यह लेख नोएडा के एमिटी लॉ स्कूल की छात्रा Priyal Jain ने लिखा है। इस लेख का उद्देश्य यह समझाना है कि रिट क्या हैं, उनका अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिकशन), रिट के प्रकार, रिट से संबंधित कानूनी प्रावधान, किन परिस्थितियों में रिट लागू की जा सकती हैं, और साथ ही प्रासंगिक निर्णयों के साथ इससे संबंधित अन्य महत्वपूर्ण पहलू पर भी चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
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परिचय
भारत के संविधान के अनुच्छेद 12–35 के तहत प्रत्येक नागरिक को कुछ मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गई है। हालाँकि, केवल मौलिक अधिकार देना ही पर्याप्त नहीं है; उन्हें संरक्षित भी किया जाना चाहिए। इसलिए, मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक उपाय दिया गया है, जो सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर रिट जारी करने का अधिकार देता है। भारत में जारी रिट को विशेषाधिकार (प्रीरोगेटिव) रिट कहा जाता है। एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ, 1997 के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि भारत के नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए रिट जारी करने की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति का एक हिस्सा बुनियादी संरचना सिद्धांत है, और इसलिए इस शक्ति को कभी भी संशोधित या समाप्त नहीं किया जा सकता है।
एक रिट अधिकार क्षेत्र क्या है?
सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करता है। इसे भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों का “गारंटर” और “रक्षक” माना जाता है। इसमें पांच प्रकार की रिट जारी करने की शक्ति है; बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस), परमादेश (मैंडेमस), यथा वारंटो (क्यो वारंटो), उत्प्रेषण (सर्शियोरारी), और निषेध (प्रोहिबीशन)। एक रिट एक उच्च प्राधिकारी (अथॉरिटी) (सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय) का एक आदेश है जो किसी व्यक्ति को एक निश्चित कार्य करने से रोकने या करने का निर्देश देता है। किसी भी व्यक्ति द्वारा एक रिट याचिका दायर की जा सकती है जब राज्य द्वारा उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है।
विभिन्न प्रकार की रिट
पांच प्रकार की रिट हैं जो भारतीय संविधान द्वारा जनता को उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने की स्थिति में गारंटी के रूप में दी जाती है। नीचे उल्लिखित पांच प्रकार की रिट है जिन्हे अलग-अलग परिस्थितियों में जारी किया जाता है, और उनमें से प्रत्येक के अलग-अलग अध्यारोपण (इंप्यूटेशन) हैं।
- बंदी प्रत्यक्षीकरण एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है “एक शरीर रखना”
- परमादेश एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है “आदेश देना”
- यथा वारंटो एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है “किस अधिकार से”
- उत्प्रेषण एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है “प्रमाणित (सर्टिफाई) करना”
- निषेध एक अंग्रेजी शब्द है जिसका अर्थ है “रोकना या प्रतिबंध लगाना”
बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट
वाक्यांश ‘बंदी प्रत्यक्षीकरण’ को इसके लंबे रूप में कहा जाता है- “हैबियस कॉर्पस कोरम नोबिस एड सबजीसीएंडम,” जिसका अर्थ है “आपके पास हमारे सामने प्रस्तुत करने के लिए शरीर होना चाहिए।”
यह रिट, हिरासत में अवैध रूप से लिए गए व्यक्ति की रिहाई में मदद करती है। इस रिट के आधार पर, कोई भी व्यक्ति जो या तो पुलिस या न्यायिक हिरासत या निजी हिरासत में है, उसे कानून की अदालत में पेश किया जाता है और अगर ऐसी हिरासत अवैध पाई जाती है तो कैदी को रिहा कर दिया जाता है। सबूत का भार सरकारी अधिकारी या निजी व्यक्ति, जो किसी व्यक्ति को अपनी हिरासत में लेता है, के पास होता है। संविधान के अनुच्छेद 20 में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को खुद के खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है और किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार या उससे अधिक बार दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। इस अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि किसी व्यक्ति को केवल एक निश्चित अपराध के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है, यदि अपराध के समय, ऐसा कानून मौजूद है जिसका इस तरह के अपराध के द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है। इस रिट का इस्तेमाल संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गैरकानूनी हिरासात के खिलाफ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को लागू करने के लिए किया जाता है।
रिट याचिका हिरासत में लिए गए व्यक्ति द्वारा स्वयं या उसकी ओर से उसके किसी मित्र या रिश्तेदार द्वारा दायर की जा सकती है। रिट सार्वजनिक प्राधिकरणों और निजी व्यक्तियों दोनों के खिलाफ जारी की जा सकती है।
किन स्थितियों में इस रिट को जारी किया जा सकता है?
- जब हिरासत कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार नहीं होती है।
- जब किसी ऐसे कानून के तहत गिरफ्तारी की जाती है जो अपने आप मे असंवैधानिक है।
- जब कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन सही तरह से नहीं किया जाता है।
किन परिस्थितियों में रिट जारी नहीं की जा सकती है?
- आपातकाल की उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) के दौरान रिट उपलब्ध नहीं होती है।
- यदि सक्षम न्यायालय द्वारा रिट याचिका खारिज कर दी जाती है तो रिट उपलब्ध नहीं होती है।
- रिट तब उपलब्ध नहीं होती जब व्यक्ति की हिरासत न्यायालय के आदेश से संबंधित हो।
- रिट तब उपलब्ध नहीं होती है जब आवश्यक साक्ष्य प्रदान करके व्यक्ति की कैद को कानूनी दिखाया जाता है।
उदाहरण – राम, एक व्यक्ति, को पुलिस अधिकारी B ने, गिरफ्तार करने के वारंट के बिना पुलिस हिरासत में ले लिया। B ने राम को मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया और उसके परिवार के सदस्यों को भी राम के बारे में जानने की अनुमति नहीं दी। B, राम को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रहा था। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि B ने राम को गलत तरीके से हिरासत में लिया है, और उसकी ओर से राम के परिवार द्वारा बंदी प्रत्यक्षीकरण की एक रिट जारी की जा सकती है।
प्रासंगिक निर्णय
- कानू सान्याल बनाम जिला मजिस्ट्रेट दार्जिलिंग और अन्य (1974) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह आयोजित किया गया था कि यह रिट एक प्रक्रियात्मक रिट है न कि मूल रिट। न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी मामले के तथ्यों के अनुसार हिरासत की वैधता की जांच करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
- लालूभाई जोगीभाई पटेल बनाम भारत संघ और अन्य (1980) के मामले में, यह माना गया कि दूसरी रिट याचिका जारी नहीं की जा सकती है यदि इसे पहली रिट याचिका के आधार पर दायर किया जाता है। हालांकि, अगर कुछ अतिरिक्त आधार हैं जो पहली याचिका में उचित आधार पर उल्लेख करने से चूक गए थे, तो तब माननीय न्यायालय द्वारा दूसरी रिट याचिका पर विचार किया जा सकता है। इस मामले में, रिट याचिका, हिरासत के आदेश को चुनौती देते हुए दायर की गई थी, जो याचिकाकर्ता को कुछ आधारों पर प्राप्त हुई थी। बाद में, कुछ और अतिरिक्त आधार जोड़े गए और इस प्रकार याचिकाकर्ता द्वारा बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी करने के लिए एक दूसरी याचिका दायर की गई थी।
- सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन, (1979) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट के दायरे को बड़ा दिया और कहा कि यह रिट न केवल गैरकानूनी हिरासत के मामले में जारी की जा सकती है, बल्कि इसमें अधिकारियों द्वारा हिरासत में रहते हुए कैदियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के खिलाफ भी जारी की जा सकती है, यानी की इस रिट में कैदियों की सुरक्षा का भी प्रावधान है।
परमादेश की रिट
यह रिट उच्च प्राधिकारी की अदालत द्वारा निचली अदालतों, या किसी अन्य लोक सेवक, जो अपने कर्तव्य का पालन करने में विफल रहे है, को अपने अनिवार्य सार्वजनिक कर्तव्य को सही ढंग से और कुशलता से करने का निर्देश देते हुए जारी की जाती है। यह रिट अंतिम उपाय है, अर्थात यह तभी जारी की जाती है जब समस्या को हल करने के अन्य सभी प्रयास कर लिए गए हों। यह रिट किसी भी प्रकार के प्राधिकरण जैसे की विधायी, न्यायिक, अर्ध-न्यायिक (क्वासी ज्यूडिशियल) या प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) के खिलाफ जारी की जा सकती है।
यह रिट याचिका किसी भी व्यक्ति द्वारा दायर की जा सकती है, जो सद्भाव में, सार्वजनिक प्राधिकरण से ठीक से काम कराना चाहता है। यह रिट किसी भी व्यक्ति या सार्वजनिक प्राधिकरण के खिलाफ जारी की जा सकती है जो अपने अनिवार्य सार्वजनिक कर्तव्य का पालन करने में विफल रहा है।
किन स्थितियों में यह रिट जारी की जा सकती है?
- जिस व्यक्ति या किसी सार्वजनिक प्राधिकरण के खिलाफ रिट जारी की जानी है, उसे एक निश्चित कर्तव्य का पालन करने के लिए कानून द्वारा किसी दायित्व के तहत होना चाहिए, जिसे करने में वह विफल रहा है या उसकी उपेक्षा की है।
- सार्वजनिक कर्तव्य प्रकृति में अनिवार्य होना चाहिए, और इस तरह के अनिवार्य कार्य को करने में उसके द्वारा विफलता होनी चाहिए।
- याचिकाकर्ता को इस तरह के सार्वजनिक कर्तव्य के प्रदर्शन के लिए बाध्य करने का कानूनी अधिकार होना चाहिए।
किन परिस्थितियों में रिट जारी नहीं की जा सकती है?
- यह रिट उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए बाध्य करने के विरुद्ध जारी नहीं की जा सकती है।
- यह रिट भारत के राष्ट्रपति और किसी भी राज्य के राज्यपाल (गवर्नर) के खिलाफ जारी नहीं की जा सकती है, जो उन्हें अपना कर्तव्य निभाने के लिए मजबूर करे।
- यह रिट भारत के कार्यकारी (वर्किंग) मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ जारी नहीं की जा सकती है, जिससे उन्हें अपना कर्तव्य निभाने के लिए मजबूर किया जा सके।
- यह रिट तब जारी नहीं की जा सकती जब कर्तव्य की प्रकृति विवेकाधीन हो।
- यह रिट किसी निजी व्यक्ति के खिलाफ जारी नहीं की जा सकती है।
- यह रिट एक निजी अनुबंध को लागू करने के लिए जारी नहीं की जा सकती है।
उदाहरण- चुनाव कराने, पंचायतों और नगर पालिकाओं के विघटन (डिसोल्यूशन) को रोकने, या सार्वजनिक कार्यालयों की बहाली (रेस्टोरेशन) जैसे कुछ सार्वजनिक कर्तव्यों के प्रदर्शन को मजबूर करने के लिए रिट जारी की जा सकती है।
प्रासंगिक निर्णय
- ई.ए. को-ऑपरेटिव सोसाइटी बनाम महाराष्ट्र राज्य, (1966) के मामले में, राज्य सरकार ने निचले अधिकारियों के आदेश को संशोधित करने के अधिकार क्षेत्र से इनकार किया था। इसमें मुद्दा प्रतिवादी को सोसायटी में सदस्यता प्रदान करने का था, जिसे पहले अस्वीकार कर दिया गया और फिर सोसायटी के रजिस्ट्रार द्वारा स्वीकार कर लिया गया। इसलिए, इस रिट को जारी करने के लिए संबंधित उच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर किया गया था, जिसमें विफल रहने पर प्रतिवादी विशेष अनुमति याचिका द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह निर्धारित किया गया था कि जहां एक लोक सेवक ने अपने अधिकार क्षेत्र से इनकार किया है, जो कि कानून के तहत है वहां परमादेश की रिट जारी की जा सकती है ।
- सोहनलाल बनाम भारत संघ, (1957) के मामले में, भारत सरकार ने पाकिस्तान के शरणार्थियों को प्लाट आवंटित (अलॉट) किए, बशर्ते वे सरकार द्वारा निर्धारित पात्रता मानदंडों (क्राइटेरिया) को पूरा करते हों। हालाँकि, अपीलकर्ता को उसके आवंटित प्लाट से बेदखल कर दिया गया था और इस प्रकार उसके द्वारा इस रिट को जारी करने के लिए एक याचिका दायर की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि निजी व्यक्ति के खिलाफ परमादेश की रिट जारी की जा सकती है, बशर्ते निजी व्यक्ति का सार्वजनिक प्राधिकरण में विलय (मर्ज) हो।
- मंजुला मंजरी बनाम सार्वजनिक निर्देश निदेशक (डायरेक्टर ऑफ़ पब्लिक इंस्ट्रक्शन) (डीपीआई), (1952) के मामले में, उड़ीसा उच्च न्यायालय ने डीपीआई के खिलाफ याचिकाकर्ता की पुस्तक को अपनी अनुमोदित (अप्रूव्ड) पुस्तकों की सूची में शामिल करने का आदेश देने के लिए एक रिट जारी करने से इनकार कर दिया क्योंकि यह एक विवेकाधीन कर्तव्य था और प्रकृति में अनिवार्य नहीं था। याचिकाकर्ता का तर्क था कि अगले वर्ष के लिए स्वीकृत पुस्तकों की सूची में उसकी पुस्तक को शामिल नहीं किए जाने पर उसे पैसे के मामले में काफी नुकसान हुआ था।
यथा वारंटो की रिट
यह रिट लोक सेवकों या किसी निजी व्यक्ति से यह साबित करने के लिए जारी की जाती है कि वे किस अधिकार के तहत एक निश्चित सार्वजनिक पद धारण कर रहे हैं। सबूत का भार संबंधित व्यक्ति के पास होता है। हालांकि, यदि संबंधित व्यक्ति अपने अधिकार को साबित करने में विफल रहता है, तो उसे सार्वजनिक पद से हटाया जा सकता है। यह रिट किसी भी व्यक्ति को बिना किसी अधिकार के सार्वजनिक कार्यालय को गलत तरीके से हड़पने से रोकती है।
यह रिट याचिका किसी भी व्यक्ति द्वारा दायर की जा सकती है जिसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है, या जनहित में भी जारी की जा सकती है। सार्वजनिक कार्यालय (सार्वजनिक या निजी व्यक्ति) के किसी भी गैरकानूनी धारक के खिलाफ रिट जारी की जा सकती है।
किन स्थितियों में रिट जारी की जा सकती है?
- कानून द्वारा बनाए गए एक सार्वजनिक कार्यालय का अस्तित्व होना चाहिए।
- सार्वजनिक कार्यालय मूल और स्थायी प्रकृति का होना चाहिए।
- एक सार्वजनिक कार्यालय में पद एक निजी व्यक्ति द्वारा अवैध रूप से धारण किया जाना चाहिए।
- किसी व्यक्ति को संबंधित सार्वजनिक कार्यालय में नियुक्त करने में कानून का उल्लंघन किया जाना चाहिए।
- सार्वजनिक कार्यालय से उत्पन्न होने वाले कर्तव्य प्रकृति में सार्वजनिक होने चाहिए।
किन परिस्थितियों में रिट जारी नहीं की जा सकती है?
- यदि इस रिट के जारी होने से याचिकाकर्ता को कोई राजनीतिक लाभ होता है तो यह रिट जारी नहीं की जा सकती है।
- यह रिट किसी भी राज्य मंत्री के खिलाफ जारी नहीं की जा सकती है।
उदाहरण- यदि A, एक लोक सेवक, अपनी सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) के बाद भी एक सार्वजनिक पद धारण करता है, तो उसके खिलाफ यह रिट जारी की जा सकती है क्योंकि उसके पास अब ऐसा सार्वजनिक पद धारण करने का कोई अधिकार नहीं है।
प्रासंगिक निर्णय
- अमरेंद्र चंद्र बनाम नरेंद्र कुमार बसु, 1952 के मामले में, प्रतिवादी ने गलत तरीके से खुद को एक निजी स्कूल की कुछ प्रतिद्वंद्वी (राइवल) प्रबंध (मैनेजमेंट) समिति में भर्ती कराया, और प्रतिवादियों के समिति का हिस्सा होने की प्रक्रिया में कई कथित खामियां थीं। कोलकाता के माननीय उच्च न्यायालय ने माना कि एक निजी कार्यालय को हड़पने के खिलाफ यथा वारंटो की रिट जारी नहीं की जा सकती है।
- मैसूर विश्वविद्यालय बनाम सी.डी गोविंदा राव, 1963 के मामले में, विश्वविद्यालय ने एक ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया था जो पद के लिए आवश्यक पात्रता मानदंडों को पूरा नहीं कर रहा था। जिसके परिणामस्वरूप, इस रिट को जारी करने के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन प्रस्तुत किया गया था जिसमें कहा गया था कि जिस कार्यालय के खिलाफ यथा वारंट जारी करने की प्रार्थना की गई है वह “मूल” प्रकृति का होना चाहिए।
- महेश चंद्र गुप्ता बनाम डॉ राजेश्वर दयाल और अन्य 2003, के मामले में, एक मेडिकल कॉलेज में प्रतिवादी की नियुक्ति पर सवाल उठाया गया था, लेकिन प्रतिवादी और नियुक्ति के बीच कोई संबंध नहीं पाया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की राय थी कि यथा वारंटो रिट जारी करने के लिए याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के बीच कुछ संबंध होना चाहिए।
उत्प्रेषण की रिट
यह रिट उच्च न्यायालयों (सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों) द्वारा जारी की जाती है, जो निचली अदालत को किसी विशेष मामले को विचार के लिए उच्च न्यायालय में स्थानांतरित (ट्रांसफर) करने का निर्देश देती है। उच्च न्यायालयों को अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) न्यायालयों द्वारा पहले से पारित आदेश को रद्द करने का भी अधिकार है। इस रिट का उद्देश्य निचले स्तर पर न्यायपालिका द्वारा की गई गलतियों को सुधारना है।
निचली अदालतों द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ किसी भी पीड़ित व्यक्ति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों में एक रिट याचिका दायर की जा सकती है।
किन स्थितियों में रिट जारी की जा सकती है?
- यह रिट तब जारी की जा सकती है जब कोई व्यक्ति कानूनी अधिकार से बाध्य हो।
- यह रिट तब जारी की जा सकती है जब ऐसा व्यक्ति अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर कार्य करता है।
- यह रिट तब जारी की जा सकती है जब न्यायिक रूप से कार्य करने वाला व्यक्ति कानून की त्रुटि करता है।
- यह रिट तब जारी की जा सकती है जब ऐसे व्यक्ति ने धोखाधड़ी की हो या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया हो।
किन परिस्थितियों में रिट जारी नहीं की जा सकती है?
- यह रिट उन मामलों में जारी नहीं की जा सकती है जब न्यायाधीश समीक्षा (रिव्यू) के अनुरोध को स्वीकार करने से इंकार कर देते है।
- यह रिट तब जारी नहीं की जा सकती जब इसका एकमात्र उद्देश्य न्यायालय का समय और प्रयास बर्बाद करना हो।
उदाहरण – जब निचली अदालत के फैसले से किसी भी पक्ष के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो पीड़ित पक्ष उत्प्रेषण की रिट दायर कर सकता है।
प्रासंगिक मामले
- नूर मोहम्मद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2020), के मामले में, शिकायतकर्ता की बहन ने अपनी शादी के दो साल के भीतर दहेज की मांग के लिए अपीलकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों द्वारा प्रताड़ित किए जाने के कारण आत्महत्या कर ली। सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना था कि मुख्य रूप से निचली अदालतों द्वारा की गई अधिकार क्षेत्र संबंधी त्रुटियों में संशोधन करने के लिए उत्प्रेषण की रिट जारी की जा सकती है।
- सैयद याकूब बनाम के.एस राधाकृष्णन और अन्य (1963), के मामले में, अपीलकर्ता को सभी आवश्यक योग्यताओं को पूरा करने के बाद भी, संबंधित अधिकारियों द्वारा दो स्टेज वाली गाड़ी को एक्सप्रेस सेवा के रूप में चलाने की अनुमति नहीं दी गई थी। नतीजतन, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया गया था जिसमें कहा गया था कि इस रिट को जारी करने से केवल कानून की एक त्रुटि को ठीक किया जा सकता है, न कि तथ्य की त्रुटि के।
- ए. रंगा रेड्डी बनाम सहकारी विद्युत आपूर्ति समिति के महाप्रबंधक (जनरल मैनेजर ऑफ़ कोऑपरेटिव इलेक्ट्रिक सप्लाई सोसायटी) (1987) के मामले में, राज्य में होने वाली सहकारी समितियों के चुनाव की मांग करते हुए विभिन्न अपीलें की गई थीं। हालांकि, आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने माना कि किसी निजी व्यक्ति के खिलाफ उत्प्रेषण की रिट जारी नहीं की जा सकती है।
निषेध की रिट
यह रिट निचली अदालत या न्यायाधीकरण (ट्रिब्यूनल) को अपने अधिकृत (ऑथराइज्ड) अधिकार क्षेत्र से परे कार्य करने से रोकने के लिए जारी की जाती है। इस रिट के जारी होने के बाद, निचली अदालत में कार्यवाही तुरंत बंद हो जाती है, और मामला उस प्राधिकारी को स्थानांतरित कर दिया जाता है जिसके पास मामले पर अधिकार क्षेत्र होता है। इस रिट को “स्टे ऑर्डर” भी कहा जा सकता है।
यह रिट अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर काम करने वाले किसी भी न्यायिक या अर्ध-न्यायिक निकाय के खिलाफ जारी की जा सकती है। यह रिट उन्हीं स्थितियों में जारी की जा सकती है जिनमें कानून की त्रुटि के मामलों को छोड़कर, उत्प्रेषण की रिट जारी की जाती है।
प्रासंगिक निर्णय
- एस. गोविंदा मेनन बनाम भारत संघ, (1967) के मामले में अपीलकर्ता के खिलाफ बेईमानी के कई आरोप लगाए गए थे, जिनकी जांच भी सरकार द्वारा की जानी थी। नतीजतन, उनके खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही को रद्द करने के लिए एक रिट याचिका दायर की गई थी। केरल उच्च न्यायालय ने माना कि निषेध की रिट दोनों स्थितियों में यानी की अधिकार क्षेत्र से अधिक या अधिकार क्षेत्र की अनुपस्थिति में जारी की जा सकती है।
- हरि विष्णु बनाम सैयद अहमद इशाक (1954) के मामले में, अपीलकर्ता को मध्य प्रदेश राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले राज्यसभा के चुनाव के लिए नामित किया गया था। अपीलकर्ता ने चुनाव जीता, लेकिन एक मुद्दा उठाया गया कि मतपत्रों में विशिष्ट अंक नहीं थे, और अपीलकर्ता का चुनाव समाप्त कर दिया गया था। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उत्प्रेषण और निषेध की रिट के बीच अंतर दिया गया था। अदालत की राय थी कि किसी विशेष मामले का फैसला सुनाए जाने के बाद ही उत्प्रेषण की रिट दायर की जा सकती है, और इसके विपरीत, जब किसी विशेष मामले का फैसला अभी भी लंबित है, तो निषेध की रिट दायर की जा सकती है। अदालत ने आगे फैसला सुनाया कि नए सिरे से चुनाव होना चाहिए।
- प्रूडेंशियल कैपिटल मार्केट्स लिमिटेड बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य (2000) के मामले में, जिला फोरम या राज्य आयोग को प्रतिवादी की किसी भी शिकायत को संबोधित करने से रोकने के लिए विभिन्न याचिकाएँ दायर की गईं। आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने कहा कि उन मामलों में निषेध की रिट जारी नहीं की जा सकती है जहां जिला फोरम या राज्य आयोग पहले ही फैसला दे चुके है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत कानूनी प्रावधान
अनुच्छेद 32 भारतीय संविधान के भाग III में दिया गया है, जो व्यक्तियों को उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की अनुमति देता है। भारतीय संविधान के पिता डॉ बीआर अंबेडकर ने एक बार कहा था कि “अनुच्छेद 32 भारतीय संविधान का दिल और आत्मा है।” इस अनुच्छेद के तहत सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान की गई शक्तियाँ निम्नलिखित हैं:
- सर्वोच्च न्यायालय के पास भारत के नागरिकों द्वारा लोकस स्टैंडी को शिथिल (रिलैक्स) करने और जनहित याचिका (पीआईएल) की अनुमति देने की शक्ति है। सर्वोच्च न्यायालय बंधुआ मजदूरी, विचाराधीन (अंडर ट्रायल) कैदियों या न्यायेतर (एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल) हत्याओं आदि के शिकार के लोगों को राहत प्रदान कर सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय के पास अनुकरणीय (एक्सेमप्लरी) हर्जाना देने की भी शक्ति है।
- भीम सिंह बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य के मामले में, भीम सिंह के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया था क्योंकि उन्हें 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया था। इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य को भीम सिंह को अनुकरणीय हर्जाना देने का आदेश दिया था।
- रुदुल साह बनाम बिहार राज्य के मामले में, रुदुल शाह के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया था क्योंकि उन्हें राज्य द्वारा अवैध रूप से हिरासत में लिया गया था। इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य को रुदुल शाह को अनुकरणीय हर्जाना देने का आदेश दिया था।
3. सर्वोच्च न्यायालय के पास किसी भी मौलिक अधिकार को लागू करने के लिए रिट या आदेश जारी करने की शक्ति है।
4. उपाय की मांग करने वाले व्यक्तियों के अधिकारों को केवल भारत के राष्ट्रपति द्वारा देश में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा के दौरान निलंबित (सस्पेंड) किया जा सकता है (अनुच्छेद 359)।
5. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि जहां अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों में जाकर राहत दी जा सकती है, वहां पीड़ित पक्ष को पहले उच्च न्यायालय का रुख करना होगा।
6. संसद सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति को आवश्यक अधिकार क्षेत्र वाले किसी अन्य प्राधिकरण को भी हस्तांतरित कर सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के रिट अधिकार क्षेत्र के बीच अंतर
अंतर के आधार | सर्वोच्च न्यायालय | उच्च न्यायालय |
दायरा | सर्वोच्च न्यायालय की रिट जारी करने की शक्ति सीमित है। | उच्च न्यायालय की रिट जारी करने की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति की तुलना में व्यापक है। |
प्रावधान | रिट जारी करने की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 में किया गया है। | रिट जारी करने की उच्च न्यायालय की शक्ति का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 में किया गया है। |
प्रकृति | अनुच्छेद 32 भारत के संविधान के भाग III में वर्णित एक मौलिक अधिकार है, जिसकी गारंटी देश के सभी नागरिकों को है। यह बुनियादी संरचना सिद्धांत का भी एक हिस्सा है। | अनुच्छेद 226 नागरिकों को गारंटीकृत मौलिक अधिकार नहीं है। |
अधिकार क्षेत्र | रिट जारी करने का सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र पूरे देश में फैला हुआ है। | रिट जारी करने का उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र केवल उस राज्य या केंद्र शासित प्रदेश तक सीमित है जो संबंधित उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता है। |
रिट कब जारी की जा सकती है? | सर्वोच्च न्यायालय केवल तभी रिट जारी कर सकता है जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो। | उच्च न्यायालय दो परिस्थितियों में रिट जारी कर सकता है- जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है या जब किसी व्यक्ति के कानूनी अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो कानून के तहत ऐसे मामले में रिट जारी करना एक उचित उपाय है। |
निष्कर्ष
रिट जारी करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के सबसे महत्वपूर्ण अधिकारो में से एक है। मेरी राय में, रिट जारी करना देश के नागरिकों को उनकी सुरक्षा के लिए प्रदान की जाने वाली सबसे बड़ी सुरक्षा है। इसलिए, पीड़ित पक्षों के लिए त्वरित और निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने के लिए अदालत को इस अधिकार का उपयोग सावधानी से करना चाहिए। किसी को भी उच्च न्यायालयों की इस शक्ति का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए, और रिट जारी करने के लिए केवल उचित मुद्दों पर विचार किया जाना चाहिए। अंत में, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, (1973) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय की अब तक की सबसे बड़ी 13 न्यायाधीशों की पीठ ने फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 32 बुनियादी संरचना सिद्धांत का एक हिस्सा है, और इस प्रकार यह संसद की संशोधन की शक्ती से परे है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या जिला न्यायालय रिट जारी कर सकता है?
जिला न्यायालय केवल तभी रिट जारी कर सकता है जब जिला न्यायाधीश को संसद द्वारा ऐसा करने का अधिकार हो। यह जनता को निष्पक्ष और त्वरित न्याय प्रदान करने में मदद करता है।
क्या कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ओर से रिट याचिका दायर कर सकता है?
हां, कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ओर से रिट याचिका दायर कर सकता है।
भारतीय संविधान का कौन सा अनुच्छेद उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है?
उच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत न केवल उन स्थितियों में रिट जारी कर सकते हैं जहां किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है बल्कि अन्य स्थितियों में भी कर सकती है।
किस रिट को पोस्टमॉर्टम के रूप में जाना जाता है?
यथा वारंटो की रिट को पोस्टमॉर्टम के रूप में जाना जाता है।
संदर्भ
- https://indianexpress.com/article/explained/article-32-and-supreme-court-fundamental-rights-7055040/