आई.पी.सी. 1860 के तहत वाइकेरियस लाइबिलिटी का सिद्धांत

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1852
Indian penal code
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इस ब्लॉग पोस्ट में, दामोदरम संजीवय्या नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, के छात्र Pramit Bhattacharya, सिविल और क्रिमिनल कानून के मामले में वाइकेरियस लाइबिलिटी की अवधारणा (कांसेप्ट) के बारे में बताते हैं। यह पोस्ट, वाइकेरियस लाइबिलिटी के सिद्धांत के संबंध में कॉर्पोरेशन, राज्य और लाइसेंसी के लाइबिलिटी के मुद्दे पर भी चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

वाइकेरियस लाइबिलिटी की अवधारणा के तहत, एक व्यक्ति को दूसरे द्वारा किए गए गलत कार्य के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। वाइकेरियस लाइबिलिटी के सिद्धांत (प्रिंसिपल) को जॉइंट लाइबिलिटी के नाम से भी जाना जाता है। सिविल और क्रिमिनल कानून दोनों के तहत वाइकेरियस लाइबिलिटी हो सकती है। ऐसी लाइबिलिटी तभी उत्पन्न होती है जब दोनों पक्षों के बीच कुछ कानूनी संबंध हो, या पक्ष किसी तरह एक दूसरे से जुड़े हों।

टॉर्ट कानून या सिविल कानून

कुछ आवश्यक शर्तें हैं जिन्हें टॉर्टस या सिविल कानून के तहत वाइकेरियस लाइबिलिटी का गठन (कांस्टीट्यूट) करने के लिए पूरा किया जाना चाहिए।

रिश्ता (रिलेशन)

गलत कार्य करने वाले और दूसरे पक्ष के बीच कुछ संबंध होना चाहिए। संबंध प्रिंसिपल-एजेंट, मास्टर-नौकर, नियोक्ता (एंप्लॉयर)-कर्मचारी आदि का हो सकता है। सेवा के तहत भी 2 श्रेणियां हैं-

1. सेवा का कॉन्ट्रैक्ट

इस कॉन्ट्रैक्ट के तहत, एक व्यक्ति पहले से ही दूसरे के कॉन्ट्रैक्ट के तहत है, और सेवा विशेष प्रकृति की है। यह एक प्रकार का सामान्य कॉन्ट्रैक्ट है, और दूसरे पर नियंत्रण (कंट्रोल) शक्ति पर कोई सीमाएं (लिमिटेशन) नहीं हैं, उदाहरण के लिए, मास्टर नौकर के संबंध।

2. सेवा के लिए कॉन्ट्रैक्ट

यह एक विशेष कारण के लिए कॉन्ट्रैक्ट है, और इसमें दूसरे के कार्यों पर नियंत्रण शक्ति पर एक सीमा है, उदाहरण के लिए, नियोक्ता-कर्मचारी के संबंध।

रेटिफिकेशन

टॉर्ट्स या सिविल कानून के तहत, एक व्यक्ति निम्नलिखित तरीकों से किसी अन्य पक्ष के गलत कार्य या चूक के लिए लायबल हो सकता है-

  • यदि व्यक्ति दूसरे व्यक्ति द्वारा किए गए गलत कार्य या चूक को उकसाता (अबेट) है।
  • यदि व्यक्ति, दूसरे के कार्य की पुष्टि (रेटिफाई) या उसे अधिकृत (ऑथराइज) करता है, यह जानते हुए भी कि उसके द्वारा किया गया कार्य या चूक कपटपूर्ण (ट्रोशियस) प्रकृति का है।
  • पक्ष के प्रति खड़े होने के रूप में, जिसने इस तरह के संबंध में गलत किया है तो वह दूसरे व्यक्ति द्वारा किए गए कार्यों या चूक के लिए जिम्मेदारी लेता है।

नियोजन (एम्प्लॉयमेंट) के दौरान” की अवधारणा भी तब सामने आती है जब वाइकेरियस लाइबिलिटी का सिद्धांत विकसित (इवोक) होता है। किसी कार्य को नियोजन के दौरान किया हुआ तभी माना जाता है, यदि मास्टर द्वारा नौकर को गलत कार्य करने का अधिकार दिया जाता है; या कोई कानूनी कार्य नौकर द्वारा अवैध तरीके से किया जाता है।

शॉर्ट बनाम जे एंड डब्ल्यू लिमिटे, एक पहला ऐसा मामला है जिसने वह शर्तें प्रदान की है, जिन्हें पूरा करने की आवश्यकता थी, ताकि मास्टर को नौकर के कार्यों के लिए वाइकेरियस्ली लायबल बनाया जा सके। कोर्ट ने कहा कि मास्टर को अपना नौकर चुनने का अधिकार होना चाहिए। इसके अलावा मास्टर अपने नौकर के काम करने के तरीके को नियंत्रित कर सकता था, और मास्टर को नौकर की सेवाओं को बर्खास्त (डिसमिस) करने या निलंबित (सस्पेंड) करने का भी अधिकार होना चाहिए। लेकिन धारागंधरा केमिकल वर्क्स बनाम स्टेट ऑफ़ सौराष्ट्र के भारतीय मामले में, यह माना गया था कि कभी-कभी इन शर्तों को बदलने करने की आवश्यकता होती है क्योंकि सभी शर्तों को एक साथ पूरा करना हमेशा संभव नहीं है, लेकिन मास्टर का नियंत्रण कमजोर नहीं होगा, और वह नौकर के कार्यों के लिए लायबल होगा।

मास्टर को वाइकेरियसली लाइबल ठहराने के कारण

  • प्रतिवादी श्रेष्ठ (रिस्पॉन्डेंट सुपीरियर)- यह सिद्धांत, प्रधान या मास्टर के जिम्मेदार होने के नियम का पालन करता है।
  • हर्जाना (डेमेजेस)- पीड़ित पक्ष को हर्जाना देने और नौकर और मास्टर के बीच आरोप-प्रत्यारोप (ब्लेम गेम) के खेल को रोकने के उद्देश्य से बनाया गया है।
  • नौकर को शोषण (एक्सप्लॉयटेशन) से बचाना- नौकर के कार्यों के लिए मास्टर को भी लायबल माना जाता है क्योंकि कई बार मास्टर अपने नौकरों का शोषण, पहले नौकरों को कुछ कपटपूर्ण कार्य करने के लिए करते हैं और फिर जिम्मेदारी से बचने के लिए उन्हें निकाल देते हैं।
  • क्वि फेसेट एलियम फेसेट पर्से- नौकर द्वारा अपने रोजगार के दौरान किया गया कोई भी कार्य, मास्टर द्वारा किया जाना माना जाता है, और इस सिद्धांत रूप में इसका मतलब है कि मास्टर ने कार्य किया है।

क्रिमिनल कानून

क्रिमिनल कानून के तहत भी एक व्यक्ति दूसरे के कार्य के लिए लायबल हो सकता है, यदि वह अपराध में एक पक्षकार है। उदाहरण के लिए, एक कार का चालक जो अन्य व्यक्ति के साथ बैंक जाता है और लूटता है, तो वह भी लायबल होगा, भले ही चालक कार से बाहर न निकला हो। क्रिमिनल कानून में जिस सिद्धांत का पालन किया जाता है, वह यह है कि एक व्यक्ति को मुख्य अपराधी के रूप में लायबल ठहराया जा सकता है, भले ही कार्य (एक्ट्स रिअस) किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया गया हो। दूसरे के निर्देश पर कार्य करने वाले व्यक्ति को निर्दोष (इंस्ट्रक्शन) नहीं माना जाएगा और वह भी लायबल होगा। कानून दो पक्षों के बीच संबंधों पर ध्यान केंद्रित करता है और एक के कार्य को दूसरे के लिए जिम्मेदार ठहराता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वाइकेरियस लाइबिलिटी की अवधारणा एक सिविल अवधारणा है और क्रिमिनल कानून के मामले में यह एक नियम के बजाय एक अपवाद है।

भारतीय दृश्य (इंडियन व्यू)

हालांकि वाइकेरियस लाइबिलिटी का सिद्धांत आम तौर पर सिविल कानून पर लागू होता है, कुछ असाधारण मामलों में यह क्रिमिनल मामलों में भी लागू होता है। 

आई.पी.सी. की धारा 149 के तहत यदि किसी गैरकानूनी सभा (अनलॉफुल असेंबली) का कोई सदस्य किसी समान उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई अपराध करता है, तो उस गैरकानूनी सभा का प्रत्येक सदस्य उस अपराध के लिए लायबल होगा।

आई.पी.सी. की धारा 154, किसी भूमि पर कब्जा करने वालों या उसके मास्टर से संबंधित है। यदि ऐसा कब्जा करने वाला या मास्टर या कोई भी व्यक्ति जिसका भूमि के टुकड़े में कुछ हित है, उस भूमि पर गैरकानूनी सभा के बारे में उचित सार्वजनिक प्राधिकरण (पब्लिक अथॉरिटी) को सूचित नहीं करता है, या भूमि पर होने वाले कार्य के खिलाफ कोई आवश्यक कदम नहीं उठाता है, तो भी इस तरह के कार्य के लिए लायबल ठहराया जाएगा। लायबिलिटी, इस धारणा पर तय की गई है कि जमीन का मास्टर या कब्जादार होने के नाते; व्यक्ति अपनी संपत्ति पर होने वले कार्यों को नियंत्रित करने में सक्षम होगा। धारा 155, भूमि पर कोई कार्य होने पर उसके एजेंट या प्रबंधक (मैनेजर) की चूक के लिए, उसको भूमि के मास्टर या कब्जाधारी को वाइकेरियसली लायबल बनाता है यदि वह एजेंट या प्रबंधक द्वारा संपत्ति पर होने वाली अवैध (इल्लीगल) कार्यों को नहीं रोकता है। धारा 156, एजेंट या प्रबंधक पर व्यक्तिगत लाइबिलिटी लागू करती है यदि विशेष संपत्ति पर कुछ अवैध गतिविधि होती है।

धारा 268 और धारा 269, सार्वजनिक उपद्रव (न्यूसेंस) से संबंधित है और अगर नौकर कोई सार्वजनिक उपद्रव करता है तो मास्टर को व्यक्तिगत रूप से लायबल बनाया जाता है। आई.पी.सी. की धारा 499, उस स्थिति में भी मास्टर को व्यक्तिगत रूप से लायबल बनाती है, जब नौकर किसी की मानहानि (डिफेमेशन) करता है (बशर्ते यह की, वह इस धारा के तहत दी गई मानहानि की परिभाषा के अंदर आता हो)।

क्रिमिनल गलत कार्यों के मामलों में कॉर्पोरेशन की लाइबिलिटी

पहले का विचार था कि कोई कॉर्पोरेशन कोई क्रिमिनल अपराध नहीं कर सकता। लेकिन वर्तमान परिदृश्य (सिनेरियो) में यह नजरिया बदल गया है। एक कॉर्पोरेशन की एक अलग कानूनी इकाई (एंटिटी) होती है और यह एक कृत्रिम (आर्टिफिशियल) व्यक्ति होता है। लेकिन यह अपने आप काम नहीं कर सकता। यह अपने एजेंट्स के माध्यम से काम करता है, इसलिए जब भी किसी कंपनी द्वारा कोई गैर कानूनी कार्य किया जाता है, तो उसके एजेंट्स को दंडित किया जाता है और इसलिए, लाइबिलिटी अनिवार्य रूप से वाइकेरियस होती है। एक कॉर्पोरेशन, रेप, मर्डर, पर्जरी, आदि जैसे अपराध नहीं कर सकता है, लेकिन यह माना गया है कि एक कंपनी ऐसी गतिविधियाँ कर सकती है जिनका क्रिमिनल इरादा होता है।

कर्मचारियों के कार्यों के लिए राज्य की लाइबिलिटी

इंग्लैंड में, राज्य को उसके कर्मचारियों द्वारा किए गए कार्यों के लिए लायबल नहीं ठहराया जा सकता है। इसके पीछे का सिद्धांत रेक्स नॉन-पोटेस्टपेकेयर के सिद्धांत पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि राजा कोई गलत काम नहीं कर सकता।

भारत में भी, 1967 तक यही स्थिति थी और राज्य पर उसके कर्मचारियों के कार्यों के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। लेकिन सुपरिंटेंडेंट एंड रिमेंबरेंस ऑफ लीगल अफेयर्स, वेस्ट बंगाल बनाम कार्पोरेशन ऑफ कलकत्ता के मामले में, कोर्ट ने यह माना कि यह सिद्धांत कि, राज्य किसी क़ानून से बाध्य नहीं है, संविधान के लागू होने के बाद, यह कानून देश में लागू नहीं रहा। सिविल और क्रिमिनल कानून अब नागरिकों और राज्य पर समान रूप से लागू होती हैं। सहेली बनाम कमिश्नर ऑफ़ पुलिस, के मामले में कोर्ट की यह राय थी कि सोवरेन प्रतिरक्षा (इम्यूनिटी) की अवधारणा कानून के विकास के साथ अच्छी नहीं है, और संवैधानिक व्यवस्था (रिजाइम) और राज्य को भी लायबल बनाया जा सकता है।

लाइसेंसी और उसकी लाइबिलिटी 

लाइसेंसी, रोजगार के दौरान कर्मचारी द्वारा किए गए कार्यों के लिए जिम्मेदार होगा, भले ही वह कार्य लाइसेंसी द्वारा दिए गए निर्देशों के विपरीत किया गया हो, फिर भी वह लायबल होगा। एंपरर बनाम मगदेवप्पा हनमंतप्पा के मामले में, कानून के इस प्रस्ताव को स्पष्ट किया गया था। आरोपी के पास इंडियन एक्सप्लोसिव एक्ट, 1884 के तहत लाइसेंस था। एक्ट में कहा गया था कि किसी भी एक्सप्लोसिव का निर्माण एक निवास स्थान से दूर किया जाना चाहिए। यह विशेष रूप से निर्माण उद्देश्य के लिए बनी बिल्डिंग में किया जाना चाहिए। एक दिन नौकर ने कुछ निर्माण प्रक्रिया को अंजाम देने के लिए बिल्डिंग से कुछ सामग्री ली। उसी दौरान धमाका हो गया। इसके लिए कोर्ट ने आरोपी को जिम्मेदार ठहराया था।

निष्कर्ष (कंक्लूजन)

यह कहा जा सकता है कि वाइकेरियस लाइबिलिटी की अवधारणा एक सिविल अवधारणा है, लेकिन कानून के विकास के साथ, कोर्ट्स ने सिद्धांत को क्रिमिनल मामलों में भी लागू करना शुरू कर दिया है। कभी-कभी प्रिंसिपल पर एक लाइबिलिटी तय करना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, ताकि पीड़ित पक्ष के हितों की रक्षा की जा सके और पक्षों के बीच दोषारोपण (ब्लेम गेम) से भी बचा जा सके, जिससे न्याय में देरी हो सकती है।

फुटनोट

    • (1946) 62 T.L.R. 427
  • 1957 AIR 264
  • AIR 1960 SC 1355
  • 1990 AIR 513
  • AIR 1927 Bom 209

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