भारतीय संविधान का 7वां संशोधन

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Constitution of India

यह लेख डॉ. राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ के बीए एलएलबी के छात्र Sambit Rath द्वारा लिखा गया है। इस लेख में, लेखक का उद्देश्य भारतीय संविधान के 7वें संशोधन के इतिहास और उसके निहितार्थों (इंप्लीकेशंस) पर चर्चा करना है। इस लेख का अनुवाद Sameer Choudhary ने किया है।

Table of Contents

परिचय 

1895 में राज्य के लोगों की भाषा के आधार पर एक अलग राज्य की स्थापना के लिए आंदोलन शुरू किया गया था। यह इस तरह का पहला भाषाई आंदोलन था। भारत बहुत विविध (डाइवर्स) और समृद्ध संस्कृतियों, जिन्होंने वर्षों से यहां अपना स्थान पाया है, वाला देश रहा है। स्वाभाविक रूप से, विविधता के साथ भिन्नता आती है, और भारत कोई अपवाद नहीं है। पूरे भारत के इतिहास में युद्ध और लड़ाईयां इस तथ्य के प्रमाण रहे हैं। इस प्रकार, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी जब पूर्वी भारत के एक आधुनिक राज्य के लोगों ने अपनी मातृभाषा के आधार पर एक अलग राज्य की मांग उठाई। हम जिस राज्य की बात कर रहे हैं वह आधुनिक ओडिशा है। 

इसकी शुरुआत देश के एक हिस्से से हुई थी और उसके बाद हर दूसरी भाषाई बहुसंख्यक (लिंग्विस्टिक मेजोरिटी) अपना अलग राज्य चाहती थी। पूरे भारत के लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, संसद ने राज्य पुनर्गठन (रिऑर्गेनाइजेशन) अधिनियम, 1956 को अधिनियमित किया था। लेकिन प्रस्तावित बदलाव केवल कानून बनाकर नहीं किए जा सकते थे। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता थी और उसी वर्ष, संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 अधिनियमित किया गया था। भाषाई आधार पर राज्यों को विभाजित करने के लक्ष्य के साथ-साथ संविधान के कई अन्य अनुच्छेदों में संशोधन किया जाना था।

इतिहास

लोकमान्य तिलक देशी भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के पहले प्रस्तावक (प्रोपोनेंट) थे। यह 1891 की शुरुआत ही थी। 1947 तक, प्रमुख ऐतिहासिक घटनाएं हुईं जिन्होंने धीरे-धीरे इस एजेंडा को देश के सभी हिस्सों में फैला दिया। 1940 के दशक में, आज जो राज्य हैं, वे प्रांत (प्रोविंस) थे, जिन्हे भारतीय संघ में एकीकृत (इंटीग्रेटेड) किया जाना था। स्वतंत्रता के बाद, प्रांतों को राजनीतिक रूप से संघ में एकीकृत कर दिया गया था। इनमें विंध्य प्रदेश, मैसूर, भोपाल, मध्य भारत आदि शामिल थे। लेकिन विभाजन के ताजा घावों ने सरकार को पुनर्गठन के निर्णय पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर कर दिया। यह मुख्य रूप से इसलिए था क्योंकि भाषाई रूप से एकीकृत राज्यों से विद्रोह का डर था। इससे देश की एकता बिगड़ सकती थी। आजादी के बाद आंध्र का पुनर्गठन एक चर्चा का विषय बन गया। इस प्रकार 17 जून 1948 को धार आयोग (कमिशन) को राज्यों के पुनर्गठन के मामले को देखने के लिए राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा स्थापित किया गया था। लेकिन समिति की सिफारिशों से जनता की असहमति के कारण, एक नई स्थापना की गई, जिसे जेवीपी समिति कहा गया।   

1950 में भारत के संविधान को अपनाने पर, राज्यों को चार प्रकारों भाग A, B, C और D में विभाजित किया गया, 1 अक्टूबर, 1953 को, आंध्र भाषाई आधार पर पुनर्गठित होने वाला पहला राज्य बन गया। ऐसा होते ही पूरे देश में विरोध शुरू हो गया, भाषाई समूहों ने अलग राज्यों की मांग की। इसे देखते हुए भारत सरकार ने राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया जिसका नेतृत्व फजल अली कर रहे थे। इसने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की। सरकार ने कुछ मामूली बदलावों के साथ सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 और 7 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1956 को अधिनियमित किया। इनके माध्यम से, भाग-A और भाग-B राज्यों के बीच के अंतर को हटा दिया गया और भाग-C और भाग-D राज्यों को समाप्त कर दिया गया। 1 नवंबर 1956 को कुछ राज्यों को मिलाकर 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश (यूनियन टेरिटरी) बनाए गए।

राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956

राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 भारत में राज्यों के गठन में बड़े सुधार लाया। अधिनियम द्वारा कई बदलाव पेश किए गए जिससे ज्यादातर आधुनिक राज्यों का गठन हुआ। इन बदलावों के बाद भी, बाद के वर्षों में कई अन्य राज्यों का पुनर्गठन किया गया और आज तक 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश मौजूद हैं। 

राज्यों का पिछला वर्गीकरण

इससे पहले कि हम देखें कि कौन से परिवर्तन पेश किए गए थे, आइए देखें कि वास्तव में क्या बदला जा रहा था। जैसा कि हमने पहले देखा, राज्यों को 4 प्रकारों में वर्गीकृत किया गया था:

भाग-A राज्य 

  • जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था तब ये पूर्व राज्यपालों (गवर्नर) के प्रांत थे। 
  • एक निर्वाचित (इलेक्टेड) राज्यपाल एक राज्य विधानमंडल (लेजिस्लेचर) के साथ प्रांत पर शासन करते थे।
  • इन राज्यों में बॉम्बे, मद्रास, असम, बिहार, मध्य प्रदेश (पहले मध्य प्रांत और बरार), पंजाब (पहले पूर्वी पंजाब), उत्तर प्रदेश (पहले संयुक्त प्रांत), उड़ीसा और पश्चिम बंगाल शामिल थे।

भाग-B राज्य  

  • ये पूर्व रियासतें (प्रिंसली स्टेट) या रियासतों के समूह थे।
  • एक राजप्रमुख (एक संविधान राज्य का शासक और एक निर्वाचित विधायिका) राज्य पर शासन करता था। राज्यपालों की तरह, भारत के राष्ट्रपति द्वारा एक राजप्रमुख की नियुक्ति की जाती थी।
  • इन राज्यों में पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ (पीईपीएसयू), हैदराबाद, जम्मू और कश्मीर और त्रावणकोर-कोचीन, मध्य भारत, मैसूर, राजस्थान और सौराष्ट्र शामिल थे।

भाग-C राज्य  

  • ये पूर्व मुख्य आयुक्तों (चीफ कमिश्नर) और कुछ रियासतों द्वारा शासित प्रांत थे।
  • भारत के राष्ट्रपति मुख्य आयुक्त की नियुक्ति करते थे।
  • इन राज्यों में अजमेर, भोपाल, बिलासपुर, कुर्ग, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, कच्छ, मणिपुर, त्रिपुरा और विंध्य प्रदेश शामिल थे।

भाग-D राज्य  

  • यह राज्य एक उपराज्यपाल (लेफ्टिनेंट गवर्नर) द्वारा शासित थे।
  • उपराज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती थी।
  • इसमें अंडमान और निकोबार द्वीप समूह शामिल थे। 

यह अधिनियम और 7वां संशोधन राज्यों के पुनर्गठन के लिए लागू हुए थे। इसने पहले राज्यों के भागों में विभाजन को समाप्त करके राज्यों के पुनर्गठन का प्रस्ताव रखा। भाग A और भाग B राज्यों को सिर्फ “राज्यों” से बदल दिया गया था। केंद्र शासित प्रदेशों ने भाग C और भाग D राज्यों को बदल दिया था। इस अधिनियम ने राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जिसमें केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में लक्काडिव, मिनिकॉय और अमीनदीवी द्वीप समूह, हिमाचल प्रदेश और त्रिपुरा को शामिल किया गया था। कुल 14 राज्यों को जोड़ा गया था। ये आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, बॉम्बे, जम्मू और कश्मीर, केरल, मध्य प्रदेश, मद्रास, मैसूर, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल थे।

केरल का गठन त्रावणकोर – कोचीन राज्य को मद्रास के मालाबार जिले और दक्षिण केनरा के कासरगोड (ब्रिटिश भारत के मद्रास राज्य का एक जिला) के साथ मिलाकर किया गया था। सौराष्ट्र और कच्छ राज्यों को बॉम्बे में मिला दिया गया, और कूर्ग को मैसूर राज्य में जोड़ा गया था। अजमेर राज्य को राजस्थान में मिला दिया गया था। आंध्र प्रदेश बनाने के लिए हैदराबाद राज्य के तेलुगु भाषी क्षेत्रों को आंध्र राज्य में मिला दिया गया था। मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और भोपाल को मिलाकर मध्य प्रदेश बनाया गया था।

भारतीय संविधान का 7वां संशोधन

संवैधानिक (7वां संशोधन) अधिनियम, 1956 को राज्यों के पुनर्गठन अधिनियम 1956 के लिए रास्ता बनाने के लिए अधिनियमित किया गया था। अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के लिए भारतीय संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में बदलाव की आवश्यकता थी। इसने विभिन्न राज्यों के लिए नई सीमाएँ निर्धारित करने के लिए पहली अनुसूची में अनुच्छेदों को संशोधित किया। इसने चौथी अनुसूची को भी संशोधित किया जिसके द्वारा राज्यों की परिषद में सीटें मौजूदा राज्यों को आवंटित (अलॉट) की जाती हैं। पहले भाग-A और भाग-B के प्रत्येक राज्य की जनसंख्या के अनुसार, पहले पांच मिलियन के लिए एक सीट प्रति मिलियन, और प्रत्येक अतिरिक्त दो मिलियन या दस लाख से अधिक के हिस्से के लिए एक सीट आवंटित की जाती थी। 

इसके साथ ही, इसने अन्य प्रावधानों में भी बदलाव किए जिन्हें कुशलता से काम करने के लिए कुछ बदलाव की आवश्यकता थी। इसने राज्यपाल की शक्तियों और विधान परिषदों से संबंधित अनुच्छेदों में परिवर्तन किया। तो इसका मुख्य उद्देश्य राज्यों का पुनर्गठन था और इन नए राज्यों के उचित शासन की सुविधा के लिए अन्य सहायक संशोधन किए गए थे। 

भारतीय संविधान के 7वें संशोधन में संशोधित अनुच्छेद

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1

अनुच्छेद 1 में किए गए संशोधनों में भागों के आधार पर राज्यों के विभाजन को समाप्त करना शामिल था। राज्यों और प्रांतों को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुनर्गठित किया गया था। भाग A और भाग B राज्यों को अब “राज्यों” से बदल दिया गया था। केंद्र शासित प्रदेशों ने भाग C और भाग D राज्यों को बदल दिया था। 14 राज्यों और 5 केंद्र शासित प्रदेशों को जोड़ा गया था।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 153

प्रारंभ में, जब संविधान लागू हुआ, तो अनुच्छेद 153 में प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल की नियुक्ति (अपॉइंटमेंट) का प्रावधान था। इस अनुच्छेद के मूल संस्करण (वर्जन) में कहा गया है, “प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा।” 

राज्यपाल को राज्य का संवैधानिक प्रमुख माना जाता है और वह राष्ट्रपति की तरह ही मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य होता है। एक राज्य के राज्यपाल की भूमिका राज्य सरकार के लिए वही होती है जो राष्ट्रपति की केंद्र सरकार के लिए होती है। तो उनकी भूमिका और शक्ति दोनों एक ही प्रकृति की हैं। इसके साथ ही राज्यपाल केंद्र और राज्य सरकार के बीच एक  संबंध बनाता है। 

प्रत्येक राज्य के लिए राज्यपाल की नियुक्ति अक्षमता (इनएफिशिएंसी) का मुद्दा बन गई है। यह पाया गया कि एक राज्यपाल 2 या अधिक राज्यों का प्रभार (चार्ज) ले सकता है जो प्रत्येक राज्य और क्षेत्र के लिए राज्यपाल नियुक्त करने की आवश्यकता को समाप्त कर देगा। प्रशासनिक दक्षता (एडमिनिस्ट्रेटिव एफिशिएंसी) में सुधार के लिए एक से अधिक राज्यों को राज्यपाल को आवंटित करना अधिक तार्किक (लॉजिकल) था। अनुच्छेद के प्रावधान के कारण राष्ट्रपति उस पर आगे नहीं बढ़ सके। इसलिए, एक संशोधन आवश्यक था और 7वें संविधान संशोधन द्वारा, अनुच्छेद 153 को संशोधित किया गया ताकि जहां भी आवश्यक हो, एक राज्यपाल को एक से अधिक राज्यों के आवंटन की अनुमति दी जा सके। इसमें कहा गया है, “बशर्ते कि इस अनुच्छेद में कुछ भी एक ही व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त करने से नहीं रोकेगा। इस प्रकार, राष्ट्रपति अब एक राज्यपाल को एक से अधिक राज्य आवंटित कर सकते है।” 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 168(1)(A)

उक्त प्रावधान कुछ राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिकाओं (बाईकैमरल लेजिस्लेचर) का प्रावधान करता है। नए गठित मध्य प्रदेश के लिए द्विसदनीय (बाइकैमरल) विधायिका जोड़ने और “मद्रास” शब्द के बाद “मैसूर” शब्द डालने के लिए इसमें संशोधन किया गया था।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 171

यह अनुच्छेद राज्य की विधान परिषद की अधिकतम शक्ति से संबंधित है। इससे पहले, विधान परिषदों में सीटों की ऊपरी सीमा विधान सभा की कुल संख्या की एक चौथाई थी। इस व्यवस्था के साथ समस्या यह थी कि केवल उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्य को ही इस फॉर्मूला से लाभ हो सकता था क्योंकि यह पर्याप्त है। लेकिन छोटे राज्यों के लिए ऐसा नहीं था। 

इसलिए, प्रत्येक विधान परिषद में संतुलन बनाने के लिए इस फॉर्मूला को संशोधित करने की आवश्यकता थी। प्रस्ताव के आधार पर, अधिकतम संख्या को एक तिहाई कर दिया गया जो विधानसभा की कुल संख्या के 33% के बराबर है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 216

यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को आवश्यकता पड़ने पर उच्च न्यायालय में जितने ज़रूरत हो उतने न्यायाधीश नियुक्त कर सकते है उतने न्यायाधीश नियुक्त करने की अनुमति देता है और प्रत्येक उच्च न्यायालय के लिए न्यायाधीशों की अधिकतम संख्या भी निर्धारित करता है। चूंकि अधिकतम संख्या को कभी भी बदला जा सकता है, इसलिए इसे व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) नहीं माना गया और इस प्रकार छोड़ दिया गया। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 217(1)

अनुच्छेद 217 के खंड (1) को “अतिरिक्त या कार्यवाहक (एक्टिंग) न्यायाधीश के मामले में, जैसा कि अनुच्छेद 224 में प्रदान किया गया है, और किसी भी अन्य मामले में” प्रावधान के मौजूदा शब्दों में इन शब्दों को जोड़ने के लिए संशोधित किया गया था, “जब तक वह साठ साल की उम्र प्राप्त नहीं कर लेता तब तक पद धारण करेगा”।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 222

इस अनुच्छेद में, खंड (1) में “भारत के क्षेत्र के भीतर” शब्दों को हटाने और खंड (2) को पूरी तरह से हटाने के लिए संशोधन किया गया था। यह न्यायाधीशों को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरित (ट्रांसफर) करने की राष्ट्रपति की शक्ति से संबंधित है। खंड (2) को हटा दिया गया क्योंकि स्थानांतरण के मामले में भत्ता (एलाउंस) प्रदान करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 230 और अनुच्छेद 231

ये अनुच्छेद राज्यों में उच्च न्यायालयों की स्थापना से संबंधित हैं। पहले, एक राज्य में केवल एक उच्च न्यायालय की स्थापना की जा सकती थी। इन अनुच्छेदों के संशोधित होने के बाद, दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक सामान्य उच्च न्यायालय की स्थापना की जा सकती थी। एक उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिकशन) को जहां आवश्यक हो, एक केंद्र शासित प्रदेश तक बढ़ाया जा सकता है।

भारतीय संविधान के 7वें संशोधन में शामिल किए गए नए अनुच्छेद

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 258A

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 258(1) किसी राज्य सरकार या उसके अधिकारियों को संघ के कार्य सौंपने की राष्ट्रपति की शक्ति से संबंधित है। जैसा कि हमने ऊपर देखा, राज्यपाल के पास राष्ट्रपति के समान प्रकृति की शक्तियाँ हैं। यदि राष्ट्रपति संघ के कार्यों को राज्य सरकार को सौंप सकता है, तो राज्यपाल को राज्य के कार्यों को केंद्र सरकार या उसके अधिकारियों को सौंपने में सक्षम होना चाहिए। प्रशासन के सुचारू कामकाज को सुनिश्चित करने और केंद्र और राज्य के अधिकारियों के बीच सामंजस्य (कोहेशन) स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है। केंद्र सरकार या उसके अधिकारियों को संघ के कार्य सौंपने के लिए एक राज्य के राज्यपाल को सशक्त बनाने के लिए  अनुच्छेद 258A डाला गया था।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 290A

यह अनुच्छेद केरल राज्य और मद्रास राज्य की संचित निधि (कंसोलिडेटेड फंड) से कुछ देवस्वम निधियों के वार्षिक भुगतान को सुनिश्चित करने के लिए जोड़ा गया था ताकि उस राज्य के स्थानांतरित क्षेत्रों में हिंदू मंदिरों और तीर्थस्थलों का रखरखाव किया जा सके।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350A और 350B

इन अनुच्छेदों को अनुच्छेद 350 के बाद डाला गया था। अनुच्छेद 350A में मातृभाषा में शिक्षा के प्रावधान के लिए प्राथमिक स्तर की स्कूली शिक्षा में पर्याप्त सुविधाएं प्रदान की गई थीं। अनुच्छेद 350B में राष्ट्रपति द्वारा भाषाई अल्पसंख्यकों (माइनोरिटीज़) के लिए एक विशेष अधिकारी जिसका कर्तव्य भाषाई अल्पसंख्यकों की रक्षा करना और उससे संबंधित मुद्दों की रिपोर्ट राष्ट्रपति को देना है, की नियुक्ति का प्रावधान है।

भारतीय संविधान के 7वें संशोधन में प्रतिस्थापित (सब्सटीट्यूटेड) अनुच्छेद

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 131

भाग B राज्यों के गायब होने के कारण इस अनुच्छेद के तहत प्रावधान को संशोधित किया गया था। यह सर्वोच्च न्यायालय के मूल अधिकार क्षेत्र से संबंधित है। चूंकि भाग B राज्यों को बदल दिया गया था, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में संशोधन की आवश्यकता थी।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 220

इससे पहले, संविधान के अनुच्छेद 220 के तहत एक प्रावधान उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) के बाद अभ्यास करने से रोकता था। संशोधन के बाद, उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय और वह उच्च न्यायालय जिसमें वे स्थायी न्यायाधीश थे को छोड़ कर अन्य उच्च न्यायालयों में अभ्यास कर सकते हैं। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 224

इस प्रतिस्थापित अनुच्छेद, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अनुपस्थिति या उपलब्धत न होने के मामले में अतिरिक्त और कार्यवाहक न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है। राष्ट्रपति को ऐसे अतिरिक्त या कार्यवाहक न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का अधिकार है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 230 और अनुच्छेद 231

ये अनुच्छेद राज्यों में उच्च न्यायालयों की स्थापना से संबंधित हैं। पहले एक राज्य में केवल एक उच्च न्यायालय की स्थापना की जा सकती थी। इन अनुच्छेदों के संशोधित होने के बाद, दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक सामान्य उच्च न्यायालय की स्थापना की जा सकती थी। एक उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को जहां आवश्यक हो, एक केंद्र शासित प्रदेश तक बढ़ाया जा सकता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 239 और अनुच्छेद 240

ये अनुच्छेद राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त प्रशासक द्वारा केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन और उनके लिए नियम बनाने की राष्ट्रपति की शक्ति से संबंधित हैं।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 298

इस प्रतिस्थापित अनुच्छेद ने व्यापार और व्यावसायिक गतिविधियों में संलग्न (इंगेज) होने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की शक्ति का विस्तार किया है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 81 और 82

केंद्र शासित प्रदेशों के लिए प्रावधान करने के लिए अनुच्छेद 81 के खंड 2 और अनुच्छेद 82 को संयुक्त और संशोधित करने का प्रस्ताव किया गया था। केंद्र शासित प्रदेशों को सौंपे गए प्रतिनिधियों की कुल संख्या के लिए संसद अधिकतम संख्या तय करेगी। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 371

अनुच्छेद 371 को एक नए अनुच्छेद के साथ प्रतिस्थापित किया गया, जिसने आंध्र प्रदेश, पंजाब और बॉम्बे राज्यों के लिए एक विशेष प्रावधान बनाया, जहां राष्ट्रपति किसी राज्य की विधान सभा की क्षेत्रीय समितियों के गठन के लिए प्रावधान कर सकते थे।

निष्कर्ष

संवैधानिक (7वां संशोधन) अधिनियम, 1956 ने भारत के संविधान में कई बदलाव लाए। इन बदलावों में से ज्यादातर ने बहुत सी गलतियों को ठीक किया जो संबंधित विषयों के महत्वपूर्ण कार्यों को प्रतिबंधित कर रहे थे। प्राथमिक लक्ष्य भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन करना था। जब लोगों को एकजुट करने की बात आती है तो यह वास्तव में एक महत्वपूर्ण पहलू है। चाहे उनकी जाति, पंथ या धर्म कुछ भी हो, भाषा ही लोगों को करीब लाती है। इस आधार पर राज्यों के विभाजन को दुर्भाग्यपूर्ण नहीं माना जाना चाहिए। इस व्यवस्था ने वास्तव में विभिन्न भाषाएं बोलने वाले लोगों के बीच तनाव कम कर दिया है क्योंकि अब उनके पास अपनी जमीन है। भारत अब सही मायने में राज्यों का संघ है। इस प्रकार, यह “विविधता में एकता” की भारत की अनोखी विशेषता को सटीक रूप से प्रदर्शित करता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

1956 में भारतीय संविधान के किस भाग को हटा दिया गया था?

संविधान के गठन के दौरान शुरू में कुल 22 भाग थे। भाग VII, जो भाग-B राज्यों से संबंधित है, को संविधान (7वां संशोधन) अधिनियम, 1956 द्वारा हटा दिया गया था।

संविधान (7वां संशोधन) अधिनियम, 1956 का उद्देश्य क्या था?

संविधान (7वां संशोधन) अधिनियम, 1956 को राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 द्वारा सुझाए गए बदलावों को लागू करने के लिए अधिनियमित किया गया था। अधिनियम के प्रावधानों में संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता थी ताकि वे प्रभावी हो सकें।

संविधान (7वां संशोधन) अधिनियम, 1956 में और कौन से बड़े बदलाव लाए गए?

संविधान (7 वां संशोधन) अधिनियम, 1956 ने न्यायपालिका की संस्था में बड़े बदलाव लाए। इसने उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को अन्य उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय में अभ्यास जारी रखने में सक्षम बनाया। इसने एक उच्च न्यायालय को एक से अधिक राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों तक विस्तारित अधिकार क्षेत्र रखने में भी सक्षम बनाया।

कौन सी अनुसूचियां 7वें संविधान संशोधन का हिस्सा थीं?

7वें संविधान संशोधन में अनुच्छेद 258A, 290A, 298, 350A, 350B, 371, 372A और 378A को शामिल किया गया और भाग 8 और अनुसूची 1, 2, 4 और 7 में संशोधन किया गया। अनुसूची 1, जो राज्यों और उनके अधिकार क्षेत्र से संबंधित है, को पूरी तरह से संशोधित किया गया था। और अनुसूची 4 जो राज्यों की परिषद में सीटों के आवंटन को निर्धारित करती है, को पूरी तरह से संशोधित किया गया था। अनुसूची 1 में राज्यों की स्थिति में बदलाव के कारण संघ और राज्यों के बीच शक्तियों के आवंटन से संबंधित अनुसूची 7 को भी संशोधित किया गया था।

संदर्भ 

  • भारत का संविधान

 

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