जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ: मामले का विश्लेषण

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Joseph Shine v. Union of India : case analysis

यह लेख K. Pallavi द्वारा लिखा गया है और इसे Nishka Kamath द्वारा नया रूप दिया गया है। इसमें उन सभी विवरणों पर चर्चा की गई है, जो 2018 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक फैसले के बारे में पढ़ते समय सीखना चाहिए। इस फैसले ने व्यभिचार (एडल्टरी) को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है, इस प्रकार इसे एक नागरिक गलती और केवल तलाक का आधार बना दिया गया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारत में व्यभिचार पितृसत्ता और पुरुष प्रधानता की धारणा पर आधारित था। यह अपराध उस पुरुष को आपराधिक रूप से उत्तरदायी बनाता है जो किसी महिला जो किसी अन्य पुरुष की पत्नी है, के साथ यौन संबंध रखता है। और अगर पति इस तरह के कार्य के लिए सहमति देता है या बढावा देता है तो यह व्यभिचार नहीं होगा। यदि किसी महिला का पति व्यभिचार करता है तो उसके पास कोई अधिकार नहीं है। प्राचीन इतिहास में, व्यभिचार को विवाहित पुरुष या महिला द्वारा किया गया एक पापपूर्ण कार्य माना जाता था। भारत में व्यभिचार में महिला को अपराधी के रूप में नहीं बल्कि एक पीड़ित के रूप में माना जाता है जिसे किसी पुरुष ने ऐसा कार्य करने के लिए बहकाया है। यह कानून हमारे संवैधानिक सिद्धांतों यानी समानता, गैर-भेदभाव, सम्मान के साथ जीने का अधिकार आदि का उल्लंघन है। लैंगिक भेदभाव और निजता के अधिकार का उल्लंघन करने के कारण दक्षिण कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, युगांडा, जापान आदि सहित 60 से अधिक देशों में व्यभिचार को अपराध घोषित कर दिया गया है। यहां तक कि दंड संहिता के निर्माता लॉर्ड मैकाले ने दंड संहिता में इसकी उपस्थिति को एक अपराध के रूप में दर्ज करने पर आपत्ति जताई, बल्कि सुझाव दिया कि इसे एक नागरिक गलती के रूप में छोड़ देना बेहतर होगा। कानून समय के साथ विकसित होता है और हाल के कई फैसलों ने बदलते सामाजिक मूल्यों और बढ़ती व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अनुरूप मौलिक अधिकारों के दायरे को बढ़ा दिया है। यह फैसला 158 साल पुराने कानून को खत्म करके इतिहास रचने में उनके साथ शामिल हो गया है, जिसने बदलती सामाजिक और नैतिक परिस्थितियों के साथ अपनी प्रासंगिकता खो दी है।

तथ्य

जोसेफ शाइन द्वारा अनुच्छेद 32 के तहत सीआरपीसी की धारा 198 के साथ पढ़ी जाने वाली आईपीसी की धारा 497 की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की गई थी, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन है। यह पहली बार व्यभिचार के खिलाफ दायर एक जनहित याचिका थी। याचिकाकर्ता ने दावा किया कि व्यभिचार का प्रावधान मनमाना और लिंग के आधार पर भेदभावपूर्ण है। याचिकाकर्ता ने दावा किया कि ऐसा कानून महिला की गरिमा को खत्म करता है। याचिका पर सुनवाई के लिए 5 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ गठित की गई थी।

तर्क 

याचिकाकर्ता

  • याचिकाकर्ता के वकील ने धारा 497 के कई पहलुओं  जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते है को संबोधित किया।
  • याचिकाकर्ता की ओर से वकील ने धारा 497 की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी बताई और कहा कि यह कानून ब्रिटिश काल के दौरान बनाया गया था और आधुनिक समय में इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।
  • वकील ने यह भी कहा कि धारा 497 और सीआरपीसी की धारा 198(2) संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ हैं, जो कानून के समक्ष समानता की बात करता है। याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि प्रावधान केवल लिंग के आधार पर वर्गीकरण के आधार पर व्यभिचार को अपराध मानता है, जिसका उद्देश्य प्राप्त करने से कोई तर्कसंगत संबंध नहीं है। पत्नी की सहमति महत्वहीन है, इस प्रकार यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।
  • याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह प्रावधान इस धारणा पर आधारित है कि एक महिला अपने पति की संपत्ति है। प्रावधान कहता है कि अगर पति अपनी सहमति देता है तो व्यभिचार नहीं किया जाता है।
  • व्यभिचार का प्रावधान लिंग के आधार पर भेदभावपूर्ण है क्योंकि यह केवल पुरुषों को व्यभिचार के खिलाफ मुकदमा चलाने का अधिकार प्रदान करता है, जो अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है। कानून के अनुसार, अगर किसी महिला को पता चलता है कि उसके पति ने शादी के दायरे से बाहर किसी महिला के साथ यौन संबंध बनाए हैं तो उसे शिकायत दर्ज कराने का कोई अधिकार नहीं है।
  • याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह प्रावधान असंवैधानिक है क्योंकि यह एक महिला की यौन स्वायत्तता (ऑटोनोमी) और आत्मनिर्णय का सम्मान न करके उसकी गरिमा को कम करता है, इसलिए अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है। इसके अलावा, वकील ने दावा किया कि दो पक्षों का एक-दूसरे के साथ यौन गतिविधियों में शामिल होना निजता के अधिकार के तहत आता है और ऐसी गुप्त जानकारी साझा करना अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।
  • इसके अलावा, वकील ने तर्क दिया कि इस प्रावधान या कानून के तहत महिलाओं को महज एक वस्तु के रूप में माना जाता है, क्योंकि पति की सहमति या उसके अभाव के आधार पर इस कार्य को अपराध माना जाता है।
  • वकील ने यह भी तर्क दिया कि प्रावधान उनकी पितृसत्तात्मक और मनमानी प्रकृति को देखते हुए भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के खिलाफ थे।
  • वकील ने यह भी तर्क दिया कि चूंकि संभोग दोनों पक्षों के बीच एक पारस्परिक और सहमतिपूर्ण गतिविधि थी, इसलिए दोनों को सजा का पात्र होना चाहिए।
  • वकील ने आगे तर्क दिया कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी वैवाहिक स्थिति या लिंग की परवाह किए बिना, संभोग में शामिल होने का स्वतंत्र अधिकार है, चाहे वह विवाह के बाहर हो, यदि वह विवाहित है।

प्रत्यर्थी 

  • प्रत्यर्थियो के वकील ने तर्क दिया कि व्यभिचार एक अपराध है जो पारिवारिक संबंधों को तोड़ता है और विवाह संस्था की रक्षा के लिए रोकथाम होनी चाहिए।
  • प्रत्यर्थियो का दावा है कि व्यभिचार पति-पत्नी, बच्चों और पूरे समाज को प्रभावित करता है। वकील ने यह भी कहा कि व्यभिचार एक अपराध के रूप में समाज के लिए नैतिक रूप से अपमानजनक है और ऐसा अपराध करने वाले सभी अपराधियों को दंड का भागी होना चाहिए। यह किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा पूरी जानकारी के साथ किया गया अपराध है, जो विवाह और परिवार की पवित्रता को नष्ट करता है।
  • प्रावधान द्वारा भेदभाव को अनुच्छेद 15(3) द्वारा बचाया जाता है, जो राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष कानून बनाने का अधिकार प्रदान करता है।
  • प्रत्यर्थी के वकील ने कहा कि इस तरह के कार्य से समाज की नैतिकता को ठेस पहुंचेगी और इसके सदस्यों को भी नुकसान होगा; अत: इसे दंडित किया जाना चाहिए और अपराध माना जाना चाहिए।
  • साथ ही, वकील ने तर्क दिया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है और जब सार्वजनिक हित दांव पर होता है तो उचित प्रतिबंध होते हैं। निजता के अधिकार का प्रावधान उस व्यक्ति को निजता की सुरक्षा प्रदान नहीं करता है जो अपनी शादी के दायरे से बाहर किसी अन्य विवाहित व्यक्ति के साथ यौन संबंध बना रहा है।
  • वकील ने आगे तर्क दिया कि धारा 497 महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक कार्रवाई के रूप में वैध थी।
  • धारा 497 वास्तव में समाज को ऐसी अनैतिक गतिविधि से बचाने का काम कर रही है जो विवाह संस्था को अपमानित करेगी; इसलिए, इसे ख़त्म नहीं किया जाना चाहिए।
  • प्रत्यर्थी के वकील ने अनुरोध किया कि अदालत असंवैधानिक पाए गए हिस्से को हटा दे लेकिन प्रावधान को बरकरार रखे।

उठाए गए मुद्दे 

  1. क्या अनुच्छेद 14 के तहत व्यभिचार का प्रावधान मनमाना और भेदभावपूर्ण है?
  2. क्या आईपीसी की धारा 497 असंवैधानिक है?
  3. क्या व्यभिचार का प्रावधान महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति होने की रूढ़िवादिता को बढ़ावा देता है और अनुच्छेद 15 के तहत लिंग के आधार पर भेदभाव करता है जैसे कि अगर पति ने इस तरह के कार्य के लिए सहमति दी है, तो ऐसे कार्य को अब अपराध नहीं माना जाएगा?
  4. क्या किसी महिला की यौन स्वायत्तता और आत्मनिर्णय के अधिकार से इनकार से उसकी गरिमा से समझौता किया जाता है?
  5. क्या व्यभिचार को अपराध घोषित करना किसी व्यक्ति के निजी क्षेत्र में कानून द्वारा घुसपैठ है?
  6. क्या व्यभिचार कानूनों को लिंग-तटस्थ (न्यूट्रल) बनाया जाना चाहिए? धारा 497 के अनुसार, ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है जो यह दावा करे कि एक महिला अपने पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कर सकती है जिसने व्यभिचार किया है; क्या इसमें संशोधन किया जाना चाहिए?

पिछले फैसले

यूसुफ अब्दुल अजीज बनाम बॉम्बे राज्य (1954) एससीआर 930

इस मामले में, धारा 497 की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करती है, यह कहकर कि एक पत्नी दुष्प्रेरक (एबेटर) के रूप में भी अपराधी नहीं हो सकती। 3 न्यायाधीशों की पीठ ने उक्त प्रावधान की वैधता को बरकरार रखा क्योंकि यह महिलाओं के लिए बनाया गया एक विशेष प्रावधान है और अनुच्छेद 15(3) द्वारा संरक्षित है। और अनुच्छेद 14 एक सामान्य प्रावधान है जिसे अन्य अनुच्छेदों के साथ पढ़ा जाना चाहिए और लिंग केवल एक वर्गीकरण है, इसलिए दोनों को मिलाकर यह वैध है।

सौमित्री विष्णु बनाम भारत संघ एवं अन्य (1985) सप्प एससीसी 137

इस मामले में आईपीसी की धारा 497 की वैधता को चुनौती देते हुए अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका दायर की गई थी। चुनौती इस तथ्य पर आधारित थी कि उक्त प्रावधान एक महिला को उस महिला पर मुकदमा चलाने का अधिकार नहीं देता है जिसके साथ उसके पति ने व्यभिचार किया है और इसलिए यह भेदभावपूर्ण है। इस मामले में 3 न्यायाधीशों की पीठ ने भी यह कहते हुए वैधता को बरकरार रखा कि अपराध के दायरे को बढ़ाने का काम विधायिका द्वारा किया जाना चाहिए, न कि अदालतों द्वारा। परिवार तोड़ने का अपराध घर तोड़ने से छोटा नहीं है, इसलिए सज़ा उचित है। न्यायालय ने माना कि ऐसा अपराध केवल पुरुष ही कर सकते हैं।

वी. रेवती बनाम भारत संघ (1988) 2 एससीसी 72

इस मामले में, अदालत ने धारा 198 के साथ पढ़ी जाने वाली धारा 497 की संवैधानिक वैधता को यह कहते हुए बरकरार रखा कि यह प्रावधान पत्नी और पति दोनों को व्यभिचार के लिए एक-दूसरे को दंडित करने से अक्षम करता है और इसलिए भेदभावपूर्ण नहीं है। यह केवल उस बाहरी व्यक्ति को दंडित करता है जो विवाह की पवित्रता को नष्ट करने का प्रयास करता है। और इस प्रकार यह उसके ‘विरुद्ध’ के बजाय उसके ‘पक्ष’ में उल्टा भेदभाव है।

डब्ल्यू. कल्याणी बनाम पुलिस निरीक्षक के माध्यम से राज्य और अन्य (2012) 1 एससी 358

इस मामले में धारा 497 की संवैधानिकता का प्रश्न उत्पन्न नहीं हुआ था, लेकिन यह कहा गया था कि केवल यह तथ्य कि अपीलकर्ता एक महिला है, उसे व्यभिचार के आरोप से पूरी तरह से प्रतिरक्षा देता है और उस अपराध के लिए उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती है।

सिफारिश

  • 42वें विधि आयोग की रिपोर्ट में व्यभिचारी महिलाओं को भी अभियोजन में शामिल करने और सजा को 5 साल से घटाकर 2 साल करने की सिफारिश की गई थी। इसे लागू नहीं किया गया।
  • 152वें विधि आयोग की रिपोर्ट में, व्यभिचार के प्रावधान में लिंगों के बीच समानता लाने और महिला की स्थिति के संबंध में सामाजिक परिवर्तन को प्रतिबिंबित करने की सिफारिश की गई थी। लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया।
  • 2003 में, आपराधिक न्याय प्रणाली के सुधार पर मलिमथ समिति का गठन किया गया था जिसने इस प्रावधान में संशोधन करने की सिफारिश की थी कि ‘जो कोई भी किसी अन्य के पति या पत्नी के साथ यौन संबंध बनाता है वह व्यभिचार का दोषी है’। यह अभी विचाराधीन है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

मुद्दा 1

कानून या किसी उप-विधान को अमान्य करने के लिए प्रकट मनमानी का परीक्षण लागू किया जाना चाहिए। कोई भी कानून मनमाना पाया जाएगा तो उसे रद्द कर दिया जाएगा। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यहां दो निर्णयों का हवाला दिया, अर्थात्:

वर्गीकरण इस अर्थ में मनमाना पाया गया है कि यह केवल पति को एक पीड़ित व्यक्ति के रूप में मानता है जिसे अपराध के लिए मुकदमा चलाने का अधिकार दिया गया है, और पत्नी को ऐसा कोई अधिकार प्रदान नहीं किया गया है। यह प्रावधान समानता पर आधारित नहीं है।

अपराध इस धारणा पर आधारित है कि महिलाएं अपने पति की संपत्ति हैं, और व्यभिचार को उसकी संपत्ति की चोरी माना जाता है क्योंकि इसमें कहा गया है कि पति की सहमति या मिलीभगत इसे अपराध नहीं बनाएगी।

प्रावधान पत्नी को अपराधी नहीं मानता और केवल तीसरे पक्ष को दंडित करता है।

ऐसा वर्गीकरण मनमाना और भेदभावपूर्ण है और वर्तमान समय में इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है, जहां महिलाओं की अपनी पहचान है और वे जीवन के हर पहलू में पुरुषों के बराबर खड़ी हैं। यह प्रावधान स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।

मुद्दा 2

यह प्रावधान एक विवाहित पुरुष और एक विवाहित महिला के बीच लिंग के आधार पर भेदभाव करता है जिससे उसे नुकसान होता है। यह प्रावधान इस रूढ़ि पर आधारित है कि एक पुरुष का अपनी पत्नी की कामुकता पर नियंत्रण होता है और वह उसकी संपत्ति है। यह इस धारणा को कायम रखता है कि महिलाएं निष्क्रिय हैं और अपनी यौन स्वतंत्रता का प्रयोग करने में असमर्थ हैं।

धारा 497 महिलाओं को दुष्प्रेरक के रूप में दंडित होने से बचाती है। यह बताया गया है कि यह प्रावधान महिलाओं के लिए फायदेमंद है, जिसे अनुच्छेद 15(3) द्वारा बचाया गया है। अनुच्छेद 15(3) महिलाओं को पितृसत्ता से बचाने और उन्हें दमन से बाहर निकालने के लिए डाला गया था। इस अनुच्छेद का उद्देश्य उन्हें पुरुषों के बराबर लाना था। लेकिन धारा 497 सुरक्षात्मक भेदभाव नहीं है बल्कि पितृसत्ता पर आधारित है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यहां दो निर्णयों का हवाला दिया, अर्थात्:

इस प्रकार, उक्त प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन करता है क्योंकि यह लिंग के आधार पर भेदभावपूर्ण है और पत्नी की यौन स्वायत्तता को नियंत्रित करने की रूढ़िवादिता को कायम रखता है।

मुद्दा 3

किसी व्यक्ति की गरिमा और यौन निजता को अनुच्छेद 21 के तहत संविधान द्वारा संरक्षित किया गया है। एक महिला को एक पुरुष के समान निजता का अधिकार है। किसी व्यक्ति की स्वायत्तता जीवन के महत्वपूर्ण मामलों पर निर्णय लेने की क्षमता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यहां दो निर्णयों का हवाला दिया, अर्थात्:

प्रावधान पति की सहमति या मिलीभगत से व्यभिचार की अनुमति देता है, जो पुरुष को पत्नी की यौन स्वायत्तता पर नियंत्रण देता है। यह उसे पति की कठपुतली बना देता है और उसका सारा व्यक्तित्व छीन लेता है।

जब दंड संहिता का मसौदा तैयार किया गया था तब महिलाओं के संबंध में सामाजिक सोच पिछड़ी थी और उन्हें एक संपत्ति के रूप में माना जाता था लेकिन 158 वर्षों के बाद महिलाओं की स्थिति पुरुषों के बराबर है। उसकी गरिमा अत्यंत महत्वपूर्ण है और ऐसे प्रावधान द्वारा इसे कम नहीं किया जा सकता है जो इस तरह की लैंगिक रूढ़िवादिता को कायम रखता है। महिलाओं को पीड़ित मानना उनके व्यक्तित्व को अपमानित करता है और उनके पतियों के बिना उनकी पहचान पर सवाल उठाता है। यौन स्वायत्तता में कटौती करके जबरन निष्ठा को लागू करना अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त गरिमा और समानता के मौलिक अधिकार का अपमान है।

मुद्दा 4

अपराध को ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित किया जाता है जो समग्र रूप से समाज को प्रभावित करता है। दूसरी ओर, व्यभिचार एक ऐसा अपराध है जो निजी क्षेत्र में प्रवेश करने के समान है। व्यभिचार दो वयस्कों द्वारा सहमति से किया जा सकता है, जिससे यह पीड़ित रहित अपराध बन जाता है। इस प्रावधान का उद्देश्य विवाह की पवित्रता की रक्षा करना है, लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि वैवाहिक संबंधों में पहले से मौजूद व्यवधान (डिसरप्शन) के कारण व्यभिचार किया जाता है।

वैवाहिक क्षेत्र से संबंधित अन्य अपराध, जैसे कि आईपीसी की धारा 304-B, 306, 494, और 498-A, या घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2005 का कोई उल्लंघन, या सीआरपीसी की धारा 125 का उल्लंघन, एक विवाहित महिला के जीवन को ख़त्म करने और उसके पति और रिश्तेदार को सज़ा देने से संबंधित हैं। 

व्यभिचार में, किसी तीसरे पक्ष को आपराधिक अपराध के लिए अधिकतम 5 साल की कैद की सजा दी जाती है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय की राय में इसकी आवश्यकता नहीं है।

यह प्रावधान पति को पीड़ित और महिला को पीड़िता बनाता है। भले ही कानून बदल जाए और व्यभिचार के खिलाफ महिलाओं को समान अधिकार मिले, लेकिन यह पूरी तरह से एक निजी मामला है।

बेहतर होगा कि व्यभिचार को तलाक का आधार बना दिया जाए, अपराध नहीं। आईपीसी की धारा 497 को रद्द कर दिया गया है और व्यभिचार किसी भी नागरिक गलती का आधार हो सकता है, जिसमें विवाह विच्छेद (डिजोल्यूशन) भी शामिल है।

फैसले का अवलोकन

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस ऐतिहासिक मामले में धारा 497 को रद्द कर दिया और इसे असंवैधानिक और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन माना। इसने यह भी दावा किया कि सीआरपीसी की धारा 198(2) उस हद तक असंवैधानिक है, जब इसे आईपीसी की धारा 497 पर लागू किया जाता है। इस निर्णय ने व्यभिचार को अपराध मानने वाले कई पूर्व निर्णयों को रद्द कर दिया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 497 पुरानी और संवैधानिक रूप से अमान्य है क्योंकि यह एक महिला की स्वायत्तता, गरिमा और निजता को छीनती है। न्यायालय की राय थी कि इस तरह की धारा ने इस विचार को स्वीकार करके एक महिला के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया है कि विवाह एक पुरुष और एक महिला के बीच संबंधों के लिए लिंग-आधारित दृष्टिकोण पर दंडात्मक प्रतिबंध लागू करके सच्ची समानता को नष्ट कर देता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि पति से सहमति प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करने से महिला की अधीनता में बदल जाता है। न्यायालय ने संविधान के तहत यौन निजता को एक प्राकृतिक अधिकार के रूप में फिर से पुष्टि की। न्यायालय ने आगे घोषित किया कि धारा 497 वास्तविक समानता की अनदेखी करती है, क्योंकि इसमें कहा गया है कि महिलाएं विवाह में समान भागीदार नहीं थीं और वे किसी भी यौन गतिविधि के लिए सहमति देने में असमर्थ थीं। न्यायालय ने उस कानूनी व्यवस्था की ओर भी इशारा किया जहां महिलाओं को उनके पतियों की यौन संपत्ति माना जाता था। इस प्रकार, यह धारा अनुच्छेद 14 का उल्लंघन थी। पीठ ने आगे कहा कि यह धारा पक्षपातपूर्ण थी क्योंकि यह विशेष रूप से एक लिंग पर केंद्रित थी और अनुच्छेद 15 के सिद्धांतों के खिलाफ थी। इसके अलावा, न्यायालय ने दावा किया कि अनुच्छेद 21 महिलाओं को संवैधानिक गारंटी और गरिमा, स्वतंत्रता, निजता और यौन स्वायत्तता के मौलिक अधिकारों से वंचित करता है।

इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि व्यभिचार एक नागरिक गलती है और तलाक के लिए आधार के तत्वों में से एक है, भले ही अब इसे अपराधमुक्त कर दिया गया है। न्यायालय ने यह भी कहा कि अपराध समग्र रूप से समाज के खिलाफ किए गए थे, जबकि व्यभिचार व्यक्तिगत मुद्दों के अंतर्गत आता है और समाज के खिलाफ अपराध नहीं था। व्यभिचार को अपराध मानते हुए न्यायालय ने कहा कि राज्य को लोगों के निजी जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और पति-पत्नी को उनकी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं और विकल्पों के आधार पर सर्वसम्मति से निर्णय लेने की अनुमति दी जानी चाहिए।

न्यायमूर्ति डी. मिश्रा (स्वयं और न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर) का मत था कि व्यभिचार को अपराध मानना वैवाहिक क्षेत्र की अत्यधिक निजता का उल्लंघन है। उन्होंने कहा कि व्यभिचार अन्य वैवाहिक मुद्दों से अलग है जैसे दहेज की मांग करना, घरेलू हिंसा, भरण-पोषण न देने पर किसी को जेल भेजना या दूसरी शादी के लिए मुकदमा दायर करना, क्योंकि अपराधों का बाद वाला सेट वैवाहिक संबंधों से संबंधित विभिन्न अन्य उद्देश्यों को पूरा करने के लिए है। उनकी राय में, व्यभिचार को अपराध घोषित करना अनुच्छेद 21 के दो पहलुओं का उल्लंघन है, अर्थात्:

  1. पति की गरिमा पत्नी से जुड़ी होती है, और
  2. वह निजता जो विवाहित रिश्ते में जोड़े से जुड़ी होती है।

इसके अलावा, न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उन तरीकों पर प्रकाश डाला जिनसे व्यभिचार ने निजता के अधिकार को प्रभावित किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि एक महिला के यौन नियंत्रण के बारे में स्त्री द्वेष और पितृसत्तात्मक मान्यताओं को हमारे संवैधानिक आदेश में कोई जगह नहीं मिलती है, जो किसी व्यक्ति की गरिमा और स्वायत्तता का सम्मान करती है। नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (एआईआर 2018 एससी 4321) के मामले का जिक्र करते हुए उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के एक पहलू के रूप में यौन स्वायत्तता के महत्व पर चर्चा की, ताकि किसी व्यक्ति द्वारा झेले गए अपमान को उजागर किया जा सके जब “उनके व्यक्तिगत क्षेत्र के भीतर कार्य” को प्रतिगामी सामाजिक दृष्टिकोण के आधार पर अपराध घोषित किया गया था, और उस पर जोर देने के लिए, यौन निजता का अधिकार एक प्राकृतिक अधिकार था, जो स्वतंत्रता और गरिमा के लिए महत्वपूर्ण था। इसके अलावा, न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ ((2017) 10 एससीसी 1) के मामले का जिक्र किया और इस बात पर जोर दिया गया कि प्रावधान में विवाह संस्था में समान पक्ष के रूप में महिलाओं की स्थिति को प्रतिबिंबित किया जाना चाहिए, निजता और गरिमा की संवैधानिक गारंटी की हकदार होनी चाहिए और गरिमापूर्ण जीवन का तात्पर्य यह है कि “मानव व्यक्तित्व की आंतरिक परतों” को “अवांछित हस्तक्षेप” से सुरक्षित रखा जाए। उनका निर्णय अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण मूल्य के रूप में यौन स्वायत्तता के महत्व पर केंद्रित था। उनके फैसले ने इस बात पर प्रकाश डाला कि धारा 497 महिलाओं को उनकी यौन स्वतंत्रता, स्वायत्तता, गरिमा और निजता से वंचित करती है।

इसके अलावा, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा की राय थी कि व्यभिचार एक नागरिक गलत होना चाहिए, क्योंकि विवाह के दायरे से बाहर, सहमति से यौन गतिविधि में शामिल होने की स्वतंत्रता वास्तव में अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षा की गारंटी नहीं देती है। हालाँकि, उनकी राय के अनुसार, जीवन के सबसे अंतरंग स्थानों में अपनी कामुकता के संबंध में अपनी पसंद बनाने की किसी व्यक्ति की स्वायत्तता को आपराधिक मंजूरी के माध्यम से सार्वजनिक निंदा से सुरक्षित रखा जाना चाहिए। इसलिए, उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि धारा 497, पुट्टुस्वामी मामले में स्थापित अनुच्छेद 21 के तहत निजता के हनन के लिए तीनों आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती है।

जटिल विश्लेषण

बड़े शहरों में विश्वासघात अधिक आम है जहां लोग पश्चिमीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। इस निर्णय की इस आधार पर व्यापक रूप से आलोचना की गई कि इसने लोगों को बिना किसी डर के व्यभिचार करने का मार्ग प्रशस्त किया। इसके अपराधमुक्त होने के बाद से व्यभिचार में वृद्धि हुई है। पुरुषों ने दावा किया है कि अब रक्त की शुद्धता सुनिश्चित करने का कोई तरीका नहीं है। कई लोग दावा करते हैं कि व्यभिचार के लिए पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान रूप से दंडित करने के लिए विधि आयोगों की सिफारिशों को संसद द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए था। सर्वोच्च न्यायालय की इस बात के लिए भी आलोचना की गई है कि उन्हें व्यभिचार पर बदलते सामाजिक परिवेश के अनुसार संसद को निर्णय लेने देना चाहिए था।

न्यायालय द्वारा दिए गए तर्क और अनुपात और निर्णय का आलोचनात्मक विश्लेषण

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने, इस ऐतिहासिक फैसले में, भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को रद्द कर दिया, यह माना कि यह धारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन है और घोषित किया कि यह असंवैधानिक है। न्यायालय ने आगे कहा कि जब आईपीसी की धारा 497 के साथ पढ़ने की बात आती है तो सीआरपीसी की धारा 198(2) भी असंवैधानिक है। न्यायालय ने व्यभिचार को अपराध मानने के पक्ष में दिए गए सभी पिछले फैसलों को खारिज कर दिया और यह भी बताया कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने यौन जीवन के बारे में निर्णय लेने का पूरा अधिकार है। कोई भी गलत (जैसे आपराधिक प्रतिबंध) सार्वजनिक गलती होनी चाहिए, लेकिन जब व्यभिचार के मामलों की बात आती है, तो यह एक निजी गलती है। गरिमा का अधिकार कहता है कि किसी व्यक्ति को केवल तभी दंडित किया जाना चाहिए जब ऐसा करना आवश्यक हो और उन्हें दंडित करने का निर्णय लेने से पहले उचित विश्लेषण और पूछताछ की जानी चाहिए। इसके अलावा, किसी को भी किसी महिला के साथ संपत्ति के रूप में व्यवहार नहीं करना चाहिए।

ऐसा कानून काफी पुराना है और तब बनाया गया था जब कोई संविधान लागू नहीं हुआ था, इसलिए इसमें संशोधन करना होगा या इसे हटा देना होगा क्योंकि पितृसत्तात्मक कानून इस युग में ज्यादा महत्व नहीं रखते हैं। भले ही यौन बेवफाई का कार्य नैतिक रूप से गलत है, फिर भी इसे अपराध घोषित करने के लिए पर्याप्त स्थितियाँ नहीं हैं। हानि सिद्धांत को पूरा करने के लिए 3 तत्वों की आवश्यकता होती है, जिसके बिना कार्य को आपराधिक अपराध के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है, वे इस प्रकार हैं:

  1. चोट,
  2. एक गलत काम,
  3. सार्वजनिक तत्व।

इस प्रकार, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में सही ही बताया कि ऐसा कानून अत्यधिक भेदभावपूर्ण है और आधुनिक समय के साथ नहीं चलता है और इस प्रकार, इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। इस ऐतिहासिक फैसले के बाद, व्यभिचार को अब तलाक मांगने के लिए केवल एक आधार के रूप में उपयोग किया जाता है और अपने जीवनसाथी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ यौन गतिविधियों में शामिल व्यक्ति को दंडित नहीं किया जाएगा।

आगे बढ़ने का नया रास्ता

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह हाल ही का ऐतिहासिक निर्णय व्यभिचार कानूनों की प्रयोज्यता (एप्लिकेबिलिटी) पर प्रकाश डालता है और व्यभिचारी कार्य और निजता के अधिकार के बीच स्पष्ट संबंध की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है। इस फैसले के साथ, भले ही व्यभिचार को अब अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है, लेकिन आज भी इसे नैतिक गलत माना जाता है और तलाक लेने का आधार माना जाता है। नए कानून, यदि कोई बनाए जाने हैं, तो यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत पसंद और निजी स्थान का सम्मान किया जाए।

निष्कर्ष

उपरोक्त जानकारी से, हम निश्चित रूप से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल सकते हैं:

क्या रद्द किया गया?

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आईपीसी की धारा 497जो व्यभिचार को अपराध मानता था, के पुराने प्रावधान को रद्द कर दिया।

मामला क्या था?

इस धारा के साथ मुख्य समस्या यह थी कि यह महिलाओं को अपराध की शिकार और अपने पतियों की संपत्ति की तरह मानती थी। धारा 497 के अनुसार, यदि कोई पुरुष किसी महिला के साथ उसके पति की सहमति लेने के बाद यौन संबंध बनाता है तो यह अपराध नहीं है।

फैसले के बाद क्या हुआ?

फैसले ने व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से हटा दिया। इस फैसले के पारित होने के बाद, व्यभिचार तलाक के लिए आधारों में से एक था, लेकिन अब यह एक अपराध नहीं है, जिसके लिए 5 साल तक की कैद की सजा हो सकती थी।

सरकार का क्या मुद्दा था?

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष हलफनामे में कहा गया कि व्यभिचार के अपराध को कमजोर करना विवाह की पवित्रता के खिलाफ होगा।

इस फैसले का पालन करते समय किसी को क्या ध्यान रखना चाहिए? या वह कौन सी बात है जिसे किसी व्यक्ति या वकील या कानून के छात्र को ऐसे किसी मामले को पढ़ते समय ध्यान में रखना चाहिए?

भले ही धारा 497 को अब अपराध नहीं माना जाता है, यदि कोई व्यथित पति या पत्नी व्यभिचार के कारण आत्महत्या करता है, तो ऐसे कार्य को आत्महत्या के लिए उकसाने के रूप में माना जाएगा और व्यक्ति को ऐसा अपराध करने के लिए दंडित किया जा सकता है।

अंतिम लेकिन महत्वपूर्ण बात, कृपया याद रखें, “व्यभिचार आपको अदालत ले जा सकता है, जेल नहीं”।

आशा है कि इस लेख ने आपको ऐतिहासिक फैसले के बुनियादी विवरण को समझने में मदद की होगी। पढ़ने का आनंद लें! 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ का ऐतिहासिक मामला क्या था?

जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक मामले में सीआरपीसी की धारा 198(2) के साथ पढ़ी जाने वाली आईपीसी की धारा 497 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ता (जोसेफ शाइन) और उनके वकील ने तर्क दिया कि ऐसा कानून समानता और निजता के अधिकार जैसे भारत के सभी नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों के खिलाफ है।

मशहूर जोसेफ शाइन मामले में सर्वोच्च न्यायालय का क्या फैसला था?

इस ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 497 को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि यह असंवैधानिक थी। न्यायालय ने कहा कि ऐसी धारा पक्षपातपूर्ण है और महिलाओं को वस्तु तथा पत्नियों को अपने पतियों की संपत्ति मानती है, जिससे समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 497 को क्यों रद्द कर दिया?

सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने धारा 497 को असंवैधानिक, मनमाना और पक्षपातपूर्ण माना क्योंकि इसमें विवाह के दायरे से बाहर यौन गतिविधियों में शामिल होने के लिए केवल पुरुषों को दंडित किया गया था, महिलाओं को नहीं; वास्तव में, इसमें कहा गया है कि यदि पति अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ यौन क्रिया में शामिल होने के लिए सहमति देता है, तो यह कोई अपराध नहीं है। ये सभी मामले भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करते हैं।

क्या व्यभिचार के विरुद्ध भेदभाव ने भारतीय समाज को प्रभावित किया?

ऐतिहासिक फैसले ने घोषणा की कि व्यभिचार अब अपराध नहीं है, इस प्रकार पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समानता और निजता के अधिकार को समान रूप से मान्यता दी गई है। यह व्यक्तिगत संबंधों में व्यक्तिगत स्वायत्तता को पहचानने की दिशा में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है।

क्या व्यभिचार पर आधारित भेदभाव का, वैवाहिक संबंधों से संबंधित कानूनों पर कोई प्रभाव पड़ा?

भले ही फैसले ने व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से हटा दिया, लेकिन इसका सीधे तौर पर विवाह या तलाक से संबंधित कानूनों पर कोई स्पष्ट प्रभाव नहीं पड़ा। हालाँकि, इस तरह के कदम ने विवाहेतर संबंधों को अपराध मानने की सामाजिक धारणा को बदलकर वैवाहिक मामलों को प्रभावित किया होगा।

क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 497 रद्द कर दी गई है?

हां, जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 497 को रद्द या समाप्त कर दिया और व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है।

धारा 497 हटाए जाने से पहले, व्यभिचार करने की सज़ा क्या थी?

धारा 497 हटाए जाने से पहले, व्यभिचार एक अपराध था और इसमें 5 साल तक की कैद, जुर्माना और कभी-कभी दोनों की सजा हो सकती थी।

क्या जोसेफ शाइन के फैसले की किसी ने आलोचना की या विरोध किया?

इस बात पर कई बहसें हुईं कि क्या व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से हटाने से विवाह और पारिवारिक मूल्यों की पवित्रता कमजोर होगी। कुछ व्यक्तियों की राय है कि इस तरह के कदम से वैवाहिक सौहार्द पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। ऐसे फैसले के पक्ष में एक व्यक्ति का कहना है कि इस कदम से व्यक्ति के अधिकारों को मजबूती मिली है।

क्या 2018 में धारा 497 को अपराधमुक्त किए जाने के बाद इसे बदलने के लिए कोई नया कानून बनाया गया है?

नहीं, व्यभिचार को अपराध मानने वाले कानून के ख़त्म हो जाने के बाद, कोई नया कानून नहीं बनाया गया है। हालाँकि, गैर-अपराधीकरण के कारण व्यभिचार को एक आपराधिक गलती के बजाय एक नागरिक मामला (और तलाक लेने के आधारों में से एक) माना जाने लगा।

क्या फैसले से कोई वैश्विक प्रभाव पड़ा?

हां, इस फैसले ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया और इसे व्यक्तिगत मामलों में किसी व्यक्ति के अधिकारों को मान्यता देने की दिशा में एक कदम के रूप में देखा गया। इसने अन्य देशों में समान कानूनों और मानवाधिकार सिद्धांतों के साथ उनके संरेखण (अलाइनमेंट) पर चर्चा में योगदान दिया।

याचिकाकर्ता द्वारा धारा 497 के खिलाफ प्रमुख तर्क क्या थे?

याचिकाकर्ता के वकील की राय थी कि धारा 497 मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 14, 15 और 21) के कई पहलुओं का उल्लंघन करती है और यह एक पुराना कानून है जो तब लागू किया गया था जब कोई संविधान नहीं था, जिसकी आधुनिक युग में कोई प्रासंगिकता नहीं है।

प्रत्यर्थी द्वारा धारा 497 के समर्थन में प्रमुख तर्क क्या थे?

प्रत्यर्थी के वकील ने कहा कि धारा 497 एक अपराध है जो विवाह की संस्था को भी तोड़ सकता है, यही कारण है कि ऐसे कार्य को दंडित किया जाना चाहिए। वकील ने आगे तर्क दिया कि व्यभिचार नैतिक रूप से अपमानजनक है और ऐसा गलत करने वाले सभी अपराधियों पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए। काउंसिल ने यह भी पुष्टि की कि संविधान का अनुच्छेद 21 पूर्ण अधिकार नहीं है और उचित प्रतिबंध लगाए जाने चाहिए, खासकर ऐसे मामलों में जहां सार्वजनिक हित दांव पर हो।

ऐसा निर्णय पारित करने का क्या महत्व था?

इस ऐतिहासिक फैसले ने व्यक्तिगत स्वायत्तता और निजता अधिकारों के पहलू को मजबूत किया, जिससे यह निष्कर्ष निकला कि राज्य को किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन या रिश्तों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है जब तक कि यह एक नागरिक विवाद न हो।

क्या मैं भारत में व्यभिचार करने के लिए अपनी पत्नी पर मुकदमा कर सकता हूँ?

2018 में, व्यभिचार को अपराध मानने वाले कानून को अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया, और इस प्रकार, व्यभिचार अब अपराध नहीं है। यही कारण है कि कोई पति या पत्नी व्यभिचार करने के लिए अपने पति या पत्नी के खिलाफ मुकदमा या शिकायत दर्ज नहीं कर सकता है। हालाँकि, वह तलाक के लिए इसका दावा कर सकता है, क्योंकि यह अभी भी तलाक मांगने का एक आधार है और यह एक नागरिक गलती है।

क्या मैं व्यभिचार करने के लिए अपने जीवनसाथी को तलाक दे सकता हूँ?

हाँ, यदि उसके पति या पत्नी ने व्यभिचार किया है तो कोई तलाक के लिए आवेदन कर सकता है, क्योंकि यह तलाक मांगने का एक आधार है और एक नागरिक गलती है।

क्या धारा 497 में भेदभाव के कारण विवाहेतर संबंधों में वृद्धि हुई?

इस प्रश्न का उत्तर देने का कोई सीधा-सीधा तरीका नहीं है और न ही ऐसा कोई सर्वेक्षण किया गया है जिसने इस तरह की वृद्धि को दर्शाया हो। ऐसी धारा या गतिविधि को अपराधमुक्त करने से विवाहेतर संबंधों को बढ़ावा देने के बजाय व्यक्तिगत स्वायत्तता और समानता को मान्यता दी गई है।

संदर्भ

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