यह लेख एनयूएसआरएल, रांची की Alankrita Singh और Tarini Kalra द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारतीय सविंधान के अनुच्छेद 32 और विभिन्न तरीके की रिट और उनके महत्त्वपूर्ण मामले के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Vanshika Gupta के द्वारा किया गया है।
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अवधारणा और उद्देश्य
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32 व्यक्तियों को न्याय पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाने का अधिकार देता है जब उन्हें लगता है कि उनके अधिकार को ‘अनुचित रूप से वंचित’ किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय को संविधान द्वारा प्रदत्त किसी भी अधिकार के निष्पादन के लिए निर्देश या आदेश जारी करने का अधिकार दिया गया है क्योंकि इसे ‘मौलिक अधिकारों’ का संरक्षक और प्रत्याभूतिकर्ता (गारंटर’) माना जाता है।
अनुच्छेद 32 के तहत, संसद किसी अन्य अदालत को सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति का उपयोग करने के लिए भी सौंप सकता है, बशर्ते कि यह उसके अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) में हो। और जब तक कोई संविधान संशोधन नहीं होता है, तब तक इस अनुच्छेद द्वारा गारंटीकृत अधिकारों को निलंबित नहीं किया जा सकता है। इसलिए, हम कह सकते हैं कि इस अनुच्छेद द्वारा मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए व्यक्तियों को एक सुनिश्चित अधिकार की गारंटी दी गई है क्योंकि कानून किसी व्यक्ति को पहले निचली अदालतों में जाने की लंबी प्रक्रिया का पालन किए बिना सीधे सर्वोच्च न्यायालय से संपर्क करने का अधिकार प्रदान करता है क्योंकि अनुच्छेद 32 के तहत रिट अधिकार क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य मौलिक अधिकारों का प्रवर्तन है।
डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि:
“अगर मुझसे इस संविधान के किसी विशेष अनुच्छेद को सबसे महत्वपूर्ण के रूप में नामित करने के लिए कहा जाए – एक अनुच्छेद जिसके बिना यह संविधान शून्य हो जाएगा – मैं इस अनुच्छेद को छोड़कर किसी अन्य अनुच्छेद का उल्लेख नहीं कर सकता हूं। यह संविधान की आत्मा है और इसका दिल है और मुझे खुशी है कि सदन ने इसके महत्व को महसूस किया है।
रिट अधिकार क्षेत्र की प्रकृति
इस अनुच्छेद के तहत प्रदान किए गए रिट अधिकार क्षेत्र की प्रकृति विवेकाधीन है। इस विवेक का मार्गदर्शन करने के लिए पांच महत्वपूर्ण कारक हैं।
विवेक का मार्गदर्शन करने वाले कारक | अर्थ |
1. लोकस स्टैंडी | कोई कार्रवाई करने या अदालत के समक्ष सुनवाई का अधिकार। |
2. वैकल्पिक राहत | मुकदमे में विभिन्न या वैकल्पिक रूपों में उपाय खोजे जाते हैं। |
3. रेस ज्यूडिकाटा | एक मामला जिसका फैसला हो चुका हैं। |
4. तथ्य के प्रश्न | ऐसा मुद्दा जिसमें किसी तथ्यात्मक विवाद का समाधान शामिल हो। |
5. लैचेस | एक न्यायसंगत कार्रवाई का बचाव, जो वादी द्वारा राहत मांगने में अनुचित देरी के कारण वादी द्वारा वसूली पर रोक लगाता है। |
रिट के प्रकार
संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत प्रदान की गई रिट पांच प्रकार की हैं:
1. बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस)
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अर्थ
यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण रिट में से एक है, इसका शाब्दिक अर्थ ‘शरीर प्रस्तुत करना’ है। इस रिट का मुख्य उद्देश्य किसी व्यक्ति की गैरकानूनी हिरासत से राहत प्राप्त करना है। यह प्रशासनिक प्रणाली द्वारा नुकसान पहुंचाए जाने से व्यक्ति की सुरक्षा के लिए है और यह मनमानी राज्य कार्रवाई के खिलाफ व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए है जो संविधान के अनुच्छेद 19, 21 और 22 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। यह रिट गैरकानूनी हिरासत के मामले में तत्काल राहत प्रदान करती है।
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कब जारी की जाती है?
बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट तब जारी की जाती है जब किसी व्यक्ति को कानून के किसी भी अधिकार के बिना जेल में या निजी देखभाल के तहत रखा जाता है। एक अपराधी जिसे दोषी ठहराया जाता है, उसे “बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट” के लिए एक आवेदन दायर करके अदालत की सहायता लेने का अधिकार है यदि उसे लगता है कि उसे गलत तरीके से कैद किया गया है और जिन स्थितियों में उसे रखा गया है, वह मानव उपचार के लिए न्यूनतम कानूनी मानकों से नीचे आता है। अदालत जेल वार्डन के खिलाफ एक आदेश जारी करती है जो उस कैदी को अदालत में पहुंचाने के लिए किसी व्यक्ति को हिरासत में रख रहा है ताकि एक न्यायाधीश यह तय कर सके कि कैदी कानूनी रूप से कैद है या नहीं और यदि नहीं तो क्या उसे हिरासत से रिहा किया जाना चाहिए।
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बंदी प्रत्यक्षीकरण पर महत्वपूर्ण निर्णय
भारत का पहला बंदी प्रत्यक्षीकरण मामला केरल में था, जहां पीड़ितों के पिता द्वारा इसे दायर किया गया था, पीड़ित पी. राजन, जो एक कॉलेज छात्र था, को केरल पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और यातना को सहन करने में असमर्थ होने के कारण पुलिस हिरासत में उसकी मृत्यु हो गई थी। इसलिए, उनके पिता श्री टीवी इचरा वारियर ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की और यह साबित हो गया कि उसकी मृत्यु पुलिस हिरासत में हुई थी।
फिर, एडीएम जबलपुर बनाम शिवाकांत शुक्ला के मामले में, जिसे बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले के रूप में भी जाना जाता है, यह माना गया कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट को आपातकाल (अनुच्छेद 359) के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है।
यह तय करते समय कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट सिविल प्रकृति की है या आपराधिक प्रकृति की है, नारायण बनाम ईश्वरलाल में यह माना गया था कि अदालत उन प्रक्रियाओं के तरीके पर निर्भर करेगी जिसमें इसको निष्पादित किया गया है।
यह रिट गैर-राज्य प्राधिकारियों तक भी विस्तारित कर दी गई है जो दो मामलों से स्पष्ट है। क्वीन बेंच के 1898 के एक्स पार्ट डेज़ी हॉपकिंस के मामले में से एक जिसमें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रॉक्टर ने अपने अधिकार क्षेत्र के बिना हॉपकिंस को हिरासत में लिया और गिरफ्तार कर लिया और हॉपकिंस को रिहा कर दिया गया। और समरसेट बनाम स्टीवर्ट के मामले में, जिसमें एक अफ्रीकी गुलाम जिसका मालिक लंदन चला गया था, रिट की कार्रवाई से मुक्त हो गया था।
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ऐसी परिस्थितियां जब बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी नहीं की जा सकती है
- हिरासत वैध है।
- विधायी या न्यायिक जनादेश (मैंडेट) का पालन करने में विफलता के लिए मामले पर मुकदमा चलाया जा रहा है।
- एक सक्षम अदालत ने हिरासत को अधिकृत (ऑथोराइज़्ड) किया है।
- हिरासत पर अदालत का अधिकार क्षेत्र अधिकातीत (अल्ट्रा वॉयरस) से बाहर है।
2. अधिकार पृच्छा (क्वो वारंटो)
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अधिकार पृच्छा की रिट का क्या अर्थ है
अधिकार पृच्छा की रिट का अर्थ है “किस तरह से”। यह रिट सार्वजनिक कार्यालयों के मामलों में लागू की जाती है और यह व्यक्तियों को सार्वजनिक कार्यालय में कार्य करने से रोकने के लिए जारी की जाती है, जिसके लिए वह हकदार नहीं है। यद्यपि यहां ‘कार्यालय’ शब्द विधायिका में ‘सीट’ से अलग है, लेकिन फिर भी अधिकार पृच्छा की रिट मुख्यमंत्री के पद के संबंध में जारी हो सकती है, जबकि एक मुख्यमंत्री के खिलाफ अधिकार पृच्छा की रिट जारी नहीं की जा सकती है, अगर याचिकाकर्ता यह दिखाने में विफल रहता है कि मंत्री को ठीक से नियुक्त नहीं किया गया है या वह पद धारण करने के लिए कानून द्वारा योग्य नहीं है। यह उस प्रशासक के खिलाफ जारी नहीं की जा सकती है जिसे सरकार द्वारा नगर निगम के विघटन (डिसॉलूशन) के बाद इसके प्रबंधन के लिए नियुक्त किया जाता है। सार्वजनिक पद पर नियुक्ति को किसी भी व्यक्ति द्वारा चुनौती दी जा सकती है, भले ही उसके मौलिक या किसी कानूनी अधिकार का उल्लंघन किया गया हो या नहीं।
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अदालत निम्नलिखित मामलों में अधिकार पृच्छा की रिट जारी करती है
- जब सार्वजनिक पद सवालों के घेरे में हो और वह वास्तविक प्रकृति का हो। एक निजी निगम के खिलाफ याचिका दायर नहीं की जा सकती है।
- कार्यालय राज्य या संविधान द्वारा बनाया गया है।
- दावा लोक सेवक यानी प्रतिवादी द्वारा कार्यालय पर किया जाना चाहिए।
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महत्वपूर्ण मामले
अशोक पांडे बनाम मायावती के मामले में, सुश्री मायावती (सीएम) और उनके कैबिनेट के अन्य मंत्रियों के खिलाफ अधिकार पृच्छा की रिट खारिज कर दी गई थी, भले ही वे राज्यसभा के सदस्य थे।
फिर जीडी करकरे बनाम टीएल शेवड़े के मामले में, नागपुर उच्च न्यायालय ने कहा कि “अधिकार पृच्छा की रिट की कार्यवाही में, आवेदक अपने किसी भी अधिकार को लागू करने की मांग नहीं करता है और न ही वह उसके प्रति कर्तव्य के किसी भी गैर-पालन की शिकायत करता है। सवाल यह है कि गैर-आवेदक का पद धारण करने का अधिकार है और जो आदेश पारित किया जाता है वह उसे उस पद से हटाने की रिट होता है।
जमालपुर आर्य समाज बनाम डॉ. डी. राम के मामले में अदालत ने अधिकार पृच्छा की रिट से इनकार कर दिया था। रिट को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया था कि अधिकार पृच्छा की रिट निजी प्रकृति के कार्यालय के खिलाफ जारी नहीं हो सकती है। और यह भी आवश्यक है कि कार्यालय वास्तविक चरित्र का होना चाहिए। जबकि आर.वी. स्पेयर के मामले में ‘वास्ताविक’ शब्द की व्याख्या ‘शीर्षक से स्वतंत्र कार्यालय’ के रूप में की गई थी। इसके अलावा एच.एस. वर्मा बनाम टी.एन.सिंह मामले में, रिट को अस्वीकार कर दिया गया था क्योंकि सीएम के रूप में राज्य विधानमंडल के गैर-सदस्य की नियुक्ति अनुच्छेद 164 (4) के मद्देनजर वैध पाई गई थी, जो छह मनिचलीे के लिए ऐसी नियुक्ति की अनुमति देता है।
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ऐसी परिस्थितियां जब अधिकार पृच्छा की रिट जारी नहीं की जा सकती
- किसी भी निजी संगठन या व्यक्ति के लिए अधिकार पृच्छा की रिट जारी नहीं की जा सकती है।
- अधिकार पृच्छा की रिट किसी भी निकाय या संगठन के लिए जारी नहीं की जा सकती है जो अनुच्छेद 12 के तहत परिभाषित “राज्य” की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आता है।
- वैकल्पिक उपाय की अनुपस्थिति अधिकार पृच्छा जारी करने का आधार नहीं हो सकती है।
भारती रेड्डी बनाम कर्नाटक राज्य (2018) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि योग्यता शर्तों की पूर्ति के तथ्य से संबंधित मान्यताओं, अनुमानों या अटकलों के आधार पर अधिकार पृच्छा जारी नहीं की जा सकती है। इस तथ्य की स्थापना होनी चाहिए कि एक सार्वजनिक अधिकारी सार्वजनिक प्राधिकरण के भीतर उसे निहित नहीं की गई कानूनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रहा है।
3. परमादेश (मैंडेमस)
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परमादेश की रिट
लैटिन मे परमादेश की रिट का अर्थ है “हम आदेश देते हैं”। यह रिट अनिवार्य और विशुद्ध रूप से मंत्रिस्तरीय कर्तव्यों के सही प्रदर्शन के लिए जारी की जाती है और एक निचली अदालत या सरकारी अधिकारी को एक वरिष्ठ अदालत द्वारा जारी की जाती है। हालांकि, यह रिट राष्ट्रपति और राज्यपाल के खिलाफ जारी नहीं की जा सकती है। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रशासन या कार्यपालिका द्वारा शक्तियों या कर्तव्यों का दुरुपयोग न किया जाए और उन्हें विधिवत पूरा किया जाए। साथ ही, यह प्रशासनिक निकायों द्वारा अधिकार के दुरुपयोग से जनता की रक्षा करता है। परमादेश “न तो एक रिट है और न ही अधिकार की रिट है, लेकिन यह तब जारी की जाएगी जब कर्तव्य सार्वजनिक कर्तव्य की प्रकृति में है और यह विशेष रूप से किसी व्यक्ति के अधिकार को प्रभावित करता है, बशर्ते कोई और उपयुक्त उपाय न हो”। परमादेश के लिए आवेदन करने वाले व्यक्ति को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके पास प्रतिद्वंद्वी को कुछ करने या उससे बचने के लिए मजबूर करने का कानूनी अधिकार है।
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परमादेश जारी करने की शर्तें
- कानूनी कर्तव्य के पालन के लिए आवेदक का कानूनी अधिकार होना चाहिए।
- कर्तव्य की प्रकृति सार्वजनिक होनी चाहिए।
- याचिका की तारीख पर, जिस अधिकार को लागू करने की मांग की गई है वह अस्तित्व में होना चाहिए।
- परमादेश की रिट अग्रिम (एंटीसिपेटरी) चोट के लिए जारी नहीं की जाती है।
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सीमाएँ
अदालतें राष्ट्रपति और राज्यपालों जैसे उच्च गणमान्य (डिग्नेटरीस) व्यक्तियों के विरुद्ध परमादेश जारी करने को तैयार नहीं हैं। एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ के मामले में, न्यायाधीशों का विचार था कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या तय करने और रिक्तियों को भरने के लिए भारत के राष्ट्रपति के खिलाफ रिट जारी नहीं की जा सकती है। लेकिन एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड्स एसोसिएशन बनाम गुजरात में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि न्यायाधीशों का मुद्दा एक न्यायसंगत मुद्दा है और उस उद्देश्य के लिए परमादेश जारी करने सहित उचित उपाय किए जा सकते हैं। लेकिन सी.जी. गोविंदन बनाम गुजरात राज्य, के मामले में अनुच्छेद 229 के तहत उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा अदालत के कर्मचारियों के वेतन निर्धारण को मंजूरी देने के लिए राज्यपाल के खिलाफ परमादेश की रिट जारी करने से अदालत ने इनकार कर दिया था। इसलिए, यह प्रस्तुत किया गया कि राज्यपाल या राष्ट्रपति का मतलब राज्य या संघ है और इसलिए परमादेश जारी नहीं किया जा सकता है।
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महत्वपूर्ण निर्णय
रशीद अहमद बनाम म्यूनिसिपल बोर्ड में, यह माना गया था कि मौलिक अधिकारों के संबंध में वैकल्पिक उपचार की उपलब्धता रिट के मुद्दे के लिए पूर्ण बाधा नहीं हो सकती है, हालांकि तथ्य को ध्यान में रखा जा सकता है।
फिर, मंजुला मंजोरी बनाम सार्वजनिक शिक्षण निदेशक (डायरेक्टर) के मामले में, एक पुस्तक के प्रकाशक (पब्लिशर) ने अपनी पुस्तक को पाठ के रूप में अनुमोदित पुस्तकों की सूची में शामिल करने के लिए सार्वजनिक निर्देश निदेशक के खिलाफ परमादेश रिट के लिए आवेदन किया था। लेकिन रिट की अनुमति नहीं दी गई क्योंकि मामला पूरी तरह से डीआईपी के विवेक के भीतर था और वह पुस्तक को मंजूरी देने के लिए बाध्य नहीं थे।
बिन्नी लिमिटेड और अन्य बनाम वी. सदासिवन और अन्य (2005) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने परमादेश का दायरा निर्धारित किया। इसमें कहा गया है कि परमादेश रिट किसी भी निजी गलती के खिलाफ लागू नहीं होती है। यह केवल तभी जारी की जा सकती है जब कोई सार्वजनिक प्राधिकरण गैरकानूनी तरीके से अपने कर्तव्य का पालन करता है या कानून के दायरे में अपने कर्तव्य को निभाने से इनकार करता है।
रामकृष्ण मिशन बनाम कागो कुन्या (2019) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि जहां कोई अनुबंध निजी प्रकृति का है या किसी सार्वजनिक प्राधिकरण से कोई संबंध नहीं है, तो यह परमादेश की रिट के दायरे में नहीं आता है।
हरि कृष्ण मंदिर ट्रस्ट बनाम महाराष्ट्र राज्य (2020) में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि सार्वजनिक कर्तव्य को लागू करने के लिए उच्च न्यायालय कानून द्वारा परमादेश की रिट जारी करने के लिए बाध्य हैं।
4. उत्प्रेषण (सर्टिओरारी)
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उत्प्रेषण का क्या अर्थ है?
उत्प्रेषण का अर्थ प्रमाणित करना होता है। यह तब जारी की जाती है जब अधिकार क्षेत्र का गलत प्रयोग होता है और मामले का निर्णय उसी पर आधारित होता है। प्रभावित पक्षों द्वारा रिट को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय जैसी ऊपरी अदालतों में ले जाया जा सकता है।
उत्प्रेषण जारी करने के लिए कई आधार हैं। उत्प्रेषण विशुद्ध रूप से प्रशासनिक या मंत्रिस्तरीय आदेशों के खिलाफ जारी नहीं की जाती है और यह केवल न्यायिक या अर्ध-न्यायिक (क्वासि-ज्यूडिशियल) आदेशों के खिलाफ जारी की जा सकती है।
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उत्प्रेषण कब जारी की जाती है
यह अर्ध-न्यायिक या अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) न्यायालयों को जारी की जाती है यदि वे निम्नलिखित तरीकों से कार्य करते हैं:
- या तो बिना किसी अधिकार क्षेत्र के या दिए गए अधिकार क्षेत्र अधिक में कार्य करते है।
- प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन।
- कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के विरोध में।
- यदि प्रथम दृष्टया (ऑन फेस ऑफ़ इट) निर्णय में कोई त्रुटि (एरर) हो।
आदेश पारित होने के बाद उत्प्रेषण की रिट की जाती है।
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उत्प्रेषण पर महत्वपूर्ण निर्णय
सूर्य देव राय बनाम राम चंदर राय और अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उत्प्रेषण रिट का अर्थ, दायरा समझाया है। साथ ही, इसमें यह समझाया इसे उच्च न्यायालय द्वारा किसी भी उच्च न्यायालय या उसकी पीठ के विरुद्ध, सर्वोच्च न्यायालय और उसकी किसी भी पीठ के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता है।
फिर टी.सी. बासप्पा बनाम टी. नागप्पा और अन्य के मामले में संविधान पीठ द्वारा यह माना गया था कि त्प्रेषण की रिट आम तौर पर तब दिया जाता है जब किसी अदालत ने (i) अधिकार क्षेत्र के बिना या (ii) अपने अधिकार क्षेत्र से अधिक कार्य किया हो।
हरि बिष्णु कामथ बनाम अहमद इशाक के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “रद्द करने के लिए उत्प्रेषण जारी करने वाली अदालत, हालांकि, गुण-दोष के आधार पर अपने स्वयं के फैसले को प्रतिस्थापित नहीं कर सकती है या अदालत या न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल)द्वारा अनुपालन करने के लिए निर्देश नहीं दे सकती है। इसका काम विनाशकारी था, इसने अधिकार क्षेत्र के बिना पारित आदेश को मिटा दिया, और मामले को वहीं छोड़ दिया।
नरेश एस. मिराजकर बनाम महाराष्ट्र राज्य, में यह कहा गया था कि उच्च न्यायालय के न्यायिक आदेशों को उत्प्रेषण द्वारा ठीक किया जा सकता है और यह रिट उच्च न्यायालय के खिलाफ उपलब्ध नहीं है।
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परिस्थितियां जब उत्प्रेषण जारी नहीं की जा सकती है
उत्प्रेषण निम्नलिखित के खिलाफ जारी नहीं की जा सकती है:
- एक व्यक्ति।
- एक कंपनी।
- कोई भी निजी प्राधिकरण
- एक संघ (एसोसिएशन)।
- किसी अधिनियम या अध्यादेश (आर्डिनेंस) में संशोधन करना।
- एक पीड़ित पक्ष जिसके पास वैकल्पिक उपाय है।
महाप्रबंधक, इलेक्ट्रिकल रेंगाली हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट, उड़ीसा और अन्य बनाम गिरिधारी साहू और अन्य (2019) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उत्प्रेषण की वैधता का निर्धारण करने वाले कारकों को निर्धारित किया था।
5. निषेध (प्रोहिबिशन)
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निषेध की रिट क्या अर्थ है?
यह एक रिट है जो एक निचली अदालत को कुछ ऐसा करने से रोकने का निर्देश देती है जो कानून उसे करने से रोकता है। इसका मुख्य उद्देश्य एक निचली अदालत को अपने अधिकार क्षेत्र को पार करने या प्राकृतिक न्याय के नियमों के विपरीत कार्य करने से रोकना है।
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निषेध की रिट कब जारी की जाती है
यह उच्च न्यायालयों द्वारा निचली या अधीनस्थ अदालत को जारी की जाती है ताकि उसे कुछ ऐसा करने से रोका जा सके जो उसे कानून के अनुसार नहीं करना चाहिए। यह आमतौर पर तब जारी की जाती है जब निचली अदालतें अपने अधिकार क्षेत्र से अधिक कार्य करती हैं। इसके अलावा, यह तब जारी की जा सकती है यदि अदालत अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर कार्य करती है। और रिट जारी होने के बाद, निचली अदालत अपनी कार्यवाही को रोकने के लिए बाध्य है और निचली अदालत द्वारा आदेश पारित करने से पहले इसे जारी किया जाना चाहिए। निषेध निवारक प्रकृति की एक रिट है। इसका सिद्धांत है ‘रोकथाम इलाज से बेहतर है’।
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महत्वपूर्ण मामले
ईस्ट इंडिया कमर्शियल कंपनी लिमिटेड बनाम कलेक्टर ऑफ कस्टम्स के मामले में, निषेध की एक रिट पारित की गई थी जिसमें निचले न्यायाधिकरण को निर्देश दिया गया था कि वह इस आधार पर कार्यवाही जारी रखने से रोके कि कार्यवाही अधिकार क्षेत्र के बाहर या उससे अधिक है या देश के कानूनों के साथ विरोधाभास है। फिर बंगाल इम्यूनिटी कंपनी लिमिटेड के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने बताया कि जहां एक निचले न्यायाधिकरण को ऐसा अधिकार क्षेत्र (जूरिस्डिक्शन) जब्त करते हुए दिखाया गया है जो उसका नहीं है, तो वह विचार अप्रासंगिक (इर्रेलिवनेंट) है और निषेध की रिट एक अधिकार के रूप में जारी की जानी चाहिए।
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परिस्थितियां जब निषेध की रिट जारी नहीं की जा सकती है
- निषेध की रिट तब जारी नहीं की जा सकती जब कोई अधीनस्थ अदालत या न्यायाधिकरण अपने अधिकार क्षेत्र के दायरे में काम कर रही हो।
- किसी तथ्य या कानून की गलती की स्थिति में निषेध की रिट जारी नहीं की जा सकती है।
- प्रशासनिक, कार्यकारी (एग्जिक्यूटिव) या मंत्रिस्तरीय कार्यों का निर्वहन करने वाले प्रशासनिक अधिकारियों के लिए निषेध की रिट की अनुमति नहीं है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका को सर्वोच्च न्यायालय कब खारिज कर सकता है
अनुच्छेद 32 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय निम्नलिखित परिस्थितियों में एक रिट याचिका को खारिज कर सकता है:
न्यायालय पदानुक्रम (हायरार्की) के अनुपालन में रिट दाखिल न करना
यदि कोई व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर करता है और न्यायालय उसकी रिट को खारिज कर देता है, तो व्यक्ति किसी अन्य न्यायालय में फिर से रिट याचिका दायर नहीं कर सकता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर करता है और अदालत उसकी याचिका को अस्वीकार कर देती है, तो उसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के तहत सर्वोच्च न्यायालय में फैसले के खिलाफ अपील करने का अधिकार है।
रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11 के तहत रेस ज्यूडिकाटा को परिभाषित किया गया है। यह “एक मामला तय किया गया” के लिए लैटिन वाक्यांश है। इसका मतलब यह है कि मुकदमे के पक्षों द्वारा कार्रवाई के एक ही कारण और एक ही विवाद पर बाद में मुकदमा दायर नहीं किया जा सकता है। ज्यूडिकाटा का सिद्धांत तीन कहावत पर आधारित है:
- निमो डेबिट लिस वेक्सरी प्रो एडम कौजा (किसी भी व्यक्ति को एक ही कारण के लिए दो बार परेशान नहीं किया जाना चाहिए)।
- इंटरेस्ट रेपुब्लिकै उट सिट फिनिस लिटियम (यह राज्य के हित में है कि मुकदमेबाजी का अंत होना चाहिए)।
- रेस ज्यूडिकाटा प्रो वेरिटेट ओसिपिटर (न्यायिक निर्णय को सही के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए)
दरयाओ और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (1961), के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत लागू होगा और भले ही अनुच्छेद 32 एक मौलिक अधिकार है, कोई भी कानूनी प्रावधान जो किसी भी मौलिक अधिकार या कानून के तहत किसी भी प्रावधान को ओवरराइड करता है, उसे असंवैधानिक पाया जाएगा।
बंदी प्रत्यक्षीकरण रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांत का अपवाद है जैसा कि गुलाम सरवर बनाम भारत संघ (1966) के मामले में कहा गया है।
तथ्यों की गलतबयानी
यदि यह पाया जाता है कि याचिकाकर्ता ने मुख्य तथ्यों की गलतबयानी की है, तो सर्वोच्च न्यायालय किसी भी स्तर पर याचिका को खारिज कर सकता है।
श्री के.जयराम और अन्य बनाम बैंगलोर विकास प्राधिकरण और अन्य (2021) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रमुख जानकारी को छिपाना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है, जिससे अपीलकर्ता को रिट अदालतों से असाधारण, न्यायसंगत और विवेकाधीन राहत से वंचित किया जा सकता है।
वैकल्पिक उपाय की उपलब्धता
यदि याचिकाकर्ता के पास कोई अन्य उपाय है, तो उसे रिट याचिका दायर करने के बजाय इसकी मांग करनी चाहिए। उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य खनिज विकास निगम एसएस और अन्य (2008) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि याचिकाकर्ताओं को रिट मामला दायर करने से पहले एक उपयुक्त वैकल्पिक उपाय की तलाश करनी चाहिए।
अत्यधिक देरी
डी. गोपीनाथन पिल्लई बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2007) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अत्यधिक देरी को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता जब तक कि उन्हें उचित, संतोषजनक, पर्याप्त और उपयुक्त कारण से उचित न ठहराया जाए।
दुर्भावनापूर्ण याचिका
यदि सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत की गई याचिका दुर्भावनापूर्ण या निरर्थक पाई जाती है, तो सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत इसे खारिज कर सकता है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने शौकत हुसैन गुरु बनाम राज्य (एनसीटी) दिल्ली और अन्य (2008) में रिट याचिका को खारिज कर दिया क्योंकि इसमें इसे जारी करने के लिए कोई तर्कसंगत आधार नहीं थे।
किसके खिलाफ रिट जारी की जा सकती है
भारतीय संविधान का भाग III मौलिक अधिकारों से संबंधित है। अनुच्छेद 32 अपने आप में एक मौलिक अधिकार है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 32 के तहत या उच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका दायर करके राहत दी जा सकती है। रिट सार्वजनिक कानून उपचार हैं। संविधान के भाग III में उल्लिखित मौलिक अधिकारों के माध्यम से नागरिकों को दिए गए अधिकार राज्य के कदाचार के खिलाफ एक सुरक्षा उपाय हैं। अनुच्छेद 12 “राज्य” शब्द को परिभाषित करता है, जिसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
- भारत की सरकार और संसद, यानी संघ की कार्यपालिका और विधायिका।
- प्रत्येक राज्य की सरकार और विधायिका, यानी, सरकार की कार्यकारी और विधायी शाखाएं।
- भारतीय क्षेत्र में सभी स्थानीय या अन्य प्राधिकरण।
- भारत सरकार द्वारा नियंत्रित सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकरण।
अजय हासिया बनाम खालिद मुजीब (1981) के मामले में, अनुच्छेद 12 के तहत, “स्थानीय प्राधिकरण” शब्द स्थानीय स्वशासन की एक इकाई को संदर्भित करता है जैसे कि नगरपालिका समिति या ग्राम पंचायत।
किशोर मधुकर पिंगली बनाम ऑटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन (2022) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक कर्तव्य या कार्य के कुछ पहलू की उपस्थिति स्वचालित रूप से अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के रूप में एक निकाय का गठन नहीं करती है।
मौलिक अधिकारों का निलंबन
अनुच्छेद 19 में उल्लिखित छह मौलिक अधिकारों को तुरंत निलंबित कर दिया जाता है जब अनुच्छेद 358 के अनुसार राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की जाती है। 1978 के 44 वें संशोधन अधिनियम में अनुच्छेद 358 के आवेदन पर दो प्रतिबंध शामिल थे, अर्थात्:
- जब सशस्त्र विद्रोह (आर्म्ड रिबेलियन) के बजाय युद्ध या विदेशी आक्रमण के कारण राष्ट्रीय आपातकाल घोषित किया जाता है और अनुच्छेद 19 में उल्लिखित छह मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया जाता है।
- आपातकाल के समय, अनुच्छेद 32 को निलंबित कर दिया जाएगा।
मौलिक अधिकारों को अनुच्छेद 359 के तहत उनके प्रवर्तन में केवल निलंबित कर दिया गया है, न कि उनकी समग्रता। आपातकाल के दौरान, अनुच्छेद 20 और 21 में उल्लिखित अधिकारों को निलंबित नहीं किया जा सकता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत हाल के घटनाक्रम
सर्वोच्च न्यायालय ने शशिधर एम. बनाम पूर्णिमा सी (2019) के मामले में फैसला सुनाया कि विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) में निर्देशों को वापस लेने के लिए रिट याचिकाएं सुनवाई योग्य नहीं हैं।
स्किल लोट्टो सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ (2020) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “अनुच्छेद 32 संविधान की मूल संरचना का एक महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग है। अनुच्छेद 32 कानून के शासन का पालन सुनिश्चित करने के लिए है। अनुच्छेद 32 मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन का प्रावधान करता है, जो सबसे शक्तिशाली हथियार (पोटेंट वेपन) है।
मोहम्मद मोइन फ़रीदुल्लाह क़ुरैशी बनाम महाराष्ट्र राज्य (2020) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जब किसी निर्णय को अनुच्छेद 32 के तहत अंतिम घोषित किया जाता है, तो उस पर विवाद नहीं किया जा सकता है।
गायत्री प्रसाद प्रजापति बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2022) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि आपराधिक कार्यवाही या प्राथमिकी (एफआईआर) को रद्द करने के लिए रिट याचिका दायर नहीं की जा सकती है।
शरद झवेरी बनाम भारत संघ (2022) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि पूजा स्थलों से जुड़े सभी विवादों को अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष नहीं ले जाया जा सकता है।
धर्मराज सिंह बनाम बिहार राज्य (2022) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 32 की आड़ में आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 से संबंधित याचिकाओं को प्रस्तुत करने के खिलाफ चेतावनी दी।
अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के बीच महत्वपूर्ण अंतर: एक सारणीबद्ध (टेबुलर) प्रतिनिधित्व
अनुच्छेद 32 | अनुच्छेद 226 |
अनुच्छेद 32 अपने आप में एक मौलिक अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत किसी भी याचिका पर विचार करने से इनकार नहीं कर सकता है। | अनुच्छेद 226 में न्यायिक सिद्धांतों के तहत उच्च न्यायालय को किसी भी याचिका पर विचार करने की विवेकाधीन शक्तियाँ हैं। |
अनुच्छेद 32 के तहत मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए रिट याचिकाएँ जारी की जाती हैं। | अनुच्छेद 226 के तहत मौलिक अधिकारों को लागू करने या किसी अन्य उद्देश्य के लिए रिट याचिकाएं जारी की जा सकती हैं। |
आपातकाल के समय अनुच्छेद 32 को निलंबित कर दिया जाता है। | आपातकाल के समय अनुच्छेद 226 को निलंबित नहीं किया जा सकता। |
अनुच्छेद 32 के तहत पारित आदेश अनुच्छेद 226 के तहत पारित आदेशों का स्थान ले लेंगे। | अनुच्छेद 226 के तहत पारित आदेश अनुच्छेद 32 के तहत पारित आदेशों का स्थान नहीं ले सकते। |
अनुच्छेद 32 के अंतर्गत संपूर्ण भारत देश पर क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र है। | अनुच्छेद 226 में सीमित क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र है। |
अन्य देशों में रिट की स्थिति
संयुक्त राज्य
रिट संयुक्त राज्य अमेरिका में अंग्रेजी आम कानून प्रणाली का एक अवशेष है। ऑल रिट एक्ट, एक संयुक्त राज्य अमेरिका संघीय कानून जिसे पहली बार 1789 के न्यायपालिका अधिनियम में संहिताबद्ध (कोडिफाइड) किया गया था, अमेरिकी संघीय अदालतों के लिए विषय वस्तु अधिकार क्षेत्र का विस्तार करता है जब तक कि उन्हें जारी करना अदालत के संबंधित अधिकार क्षेत्र की सहायता में आवश्यक या उपयुक्त है और कानून के उपयोग और सिद्धांतों के लिए सहमत है। आधुनिक युग में, ऑल रिट एक्ट तब लागू किया जाता है जब एक विधायी योजना अधूरी या अस्पष्ट होती है। विशेषाधिकार रिट, जिसे असाधारण रिट या असाधारण उपचार भी कहा जाता है, एक न्यायाधीश द्वारा असामान्य या विवेकाधीन शक्ति का उपयोग करके जारी की जाती है। बंदी प्रत्यक्षीकरण, उत्प्रेषण, परमादेश, अधिकार पृच्छाो और प्रोसेडेंडो की रिट विशेषाधिकार रिट के रूप हैं। कई और प्रकार के रिट हैं, जिनमें निष्पादन और शरीर लगाव की रिट शामिल हैं। हालांकि, आपराधिक मामलों में रिट अब महत्वपूर्ण नहीं हैं क्योंकि अपीलीय प्रक्रिया के संघीय नियमों के तहत समान राहत प्राप्त करने के अन्य तरीके हैं। सिविल प्रक्रिया के संघीय नियमों ने भी सिविल मामलों में त्रुटि की रिट सहित कई रिट को समाप्त कर दिया है।
इंग्लैंड और वेल्स
रिट आवेदक की ओर से क्राउन के नाम पर जारी किए जाते हैं, जो नाममात्र वादी है। बंदी प्रत्यक्षीकरण के अलावा, विशेषाधिकार रिट विवेकाधीन उपाय हैं जिन्हें 1938 से इंग्लैंड और वेल्स में मान्यता प्राप्त है। 1998 के संशोधित सिविल प्रक्रिया नियमों ने अधिकार पृच्छा और प्रोसेडेंडो की रिट को समाप्त कर दिया और उत्प्रेषण की रिट का नाम बदलकर आदेशों को रद्द करने, परमादेश को अनिवार्य आदेश और निषेध को निषेध आदेशों के रूप में कर दिया।
निष्कर्ष
नागरिकों को प्रदान किए गए संवैधानिक उपचार तत्काल प्रभाव से शक्तिशाली आदेश हैं। और रिट ज्यादातर राज्य के खिलाफ लगाए जाते हैं और जनहित याचिकाएं दायर होने पर जारी किए जाते हैं। संविधान द्वारा प्रदत्त रिट अधिकार क्षेत्रों के पास हालांकि विशेषाधिकार शक्तियां हैं और वे प्रकृति में विवेकाधीन हैं और फिर भी वे इसकी सीमाओं में असीमित हैं। हालांकि, विवेकाधिकार का प्रयोग कानूनी सिद्धांतों पर किया जाता है। इसलिए, पहली अनिवार्यता जिस पर संवैधानिक व्यवस्था मनमानी शक्ति के अभाव में आधारित है। इसलिए, निर्णय ठोस सिद्धांतों और नियमों के आधार पर लिया जाना चाहिए और सनक, पसंद या हास्य पर आधारित नहीं होना चाहिए। और यदि कोई निर्णय किसी भी सिद्धांत या नियमों द्वारा समर्थित नहीं है, तो ऐसा निर्णय मनमाना माना जाता है और कानून के शासन के अनुसार नहीं लिया जाता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
अनुच्छेद 32 के तहत कौन याचिका दायर कर सकता है?
कोई भी व्यक्ति अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिका दायर कर सकता है जिसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया गया है।
अनुच्छेद 32 के 5 रिट क्या हैं?
5 प्रकार की रिट बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, अधिकार पृच्छाो, सर्टिओररी और निषेध हैं।
अनुच्छेद 32 को भारतीय संविधान में सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद क्यों माना जाता है?
अनुच्छेद 32 को भारतीय संविधान में सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद माना जाता है क्योंकि यह भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का प्रत्याभूतिकर्ता (गारंटर) और रक्षक है।
संदर्भ
- https://blog.ipleaders.in/difference-article-32-article-226/
- https://www.bbau.ac.in/dept/cpgs/TM/Prof.%20Misra%20201.pdf