यह लेख Tanya Sagar द्वारा लिखा गया है जिसमें वह भारतीय कानून के तहत ट्रांसजेंडर को दिए गए कानूनी अधिकारों और क्या ट्रांसजेंडर को तीसरे लिंग के रूप में माना जाना चाहिए या नहीं, इस पर चर्चा करती हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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ट्रांसजेंडर कौन है? (हू इज़ ए ट्रांसजेंडर)
ट्रांसजेंडर लोग वह होते हैं जो अपने शरीर की संरचना या जननांगों (जेनिटल्ज़) के अनुसार अपने आप को लैंगिक रूप से बिल्कुल अलग महसूस करते हैं। इसका मतलब है कि कोई व्यक्ति जिसका लिंग उसके जन्म के समय से भिन्न होता है, वे अपने आप को पुरुष या महिला के रूप में समझ सकते हैं, और यह भी हो सकता है, उन्हें लग सकता है कि कोई भी लेबल उन पर फिट नहीं बैठता है। किसी के लिंग की पहचान जीव विज्ञान (बायोलॉजी), गुणसूत्र (क्रोमोसाम), शरीर रचना विज्ञान (अनैटमी) और हार्मोन पर आधारित है। लेकिन किसी व्यक्ति की लिंग पहचान पुरुष, महिला या दोनों होने की आंतरिक भावना हमेशा उनके जीव विज्ञान से मेल नहीं खाती। ट्रांसजेंडर लोगों का कहना है कि उन्हें एक पहचान सौंपी गयी है जो की उनके बारे में सच नहीं बताती कि वह क्या हैं।
नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया
“जस्टिस सीकरी” ने अपने सहमति वाले फैसले में इस प्रकार ट्रांसजेंडर शब्द परिभाषित करते हुए कहा कि ट्रांसजेंडर शब्द दो शब्दों से बना है- “ट्रांस” और “जेंडर”।पहला एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है “आरपार” या “परे (अक्रॉस और बियोंड)”। इसलिए ट्रांसजेंडर का व्याकरणिक (ग्रामेटिकल) अर्थ यह है कि वह लिंग के भी परे हैं। ट्रांसजेंडर शब्द उस व्यक्ति को भी संदर्भित करता है जिसके लिंग की पहचान या उनके जन्म के समय उनके लिंग के लिए सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है और जिसके कारण उन्हें समाज द्वारा नीचे देखा जाता है। वे खुद को दूसरे लिंग से संबंधित समझते हैं और उनके जनांग (जेनिटल्स) उनकी इस समझ से अलग होते है।
यूनाइटेड स्टेट्स सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर को इस प्रकार परिभाषित किया है:
“एक दुर्लभ मनोचिकित्सक विकार (सायकाईट्रिस्ट डिसॉर्डर) जिसमें एक व्यक्ति अपने शारीरिक वर्ग (बॉडी स्ट्रक्चर) के बारे में लगातार असहज महसूस करता है और जो आमतौर पर स्थायी लिंग परिवर्तन लाने के लिए हार्मोनल थेरेपी और सर्जरी सहित चिकित्सा उपचार (मेडिकल रेमेडी) की तलाश करता है।” कुछ शब्दों के बीच अक्सर भ्रम होता है कि लैंगिक अभिविन्यास (सेक्शूअल ओरीएन्टेशन) और लिंग की पहचान (जेन्डर आइडेन्टिटी) एक ट्रांसजेंडर का वर्णन करती है इसलिए इस अंतर को दूर करने के लिए “जस्टिस राधाकृष्णन” ने ट्रांसजेंडर को तीसरे लिंग के रूप में अधिकार देते हुए अनुच्छेद 14 के शीर्षक के तहत अपने विचार व्यक्त किए और निर्धारित किया कि ” जेंडर आइडेंटिटी” एक व्यक्ति की स्वयं की पहचान को एक पुरुष, महिला, ट्रांसजेंडर, या किसी अन्य पहचान करने वाली श्रेणी के रूप में संदर्भित करता है, जबकि लैंगिक अभिविन्यास, दूसरी ओर, एक व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति के लिए स्थायी शारीरिक, रोमांटिक और / या भावनात्मक आकर्षण को संदर्भित करता है, लैंगिक अभिविन्यास में ट्रांसजेंडर शामिल हैं और उनका लैंगिक अभिविन्यास, लिंग संचरण (ट्रैन्स्मिशन) के दौरान या बाद में हो भी सकता है और नहीं भी।
भारत में, ट्रांसजेंडर समुदाय में हिजड़ा, किन्नर, कोठी, अरवानी, जोगप्पा, शिव-शक्ति आदि शामिल हैं, जिनकी अलग-अलग संस्कृति और पहचान है। इन प्रकार के ट्रैंसजेंडरों में और अधिक विवरण जोड़ने के लिए, हिजड़े वे हैं जो जैविक रूप से पुरुष हैं और अपनी मर्दाना पहचान को महिलाओं या पुरुषों के रूप में अस्वीकार करते हैं; और देश के विभिन्न हिस्सों में अन्य विभिन्न प्रकार के ट्रांसजेंडर होते हैं।
“तीसरे लिंग” के रूप में मान्यता की आवश्यकता (नीड फॉर रेकग्निशन एज़ ए थर्ड जेन्डर)
जैसा कि पहले इस लेख चर्चा की गई है कि ट्रांसजेंडर एक बड़ा शब्द है और इसमें समलैंगिक(गे), समलैंगिक स्त्री(लेज़्बीअन), उभयलिंगी (बाइसेक्शूअल), ट्रांससेक्सुअल, मध्यलिंगी (इन्टर्सेक्स), हिजड़ा, कोठी सहित कई प्रकार के लोग शामिल हैं। अब विज्ञान (तकनीकी) उन्नति के कारण कई ट्रांसजेंडर लोग अपने लिंग को फिर से बदलवा लेते है और अपने भौतिक शरीर (फिजिकल बॉडी) को बदलते हैं और अपने जीवन को उस लिंग के रूप में जीने के लिए कदम उठाते हैं जिसमे वह हमेशा से जीना चाहते थे और अपने भौतिक शरीर को पुरुष से महिला या महिला से पुरुष के रूप में बदलते हैं। सेक्शूअल रीअसाइनमेंट सर्जरी (एस आर एस) के माध्यम से अपने शरीर को बदलने के लिए अपनी लिंग की पहचान को परावर्तित करने की इच्छा को पूरा करते हैं। इसलिए, सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर शब्द का विस्तार करते हुए ‘प्री-ऑपरेटिव’, ‘पोस्ट-ऑपरेटिव’ और ‘नॉन-ऑपरेटिव’ ट्रांससेक्सुअल दोनों को शामिल किया है, जो दृढ़ता के साथ विपरीत लिंग के व्यक्तियों से पहचान रखते हैं।
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने अपने एक फैसले में यह कहा है कि इन लोगों की पहचान को मान्यता न देना, जेसे की हिजड़ा, जो की टी जी समुदाय (ट्रांसजेंडर कम्युनिटी) से संबंध है और उन्हें तीसरे लिंग के रूप में भी पहचान न देना या मान्यता न देना, उन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार से वंचित करता है और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आश्वस्त अधिकारों का उल्लंघन करता है। तीसरे लिंग के रूप में ट्रांसजेंडरों की पहचान करने की आवश्यकता उनके अभिविन्यास (आईडेंटिफिकेशन) से संबंधित समाज की सोच के कारण उत्पन्न हुई जहाँ उन्हें खुद को केवल पुरुष या महिला के रूप में पहचानने के लिए मजबूर किया जाता था, उन्हें न केवल समाज में सही सोचने वाले लोगो के द्वारा नीचा देखा गया, बल्कि उनको, उनके सभी मौलिक अधिकारों से वंचित किया गया और देश के नागरिक के रूप में सम्मान के साथ रहने का अधिकार भी कभी नहीं दिया गया। निसंदेह रूप से, हिजड़े प्राचीन काल से ही अस्तित्व में हैं, फिर भी उन्हें समाज के एक अंग के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है। वे अपनी परंपरा और संस्कृति का पालन करते हैं और अपने समुदायों के साथ मजबूत सामाजिक संबंध रखते हैं। लोगों का यह मानना है कि उन्हें हिजड़ों या किन्नरों से डर लगता है, इसलिए उन्हें नीचा दिखाया जाता है और उनका यौन शोषण किया जाता है क्योंकि वे हमेशा समाज के किनारे पर ही रखा जाता है और इसमें शामिल होते हैं। वे सदियों से हमेशा सामाजिक कलंक, अलगाव, उपहास, उत्पीड़न, उदासीनता और शोषण के अधीन रहे हैं क्योंकि उनकी पहचान किसी भी लिंग के रूप में नहीं की जाती और उन्हें विचित्र माना जाता है, एक ऐसी प्राकृतिक अस्तित्व और लिंग डिस्फोरिया की स्थिति, जिस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं । इस स्थिति के बाद, कुछ लोगों ने इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी है और केवल कुछ राज्य सरकार जैसे तमिलनाडु, कर्नाटक और गुजरात ने ट्रांसजेंडरों के लाभ के लिए कुछ प्रयास किए हैं। चूंकि ट्रांसजेंडर समुदाय को न तो पुरुष या महिला के रूप में माना जाता है और न ही उन्हें तीसरे लिंग का दर्जा दिया जाता है और वे कई अधिकारों और विशेषाधिकारों (प्रिविलेजेस) से वंचित होते हैं।
इस तथ्य के बावजूद कि ट्रांसजेंडर एक ऐसा शब्द है जो कि कई प्रकारों के ट्रांसजेंडर को कवर करता है, फिर भी लोग केवल हिजड़ों के अधिकारों के बारे में बात करते हैं क्योंकि उनके पास सांस्कृतिक स्वीकृति का इतिहास हैऔर कोई अन्य समुदाय नहीं । उदाहरण के लिए, राजनेता समलैंगिक पुरुष (गे) और समलैंगिक स्त्री (लैसबियन) के अधिकारों की तुलना में हिजड़ों के अधिकारों के लिए बोलने की अधिक संभावना रखते हैं। ट्रांसजेंडरों को हर तरह की घोर हिंसा का सामना करना पडता फै और हर जगह उनके साथ भेदभाव किया किया जाता है, लेकिन बैंगलोर में “हिजरा और कोठी आंदोलन” के बाद स्थितियां बदल गईं, जो एक स्थानीय एन जी ओ संगमा की एक पहल थी। आंदोलन के मुख्य मुद्दों में से एक यह मुद्दा था कि कानून ट्रांसजेंडरों को व्यक्तियों के रूप में पहचानने में विफल रहा और उन्हें कानूनी रूप से अदृश्य माना गया और उन्हें कोई कानूनी दर्जा नहीं दिया गया। वारंट के बिना गिरफ्तारी और शारीरिक यातना उनके जीवन का हिस्सा थे। इस आंदोलन के माध्यम से अपराधों की संख्या में कमी आई थी और वे शांति से रहने लगे।
ट्रांसजेंडरों के लिए एक और बड़ी समस्या भारतीय दंड संहिता, 1860 (इंडियन पीनल कोड,1860) की धारा 377 है, जो अप्राकृतिक यौन संबंध को (अन्नैचरल सेक्स) को आपराधिक रूप से दंडित करती है, जिसके कारण पिछले वर्षों में ट्रांसजेंडरों को घोर यातना और दुर्व्यवहार (ब्लैटेंट टॉर्चर एंड अब्यूज़) का सामना करना पड़ा। कुछ उदाहरण जो धारा के तहत उनके द्वारा सामना किए गए शोषण की सीमा और परिमाण को दर्शाते हैं,”बैंगलोर हादसा, 2004” है,जिसमें यातना का शिकार बैंगलोर का एक हिजड़ा था जो महिलाओं के कपड़े पहने एक सार्वजनिक स्थान पर था। गुंडों के एक समूह द्वारा उस व्यक्ति के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, उसे मुख और ऐनल सेक्स करने के लिए मजबूर किया गया। बाद में उसे एक पुलिस थाने ले जाया गया, जहां उसे नंगा किया गया, एक खिड़की से हथकड़ी बांधी गई, उसकी यौन पहचान के कारण घोर दुर्व्यवहार और प्रताड़ित किया गया।
भारत में ट्रांसजेंडरों की मान्यता (रेकग्निशन ऑफ़ ट्रांसजेंडर इन इंडिया)
ट्रांसजेंडर द्वारा सामना किया जाने वाला उत्पीड़न (हरेसमेंट) स्पष्ट है और उन्हें हर दिन शारीरिक और मानसिक पीड़ा का सामना करना पड़ता है। प्रशासन, साथ ही समाज उन्हें असमान मानता है और इसलिए उन्हें तीसरे लिंग के रूप में पहचानने और उन्हें किसी अन्य व्यक्ति के समान अधिकार देने की आवश्यकता है। यूके का सबसे पुराना मामला, कॉर्बेट बनाम कॉर्बेट, जिसके बाद ट्रांसजेंडरों के अधिकारों को किसी अन्य नागरिक के रूप में मान्यता देने की आवश्यकता बताई गई क्योंकि इस मामले में भेदभाव के लिए आधार निर्धारित किया गया, न्यायालय ने माना कि किसी व्यक्ति का लिंग निर्धारित उस के जन्म के समय ही किया जाता है जैविक आधार (बायोलॉजिकल क्राइटेरिया) के अनुसार और व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक लिंग के किसी भी विचार के बिना किया जाता है।
यहां सबसे आवश्यक समस्या यह है कि कानून, ट्रांसजेंडर के यौन पहचान के रूप से उसके लिंग की जैविक परिभाषा के आधार पर उन्हे मान्यता देता है जिसमें उन्होंने जन्म लिया है। इसी तरह, नागरिकता कानूनों (सिविल लॉ) में भी तत्काल सुधार की आवश्यकता जताई गई थी। यदि ट्रांसजेंडरों को अन्य नागरिकों के समान, समान अधिकार प्राप्त करने हैं, तो उन्हें तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देने की आवश्यकता है। नागरिकता कानून में यह बदलाव उन्हें अन्य सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध अधिकारों की तरह सारे अधिकारों का हकदार बनाता है जो भारत के संविधान में लिखित है और केवल इस तथ्य पर आधारित होंगे कि वे अब तीसरे लिंग के रूप में स्वीकृत हैं। ना ल सा केस में यह भी तर्क दिया गया था कि विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों (इंटरनेशनल फोरम) और यूनाइटेड नेशन ने ट्रांसजेंडर के लिए लिंग पहचान को मान्यता दी और योग्यकर्ता सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) का उल्लेख किया है और बताया है कि उन सिद्धांतों को दुनिया भर के विभिन्न देशों द्वारा मान्यता दी जाती है। कई देश पहले ही ट्रांसजेंडर को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दे चुके हैं और भारत को इस विकास की जरूरत है।
इस संदर्भ में एक ऐतिहासिक केस जिसे नाज फाउंडेशन केस (नाज फाउंडेशन वर्सिस गवर्नमेंट ऑफ़ एन सी टी ऑफ दिल्ली) के नाम से जाना जाता है जहां पर धारा 377 की संवैधानिक मान्यता, भारतीय दंड संहिता 1860 (इंडियन पीनल कोड,1860) को चुनौती दी गई थी, जो ‘अप्राकृतिक यौन संबंध (अन नेचुरल सेक्स)’ के रूप में वर्णित अपराध को दंडित करता है। यह प्रावधान निजी तौर पर वयस्कों (अडल्ट) के बीच सहमति से किए गए कृत्यों को अपराध की श्रेणी में रखते हैं। आई पी सी कि धारा 377 में लिखा है:
“जो कोई भी स्वयं अपनी इच्छा से किसी भी पुरुष, महिला या जानवर के साथ प्रकृति की व्यवस्था के खिलाफ जाकर शारीरिक संभोग करता है, उसे आजीवन कारावास, या किसी ऐसी अवधि के लिए कारावास, जिसे दस साल तक बढ़ाया जा सकता है, और वह जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा” .
स्पष्टीकरण – “पेनिट्रेशन इस धारा में वर्णित अपराध के लिए आवश्यक शारीरिक संभोग का गठन करने के लिए पर्याप्त है”।
यहां विवाद के महत्वपूर्ण तत्व में शामिल दंडात्मक प्रावधान (पीनल प्रोविजन), आई पी सी 1860 की धारा 377 है जो हेटेरोसेक्सयल पीनाइल-वजाइनल संभोग के अलावा अन्य यौन संबंधों को अपराध बनाता है। हालांकि यह खंड पारंपरिक नैतिक आदर्शों पर आधारित था और ब्रिटिश भारत में 1860 में ब्रिटिशर्स द्वारा आई पी सी का गठन किया गया था, इसलिए यह खंड आज-कल के समय के अनुसार पुराना है और इसे अपराधों की श्रेणी से हटा देना चाहिए और मान्य कर देना चाहिए। इसके अलावा, धारा 377 पुलिस दुर्व्यवहार के खिलाफ हथियार के रूप में कार्य करती है; हिरासत में लेना और पूछताछ करना, जबरन वसूली, पुलिस उत्पीड़न, जबरन सेक्स और समान यौन संबंधों के प्रति नकारात्मक और भेदभावपूर्ण विचार जो ट्रांसजेंडर लोगों को शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करते हैं। नाज़ फाउंडेशन में, यह निर्णय लिया गया था कि धारा 377 को निरस्त नहीं किया जाएगा, लेकिन ‘डॉक्ट्रिन आफ सीवरेबिलिटी’ यहां पर इस अर्थ में लागू होगा कि आई पी सी की धारा 377 केवल गैर-सहमति वाले यौन संबंध से जुड़े मामलों पर लागू होगा। यह भी घोषित किया गया था कि आई पी सी की धारा 377, अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करती है। द डिक्लेरेशन ऑफ प्रिंसिपल ऑन इक्वलिटी में परिभाषित समानता का अधिकार यह कहता है की- समानता का अधिकार सभी मनुष्यों बराबर का सम्मान पाने का अधिकार देता है, सब के साथ एक तरह से और इज्जत के साथ पेश आना और विचार के साथ व्यवहार करना और आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या नागरिक जीवन के क्षेत्र में दूसरों के साथ सभी समान आधार पर भाग लेना। कानून के समक्ष सभी मनुष्य समान हैं और उन्हें कानून के समान संरक्षण और लाभ का अधिकार है। हालांकि धारा 377 अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, इसलिए इसका मतलब ट्रांसजेंडर समुदाय को समान व्यवहार देना और उन्हें समान रूप में मान्यता देना है।
लेकिन इस निर्णय को जल्द ही एस.के. कौशल बनाम नाज फाउंडेशन (एस के कौशल वर्सेस नाज फाउंडेशन) के केस में खारिज कर दिया गया था, जहां यह माना गया था कि हाई कोर्ट ने धारा 377 को अमान्य और अवैधानिक (अनकंस्टीट्यूशनल) घोषित करने में गंभीर गलती की है क्योंकि उच्च न्यायालय के समक्ष 377 को असंवैधानिक दिखाने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं रखा था जिससे यह स्पष्ट हो सके कि धारा 377 का इस्तेमाल समलैंगिकों (हेट्रोसेक्सुअल) वर्ग पर मुकदमा चलाने के लिए किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह घोषणा की कि धारा असंवैधानिकता के दोष से ग्रस्त (एफ्लिक्टेड) नहीं है और उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच द्वारा की गई घोषणा कानूनी रूप से अस्थिर है।
सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण के तीसरे लिंग की पहचान के बारे में बताते हुए नालसा केस है। ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के पास भी बिना किसी भेदभाव के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अधिकारों का आनंद लेने के भी हक हैं क्योंकि लिंग के आधार पर भेदभाव के रूप मैं यह मौलिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का उल्लंघन होता हैं। इस फैसले में यह भी कहा गया कि गोपनीयता (प्राइवेसी), आत्म-पहचान (सेल्फ आईडेंटिटी), स्वायत्तता (ऑटोनॉमी) और व्यक्तिगत अखंडता (पर्सनल इंटीग्रिटी) जैसे मूल्य ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों के लिए गारंटीकृत मौलिक अधिकार (गारंटीड फंडामेंटल राइट्स) हैं। तीसरे लिंग के रूप में ट्रांसजेंडरों की पहचान करने का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत आता है। न्यायालय ने माना कि ट्रांसजेंडर को किसी भी लिंग के रूप में उनकी पहचान करने का अधिकार है और यह उस फैसले से स्पष्ट है जिसमें अदालत ने कहा था- “एक लिंग की मान्यता ही सबसे बड़ा मौलिक अधिकार है। इसलिए लैंगिक पहचान की कानूनी मान्यता
हमारे संविधान के तहत गारंटीकृत सम्मान (डिग्निटी) और स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है।” नालसा केस के बाद ट्रांसजेंडरों को आखिरकार उनकी अपनी पहचान दी गई। न्यायालय ने कहा, “हिजड़ों की पहचान तीसरे लिंग के व्यक्तियों के रूप में की जाती है और उनकी पहचान पुरुष या महिला के रूप में नहीं की जाती। यह उन्हें पुरुष और महिला दोनों लिंगों से अलग बनाता है और वे खुद को न तो पुरुष मानते हैं और न ही महिला, बल्कि एक ‘तीसरा लिंग’ समझते हैं। इसलिए, हिजड़े एक अलग सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक समूह से संबंधित हैं और इसलिए, उन्हें पुरुष और महिला के अलावा ‘तीसरे लिंग’ के रूप में माना जाना चाहिए। भारत में कई राज्यों ने जैसे कि तमिलनाडु, बिहार, केरल और त्रिपुरा ने ट्रांसजेंडर को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दी है और उनके अधिकारों की रक्षा करने और उन्हें देश के नागरिकों के बराबर बनाने के लिए कई कल्याणकारी उपाय किए हैं।
संगमा जैसे नॉन गवर्नमेंट ऑर्गेनाइजेशन के प्रयास ने ट्रांसजेंडर की उत्पीड़न के मुद्दे को उठाया ताकि अब उन्हें भारत के किसी भी अन्य नागरिक के समान अधिकार दिए जाए। उदाहरण के लिए, विदेश मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ एक्सटर्नल अफेयर्स), जो पासपोर्ट आवेदन और ऑनलाइन वीज़ा फॉर्म का इंचार्ज है, अब ‘सेक्स’ श्रेणी में ट्रांसजेंडर का विकल्प प्रदान करता है और चुनाव आयोग (इलेक्शन कमिशन) और यू आई डी एनरोलमेंट भी अब ट्रांसजेंडर का विकल्प प्रदान करते हैं। राज्य स्तर पर, तमिलनाडु और कर्नाटक सरकार ने ऐसे आदेश बनाए हैं जो ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को सामाजिक-आर्थिक लाभ प्रदान करते हैं। इसके अलावा, नालसा के फैसले में अदालत द्वारा स्पष्ट रूप से कहा गया था कि राज्यों को ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग के रूप में अपनाने के लिए आवश्यक उपाय करने चाहिए। न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया कि राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक विधायी, प्रशासनिक और अन्य उपाय करने चाहिए कि प्रक्रियाएं मौजूद हों जिससे सभी राज्य द्वारा जारी पहचान पत्र जो किसी व्यक्ति के लिंग को दर्शाते हैं जैसे कि जन्म प्रमाण पत्र (बर्थ सर्टिफिकेट), पासपोर्ट, चुनावी रिकॉर्ड (इलेक्टोरल रिकॉर्ड) और अन्य दस्तावेज जो व्यक्ति की गहन स्व-परिभाषित लिंग पहचान को प्रतिबिंबित करते हैं।
ट्रांसजेंडर व्यक्ति( प्रोटेक्शन ऑफ राइट) बिल, 2016 (ट्रांसजेंडर पर्सन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट) बिल 2016)
ट्रांसजेंडर पर्सन ( प्रोटेक्शन ऑफ राइट) बिल , 2016 में ट्रांसजेंडरों को एक कानूनी अस्तित्व प्रदान किया गया और एक व्यक्तिगत रुप में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है। ट्रांसजेंडर पर्सन बिल (प्रोटेक्शन ऑफ राइट), 2016 की भूमिका (प्रीऐम्बल) में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है की- “यह बिल ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की सुरक्षा और उनके कल्याण के लिए और उससे संबंधित मामलों और उसके प्रासंगिक मामलों के लिए बनाया गया है। इस बिल की धारा 4 में ट्रांसजेंडर व्यक्ति की पहचान की मान्यता के बारे में यह बताया गया है की-
- एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को अधिनियम (एक्ट) के प्रावधानों के अनुसार, मान्यता प्राप्त होने का अधिकार होगा,
- उप-धारा (1) (सब-सेक्शन 1) के तहत एक ट्रांसजेंडर को मान्यता देने वाले व्यक्ति को आत्म-कथित (सेल्फ प पर्सीव्ड) पहचान का अधिकार होगा।
इस बिल और नालसा के फैसले के बाद ट्रांसजेंडरों की स्थिति में काफी सुधार आता हुआ दिखाई दिया क्योंकि उन्हें एक कानूनी तौर पर उनका अस्तित्व प्रदान किया और एक एंटिटी के रूप में मान्यता दी गई थी और अब वे किसी भी मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं थे। फाइनल ड्राफ्ट में जगह पाने वाली कुछ सिफारिशों (रिकमेंडेशन) में ट्रांसजेंडरों का बचाव, सुरक्षा और पुनर्वास शामिल है। शैक्षिक संस्थानों (एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन) को एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाने के लिए निर्देशित किया गया जो लिंग निष्पक्ष (जेंडर न्यूट्रल) होनी चाहिए। सरकार ने उनके उत्थान के लिए विशेष रूप से लक्षित कल्याणकारी योजनाएं (वेलफेयर स्कीम) भी तैयार की हैं जैसे कि सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी (एस आर एस) सहित बुनियादी चिकित्सा सुविधाएं (बेसिक मेडिकल फैसिलिटी)। व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम (वोकेशनल ट्रेनिंग प्रोग्राम)भी अपनाने का प्रस्ताव रखा गया है। हालाँकि, “तीसरे लिंग” की परिभाषा के बारे में बिल में अस्पष्टता ने धारा के रूप में एक गंभीर समस्या उत्पन्न कर दी है। 377 उन्हें अपने अंदर समाविष्ट करलेता है। इसलिए, 2016 के बिल को संसद के शीतकालीन सत्र (विंटर सेशन) (15 दिसंबर, 2017) में फिर से पेश किया जाना है।
कई राज्यों ने ट्रांसजेंडरों के उत्थान की दिशा में काम किया है और यहां तक कि केंद्र सरकार ने भी विभिन्न कानूनों और उपायों को अपनाया है, जिससे उन्हें दूसरों के साथ समान स्तर पर रहने में मदद मिली है। हालाँकि, समाज की मानसिकता को बदलने की आवश्यकता है और जब तक यह संकीर्ण मानसिकता नहीं बदली है और यह उन्हें अपने हिस्से के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है, तब तक सरकार द्वारा अपनाए गए किसी भी कानून या उपायों को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जा सकता है।
संदर्भ (रेफरेंसेस)
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- Anoop Swaroop Das, NALSA Versus Union of India: The Supreme Court has Started the Ball Rolling, 5 Chankaya National Law University Law Journal, 142 (2015)
- Siddhartha Narain, Gender Identity, Citizenship and State Recognition, The Socio-Legal Review 106, 108 (2012)
- Prathima R. Appaji, The Hijra and Kothi Movement; a struggle for Respect, available at http://www.mindtext.org/view/118/The_Hijra_and_Kothi_Movement;_a_struggle_for_respect/, last seen on 06/09/2017
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- PUCL-Karnataka (PUCL-K), September 2003 report, A study of Kothi and Hijra Sex workers in Bangalore, India.
- S.K. Koushal and another v. Naz Foundation and others (2014) 1 SCC 1
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