भारतीय संविधान का 25वाँ संशोधन

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Constitution of India

यह लेख एमिटी यूनिवर्सिटी कोलकाता, भारत की छात्रा Abanti Bose द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारतीय संविधान के 25वें संशोधन के कारणों, प्रभावों और संवैधानिकता सहित इस संशोधन की विस्तृत समझ प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

परिचय

भारत का संविधान पूरी दुनिया में सबसे व्यापक संविधान है। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने इसे यथासंभव अनुकूलनीय बनाया ताकि आवश्यकता पड़ने पर इसमें संशोधन किया जा सके। अनुच्छेद 368 के तहत, संसद के पास संविधान के कुछ प्रावधानों को संशोधित या निरस्त करने की शक्ति है।

25वां संवैधानिक संशोधन जिसे संविधान (25वां संशोधन) अधिनियम, 1971 के रूप में जाना जाता है, जिसे आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ, (1970) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए पारित किया गया था।

इससे पहले, संविधान के अनुच्छेद 31 में संपत्ति का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया था और कहा गया था कि कोई भी व्यक्ति जिसकी संपत्ति सरकार द्वारा अधिग्रहित (एक्वायर) की गई थी, वह पर्याप्त मुआवजे का हकदार था। हालाँकि, इस संशोधन के साथ, इसने अनुच्छेद में “मुआवजा” शब्द को “राशि” से प्रतिस्थापित (सब्स्टीट्यूट) कर दिया, जिसका अर्थ था कि सरकार सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए भूमि मालिकों की संपत्ति के अधिग्रहण या मांग के मामलों में केवल नाममात्र राशि का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगी। संशोधन में अनुच्छेद 31C भी शामिल किया गया है जिसमें अनुच्छेद 39 (a) और (b) के तहत उद्देश्यों को लागू करने के लिए पारित किसी भी कानून का उल्लेख किया गया है, जिस पर अनुच्छेद 14, 19 और 31 के तहत मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए अदालत के समक्ष सवाल नहीं उठाया जा सकता है, चुनौती नहीं दी जा सकती है या समीक्षा (रिव्यू) नहीं की जा सकती है। इस प्रकार, मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के बीच संबंध बदल रहा है और न्यायपालिका और संसद के बीच झगड़ा पैदा हो रहा है।

अंततः, 44वें संशोधन ने संपत्ति के अधिकार को अनुच्छेद 300A के तहत संवैधानिक अधिकार के रूप में मौलिक अधिकार से बदल दिया।

संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन की प्रक्रिया

अनुच्छेद 368 भारत के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया के बारे में बताता है। संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन के चरण नीचे उल्लिखित हैं:

  1. किसी संवैधानिक प्रावधान में संशोधन के लिए विधेयक (बिल) संसद के किसी भी सदन में पेश किया जाता है।
  2. विधेयक को पूर्ण और विशेष बहुमत, यानी कुल बहुमत (रिक्तियों या अनुपस्थिति की परवाह किए बिना) और दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान करने वाले दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाना चाहिए।
  3. अब, यदि संसद संशोधन करना चाहती है;

तो ऐसे संशोधनों को कम से कम आधे राज्य विधानमंडलों द्वारा अनुमोदित (अप्रूव) किया जाना चाहिए।

4. अंत में, विधेयक को भारत के राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है जो अपनी सहमति देंगे और विधेयक में बताई गई शर्तों के अनुरूप संवैधानिक प्रावधान में संशोधन किया जाता है।

आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ, (1970) के बारे में संक्षिप्त जानकारी 

1955 में, भारतीय स्टेट बैंक अधिनियम, 1955 के तहत भारतीय इंपीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण (नेशनलाइजेशन) कर दिया गया और इसकी सात सहायक कंपनियों को भी सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया। आरबीआई ने भारत में वाणिज्यिक (कमर्शियल) बैंकिंग संगठनों की संख्या को 1951 में 566 से घटाकर वर्ष 1969 के अंत तक केवल 89 करने के लिए प्रमुख कदम उठाए।

भारत के तत्कालीन कार्यवाहक (एक्टिंग) राष्ट्रपति, न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्लाह ने बैंकिंग कंपनी (संपत्ति का अधिग्रहण और हस्तांतरण (ट्रांसफर)) अध्यादेश (ऑर्डिनेंस), 1969 जारी किया। अध्यादेश की विशेषताएं नीचे सूचीबद्ध हैं:

  1. अध्यादेश में चौदह बैंकों को सूचीबद्ध किया गया था जिनका राष्ट्रीयकरण किया जाना था। इन बैंकों को उनके पास जमा राशि के आधार पर चुना गया था। जमा का न्यूनतम मानदंड 50 करोड़ रुपये रखा गया था। 
  2. इन बैंकों के सभी निदेशकों (डायरेक्टर) को अपने कार्यालय खाली करने के लिए कहा गया था। लेकिन अन्य कर्मचारी भारत सरकार के अधीन काम करते रहे थे।
  3. अध्यादेश की दूसरी अनुसूची में मुआवजे का उल्लेख किया गया था जिसे राष्ट्रीयकृत बैंकों को भुगतान किया जाना माना गया था। अध्यादेश में पीड़ित बैंकों को मुआवजा प्रदान करने के दो प्रमुख तरीकों का उल्लेख किया गया था, जैसे;
  • जहां मुआवजे की राशि एक समझौते द्वारा तय की जा सकती है; तो मुआवज़ा ऐसे समझौते द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
  • यदि निर्दिष्ट अवधि में कोई समझौता नहीं हो सका तो मामला न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) में भेजा जाएगा। न्यायाधिकरण द्वारा तय किया गया मुआवजा समझौता विफल होने की तारीख से 10 साल बाद दिया जाएगा।

इसके बाद जब संसद सत्र शुरू हुआ तो इंदिरा गांधी सरकार ने सभी समान प्रावधानों के साथ ‘बैंकिंग कंपनी (संपत्ति का अधिग्रहण और हस्तांतरण) अधिनियम, 1969’ बनाया जैसा कि अध्यादेश में कहा गया था।

श्री कूपर, जो भारतीय सेंट्रल बैंक लिमिटेड के निदेशक थे, और उनके पास भारतीय सेंट्रल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा लिमिटेड और भारतीय बैंक लिमिटेड जैसे कई बैंकों में शेयर भी थे, ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की जिसमें दावा किया गया कि संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(f) और 31(2) के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया है। याचिकाकर्ता ने आगे सवाल उठाया कि क्या अध्यादेश ठीक से प्रख्यापित (प्रोमुलगेट) किया गया था और क्या मुआवजा सुनिश्चित करने की प्रक्रिया वैध थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक शेयरधारक अपनी कंपनी के नाम पर मौलिक अधिकारों के प्रशासन के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) नहीं है, जब तक कि जिस कार्रवाई की शिकायत की जा रही है, वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करती है। न्यायालय ने आगे कहा कि यह अधिनियम अनुच्छेद 31 का उल्लंघन है क्योंकि यह संपत्ति के मालिक की अर्जित संपत्ति के मुआवजे के बारे में बात करता है। इसलिए, अदालत ने उक्त अधिनियम को रद्द कर दिया क्योंकि उक्त प्रावधान का स्पष्ट उल्लंघन था। हालाँकि, न्यायालय ने कहा कि अधिनियम अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन नहीं है क्योंकि राज्य को किसी भी व्यवसाय पर पूर्ण या आंशिक रूप से एकाधिकार (मोनोपॉली) प्राप्त करने का अधिकार है।

भारतीय संविधान के 25वें संशोधन का कारण क्या था

संविधान (25वाँ संशोधन) अधिनियम, 1971 संसद द्वारा 20 अप्रैल, 1972 को पारित किया गया था। इसने आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970), के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले जहां सर्वोच्च न्यायालय ने कानून यानी बैंकिंग कंपनी (संपत्ति का अधिग्रहण और हस्तांतरण) अधिनियम, 1969 को रद्द कर दिया क्योंकि यह भारतीय संविधान का उल्लंघन करता था, को उलटने की मांग की। इस प्रकार, इसने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए 25वें संवैधानिक संशोधन को पारित करने के लिए संसद को प्रेरित किया।

25वें संवैधानिक संशोधन का उद्देश्य सार्वजनिक उपयोग के लिए संपत्ति के अधिग्रहण के लिए मुआवजे की मात्रा निर्धारित करने की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति को छीनना था। इसने भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अर्जित या मांगी गई संपत्ति के लिए ‘मुआवजा’ शब्द को ‘राशि’ शब्द में संशोधित किया।

अधिनियम ने संविधान के अनुच्छेद 31 में भी संशोधन किया और अनुच्छेद 31C पेश किया, जिससे नागरिकों को अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 या अनुच्छेद 31 के तहत संपत्ति के अधिग्रहण से संबंधित चुनौतीपूर्ण कानूनों से प्रभावी ढंग से रोका गया।

भारतीय संविधान के 25वें संशोधन को समझना

अनुच्छेद 31

संशोधन से पहले अनुच्छेद 31 न केवल निजी स्वामित्व के अधिकार की गारंटी देता था बल्कि उचित प्रतिबंधों के अलावा किसी भी प्रतिबंध के बिना संपत्ति का आनंद लेने और निपटान करने का अधिकार भी देता था। इसमें व्यक्त किया गया कि कानून के अधिकार के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा और यदि किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित किया गया है तो वे पर्याप्त मुआवजे के लिए उत्तरदायी होगे।

संविधान (25वाँ संशोधन) अधिनियम, 1971 में लाए गए संशोधन

  1. 25वें संवैधानिक संशोधन ने राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को प्रभावी बनाने के रास्ते में आने वाली जटिलताओं को दूर करने का प्रयास किया। अनुच्छेद 31 के खंड (2) में, संपत्ति के अधिग्रहण के लिए “मुआवजा” शब्द को “राशि” शब्द से बदल दिया गया था। इसमें आगे कहा गया कि उक्त राशि का भुगतान नकद के अलावा किसी अन्य तरीके से किया जा सकता है। इसे इस प्रकार पढ़ा गया-

“(2) किसी भी संपत्ति को सार्वजनिक उद्देश्य के अलावा और किसी कानून के अधिकार के अलावा अनिवार्य रूप से अर्जित या अधिग्रहीत नहीं किया जाएगा, जो उस राशि के लिए संपत्ति के अधिग्रहण का प्रावधान करता है जो ऐसे सिद्धांतों के अनुसार निर्धारित की जा सकती है और ऐसे तरीके से दी जा सकती है जो ऐसे कानून में निर्दिष्ट किया जा सकता है; और किसी भी अदालत में ऐसे किसी भी कानून पर इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जाएगा कि इस तरह तय या निर्धारित की गई राशि पर्याप्त नहीं है या ऐसी पूरी राशि या उसका कोई भाग नकद के अलावा किसी अन्य रूप में दिया गया हैं। 

बशर्ते कि अनुच्छेद 30 के खंड (1) में निर्दिष्ट अल्पसंख्यक (माइनॉरिटी) द्वारा स्थापित और प्रशासित किसी शैक्षणिक संस्थान की किसी भी संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण के लिए प्रदान करने वाला कोई भी कानून बनाने में, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसे कानून द्वारा निर्धारित राशि के लिए ऐसी संपत्ति का अधिग्रहण ऐसा है जो उस खंड के तहत गारंटीकृत अधिकार को प्रतिबंधित या निरस्त नहीं करेगा।”

2. खंड (2B) को खंड (2A) के बाद जोड़ा गया था जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 19(1)(f) सार्वजनिक उद्देश्य के लिए संपत्ति के अधिग्रहण से संबंधित किसी भी कानून पर लागू नहीं होगा।

3. विधेयक में एक नया अनुच्छेद भी पेश किया गया है जो अनुच्छेद 31C है, जिसमें अनुच्छेद 39 के खंड (b) और (c) में निहित निदेशक सिद्धांतों को प्रभावी करने के लिए पारित किसी भी कानून का उल्लेख है और इसमें इस आशय की घोषणा भी शामिल है, कि अनुच्छेद 14, 19 या 31 में निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने पर ऐसे कानून को न्यायालय द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती या उसकी समीक्षा नहीं की जा सकती है।

विश्लेषण

विधायिका द्वारा इस तरह के संशोधन का प्रभाव मौलिक अधिकारों पर राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को प्राथमिकता देना है। संशोधन से पहले, मौलिक अधिकार राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों पर हावी थे, और यदि कोई कानून मौलिक अधिकारों के किसी भी प्रावधान का खंडन या उल्लंघन करता है तो उसे रद्द कर दिया जाएगा। लेकिन 25वें संवैधानिक संशोधन ने इस गतिशीलता को चुनौती दी क्योंकि अनुच्छेद 31C ने अनुच्छेद 39 के खंड (b) और (c) को अनुच्छेद 14, 19 और 31 पर प्राथमिकता दी।

अनुच्छेद 31C में यह भी उल्लेख किया गया है कि अनुच्छेद 39(b) और (c) के तहत नीति निदेशक को प्रभावी बनाने के लिए बनाया गया कोई भी कानून न्यायिक समीक्षा के लिए खुला नहीं होगा।

अनुच्छेद 31C की संवैधानिकता

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, (1973)

इस मामले में, केशवानंद भारती केरल के एक धार्मिक संप्रदाय एडनीर मठ के प्रमुख थे। 1969 में, केरल राज्य सरकार ने भूमि सुधार संशोधन अधिनियम, 1969 पेश किया, जिससे सरकार को उस संप्रदाय की कुछ भूमि का अधिग्रहण करने में मदद मिली, जिसमें केशवानंद भारती प्रमुख थे।

इसके बाद, केशवानंद भारती अपने अधिकारों को लागू करने के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में चले गए, जिसकी गारंटी अनुच्छेद 25, 26, 14, 19 और 31 के तहत दी गई थी। और इस प्रकार इस मामले के दौरान, 25वें संवैधानिक संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह माना गया कि संसद संविधान की मूल संरचना में संशोधन नहीं कर सकती है जिससे यह अपना सार खो देगा। इस प्रकार, संसद मौलिक अधिकारों में तब तक संशोधन कर सकती है जब तक वह संविधान की मूल संरचना में परिवर्तन नहीं करती है। 25वें संवैधानिक संशोधन ने मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के बीच की गतिशीलता को बदल दिया, जिससे निदेशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों की तुलना में प्राथमिकता दी गई। इसके बाद, न्यायालय ने 25वें संवैधानिक संशोधन के दूसरे भाग को रद्द कर दिया, और दो शर्तों के अधीन पहले भाग को बरकरार रखा; सबसे पहले, सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए संपत्ति के अधिग्रहण के बाद भूमि मालिकों को दी जाने वाली “राशि” अनुचित नहीं होनी चाहिए और दूसरा, प्रावधान न्यायिक समीक्षा से वर्जित नहीं है।

निष्कर्ष

हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद को पर्याप्त शक्ति दी ताकि वे बदलते समय के साथ इसमें संशोधन कर सकें। हालाँकि, अप्रतिबंधित शक्ति होने से अग्रणी (लीडिंग) पार्टी का अधिनायकवादी (टोटेलिटेरिएन) शासन भी हो सकता है, जिससे नागरिकों को ऐसे कानूनों पर सवाल उठाने से रोका जा सकता है। 25वां संवैधानिक संशोधन ऐसे नियम का एक उदाहरण है, जिसने नागरिकों को भारत सरकार द्वारा संपत्ति के अधिग्रहण से संबंधित किसी भी कानून पर सवाल उठाने से रोक दिया है। 25वें संवैधानिक संशोधन ने न केवल संविधान की मूल संरचना को बदल दिया बल्कि न्यायपालिका पर विधायिका की सर्वोच्चता भी स्थापित की। हालाँकि, न्यायपालिका ने भारत के संविधान की मूल संरचना को बहाल करने के लिए ऐतिहासिक निर्णयों के साथ आवश्यक कदम उठाए है।

संदर्भ

 

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