जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य (2011) 

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यह लेख Rachna Kumari द्वारा लिखा गया है। यह लेख जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में विस्तार से चर्चा करता है और कानून की वर्तमान स्थिति के व्यापक विश्लेषण के साथ इसके तथ्यों, मुद्दों और निर्णय को शामिल करता है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

प्राचीन काल से ही भारत भर के ग्रामीण समुदायों के पास सामुदायिक भूमि रही है जिसे विभिन्न नामों से जाना जाता है, जैसे कि ग्राम सभा भूमि, ग्राम पंचायत भूमि (कई उत्तर भारतीय राज्यों में), शामलात देह (पंजाब में), मंडावली और पोरामबोके भूमि (दक्षिण भारत में), मैदान, आदि, जो उनके इच्छित उपयोग पर निर्भर करता था। सामूहिक रूप से रखी गई ये भूमि ग्रामीणों के सामान्य लाभ के लिए आवश्यक संसाधन (रिसोर्सेस) के रूप में काम आती है। वे पीने के पानी के लिए तालाब, मवेशियों को नहलाने, काटे गए अनाज के भंडारण और गायों, भैंसों और बकरियों जैसे जानवरों के लिए चरागाह के लिए जगह प्रदान करते हैं। वे बच्चों के लिए खेल के मैदान, ग्रामीणों के विभिन्न धार्मिक और वैवाहिक आयोजनों, मेलों, जल निकायों, मार्गों और श्मशान या कब्रिस्तान के लिए स्थल के रूप में भी काम करते हैं। 

ऐतिहासिक रूप से, ये ज़मीनें स्थानीय कानूनों के ज़रिए राज्य के अधीन थीं, लेकिन इनका प्रबंधन ग्राम सभाओं और ग्राम पंचायतों द्वारा किया जाता था ताकि इनका सामुदायिक उपयोग सुनिश्चित हो सके। इन ज़मीनों को आम तौर पर अविभाज्य (इनएलियनएबल) माना जाता था ताकि ‘समुदाय की संपत्ति’ के रूप में उनकी स्थिति सुरक्षित रहे और संपत्ति समुदाय के सभी सदस्यों के लिए सुलभ रहे। 

हालांकि, अपवाद स्वरूप ग्राम पंचायत को विशेष परिस्थितियों में भूमिहीन मजदूरों और अनुसूचित जातियों/जनजातियों तथा अन्य हाशिए पर पड़े समुदायों के सदस्यों को कुछ भूमि पट्टे (लीज) पर देने की अनुमति दी गई। 

कानूनी सुरक्षा उपायों के बावजूद, जैसे कि स्वतंत्रता के बाद के युग में देश भर में इन सांप्रदायिक भूमि पर बाहुबल, धनबल या राजनीतिक समर्थन वाले प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा व्यापक अतिक्रमण देखा गया। परिणामस्वरूप, इन भूमियों का उनके मूल उद्देश्य की अनदेखी करते हुए व्यक्तिगत लाभ के लिए शोषण किया गया है। ये अवैध अतिक्रमण सरकारी अधिकारियों, प्रभावशाली स्थानीय हितधारकों और समाज के अन्य आपराधिक तत्वों की सक्रिय मिलीभगत से किए गए थे। जगपाल बनाम पंजाब राज्य (2011) का मामला इस दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता का एक स्पष्ट उदाहरण है, जो इस भयावह स्थिति को संबोधित करने की तत्काल आवश्यकता को उजागर करता है। 

मामले का विवरण

नाम: जगपाल सिंह एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य

उद्धरण (साईटेशन): (2011) 11 एससीसी 396 

निर्णय की तिथि: 28.01.2011

अपीलकर्ता: जगपाल सिंह एवं अन्य

प्रतिवादी: पंजाब राज्य एवं अन्य

इस मामले में पेश हुए वकील: आर.के. कपूर, सुश्री नीलम शर्मा और एच.सी. पंत

पीठ: न्यायधीश मार्कंडेय काटजू और न्यायधीश ज्ञान सुधा मिश्रा

यह निर्णय न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू द्वारा लिखा गया है। 

जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य (2011) के तथ्य

इस मामले में अपील पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की खंडपीठ के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी। 

निर्विवाद रूप से, अपीलकर्ता न तो प्रश्नगत भूमि के वास्तविक स्वामी थे और न ही मान्यता प्राप्त किरायेदार, और भूमि की पहचान रोहर जागीर गांव, पटियाला तहसील और जिला पटियाला में स्थित एक तालाब के रूप में की गई थी। वास्तव में, अपीलकर्ता उक्त भूमि पर अतिक्रमणकारी (ट्रेस्पासर) और अनाधिकृत कब्जाधारी थे। अपीलकर्ताओं ने सामुदायिक तालाब को रेत से भर दिया और उस पर निर्माण कार्य कर दिया। 

पंजाब ग्राम साझा भूमि (विनियमन) अधिनियम, 1961 के अंतर्गत आवेदन

रोहर जागीर की ग्राम पंचायत ने पंजाब ग्राम साझा भूमि (विनियमन) अधिनियम, 1961 की धारा 7 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसमें अपीलकर्ताओं को हटाने की मांग की गई क्योंकि उन्होंने भूमि पर अवैध कब्ज़ा कर लिया था। ग्राम पंचायत ने विवादित भूमि पर स्वामित्व का दावा किया, जैसा कि राजस्व रिकॉर्ड से स्पष्ट है। अपीलकर्ताओं ने जबरन भूमि पर कब्जा कर लिया और उस पर निर्माण करना शुरू कर दिया। 

उप आयुक्त के समक्ष आवेदन

इसके बाद डिप्टी कमिश्नर के समक्ष एक आवेदन प्रस्तुत किया गया, जिसमें उन्हें अवैध अतिक्रमण के बारे में बताया गया। उन्हें बताया गया कि यह जमीन ग्राम पंचायत की है और गांव के लोग इस जमीन का उपयोग पीने, नहाने आदि के लिए करते हैं। 

घटनाओं के एक आश्चर्यजनक मोड़ में, पटियाला के कलेक्टर ने अपीलकर्ताओं को संपत्ति से बेदखल करने का आदेश देने के बजाय, उन्हें बेदखल करना जनहित में नहीं समझा। इसके बजाय, कलेक्टर ने ग्राम पंचायत को कलेक्टर की स्थापित दरों के अनुसार अपीलकर्ताओं से भूमि की कीमत वसूलने का निर्देश दिया। इस प्रकार, कलेक्टर ने इस गलत काम को इस आधार पर नियमित करने में मिलीभगत की कि अपीलकर्ताओं ने संबंधित भूमि पर घर बनाने में बहुत पैसा लगाया था। 

आयुक्त ने संपत्ति पर पंचायत के अधिकार की पुष्टि की और कहा कि तालाब का उपयोग ग्रामीणों के सामान्य उद्देश्य के लिए किया जा रहा है। इसलिए, इस पर किसी भी निजी व्यक्ति को अतिक्रमण करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है और उस संपत्ति पर किसी भी तरह का निर्माण अवैध है। 

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की खंडपीठ का निर्णय

न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया तथा कहा कि विवादित भूमि पंचायत की है तथा पटियाला के कलेक्टर द्वारा ग्राम पंचायत को अपीलकर्ताओं से भूमि की कीमत वसूलने का निर्देश देना गलत था, क्योंकि जनता की भूमि बेची नहीं जा सकती। 

उठाया गया मुद्दा

क्या अपील स्वीकार्य है या नहीं?

जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य (2011) में निर्णय

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपील में कोई दम नहीं पाया और इसे खारिज कर दिया। न्यायालय ने अपीलकर्ताओं को अतिक्रमणकारी घोषित किया जिन्होंने ग्राम पंचायत की जमीन पर अवैध रूप से अतिक्रमण किया था। 

न्यायालय ने कहा कि इस तरह की अवैधताओं को संबोधित किया जाना चाहिए और उन्हें माफ नहीं किया जा सकता। भले ही अपीलकर्ताओं ने विवादित भूमि पर घर बनाए हों; उन्हें अपने निर्माणों को हटाने और भूमि का कब्ज़ा ग्राम पंचायत को सौंपने का आदेश दिया गया। न्यायालय ने यह भी कहा कि इस तरह की अवैधताओं को नियमित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि ग्राम सभा की भूमि ग्रामीणों के साझा उपयोग के लिए है और उसे ऐसा ही रहना चाहिए। 

न्यायालय ने पंजाब सरकार द्वारा पारित कब्जे के नियमितीकरण पत्र को अवैध करार दिया।

न्यायालय ने अपने निर्णय के समर्थन में अनेक मामलों का हवाला दिया जैसे एमआई बिल्डर्स (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम राधेश्याम साहू (1999) का मामला, जिसमे सर्वोच्च न्यायालय ने 100 करोड़ से अधिक की लागत से निर्मित एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के विध्वंस के बाद एक पार्क के जीर्णोद्धार (रेस्टोरेशन) का निर्देश दिया था। इसी तरह, फ्रेंड्स कॉलोनी डेवलपमेंट समिति बनाम उड़ीसा राज्य एवं अन्य (2004) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जहां कानून अनधिकृत निर्माणों के नियमितीकरण की अनुमति देता है, वहां भी ऐसा नियमितीकरण केवल असाधारण मामलों में ही किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि यह सिद्धांत उन मामलों में अधिक महत्व रखता है जिनमें गांव की आम भूमि पर अतिक्रमण शामिल हो, जैसे जगपाल मामले में। इसके अलावा, इसने कहा कि ऐसे मामलों में नियमितीकरण की अनुमति केवल तभी दी जानी चाहिए जब भूमि भूमिहीन मजदूरों या अनुसूचित जातियों/ अनुसूचित जनजातियों से संबंधित व्यक्तियों को पट्टे पर दी गई हो कुछ धनराशि के भुगतान पर निजी व्यक्तियों या वाणिज्यिक उद्यमों को ग्राम सभा की भूमि आवंटित करने की अनुमति देने वाले सरकारी आदेशों को भी अवैध बताया गया तथा ऐसे आदेशों की अनदेखी करने का आह्वान किया गया। 

न्यायालय ने हिंच लाल तिवारी बनाम कमला देवी (2001) के समान ही आदेश पारित किया, जिसमें न्यायालय ने कहा था कि तालाब के रूप में दर्ज भूमि पर किसी को भी घर बनाने या ऐसे किसी अन्य उद्देश्य के लिए आवंटित नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा, न्यायालय ने प्रतिवादियों को अवैध रूप से कब्जाई गई भूमि को खाली करने का निर्देश दिया। 

न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे ग्राम पंचायत की भूमि पर अवैध कब्जाधारियों को बेदखल करने के लिए योजनाएं तैयार करें तथा उस भूमि को ग्रामीणों के सामान्य उपयोग के लिए पंचायत को वापस लौटा दें। 

जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य (2011) में शामिल कानूनी पहलू

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ग्राम पंचायत की संपत्ति पर अतिक्रमण तथा अतिक्रमणकारियों के प्रभाव के कारण सरकार द्वारा ऐसी अवैधताओं को नियमित करने पर चर्चा की। 

जब कोई व्यक्ति निजी व्यक्तियों द्वारा सरकारी संपत्ति पर अतिक्रमण करने के बारे में पढ़ता है; तो उसे यह भी आश्चर्य होता है कि क्या सरकार किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति ले सकती है। संविधान के अनुच्छेद 39(b) में कहा गया है कि राज्य द्वारा पालन किए जाने वाले कुछ सिद्धांत हैं जिनमें शामिल हैं: “समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस तरह से वितरित किया जाना चाहिए कि यह आम लोगों की भलाई के लिए सर्वोत्तम हो।” 

इस मूल पाठ की शाब्दिक व्याख्या करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राज्य के पास ‘सार्वजनिक उपयोग’ के उद्देश्य से किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति को छीनने का अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 300-A के विपरीत, जिसमें कहा गया है कि ‘कानून के अधिकार के बिना किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता है।’ सर्वोपरि अधिकार (एमिनेंट डोमेन) का सिद्धांत सरकार को किसी व्यक्ति की संपत्ति लेने की अनुमति देता है यदि उसका उपयोग सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए किया जाना है। डीडीए बनाम जगन सिंह और अन्य (2023) के हालिया मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अधिग्रहित भूमि पर अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने दिल्ली विकास प्राधिकरण और अन्य अधिकारियों को दिल्ली में एक मेट्रो स्टेशन के बगल में सड़कों पर बने फुटपाथ से एक कार क्लिनिक और अन्य विक्रेताओं को हटाने का निर्देश दिया। 

क्या “समुदाय के भौतिक संसाधनों” में निजी संपत्ति शामिल है

अनुच्छेद 39(b) राज्य पर ऐसी नीतियां बनाने का सकारात्मक दायित्व डालता है जो यह सुनिश्चित करें कि “समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण” इस तरह वितरित हो कि वे “सामान्य भलाई के लिए काम करें।” 

कर्नाटक राज्य बनाम श्री रंगनाथ रेड्डी (1977) के मामले में न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 39(b) का दायरा सीमित है और इसमें निजी स्वामित्व वाले संसाधन शामिल नहीं हैं; इसलिए, वे ‘समुदाय के भौतिक संसाधनों’ के दायरे में नहीं आते हैं। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा कि निजी और सार्वजनिक संसाधन ‘समुदाय के भौतिक संसाधनों’ के दायरे में आते हैं। 

संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (1982) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर के रुख की पुष्टि की और कहा कि ‘समुदाय के भौतिक संसाधन’ सिर्फ़ सार्वजनिक स्वामित्व वाले संसाधनों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इसमें निजी स्वामित्व वाले संसाधन भी शामिल हैं। मफतलाल इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम भारत संघ (1977) के मामले में भी नौ न्यायाधीशों की पीठ इसी निष्कर्ष पर पहुंची। 

वर्तमान में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय इसी प्रश्न का सामना कर रहा है और प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2024) के मामले में इसकी सुनवाई कर रहा है। 

राज्य का पर्यावरण कानून और प्राधिकार

सर्वोच्च न्यायालय ने एमसी मेहता बनाम कमल नाथ (1977) के मामले में भारत में सार्वजनिक न्यास (ट्रस्ट) सिद्धांत का विचार पेश किया था। सार्वजनिक न्यास सिद्धांत की अवधारणा राज्य पर देश के प्राकृतिक संसाधनों के रक्षक के रूप में कार्य करने और प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान से बचाने का दायित्व डालती है। ‘सार्वजनिक न्यास सिद्धांत’ शब्द में स्वाभाविक रूप से न्यास का विचार निहित है। सौंपी गई संपत्ति की देखभाल के लिए एक न्यासी (ट्रस्टी) जिम्मेदार होता है। न्यासी का कर्तव्य है कि वह सौंपने वाले के सर्वोत्तम हित में कार्य करे और संपत्ति का उपयोग निजी लाभ के लिए न करे। पर्यावरण के संदर्भ में, नागरिकों द्वारा राज्य को तर्कसंगत उपयोग और समाज के लाभ के लिए प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने का दायित्व सौंपा गया है। राज्य को प्राकृतिक संसाधनों का इस तरह से दोहन करना चाहिए कि वे समाप्त न हों और आने वाली पीढ़ियां भी उनका उपयोग करने में सक्षम हों। सार्वजनिक न्यास सिद्धांत राज्य को प्राकृतिक संसाधनों को निजी व्यक्तियों को बेचने से प्रतिबंधित करता है।

इलिनोइस सेंट्रल रेलरोड कंपनी बनाम इलिनोइस राज्य के लोग (1892) के मामले में, संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राज्य सार्वजनिक संसाधनों का न्यासी है और जब जनता का हित शामिल हो तो वह सार्वजनिक संपत्ति को निजी स्वामित्व में नहीं दे सकता। इसी तरह, एमसी मेहता बनाम कमल नाथ (1996) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि सरकार सार्वजनिक न्यास संसाधनों को निजी संपत्ति में परिवर्तित करके उन पर अपना अधिकार नहीं छोड़ सकती। न्यायालय ने प्रोफेसर जो सैक्स द्वारा लिखे गए प्रसिद्ध लेख “प्राकृतिक संसाधन कानून में सार्वजनिक न्यास सिद्धांत: प्रभावी न्यायिक हस्तक्षेप” पर भी भरोसा किया, जहां उन्होंने आम संपत्ति की रोमन अवधारणा को फिर से परिभाषित किया और इसे ‘सार्वजनिक न्यास सिद्धांत’ कहा। 

जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य (2011) का आज के समय में महत्व

जगपाल बनाम पंजाब राज्य का मामला हाल के दिनों में सार्वजनिक संपत्ति पर अतिक्रमण करने वालों के खिलाफ अपने फैसले के कारण बहुत महत्वपूर्ण है। इस मामले का देश भर के कई उच्च न्यायालयों और खुद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगातार हवाला दिया जाता है। कमलनाथन और अन्य बनाम राज्य और अन्य ( 2022) के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि जल निकाय पारिस्थितिकी और पर्यावरण को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बेदखली नोटिस को बरकरार रखते हुए, न्यायालय ने माना कि जल निकाय के रूप में चिह्नित भूमि का अन्य उद्देश्यों के लिए उपयोग करना समाज के लिए हानिकारक है। 

मेहराज उद दीन मलिक बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर (2022) के मामले में, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय ने माना कि अतिक्रमित सार्वजनिक चरागाह भूमि के बदले मालिकाना भूमि का आदान-प्रदान करने की अनुमति नहीं है। 

जगपाल मामले की तरह ही वी. वैरा सेकर बनाम सरकार के सचिव, गृह, निषेध और आबकारी विभाग और अन्य (2021) के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि किसी भी व्यक्ति को सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं है। न्यायालय ने सरकार से सार्वजनिक भूमि को सुरक्षित रखने के लिए अनुशासन की भावना सुनिश्चित करने का आह्वान किया। 

जैसा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने देश भर की सभी राज्य सरकारों को ग्राम पंचायतों के अवैध कब्जाधारियों को बेदखल करने के लिए योजनाएँ तैयार करने के निर्देश दिए थे, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने ग्राम पंचायत धूमा बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021) और राघवेंद्र प्रताप सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021) के मामले में अतिक्रमणों की जाँच के लिए राज्य भर में ‘सार्वजनिक भूमि संरक्षण प्रकोष्ठ’ स्थापित करने का आदेश दिया था। 

अरुलमिघु पालपट्टराई मरियम्मन तिरुकोइल बनाम पप्पायी एवं अन्य (2023) के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी को भी सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं है और यहां तक ​​कि अगर भगवान भी सार्वजनिक स्थान पर अतिक्रमण करते हैं, तो अदालतें ऐसे अतिक्रमणों को हटाने का निर्देश देंगी, क्योंकि सार्वजनिक हित और कानून के शासन को सुरक्षित रखा जाना चाहिए और उसे बनाए रखा जाना चाहिए। 

अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जगपाल मामला आज भी बहुत महत्व रखता है। 

निष्कर्ष 

सामुदायिक संपत्ति पर अतिक्रमण समाज के कल्याण और पर्यावरण की स्थिरता के लिए एक गंभीर खतरा है। जब निजी व्यक्ति सार्वजनिक भूमि पर अवैध रूप से कब्जा करते हैं, तो वे न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। इस तरह के अतिक्रमण समुदाय के सदस्यों को उन संसाधनों का आनंद लेने के अवसर से वंचित करते हैं जो उनकी भलाई के लिए सहायक हैं। चाहे वह सार्वजनिक उपयोग के लिए निर्दिष्ट भूमि हो, जैसे पार्क, खेल के मैदान आदि, या प्राकृतिक संसाधन जैसे जंगल, नदियाँ, तालाब आदि, अतिक्रमण पूरे समुदाय के लिए इन संसाधनों तक पहुँच को सीमित करता है, जिससे संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है।

यह मामला कुछ अवैध कब्जाधारियों के कारण समुदाय के सामने आने वाली चुनौतियों का एक उदाहरण है। प्रशासन की ऐसी अवैधताओं को नियमित करने की इच्छाशक्ति ही इस स्थिति को और भी बदतर बनाती है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप और समाज के शक्तिशाली सदस्यों की मौजूदगी के बावजूद जो पैसे, बल या राजनीतिक संबंधों की मदद से सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण करते हैं, इन मुद्दों को हल करने के लिए सख्त कार्रवाई का अभाव रहा है। सार्वजनिक संपत्ति पर इस तरह के अतिक्रमण को रोकने के लिए राज्यों के लिए सक्रिय कदम उठाना महत्वपूर्ण है। बारह साल के फैसले और निर्देशों के बाद भी, अतिक्रमण से निपटने के लिए उचित प्रशासनिक व्यवस्था बनाने में राज्यों की विफलता शासन के सभी स्तरों पर सामूहिक कार्रवाई की तत्काल आवश्यकता की मांग करती है। सामूहिक प्रयासों से ही हम सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा कर सकते हैं और उसका आनंद ले सकते हैं। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या सरकारी संपत्ति पर प्रतिकूल कब्जे का दावा किया जा सकता है?

हां, परिसीमा अधिनियम, 1965 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जो 12 साल से अधिक समय से निजी भूमि या 30 साल से अधिक समय से सरकारी भूमि पर कब्जा रखता है, वह उस संपत्ति का मालिक बन सकता है। हालांकि, शकील अहमद और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2024) के मामले में, भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने देखा है कि सरकारी भूमि पर बसने वाले लोग केवल प्रतिकूल कब्जे के आधार पर ऐसी भूमि पर किसी भी शीर्षक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं। 

पंचायत की भूमि पर अतिक्रमण के संबंध में सभी राज्यों में अलग-अलग अधिनियम और नियम क्यों हैं?

भूमि पर अतिक्रमण के संबंध में सभी राज्यों के अलग-अलग अधिनियम, नियम और विनियम हैं, क्योंकि प्रत्येक राज्य को विशिष्ट स्थानीय आवश्यकताओं तथा सामाजिक-आर्थिक, प्रशासनिक और राजनीतिक कारकों के आधार पर भूमि संबंधी मुद्दों पर अपने स्वयं के कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है। 

क्या सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के लिए आपराधिक मामला दर्ज किया जा सकता है?

हां, भारतीय दंड संहिता की धारा 441 (भारतीय न्याय संहिता, 2024 की धारा 329) के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया जा सकता है। एस अरुणाचलम बनाम जिला कलेक्टर, कलेक्ट्रेट, सलेम जिला और अन्य (2019) के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने सार्वजनिक भूमि से अतिक्रमणकारियों को बेदखल करने के पक्ष में आदेश दिया था। 

भारतीय संविधान के तहत कौन सी सूची राज्यों को भूमि अधिग्रहण आदि पर कानून बनाने का अधिकार देती है?

भारतीय संविधान की  सातवीं अनुसूची में समवर्ती सूची राज्य विधानसभाओं और केंद्र सरकार दोनों को भूमि अधिग्रहण और संबंधित मामलों पर कानून बनाने की अनुमति देती है। हालाँकि, अगर कोई विवाद होता है, तो संघ के कानून राज्य के कानूनों पर प्रभावी हो जाते हैं।

संदर्भ

 

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