राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एन.सी.पी.सी.आर)

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यह लेख कर्नाटक स्टेट लॉ यूनिवर्सिटी के लॉ स्कूल के छात्र Naveen Talawar ने लिखा है। यह लेख बच्चे के अधिकारों, अधिकारों की रक्षा के लिए उपकरणों (इंस्ट्रूमेंट) और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग, इसकी भूमिका, कार्यों आदि के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

दुनिया भर की सभ्यताओं में, बचपन को लंबे समय से मासूमियत, स्वतंत्रता, आनंद और खेल से जोड़ा गया है। यह एक ऐसा समय है जब विकास की कठोरता से बचते हुए दायित्व या प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) की भावना नहीं होती है। बच्चे नाजुक प्राणी होते हैं जिन्हें जीवन की कठोर वास्तविकताओं से बचाना चाहिए। नतीजतन, वयस्क (एडल्ट)-बाल संबंध, विशेष रूप से माता-पिता-बाल संबंध को ‘देखभाल और सुरक्षा’ प्रदान करने के लिए कहा जाता है, यह बच्चे के ‘सर्वोत्तम हितों’ की सेवा करता है, और दैनिक ‘अस्तित्व और विकास की जरूरतों’ का समर्थन करता है। वयस्क को अभिभावक (गार्जियन) के रूप में माना जाता है जो बच्चे की देखभाल और विकास के लिए जिम्मेदार होते है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) ने अक्टूबर 1993 में अपनी स्थापना से बच्चों के अधिकारों पर लगातार ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है। बच्चों के उत्तर-जीवन (सर्वाइवल), विकास और सुरक्षा के लिए भारतीय संविधान में पर्याप्त प्रावधानों के साथ-साथ उनकी रक्षा के लिए बनाए गए विनियमों (रेगुलेशन) जो उनके हितों के बचाव के लिए है, और साथ ही भारत सरकार द्वारा बाल अधिकारों पर कन्वेंशन की पुष्टि करने के बावजूद भी, पूरे देश में बच्चे, विशेष रूप से समाज के गरीब वर्ग के बच्चे कमजोर थे, और उनके मानवाधिकारों का नियमित रूप से उल्लंघन किया गया था।

बाल अधिकार – एक अवलोकन (ओवरव्यू)

एक बच्चा, भारतीय जनगणना के अनुसार, चौदह वर्ष से कम आयु का कोई व्यक्ति है। बाल अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स) एक बच्चे को “अठारह वर्ष से कम उम्र का कोई भी इंसान, जब तक कि बच्चे पर लागू कानून से पहले ही वह व्यसक्ता हासिल नहीं कर लेता है” के रूप में परिभाषित करती है। यह घोषणा प्रत्येक राष्ट्र को अपने कानूनों के आधार पर बच्चों के लिए आयु सीमा निर्धारित करने की अनुमति देती है। हालांकि, हमारे देश में, बच्चों से संबंधित कई नियम, विभिन्न स्तरों पर आयु प्रतिबंध (रिस्ट्रक्शन) की समीक्षा (रिव्यू) करते हैं। 

  1. उदाहरण के लिए, भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) 1860, सात साल से कम उम्र के नाबालिगों और बारह साल से कम उम्र के मानसिक विकलांग बच्चों के बारे में बात करता है (धारा 83 आई.पी.सी.)। 
  2. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21A छह से चौदह वर्ष की आयु के बच्चों के बारे में बात करता है,
  3. बाल श्रम (निषेध और विनियमन (प्रोहिबीशन एंड रेगुलेशन)) अधिनियम, 1986, चौदह वर्ष के बच्चो के बारे मे बात करता है, और 
  4. किशोर (जुवेनाइल) न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000, अठारह वर्ष आदि की आयु के बच्चो के बारे में बताता है।

बाल अधिकारों का इतिहास 

बच्चों को पहले छोटा-वयस्क माना जाता था, और बच्चों के अधिकारों की धारणा अनसुनी थी। 1840 के दशक में, फ्रांस बच्चों के लिए विशेष सुरक्षा की धारणा को आगे बड़ाया। फ्रांस ने 1841 में काम पर बच्चों की सुरक्षा और उनके शिक्षा के अधिकार की गारंटी के लिए नियम बनाए। प्रथम विश्व युद्ध के बाद बच्चों के अधिकारों की प्रासंगिकता (रिलेवेंस) को पहली बार पहचाना गया। 28 फरवरी, 1924 को, इंटरनेशनल सेव द चिल्ड्रन यूनियन ने अपने पांचवें आम सत्र (जेनरल सेशन) में बाल अधिकारों की घोषणा का समर्थन किया। यह रिपोर्ट राष्ट्र संघ (लीग ऑफ़ नेशंस) को प्रस्तुत की गई थी, जिसने 26 सितंबर, 1924 को ‘जिनेवा घोषणापत्र (डिक्लेरेशन)’ को मंजूरी दी थी, जिसमें कहा गया था कि “मानवता को बच्चे के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहिए।” 

राष्ट्र संघ अंततः संयुक्त राष्ट्र में विकसित हुआ। जिनेवा घोषणापत्र ने पांच अध्यायों में बच्चों की भलाई का विश्लेषण किया और विकास, समर्थन, राहत और सुरक्षा के साथ-साथ वयस्क जिम्मेदारियों के उनके अधिकारों को मान्यता दी। पहली बार, जिनेवा घोषणापत्र ने बच्चों के लिए विशेष अधिकारों के अस्तित्व के साथ-साथ बच्चों के प्रति वयस्कों के दायित्वों को स्वीकार किया और पुष्टि की। पोलिश चिकित्सक जानुज़ कोरज़ाक के काम के आधार पर, ‘जिनेवा घोषणा’ विशेष रूप से बच्चों के अधिकारों को संबोधित करने वाली पहली अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणा थी।

एक बच्चे के अधिकार 

हमारा संविधान रंग, जाति या पंथ (क्रीड) की परवाह किए बिना सभी बच्चों को गरिमा (डिग्निटी) और विशिष्टता के साथ जीने और अपने समाज और राष्ट्र की सेवा करने के अधिकार की रक्षा करता है और इस पर जोर देता है। बच्चे के कुछ मूल अधिकार निम्नलिखित हैं:

  1. उत्तरजीविता अधिकार: इसमें बच्चे के भोजन, आवास और चिकित्सा उपचार के अधिकार सहित अन्य चीजें शामिल हैं।
  2. विकासात्मक अधिकार : यह एक बच्चे के अपनी क्षमताओं और शक्तियों को विकसित करने और अधिकतम करने के अधिकार को संदर्भित करता है। उन्हें खेलने, आराम करने, शिक्षा हासिल करने और जानकारी हासिल करने का अधिकार है।
  3. भागीदारी के अधिकार : इसमें स्वयं को व्यक्त करने और समाज के अन्य सदस्यों के साथ अपने समुदाय में जीवन के सभी हिस्सों में संलग्न (एंगेज) होने की क्षमता शामिल है। 
  4. संरक्षण अधिकार : यह सुनिश्चित करता है कि बच्चा असामाजिक व्यवहार जैसे बाल शोषण, बाल श्रम और मानसिक और यौन उत्पीड़न से सुरक्षित है।

बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए उपकरण 

बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर कई सम्मेलन (कन्वेंशन), संधियाँ (ट्रीटी), कानून और चार्टर स्थापित किए गए हैं। निम्नलिखित कुछ कानून है जो लागू होते हैं:

1. भारत का संविधान

भारतीय संविधान में बच्चों की भेद्यता (विलनरेबिलिटी) और सुरक्षा के अधिकार को मान्यता दी गई है। सुरक्षात्मक भेदभाव की अवधारणा का पालन करते हुए, यह बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने वाले महत्वपूर्ण और विशिष्ट कानूनों और नीतियों के माध्यम से अनुच्छेद 15 पर विशेष ध्यान देने का आश्वासन देता है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 15(3), 19(1)(a), 21, 21A, 23, 24, 39(e), 39(f), और 45 बच्चों सहित अपने सभी नागरिकों की सुरक्षा, सरंक्षण और भलाई के लिए भारत की प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हैं। 

2. बाल अधिकार संरक्षण आयोग (बाल अधिकार अधिनियम, 2005) 

इस अधिनियम में प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश को बाल अधिकार संरक्षण के लिए राष्ट्रीय और राज्य आयोग (एन.सी.पी.सी.आर. और एस.सी.पी.सी.आर.) स्थापित करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय और राज्य आयोगों के कार्य और शक्तियां निम्नलिखित हैं:

  • किसी भी कानून द्वारा या उसके तहत प्रदान किए गए बच्चों के अधिकारों के लिए कानूनी सुरक्षा उपायों की जांच और आकलन (एसेस) करना और उनके प्रभावी कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) के लिए सुझाव प्रदान करना। 
  • इन सुरक्षा उपायों की प्रभावशीलता पर रिपोर्ट तैयार करना और केंद्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत करना। 
  • बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन की जांच करना और यदि आवश्यक हो तो कानूनी कार्रवाई का सुझाव करना। 
  • संधियों और अन्य अंतरराष्ट्रीय उपकरणों के आलोक में बच्चों के अधिकारों को प्रभावित करने वाली नीतियों, कार्यक्रमों और अन्य कार्यों की नियमित रूप से समीक्षा करना।
  • समाज के विभिन्न वर्गों के बीच बच्चों के अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करना।
  • बच्चों के खिलाफ अपराधों या उनके अधिकारों के उल्लंघन के मुकदमे की सुनवाई में तेजी लाने के लिए बाल न्यायालय बनाना। 
  • प्रत्येक बाल न्यायालय के लिए एक विशेष लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) नामित करने के लिए राज्य और स्थानीय सरकारों को प्रोत्साहित करना।

3. किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015, जो किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2000 की जगह लेता है, कानून का एक व्यापक हिस्सा है। यह देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों और कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों, दोनों के लिए उनकी विकासात्मक जरूरतों को संबोधित करके और बच्चों के सर्वोत्तम हित में मामलों के न्याय और निपटान के लिए एक बाल-अनुकूल (फ्रेंडली) दृष्टिकोण अपनाने के साथ-साथ अधिनियम के तहत स्थापित विभिन्न संस्थानों के माध्यम से उनके पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) के प्रावधानों को बेहतर करता है। इस अधिनियम में विभिन्न प्रकार के नए बच्चों से संबंधित अपराध शामिल हैं जिन्हें मौजूदा कानून द्वारा प्रभावी ढंग से संबोधित नहीं किया गया है। अवैध रूप से गोद लेना, बाल देखभाल सुविधाओं में शारीरिक दंड, बाल आतंकवादी संगठन, विकलांग बच्चों के खिलाफ अपराध, और बाल व्यपहरण (किडनैपिंग) और अपहरण (एबडक्शन) इसके कुछ उदाहरण हैं। 

किशोर न्याय बोर्ड और बाल कल्याण समिति के पास अधिनियम के तहत विशिष्ट प्राधिकरण (अथॉरिटी), कार्य और जिम्मेदारियां हैं। यह निर्धारित करने के लिए कि क्या उन पर वयस्कों के रूप में मुकदमा चलाया जाना चाहिए, प्रारंभिक समीक्षा करने के बाद, किशोर न्याय बोर्ड बच्चों द्वारा किए गए गंभीर अपराधों को बाल न्यायालय में स्थानांतरित (ट्रांसफर) कर सकता है।

4. यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम, 2012

2012 का पॉक्सो अधिनियम बच्चों के लिए यौन शोषण और दुर्व्यवहार के खिलाफ कानूनी सुरक्षा को बेहतर करता है। बच्चों के खिलाफ यौन हमलों को संबोधित करने वाला एक अलग विधेयक (बिल) पहली बार अपनाया गया है। आई.पी.सी. के कई हिस्से वर्तमान में यौन अपराधों से संबंधित हैं। आई.पी.सी. बच्चों पर सभी प्रकार के यौन हमलों को कवर नहीं करती है और वयस्क और बाल पीड़ितों के बीच अंतर नहीं करती है। 

यह अधिनियम बच्चों के यौन शोषण की पांच अलग-अलग श्रेणियों को परिभाषित करता है। यह अधिनियम पेनेट्रेटिव यौन हमले, बढ़े हुए पेनेट्रेटिव यौन हमले, यौन हमले, गंभीर यौन हमले, यौन उत्पीड़न और किशोर का अश्लील उद्देश्यों के लिए उपयोग करने को अपराध मानता है। अधिनियम के तहत, इन कार्यों को करने में सहायता करना या मदद करने का प्रयास करना भी निषिद्ध (प्रोहिबिटेड) है।

5. बच्चों का मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आर.टी.ई. अधिनियम), 2009

संविधान (86वाँ संशोधन) अधिनियम, 2002 ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21A को पेश किया, जिससे छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को राज्य द्वारा निर्धारित तरीके से मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का मौलिक अधिकार मिला है। बच्चों के नि: शुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 के अनुसार प्रत्येक बच्चे को एक औपचारिक (फॉर्मल) स्कूल में संतोषजनक और समान गुणवत्ता की पूर्णकालिक (एलिमेंट्री) प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार है जो कुछ आवश्यक मानदंडों (नॉर्म) और मानकों (स्टैंडर्ड) को पूरा करता है, यह अधिनियम अनुच्छेद 21A के तहत परिकल्पित (एनवीसेज) परिणामी कानून का प्रतिनिधित्व करता है। 

6. बाल और किशोर श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2016

जुलाई 2016 में, संसद ने बाल श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनियम पारित किया था। यह अधिनियम 1986 के बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम में संशोधन करता है, यह बाल श्रम पर कानून के निषेध की सीमा को बढ़ाता है और अपराधियों के लिए दंड को और ज्यादा कठोर बनाता है। इस अधिनियम के सभी प्रावधानों को शामिल करने के लिए बाल और किशोर श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 को 2017 में संशोधित किया गया था। यह अधिनियम बच्चों को पारिवारिक व्यवसाय या दृश्य-श्रव्य (ऑडियो विजुअल) मनोरंजन क्षेत्र में एक कलाकार के रूप में कार्य करने को छोड़कर किसी भी गतिविधि में काम करने से रोकता है, और यह किशोरों को खतरनाक नौकरियों और प्रक्रियाओं में काम करने से भी रोकता है। इसने नाबालिगों को काम पर रखने के जुर्माने को और ज्यादा अधिक किया है और बाल श्रम को एक आपराधिक कार्य बना दिया है।

7. बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यू.एन.सी.आर.सी.)

बाल अधिकारों पर सम्मेलन (सी.आर.सी.) को 1989 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अनुमोदित (अप्रूव) किया गया था, और भारत सहित अधिकांश विकसित और विकासशील देशों ने इसकी पुष्टि की थी। यह सम्मेलन बच्चों के सर्वोत्तम हितों की रक्षा के लिए सभी राज्यों के पक्षों के लिए आवश्यकताओं को स्थापित करता है और बच्चों के मौलिक अधिकारों को निर्दिष्ट करता है। अनुसमर्थन (रेटिफाई) करने वाले देश सम्मेलन की शर्तों से कानूनी रूप से बाध्य होने के लिए सहमत हैं। 

ये बाल अधिकारों पर एक विशेषज्ञ समिति को नियमित रूप से सम्मेलन की आवश्यकताओं का पालन करने के अपने प्रयासों की रिपोर्ट करते हैं।  यू.एन.सी.आर.सी. के अनुसार, बाल अधिकार, मूल अधिकार और स्वतंत्रता हैं जो 18 वर्ष से कम उम्र के सभी व्यक्तियों को जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राय, मूल, धन, जन्म स्थिति, योग्यता, आदि की परवाह किए बिना प्रदान की जानी चाहिए और हर जगह सभी पर लागू होता है।

सम्मेलन के अनुच्छेद 16 में लिखा है, “किसी भी बच्चे को, उसकी निजता (प्राइवेसी), परिवार या संचार (कम्युनिकेशन) के साथ मनमाने या गैरकानूनी हस्तक्षेप के अधीन नहीं किया जाना चाहिए, न ही उसके सम्मान और चरित्र पर गैरकानूनी हमला किया जाना चाहिए।” यह माना जाता है कि बच्चो के पास इस तरह के हस्तक्षेप या हमलों से बचने का कानूनी अधिकार है।

सम्मेलन के अनुच्छेद 40 के अनुसार, कानून के उल्लंघन के आरोपी, बच्चे की निजता को प्रक्रियाओं के सभी चरणों में संरक्षित किया जाना चाहिए। 2005 में, भारत सरकार ने सशस्त्र संघर्ष (आर्म्ड कॉन्फ्लिक्ट) में किशोरों की भागीदारी और बच्चों की बिक्री, वेश्यावृत्ति और अश्लील साहित्य (पोर्नोग्राफी) पर यू.एन.सी.आर.सी. के दो वैकल्पिक प्रोटोकॉल को स्वीकार किया था। भारत सरकार बच्चों को दुर्व्यवहार और शोषण के इन खतरनाक रूपों से बचाने के लिए अपनी राष्ट्रीय नीतियों और प्रक्रियाओं को मजबूत कर रही है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एन.सी.पी.सी.आर.)

बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005, दिसंबर 2005 में पारित किया गया था, यह एक संसदीय अधिनियम है जिसने मार्च 2007 में एक वैधानिक निकाय के रूप में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एन.सी.पी.सी.आर.) की स्थापना की थी। एन.सी.पी.सी.आर. का मुख्य उद्देश्य, देश भर में बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना, उनको बढ़ावा देना,  और उनको बचाए रखना है। आयोग का उद्देश्य यह गारंटी देना है कि सभी कानून, नीतियां, कार्यक्रम और प्रशासनिक प्रक्रियाएं भारतीय संविधान और बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के अनुरूप हैं। आयोग राष्ट्रीय नीतियों और कार्यक्रमों के साथ-साथ राज्य, जिला और ब्लॉक स्तरों पर स्मार्ट प्रतिक्रियाओं के लिए एक अधिकार-आधारित दृष्टिकोण की कल्पना करता है जो प्रत्येक क्षेत्र के विशिष्ट गुणों और क्षमताओं को ध्यान में रखता है।

आयोग की संरचना (कंपोजिशन)

राष्ट्रीय बाल अधिकारों के संरक्षण आयोग को अधिनियम की धारा 3 द्वारा अधिदेशित (मैंडेट) किया गया है, और इसके परिणामस्वरूप, केंद्र सरकार एक अधिसूचना (नोटिफिकेशन) द्वारा बच्चों के अधिकारों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय आयोग के रूप में जाना जाने वाला एक निकाय बनाएगी। आयोग के सदस्य इस प्रकार हैं:

  1. एक अध्यक्ष जो एक प्रमुख नेता है जिसने बच्चों के कल्याण में सुधार के लिए लगातार काम किया है; तथा 
  2. निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रतिष्ठित, प्रतिभा, ईमानदारी, स्थिति और अनुभव के व्यक्तियों में से छह सदस्यों को केंद्र सरकार द्वारा नामित किया जाएगा, जिनमें से कम से कम दो महिलाएं होनी चाहिए:
  • शिक्षा; 
  • बाल स्वास्थ्य, देखभाल, कल्याण या विकास; 
  • किशोर न्याय या उपेक्षित या हाशिए (मार्जिनलाइज्ड) बच्चों या विकलांग बच्चों की देखभाल;
  • बाल श्रम का उन्मूलन (एबोलिशन) या संकट में बच्चों की सुरक्षा; 
  • बाल मनोविज्ञान या समाजशास्त्र (सोशियोलॉजी); तथा 
  • बाल कानून।

एन.सी.पी.सी.आर. की भूमिका

एन.सी.पी.सी.आर. का मानना ​​है कि बाल अधिकारों को संबोधित करने के लिए बाल भागीदारी की आवश्यकता है। नतीजतन, आयोग बच्चों को उनके अधिकारों और विशेषाधिकारों का आनंद लेने के लिए संलग्न करने के लिए प्रोत्साहित करता है। आयोग द्वारा उठाए गए हर कदम बच्चों को भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। उदाहरण के लिए, अपनी राजकीय यात्राओं के दौरान, आयोग जन सुनवाई में बच्चों की बात सुनने की आवश्यकता पर बल देता है। जब बच्चे बेचैन या परेशान होते हैं और अधिक निजता की मांग करते हैं, तो आयोग ने एक जगह रखी है जहां वे स्वतंत्र रूप से और आराम से बोल सकते हैं। ऐसे बच्चों से संपर्क करने पर, एक प्रतिक्रिया दी जाती है, और जांच के बाद बच्चे के सर्वोत्तम हित में समस्या का समाधान किया जाता है, जबकि संस्थानों से सख्ती से निपटा जाता है।

आयोग के पास शिकायतों की जांच करने और कुछ मामलों में जैसे की बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन और उनकी सुरक्षा और विकास के लिए कानून को लागू न करने वाले मामलों में स्वयं कार्रवाई करने का अधिकार है। आयोग बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए विधायी उपायों की जांच और मूल्यांकन करता है, साथ ही उनके सफल कार्यान्वयन के लिए सुझाव भी देता है। यदि आवश्यक हो, तो यह संशोधनों का सुझाव देगा, शिकायतों की जांच करेगा, या बच्चों के लिए संवैधानिक और कानूनी अधिकारों के हनन (एब्यूज) से जुड़े मामलों का स्वत: संज्ञान लेगा।

आयोग का उद्देश्य, बाल अधिकारों को उचित रूप से लागू करना और बच्चों को प्रभावित करने वाले कानूनों और कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करना है और ऐसा वह शिकायतों की जांच करके और बाल अधिकारों से वंचित करने वाले मामलो, बच्चों के संरक्षण और विकास के लिए प्रदान करने वाले कानूनों के गैर-कार्यान्वयन, उनके कल्याण के उद्देश्य से नीतिगत निर्णयों, दिशानिर्देशों या निर्देशों का अनुपालन (कंप्लायंस), साथ ही साथ बच्चों के लिए राहत की घोषणा करने से संबंधित मामलों का स्वत: संज्ञान लेकर करता है।

एन.सी.पी.सी.आर. के कार्य 

एन.सी.पी.सी.आर. के कार्य अधिनियम की धारा 13 के तहत निम्नानुसार प्रदान किए गए हैं: 

  1. बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए किसी मौजूदा कानून द्वारा या उसके तहत प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों की जांच और मूल्यांकन करना और प्रभावी कार्यान्वयन के लिए सुझाव देना।
  2. उन सुरक्षा उपायों के संचालन पर केंद्र सरकार को वार्षिक आधार पर और ऐसे अन्य अंतराल पर रिपोर्ट करना जो आयोग उचित समझे। 
  3. बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन की जांच करना और आग्रह करना कि ऐसी परिस्थितियों में कानूनी कार्रवाई की जाए।
  4. आतंकवाद, सांप्रदायिक (कम्यूनल) हिंसा, दंगों, प्राकृतिक आपदाओं, घरेलू हिंसा, एच.आई.वी./एड्स, तस्करी (ट्रैफिकिंग), दुर्व्यवहार, यातना (टॉर्चर) और शोषण, अश्लील साहित्य और वेश्यावृत्ति के परिणामस्वरूप बच्चों को अपने अधिकारों का प्रयोग करने से रोकने वाले सभी कारकों की जांच करना और उचित उपाय के लिए सुझाव देना। 
  5. संकटग्रस्त बच्चों, हाशिए और गरीब बच्चों, कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों, किशोरों, रिश्तेदारों के बिना बच्चों और कैदियों के बच्चों, जिन्हें विशेष देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता होती है, के लिए उचित उपचारात्मक कार्रवाई की जांच करना और सुझाव देना।
  6. बच्चों के अधिकारों के साथ-साथ संधियों और अन्य अंतरराष्ट्रीय उपकरणों से संबंधित मौजूदा नीतियों, कार्यक्रमों और अन्य गतिविधियों की जांच करना और बच्चों के सर्वोत्तम हित में उनके सफल कार्यान्वयन के लिए सुझाव देना। 
  7. बच्चों के अधिकारों पर शोध (रिसर्च) करना और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करना। 
  8. समाज के विभिन्न क्षेत्रों में बाल अधिकार साक्षरता को बढ़ावा देना और प्रकाशनों (पब्लिकेशन), मीडिया, संगोष्ठियों (सेमिनार) और अन्य सुलभ तकनीकों के माध्यम से इन अधिकारों की रक्षा के लिए उपलब्ध सुरक्षा उपायों की समझ को बढ़ाना।
  9. शिकायतों की जांच करना और कुछ मुद्दों पर ध्यान देना जैसे की, 
  • बच्चों को अधिकारों से वंचित करना और उनका उल्लंघन। 
  • बच्चों की सुरक्षा और विकास के उद्देश्य से कानूनों को बनाए रखने में विफलता। 
  • बच्चों के कल्याण के लिए कठिनाइयों को कम करने और उनकी सुरक्षा के साथ-साथ ऐसे बच्चों को राहत देने या उपयुक्त अधिकारियों को चिंताओं की रिपोर्ट करने के उद्देश्य से नीति विकल्पों, नियमों या निर्देशों का पालन करने में विफलता।
  1. बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक समझे जाने वाले किसी भी अतिरिक्त कार्य के साथ-साथ उपरोक्त कार्य से संबंधित कोई अन्य मामले।

2006 के एन.सी.पी.सी.आर. नियमों के अनुसार अतिरिक्त कार्य

  1. बाल अधिकारों पर सम्मेलन के अनुरूप निर्धारित करने के लिए वर्तमान कानून, नीति और अभ्यास का विश्लेषण करना, पूछताछ करना और बच्चों को प्रभावित करने वाली नीति या व्यवहार के किसी भी तत्व पर रिपोर्ट प्रदान करना, और किसी भी नए कानून पर बाल अधिकार टिप्पणी प्रदान करना; 
  2. केंद्र सरकार को ऐसे रक्षा उपायों की प्रभावोत्पादकता (एफिकेसी) के साथ-साथ ऐसे अन्य अंतरालों (इंटरवल) पर जैसा आयोग उचित समझे, पर वर्तमान वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करना;
  3. आधिकारिक जांच तब की जानी चाहिए जब बच्चों या उनकी ओर से संबंधित व्यक्ति ने चिंता व्यक्त की हो। 
  4. सुनिश्चित करना कि आयोग का कार्य सीधे बच्चों के विचारों और प्राथमिकताओं द्वारा निर्देशित है; 
  5. अपने काम में और बच्चों से निपटने वाली सभी सरकारी एजेंसियों और संगठनों के बच्चों के दृष्टिकोण को बढ़ावा देना, सम्मान करना और उन पर सावधानीपूर्वक विचार करना;
  6. बच्चों के अधिकारों के बारे में जानकारी विकसित करना और उसका प्रसार करना; 
  7. बच्चों के बारे में जानकारी इकट्ठा करना और उसका मूल्यांकन करना; 
  8. स्कूल पाठ्यक्रम, शिक्षक प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) और बाल देखभाल कार्यकर्ता प्रशिक्षण में बच्चों के अधिकारों को शामिल करने को प्रोत्साहित करना।

एन.सी.पी.सी.आर. को बच्चों के अधिकारों के किसी भी हनन की रिपोर्ट 

बाल अधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की जांच करना आयोग के प्रमुख कार्यों में से एक है। आयोग पर बाल अधिकारों के हनन और शर्तों के गंभीर मामलों, जो बच्चों को उनके अधिकारों का आनंद लेने से रोकते हैं, को देखने की भी शक्ति है 

  1. ईबालनिदान, एक ऑनलाइन शिकायत प्रबंधन (मैनेजमेंट) प्रणाली: ईबालनिदान ऑनलाइन शिकायत प्रबंधन प्रणाली आयोग द्वारा स्पष्ट रूप से बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन के बारे में चिंताओं को दर्ज करने के लिए डिज़ाइन की गई थी। कोई भी व्यक्ति या कोई भी समूह मुफ्त मे ऑनलाइन शिकायत दर्ज करा सकता है।
  2. पॉक्सो से ई-बॉक्स का उपयोग करना : यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम 2012 के तहत, यह यौन हमले की किसी भी घटना की रिपोर्ट करने का एक सरल, सीधा और गोपनीय तरीका है। यह एन.सी.पी.सी.आर. वेबसाइट के होम पेज पर प्रमुखता से प्रदर्शित होता है, जहां उपयोगकर्ता पॉस्को ई-बॉक्स बटन दबाकर इसे एक्सेस कर सकता है।
  3. अन्य संभावनाएं : व्यक्तिगत शिकायतें आयोग के कार्यालय में, फोन द्वारा, पत्र द्वारा, या ईमेल द्वारा व्यक्तिगत रूप से की जा सकती हैं।

निष्कर्ष 

एन.सी.पी.सी.आर. देश में बच्चों के अधिकारों के संरक्षण, उनको बढ़ावा देने और रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। आयोग का अधिदेशित यह सुनिश्चित करना है कि सभी कानून, नीतियां, कार्यक्रम और प्रशासनिक प्रक्रियाएं भारतीय संविधान और बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में निहित बाल अधिकार परिप्रेक्ष्य के अनुरूप हों। आयोग राष्ट्रीय नीतियों और कार्यक्रमों के साथ-साथ राज्य, जिला और ब्लॉक स्तरों पर सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं के लिए एक अधिकार-आधारित दृष्टिकोण की कल्पना करता है, जो प्रत्येक क्षेत्र के विशिष्ट गुणों और क्षमताओं को ध्यान में रखता है। यह प्रत्येक बच्चे तक पहुंचने के लिए समुदायों और घरों में बेहतर एकीकरण (इंटीग्रेशन) चाहता है, और यह उम्मीद करता है कि क्षेत्र के अनुभव सरकार के सभी स्तरों से प्राप्त सहायता को प्रभावित करेंगे।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

1. भारत के संविधान के तहत बच्चों के अधिकारों के संरक्षण से संबंधित प्रावधान क्या हैं?

भारतीय संविधान बच्चों की भेद्यता और सुरक्षा के अधिकार को मान्यता देता है। सुरक्षात्मक भेदभाव की धारणा के बाद, यह अनुच्छेद 15 बच्चों को उनके अधिकारों की रक्षा करने वाले महत्वपूर्ण और विभिन्न कानूनों और नीतियों के माध्यम से विशेष ध्यान देने की गारंटी देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 15(3), 19(1)(a), 21, 21(a), 23, 24, 39(e), 39(f) और 45 भारत के सभी निवासियों, विशेषकर बच्चों की सुरक्षा और कल्याण के संबंध में अपनी प्रतिबद्धता पर जोर देते हैं। 

2. एन.सी.पी.सी.आर. की संरचना क्या है? 

2005 के बाल अधिकार संरक्षण आयोग (सी.पी.सी.आर.) अधिनियम की धारा 3 एन.सी.पी.सी.आर. की सदस्यता को निर्दिष्ट करती है। आयोग के सदस्य इस प्रकार हैं:

एक अध्यक्ष जो एक प्रमुख नेता है जिसने बच्चों के कल्याण को बढ़ाने के लिए अथक प्रयास किया है; और छह सदस्य, जिनमें से कम से कम दो महिलाएं होनी चाहिए, जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रतिष्ठित, प्रतिभा, ईमानदारी, पद और अनुभव के व्यक्तियों में से नामित किया जाएगा: 

  • शिक्षा;
  • बाल स्वास्थ्य, देखभाल, कल्याण, या विकास;
  • किशोर न्याय;
  • बाल श्रम का निषेध या संकट में बच्चों की सुरक्षा; 
  • बाल मनोविज्ञान या समाजशास्त्र; तथा
  • बाल कानून।

3. राष्ट्रीय और राज्य आयोगों की शक्तियां और कार्य क्या हैं? 

राष्ट्रीय और राज्य आयोगों के निम्नलिखित कार्य और शक्तियां हैं:

  • इन सुरक्षा उपायों की प्रभावशीलता पर केंद्र सरकार को रिपोर्ट तैयार करना और प्रस्तुत करना। 
  • बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन की जांच करना और यदि आवश्यक हो तो कानूनी कार्रवाई का सुझाव देना। 
  • संधियों और अन्य अंतरराष्ट्रीय उपकरणों के आलोक में बच्चों के अधिकारों को प्रभावित करने वाली नीतियों, कार्यक्रमों और अन्य कार्यों की नियमित रूप से समीक्षा करना। 
  • समाज के विभिन्न वर्गों के बीच बच्चों के अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करना। 
  • बच्चों के खिलाफ अपराधों या उनके अधिकारों के उल्लंघन के मुकदमे की सुनवाई में तेजी लाने के लिए बाल न्यायालय बनाना। 
  • प्रत्येक बाल न्यायालय के लिए एक विशेष लोक अभियोजक नामित करने के लिए राज्य और स्थानीय सरकारों को प्रोत्साहित करना।

संदर्भ 

 

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