स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत और भारत, कनाडा और यू.एस. के बीच इसका तुलनात्मक अध्ययन

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यह लेख उस्मानिया विश्वविद्यालय के पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज ऑफ लॉ की छात्रा R Sai Gayatri और राष्ट्रीय विधि संस्थान विश्वविद्यालय, भोपाल की छात्रा Sudhi Ranjan Bagri के द्वारा लिखा गया है। यह लेख कुछ महत्वपूर्ण मामलों के साथ-साथ स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के बारे में विस्तार से बताता है। इसमें भारत के संविधान के अनुसार भारत में स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत की स्थिति पर भी चर्चा की गई है और साथ ही यह भारत, कैनाडा और यूनाइटेड स्टेट्स का तुलनात्मक अध्ययन (कंपेरिटिव स्टडी) भी करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

‘स्टेयर डिसाइसिस’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन से हुई है। इसका अर्थ ‘निर्णय की गई बातों का पालन करना’ है। स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत का उपयोग सभी अदालतों के द्वारा सभी मामलों/ कानूनी मुद्दों में किया जाता है। एक सिद्धांत, एक अवधारणा या निर्देश के अलावा और कुछ नहीं है, हालांकि, यह अनिवार्य रूप से एक कठिन और तय नियम नहीं है, जिसे तोड़ा नहीं जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि सर्वोच्च न्यायालय एक निर्णय पास करता है और यह एक मिसाल (प्रीसिडेंट) बन जाता है, तो स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के अनुसार, निचली अदालतों को इस तरह के निर्णय का पालन करना ही चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 141 में इसी सिद्धांत का उल्लेख किया गया है।

स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत का अर्थ है कि अदालतें अपने निर्णय देने के लिए पिछले, समान कानूनी मुद्दों का उल्लेख करती हैं। ऐसे पिछले निर्णय जिन्हें अदालतें संदर्भित करती हैं, उन्हें “मिसाल” के रूप में जाना जाता है। मिसाल कानूनी सिद्धांत या नियम हैं, जो अदालतों के द्वारा दिए गए निर्णयों द्वारा बनाए जाते हैं। ऐसे निर्णय भविष्य में इसी तरह के कानूनी मामलों/ मुद्दों को तय करने के लिए न्यायाधीशों के लिए एक प्राधिकरण (ऑथोरिटी) या उदाहरण बन जाते हैं। स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत अदालतों पर यह बाध्य बना देता है की उन्हे एक निश्चित निर्णय लेते समय मिसालों को संदर्भित करना चाहिए। आइए इस लेख के माध्यम से स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के बारे में अधिक जानते हैं।

स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के आवश्यक उद्देश्य

स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत इस अवधारणा को संदर्भित करता है कि अदालतों को उन मामलों के लिए, पहले दिए गए न्यायिक निर्णयों का पालन करना चाहिए, जहां बाद के मामलों में उनके सामने समान कानूनी मुद्दे लाए जाते हैं। स्टेयर डिसाइसिस की अवधारणा का उद्देश्य चार आवश्यक उद्देश्यों को आगे बढ़ाना है, और वे इस प्रकार हैं –

  • स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत लोगों के बीच उनके आर्थिक और सामाजिक लेनदेन की योजना बनाने में विश्वास उत्पन्न करता है, यह स्वीकार करते हुए कि उनके कार्य कानून का पालन करते हैं।
  • स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत विवादों के निजी समाधान को प्रोत्साहित करता है क्योंकि अदालत इसी तरह के पहले से तय किए गए मामले या कानूनी मुद्दे के निर्णय के आधार पर अपना निर्णय दे सकती है। चूंकि किसी मुद्दे के पक्ष पहले से ही एक समान कानूनी मुद्दे के परिणाम को जानते हैं, इसलिए वे पारंपरिक अदालती प्रक्रिया से गुजरने के बजाय किसी भी निजी विवाद समाधान की तलाश कर सकते हैं।
  • स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत अदालतों पर बोझ को कम भी करता है। यह उन मामलों में फिर से मुकदमा चलाने की आवश्यकता को समाप्त करता है, जिनमें निर्णय पहले ही दिए जा चुके हैं। जब भी न्यायाधीश/ बेंच बदलते हैं, तो यह नए मुकदमे की आवश्यकता पर भी अंकुश लगाता है।
  • स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को मजबूत करता है क्योंकि उक्त सिद्धांत न्यायाधीशों की शक्तियों पर कुछ प्रतिबंध स्थापित करता है। उदाहरण के लिए, स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के लिए न्यायाधीशों को उनके सामने कानूनी मामलों को एक दूरदर्शी (फोरसीएबल) और तर्कसंगत तरीके से तय करने की आवश्यकता होती है।

स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत कानूनी व्यवस्था में निश्चितता (सर्टेनिटी), स्थिरता (स्टेबिलिटी) और निरंतरता (कंसिस्टेंसी) पर आधारित है। एक मिसाल एक कानूनी प्रणाली में सबसे पहली आवश्यकता है जिसमें नियमितता, तर्कसंगतता और स्थिरता के कारक शामिल होते हैं। उक्त सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि न्यायपालिका और उसके अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसिक्शन) की परवाह किए बिना पहले से तय किए गए मामलों के आधार पर एक कानूनी मुद्दे का समाधान किया जाए। हरि सिंह बनाम हरियाणा राज्य (1993) के मामले में, यह माना गया था कि अदालतों द्वारा प्रशासित न्यायिक प्रणाली में, ध्यान रखने योग्य प्राथमिक सिद्धांतों में से एक यह है कि एक ही अधिकार क्षेत्र के तहत अदालतों में समान कानूनी प्रश्नों, मुद्दों और परिस्थितियों के संबंध में समान राय होनी चाहिए। यदि समान कानूनी मुद्दों पर दी गई राय असंगत है, तो न्यायिक व्यवस्था में सामंजस्य (हार्मनी) स्थापित करने के बजाय, यह न्यायिक अराजकता (क्योस) का परिणाम होगा। किसी विशेष मामले के बारे में निर्णय, जिसे बहुत समय पहले आयोजित किया गया था, उसे केवल दूसरे दृष्टिकोण के अस्तित्व की संभावना के कारण छेड़ा नहीं जा सकता है।

इसके अलावा, आई.सी.आई.सी.आई. बैंक बनाम ग्रेटर बॉम्बे के नगर निगम (2005) के मामले में, यह माना गया था कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को वैधानिक प्रावधानों के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए, जिसकी व्याख्या सक्षम न्यायालय द्वारा की जाती है। चूंकि कानून हमेशा स्थिर नहीं हो सकता है, प्रासंगिक सिद्धांतों और नियमों के आधार पर, न्यायाधीशों को मामलों को तय करने में मिसालों का सावधानी से उपयोग करना चाहिए।

स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत पर उदाहरण

मान लीजिए कि जेम्स, बॉन्ड की बाइक उधार लेता है जब जेम्स छुट्टी पर होता है। बॉन्ड, जेम्स से उसकी बाइक उधार लेने की अनुमति नहीं मांगता। बॉन्ड दुर्घटनावश हो जाता है और जेम्स की बाइक तोड़ देता है, लेकिन वह जेम्स को इसके बारे में नहीं बताता। बाद में, बॉन्ड जेम्स की बाइक को जेम्स के गैरेज में वापस रख देता है। जब जेम्स घर लौटता है और उसे अपनी टूटी हुई बाइक का पता चलता है, तो वह मांग करता है कि बॉन्ड उसे एक नई बाइक खरीद कर दे। दोनों अपने मुद्दे को अदालत के सामने लाते हैं, और अदालत जेम्स के पक्ष में फैसला करता है कि बॉन्ड उत्तरदायी है और जेम्स को उसकी बाइक ठीक कराने के लिए आवश्यक धन देने के लिए बाध्य है, हालांकि, बॉन्ड को यह जरूरत नहीं है की वह जेम्स को एक नई बाइक खरीद कर दे।

अदालत द्वारा दिया गया उपरोक्त फैसला अब मिसाल बन गया है। अब आगे, इस मामले में स्थापित मिसाल के आधार पर, उसी अधिकार क्षेत्र में निचली अदालतों को इस नए नियम का पालन करना चाहिए, यानी जब भी कोई उधार लेने वाला किसी चीज या उधार देने वाले की किसी की वस्तु को तोड़ता है और ऐसा उधार लेने वाला, उधार देने वाले व्यक्ति की सहमति के बिना उसकी वस्तु ले जाता है, तो उधार लेने वाला उसके द्वारा उधार देने वाले व्यक्ति की वस्तु को किए गए नुकसान के रूप में भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगा। निचली अदालतों को इस नई स्थापित मिसाल का पालन करना चाहिए क्योंकि स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य करता है।

अदालतों के भविष्य के फैसलों पर मिसालों का प्रभाव

स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत न्यायिक प्रणालियों में पसंद किया जाता है क्योंकि यह कानूनी सिद्धांतों के अनुमानित, निष्पक्ष और सुसंगत विकास को प्रोत्साहित करता है, उक्त सिद्धांत न्यायिक निर्णयों पर निर्भरता को भी बढ़ावा देता है और न्यायिक प्रक्रिया की वास्तविक और कथित अखंडता (इंटीग्रिटी) में योगदान देता है। स्टेयर डिसाइसिस का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जनता अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक लेन-देन में पहले से दिए गए अदालती फैसलों से, स्थापित नियमों और सिद्धांतों के माध्यम से निर्देशित हो। इसके अलावा, स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत एक सुसंगत और निश्चित तरीके से निर्णय लेने के आवेदन का पालन करता है, जो बदले में हमारी कानूनी संस्कृति को दर्शाता है और यह इस विश्वास का एक प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) प्रदर्शन है कि इस तरह की निर्णय लेने की स्थिरता का अपने आप में ही एक मानक मूल्य है।

स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत जनता को यह मानने की अनुमति देता है कि मूलभूत सिद्धांत व्यक्तियों के पूर्वाग्रह के बजाय कानून में निहित हैं और इस प्रकार उक्त सिद्धांत हमारी न्यायिक प्रणाली और सरकार की अखंडता में आवेदन और स्थिरता की शाखाओं में योगदान देता है। जब न्यायिक प्रणाली की बात आती है तो स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत अपरिहार्य (इनडिस्पेंसेबल) है क्योंकि यह निष्पक्ष निर्णय और कानून की भविष्यवाणी और निश्चितता को सुनिश्चित करता है।

स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के फायदे और नुकसान

जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के भी अपने फायदे और नुकसान हैं। वे इस प्रकार हैं-

स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के फायदे

  • स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत लगातार मुकदमेबाजी की आवश्यकता को कम करता है और यह न्यायपालिका के समय और ऊर्जा (एनर्जी) को और बचाता है क्योंकि बार-बार कानून के एक ही प्रश्न या किसी कानूनी मुद्दे को बार-बार निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं होती है यदि इसे पहले किसी अन्य मामले में सुलझाया गया हो।
  • जब कानून के किसी प्रश्न का निर्णय लेने की बात आती है, तो अक्सर यह देखा जाता है कि मनमानी और पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) की एक बड़ी संभावना है। स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत ऐसे अवांछित और बुरे तत्वों को न्यायाधीशों को बाध्य करके स्थापित मिसालों का पालन करके निष्पक्ष और उचित निर्णय को प्रभावित करने से रोकता है, जिससे किसी भी तरह की मनमानी या पूर्वाग्रह को रोका जा सके।
  • न्यायिक प्रणाली के अच्छे कामकाज में पूर्वानुमेयता (प्रिडिक्टिबिलिटी) का तत्व प्राथमिक जरूरतों में से एक है। इस प्रकार स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि अदालतों द्वारा दिए गए निर्णय पहले से ही सोचे गए हों, जिससे न्यायिक प्रणाली में लोगों का विश्वास बढ़े।
  • स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत कानून में लचीलापन उत्पन्न करता है। आगे यह भी कहा जा सकता है कि उक्त सिद्धांत के आधार पर कानून सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और अन्य परिस्थितियों के अनुसार ढाला जाता है।
  • स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत भी कानून में स्थिरता, निश्चितता और निरंतरता लाता है। उक्त सिद्धांत न केवल न्यायपालिका के सुचारू (स्मूथ) संचालन में मदद करता है बल्कि मामलों को तय करने में कानून के आवेदन को भी रिकॉर्ड करता है।

स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के नुकसान

  • स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत से कुछ मामलों का संरक्षण और प्रसार (प्रोपेगेशन) हो सकता है, जिन पर गलत तरीके से निर्णय लिया गया था। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसी मामले के अस्तित्व की संभावना हो सकती है, जिसे मनमाने ढंग से तय किया गया हो और स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के कारण ऐसे मामले को पीड़ित पक्ष की जगह, प्राथमिक महत्व दिया जाएगा।
  • स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत को एक ऐसे सिद्धांत के रूप में भी माना जाता है जो लोकतंत्र के सिद्धांतों के खिलाफ है क्योंकि यह अनिर्वाचित न्यायाधीशों को अपने निर्णयों के माध्यम से कानून बनाने की अनुमति देता है।
  • स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत भी गलत उदाहरणों का समर्थन कर सकता है, जो संविधान के साथ मामूली रूप से असंगत हैं, हालांकि, व्याख्या में इस तरह की गलती को प्रचारित किया जा सकता है और इस तरह की मिसाल पर आधारित आगे के निर्णयों द्वारा बढ़ाया जा सकता है जब तक कि ऐसी व्याख्या नहीं की जाती है जो संविधान की मूल समझ के विपरीत है। 
  • कभी-कभी स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत को विशेष न्यायाधीशों द्वारा पक्षपातपूर्ण (बायस्ड) तरीके से लागू किया जाता है ताकि उन उदाहरणों में संशोधन किया जा सके, जिनके बारे में उनकी असहमति राय हो सकती है।
  • स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत भी कानून के विकास में बहुत बाधा डाल सकता है। जैसे-जैसे समाज और उसकी विचारधाराएं बदलती हैं और प्रत्येक कानूनी प्रश्न की आवश्यकता के अनुसार, कानून को लागू करने के दृष्टिकोण में भी कुछ उचित भिन्नता होनी चाहिए। उक्त सिद्धांत मूल रूप से “एक आकार सभी में फिट बैठता है” की अवधारणा की बात करता है, अर्थात यह प्रकृति में स्थिर नहीं है। इस प्रकार, उक्त सिद्धांत बदलते सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और अन्य परिस्थितियों के अनुसार कानून की उचित व्याख्या को बहुत प्रभावित कर सकता है।

भारत में स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत की स्थिति

स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत प्राचीन या मध्यकाल के दौरान भारत में मौजूद नहीं था। यह देश में ब्रिटिश शासन के आगमन के दौरान ही था कि बाध्यकारी मिसाल की अवधारणा को भारत में पेश किया गया और लागू किया गया था। स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत को अपनाने का सुझाव डोरिन ने वर्ष 1813 में दिया था। ब्रिटिश कानूनी प्रतिष्ठान (एस्टेब्लिशमेंट) ने निर्णयों की रिपोर्टिंग के साथ-साथ अदालतों के पदानुक्रम (हायरार्की) की अवधारणा को जन्म दिया, ये दो तत्व स्टेयर डिसाइसिस में सिद्धांत के कामकाज के लिए पूर्व शर्त हैं।

ब्रिटिश ने कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में सरदार दीवानी अदालतों और सर्वोच्च न्यायालयों की स्थापना की थी। उच्च न्यायालय अधिनियम, 1861 को, पेटेंट पत्र जारी करके उच्च न्यायालयों की स्थापना के लिए अधिनियमित किया गया था। ऐसे उच्च न्यायालयों का मूल और अपीलीय अधिकार क्षेत्र था। इसलिए, अंग्रेजों द्वारा अदालतों के पदानुक्रम की एक प्रणाली स्थापित की गई थी।

भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने स्पष्ट रूप से ब्रिटिश भारत में सभी अदालतों के लिए संघीय न्यायालय और प्रिवी काउंसिल के निर्णयों को बाध्यकारी बना दिया और इस तरह स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत को भारत में वैधानिक मान्यता प्राप्त हुई थी। हालाँकि, संघीय न्यायालय अपने स्वयं के निर्णयों से बाध्य नहीं थे। स्वतंत्रता के बाद, भारत में मिसाल के सिद्धांत का पालन जारी है।

भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 141 यह स्थापित करता है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित ‘कानून’ भारत के क्षेत्र के भीतर सभी अदालतों पर बाध्यकारी है। ‘घोषित कानून’ शब्द का तात्पर्य सर्वोच्च न्यायालय की कानून बनाने वाली भूमिका से है। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय अपने स्वयं के निर्णयों से बाध्य नहीं है। बंगाल इम्युनिटी कंपनी बनाम बिहार राज्य (1955) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि भारतीय संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं है जो सर्वोच्च न्यायालय को अपने पहले किए गए निर्णय से हटने से रोकता है यदि वह अपनी त्रुटि के बारे में आश्वस्त है की इस तरह के निर्णय का जनहित पर प्रभाव पड़ सकता है। जहां तक ​​उच्च न्यायालयों का संबंध है, उच्च न्यायालयों के निर्णय ऐसे उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर बाध्यकारी होते हैं। सुगन्धी सुरेश कुमार बनाम जगदीशम (2002) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक उच्च न्यायालय को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को केवल इस आधार पर खारिज करने की अनुमति नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए ऐसे निर्णय में किसी भी कानूनी कारक पर विचार किए बिना सिद्धांतों को निर्धारित किया गया था। इसके अलावा, पांडुरंग कालू पाटिल बनाम महाराष्ट्र राज्य (2002) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने आगे दोहराया था कि उच्च न्यायालय के निर्णय तब तक बाध्यकारी होंगे जब तक कि सर्वोच्च न्यायालय उन्हें रद्द नहीं कर देता।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत स्टेयर डिसाइसिस

अनुच्छेद 141 के तहत भारत का संविधान, 1950 कहता है कि जब सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की घोषणा करता है, तो ऐसा कानून भारत के क्षेत्र के भीतर सभी अदालतों पर बाध्यकारी होगा। अनुच्छेद 141 में आगे कहा गया है कि किसी मामले का अनुपात तय करना बाध्यकारी होगा। इस प्रकार, जब भी कोई निचली अदालत सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का पालन करना या लागू करना चाहती है, तो इस तरह के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून की सही तरीके से व्याख्या की जानी चाहिए।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत की बाध्यकारी प्रकृति

भारत के क्षेत्र के भीतर सभी अदालतें सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का पालन करने के लिए कानून द्वारा बाध्य हैं। निचली अदालतें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इस तरह के निर्णय का पालन करने के सिद्धांत के प्रति एक समान और निरंतर दृष्टिकोण रखने के लिए बाध्य हैं।

हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय अपने स्वयं के निर्णय या आदेश से प्रतिबंधित या बंधित नहीं है। यहां तक ​​​​कि विशेष अनुमति याचिकाएं (स्पेशल लीव पिटीशन) भी प्रकृति में बाध्यकारी हैं, उन्हें निचली अदालतों द्वारा पालन किया जाना चाहिए। केवल प्रक्रियात्मक अनियमितता या अभौतिकता जैसे कारण निर्णय या आदेश की बाध्यकारी प्रकृति को अमान्य नहीं करते हैं।

उच्च न्यायालय द्वारा पास किए गए एक निर्णय को निचली अदालतों द्वारा एक मिसाल के रूप में माना जा सकता है, केवल तभी जब ऐसा निर्णय कानूनी मामले को हल करने में सक्षम हो।

न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को समग्र रूप से एक साथ पढ़ा जाना चाहिए। इसके अलावा, उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इस तरह के निर्णय से टिप्पणियों को अदालत के समक्ष प्रस्तुत प्रश्नों के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए।

कुछ मामलों में, बेंच अलग-अलग राय की हो सकती है और ऐसे मामलों में, बहुमत का समर्थन करने वाली राय एक मिसाल के रूप में मान्य होगी। सिद्धराम सतलिंगप्पा म्हेत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2011), के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आयोजित किया गया था कि एक पीठ का निर्णय जो शक्ति में बड़ा होता है, वह न केवल एक छोटी बेंच के फैसले पर बल्कि सह-समान शक्ति वाले न्यायाधीशों की बेंच पर भी बाध्यकारी होगा।

जिन मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने एकतरफा फैसले सुनाए हैं, भले ही मामले का कोई एक पक्ष मौजूद नहीं था, फिर भी ऐसे फैसलों को एक मिसाल माना जा सकता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत गैर-बाध्यकारी प्रकृति

  • निर्णय जो ठीक से व्यक्त नहीं किए जाते हैं। राज्य बनाम सिंथेटिक्स एंड केमिकल्स लिमिटेड और अन्य (1991), के मामले में यह कहा गया था कि एक निर्णय जिसमें अभिव्यक्ति और तर्कसंगत आधार का अभाव है और आगे जहां यह कानूनी मुद्दे पर विचार करने पर आगे नहीं बढ़ता है, ऐसे निर्णय का भारत के संविधान के अनुच्छेद 141 के अनुसार बाध्यकारी प्रभाव नहीं होगा
  • निर्णय जो उचित आधार पर स्थापित नहीं हैं
  • निर्णय जो कानूनी मुद्दे पर विचार के आधार पर आगे नहीं बढ़ते हैं। डॉ शाह फैसल और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2020) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह देखा गया था कि केवल एक निर्णय में निर्धारित सिद्धांत को संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत बाध्यकारी कानून माना जाएगा
  • स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के अनुसार, किसी मामले का ऑबिटर डिक्टा बाध्यकारी नहीं है, इस प्रकार इसे किसी भी वैधानिक नियम को अमान्य घोषित करने के लिए केवल एक कारण के रूप में नहीं माना जा सकता है। इसका केवल एक प्रेरक मूल्य है
  • पर इनक्यूरियम दिया गया निर्णय प्रकृति में बाध्यकारी नहीं है। इसका मतलब है कि पर इनक्यूरियम पर किए गए किसी भी निर्णय को मिसाल के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।
  • ऐसे मामले में जहां निर्णय सब साइलेंशियो प्रदान किया जाता है, तब भी इस तरह के निर्णय को मिसाल के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाता है। सब-साइलेंशियो का अर्थ है जब कानून का कोई प्रश्न सही और उचित रूप से निर्धारित नहीं किया गया था।
  • वह परिदृश्य (सिनेरियो) जिसमें मामलों के तथ्यों के संबंध में न्यायालय की टिप्पणियां बाध्यकारी नहीं हैं।

न्यायिक मिसालों के प्रकार

  • घोषणात्मक (डिक्लेरेटरी) मिसाल – एक घोषणात्मक मिसाल ऐसी मिसाल को संदर्भित करती है, जिसमें कानून के सवाल को तय करने में पहले से मौजूद नियम लागू होता है।
  • मूल मिसाल – एक मूल मिसाल के मामले में, एक कानूनी मुद्दे में इसे लागू करने के लिए एक नया कानून स्थापित किया जाता है। यह कहा जा सकता है कि मूल मिसालें ही नए कानून बनाने का मुख्य कारण हैं।
  • प्रेरक (परसुएसिव) मिसाल – एक प्रेरक मिसाल एक तरह की मिसाल होती है, जिसमें किसी कानूनी मुद्दे के संबंध में न्यायाधीश के लिए एक निश्चित मिसाल का पालन करने की कोई बाध्यता नहीं होती है, हालांकि, ऐसे न्यायाधीश की जिम्मेदारी होती है कि वह कोई कार्रवाई करने से पहले मिसाल पर विचार करे।
  • पूरी तरह से आधिकारिक मिसालें – एक पूरी तरह से आधिकारिक मिसाल के मामले में, न्यायाधीशों के लिए कानूनी मामले को तय करने में एक विशेष मिसाल का पालन करना अनिवार्य है। इसके अलावा, न्यायाधीश को मिसाल का पालन करना चाहिए, भले ही उनकी इस तरह की मिसाल के बारे में असहमतिपूर्ण राय हो।
  • सशर्त आधिकारिक मिसालें – जब सशर्त आधिकारिक मिसालों के मामले में बात आती है, तो संबंधित न्यायाधीश को आधिकारिक मिसाल का पालन करना पड़ता है, लेकिन कुछ विशेष मामलों में ही। एक न्यायाधीश अदालत के फैसले की अवहेलना कर सकता है यदि वह तर्कसंगत और वैध होने में विफल रहता है।

उच्च न्यायालयों द्वारा मिसालें और उपचार

एक मामले के लिए जो पहले निचली अदालत द्वारा तय किया गया है, एक उच्च न्यायालय निम्नलिखित कार्य कर सकता है–

  • निर्णय का उलटना – उच्च न्यायालय के आदेश से, निचली अदालतों के फैसले का पक्षों या जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
  • किसी निर्णय का पालन करने से इंकार – एक उच्च न्यायालय के पास उन मामलों में निचली अदालत के निर्णय का पालन करने से इनकार करने की शक्ति होती है, जहां उच्च न्यायालय निचली अदालत के फैसले को उलट या रद्द नहीं कर सकता है।
  • निर्णय से अंतर – जहां एक उच्च न्यायालय यह पाता है कि मामले के भौतिक तथ्य भिन्न हैं और पूर्वता में तय किए गए सिद्धांत उसके समक्ष मामले के तथ्यों पर पर्याप्त रूप से लागू होने के लिए बेहद संकीर्ण (नैरो) हैं, तो उच्च न्यायालय, निचली अदालत द्वारा पूर्व में दिया गया निर्णय को ऐसे मामले से अलग कर सकता है ।
  • निर्णय की अवहेलना – ऐसी स्थिति में जहां एक उच्च न्यायालय यह निर्णय लेता है कि किसी विशेष मुद्दे के संबंध में निचली अदालत द्वारा लिया गया निर्णय गलत है, तो वह निचली अदालत के ऐसे निर्णय को रद्द कर देता है।

संभावित अधिनिर्णय (प्रोस्पेक्टिव ओवररूलिंग) का सिद्धांत

आम तौर पर, अदालतें स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत का पालन करती हैं, हालांकि, उच्च न्यायालय उन फैसलों को खारिज कर सकते हैं जो मनमाने, गलत हो सकते हैं या जो नए मामले के तथ्यों पर लागू नहीं होते हैं। अदालत उस फैसले को भी खारिज कर सकती है जहां राय अलग अलग होती है।

इसके अलावा, एक अदालत ऐसे निर्णय को रद्द कर सकती है जहां ऐसा निर्णय अस्पष्ट है, जिनमे स्पष्टता की कमी है या असुविधा और कठिनाई का कारण बनता है या पूर्व निर्णय में त्रुटि को केवल विधायी प्रक्रिया की सहायता से आसानी से ठीक नहीं किया जा सकता है। जब पहले के निर्णय को खारिज कर दिया जाता है, तो यह अब एक बाध्यकारी मिसाल नहीं होता है। पिछले मामले के निर्णय को खारिज करने के मामले में, कानूनी स्थिति में बदलाव के आधार पर पुराने विवादों को फिर से शुरु कर सकते है, जिसके परिणामस्वरूप, कार्यवाही की बहुलता भी उत्पन्न हो सकती है।

भारत, कनाडा और अमेरिका में स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत का तुलनात्मक अध्ययन

भारतीय स्थिति

सर्वोच्च न्यायालय ने सही ढंग से इंगित किया है कि अनुच्छेद 141- “भारत में सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी” के शब्दों की व्यापक व्याख्या की जानी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णयों से बाध्य नहीं है, लेकिन जब भी आवश्यक हो, उचित मामलों में उन पर पुनर्विचार करने के लिए स्वतंत्र है।

हालाँकि किसी निर्णय को रद्द करने की शक्ति दी गई है, लेकिन ऐसी कौन सी परिस्थितियाँ हैं जिनमें ऐसी शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिए। आई.टी.ओ. टूटीकोरिन बनाम टी.एस.डी. नादर, के मामले में यह माना गया था कि “अदालत के निर्णयों को उन परिस्थितियों के अलावा खारिज नहीं किया जाना चाहिए जो उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करते हैं, हर बार जब अदालत अपने पिछले फैसले को खारिज कर देती है, तो इस निर्णय की सुदृढ़ता (साउंडनेस) में जनता का विश्वास अदालत से हटने लगता है…इस अदालत के फैसलों को महान सार्वजनिक महत्व के सवालों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए।”

सर्वोच्च न्यायालय पर स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत को लागू करने की सीमा तय करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा और अन्य के मामले में यह माना है कि जब सर्वोच्च न्यायालय कानून के प्रश्न पर कोई निर्णय लेता है तो, यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे निर्णय अन्य सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर अनुच्छेद 141 को लागू करने के लिए बाध्यकारी हैं, और इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को देश में कानून की व्याख्या में निश्चितता और निरंतरता का एक तत्व बनाए रखना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यदि पिछले निर्णय, जिनमें पहले से ही मिसाल का बल है, की समीक्षा और परिवर्तन किया जाता है, तो यह कानून को अनिश्चित बनाने की ओर ले जा सकता है, और इसको लागू करने में भ्रम पैदा कर सकता है, जिसे लगातार टाला जाना चाहिए। इसलिए, उच्च न्यायालयों को अपने पिछले निर्णय को केवल इस बात से संतुष्ट होने के बाद ही खारिज करना चाहिए कि पिछला निर्णय गलत था, और उसमे उचित मात्रा में अस्पष्टता मौजूद है और इस तरह की अस्पष्टता को दूर करने के लिए अदालत का हस्तक्षेप आवश्यक है।

कनाडा में स्थिति

कनाडा के न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) के परिपक्व (मैच्योर) होने के कारण, कनाडा के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने स्वयं के पूर्व निर्णयों के प्रभाव पर अपनी स्थिति का अपेक्षाकृत (रिलेटिव) पुनर्मूल्यांकन (रिएसेस) किया है। इन परिवर्तनों के आलोक में, वर्तमान स्थिति इस प्रकार प्रतीत होती है:

कनाडा का सर्वोच्च न्यायालय अपने पूर्व निर्णयों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय अब यह कहने के लिए संतुष्ट नहीं हो सकता है कि मामला पहले के फैसले से शासित होता है जब तक कि निर्णय प्रतिस्पर्धी (कंपीटिंग) हितों का उचित समाधान प्रदान नहीं करता है जो इसमें शामिल हैं।

कनाडा की सभी अदालतें कनाडा के सर्वोच्च न्यायालय और प्रिवी काउंसिल के 1949 से पहले के किसी भी फैसले का पालन करने के लिए बाध्य हैं, जिसे कनाडा के सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज नहीं किया है। हालाँकि, कनाडा के सर्वोच्च न्यायालय की अल्पसंख्यक (माइनोरिटी) राय बाध्यकारी नहीं है।

समन्वय (कोऑर्डिनेट) अधिकार क्षेत्र की अदालत का निर्णय बाध्यकारी नहीं है, हालांकि जहां कोई विरोध है, वहां मामले को अपील की अदालत में संदर्भित करना उचित हो सकता है। हालाँकि, समन्वय न्यायालयों के निर्णय बाध्यकारी प्रकृति के नहीं होते हैं, तथापि, ये अत्यधिक प्रेरक (पर्सुएसिव) प्रकृति के होते हैं।

अमेरिका की स्थिति

अमेरिका में, स्टेयर डिसाइसिस के सिद्धांत के दो रूप हैं। एक है मजबूत रूप, जिसके अनुसार मिसालें प्रकृति में बाध्यकारी हैं। एक अन्य रूप एक कमजोर रूप है, जिसके अनुसार उदाहरणों का केवल प्रेरक मूल्य होता है। कमजोर रूप में, निर्णय की असहमति या अल्पसंख्यक राय न्यायालय की प्रचलित या बहुमत की राय से अधिक प्रेरक हो सकती है। इस रूप में, मिसाल मुकदमेबाजी में समय बचाने का एक सुविधाजनक तरीका बन जाता है, जो व्यक्ति मामले में बहस कर रहा है, वह बस दूसरे मामले में दिए गए तर्क का हवाला देते हुए कह सकता है कि “मेरा तर्क उस मामले में दिए निर्णय के समान है”, और कुछ नहीं।

इस प्रकार स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत अनिवार्य रूप से न्यायाधीशों के लिए एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है। यह न्यायाधीशों को आवश्यकता पड़ने पर पिछले निर्णयों का सहारा लेने के लिए प्रोत्साहित करता है। बार-बार, न्यायालयों ने माना है कि ऐसे निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों पर प्रभाव डालते हैं और इसलिए, उच्च न्यायालयों को कानून की व्याख्या करते समय बहुत सावधान और सतर्क रहना चाहिए। जरूरत इस बात की मांग करने की है कि न्यायाधीश अधिक साहस का प्रदर्शन करें, और मौलिक सिद्धांतों की ओर लौटें, केवल तभी निर्णय लेने का सहारा लें, जब स्थिति वैधता के क्षेत्र की अस्पष्ट सीमा पर स्थित हो।

निष्कर्ष

विधायिका के क़ानून और अधिनियम, पक्षों के बीच विवादों के न्यायनिर्णयन में लागू होने वाले नियमों को निर्धारित करते हैं और इन नियमों की व्याख्या के लिए अंतिम प्राधिकरण न्यायपालिका है। स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत अदालतों के फैसले करता है, आम तौर पर, उच्च न्यायालयों, अधीनस्थ अदालतों पर बाध्यकारी मामलों में जहां कानून के समान प्रश्न अदालत के सामने लाए जाते हैं। उक्त सिद्धांत की प्रयोज्यता सुनिश्चित करती है कि कानून के भीतर पूर्वानुमेयता और निश्चितता है। उक्त सिद्धांत न्यायपालिका के समय, ऊर्जा और प्रयासों को बचाता है और न्यायाधीशों की मनमानी और पक्षपातपूर्ण कार्रवाई को समाप्त करने में मदद करता है। स्टेयर डिसाइसिस का सिद्धांत इसलिए सार्वजनिक नीति के हित में है और यह सुनिश्चित करके जनता में विश्वास पैदा करता है, कि उनके कार्य कानून के अनुसार हैं।

संदर्भ

  • http://ijtr.nic.in/webjournal/8.htm
  • https://www.advocateshah.com/blog/what-is-stare-decisis-with-doctrine-of-stare-decisis/#:~:text=Decision%20taken%20by%20a%20higher,stand%20by%20the%20decided%20matters.
  • https://corporatefinanceinstitute.com/resources/knowledge/other/stare-decisis/
  • Bengal Immunity Company Limited v. State of Bihar, (1955) 2 S.C.R 603
  • AIR 1965 TN 234
  • AIR 1997 SC 1266
  • Paul M. Perell, “The Doctrine of Stare Decisis,”

 

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