यह लेख Monesh Mehndiratta द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत में किशोरों (जुवेनाइल) से संबंधित उन ऐतिहासिक मामलों का संक्षिप्त विवरण प्रदान करता है जिनका निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया गया है। ये मामले किशोरों और उनके कल्याण से संबंधित विभिन्न मुद्दों से संबंधित हैं। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।
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परिचय
युवा पीढ़ी किसी देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण संपत्तियों में से एक होती है। बच्चे और युवा समाज का भविष्य हैं; इसलिए, उन्हें किसी न किसी माध्यम से अपने देश की सेवा करना सिखाया जाना चाहिए। हर सरकार का ध्यान मुख्य रूप से युवा दिमाग और उनके विकास, शिक्षा और प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) पर होता है ताकि उन्हें उत्पादक नागरिक बनाया जा सके। हालाँकि, ऐसे समय होते हैं जब इन युवा दिमागों को प्रभावित किया जाता है या उनके साथ छेड़छाड़ की जाती है, जिसके परिणामस्वरूप वे भटक जाते हैं और अपराध करते हैं। इस तरह के विचलन के लिए कई कारक जिम्मेदार हो सकते हैं जैसे सामाजिक कारक, पारिवारिक मुद्दे, मानसिक स्वास्थ्य मुद्दे, जैविक कारक, पर्यावरणीय कारक आदि।
किसी अपराधी को दोषी ठहराना आपराधिक न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक अपराधी को उसके किये गये अपराध की सजा अवश्य मिलनी चाहिए। यह बात बच्चों और युवा अपराधियों पर भी लागू होती है। हालाँकि, उनके लिए एक विशेष तंत्र बनाया गया है। ऐसे युवा अपराधियों को किशोर के रूप में जाना जाता है और वे किशोर न्याय अधिनियम (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) 2015 के तहत शासित होते हैं। उनके साथ वयस्क (एडल्ट) अपराधियों की तरह व्यवहार नहीं किया जाता है और न ही उन्हें भयानक और आदतन अपराधियों में बदलने से रोकने के लिए दंडित किया जाता है। इसका उद्देश्य किशोर न्याय प्रणाली की मदद से उनमें सुधार करना और उन्हें शांत नागरिक बनाना है।
पिछले कुछ वर्षों में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों की मदद से किशोर न्याय प्रणाली में कई विकास हुए हैं। आज के लेख में, हम देश में किशोरों के संबंध में ऐतिहासिक कानूनी मामलों पर चर्चा करेंगे।
किशोर न्याय अधिनियम: एक अवलोकन
किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 को, अधिनियम के तहत आने वाले बच्चों की श्रेणियों से संबंधित कानून में संशोधन और समेकित (कंसोलिडेट) करने के लिए अधिनियमित किया गया था। इसे बच्चों की देखभाल, सुरक्षा, उपचार और विकास से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और भारतीय संविधान के प्रावधानों को बनाए रखने के लिए अधिनियमित किया गया है। अधिनियम बच्चों की दो श्रेणियों को मान्यता देता है, अर्थात्:
- कानून के साथ संघर्ष में बच्चे
- बच्चे जिन्हे देखभाल और सुरक्षा की जरूरत है
अधिनियम की आवश्यकता
भारत ने 1986 में किशोरों के उपचार और विकास के लिए कानून बनाकर और इसे किशोर न्याय अधिनियम, 1986 का नाम देकर किशोर न्याय प्रशासन के लिए संयुक्त राष्ट्र के न्यूनतम नियम, 1985 को अपनाया था। हालांकि, समय बीतने के साथ, यह महसूस किया गया कि नया कानून बनाया जाना चाहिए, जिसके परिणामस्वरूप किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 लागू किया गया। किशोरों का पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य था।
2013 में निर्भया बलात्कार मामले की भयावह घटना के बाद, विधायिका को किशोरों की उम्र, उनके मुकदमे और उनके उपचार के संबंध में अधिनियम में संशोधन करने की आवश्यकता महसूस हुई। अंततः, किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 अधिनियमित और लागू किया गया था। वर्तमान कानून प्रत्येक जिले में एक किशोर न्याय बोर्ड के गठन और स्थापना का प्रावधान करता है। बोर्ड पर किशोरों से संबंधित मामलों को निपटाने और आवश्यक आदेश पारित करने की जिम्मेदारी है। यह उन बच्चों को गोद लेने का भी प्रावधान करता है जिन्हें उनके माता-पिता ने आत्मसमर्पण कर दिया है या छोड़ दिया है। अधिनियम किशोरों के लिए देखभाल कार्यक्रमों पर भी जोर देता है और उनके उपचार, देखभाल और विकास के लिए विभिन्न आश्रय गृहों जैसे अवलोकन गृह, विशेष गृह, बाल गृह आदि का प्रावधान करता है।
अधिनियम का उद्देश्य
- अधिनियम का प्राथमिक उद्देश्य उन किशोरों और बच्चों से संबंधित कानून को समेकित और संशोधित करना है जिनके साथ किसी भी तरह से दुर्व्यवहार या उत्पीड़न किया गया है और उन्हें देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता है।
- इसका उद्देश्य किशोरों का पुनर्वास और उन्हें समाज में वापस शामिल करना है।
- यह ऐसे बच्चों के उपचार और विकास से भी संबंधित है।
- यह विभिन्न तंत्र (मशीनरी) प्रदान करता है जो अधिनियम के तहत आने वाले बच्चों से संबंधित मामलों की सुनवाई और निपटान करती है।
- यह विभिन्न आश्रय गृहों के लिए प्रावधान प्रदान करता है जहां ऐसे बच्चों को उनके उपचार, पुनर्वास और विकास के लिए रखा जाता है।
भारत में किशोरों से संबंधित ऐतिहासिक मामले
भारत में न्यायिक मिसालें, कानून और न्याय प्रणाली को आकार देने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। प्रत्येक मामला कानून में मौजूद खामियों को उजागर करता है और अदालतें इसके खिलाफ उपाय प्रदान करती हैं। नीचे दिए गए मामलों ने ऐसे बच्चों की बेहतरी और कल्याण के लिए मौजूदा खामियों को सामने लाकर किशोर न्याय प्रणाली को आकार देने में मदद की है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आने वाली किसी भी समस्या या दिशानिर्देश को लेकर समय-समय पर विभिन्न दिशा-निर्देश और नियम दिए गए हैं।
शीला बरसे बनाम भारत संघ (1986)
इस मामले में एक याचिका दायर कर न्यायालय से विभिन्न राज्यों की जेलों में बंद 16 साल से कम उम्र के बच्चों को रिहा करने की मांग की गई थी। मौजूदा किशोर न्यायालयों, आश्रय स्थलों और स्कूलों की संख्या के साथ-साथ जेल में बंद बच्चों से संबंधित अन्य जानकारी की मांग भी की गई थी। जवाब में, सर्वोच्च न्यायालय ने संबंधित उत्तरदाताओं को नोटिस जारी किया और जिलों में न्यायिक मजिस्ट्रेटों को निर्देश दिया कि वे अपने जिलों में सभी जेलों, आश्रय गृहों, अवलोकन गृहों आदि का दौरा करें और निरीक्षण करें और एक रिपोर्ट बनाएं जिसे एक सप्ताह के भीतर अदालत में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इस मामले में बड़ा मुद्दा यह था कि क्या जेलों में बंद 16 साल से कम उम्र के बच्चों के साथ बुरा व्यवहार और दुर्व्यवहार किया जाता है या नहीं।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कानून में यह स्थापित सिद्धांत है कि बच्चों को वयस्क अपराधियों की तरह जेलों में कैद नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे उन पर हानिकारक प्रभाव पड़ेगा जो उनके विकास और वृद्धि को प्रभावित करेगा। इस संबंध में नम्नलिखित निर्देश दिये गये:
- सभी राज्यों को बाल अधिनियम, 1960 को अपने-अपने राज्यों में लागू करने और इसका पालन सुनिश्चित करने के लिए कहा गया।
- देश की प्रत्येक जेल को जेल मैनुअल को परिश्रमपूर्वक बनाए रखने के लिए कहा गया।
- प्रत्येक राज्य के प्रत्येक जिले में जिला और सत्र न्यायाधीशों को हर दो महीने में कम से कम एक बार जेलों का दौरा करने के लिए कहा गया।
- बच्चों को जेल मैनुअल का लाभ दिया जा रहा है या नहीं, इसकी जांच करना दौरा करने वाले न्यायाधीशों का कर्तव्य है।
प्रताप सिंह बनाम झारखंड राज्य (2005)
इस मामले में अपीलकर्ता को जहर देकर मृतक की मौत में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। जब उसे अदालत में पेश किया गया, तो उसकी उम्र 18 साल थी, और यह आरोप लगाया गया कि अपराध के समय वह किशोर था। मामला फिर किशोर न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया, जहां उसके प्रमाणपत्रों की जांच की गई, और यह माना गया कि जिस दिन अपराध किया गया था उस दिन वह नाबालिग था और इसलिए उसे जमानत पर रिहा कर दिया गया। दूसरा पक्ष फैसले से असंतुष्ट था, और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के पास अपील की गई, जिसमें यह माना गया कि किशोर की उम्र निर्धारित करने के लिए, अपराध करने की तारीख के बजाय अदालत में पेश होने की तारीख पर विचार किया जाना चाहिए।
इस निर्णय की पुष्टि झारखंड उच्च न्यायालय ने की, जिसमें कहा गया कि स्कूल प्रमाणपत्र इस संबंध में सबसे अच्छा सबूत है। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने किशोर की उम्र निर्धारित करने के लिए अपराध घटित होने की तारीख को मानदंड माना, न कि उस तारीख को जिस दिन ऐसे व्यक्ति को अदालत के सामने पेश किया गया था।
न्यायालय के समक्ष एक अन्य मुद्दा किशोर न्याय अधिनियम (बच्चों की देखभाल और संरक्षण), 2000 की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) का निर्धारण करना था। वर्तमान मामला किशोर न्याय अधिनियम 1986 के तहत दायर किया गया था, लेकिन जब तक यह सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा, 2000 के अधिनियम इसे बदल दिया था। उपेन्द्र कुमार बनाम बिहार राज्य (2004) के मामले पर भरोसा करते हुए, जिसमें यह देखा गया कि अधिनियम का उद्देश्य प्रत्येक किशोर की मदद करना था, यह माना गया कि 2000 का अधिनियम किसी भी अदालत में लंबित मामलों पर लागू होगा, या 1986 अधिनियम के तहत अधिकार, और जो 2000 अधिनियम लागू होने के समय अभी भी लंबित थे और जिसमें व्यक्ति ने 1.4.2001 तक 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की थी, उनका निर्णय 2000 अधिनियम के अनुसार किया जाएगा।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने किशोर न्याय प्रशासन के लिए संयुक्त राष्ट्र मानक न्यूनतम नियम, 1985, जिसे बीजिंग नियम के रूप में भी जाना जाता है, के महत्व को भी समझाया। ये नियम प्रत्येक किशोर पर बिना किसी भेदभाव के लागू होते हैं, चाहे उनकी राष्ट्रीयता, जाति, नस्ल या धर्म कुछ भी हो।
- यह वयस्क अपराधियों के लिए मुकदमा चलाने की प्रक्रिया और उन पर लागू नियमों को किशोरों के लिए अनुपयुक्त मानता है। प्रतिबंध लगाना और किशोरों को दंडित करना अंतिम उपाय होना चाहिए।
- नियम आपराधिक न्याय प्रणाली के बुनियादी सिद्धांतों को भी किशोरों के अधिकारों में से एक के रूप में मान्यता देते हैं, यानी, अभियोजन के संबंध में किशोरों को निर्दोष माना जाना चाहिए।
- किशोरों को आरोपों के संबंध में सूचित किया जाना चाहिए और परामर्श दिया जाना चाहिए।
- उन्हें जांच या पूछताछ के दौरान चुप रहने का अधिकार है।
- नियमानुसार उनका अभियोजन उनके माता-पिता अथवा अभिभावक की उपस्थिति में किया जाता है।
- उनके अपील करने के अधिकार को कन्वेंशन के तहत मान्यता प्राप्त है।
हरि राम बनाम राजस्थान राज्य (2009)
इस मामले में हरि राम नाम के व्यक्ति पर कई अपराध करने का आरोप लगाया गया था। मुद्दा उसकी उम्र और आरोपी के साथ वयस्क या किशोर जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए या नहीं, से जुड़ा था। मुकदमा शुरू होने के बाद, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 1986 के अधिनियम के अनुसार अपराध करने की तारीख पर आरोपी की उम्र 16 वर्ष से कम निर्धारित की, और इसलिए उसका मामला राजस्थान के अजमेर में किशोर न्याय बोर्ड को भेजा गया। दूसरी ओर, उच्च न्यायालय ने उसके पिता की गवाही और मेडिकल रिपोर्ट पर भरोसा किया और माना कि अपराध के समय आरोपी की उम्र 16 वर्ष से अधिक थी और इसलिए, उसे अपराध के दायरे से बाहर रखा गया था। हालाँकि, 2000 के अधिनियम ने आयु को 16 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया, जिसके तहत एक बच्चे को अधिनियम के तहत किशोर माना जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय के सामने मुद्दा यह था कि आरोपियों पर कौन सा कानून लागू होगा। न्यायालय ने कहा कि सभी लंबित मामलों को इसके अधिनियमन के बाद 2000 अधिनियम के अनुसार निपटाया जाएगा, इसलिए वही अधिनियम वर्तमान मामले में भी लागू होगा और आरोपी को किशोर माना जाएगा।
अबुजर हुसैन @ गुलाम हुसैन बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2012)
इस मामले में, अपीलीय अदालत द्वारा अपराध की तारीख पर किशोरता के संबंध में अपील की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर कि क्या किशोर होने की दलील दी जानी चाहिए या नहीं, यह माना कि किशोर होने का दावा किसी मामले के अंतिम निपटान के बाद भी उठाया जा सकता है, जिसका अर्थ है कि इसे किसी भी स्तर पर उठाया जा सकता है और कोई भी देरी इसकी अस्वीकृति के लिए वैध आधार नहीं हो सकती। नाबालिग होने की दलील का समर्थन करने का बोझ दावा करने वाले व्यक्ति पर है। आगे यह देखा गया कि अदालत को ऐसे दावों से निपटने के दौरान किसी भी तकनीकी दृष्टिकोण को लागू नहीं करना चाहिए। हालाँकि, अदालत के पास झूठे और फर्जी दावों को खारिज करने की शक्ति है। इस मामले में अदालत ने यह भी देखा कि अपीलीय अदालत या उच्च न्यायालय में किसी भी स्तर पर किशोरवय के मुद्दे पर विचार नहीं किया गया था और न ही इसे साबित करने के लिए कोई सबूत था।
अदालत ने गोपीनाथ घोष बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1984) के मामले पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि, भले ही आयु निर्धारण के मुद्दे पर विचार नहीं किया गया था, लेकिन अदालत के लिए आरोपी की उम्र के सवाल पर चर्चा करना अनिवार्य था। इस मामले में, हत्या के अपराध के लिए दोषी ठहराए गए आरोपियों में से एक ने अपील की कि अपराध करने की तारीख पर उसकी उम्र 18 वर्ष से कम थी, और इसलिए वह पश्चिम बंगाल किशोर अधिनियम, 1959 के अनुसार “बच्चे” के दायरे में आता है और इसलिए उम्र के निर्धारण का मुद्दा तैयार किया गया और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की अदालत में भेजा गया।
जरनैल सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2013)
इस मामले में, आरोपी पर पीड़िता को उसके माता-पिता से दूर ले जाने और उसके साथ जबरदस्ती यौन संबंध बनाने का आरोप लगाया गया था। जांच के दौरान वह उसके घर में पाई गई, जिसके परिणामस्वरूप सत्र न्यायालय ने उसे जुर्माने के साथ दस साल की कठोर सजा सुनाई। पीड़ित पक्ष होने के नाते आरोपी ने फैसले के खिलाफ अपील की और आरोप लगाया कि पीड़िता ने उसे ऐसा करने के लिए फुसलाया और उसकी सहमति से उसके साथ रही। इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि यह साबित हो गया है कि आरोप लगाने वाला नाबालिग था। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 के तहत किशोर की उम्र निर्धारित करने वाले नियमों को यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 से संबंधित मामलों में लागू किया जा सकता है।
एस्सा @ अंजुम अब्दुल रज़ाक मेमन बनाम महाराष्ट्र राज्य, एसटीएफ, सीबीआई मुंबई के माध्यम से (2013)
यह मामला 1993 के बॉम्बे विस्फोटों में शामिल आतंकवादी और विघटनकारी (डिसरप्टिव) गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1987 के तहत कई आरोपियों की सजा से संबंधित है। उन पर इस तरह का अपराध करने की साजिश रचने का भी आरोप लगाया गया था। इस मामले में सबूतों में सह-अभियुक्तों द्वारा दिए गए बयान, अभियोजन पक्ष के गवाह, दस्तावेज़ और अभियुक्त का कबूलनामा शामिल है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रमुख मुद्दा यह विश्लेषण करना था कि टीएडीए और किशोर न्याय अधिनियमों में से कौन सा दूसरे पर प्रबल होगा। यह देखा गया कि किशोर न्याय अधिनियम, 2000 का उन कानूनों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है जो इसके अधिनियमन की तारीख पर लागू थे। दूसरी ओर, टीएडीए को बहुत पहले ही ख़त्म कर दिया गया है। इस आधार पर, न्यायालय ने माना कि टीएडीए पर किशोर न्याय अधिनियम 2000 का कोई अधिभावी प्रभाव नहीं होगा।
जीतेन्द्र सिंह @ बब्बू सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2013)
यह मामला दहेज हत्या से जुड़ा है जहां एक महिला को उसके पति और ससुर सहित तीन लोगों ने मार डाला और जला दिया था। हालाँकि, जब अदालत में कार्यवाही लंबित थी, तब उसके ससुर की मृत्यु हो गई और आरोपियों में से एक ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील के दौरान दावा किया कि वह नाबालिग था, अर्थात, अपराध के समय उसकी 14 वर्ष की आयु थी। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में आरोपियों को दोषी ठहराने के निचली अदालतों के फैसले को बरकरार रखा, लेकिन यह भी देखा कि आरोपी किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के तहत किशोर की श्रेणी में आता है। सजा निर्धारित करने के लिए, मामले को अधिनियम के तहत किशोर न्याय बोर्ड को संदर्भित किया गया था। न्यायालय ने आगे कहा कि इस संबंध में आपराधिक न्याय प्रणाली का उद्देश्य किशोरों को पुनर्वास और पुनर्स्थापन (रेस्टोरेशन) तंत्र प्रदान करना है।
भविष्य में ऐसी स्थितियों से बचने के लिए न्यायालय ने कुछ सुरक्षा उपाय दिए हैं जिनका पालन किया जाना चाहिए:
- मजिस्ट्रेट का दायित्व है कि वह जितनी जल्दी हो सके आरोपी के किशोर होने के कारणों को दर्ज करे।
- किसी किशोर से यह नहीं माना जा सकता कि उसे मौजूदा कानूनों के बारे में जानकारी है, खासकर सामाजिक-आर्थिक कारकों के संदर्भ में।
- किशोर पर निर्णय लेने का दायित्व मजिस्ट्रेट पर है, क्योंकि किशोर से स्वयं इस पर दावा करने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
- ऐसे मामलों में जहां किशोर शामिल हैं, उनके माता-पिता या अभिभावकों को पूरी कानूनी प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए।
सलिल बाली बनाम भारत संघ (2013)
इस मामले में साढ़े सत्रह साल के एक व्यक्ति पर चलती गाड़ी में बलात्कार के अपराध का आरोप लगाया गया था। यह तर्क दिया गया कि 16-18 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों द्वारा किए गए अपराधों की गंभीरता के आधार पर 2000 अधिनियम पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता ने आग्रह किया कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 की धारा 2(k) और 2(l) और धारा 15 पर विचार करना आवश्यक है, जो कि 16-18 वर्ष का आयु वर्ग से संबंधित लोगों द्वारा किए गए आपराधिक अपराधों के आलोक में है। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह निर्भया मामले के मद्देनजर था।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दो मुद्दों पर चर्चा की:
- क्या किसी किशोर को वयस्क होने के बाद रिहा कर दिया जाना चाहिए, भले ही उसकी सजा अभी तक पूरी नहीं हुई हो
- क्या अधिनियम के तहत किशोरों की आयु 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष की जानी चाहिए
पहले मुद्दे पर, न्यायालय ने माना कि अधिनियम के तहत एक गलत धारणा है कि एक किशोर को वयस्क होने के बाद रिहा कर दिया जाना चाहिए, भले ही उसकी सजा बरकरार रहे। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यदि कोई किशोर अपनी सजा के दौरान वयस्क हो गया है, तो उसे रिहा नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उसे वयस्कता की आयु प्राप्त करने के बावजूद अपनी सजा पूरी करनी होगी। बाद के मुद्दे पर चर्चा करते हुए, न्यायालय ने कहा कि अधिनियम का उद्देश्य किशोरों को पुनर्वास और पुनर्स्थापन तंत्र और सहायता प्रदान करना है। 18 वर्ष की आयु वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक आधार पर तय की गई है कि इस आयु तक किशोरों को सुधार कर समाज में वापस लाया जा सकता है।
शबनम हाशमी बनाम भारत संघ (2014)
यह मामला किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के तहत बच्चों को गोद लेने से संबंधित है। इस मामले में एक लड़की को गोद लेने वाली मुस्लिम महिला शबनम हाशमी ने एक याचिका दायर की थी, जिसमें अनुरोध किया गया था कि अदालत गोद लेने के अधिकार को संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दे। उसके पास केवल उस लड़की जिसे उसने गोद लिया था, के संबंध में अभिभावक का अधिकार था, क्योंकि मुस्लिम कानून के तहत गोद लेने की अनुमति नहीं है।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के भाग III के तहत गोद लेने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी। यह माना गया कि किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के तहत गोद लेने के इच्छुक माता-पिता अपने धर्म, जाति या पंथ की परवाह किए बिना ऐसा कर सकते हैं। यह भी देखा गया कि मुस्लिम कानून न तो गोद लेने को मान्यता देता है और न ही किसी जोड़े को भावनात्मक और आर्थिक रूप से बच्चे की देखभाल करने से रोकता है।
डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी बनाम सदस्य किशोर न्याय बोर्ड के तहत राजू (2014)
यह मामला उसी निर्भया मामले के मद्देनजर दायर किया गया था, जिसमें एक महिला पर पांच लोगों द्वारा यौन और शारीरिक रूप से क्रूर हमला किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई थी। उन पांच लोगों में से एक नाबालिग था। उसका मामला किशोर न्याय बोर्ड को भेजा गया था, लेकिन याचिकाकर्ताओं ने उसे वयस्क मानकर मुकदमा चलाने की दलील दी।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम की व्याख्या करते हुए कहा कि क़ानून की भाषा स्पष्ट है और किशोरों के पुनर्वास और बहाली का स्पष्ट विधायी इरादा प्रदान करती है। इसी वजह से इसने 18 साल से कम उम्र के लोगों को किशोर की श्रेणी में रखा है, जिनकी जांच और सजा वयस्क अपराधियों की तुलना में अलग तरीके से की जाती है। इसके अलावा, संविधान ऐसे वर्गीकरण की मनाही नहीं करता है, जो इच्छित उद्देश्य के साथ तर्कसंगत संबंध रखने वाले समझदार मतभेदों पर आधारित है। इस प्रकार, शीर्ष अदालत ने अधिनियम के तहत 18 वर्ष से कम उम्र के लोगों को अलग मानने के फैसले को बरकरार रखा गया था।
पराग भाटी (किशोर) कानूनी अभिभावक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2016)
इस मामले में आरोपी को हत्या के अपराध में गिरफ्तार कर बाल सुधार गृह में रखा गया था। उसके पिता ने उसकी उम्र को लेकर आवेदन दायर कर कहा कि वह नाबालिग है। विभिन्न स्कूल प्रमाणपत्रों द्वारा भी इसका समर्थन किया गया। हालाँकि, प्रमाण पत्रों की जांच करने के बाद, किशोर न्याय बोर्ड को उसकी किशोरता के बारे में कुछ संदेह हुआ, और आरोपी को जांच और उसकी उम्र निर्धारित करने के लिए मेडिकल बोर्ड के पास भेजा गया। मेडिकल बोर्ड की राय थी कि वह बालिग है, इसलिए उसका मामला मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में स्थानांतरित कर दिया गया था।
किशोरता के निर्धारण के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अधिनियम के तहत किशोर का सिद्धांत केवल उन मामलों में लागू होगा जहां आरोपी प्रथम दृष्टया नाबालिग है। वर्तमान मामला एक सुनियोजित गंभीर अपराध से संबंधित है जो आरोपी की परिपक्वता (मैच्योरिटी) को दर्शाता है, और वह निर्दोष नहीं है। इस मामले में किशोर होने की दलील को मौजूदा कानून से बचने की प्रकृति का माना गया था।
शेर सिंह @ शेरू बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2016)
इस मामले में, अपीलकर्ता को अपहरण के अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था और उसने इस आधार पर किशोर होने की दलील दी थी कि, उसके हाई स्कूल परीक्षा (मैट्रिकुलेशन) रिकॉर्ड के अनुसार, जब अपराध किया गया था तब उसकी उम्र 18 वर्ष से कम थी। नतीजतन, वह किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के साथ-साथ किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 के लाभ का हकदार है। उक्त आवेदन किशोर न्याय बोर्ड को भेजा गया था। जिसने मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर याचिका खारिज कर दी, जिसके अनुसार अपराध के समय उसकी उम्र 19 वर्ष दर्ज की गई थी।
सत्र परीक्षण में उसे किशोर घोषित करने के लिए अपीलकर्ता द्वारा चार साल बाद फिर से प्रार्थना दायर की गई थी। हालाँकि, इसे भी खारिज कर दिया गया। इसके बाद यह आदेश अंतिम हो गया। उन्होंने 2013 में एक रिट याचिका दायर की, जिसे फिर से निरर्थक माना गया और खारिज कर दिया गया। हालाँकि, यह देखा गया कि अपीलकर्ता के किशोर होने की दलील देने का अधिकार प्रभावित नहीं होगा। अदालत ने कहा कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 की धारा 7A, 2007 के नियमों के नियम 12 के साथ, अदालत पर जांच करने का दायित्व डालती है, न कि कोई जांच या मुकदमा चलाने की। आगे यह देखा गया कि आयु निर्धारण से संबंधित जांच आवेदन करने की तारीख से 30 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए। इससे अदालत आसानी से साक्ष्य मांग सकती है और मैट्रिक या अन्य आवश्यक प्रमाणपत्र प्राप्त कर सकती है। अदालत ने उन दस्तावेजों की एक सूची प्रदान की जिनका इस संबंध में उल्लेख किया जाना चाहिए:
- मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र के अभाव में, जिस स्कूल में पहली बार दाखिला लिया था, वहां से जन्म प्रमाण पत्र लेना होगा, या,
- निगम, नगर पालिका प्राधिकरण, या पंचायत से जन्म प्रमाण पत्र।
- मेडिकल रिपोर्ट की आवश्यकता तभी होती है जब उपरोक्त दस्तावेज उपलब्ध न हों।
अदालत ने आगे कहा कि रिट याचिका को खारिज करने या उसे निरर्थक मानने से किसी व्यक्ति के किशोर होने की दलील उठाने के अधिकार से इनकार नहीं किया जा सकता है। याचिका को आपराधिक अपील में भी उठाया जा सकता है, भले ही इसे पहले बोर्ड के समक्ष उठाया गया हो।
संपूर्णा बेहुरा बनाम भारत संघ (2018)
इस मामले में, सम्पूर्णा बेहुरा नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा एक रिट याचिका दायर की गई थी और अवलोकन गृहों, आश्रय गृहों आदि में बच्चों और किशोरों के सामने आने वाली समस्याओं पर प्रकाश डाला गया था। उन्होंने संविधान में विभिन्न प्रावधानों की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया जो कि लागू होते हैं। बच्चों के कल्याण और विकास को सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार का कर्तव्य और ऐसा करने में उनकी विफलता, जैसे किशोर न्याय बोर्ड की स्थापना, किशोरों के लिए चिकित्सा सुविधाएं, उचित रहने की स्थिति, किशोर पुलिस, आदि।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इस अधिनियम को राज्य सरकारों द्वारा बच्चों की जरूरतों के अनुसार ठीक से लागू किया जाना चाहिए और निम्नलिखित निर्देश दिए:
- महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग बच्चों को बेहतर स्थिति प्रदान करने की दिशा में पर्याप्त कर्मचारियों के साथ ठीक से काम करें।
- किशोर न्याय बोर्ड एवं बाल कल्याण समितियों को कानून से संघर्षरत बच्चों को त्वरित न्याय दिलाने के संबंध में नियमित सत्र आयोजित करने का निर्देश दिया गया।
- राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर बाल अधिकार आयोग को अपने कार्यों और कर्तव्यों को ठीक से निभाना चाहिए और नियमित अंतराल पर सर्वेक्षण करना चाहिए।
- प्रत्येक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों को अदालत के माहौल को किशोरों के लिए अनुकूल बनाने के लिए कहा गया।
- राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों के लिए सभी संस्थान पंजीकृत हों और उन्हें पोषण, स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएं दी जाएं।
- किशोर न्याय बोर्ड, बाल कल्याण समितियों, किशोरों के लिए विशेष पुलिस इकाइयों, जिलों में बाल संरक्षण इकाइयों आदि के सदस्यों या अधिकारियों को किशोरों से निपटने के लिए उचित और पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
बाल संरक्षण गृहों में कोविड-19 वायरस का पुनः संक्रमण (2020)
इस मामले में लॉकडाउन के दौरान महामारी के दौरान पर्यवेक्षण गृहों में रखे गए बच्चों और किशोर गृहों तथा आश्रय गृहों में रखे गए कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों की सुरक्षा से संबंधित एक रिट याचिका दायर की गई थी। याचिका कोविड-19 की महामारी के प्रसार के दौरान किशोर गृहों में बच्चों के स्वास्थ्य और सुरक्षा तथा पालन-पोषण और रिश्तेदारी देखभाल से संबंधित थी। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित निर्देश जारी किये गये:
- बाल कल्याण समितियों को ऐसे घरों में बच्चों के स्वास्थ्य और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए निवारक कदम उठाने के लिए कहा गया था।
- उन्हें घर वापस भेजे गए बच्चों का रिकॉर्ड रखने के लिए जिला बाल संरक्षण समितियों और पालन-पोषण देखभाल और गोद लेने वाली समितियों के साथ समन्वय करने का भी निर्देश दिया गया।
- ऑनलाइन हेल्प डेस्क और सपोर्ट सिस्टम स्थापित किए जाने थे।
- समितियों को हिंसा और यौन उत्पीड़न पर नजर रखने और यह सुनिश्चित करने का भी निर्देश दिया गया कि ऐसे घरों में बच्चों के साथ ऐसी कोई घटना न हो।
- किशोर न्याय बोर्ड को किशोर गृहों में वायरस के प्रसार को रोकने के लिए सक्रिय कदम उठाने का निर्देश दिया गया था। इस कारण से, बच्चों को उनके सर्वोत्तम हितों, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए बाल देखभाल संस्थानों में रखा जा सकता है।
- ऑनलाइन सिटिंग के माध्यम से मामलों का त्वरित निस्तारण (डिस्पोजल) किया जाए।
- पर्यवेक्षण गृहों में बच्चों को परामर्श सत्र अवश्य दिया जाना चाहिए।
- सरकार को इस स्थिति में उठाए जाने वाले सभी उपायों के बारे में बाल देखभाल संस्थानों को सूचित करना चाहिए।
- जिला संरक्षण इकाइयों और बाल देखभाल संस्थानों में रोटेशन के आधार पर पर्याप्त कर्मचारी उपलब्ध कराने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए और प्रशिक्षित स्वयंसेवकों को बच्चों की देखभाल का प्रभार दिया जाना चाहिए।
- सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी अधिकारी और पदाधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन लगन से करें।
- बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाले फेस मास्क, सैनिटाइज़र, स्वच्छता उत्पाद आदि प्रदान किए जाते हैं, और परिसर को ठीक से साफ किया जाता है।
- बच्चों को वायरस के प्रसार और बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए।
- हर समय सामाजिक दूरी का पालन करना चाहिए।
- यदि वायरस के लक्षण हैं तो व्यक्ति को तुरंत क्वारंटाइन किया जाना चाहिए।
- जो परिवार बच्चों के पालन-पोषण में शामिल हैं, उन्हें वायरस के प्रसार की रोकथाम के संबंध में अद्यतन (अपडेटेड) रहने का निर्देश दिया गया।
- ऐसे परिवारों और बच्चों के स्वास्थ्य और सुरक्षा पर निगरानी रखी जानी चाहिए।
- तनाव और चिंता से बचने के लिए बच्चों को मनोरंजन और बौद्धिक गतिविधियों में अपना मन लगाने के लिए प्रेरित करने के निर्देश जारी किए गए।
निष्कर्ष
किसी भी देश की युवा पीढ़ी उसके सबसे महत्वपूर्ण संसाधनों में से एक होती है। यही कारण है कि हर सरकार बच्चों की वृद्धि और विकास पर अधिक ध्यान केंद्रित करती है। किशोर न्याय अधिनियम, 2015, एक ऐसा कानून है जो किशोरों के कल्याण के लिए काम करता है ताकि उनमें सुधार किया जा सके और उन्हें समाज में वापस शामिल किया जा सके।
भारत में न्यायिक मिसालें कानून और न्याय प्रणाली को आकार देने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। प्रत्येक मामला कानून में मौजूद खामियों को उजागर करता है और अदालतें इसके खिलाफ उपाय प्रदान करती हैं। उपर्युक्त मामलों ने ऐसे बच्चों की बेहतरी और कल्याण के लिए मौजूदा खामियों को सामने लाकर किशोर न्याय प्रणाली को आकार देने में मदद की है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आने वाली किसी भी समस्या या दिशानिर्देश को लेकर समय-समय पर विभिन्न दिशा-निर्देश और नियम दिए गए हैं, चाहे वह ऐसे बच्चों की किशोरावस्था निर्धारित करने का सवाल हो, उनकी उम्र हो या महामारी के दौरान उपाय हों। यहां, हम कह सकते है कि अदालतें हर स्थिति से निपटने और अधिनियम के लक्ष्य और उद्देश्य को बनाए रखने में सक्षम रही हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
किशोर न्याय अधिनियम, 2000 का स्थान किस अधिनियम ने लिया है?
किशोर न्याय अधिनियम (बच्चों की देखभाल और संरक्षण), 2015 ने किशोर न्याय अधिनियम 2000 का स्थान ले लिया है।
किशोर न्याय अधिनियम, 2015 का उद्देश्य क्या है?
अधिनियम का उद्देश्य कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों से संबंधित कानून को समेकित करना और ऐसे संशोधन करना है जिससे उन्हें पुनर्वास और एक शांत नागरिक के रूप में समाज में वापस लाने के लिए आवश्यक देखभाल, सुरक्षा, विकास और उपचार प्रदान किया जा सके। इस कारण से, अधिनियम के तहत विभिन्न बाल देखभाल संस्थान और अवलोकन गृह स्थापित किए गए हैं। यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 15(3), अनुच्छेद 39, अनुच्छेद 45 और अनुच्छेद 47 पर आधारित है, जो इसमें कुछ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों (कन्वेंशन) के साथ-साथ बच्चों के कल्याण और उनके विकास के लिए काम करने के लिए राज्य सरकार पर कर्तव्य लगाता है।
किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के तहत ‘किशोर’ कौन है?
अधिनियम की धारा 2(35) के तहत ‘किशोर’ की परिभाषा दी गई है। धारा के अनुसार 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे को किशोर कहा जाता है।
किशोर न्याय अधिनियम, 2015 की विशेषताएं क्या हैं?
अधिनियम में निम्नलिखित विशेषताएं हैं:
- यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 15(3), 39(e) और (f), 45, और 47 पर आधारित है।
- धारा 2(12) के तहत बच्चे की परिभाषा ऐसी व्यक्ति के रूप में दी गई है जिसने 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है।
- अधिनियम बच्चों की दो श्रेणियों को मान्यता देता है:
- कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों को धारा 2(13) के तहत परिभाषित किया गया है।
- अधिनियम की धारा 2(14) के तहत देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता वाले बच्चों को दी जाती है।
- अधिनियम कुछ मौलिक सिद्धांत प्रदान करता है जो अधिनियम का आधार हैं और धारा 3 के तहत उनका पालन किया जाना चाहिए।
- यह प्रत्येक जिले में एक किशोर न्याय बोर्ड का प्रावधान करता है जिस पर अधिनियम की धारा 4 के तहत किशोरों से संबंधित मामलों की सुनवाई और निपटान की जिम्मेदारी है।
- अधिनियम की धारा 8 के तहत बोर्ड के कार्यों और जिम्मेदारियों का उल्लेख किया गया है।
- किसी किशोर को जमानत देने का प्रावधान अधिनियम की धारा 12 के तहत दिया गया है।
- यह राज्य सरकार द्वारा प्रत्येक जिले में एक बाल कल्याण समिति स्थापित करने का भी प्रावधान करता है, जैसा कि अधिनियम की धारा 27 के तहत दिया गया है। समिति की प्राथमिक जिम्मेदारी उन बच्चों के भविष्य और कल्याण के लिए काम करना है जिन्हें देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता है।
- यह अधिनियम के अंतर्गत आने वाले बच्चों के पुनर्वास और पुन:एकीकरण के लिए भी प्रावधान प्रदान करता है। (धारा 39)
- गोद लेने के प्रावधान अधिनियम के अध्याय VIII में दिए गए हैं।
- यह विभिन्न गृहो की स्थापना के लिए भी प्रावधान प्रदान करता है जहां अधिनियम के तहत आने वाले बच्चों को उनके विकास, उपचार, कल्याण, पुनर्वास और पुनर्एकीकरण (रियूनिफिकेशन) के लिए रखा जाता है:
अधिनियम के अंतर्गत कौन से सिद्धांत मान्यता प्राप्त हैं?
2015 अधिनियम की धारा 3 कुछ सिद्धांत प्रदान करती है जिन पर राज्य और केंद्र सरकारों को प्रावधानों को लागू करते समय विचार करना चाहिए। ये हैं:
- 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे के बारे में यह माना जाना चाहिए कि उसका कोई दुर्भावनापूर्ण या आपराधिक इरादा नहीं है।
- अधिनियम इस सिद्धांत को भी मान्यता देता है कि प्रत्येक व्यक्ति के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाना चाहिए।
- अधिनियम के तहत बच्चे को उस कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार है जो उससे संबंधित है।
- अधिनियम के तहत अधिकारियों को बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेना चाहिए।
- अधिनियम परिवारों की जिम्मेदारी का सिद्धांत भी प्रदान करता है, अर्थात बच्चों की देखभाल और पोषण करना।
- अधिनियम में प्रावधान है कि प्रत्येक बच्चे को सुरक्षित रखा जाना चाहिए और किसी भी तरह की यातना या उत्पीड़न का शिकार नहीं होना चाहिए।
- अधिनियम बच्चों की भलाई, स्वास्थ्य और सुरक्षा को बढ़ावा देने के साथ-साथ उनके विकास के लिए, भेद्यता को कम करने के लिए सकारात्मक उपायों के सिद्धांत को मान्यता देता है।
- बच्चे के साथ कोई दुर्व्यवहार या कठोर शब्द नहीं कहे जाने चाहिए।
- इसमें यह भी प्रावधान है कि अधिनियम के तहत बच्चों के अधिकारों को माफ नहीं किया जा सकता है। इसे गैर-माफी के सिद्धांत के रूप में जाना जाता है।
- बच्चे के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता।
- अधिनियम के तहत बच्चे को पूरी न्यायिक प्रक्रिया के दौरान निजता और गोपनीयता का अधिकार है।
- इसमें आगे प्रावधान है कि ऐसे बच्चों के संबंध में संस्थागत देखभाल ही अंतिम उपाय है।
- अधिनियम किसी बच्चे के सभी पिछले रिकॉर्ड को हटाने का लाभ देता है।
- यह कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चे के मामले में न्यायिक प्रक्रिया को चुनने के सिद्धांत पर भी आधारित है।
- अधिनियम के तहत किसी भी स्तर पर प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का अनुपालन किया जाना चाहिए।
संदर्भ