

एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला जिसने पुनर्विवाह नहीं किया है और इद्दत अवधि के बाद खुद का समर्थन करने में असमर्थ है, वह इस अधिनियम की धारा 4 के तहत उसकी मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति के हकदार रिश्तेदारों से भरण पोषण की मांग कर सकती है।

कब मुस्लिम महिला को मुस्लिम कानून के तहत भरण-पोषण का अधिकार नहीं है

ऐसे उदाहरण जिनमें एक मुस्लिम महिला भरण-पोषण की हकदार नहीं है, इस प्रकार हैं:

  • अगर उसे यौवन (प्यूबर्टी) की उम्र प्राप्त नहीं की है।
  • जब उसने अपने जीवनसाथी और वैवाहिक प्रतिबद्धताओं और कर्तव्यों को पर्याप्त रूप से त्याग दिया हो।
  • जब उसने किसी और से शादी कर ली हो।
  • जब वह अपने पति की उचित माँगों की अवज्ञा करती है।

बच्चों के लिए भरण पोषण

बच्चों का भरण-पोषण करने की पिता की जिम्मेदारी 

अपने बच्चों का समर्थन करने के लिए पिता की जिम्मेदारी मुस्लिम कानून द्वारा स्थापित की गई है। एक पिता का निम्नलिखित लोगों का समर्थन करने की जिम्मेदारी होती है:

  • जब तक उसका बेटा किशोरावस्था तक नहीं पहुँच जाता;
  • उनकी बेटी, जो अभी तक अविवाहित है;
  • यदि उसकी विवाहित पुत्री का पति उसका भरण-पोषण करने में असमर्थ है;
  • यदि उसका वयस्क बेटा अपंग, पागल, या खुद का समर्थन करने में असमर्थ है।

मुस्लिम कानून के अनुसार, एक पिता का अपने बच्चों की देखभाल करने का कोई दायित्व नहीं है यदि वे बिना किसी तर्कसंगत कारण के उसके साथ रहने से इनकार करते हैं। एक बेटी का अपने पिता से समर्थन मांगने का अधिकार प्रतिबंधित है; वह केवल असाधारण स्थितियों में ही ऐसा कर सकती है।

बच्चों को भरण पोषण करने की मां की जिम्मेदारी 

अपने बच्चों का समर्थन करने के लिए एक मां की जिम्मेदारी पर मुस्लिम कानून के विभिन्न स्कूलों के अलग-अलग विचार हैं। हनफ़ी कानून के अनुसार, यदि पिता अपने बच्चों का आर्थिक रूप से समर्थन करने में असमर्थ है, तो उनके भरण-पोषण की जिम्मेदारी माँ को दी जाती है। हालाँकि, शेफाई कानून के अनुसार, यदि पिता अपने बच्चों की देखभाल करने में असमर्थ है, तो उनके भरण-पोषण की जिम्मेदारी दादा पर आ जाती है, भले ही माँ आर्थिक रूप से सही हो और अपने बच्चों का पालन-पोषण करने में सक्षम हो। 

अगर कोई बच्चा अपने माता-पिता के तलाक के बाद अपनी मां के साथ रहता है, तो मां तब तक पिता से समर्थन पाने की हकदार होती है जब तक कि उसका लड़का वयस्कता तक नहीं पहुंच जाता और उसकी बेटी कानूनी रूप से शादी नहीं कर लेती।

सी.आर.पी.सी. की धारा 125 के तहत भरण पोषण 

एक मजिस्ट्रेट को धारा 125 के तहत किसी व्यक्ति को भरण-पोषण का भुगतान करने का आदेश देने का अधिकार है, यदि वह व्यक्ति पर्याप्त संसाधन होने के बावजूद निम्नलिखित लोगों का समर्थन करने में उपेक्षा करता है या इनकार करता है:

  1. एक पत्नी जो स्वयं की देखभाल करने में असमर्थ है (तलाकशुदा और पुनर्विवाहित सहित),
  2. उसका छोटा बच्चा, चाहे कानूनी हो या नाजायज, चाहे विवाहित हो या नहीं और खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ हो,
  3. उसकी जायज या नाजायज संतान (जो विवाहित बेटी नहीं है) जो बालिग होने की उम्र तक पहुंच चुकी है। ऐसा बच्चा किसी शारीरिक या मानसिक दोष या क्षति के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ होता है,
  4. विवाहित बेटी जब तक कि वह वयस्क की उम्र तक नहीं पहुँचती है यदि उसका पति उसका समर्थन करने में असमर्थ है।
  5. उसके पिता या माता अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की आवश्यकताओं में यह शामिल है कि एक व्यक्ति को समाज के प्रति उस नैतिक प्रतिबद्धता को पूरा करना चाहिए जो वह अपनी पत्नी, बच्चों और माता-पिता के लिए करता है। दायित्व निर्विवाद रूप से व्यक्ति पर वैध और अनिवार्य है। सी.आर.पी.सी. के प्रावधान धर्मनिरपेक्ष, अहानिकर (इनोक्यूअस) और चरित्र में सभी को शामिल करने वाले हैं, और वे धर्म, जाति या पंथ की परवाह किए बिना भारत में सभी समूहों पर लागू होते हैं। प्रभावित व्यक्ति चाहे जो भी निजी कानून का नेतृत्व और विनियमन करता हो, सी.आर.पी.सी. की धारा 125 की आवश्यकताएं लागू करने योग्य हैं। 

सी.आर.पी.सी. के अध्याय IX में प्रावधान का उद्देश्य एक सरल, त्वरित और प्रभावी सीमित राहत प्रदान करके उपेक्षित पत्नी, माता-पिता और बच्चों (नाबालिग) को पूर्ण गरीबी और तबाही से बचाना है। सी.आर.पी.सी. की धारा 125 भुखमरी और नागरिक क्षति के लिए एक त्वरित समाधान प्रदान करती है। यह पति के नागरिक दायित्व के समान नहीं है। यह सरल सारांश विधि के लिए स्टैंड-इन के रूप में कार्य करता है। यह पत्नी, बच्चों और बुजुर्ग माता-पिता जो, खुद का समर्थन करने में असमर्थ हैं, का समर्थन करने के लिए एक आदमी के मूलभूत मौलिक दायित्व को अभिव्यक्ति देता है। सी.आर.पी.सी. की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की स्थिति को रेखांकित करने वाली प्राथमिक अवधारणा यह है कि कोई भी पत्नी, छोटे बच्चे, या बुजुर्ग माता-पिता को अपराध करने के लिए लुभाने के लिए इच्छाओं के पूर्ण तनाव के अधीन नहीं होना चाहिए। प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट सी.आर.पी.सी. की धारा 125 के तहत गरीबी से बचने के लिए त्वरित कार्रवाई करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) है।

मुस्लिम महिलाओं पर सी.आर.पी.सी. लगाने को लेकर विवाद

वर्षों के दौरान विवाद का प्रमुख विषय यह था कि क्या धारा 125 एक मुस्लिम महिला पर लागू होती है जो उसकी इद्दत अवधि समाप्त होने के बाद भरण पोषण चाहती है। धारा 125 के तहत भरण-पोषण के अपने हक के लिए मुस्लिम महिलाओं की न्यायिक लड़ाइयों के पूरे इतिहास की आगे विस्तार से जांच की गई है। 

मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो

तथ्य

मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो (1985) भरण पोषण के अधिकार के लिए लड़ाई की शुरुआत थी। इस मामले में, शाहबानो और मोहम्मद अहमद खान ने 1932 में इंदौर में शादी करने का फैसला किया। मोहम्मद अहमद खान ने शादी के 14 साल बाद दूसरी महिला से शादी की, जो उनसे काफी छोटी थी। अपनी दूसरी पत्नी से शादी करने के बाद, अहमद खान ने 1975 में शाह बानो और उनके 5 बच्चों को एक अलग घर में रहने के लिए कहा। अप्रैल 1978 में, उन्होंने धारा 125 के तहत भरण-पोषण की याचिका दायर की, जिसमें आरोप लगाया गया कि उन्हें 200 रुपये के भरण-पोषण से वंचित किया जा रहा है, जिसके लिए उसके पति ने उससे वादा किया था। तीन बार तलाक कहने के बाद नवंबर 1978 में शाह बानो को उनके पति ने अलग कर दिया था। मुसलमानों में, ऐसा तलाक अपरिवर्तनीय है। 

विचारणीय अदालत में, पति ने तर्क दिया कि शाह बानो समर्थन की हकदार नहीं थी क्योंकि वह अब उसकी कानूनी रूप से विवाहित पत्नी नहीं थी। उसने पहले उसे मेहर की रकम दी थी और उसकी इद्दत के दौरान उसकी देखभाल की थी। विचारणीय अदालत ने पति की दलील को खारिज कर दिया और उसे हर महीने भरण पोषण के रूप में 25 रुपये देने का निर्देश दिया। शाह बानो ने भरण-पोषण के भुगतान को 25 रुपये से बढ़ाकर 179 रुपये करने के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने उनकी अपील को स्वीकार कर लिया। मोहम्मद अहमद खान आदेश से परेशान होकर सर्वोच्च न्यायालय गए।

मुद्दे

  • क्या एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला “पत्नी” की परिभाषा में शामिल है?
  • क्या इसे व्यक्तिगत कानून पर वरीयता (प्रिसीडेंस) मिलेगी?
  • तलाक पर देय राशि क्या है? क्या मेहर का अर्थ तलाक पर देय योग नहीं है?
  • क्या तलाकशुदा पत्नी के लिए भरण पोषण देने की जरूरत के मामले में धारा 125 और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के बीच कोई समस्या है?

निर्णय

मोहम्मद अहमद खान की अपील को अदालत ने खारिज कर दिया और फैसला सुनाया कि धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष भरण पोषण का प्रावधान है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125(3) सभी नागरिकों पर लागू होती है, भले ही उनकी आस्था कुछ भी हो, और इसलिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125(3) बिना किसी भेदभाव के मुसलमानों पर लागू होती है। अदालत ने आगे कहा कि अगर व्यक्तिगत कानून और धारा 125 के बीच विवाद होता है, तो धारा 125 को प्राथमिकता दी जाती है। यह पूरी तरह से स्पष्ट करता है कि धारा 125 और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के प्रावधानों में कोई विरोध नहीं है जब मुस्लिम पति की तलाकशुदा पत्नी जो खुद का समर्थन करने में असमर्थ है के लिए भरण पोषण देने की जिम्मेदारी आती है।

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने सही कहा कि क्योंकि एक मुस्लिम पति की अपनी तलाकशुदा पत्नी के प्रति जिम्मेदारी ‘इद्दत’ तक सीमित है, हालांकि यह परिस्थिति सी.आर.पी.सी., 1973 की धारा 125 में वर्णित कानून के शासन की परिकल्पना नहीं करती है। पत्नी को भरण-पोषण का भुगतान करने का पति का कर्तव्य इद्दत अवधि से आगे बढ़ जाता है यदि पत्नी के पास खुद को बनाए रखने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। अदालत ने आगे कहा कि यह प्रावधान, मुस्लिम कानून के अनुसार, मानवता के खिलाफ या गलत था क्योंकि एक तलाकशुदा महिला खुद को बनाए रखने में असमर्थ थी। तलाक पर पति द्वारा मेहर का भुगतान पत्नी को भरण पोषण देने के अपने दायित्व से मुक्त करने के लिए अपर्याप्त है।

लंबी कानूनी लड़ाई के बाद आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला किया कि अगर एक तलाकशुदा महिला खुद की देखभाल करने में सक्षम है, तो पति की कानूनी बाध्यता समाप्त हो जाती है। हालांकि, अगर पत्नी इद्दत अवधि के बाद खुद का समर्थन करने में असमर्थ है, तो वह सी.आर.पी.सी. की धारा 125 के तहत भरण पोषण या गुजारा भत्ता पाने की हकदार होगी।

शाह बानो फैसले के बाद

शाह बानो के मामले में दिए गए फैसले से मुस्लिम कट्टरपंथियों में आक्रोश था, जिसे उन्होंने अपने धर्म के सीधे विरोध में देखा। मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 समाज के इस वर्ग को शांत करने के लिए राजीव गांधी के नेतृत्व में तत्कालीन कांग्रेस प्रशासन द्वारा अधिनियमित किया गया था। इस कानून ने अदालत के फैसले को पलट दिया और तलाक पर मुस्लिम कानून को औपचारिक रूप दिया, जिसने एक मुस्लिम महिला को अपने पूर्व पति से समर्थन लेने की क्षमता पर रोक लगा दी। इस अधिनियम की धारा 3 में कहा गया है:

  • एक मुस्लिम महिला को केवल उसकी इद्दत की अवधि के भीतर भरण-पोषण की अनुमति है।
  • अगर उसके तलाक से पहले या बाद में बच्चे हैं, तो उसे बच्चों के जन्म की तारीख से दो साल की अवधि के लिए भरण-पोषण करने की अनुमति है।
  • यदि उसका पति उसकी ज़रूरतों को पूरा करने में विफल रहता है, तो वह उन रिश्तेदारों से मुआवज़े की हकदार है, जो उसकी मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति प्राप्त करने वाले हैं।

यह विडंबना है कि अधिनियम को मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम कहा जाता है क्योंकि यह मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं को पवित्र कुरान द्वारा दिए गए किसी भी अधिकार से वंचित करता है।

इस निर्णय के बाद शाह बानो के वकील डेनियल लतीफी ने विवाह के बाद तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं पर अधिनियम की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिल्टी) को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक मामला दायर किया। नतीजतन, डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) में, अदालत ने फैसला किया कि धारा 125 मुस्लिम महिलाओं को इद्दत से आगे की अवधि के लिए अपने पति से भरण-पोषण की मांग करने की अनुमति देती है और इद्दत से परे पत्नी के भरण-पोषण के लिए किसी भी व्यवस्था को इद्दत के दौरान पति के द्वारा स्थापित किया जाना चाहिए। यह मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3(1)(a) की संवैधानिक वैधता को ध्यान में रखते हुए भी किया गया था। विधायी प्रावधान की व्याख्या इस तरह से की जानी चाहिए कि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, और 21 के विरोधाभासी न हो। इस मामले ने व्यक्तिगत अधिकारों और धर्मनिरपेक्ष दायित्वों के बीच सही संतुलन कायम किया।

निष्कर्ष

हिंदू और मुस्लिम दोनों व्यक्तिगत कानून में भरण-पोषण के प्रावधान हैं, जिनका उद्देश्य यह गारंटी देना है कि वित्तीय साधनों की कमी के कारण किसी को भी सम्मानित जीवन से वंचित नहीं किया जा सकता है। दोनों धर्म परिवार के सदस्यों की जिम्मेदारी को स्वीकार करते हैं कि वे परिवार में उन लोगों के लिए प्रदान करें जो इसके हकदार हैं। न्यायिक घोषणाओं ने भरण पोषण के हिंदू कानून को संशोधित और विस्तृत किया है। हालांकि, शास्त्रीय कानून की वैधता पर कुछ संशोधन या असहमति हुई है। भरण-पोषण पर मुस्लिम कानून कई कानूनी विवादों का विषय रहा है जिन्हें अदालतों ने वर्षों से सुलझाया है। परिवार के अन्य सदस्यों के भरण पोषण के अधिकारों को दोनों व्यक्तिगत कानूनों में लगभग समान स्तर पर संरक्षित किया गया है। हालांकि इन दोनों में वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है लेकिन लक्ष्य वही है कि परिवार के सदस्यों के अधिकारों की रक्षा करना है।

संदर्भ

  • Family Law I: Prof. Kusum
  • Family Law II: Prof. Kusum

 

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