गारंटी का अनुबंध क्या है

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Indian Contract Act

यह लेख नोएडा के एमिटी लॉ स्कूल की छात्रा Srishti Chawla के द्वारा लिखा गया है । इस लेख में वह गारंटी का अनुबंध, उसकी अनिवार्यता, प्रकार, आदि पर चर्चा करती हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

ब्लैक लॉ डिक्शनरी शब्द गारंटी को इस आश्वासन के रूप में परिभाषित करता है कि एक कानूनी अनुबंध को विधिवत लागू किया जाएगा। गारंटी का एक अनुबंध भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 द्वारा शासित होता है और इसमें 3 पक्ष शामिल होते हैं जिनमें से एक पक्ष ज़मानतदार (श्योरिटी) के रूप में कार्य करता है यदि चूक करने वाला पक्ष अपने देयताों को पूरा करने में विफल रहता है। गारंटी के अनुबंधों की अधिकांश मामलों में आवश्यकता होती है जब किसी पक्ष को ऋण, सामान या रोजगार की आवश्यकता होती है। ऐसे अनुबंधों में गारंटर लेनदार को आश्वस्त करता है कि जरूरतमंद व्यक्ति पर भरोसा किया जा सकता है और किसी भी चूक के मामले में, वह भुगतान करने की जिम्मेदारी लेगा। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि गारंटी का अनुबंध लेनदार को दी गई अदृश्य सुरक्षा है और इस पर आगे चर्चा की जाएगी।

गारंटी का अनुबंध क्या है

भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 126 गारंटी के अनुबंध को वादा पूरा करने या यदि वह अपना वादा पूरा करने में विफल रहता है तो चूक करने वाले पक्ष की देयता (लायबिलिटी) का उन्मोचन (डिस्चार्ज) करने के अनुबंध के रूप में परिभाषित करती है ।

इस प्रकार यहाँ हम अनुमान लगा सकते हैं कि अनुबंध के लिए 3 पक्ष होते हैं:

  1. मूल ऋणी (प्रिंसीपल डेटर)- वह जो उधार लेता है या भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होता है और जिसकी चूक पर गारंटी दी जाती है।
  2. लेनदार – वह पक्ष जिसने उधार लेने के लिए कुछ मूल्य दिया है और ऐसी चीज़ के लिए भुगतान प्राप्त करने के लिए खड़ा है और जिसे गारंटी दी गई है।
  3. ज़मानतदार/गारंटर – वह व्यक्ति जो मूल ऋणी के चूक के मामले में भुगतान करने की गारंटी देता है।

इसके अलावा, हम यह भी समझ सकते हैं कि गारंटी का अनुबंध एक द्वितीयक अनुबंध है जो लेनदार और मूल ऋणी के बीच प्राथमिक अनुबंध से उत्पन्न होता है।

दृष्टांत (इलस्ट्रेशन)

अंकिता ने पल्लव को 70000 रुपए का ऋण दिया। पल्लव की बॉस सृष्टि वादा करती है कि अगर पल्लव ऋण चुकाने में विफल रहता है, तो वह उसे चुका देगी। गारंटी के अनुबंध के इस मामले में, अंकिता लेनदार है, पल्लव मूल ऋणी है और सृष्टि ज़मानतदार है।

गारंटी का अनुबंध या तो मौखिक या लिखित हो सकता है। यह पक्षों के आचरण से व्यक्त या निहित हो सकता है।

पी.जे रजप्पन बनाम एसोसिएटेड इंडस्ट्रीज (1983) में गारंटर गारंटी के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए बिना, स्थिति से बाहर निकलना चाहता था। उन्होंने कहा कि वह अनुबंध के प्रदर्शन के लिए ज़मानतदार के रूप में नहीं खड़े थे। साक्ष्य ने सौदे में गारंटर की भागीदारी को दिखाया और बाद में अनुबंध पर हस्ताक्षर करने का वादा किया था। केरल उच्च न्यायालय ने माना कि गारंटी का अनुबंध एक त्रिपक्षीय समझौता है, जिसमें मूल ऋणी, ज़मानतदार और लेनदार शामिल होते हैं। ऐसे मामले में जहां गारंटर के शामिल होने का सबूत है, समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करने में उसकी विफलता मात्र लेनदेन में उसकी भागीदारी के अन्यथा स्वीकार्य सबूत को खत्म करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसने मूल ऋणी द्वारा अनुबंध के उचित प्रदर्शन की गारंटी दी है। जब एक अदालत को यह तय करना होता है कि क्या किसी व्यक्ति ने वास्तव में मूल ऋणी द्वारा अनुबंध के उचित प्रदर्शन की गारंटी दी है, तो लेन-देन से संबंधित सभी परिस्थितियों पर आवश्यक रूप से विचार करना होगा।

गारंटी के अनुबंध की अनिवार्यता

1. तीनों पक्षों की सहमति से बनाया जाना चाहिए

अनुबंध के सभी तीन पक्ष यानी मुख्य ऋणी, लेनदार और जमानतदार को एक दूसरे के समझौते के साथ ऐसा अनुबंध करने के लिए सहमत होना चाहिए। यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ज़मानतदार मूल ऋणी के अनुरोध पर ही मूल ऋणी के ऋण वापिस करने के लिए उत्तरदायी होने की अपनी जिम्मेदारी लेता है। इसलिए ज़मानतदार को मुख्य ऋणी द्वारा व्यक्त या निहित संप्रेषण (कम्युनिकेशन) आवश्यक है। मूल ऋणी के ज्ञान के बिना गारंटी के अनुबंध में प्रवेश करने के लिए लेनदार के साथ ज़मानतदार का संप्रेषण गारंटी का अनुबंध नहीं होगा।

दृष्टांत 

सैम आकाश को पैसे उधार देता है। सैम लेनदार है और आकाश मूल ऋणी है। सैम आकाश को बिना किसी जानकारी के राघव के पास ज़मानतदार के रूप में कार्य करने के लिए संपर्क करता है। राघव सहमत हैं। यह मान्य नहीं है।

2. प्रतिफल (कंसीडरेशन)

अधिनियम की धारा 127 के अनुसार, यदि मूल ऋणी के लाभ के लिए कुछ भी ऐसा किया जाता है या कोई भी वादा किया जाता है तो वह ज़मानतदार के लिए गारंटी देने के लिए के लिए पर्याप्त प्रतिफल है। प्रतिफल लेनदार द्वारा दिया गया एक नया प्रतिफल होना चाहिए न कि अतीत का कोई प्रतिफल। यह आवश्यक नहीं है कि गारंटर को कोई प्रतिफल प्राप्त हो और कभी-कभी चूक के मामले में लेनदार की ओर से सहनशीलता भी पर्याप्त प्रतिफल होती है।

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया बनाम प्रेमको सॉ मिल (1983) में, स्टेट बैंक ने ऋणी-प्रतिवादी को नोटिस दिया और उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की धमकी भी दी, लेकिन उसका पति जमानतदार बनने के लिए तैयार हो गया और उसने देयता चुकाने का वचन दिया और स्टेट बैंक के पक्ष में एक वचन पत्र भी निष्पादित किया और बैंक ने कार्रवाई की धमकी से मना किया। यह माना गया था कि इस तरह के धैर्य और बैंक की ओर से स्वीकृति ज़मानतदार के लिए अच्छा प्रतिफल है।

3. देयता

गारंटी के अनुबंध में, ज़मानतदार का देयता द्वितीयक होता है। इसका मतलब यह है कि चूंकि प्राथमिक अनुबंध लेनदार और मूल ऋणी के बीच था, इसलिए अनुबंध की शर्तों को पूरा करने का देयता मुख्य रूप से मुख्य ऋणी के पास होता है। यह केवल मूल ऋणी की चूक पर है कि ज़मानतदार चुकाने के लिए उत्तरदायी है।

4. एक ऋण के अस्तित्व को मानता है

गारंटी के अनुबंध का मुख्य कार्य मूल ऋणी द्वारा लिए गए ऋण के भुगतान को सुरक्षित करना है। यदि ऐसा कोई ऋण मौजूद नहीं है तो जमानतदार के लिए सुरक्षित करने के लिए कुछ भी नहीं बचा है। इसलिए ऐसे मामलों में जहां ऋण समय बाधित (टाइम बर्ड) या शून्य है, तो जमानतदार का कोई देयता नहीं बनता है। स्वान बनाम बैंक ऑफ स्कॉटलैंड (1836) के स्कॉटिश मामले में हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने माना कि यदि कोई मूल ऋण नहीं है, तो कोई वैध गारंटी मौजूद नहीं हो सकती है।

5. एक वैध अनुबंध की सभी अनिवार्यताएं शामिल होनी चाहिए

चूंकि गारंटी का अनुबंध एक प्रकार का अनुबंध है, इसलिए एक वैध अनुबंध के सभी आवश्यक तत्व गारंटी के अनुबंधों में भी लागू होंगे। इस प्रकार, एक वैध अनुबंध की सभी आवश्यक तत्वों जैसे स्वतंत्र सहमति, वैध प्रतिफल, प्रस्ताव और स्वीकृति, कानूनी संबंध बनाने का इरादा आदि को पूरा करना आवश्यक है।

6. तथ्यों को न छुपाना

लेनदार को ज़मानतदार को उन तथ्यों का खुलासा करना चाहिए जो जमानतदार के देयता को प्रभावित करने की संभावना रखते हैं। ऐसे तथ्यों को छुपाकर प्राप्त की गई गारंटी अमान्य है। इस प्रकार, गारंटी अमान्य है यदि लेनदार इसे भौतिक (मैटेरियल) तथ्यों को छिपाकर प्राप्त करता है।

7. कोई गलत बयानी नहीं हो

जमानतदारों को तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत करके गारंटी प्राप्त नहीं की जानी चाहिए। हालांकि गारंटी का अनुबंध ऊबेरीमा फाइड्स, यानी पूर्ण सद्भावना का अनुबंध नहीं है और इस प्रकार, अनुबंध में प्रवेश करने से पहले मूल ऋणी या लेनदार द्वारा ज़मानतदार के लिए सभी भौतिक तथ्यों के पूर्ण प्रकटीकरण की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन तथ्य, जो ज़मानतदार की जिम्मेदारी की सीमा को प्रभावित कर सकते हैं, को वास्तव में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

गारंटी के प्रकार

गारंटी के अनुबंधों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है: विशिष्ट गारंटी और निरंतर गारंटी। जब किसी एकल ऋण या विशिष्ट लेन-देन के संबंध में गारंटी दी जाती है और जब गारंटीकृत ऋण का भुगतान किया जाता है या वादा पूरा किया जाता है, तो इसे समाप्त करना होता है, इसे विशिष्ट या सरल गारंटी कहा जाता है। हालाँकि, एक गारंटी जो लेनदेन की एक श्रृंखला तक फैली हुई है, एक निरंतर गारंटी (धारा 129) कहलाती है। इस मामले में ज़मानतदार की देयता तब तक जारी रहेगी जब तक कि सभी लेन-देन पूरे नहीं हो जाते या जब तक गारंटर भविष्य के लेन-देन के लिए गारंटी को रद्द नहीं कर देता है।

दृष्टांत

  1. S एक पुस्तक विक्रेता है जो P को अनुबंध के तहत पुस्तकों के एक सेट की आपूर्ति (सप्लाई) करता है, कि यदि P पुस्तकों के लिए भुगतान नहीं करता है, तो उसका मित्र K भुगतान करेगा। यह विशिष्ट गारंटी का अनुबंध है और K की तब देयता समाप्त हो जाएगी, जिस समय S को पुस्तकों की कीमत का भुगतान किया जाता है।
  2. M की सिफारिश पर S, एक अमीर मकान मालिक P को अपने संपत्ति प्रबंधक के रूप में नियुक्त करता है। P का यह कर्तव्य था कि वह S के किरायेदारों से हर महीने किराया वसूल करे और उसे हर महीने की 15 तारीख से पहले S को भेज दे। M, इस व्यवस्था की गारंटी देता है और P द्वारा किए गए किसी भी चूक को ठीक करने का वादा करता है। यह निरंतर गारंटी का अनुबंध है।

निरंतर गारंटी

एक निरंतर गारंटी को भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 129 के तहत परिभाषित किया गया है। एक निरंतर गारंटी एक प्रकार की गारंटी है जो लेनदेन की एक श्रृंखला पर लागू होती है। यह मूल ऋणी द्वारा किए गए सभी लेन-देन पर लागू होती है जब तक कि इसे ज़मानतदार द्वारा रद्द नहीं किया जाता है। इसलिए बैंकर हमेशा एक निरंतर गारंटी रखना पसंद करते हैं ताकि गारंटर की देयता मूल अग्रिमों (एडवांस) तक ही सीमित न रहे और बाद के सभी ऋणों तक भी विस्तारित हो जाए।

निरंतर गारंटी की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह वियोज्य (सेपरेबल), विशिष्ट लेनदेन की एक श्रृंखला पर लागू होती है। इसलिए, जब गारंटी पूरे प्रतिफल के लिए दी जाती है, तो इसे निरंतर गारंटी नहीं कहा जा सकता है।

दृष्टांत 

K ने अपना घर S को निर्दिष्ट किराए पर दस साल के लिए पट्टे पर दे दिया। P ने गारंटी दी कि S, अपने देयताों को पूरा करेगा। सात वर्ष बाद S ने पट्टे का किराया देना बंद कर दिया। ‘K ने किराए के भुगतान के लिए उस पर मुकदमा दायर किया। P ने फिर शेष तीन वर्षों के लिए अपनी गारंटी को रद्द करने का नोटिस दिया। P गारंटी को रद्द करने में सक्षम नहीं होगा क्योंकि दस साल के लिए पट्टा एक संपूर्ण अविभाज्य प्रतिफल है और इसे लेनदेन की एक श्रृंखला के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है और इसलिए यह एक निरंतर गारंटी नहीं है।

निरंतर गारंटी का निरसन (रिवोकेशन)

जहाँ तक मौजूदा ऋण के लिए दी गई गारंटी का संबंध है, इसे रद्द नहीं किया जा सकता है, क्योंकि एक बार एक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है तो यह अंतिम हो जाता है। हालांकि, भविष्य के लेनदेन के लिए एक निरंतर गारंटी रद्द की जा सकती है। इस मामले में, ज़मानतदार उन लेन-देन के लिए उत्तरदायी होगा जो पहले ही हो चुके हैं।

गारंटी का अनुबंध निम्नलिखित दो तरीकों से रद्द किया जा सकता है-

  1. नोटिस देकर  (धारा 130)

धारा 130 के तहत लेनदार को नोटिस देकर जारी गारंटी को रद्द किया जा सकता है लेकिन यह केवल भविष्य के लेनदेन पर लागू होता है। केवल एक नोटिस देकर ज़मानतदार अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता है और फिर भी उसके द्वारा नोटिस दिए जाने से पहले किए गए सभी लेन-देन के लिए उत्तरदायी रहता है। यदि गारंटी के अनुबंध में एक खंड शामिल है कि अनुबंध को रद्द किए जाने से पहले एक निश्चित अवधि के नोटिस की आवश्यकता होती है, तो ज़मानतदार को उसी का पालन करना चाहिए जैसा कि ऑफर्ड बनाम डेविस (1862) में कहा गया है।

दृष्टांत

A 10,000 रुपये की सीमा तक B को गारंटी देता है कि C अगले तीन महीनों के दौरान उसके द्वारा खरीदे गए सभी सामानों के लिए भुगतान करेगा। B, C को 6,000  रुपये का माल बेचता है। A निरसन का नोटिस देता है, C 6,000 रुपये के लिए उत्तरदायी है। यदि निरसन की सूचना के बाद कोई माल C को बेचा जाता है, तो A उसके लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

2. जमानतदार की मृत्यु द्वारा (धारा 131)

धारा 131 के तहत जब तक इसके विपरीत कोई अनुबंध न हो, ज़मानतदार की मृत्यु, अनुबंध की अनुपस्थिति के कारण ज़मानतदार की मृत्यु के बाद होने वाले लेनदेन के संबंध में जारी गारंटी के निरसन के रूप में कार्य करती है। हालांकि, उनके कानूनी प्रतिनिधि उनकी मृत्यु से पहले किए गए लेनदेन के लिए उत्तरदायी बने रहेंगे। हालाँकि, मृतक ज़मानतदार की संपत्ति उन लेन-देन के लिए उत्तरदायी है जो मृतक के जीवनकाल के दौरान पहले ही हो चुके थे। ज़मानतदार की मृत्यु के बाद होने वाले लेन-देन के लिए ज़मानतदार की संपत्ति उत्तरदायी नहीं होगी, भले ही लेनदार को ज़मानतदार की मौत का कोई ज्ञान न हो।

परिसीमा (लिमिटेशन) की अवधि

गारंटी लागू करने की परिसीमा की अवधि उस तारीख से 3 वर्ष है जिस दिन गारंटी पत्र निष्पादित (एक्जीक्यूट) किया गया था। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया बनाम नागेश हरियप्पा नायक और अन्य में, एक कंपनी को ऋण की अग्रिम के खिलाफ, गारंटी विलेख (डीड) उसके निदेशकों (डायरेक्टर) द्वारा निष्पादित किया गया था और बाद में कंपनी की ओर से उसी निदेशकों द्वारा भार को स्वीकार करते हुए एक पत्र जारी किया गया था। यह निर्धारित किया गया कि पत्र में परिसीमा की अवधि बढ़ाने का प्रभाव नहीं था। गारंटी विलेख की तिथि से तीन वर्ष के बाद शुरू की गई वसूली की कार्यवाही निरस्त की जा सकती थी।

जमानतदार के अधिकार

भुगतान करने और मूल ऋणी के देयता का उन्मोचन करने के बाद, जमानतदार को विभिन्न अधिकार प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों का अध्ययन तीन शीर्षकों के तहत किया जा सकता है:

1. मूल ऋणी के खिलाफ अधिकार

  • ऋण के भुगतान पर ज़मानतदार का अधिकार या प्रत्यासन (सब्रोगेशन) का अधिकार (धारा 140)

धारा 140 के तहत प्रत्यासन के अधिकार का अर्थ है कि ज़मानतदार ने लेनदार को गारंटी दी थी और भुगतान प्राप्त करने के बाद लेनदार दृश्य से बाहर हो गया है, इसलिए ज़मानतदार अब देनदार के साथ व्यवहार करेगा जैसे कि वह एक लेनदार है। इसलिए ज़मानतदार के पास लेनदार को भुगतान की गई राशि को वसूलने का अधिकार है जिसमें मूल राशि, लागत और ब्याज शामिल हो सकते हैं।

  • क्षतिपूर्ति (इंडेमनिटी) का अधिकार (धारा 145)

धारा 145 के तहत गारंटी के प्रत्येक अनुबंध में, मूल ऋणी द्वारा ज़मानतदार की क्षतिपूर्ति करने का एक निहित वादा होता है, और ज़मानतदार को मूल ऋणी से गारंटी के तहत सही भुगतान की गई राशि की वसूली का अधिकार होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मूल ऋणी द्वारा वादा पूरा न करने के कारण ज़मानतदार को नुकसान हुआ है और इसलिए ज़मानतदार को देनदार द्वारा मुआवजा पाने का अधिकार है।

दृष्टांत 

लूथरा एंड कंपनी ने खेतान एंड कंपनी से ऋण लिया है, जहां अमरचंद लूथरा की ओर से सुरक्षा के रूप में कार्य करता है। खेतान अमरचंद से भुगतान की मांग करता है और उसके मना करने पर उस पर राशि के लिए मुकदमा करता है, अमरचंद ऐसा करने के लिए उचित आधार होने के कारण मुकदमे का बचाव करता है, लेकिन उसे लागत के साथ ऋण की राशि का भुगतान करने के लिए मजबूर किया जाता है। वह लूथरा से लागत के लिए भुगतान की गई राशि, साथ ही मूल ऋण की वसूली कर सकता है।

2. लेनदार के खिलाफ अधिकार

  • मूल ऋणी द्वारा दी गई प्रतिभूतियों (सिक्योरिटी) का अधिकार (धारा 141)

मूल ऋणी द्वारा भुगतान में चूक होने पर, जब ज़मानतदार मूल ऋणी के ऋण का भुगतान कर देता है तो वह उन सभी प्रतिभूतियों पर दावा करने का हकदार हो जाता है जो मूल ऋणी द्वारा लेनदार को दी गई थी। ज़मानतदार के पास गारंटी के निर्माण से पहले या बाद में प्राप्त सभी प्रतिभूतियों का अधिकार है और यह भी सारहीन है कि ज़मानतदार को उन प्रतिभूतियों का ज्ञान है या नहीं।

दृष्टांत 

प्रिया की गारंटी पर, अनीता ने सीता को 100000 रुपये उधार दिए। यह ऋण उस ऋण की प्रतिभूति द्वारा भी सुरक्षित है जो सीता के घर का पट्टे है। सीता ऋण चुकाने में चूक करती है और प्रिया को ऋण चुकाना पड़ता है। सीता की देयता का भुगतान करने पर प्रिया अपने पक्ष में पट्टे विलेख प्राप्त करने की हकदार है।

  • मुजरा (सेट ऑफ) करने का अधिकार

जब लेनदार मूल ऋणी की देयता के भुगतान के लिए ज़मानतदार पर मुकदमा करता है, तो ज़मानतदार मुजरा करने का दावा कर सकता है, या यदि कोई हो, तो प्रतिदावा (काउंटरक्लेम) कर सकता है, जो कि मुख्य ऋणी के पास लेनदार के खिलाफ था।

3. सह-जमानतदार के खिलाफ अधिकार

  • एक सह-ज़मानतदार की रिहाई दूसरों को उन्मोचन (डिस्चार्ज) नहीं करती है  (धारा 138)

धारा 138 के अनुसार जब मूल ऋणी के ऋण की चुकौती की गारंटी एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा दी जाती है तो उन्हें सह-ज़मानतदार कहा जाता है और वे गारंटीकृत ऋण के भुगतान के लिए सहमति के अनुसार योगदान करने के लिए उत्तरदायी होते हैं। एक सह-ज़मानतदार के लेनदार द्वारा रिहाई दूसरों का उन्मोचन नहीं करती है, और न ही यह जारी ज़मानतदार को अन्य ज़मानतदारियों के लिए अपनी जिम्मेदारी से मुक्त करती है। इस प्रकार जब ऋण के भुगतान या कर्तव्य के प्रदर्शन की गारंटी सह-जमानतदारो द्वारा दी जाती है और मुख्य ऋणी अपने देयता को पूरा करने में चूक करता है और इस प्रकार लेनदार पूरे अनुबंध को पूरा करने के लिए केवल एक या अधिक सह-जमानदारो को मजबूर करता है, सह-जमानदार का पालन करने वाले ज़मानतदार शेष सह-ज़मानतदारों से योगदान का दावा करने के हकदार हैं।

  • समान रूप से योगदान करने के लिए सह-जमानदार  (धारा 146)

धारा 146 के अनुसार, इसके विपरीत किसी अनुबंध के अभाव में, सह-जमानतदार समान रूप से योगदान करने के लिए उत्तरदायी होते हैं। यह सिद्धांत तब भी लागू होगा जब सह-जमानतदार का देयता संयुक्त या अलग हो, और चाहे वह एक ही या अलग-अलग अनुबंधों के तहत हो, और चाहे एक दूसरे के ज्ञान के साथ या बिना हो।

दृष्टांत

A, B, C और D 20,000 रुपये के ऋण के लिए सह-ज़मानतदार हैं, जो Z द्वारा R को उधार दिए गए थे। R ऋण चुकाने में चूक करता है। A, B, C और D प्रत्येक 5000 रुपये का योगदान करने के लिए उत्तरदायी हैं। 

  • विभिन्न राशियों में बंधे सह-जमानतदरों की देयता (धारा 147)

धारा 147 के अनुसार जब सह-जमानतदार अलग-अलग राशि की गारंटी देने के लिए सहमत हो जाते हैं, तो उन्हें प्रत्येक के द्वारा गारंटीकृत अधिकतम राशि के अधीन समान रूप से योगदान करना होता है।

दृष्टांत

A, B और C, D के लिए ज़मानतदार, तीन अलग-अलग बॉन्ड में प्रवेश करते हैं, प्रत्येक एक अलग जुर्माने में, A 10,000 रुपये के लिए, B 20,000 रुपए के लिए और C 40,000 रुपये के लिए। D 30,000 रुपये की सीमा तक चूक करता है। A, B और C 10,000 रुपये का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी हैं। मान पट्टेिए कि यह चूक 40,000 रुपये की सीमा तक होती। तब A 10,000 रुपये के लिए उत्तरदायी होगा और B और C प्रत्येक 15,000 रुपये के लिए उत्तरदायी होंगे।

देयता से जमानत का उन्मोचन 

निम्नलिखित में से किसी भी परिस्थिति में एक ज़मानतदार अपने देयता से मुक्त हो जाता है:

1. गारंटी के अनुबंध का निरसन करके

इस परिस्थिति के बारे में हम ऊपर पहले ही चर्चा कर चुके हैं जिसमें गारंटी के अनुबंध को निरस्त करके एक ज़मानतदार का उन्मोचन कैसे किया जा सकता है। इसमें नोटिस देकर या ज़मानतदार की मृत्यु शामिल है।

2, लेनदार का आचरण

  • अनुबंध के संदर्भ में भिन्नता (धारा 133)

धारा 133 के तहत जब गारंटी के अनुबंध को लेनदार और मूल ऋणी के बीच एक समझौते के माध्यम से भौतिक रूप से बदल दिया जाता है, तो ज़मानतदार अपने देयता से मुक्त हो जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक ज़मानतदार केवल गारंटी में किए गए कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है और ज़मानतदार की सहमति के बिना किए गए किसी भी बदलाव से लेनदेन के रूप में ज़मानतदार का उन्मोचन होगा।

दृष्टांत

C के बैंक में प्रबंधक के रूप में B के आचरण के लिए A, C का ज़मानतदार बन जाता है। बाद में, A की सहमति के बिना B और C अनुबंध करते हैं, कि B का वेतन बढ़ाया जाएगा, और वह ओवरड्राफ्ट पर होने वाले नुकसान के एक-चौथाई के लिए उत्तरदायी होगा। B एक ग्राहक को ओवर-ड्रॉ करने की अनुमति देता है, और बैंक पैसे की राशि खो देता है। A उसकी सहमति के बिना किए गए बदलाव के कारण अपने जमानतदार के कर्तव्य से मुक्त हो जाता है और इस हानि की पूर्ति करने के लिए उत्तरदायी नहीं है।

  • मूल ऋणी की रिहाई या उन्मोचन (धारा 134)

धारा 134 के तहत यदि लेनदार मुख्य ऋणी के साथ एक अनुबंध करता है जिसके द्वारा या लेनदार के किसी कार्य या चूक से मूल ऋणी को रिहा कर दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप मूल ऋणी का उन्मोचन होता है।

दृष्टांत

A, C की गारंटी पर B को माल की आपूर्ति करता है। बाद में B भुगतान करने में असमर्थ हो जाता है और A के साथ अनुबंध करता है कि वह आपूर्ति की गई वस्तुओं पर अपनी मांगों से मुक्त करने के लिए A को कुछ संपत्ति सौंपे। यहां, B अपने ऋण से मुक्त हो जाता है, और C भी अपने ज़मानतदार के कर्तव्य से मुक्त हो जाता है। लेकिन, जहां कानून के संचालन द्वारा मूल ऋणी अपने ऋण से मुक्त हो जाता है, मान पट्टेिए दिवालिया (इंसोल्वेंट) होने पर, तो यह ज़मानतदार के उन्मोचन के रूप में काम नहीं करेगा।

  • मूल ऋणी और लेनदार के बीच व्यवस्था

धारा 135 के अनुसार, जब लेनदार, ज़मानतदार की सहमति के बिना, समाधान के लिए मूल ऋणी के साथ एक व्यवस्था करता है, या उसे समय देने का वादा करता है, या उस पर मुकदमा नहीं करने का वादा करता है, तो ज़मानतदार का उन्मोचन हो जाएगा।

हालांकि, जब मूल ऋणी को अधिक समय देने का अनुबंध लेनदार और तीसरे पक्ष के बीच किया जाता है, न कि मूल ऋणी के साथ, तो ज़मानतदार का उन्मोचन नहीं किया जाता है (धारा 136)।

दृष्टांत

C, B के लिए ज़मानतदार के रूप में A द्वारा आहरित (ड्रॉन) और B द्वारा स्वीकार किए गए विनिमय (एक्सचेंज) के अतिदेय (ओवरड्यू) बिल का धारक, B को समय देने के लिए M के साथ अनुबंध करता है, A का उन्मोचन नहीं किया जाता है।

  • प्रतिभूति की हानि (धारा 141)

इस धारा के तहत यदि लेनदार गारंटी के समय उसे दी गई किसी भी प्रतिभूति के साथ भाग लेता है या खो देता है, तो ज़मानतदार की सहमति के बिना, ज़मानतदार को प्रतिभूति के मूल्य की सीमा तक देयता से मुक्त कर दिया जाता है।

दृष्टांत

A, B के लिए ज़मानतदार के रूप में, C से B को ऋण सुरक्षित करने के लिए C के साथ संयुक्त रूप से एक बॉन्ड बनाता है। बाद में, C उसी ऋण के लिए B से और प्रतिभूति प्राप्त करता है। तत्पश्चात, C और प्रतिभूति छोड़ देता है। A का उन्मोचन नहीं किया गया है।

3. अनुबंध की अमान्यता से

गारंटी का एक अनुबंध, किसी भी अन्य अनुबंध की तरह, टाला जा सकता है यदि यह ज़मानतदार के विकल्प पर शून्य या शून्यकरणीय (वॉयडेबल) हो जाता है। जमानतदार को निम्नलिखित मामलों में देयता से उन्मोचित किया जा सकता है:

  • गलत बयानी द्वारा प्राप्त गारंटी (धारा 142)

धरा 142 के अनुसार जब गारंटी के अनुबंध में एक महत्वपूर्ण तथ्य के संबंध में लेनदार द्वारा या उसकी जानकारी या सहमति से गलत बयानी की जाती है, तो अनुबंध अमान्य होता है

  • छिपाकर प्राप्त की गई गारंटी (धारा 143)

धारा 143 के अनुसार जब अनुबंध से संबंधित परिस्थितियों के कुछ भौतिक भाग के बारे में चुप्पी साधकर लेनदार द्वारा गारंटी प्राप्त की जाती है, तो अनुबंध अमान्य होता है।

  • एक ज़मानतदार में शामिल होने के लिए सह-ज़मानतदार की विफलता (धारा 144)

धारा 144 के अनुसार जब गारंटी का अनुबंध प्रदान करता है कि एक लेनदार उस पर तब तक कार्रवाई नहीं करेगा जब तक कि कोई अन्य व्यक्ति सह-ज़मानतदारदार के रूप में इसमें शामिल नहीं हो जाता है, गारंटी मान्य नहीं होती है यदि वह अन्य व्यक्ति शामिल नहीं होता है। 

जमानतदार के देयता की सीमा

विपरीत अनुबंध के अभाव में, ज़मानतदार का देयता मूल ऋणी के देयता के सह-व्यापक (कोएक्सटेंसिव) होता है। इसका मतलब यह है कि ज़मानतदार उसी हद तक उत्तरदायी है जिस हद तक मूल ऋणी उत्तरदायी है।

दृष्टांत

A, B को स्वीकर्ता C द्वारा विनिमय बिल के भुगतान की गारंटी देता है। देय तिथि पर, बिल C द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है। A न केवल बिल की राशि के लिए बल्कि किसी भी ब्याज और शुल्क के लिए भी उत्तरदायी होता है जो उस पर देय हो सकता है।

निष्कर्ष

गारंटी का अनुबंध एक विशिष्ट अनुबंध है जिसके लिए भारतीय अनुबंध आयोग ने कुछ नियम निर्धारित किए हैं। जैसा कि हमने चर्चा की है, गारंटी के अनुबंध का मूल कार्य लेनदार को नुकसान से बचाना है और उसे विश्वास दिलाना है कि अनुबंध ज़मानतदार के वादे के साथ लागू किया जाएगा। गारंटी के प्रत्येक अनुबंध में तीन पक्ष होते हैं और दो प्रकार की गारंटी मौजूद होती है अर्थात विशिष्ट गारंटी और निरंतर गारंटी। उपयोग की गई गारंटी का प्रकार, स्थिति और अनुबंध की शर्तों पर निर्भर करता है। ज़मानतदार के पास अन्य पक्षों के खिलाफ कुछ अधिकार हैं और ज़मानतदार की देयता को मूल ऋणी के साथ सह-व्यापक माना जाता है जब तक कि यह अन्यथा अनुबंध द्वारा प्रदान नहीं किया जाता है।

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