यह लेख हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के Arush Mittal द्वारा लिखा गया है। यह लेख उस प्रक्रिया से संबंधित है जब दंड प्रक्रिया संहिता के तहत 24 घंटे के भीतर अन्वेषण (इन्वेस्टिगेशन) पूरी नहीं की जा सकती। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
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परिचय
हिरासत में रखे गए व्यक्ति को आगे की पूछताछ के लिए पुलिस हिरासत में भेजा जा सकता है। दोषसिद्धि प्रक्रिया से पहले किसी व्यक्ति को आगे की पूछताछ के लिए हिरासत में रखने की प्रक्रिया को प्रतिप्रेषण (रिमांड) के रूप में जाना जाता है। जब पुलिस किसी व्यक्ति को बिना किसी वारंट के किसी अपराध के संदेह में गिरफ्तार करती है और ऐसी गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर यह अन्वेषण पूरी नहीं होती है, तो पुलिस को उस व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है। यह मजिस्ट्रेट या तो न्यायिक हिरासत या पुलिस हिरासत देगा ताकि अन्वेषण को आगे बढ़ाया जा सके। आरोपी को हिरासत में भेजने का मुख्य उद्देश्य उस अन्वेषण को सफलतापूर्वक पूरा करना है जो 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं हो सकी।
इस लेख में उस प्रक्रिया के बारे में बात की गई है जिसका पालन तब किया जाता है जब पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर अन्वेषण पूरी नहीं की जा सकती।
पुलिस द्वारा अन्वेषण
पुलिस के पास बिना वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है। लेकिन, सी.आर.पी.सी. की धारा 41 एक अपवाद है। इस धारा में उन परिस्थितियों का उल्लेख है जब पुलिस वारंट जारी किए बिना गिरफ्तारी कर सकती है। ऐसे अपवाद बनाने का मुख्य उद्देश्य किसी व्यक्ति को आवश्यकता के समय गिरफ्तार करना था। यह गिरफ्तारी मजिस्ट्रेट से वारंट जारी किए बिना भी की जा सकती है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 56 के अनुसार, बिना वारंट के आरोपी को गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी को उस व्यक्ति को बिना किसी देरी के मजिस्ट्रेट या थाने के प्रभारी अधिकारी के पास ले जाना चाहिए। जमानत के प्रावधानों के अनुसार, गिरफ्तार व्यक्ति को उस पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी या उस मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाना चाहिए, जिसके पास उस मामले में क्षेत्राधिकार हो।
पुलिस द्वारा अन्वेषण के संबंध में सी.आर.पी.सी. की धारा 57 सबसे महत्वपूर्ण धारा है। इस प्रावधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बिना वारंट के पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के समय से 24 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जाना चाहिए। पुलिस द्वारा इस 24 घंटे की अवधि को तब तक पार नहीं किया जा सकता जब तक कि मजिस्ट्रेट द्वारा विशेष आदेश न दिया गया हो जो आरोपी को 24 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में रहने की अनुमति देता है। मजिस्ट्रेट द्वारा सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत आरोपी को 24 घंटे की सीमा से अधिक अवधि के लिए पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में रखने के लिए विशेष आदेश दिया जाता है।
जब अन्वेषण 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं हो पाती तो क्या प्रक्रिया अपनाई जाती है
सी.आर.पी.सी. की धारा 167 उस प्रक्रिया के बारे में बात करती है जब अन्वेषण चौबीस घंटे की समय सीमा के भीतर पूरी नहीं हो पाती।
यदि किसी व्यक्ति को पुलिस द्वारा बिना वारंट के गिरफ्तार किया जाता है और आरोपी व्यक्ति की अन्वेषण 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं हो पाती है जो कि धारा 57 द्वारा तय है, लेकिन पुलिस अधिकारी को लगता है कि आरोप सही है, तो डायरी की एक प्रति निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को प्रेषित करनी होगी और आरोपी को मजिस्ट्रेट के पास भेजना होगा।
यदि अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाता है, जिसके पास ऐसे मामले पर अधिकार क्षेत्र है, तो मजिस्ट्रेट अभियुक्त को और अधिक हिरासत में रखने की अनुमति दे सकता है, जो 15 दिनों से अधिक नहीं होनी चाहिए। लेकिन यदि मजिस्ट्रेट के पास उस मामले पर अधिकार क्षेत्र नहीं है, तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास भेज देता है, जिसके पास ऐसा अधिकार क्षेत्र है।
मजिस्ट्रेट आरोपी की हिरासत अवधि को 15 दिन और बढ़ा सकता है, अगर उसे लगता है कि ऐसा करने के लिए पर्याप्त आधार हैं। सी.आर.पी.सी. की धारा 167(2)(a) के प्रावधान के अनुसार, इसे और बढ़ाया जा सकता है:
- यदि पुलिस द्वारा की जा रही अन्वेषण किसी ऐसे अपराध से संबंधित है जो दस वर्ष से अधिक कारावास, आजीवन कारावास या मृत्युदंड से दंडनीय है, तो इसकी समयावधि 90 दिनों से अधिक नहीं हो सकती।
- यदि चल रही अन्वेषण ऊपर उल्लिखित किसी अन्य अपराध से संबंधित है तो इसकी समयावधि 60 दिनों से अधिक नहीं हो सकती।
- उक्त 60 दिन या 90 दिन की अवधि समाप्त होने के बाद आरोपी व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया जा सकता है।
मजिस्ट्रेट द्वारा हिरासत को अधिकृत नहीं किया जा सकता जब:
- आरोपी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश नहीं किया गया है।
- यदि मजिस्ट्रेट द्वितीय श्रेणी का हो तो पुलिस हिरासत में नजरबंदी नहीं दी जा सकती।
यदि न्यायिक मजिस्ट्रेट हिरासत को अधिकृत करने के लिए उपलब्ध नहीं है, तो पुलिस अधिकारी (सब-इंस्पेक्टर के पद से ऊपर) आरोपी को निकटतम कार्यकारी मजिस्ट्रेट के पास भेज सकता है और डायरी में इस प्रविष्टि की एक प्रति बना सकता है। आरोपी को कार्यकारी मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाना चाहिए जो मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट या न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्ति प्रदान करता है। यदि कार्यकारी मजिस्ट्रेट आरोपी की हिरासत के विस्तार से संतुष्ट है, तो आगे की अन्वेषण के लिए पुलिस को 7 दिनों से अधिक की हिरासत नहीं दी जाती है। यह सी.आर.पी.सी. की धारा 167(2A) के तहत निर्धारित किया गया है।
कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई कुल 7 दिनों की अवधि समाप्त होने के बाद, अभियुक्त को जमानत पर रिहा किया जा सकता है। यह स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब आगे की हिरासत के लिए कोई आदेश मजिस्ट्रेट द्वारा नहीं दिया गया हो जो ऐसा करने के लिए सक्षम हो।
हिरासत अवधि को और बढ़ाने का निर्णय तब लिया जाता है जब अभियुक्त पहले से ही हिरासत में था, तो हिरासत में रहने की अवधि को आगे की हिरासत की कुल अवधि से घटा दिया जाएगा। इस प्रक्रिया के लिए, कार्यकारी मजिस्ट्रेट को मामले के सभी रिकॉर्ड डायरी में प्रविष्टियों के साथ निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को उपलब्ध कराने होंगे।
हिरासत को अधिकृत करने वाले मजिस्ट्रेट को हिरासत प्रदान करने के कारणों को दर्ज करना चाहिए। मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए आदेश की एक प्रति मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को ऐसी हिरासत के कारणों के साथ प्रेषित की जाएगी।
यदि अभियुक्त की गिरफ़्तारी के 6 महीने के भीतर मामले की अन्वेषण पूरी नहीं होती है, तो मजिस्ट्रेट उस मामले की अन्वेषण रोकने का आदेश जारी कर सकता है। हालाँकि, यदि अन्वेषण करने वाला अधिकारी मजिस्ट्रेट को यह समझाने में सफल हो जाता है कि न्याय के हित में और कुछ अन्य विशेष कारणों से अन्वेषण को समाप्त नहीं किया जाना चाहिए, तो मजिस्ट्रेट अन्वेषण को 6 महीने से आगे भी जारी रखने की अनुमति दे सकता है।
इस धारा का उद्देश्य
सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत हिरासत अवधि को और बढ़ाने का मुख्य उद्देश्य समाज और आरोपी व्यक्ति की सुरक्षा के लिए आरोपी व्यक्ति को समाज से दूर रखना है। यह विस्तार सुनिश्चित करता है कि आरोपी व्यक्ति कानून से बच न सके और पुलिस अधिकारियों द्वारा उनकी अन्वेषण के संबंध में आवश्यक सभी पूछताछ के लिए उपस्थित हो।
हिरासत की अवधि तभी बढ़ाई जाती है जब आरोपी व्यक्ति के विरुद्ध यह उचित संदेह हो कि वह किए गए अपराध से संबंधित है तथा अन्वेषण आवंटित समयावधि में पूरी नहीं की जा सकती।
इस धारा का उद्देश्य धारा 57 के उद्देश्य का पूरक है। धारा 57 में कहा गया है कि यदि अभियुक्त की गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर अन्वेषण पूरी नहीं होती है, तो मजिस्ट्रेट धारा 167(2) के प्रावधान के अनुसार हिरासत की अवधि बढ़ा सकता है।
सरल शब्दों में, इसके दो उद्देश्य हैं:
- आरोपी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष अपनी बात कहने का अवसर प्रदान करना।
- ऐसे विशेष मामले हैं जिनमें कानून हिरासत की अवधि बढ़ाने की अनुमति देता है।
प्रासंगिक मामले
राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य के मामले में, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13 (1) और भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत आरोपी के खिलाफ प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की गई थी। याचिकाकर्ता को 5 नवंबर, 2016 को हिरासत में लिया गया था।
जिस अपराध के लिए वह उत्तरदायी था, उसके लिए कम से कम चार साल की कैद की सजा हो सकती है, जो दस साल तक हो सकती है, लेकिन उससे अधिक नहीं। इस बारे में राज्य ने कहा कि चूंकि उसकी सजा दस साल की अवधि तक बढ़ सकती है, इसलिए उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2)(a)(i) के अनुसार 90 दिनों के बाद ही जमानत मिलेगी।
इस पर न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने कहा कि आरोपी ने जो अपराध किया है, उसकी सजा 10 साल से कम है और इसलिए उसे गिरफ्तारी के 60 दिन बाद व्यक्तिक्रम (डिफॉल्ट) जमानत मिल जाएगी, न कि 90 दिन बाद। याचिकाकर्ता अन्वेषण के सिलसिले में 60 दिनों से अधिक समय तक हिरासत में रहा था और इसलिए वह व्यक्तिक्रम जमानत के लिए पात्र है।
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने आगे कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2)(a)(i) के अनुसार, यह केवल उन मामलों पर लागू होता है जहां आरोपी द्वारा किए गए अपराध की सजा 10 साल से अधिक कारावास, आजीवन कारावास और मृत्युदंड है। इन सभी मामलों में, 90 दिनों के बाद डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए न्यूनतम सजा 10 साल कारावास है। इससे कम कारावास अवधि वाले किसी भी अपराध का मतलब 60 दिनों के बाद डिफ़ॉल्ट जमानत होगा।
इसी तरह के आधार पर, निजामुद्दीन मोहम्मद बशीर खान बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में आरोपी ने आई.पी.सी. की धारा 366 के साथ धारा 34 के तहत अपराध किया था। अन्वेषण अधिकारी विद्वान मजिस्ट्रेट के समक्ष 60 दिनों से अधिक की अन्वेषण अवधि के लिए आरोप पत्र दाखिल करने में विफल रहा। यह माना गया कि यदि किए गए अपराध की सजा अधिकतम दस साल तक बढ़ जाती है, तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2)(a)(ii) लागू होती है। इसने कहा कि यदि अन्वेषण 60 दिनों की अवधि के भीतर पूरी नहीं होती है, तो उस अवधि से अधिक हिरासत में रखने की अवधि नहीं बढ़ाई जाएगी।
असलम बाबालाल देसाई बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में, अन्वेषण अधिकारी अभियुक्त की हिरासत की अवधि को आगे बढ़ाने के लिए 60 दिनों की एक विशिष्ट समय अवधि के भीतर आरोप पत्र दाखिल करने में विफल रहा था। अदालत के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या सी.आर.पी.सी. की धारा 167(2) के प्रावधान के तहत जमानत दी जा सकती है, और जमानत रद्द करने के लिए 60 दिनों की समय अवधि के बाद आरोप पत्र दायर किया जाता है।
यह माना गया कि सी.आर.पी.सी. की धारा 167 (2) के तहत प्रावधान सिर्फ अन्वेषण की समय अवधि के विस्तार के लिए है जो अन्वेषण पुलिस अधिकारी को आरोपी के खिलाफ उचित संदेह होने पर आगे की अन्वेषण करने की अनुमति है। आवंटित 60 या 90 दिनों के आगे विस्तार के लिए आरोप पत्र उन दिनों के भीतर दायर किया जाना चाहिए। यदि अन्वेषण अधिकारी ऐसा करने में विफल रहता है, तो आरोपी को डिफॉल्ट जमानत दी जाती है। इस प्रावधान का इस्तेमाल किसी भी तरह से जमानत रद्द करने के लिए नहीं किया जा सकता है। समय अवधि के भीतर आरोप पत्र दायर करने में विफलता के परिणामस्वरूप डिफॉल्ट जमानत होती है। जमानत रद्द करने की शक्ति केवल सी.आर.पी.सी. की धारा 437(5) या धारा 439(2) के तहत प्रदान की गई है। धारा 167 (2) केवल हिरासत के विस्तार के बारे में बात करती है, न कि जमानत रद्द करने की।
निष्कर्ष
पुलिस अधिकारियों को अन्वेषण पूरी करने के लिए अधिक समय मांगने का अधिकार है। अगर उन्हें गिरफ्तार व्यक्ति के खिलाफ उचित संदेह है तो वे मामले के पीछे मौजूद तथ्यों और सामग्री को स्पष्ट रूप से समझने के लिए हिरासत की अवधि बढ़ा सकते हैं। यह धारा आरोपी के लिए अनुकूल है क्योंकि इसमें एक निश्चित अवधि होती है जिसके तहत आरोपी पुलिस हिरासत में रहता है।
इस अधिकतम समय अवधि के खत्म होने के बाद आरोपी जमानत की मांग कर सकता है। मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए जाने पर आरोपी को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाती है और अगर मजिस्ट्रेट को लगता है कि हिरासत की अवधि बढ़ाई जानी चाहिए, तभी उसे हिरासत में रखने की अनुमति दी जाती है। इस मामले में मजिस्ट्रेट की भूमिका अहम होती है क्योंकि वह ही हिरासत की अवधि बढ़ाने की अनुमति देता है। उसे नागरिक की सुरक्षा और अपने कानूनी कर्तव्य के पालन के बीच फैसला करना होता है। अपने कर्तव्य का निर्वहन करते समय वह पक्षपात नहीं कर सकता।