यह लेख कर्नाटक स्टेट लॉ यूनिवर्सिटी के लॉ स्कूल के छात्र Naveen Talawar द्वारा लिखा गया है। यह लेख हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 14 से संबंधित है, जो विवाह की तारीख से एक वर्ष बीतने से पहले अदालत में तलाक की याचिका दायर करने पर रोक लगाती है। इसके अलावा, लेख इसके दायरे, आवेदन, अपवादों और न्यायिक घोषणाओं से भी संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है।
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परिचय
सभी वैवाहिक (मैट्रिमोनियल) कानूनों के अनुसार, विवाह, एक पुरुष और एक महिला का मिलन है जो उनके द्वारा एक दूसरे के प्रति कुछ वैवाहिक कर्तव्यों को लागू करता है और उनमें से प्रत्येक को कुछ कानूनी अधिकार प्रदान करता है। इसे प्राचीन हिंदू कानून में एक पवित्र संस्कार के रूप में माना जाता था। तब तलाक का विचार मौजूद नहीं था क्योंकि विवाह को प्रकृति में एक दिव्य मिलन माना जाता था। तलाक का उल्लेख न तो स्मृतियों में और न ही वैदिक ग्रंथों में है। जब दो लोग विवाह के पवित्र समारोह के माध्यम से एक हो जाते थे, तब अलगाव या तलाक जैसी कोई चीज नहीं थी; इसके बजाय, वे उन कानूनों और नियमों का पालन करने के लिए बाध्य थे जो उन पर विवाह की संस्था (इंस्टीट्यूशन) की प्रक्रिया के रूप में लगाए गए थे।
हालाँकि, आज हम जिस शादी को समझते हैं वह पूरी तरह से अलग है। जब भी पति-पत्नी के बीच मतभेद होता है तो वे तलाक लेने के बारे में सोचने लगते हैं। परिणामस्वरूप, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 14 अधिनियमित (इनेक्टेड) की गई, जिसमें कहा गया है कि जल्दबाजी में की गई गलतियों और खराब निर्णयों को रोकने के लिए विवाह के एक वर्ष के भीतर कोई तलाक दायर नहीं किया जा सकता है।
हिंदू विवाह अधिनियम असंतोष के आधार पर या यदि विवाह को बनाए नहीं रखा जा सकता है तब तलाक की अनुमति देता है। आमतौर पर तलाक की याचिका (पिटीशन) शादी के एक साल पूरे होने के बाद ही यह दाखिल (फाइल) की जा सकती है। हालांकि, एक अदालत, कुछ असाधारण परिस्थितियों में एक वर्ष से पहले याचिका दायर करने की अनुमति दे सकती है, जैसे कि जब याचिकाकर्ता को नुकसान पहुंचाया जाता है या प्रतिवादी मानसिक रूप से अस्थिर (अनस्टेबल) होता है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 14, विवाह के पहले वर्ष के भीतर तलाक याचिका दायर करने पर रोक लगाती है। चूंकि भागीदारों के बीच मनमुटाव के मतभेदों (टेंपरामेंटल डिफरेंसेस) को समय के साथ सुलझाया जा सकता है और तलाक के लिए आधार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, यह पुनर्विचार (रिकंसिडरेशन) और सुलह (रिकॉन्सिलिएशन) के लिए एक समय अवधि स्थापित करता है।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 14 का दायरा
धारा 14 एक निष्पक्ष परीक्षण (फेयर ट्रायल) के सिद्धांत को स्थापित करती है, जिसमें कहा गया है कि कानून के प्रावधान जो प्रकृति में अनिवार्य होने के बजाय सलाहकार हैं, यदि कानून के उन प्रावधानों का पूर्ण रूप से अनुपालन करने के बजाय सिर्फ पर्याप्त रूप से किया गया है, तो यह उनका अनुपालन ही माना जाएगा। हालांकि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 14(1) एक गैर-विरोधी (नॉन ऑबस्टेंस) खंड के साथ शुरू होती है (एक गैर-विरोधी खंड को एक प्रावधान की प्रवर्तनीयता (एनफोर्सेबिलिटी) का अन्य प्रावधान पर समर्थन करने के लिए जोड़ा जाता है जो की इसके साथ टकराव में होता है), उस उपखंड का प्रावधान कानून के प्रावधान की प्रकृति को बदल देता है ताकि यह “अनिवार्य” के बजाय “निर्देशिका” (डायरेक्टरी) हो। एक बार कानून का प्रावधान प्रकृति में निर्देशिका हो जाता है, तो जैसा कि पहले कहा गया है, ऐसे कानून के प्रावधान का पर्याप्त और/या विस्तृत अनुपालन ही किया जाएगा, और कानून के प्रासंगिक प्रावधान का सख्त अनुपालन नहीं किया जाएगा।
इस धारा में कहा गया है कि कोई भी अदालत शादी के एक साल से पहले तलाक की याचिका पर विचार नहीं करेगी। विवाह कानून (संशोधन) अधिनियम, 1976 से पहले, कोई भी अदालत विवाह की तारीख से तीन साल तक तलाक याचिका पर विचार नहीं कर सकती थी; हालाँकि, उपरोक्त (एफोरिमेंशंड) संशोधन अधिनियम ने प्रतीक्षा अवधि को घटाकर एक वर्ष कर दिया।
धारा में यह भी कहा गया है कि याचिकाकर्ता को असाधारण कठिनाई या प्रतिवादी की ओर से असाधारण अवज्ञा (डिप्रेविटी) के मामले में, अदालत एक वर्ष बीतने से पहले भी याचिका पर विचार कर सकती है। अगर यह पता चलता है कि यह आज्ञा गलत बयानी या सूचना को रोककर प्राप्त की गई थी, तो अदालत के पास मुख्य याचिका को खारिज करने या शादी की तारीख से एक साल के लिए डिक्री के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) को स्थगित (पोस्टपोन) करने का विवेक है।
धारा 14(2) के तहत दिए गए आवेदन पर फैसला करते समय अदालत शादी से पैदा हुए किसी भी बच्चे के हितों और पक्षों के बीच शांतिपूर्ण सुलह की संभावना पर भी विचार करेगी।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 14 की विषय वस्तु
धारा 14 के अनुसार विवाह के पहले वर्ष के भीतर तलाक याचिका दायर नहीं की जा सकती है। इसलिए, एक वर्ष को एक दूसरे के साथ समस्याओं को हल करने, वर्गीकृत करने, समझने और संवाद करने के लिए कानून द्वारा आवंटित (एलॉटेड) समय के रूप में देखा जा सकता है। इसलिए एक साल बीत जाने तक कोई भी अदालत तलाक याचिका पर सुनवाई नहीं कर सकती है। याचिकाकर्ता को असाधारण कठिनाई या प्रतिवादी की ओर से बड़ी अवज्ञा के मामलों में उच्च न्यायालय के नियमों के अनुसार एक आवेदन प्राप्त करने के बाद न्यायालय याचिका को प्रस्तुत करने की अनुमति दे सकता है। हालाँकि, अदालत बिना किसी पूर्वाग्रह के याचिका को खारिज करने का निर्णय ले सकती है यदि उसे पता चलता है कि याचिका की सुनवाई के बाद तथ्यों का गलत विवरण दिया गया है या मामले की प्रकृति को छुपाया गया है।
शादी के एक साल के भीतर तलाक की याचिका नहीं की जा सकती है
इस खंड में बताए गए नियम प्रत्येक विवाह को सफल होने का उचित मौका देने के लिए हैं। धारा 14(1) में स्थापित सामान्य नियम यह है कि जब तक इस धारा द्वारा निर्दिष्ट एक वर्ष की अवधि बीत नहीं जाती, अदालत तलाक के लिए धारा 13 में निर्दिष्ट किसी भी आधार पर तलाक की डिक्री के लिए याचिका पर विचार नहीं कर सकती है। परंतुक द्वारा कवर किए गए असाधारण मामलों के अलावा, अदालत के पास वैधानिक अवधि समाप्त होने से पहले ऐसी किसी याचिका पर विचार करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होगा।
धारा 14 (1) में कहा गया है कि विवाह के विघटन (डिसोल्यूशन) के लिए कोई याचिका अदालत में तब तक प्रस्तुत नहीं की जा सकती जब तक कि विवाह की तारीख से एक वर्ष बीत न जाए। डेरेट के अनुसार, “यह एक वर्ष की अवधि भ्रामक है। यह दयनीय रूप से अपर्याप्त है, यह देखते हुए कि, भारतीय परिस्थितियों में, पहले वर्ष के भीतर शत्रुता अक्सर अन्य कारकों के बजाय “ससुराल” और दहेज के पैंतरेबाज़ी के कारण होती है। “ससुराल” समस्या, बिना किसी संदेह के, समय के साथ हल हो जाएगी, खासकर शुरुआत में।” हालांकि, यह तर्क दिया जाता है कि एक साल के प्रतिबंध का मतलब यह नहीं है कि एक साल के बाद तलाक संभव होगा, बल्कि यह है कि पीड़ित पति या पत्नी उस समय अवधि बीत जाने के बाद तलाक के लिए याचिका दाखिल कर सकेंगे।
मेगानाथ नायगर बनाम श्रीमति सुशीला (1957) के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 14 में उन प्रतिबंधों को शामिल किया गया है जो संभावित रूप से पक्षकारों को कानूनी कार्यवाही का सहारा लेने से रोकने के लिए अभिप्रेत हैं, जब तक कि पहले वे अपनी शादी को विघटन से बचाने के लिए गंभीर प्रयास न करें। इसका उद्देश्य पति-पत्नी द्वारा एक दूसरे, को समायोजित (एडजस्ट) करने और अपनी शादी को एक मौका देने के लिए पर्याप्त समय दिए बिना जल्दबाजी में की जाने वाली कानूनी कार्रवाई को रोकना है। यह सार्वजनिक नीति पर आधारित है क्योंकि विवाह नागरिक समाज की आधारशिला (कॉर्नरस्टोन) है, और किसी देश के कानूनों और संविधान का कोई भी हिस्सा इसके नागरिकों के लिए गठन के तरीके और शर्तों को नियंत्रित करने वाले नियमों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकता है और यदि आवश्यक हो, तो विवाह को भंग कर सकता है।
प्रावधान केवल निर्देशिका है और अनिवार्य नहीं है
धारा 14 में यह आवश्यकता कि विवाह की तारीख और तलाक की याचिका दायर करने के बीच एक वर्ष होना चाहिए, केवल एक निर्देशिका है, अनिवार्य नहीं है। धारा 14 पुनर्विचार और सुलह का द्वार खोलती है। यह स्वीकार करता है कि पक्षकारों के बीच मनमौजी मतभेदों को समय के साथ दूर किया जा सकता है और शादी को खत्म करने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। अनुभाग द्वारा प्रदान की गई अनिवार्य एक वर्ष की अवधि जोड़ों को शांत होने और अपनी शादी को बचाने के लिए इस पर पुनर्विचार करने के लिए प्रोत्साहित करती है।
रवींद्र नाथ मुखर्जी बनाम इति मुखर्जी (1991) के मामले में, पति ने अपनी पत्नी के खिलाफ अधिनियम की धारा 13 के तहत क्रूरता के आधार पर वाद दायर किया। परीक्षण न्यायालय ने याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह धारा 14 (1) के प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए शादी की तारीख से एक साल पूरा होने से कुछ दिन पहले दायर की गई थी। कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक अपील में, यह निर्धारित किया गया था कि प्रावधान अनिवार्य नहीं है।
इंदुमती बनाम कृष्णमूर्ति (1998) में, मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि यदि विवाह के एक वर्ष के भीतर, यानी विवाह के कुछ दिनों के भीतर, धारा 14 के तहत किसी भी आवेदन के बिना तलाक के लिए याचिका दायर की जाती है तो तलाक याचिका पर विचार करने के लिए अदालत की अनुमति है, अदालत द्वारा इस तरह के आवेदन पर विचार करने में कोई हानि नहीं है क्योंकि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 14 (1) केवल प्रकृति में निर्देशिका है, और बाद में आवेदन दाखिल करके इसका उचित अनुपालन किया जाता है।
दिल्ली के उच्च न्यायालय ने संकल्प सिंह बनाम प्रार्थना चंद्र (2013) में फैसला सुनाया कि अदालत प्रतिवादी की ओर से असामान्य कठिनाई या अवज्ञा की कुछ परिस्थितियों में शादी के एक वर्ष से पहले याचिका दायर करने की अनुमति दे सकती है।
न्यायालय का विवेक
परंतुक (प्रोवाइजो) न्यायालय को विवेक प्रदान करता है। अदालत इस तरह की याचिका को मामले के प्रारंभिक निर्धारण (प्रिलिमिनरी डिटरमिनेशन) में लंबित रहने की अनुमति दे सकती है। पहला मुद्दा जो सामने आएगा वह यह है कि क्या स्थिति “असाधारण अवज्ञा” या “असाधारण कठिनाई” की श्रेणी में आती है। यदि मामला उपरोक्त श्रेणियों में से एक में फिट बैठता है, तो अदालत अपने विवेक से याचिका को प्रस्तुत करने की अनुमति दे सकती है। न्यायालय के पास यह निर्णय लेने का विवेक है कि इस धारा के तहत आज्ञा दी जाए या नहीं और एकपक्षीय आदेश दिया जाए या नहीं। अगर अदालत आज्ञा देने का फैसला करती है, तो उसे पहले यह तय करना होगा कि पक्षकारों के सुलह करने की संभावना है या नहीं। इसके अलावा, अदालत को आज्ञा देने के इस प्रारंभिक चरण के दौरान विवाह से हुए किसी भी बच्चे के हितों पर विचार करना चाहिए, जैसा कि धारा 14(2) में स्पष्ट रूप से प्रदान किया गया है।
तलाक के सभी आवेदनों में सुलह की संभावना एक महत्वपूर्ण कारक है। अगर शादी से कोई बच्चा है, तो बच्चे के हितों को ध्यान में रखना एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारक होना चाहिए। अपीलीय अदालत जिला अदालत के विवेक में तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगी जब तक कि उसने गलत कानूनी सिद्धांत का पालन नहीं किया, एक महत्वपूर्ण कारक को ध्यान में रखने की उपेक्षा की, या गंभीर अन्याय किया। परंतुक अत्यंत दुर्लभ परिस्थितियों में एक वर्ष की सीमा के प्रभाव को बदलने के लिए है। यह इन स्थितियों में अदालत को वैधानिक अवधि पूरी होने से पहले तलाक की डिक्री के लिए याचिका पर विचार करने में सक्षम बनाता है।
इस तरह की याचिका दायर करने के लिए विशेष अनुमति का अनुरोध करने की प्रक्रिया उच्च न्यायालय द्वारा इस संबंध में बनाए गए किसी भी नियम द्वारा शासित होगी। धारा के तहत विशेष आज्ञा के लिए आवेदन के संबंध में नियम, एकपक्षीय आज्ञा देने के आदेश की तामील, और बाद की प्रक्रिया विभिन्न अदालतों द्वारा इस घटना में विकसित की गई है कि प्रतिवादी इस आधार पर तलाक की याचिका को चुनौती देना चाहता है कि याचिका दाखिल करने की अनुमति अनुचित रूप से प्राप्त की गई है या गलती से दी गई है।
जब मिथ्यावर्णन (मिसरिप्रेजेन्टेशन) द्वारा आज्ञा प्राप्त की जाती है
परन्तुक में यह भी कहा गया है कि भले ही अदालत तलाक की अनुमति दे सकती है, पर यह एक ऐसा प्रावधान जोड़कर डिक्री की प्रभावशीलता को निलंबित भी कर सकती है, जिसमें यह कहा गया है कि यह डिक्री एक वर्ष बीतने के बाद तक प्रभावी नहीं होगी। यदि याचिका की सुनवाई के दौरान अदालत को यह प्रतीत होता है कि अनुमति दी गई थी और गलत बयानी या मामले की वास्तविक प्रकृति को छिपाने के कारण रद्द नहीं की गई थी, तो अदालत इस बात से संतुष्ट होगी कि राहत के लिए आधार मौजूद हैं। हालाँकि, अदालत को ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है और वह अपने विवेक से तलाक की याचिका को पूरी तरह से खारिज कर सकती है। ऐसे मामले में, धारा में निर्दिष्ट समय अवधि समाप्त होने के बाद उसी आधार पर एक याचिका दायर की जा सकती है।
रवींद्र नाथ मुखर्जी बनाम इति मुखर्जी (1991) में, अदालत ने कहा कि जब एक वर्ष के भीतर याचिका दायर करने की अनुमति गलत बयानी या मामले के तथ्यों को छुपाकर प्राप्त की गई है, और अगर अदालत तलाक की अनुमति भी दे देती है, तो अदालत अवधि की समाप्ति के अंत तक डिक्री के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) में देरी कर सकती है। धारा 14(1) के प्रावधान में कहा गया है कि “अदालत याचिका को खारिज कर सकती है,” लेकिन ऐसी किसी भी याचिका पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना जो एक वर्ष की समाप्ति के बाद लाई जा सकती है। सप्रेसियो वेरी (सत्य का दमन) या सजेस्टियो फाल्सी (एक असत्य का सुझाव) द्वारा प्राप्त आज्ञा को गैर-स्थायी होने की सीमा तक दूषित माना जाना चाहिए।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 14 की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी)
यह प्रतिबंध केवल उन तलाक याचिकाओं पर लागू होता है जो अधिनियम की धारा 13 या 13(B) के तहत दायर की जा सकती हैं; यह धारा 12 के तहत दायर की गई उन याचिकाओं पर लागू नहीं होता है जो शून्यकरणीयता (वॉयडेबिलिटी) के आधार पर विवाह को शून्यकरणीय घोषित करने की डिक्री की मांग करती हैं।
रावुलापल्ली योगम्मा बनाम थेल्लमेकला वेंकट रत्नम (1998) में, पत्नी ने इस आधार पर विवाह के विघटन के लिए एक याचिका दायर की कि पति की नपुंसकता (इंपोटेंस) के कारण कोई उपभोग (कंज्यूमेशन) नहीं हुआ था। परीक्षण न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया था क्योंकि आवेदन उसकी शादी की तारीख के एक साल के भीतर जमा किया गया था। चूंकि उक्त अदालत ने समीक्षा के उनके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया, इसलिए उन्होंने अपील की। अपील को स्वीकार करते हुए, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि धारा केवल तभी लागू होती है जब विवाह को भंग करने के लिए तलाक की डिक्री की मांग की जाती है, न कि तब जब विशिष्ट आधारों पर एक विलोपन (एनलमेंट) की मांग की जाती है।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 14 के तहत असाधारण स्थितियां
हालांकि जल्दबाजी में तलाक को रोकने के लिए यह एक अच्छा विचार है, लेकिन यह प्रावधान शादी के पहले साल की समाप्ति से पहले दायर की गई तलाक की याचिकाओं को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं करता है। धारा का प्रावधान असाधारण मामलों की सहायता के लिए आता है, और अदालत गुण के आधार पर प्रत्येक मामले पर फैसला करेगी क्योंकि मुश्किल मामले हो सकते हैं जो अदालत के शुरुआती फैसले को सही ठहराते हैं। असाधारण परिस्थितियों में शामिल हो सकते हैं:
- याचिकाकर्ता को असाधारण कठिनाई; या,
- प्रतिवादी की ओर से असाधारण अवज्ञा।
अधिनियम “असाधारण कठिनाइयों” या “असाधारण अवज्ञा” शब्दों को परिभाषित नहीं करता है। ये अभिव्यक्तियाँ विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला को सम्मिलित करती हैं और असाधारण परिस्थितियों से भरी होती हैं। इसलिए, ऐसे मामलों में जहां याचिकाकर्ता इतनी अधिक कठिनाइयों का सामना कर रहा है कि जीवन एक पूर्ण त्रासदी बन गया है या प्रतिवादी ने इतना जघन्य (हिनीयस) नैतिक अपराध किया है कि पूर्व निर्धारित एक वर्ष की अवधि की प्रतीक्षा किए बिना तलाक की डिक्री देना संभव होगा क्योंकि यह याचिकाकर्ता के लिए पूरी तरह से असहनीय हो गया है।
न्यायालय को यह निर्धारित करना चाहिए कि क्या याचिका में लगाए गए आरोप इस प्रकार के हैं कि साबित होने पर वे असाधारण कठिनाई या अवज्ञा का गठन करेंगे। ऐसा करते समय, यह अनुमान लगाया जाता है कि न्यायालय प्रारंभिक तथ्यों और विवादों के आधार पर आवेदन का निर्णय करेगा और उस निर्णय के अनुसार अपने विवेक का प्रयोग करेगा। शब्द “असाधारण कठिनाइयाँ”, जैसा कि अनुभाग में उपयोग किया गया है, उन आरोपों को संदर्भित कर सकता है, जो विचार योग्य होने पर भी, तलाक की डिक्री के लिए प्रार्थना का समर्थन करने के लिए पर्याप्त हो सकते हैं। निचली अदालत को शादी के एक साल के भीतर दायर की गई तलाक की याचिका पर विचार करने के लिए असाधारण कठिनाई के कारणों को निर्दिष्ट करना चाहिए।
धारा 14 सार्वजनिक नीति पर आधारित है जिसने सुलह के प्रावधान सहित इंग्लैंड में वैवाहिक कारण अधिनियम, 1950 में पाई जाने वाली भाषा को अपनाया। बोमन बनाम बोमन (1949) में डेनिंग, एल.जे. की टिप्पणियों के बाद, मद्रास उच्च न्यायालय ने मेघनाथ नायगर बनाम श्रीमति सुशीला (1956) में कहा कि अंग्रेजी कानून के कुछ सामान्य सिद्धांतों को यह निर्धारित करने में एक गाइड के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है कि किन स्थितियों को असाधारण कठिनाई या अवज्ञा माना जा सकता है:
- यह देखा गया कि “असाधारण” शब्द के प्रयोग से उत्तर निर्धारित होगा। इसमें कथित अवज्ञा या कठिनाई के स्तर की जांच शामिल है, जो स्पष्ट रूप से एक चुनौतीपूर्ण कार्य साबित हो सकता है। स्वाभाविक रूप से, व्यभिचार (एडल्टरी) या क्रूरता ही ऐसी स्थितियाँ हैं जिनमें इस मुद्दे को उठाया जाता है।
- विवाह के भीतर पति-पत्नी में से किसी एक द्वारा किए गए व्यभिचार को सामान्य अवज्ञा माना जा सकता है। इसमें निर्दोष जीवनसाथी पर असाधारण कठिनाई शामिल नहीं हो सकती है।
- हालाँकि, अगर व्यभिचार को अन्य वैवाहिक अपराधों के साथ जोड़ा जाता है, जैसे कि यदि एक पति न केवल व्यभिचार में लिप्त होता है, बल्कि अपनी पत्नी को किसी अन्य महिला के पक्ष में छोड़ देता है या उसके साथ दुर्व्यवहार करता है, तो न केवल वह उसके व्यभिचार के माध्यम से उसे पीड़ा होती है, बल्कि उसके दुरुपयोग से भी नुकसान होता है जो कि पत्नी के लिए असाधारण कठिनाई का गठन करता है।
- भले ही व्यभिचार परित्याग या क्रूरता के साथ न जुड़ा हो, फिर भी यह उन परिस्थितियों में किया जा सकता है जो “असाधारण अवज्ञा” दिखाते हैं और भले ही व्यभिचार एक अन्य वैवाहिक अपराध के साथ न जुड़ा हो, परिणाम अभी भी आवेदक के लिए असाधारण कठिनाई में परिणत हो सकते हैं, जैसा कि एक पत्नी का मामला जिसके व्यभिचार के परिणामस्वरूप किसी अन्य पुरुष द्वारा बच्चा होता है।
- वह पति जो शादी करने के कुछ हफ्तों के भीतर व्यभिचार करता है, या जो कई महिलाओं के साथ, या अपनी पत्नी की बहन के साथ, या एक नौकर के साथ व्यभिचार करता है, उसे असाधारण रूप से अवज्ञ माना जा सकता है।
- फिर से, क्रूरता अपने आप में असाधारण नहीं है। यदि यह उपेक्षा या नशे जैसे उत्तेजक कारकों के साथ संयुक्त है और यह विशेष रूप से क्रूर या स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, विकृत (पर्वर्टेड) वासना (लस्ट) के साथ संयुक्त है, तो यह प्रतिवादी की असाधारण अवज्ञा नहीं दिखाता है लेकिन आवेदक के लिए असाधारण कठिनाई का परिणाम है।
यह निर्धारित करना कि क्या इनमें से प्रत्येक मामले में सुलह की संभावना है, एक महत्वपूर्ण कारक है। यह पता लगाना महत्वपूर्ण है कि आवेदक ने विवाह को सफल बनाने या उस बिंदु पर सुलह करने की कोशिश करने के लिए पहले से क्या किया है। आवेदन को अदालत द्वारा खारिज कर दिया जा सकता है यदि यह निर्धारित करता है कि उसके पक्ष में कुछ भी उचित नहीं किया गया है।
चंद्रिमा गुहा बनाम सुमित गुहा (1994) में, कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा यह देखा गया कि आरोप है कि पत्नी एक अति-आधुनिक महिला थी, जो एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार के लिए अयोग्य थी। उसके आचरण और कार्यों के कारण पति के परिवार के सदस्यों को मानसिक और शारीरिक पीड़ा और यातना का सामना करना पड़ा, इस हद तक कि इस मामले को कई बार पुलिस के सामने लाना पड़ा। यह धारा के अर्थ के भीतर कठिनाई का गठन नहीं करने के लिए आयोजित किया गया था।
विनोद अरोड़ा बनाम मंजू अरोड़ा (1982) में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने पाया कि अधिनियम की धारा 14 के तहत एक आवेदन को स्थानांतरित करने के लिए आवश्यक कठिनाई असाधारण होनी चाहिए। पति केवल इस तथ्य के आधार पर विवाह की तारीख से एक वर्ष की समाप्ति से पहले विघटन के लिए याचिका दायर करने का हकदार नहीं होगा कि पत्नी ने शादी के तीन दिनों के बाद उसके साथ संभोग करने से इनकार कर दिया या वह वैध कारण या औचित्य के बिना वैवाहिक घर से बार-बार बचती रही।
केरल उच्च न्यायालय ने गिजूश गोपी बनाम श्रुति एस (2013) में फैसला सुनाया कि अधिनियम की धारा 13 (B) धारा 14 के अधीन है। तलाक के लिए एक संयुक्त याचिका में, इस मामले में पक्षकार, जो अपनी शादी के दो हफ्ते बाद से ही अलग रह रहे थे, ने दावा किया कि उनके बीच कोई आपसी समन्वय (कोऑर्डिनेशन) नहीं था और उन्होंने अपनी शादी के दौरान कभी भी एक-दूसरे को कोई प्यार या स्नेह नहीं दिखाया। न्यायालय के अनुसार यह स्पष्ट रूप से उनके लिए एक असाधारण कठिनाई का प्रतिनिधित्व करता है। धारा 14 के परंतुक को लागू करना सुरक्षित था क्योंकि वे संभवतः एक साथ नहीं रह सकते थे।
इस प्रकार, जबकि धारा 13 (B) के तहत, विवाह की तारीख से एक वर्ष की अवधि समाप्त हो जानी चाहिए, धारा 14 इस आवश्यकता का अपवाद है। परिवार न्यायालय ने तलाक की याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि शादी के बाद कम से कम एक साल से दोनों पक्ष अलग-अलग नहीं रह रहे थे। अपील पर, धारा 14 के परंतुक को लागू किया गया और तलाक मंजूर कर लिया गया।
रिशु अग्रवाल बनाम मोहित गोयल (2022) में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह अवलोकन किया कि केवल विवाह की असंगति या अस्थायी या व्यवहारिक मतभेदों के परिणामस्वरूप होने वाले असंगत मतभेदों के कारण, अपने आप में, किसी भी पक्ष द्वारा दूसरे के प्रति असाधारण अवज्ञा का कारण नहीं होगा। एक या दोनों पक्षों द्वारा दूसरे को यौन क्रिया से इनकार करना असाधारण अवज्ञा का कार्य नहीं माना जा सकता है। एक पति या पत्नी द्वारा दूसरे को, या उन दोनों द्वारा एक दूसरे को यौन संबंध से इनकार करने का परिणाम निस्संदेह “कठिनाई” हो सकता है, लेकिन इसे धारा 14(1) के तहत “असाधारण कठिनाई” नहीं माना जा सकता है।
हाल ही में की गई न्यायिक घोषणाएं
रिशु अग्रवाल बनाम मोहित गोयल (2022)
तथ्य
उपरोक्त निर्णय में, परिवार न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (B) के तहत दायर आपसी सहमति से विवाह के विघटन के लिए पत्नी के आवेदन को अस्वीकार कर दिया। अपीलकर्ता, पत्नी ने परिवार न्यायालय अधिनियम, 1984, की धारा 19 के तहत परिवार न्यायालय के आदेश को उलटने और रद्द करने के प्रयास में वर्तमान अपील दायर की।
प्रतिवादी और अपीलकर्ता बमुश्किल पति-पत्नी के रूप में रहते थे और उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। मनमौजी मुद्दों के कारण, पक्षकार कथित रूप से अलग रहने लगे। धारा 14 के तहत एक साल की कूलिंग-ऑफ अवधि से पहले याचिका दायर करने की अनुमति के लिए एक आवेदन के साथ अधिनियम की धारा 13 (B) (1) के तहत एक याचिका दायर की गई थी।
यह दावा करते हुए कि दोनों पक्षों ने किसी भी तरह के यौन संबंधों से इनकार किया, जिसके परिणामस्वरूप ‘असाधारण कठिनाई’ और ‘अत्यधिक अवज्ञा’ की स्थिति पैदा हुई। इसलिए, पक्षकारों ने धारा 14 के तहत असाधारण स्थितियों की आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास किया।
मुद्दा
न्यायालय के समक्ष उठाया गया मुद्दा यह था कि क्या यह संभव था कि एक विवाहित जोड़े के लिए एक स्वभावगत अंतर के कारण यौन गतिविधि में शामिल होने से इंकार कर दिया जाए, जिसे ‘असाधारण’ माना जाए, जिसके परिणामस्वरूप शादी के विघटन के लिए एक साल का इंतजार करके समाधान किए बिना विवाह का विघटन हो सकता है। उसी के जवाब में, न्यायालय ने कहा कि यह मान लेना उचित है कि एक विवाहित जोड़ा एक अच्छा दाम्पत्य संबंध बनाए रखने में सक्षम नहीं होगा यदि उनके पास महत्वपूर्ण, अस्थायी या व्यवहार संबंधी चुनौतियाँ हों।
फैसला
दिल्ली उच्च न्यायालय ने पाया कि साधारण असंगतताओं (इनकंपेटीबिलिटी) या अस्थायी या व्यवहार संबंधी असमानताओं के कारण होने वाले असंगत मतभेदों के साथ एक विवाह, अपने आप में, किसी भी पक्ष द्वारा दूसरे पर अत्यधिक अवज्ञता का परिणाम नहीं होगा। जब एक या दोनों पक्ष एक दूसरे के साथ यौन गतिविधि में शामिल होने से इनकार करते हैं तो असाधारण भ्रष्टता का कार्य घटित नहीं माना जा सकता है।
यद्यपि एक पति या पत्नी द्वारा दूसरे को, या उन दोनों द्वारा एक दूसरे को यौन क्रिया (सेक्स) से इनकार करना ‘कठिनाई’ माना जा सकता है, यह धारा 14(1) द्वारा परिभाषित ‘अत्यधिक कठिनाई’ नहीं है। उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि विवाह के भीतर सहवास से इनकार करना ‘असाधारण कठिनाई’ या ‘असाधारण अवज्ञा’ के उदाहरण के रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। परिणामस्वरूप, एक वर्ष की आवश्यकता को माफ नहीं किया जा सकता है। छूट को एक नियम के विपरीत एक अपवाद के रूप में प्रदान किया जाना चाहिए।
कोर्ट के अनुसार, व्यवहारिक या मनमौजी मतभेदों के कारण वैवाहिक संबंध में प्रवेश करने से मना करना या वैवाहिक संबंध को पूरा करने में विफलता ही तलाक का एकमात्र कारण है। इसलिए परिवार न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा गया और अपील खारिज कर दी गई।
हालांकि, न्यायालय ने अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि की समाप्ति के बाद पक्षकारों के अधिकारों को उसके समक्ष स्थानांतरित करने के लिए सुरक्षित रखा।
निष्कर्ष
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 14 में मौजूद प्रतिबंधों का उद्देश्य पक्षों को अपनी शादी को बचाने के लिए ईमानदार प्रयास करने से पहले कानूनी कार्रवाई करने से रोकना है। यह सार्वजनिक नीति पर आधारित है क्योंकि विवाह अनुबंध बनाए जाते हैं और यदि आवश्यक हो तो भंग किए जाने वाले नियम देश के कानूनों और संविधान के प्रावधानों में से हैं जो इसके नागरिकों के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि विवाह नागरिक समाज की आधारशिला है।
भाव (एक्सप्रेशंस) विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला को कवर करते हैं और असाधारण परिस्थितियों से भरे होते हैं। विवाह से पैदा हुए बच्चों के हितों और इस सवाल पर कि क्या पक्षकारों के बीच सुलह की वास्तविक संभावना है, निर्णय लेते समय अदालत द्वारा विचार किया जाना चाहिए। ये कारक असाधारण कठिनाई या अवज्ञा के आकलन (असेसमेंट) से संबंधित नहीं हैं। सुलह की संभावना हमेशा हर परिस्थिति में पूर्वता होनी चाहिए। यहां तक कि अगर सुलह की तत्काल कोई संभावना नहीं है और पति-पत्नी के बीच संबंध तनावपूर्ण हैं, तो बच्चे के सर्वोत्तम हित हमेशा पहले आने चाहिए।
संदर्भ
- Kumud Desai, Indian Law of Marriage and Divorce (LexisNexis, Haryana, 11th ed., Revised and Reprinted, 2022)
- Neera Bharihoke and Bhagyashree Deshpande, Mulla Hindu Law (Delhi Law House, Delhi, 2021)
- Satyajeet A Desai, Mulla Hindu law (LexisNexis, Haryana, 23rd ed, 2018)