भारत में ट्रेड यूनियन के अधिकार क्या हैं

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Trade Union Act
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यह लेख लॉशिखो से लेबर, एंप्लॉयमेंट एंड इंडस्ट्रियल लॉज (इंक्लूडिंग पी.ओ.एस.एच.) फॉर एच.आर. मैनेजर में डिप्लोमा कर रही छात्रा, Shraddha Vasanth के द्वारा लिखा गया है। इस लेख में वह ट्रेड यूनियन की भूमिका, उनको विनियमित (रेग्यूलेट) करने वाले कानून, अपंजीकृत (अनरजिस्टर्ड) ट्रेड यूनियनों और मान्यता प्राप्त ट्रेड यूनियनों के अधिकारों के साथ साथ कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णयों के बारे में भी चर्चा करती हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

सामूहिक सौदेबाजी (कलेक्टिव बार्गेनिंग) प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने में ट्रेड यूनियन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इस उद्देश्य के लिए, ट्रेड यूनियन को कई अधिकारों के साथ-साथ कई दायित्वों के साथ निहित (वेस्ट) किया गया है। यह लेख भारत में ट्रेड यूनियन के अधिकारों पर प्रकाश डालता है। हालांकि, भारत जैसे विकासशील देश में ट्रेड यूनियन के महत्व पर चर्चा करना महत्वपूर्ण है। यह इसकी उत्पत्ति के इतिहास और किसी विशेष उद्योग (इंडस्ट्री) में इसकी भूमिका को देखकर किया जा सकता है। इस लेख मे, ट्रेड यूनियन की प्रासंगिकता (रिलेवेंस) पर कानूनी प्रावधानों और महत्त्वपूर्ण निर्णयों के आलोक में भी चर्चा की जाएगी जो ट्रेड यूनियन के अधिकारों और दायित्वों दोनों को उजागर करते हैं। अंत में, मान्यता प्राप्त यूनियन और अपंजीकृत यूनियन के अधिकारों के बीच एक स्पष्ट सीमांकन (डिमार्केशन) किया गया है।

ट्रेड यूनियन: परिचय और संक्षिप्त में इतिहास

यूरोप में औद्योगिक क्रांति (इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन) 1700 के दशक की शुरुआत में आई थी, जो 1900 के दशक तक जारी रही थी। उस समय अर्थव्यवस्था (इकोनॉमी) कृषि प्रधान से मशीनों और विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) के प्रभुत्व (डोमिनेंट) वाली अर्थव्यवस्था की ओर जा रही थी। यह इस समय के दौरान था कि उद्योग की अवधारणा उभरी थी और साथ ही, विभिन्न प्रकार की तकनीकों का निर्माण किया जा रहा था, यह इतिहास में एक ऐसा समय भी था जो वैज्ञानिक खोजों और आविष्कारों से भरा हुआ था। यह सब निर्माण की प्रक्रियाओं और उत्पादित वस्तुओं के मानकीकरण (स्टैंडरडाईजेशन) का कारण बना था। बड़े पैमाने पर किए जाने वाले विनिर्माण को आधुनिक भाषा में “उद्योग” के रूप में जाना जाता है। बड़े पैमाने पर आर्थिक और तकनीकी परिवर्तन स्वाभाविक रूप से सामाजिक सांस्कृतिक पहलुओं में भी बड़े बदलाव ले कर आया लेकिन इसके प्रारंभिक चरण में, इससे लोगों में गरीबी कई गुना अधिक हो गई थी। उनकी रोजगार और नौकरी की सुरक्षा सवालों के घेरे में थी क्योंकि श्रम को प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) के द्वारा बदला जा रहा था। इसके अलावा, उन्हें लंबे समय तक काम करने के लिए बहुत ही मामूली सी मजदूरी या वेतन का भुगतान किया जा रहा था, और उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता था और अक्सर उन्हें अस्वच्छ परिस्थितियों में काम करना पढ़ता था।

जब तक औद्योगिक क्रांति और तकनीकी नवाचार (इनोवेशंस) जारी रहे, तब तक व्यापार करने के पुराने तरीकों को मिश्रित पूंजी (ज्वाइंट स्टॉक) कंपनियों द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा था। इसने अनिवार्य रूप से कई लोगों के हाथों में पैसा, स्वामित्व और शक्ति डाल दी थी, जिससे रॉयल्टी के अलावा अमीर उद्यमियों (इंडस्ट्रियलिस्ट) का एक पूरा वर्ग तैयार हो गया था। इसके कारण जो पहले से ही गरीब मजदूर वर्ग थे उनके बीच एक विभाजन पैदा हो चुका था। इस प्रकार, ये 2 वर्ग यानी की मालिक-नियोक्ता (एंप्लॉयर) और श्रमिक, ट्रेड यूनियन की चर्चा पर हावी रहते हैं। श्रमिको का शोषण, बहुत कम वेतन/ मजदूरी, नौकरी की असुरक्षा, बहुत ही बुरी काम करने की परिस्थितियों के कारण यह मांग की गई कि शक्ति को विनियमित (रेग्यूलेट) किया जाना चाहिए, जिससे सामूहिक सौदेबाजी की अवधारणा सामने आई थी। इससे ट्रेड यूनियन का गठन हुआ था। 

औद्योगिक क्रांति के समय, भारत ब्रिटिश शासन का उपनिवेश (कॉलोनी) था, इसलिए व्यापार के उसी मॉडल को भारत में भी दोहराया गया था। हालांकि यूरोपीय अनिवार्य रूप से कच्चे माल के स्रोत (सोर्स) के लिए भारत आए थे, लेकिन भारत जल्द ही तैयार माल का बाजार और ब्रिटिश शासन के तहत सस्ते श्रम का स्रोत भी बन गया था। इसके साथ ही, श्रमिकों का शोषण शुरू हुआ था, खासकर कपड़ा, जूट, कपास (कॉटन), रेलवे आदि जैसे शुरुआती उद्योगों में। तो उस समय श्रमिकों की आवाज उठाने की भी आवश्यकता महसूस की गई थी और इसलिए, भारत में 1851 में पहला ट्रेड यूनियन स्थापित किया गया था, जब बॉम्बे टेक्सटाइल मिल्स का गठन किया गया था। इसके साथ साथ, 1954 में कलकत्ता की जूट मिलों में भी ट्रेड यूनियनों को स्थापित किया गया था। 1860 और 1870 के दशक में श्रमिकों के बीच कई अशांति और आंदोलन शुरू हुए थे। इसलिए कारखाने (फैक्ट्री) में काम कर रहे श्रमिकों की समस्याओं के समाधान का अध्ययन करने और उसके संबंध में सिफारिश करने के लिए पहले कारखाना आयोग (फैक्ट्री कमीशन) की स्थापना की गई थी। इसके परिणामस्वरुप, पहला कारखाना अधिनियम 1881 में पारित किया गया था, हालांकि, यह ज्यादा प्रभावी नहीं रहा था। 

1890 में, एन.एम. लोखंडे ने एक श्रमिक रैली का नेतृत्व किया था, जिसने अंत में भारत में पहले संगठित (ऑर्गेनाइज्ड) ट्रेड यूनियन का गठन किया था, जिसे बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन कहा जाता है। इसके बाद, अहमदाबाद वीवर्स (1895), जूट मिल्स, कलकत्ता (1896), बॉम्बे मिल वर्कर्स (1897), मद्रास प्रेस वर्कर्स (1903) आदि जैसे कई अन्य ट्रेड यूनियन स्थापित किए गए थे।  

ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 का अधिनियमन (इनैक्टमेंट) एक बड़ी सफलता थी, जिसने श्रमिको की परेशानियों को एक वैधानिक मान्यता दी और यूनियन के पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) और शासन के लिए भी प्रावधान प्रदान किए थे। भारत, श्रमिकों के लिए एक बड़ा बाजार होने के साथ साथ, यहां पर आज तक कई ट्रेड यूनियन की स्थापना की गई है, जिनमें से कुछ उल्लेखनीय हैं, जैसे की भारतीय मजदूर यूनियन, भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, हिंद मजदूर सभा, भारतीय ट्रेड यूनियन के लिए केंद्र, स्वरोजगार महिला यूनियन (सेवा), आदि। 

ट्रेड यूनियन की भूमिका

श्रम बाजार में ट्रेड यूनियन का मूल उद्देश्य, श्रमिकों को उनके रोजगार के दौरान सामने आने वाले मुद्दों को आवाज देना है, इसलिए ट्रेड यूनियनों द्वारा निभाई गई भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसे सामूहिक सौदेबाजी कहा जाता है; यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कर्मचारी या श्रमिक अपने मुद्दों को प्रबंधन (मैनेजमेंट) या नियोक्ता के समक्ष रखते हैं। यह आम तौर पर यूनियनों के माध्यम से किया जाता है, जहां श्रमिको की मांगों के चार्टर को नियोक्ताओं के सामने रखा जाता है। फिर उन मुद्दों पर बातचीत की जाती है और एक समझौता किया जाता है जो नियोक्ता के साथ-साथ सभी श्रमिकों के लिए बाध्यकारी हो जाता है।

कुछ कार्य जो ट्रेड यूनियन करते हैं और जिन मामलों पर अक्सर बातचीत की जाती है वे कुछ इस प्रकार है:

  • श्रमिकों को बेहतर वेतन और लाभ सुनिश्चित करना,
  • श्रमिकों के लिए समान अवसर प्रदान करने के लिए उनकी सौदेबाजी की शक्ति में सुधार करना, 
  • प्रबंधन के साथ विवादों में रहे श्रमिकों को बातचीत और हड़ताल के माध्यम से समर्थन देना,
  • श्रमिकों के लिए बेहतर काम करने की स्थिति सुनिश्चित करना,
  • बेहतर वेतन, मुआवजा पैकेज और सामाजिक सुरक्षा लाभ प्राप्त करना, 
  • रोजगार का नियमितीकरण (रेगुलराइजेशन)। 

ट्रेड यनियन को विनियमित करने वाले कानून और पंजीकृत यूनियन के अधिकार 

यूनियन द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को कई प्रमुख विधानों के द्वारा समर्थित किया जाता है; भारत में ट्रेड यूनियन के कामकाज को नियंत्रित करने वाले 3 प्रमुख कानून हैं। विभिन्न प्रावधानों के तहत ट्रेड यूनियन को दिए गए कानून और अधिकार नीचे दिए गए हैं:

1. भारत का संविधान

यूनियनवाद (यूनियनिज्म) और सौदेबाजी का सार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1) में निर्धारित किया गया है जो अपने सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति (स्पीच) की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 19(1) के खंड (c) में यूनियन या एसोसिएशन बनाने का अधिकार शामिल है। सर्वोच्च न्यायालय ने अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी बनाम राष्ट्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) के मामले में इस अधिकार के अर्थ का विस्तार किया है, जहां उन्हें सदस्यों की बैठकें आयोजित करने के अधिकार और उनकी समस्याओं पर चर्चा करने और अपने विचार रखने के अधिकार को भी शामिल किया गया है। 

2. ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926

ट्रेड यूनियन अधिनियम , 1926 (“टी.यू. अधिनियम”) ट्रेड यूनियन के गठन और शासन को नियंत्रित करता है। इस अधिनियम की धारा 2 (h) के तहत ट्रेड यूनियन शब्द को परिभाषित किया गया है, जिसका अर्थ किसी भी संयोजन (कॉम्बिनेशन) से है जो की निम्नलिखित लोगो के बीच के संबंधों को विनियमित करने के उद्देश्य से बनाया गया है।

  • श्रमिक और नियोक्ता
  • दो श्रमिको के बीच के संबंध
  • दो नियोक्ताओं के बीच के संबंध, या
  • किसी भी व्यवसाय या व्यापार के संचालन (कंडक्ट) पर प्रतिबंधात्मक (रिस्ट्रिक्टिव) शर्तें लगाने के लिए।

ट्रेड यूनियन अस्थायी या स्थायी और पंजीकृत या अपंजीकृत भी हो सकते हैं। हालांकि, पंजीकरण कराने का सुझाव हमेशा दिया जाता है क्योंकि यह बेहतर अधिकार और सौदेबाजी की शक्ति को और अधिक सक्षम बनाता है। पंजीकरण की प्रक्रिया में 7 या 7 से अधिक व्यक्तियों द्वारा आवेदन जमा करना शामिल है, जो प्रतिष्ठान (एस्टेब्लिशमेंट) या उद्योग में लगे हुए हैं या वहां कार्य कर रहे हैं; ऐसे व्यक्तियों को ट्रेड यूनियन के नियमों के लिए अपने नाम की सदस्यता लेने की आवश्यकता होती है। पंजीकरण के समय कम से कम 10% श्रमिक या 100 श्रमिक ट्रेड यूनियन के सदस्य होने चाहिए क्योंकि पंजीकरण तब ही कराया जा सकता है। सदस्यों के नाम, पते और व्यवसाय, ट्रेड यूनियन का नाम और उसके उद्देश्य आदि के साथ आवेदन जमा करना होता है; जिसे नियमों के अनुसार तैयार करने की आवश्यकता होती है।

पंजीकृत ट्रेड यूनियन को उनके संचालन के संबंध में कई तरह के अधिकार प्राप्त होते हैं, इन्हें नीचे संक्षेप में समझाया गया है:

  1. कॉर्पोरेट निकाय के संबंध में अधिकार – टी.यू. अधिनियम की धारा 13 के आधार पर, एक पंजीकृत ट्रेड यूनियन एक कॉर्पोरेट निकाय बन जाता है; और इस तरह, इसका एक शाश्वत उत्तराधिकार (परपेचुअल सक्सेशन) और एक सामान्य मुहर होती है और साथ ही इसके पास निम्नलिखित अधिकार भी होते है: 
  • अपने नाम के तहत चल (मूवेबल) और अचल दोनों संपत्तियों को रखना और हासिल करना,  
  • संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) में प्रवेश करने का अधिकार, और 
  • अपने नाम से किसी पर मुकदमा करने और खुद के नाम से मुकदमा चलाने का अधिकार।

2. राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धन उपलब्ध कराने का अधिकार – टी.यू. अधिनियम की धारा 16 के तहत, एक ट्रेड यूनियन को राजनीतिक दलों को योगदान प्रदान करने के लिए एक अलग कोष (फंड) बनाने की अनुमति दी गई है। यह प्रावधान उन उद्देश्यों की सूची प्रदान करता है, जिनके लिए धन उपलब्ध कराया जा सकता है। हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि सदस्यों को इन गतिविधियों के लिए धन का योगदान करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।   

3. कुछ आपराधिक और दीवानी (सिविल) कार्यवाहियों से प्रतिरक्षा (इम्यूनिटी) 

  • टी.यू. अधिनियम की धारा 17, भारतीय दंड संहिता की धारा 120 B (2) के तहत शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही के खिलाफ, पदाधिकारियों (ऑफिस बीयरर) और सदस्यों को ट्रेड यूनियन के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए किए गए एक समझौते के अनुसार उनके द्वारा की गई किसी भी कार्रवाई के लिए प्रतिरक्षा प्रदान करती है, जैसा कि धारा 15 के तहत प्रदान किया गया है, जिनमें निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं, जैसे कि पदाधिकारियों को वेतन, मुआवजा, भत्ते आदि का भुगतान, यूनियन के खर्चों का भुगतान, व्यापार विवादों का संचालन और अन्य उद्वेश्य जिन्हे उपयुक्त सरकार द्वारा अनुमति दी गई हो। हालांकि, उन मामलों में कोई प्रतिरक्षा नहीं दी जा सकती जहां कोई अपराध किया गया है। 
  • टी.यू. अधिनियम की धारा 18 व्यापार विवाद को जारी रखने या आगे बढ़ाने में किए गए किसी भी कार्य के खिलाफ पदाधिकारियों और ट्रेड यूनियन के सदस्यों को प्रतिरक्षा प्रदान करती है, केवल इस आधार पर कि ऐसे कार्य किसी अन्य व्यक्ति के रोजगार के संविदा का उल्लंघन करने के लिए या दूसरा व्यक्ति के व्यापार या व्यवसाय में हस्तक्षेप करने के लिए प्रेरित करते हैं। यह प्रतिरक्षा ट्रेड यूनियन के एजेंट द्वारा किसी ट्रेड विवाद के जारी रखने या आगे बढ़ाने के लिए किए गए किसी भी कपटपूर्ण कार्य पर भी लागू होती है। ऐसे मामले में, यह साबित करना आवश्यक होता है कि ऐसा कार्य यूनियन के अधिकारियों द्वारा दिए गए निर्देशों की जानकारी के बिना या इसके विपरीत किया गया था। हालांकि, यह प्रावधान सदस्य या पदाधिकारी द्वारा हिंसा के कार्यों के खिलाफ कोई सुरक्षा प्रदान नहीं करता है।

4. व्यापार के अवरोध (रिस्ट्रेंट) में समझौतों को लागू करने का अधिकार – टी.यू. अधिनियम की धारा 19 एक पंजीकृत ट्रेड यूनियन के लिए, उन समझौतों में प्रवेश करने के लिए वैध बनाती है जो व्यापार के अवरोध में होने के कारण अमान्य हैं।

5. नाम बदलने का अधिकार, समामेलन (एमल्गामेशन) और विघटन (डिसोल्यूशन) का अधिकार – एक ट्रेड यूनियन को टी.यू. अधिनियम की धारा 23 के तहत अपना नाम बदलने का अधिकार है। इसके साथ साथ, ट्रेड यूनियन धारा 24 के तहत किसी अन्य यूनियन के साथ भी समामेलन कर सकता है और धारा 27 के तहत यह अपने विघटन के लिए भी आवेदन दायर कर सकता है।

ऊपर दिए गए अधिकारों के साथ साथ, ट्रेड यूनियनों को कुछ दायित्वों के साथ भी निहित किया जाता है, जैसे की:

  • यूनियन के पैसे को केवल उन्हीं कार्यों  के लिए खर्च करना जिनकी अनुमति धारा 15 के तहत दी गई है।
  • यह उनका वैधानिक कर्तव्य है की वह जनता के लिए निरीक्षण (इंस्पेक्शन) के लिए खातों की पुस्तकों को उपलब्ध रखे। [ धारा 20 ]
  • नाम परिवर्तन, समामेलन और विघटन की सूचना प्रदान करें। [धारा 25]
  • ट्रेड यूनियनों के रजिस्ट्रार को वार्षिक रिटर्न या सामान्य विवरण प्रस्तुत करे। [धारा 28

3. औद्योगिक विवाद अधिनियम (इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट), 1947

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (“आई.डी. अधिनियम”) अनिवार्य रूप से श्रमिकों और नियोक्ताओं के विवादों और ऐसी अन्य संबंधित गतिविधियों को सुलझाने के लिए एक तंत्र (मैकेनिज्म) प्रदान करता है। हालांकि आई.डी. अधिनियम विशेष रूप से कोई अधिकार प्रदान नहीं करता है, लेकिन ट्रेड यूनियन औद्योगिक विवादों को हल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; इसलिए उन्हें स्वाभाविक रूप से इन मामलों में अन्तर्निहित (इन्हेरेंट) अधिकार प्रदान किए गए हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

  1. आई.डी. अधिनियम की धारा 3 के तहत बनाई गई कार्य समिति में और सुलह (कॉन्सिलिएशन), श्रम न्यायालय, औद्योगिक विवाद न्यायाधिकरण, राष्ट्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण आदि जैसे विवाद समाधान मंचों के समक्ष श्रमिकों का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) करने का अधिकार [धारा 36],
  2. धारा 9C  के तहत बनाए गए शिकायत निपटान प्राधिकरणों (अथॉरिटीज) के समक्ष एक श्रमिक, जो एक सदस्य है, उस का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार,
  3. धारा 22 और 23 में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार हड़ताल का अधिकार,
  4. ले-ऑफ, मोर्चाबन्दी (रेट्रेंचमेंट), बर्खास्तगी (डिस्मिसल), मुआवजे, उपक्रमों (अंडरटेकिंग) के स्थानांतरण (ट्रांसफर) या बंद होने की स्थिति में मुआवजे, काम करने की स्थिति आदि के संबंध में श्रमिकों की ओर से बातचीत करने का अधिकार, 
  5. प्रमाणन अधिकारी (सर्टिफाइंग ऑफिसर) द्वारा प्रमाणन से पहले मौसोदे (ड्राफ्ट) में तैयार किए गए स्थायी आदेशों की समीक्षा की जानी चाहिए और औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम, 1946 के अनुसार ट्रेड यूनियन द्वारा उन्हें अनुमोदित (अप्रूव) किया जाना चाहिए [धारा 3]। यही बात स्थायी आदेशों में संशोधन के मामले में भी लागू होती है [धारा 10]। ट्रेड यूनियन को भी अपील करने का अधिकार है यदि वे स्थायी आदेशों में निर्दिष्ट किसी भी मामले या रोजगार की शर्तों या काम करने की शर्तों के संबंध में प्रमाणित अधिकारी के आदेश से व्यथित होते हैं [धारा 6]। 

आई.डी. अधिनियम, यूनियन पर व्यापार की अनुचित प्रथाओं [धारा 25 T, अनुसूची (शेड्यूल) V के साथ पठित] में लिप्त ना होने के लिए उन्हे एक कर्तव्य प्रदान करता है। कुछ अनुचित प्रथाओं में अवैध हड़तालों की सलाह देना या उन्हें उकसाना, श्रमिकों को ट्रेड यूनियन में शामिल होने के लिए मजबूर करना या शामिल होने से मना करना, सामूहिक सौदेबाजी से इनकार करना, प्रतिरोध (कोर्सिव) के कार्यों को उत्तेजित करना जैसे की जानबूझकर ‘धीमी गति से चलो’, प्रबंधकीय (मैनेजिरियल) श्रमिकों का ‘घेराओ’, हिंसा में शामिल होना या उकसाना या डराना, आदि शामिल है। इस प्रकार यूनियन के लिए यह सबसे आवश्यक है कि वे अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए कानून में निर्धारित की गई प्रक्रियाओं का पालन करें।

अपंजीकृत ट्रेड यूनियन के अधिकार

जहां एक तरफ यह कहा जा सकता है कि पंजीकृत ट्रेड यूनियन को कई अधिकार प्राप्त होते हैं, वही दूसरी तरफ यह अपंजीकृत यूनियन के लिए नहीं कहा जा सकता है। अपंजीकृत ट्रेड यूनियन को अपने सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने के अलावा और कोई अधिकार प्रदान नहीं किए गए है। ऐसे मामलों में जहां यूनियन के सदस्यों के रूप में काफी बड़ी संख्या में श्रमिक हैं, वे औद्योगिक विवाद उठा सकते हैं और अपनी शर्तो को भी आगे रख सकते हैं। चूंकि इस तरह के यूनियन को श्रमिकों का समर्थन प्राप्त होता है तो इसलिए नियोक्ता के लिए उनके साथ अच्छे संबंध बनाए रखना बहुत आवश्यक होता है। 

तथ्य यह कि अपंजीकृत ट्रेड यूनियन या यूनियनों जिन का पंजीकरण रद्द कर दिया जाता है, उनके पास आई.डी. अधिनियम या टी.यू. अधिनियम के तहत कोई अधिकार नहीं होता है, यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बी श्रीनिवास रेड्डी बनाम कर्नाटक शहरी जल आपूर्ति और ड्रेनेज बोर्ड कर्मचारी यूनियन और अन्य के मामले में स्थापित किया गया था।  

मान्यता प्राप्त ट्रेड यूनियन के अधिकार

जहां एक तरफ ट्रेड यूनियन को सौदेबाजी की प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए पंजीकृत किया जा सकता है, वहीं इसके साथ साथ यह भी बहुत आवश्यक है कि संबंधित प्रतिष्ठान या नियोक्ता बातचीत और निपटान के उद्देश्य से उस यूनियन को मान्यता प्रदान करे। कोई विशिष्ट (स्पेसिफिक) केंद्रीय कानून नहीं है जो यूनियन को मान्यता प्रदान करने के बारे मे बताता हो, हालांकि, कई राज्यों ने ऐसे कानून बनाए हैं, उदाहरण के लिए, केरल ट्रेड यूनियन की मान्यता अधिनियम, 2010, पश्चिम बंगाल ट्रेड यूनियन नियम, 1998 , ट्रेड यूनियन की महाराष्ट्र मान्यता और अनुचित श्रम आचरण निवारण अधिनियम, आदि, जो यूनियन को अपने श्रमिकों के लिए एकमात्र सौदेबाजी के लिए एजेंट के रूप में, ट्रेड यूनियन की मान्यता के लिए विशिष्ट नियम और प्रक्रिया प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त, अनुशासन संहिता, 15 वें भारतीय श्रम कांग्रेस द्वारा अपनाई गई संहिता है जो ट्रेड यूनियन की मान्यता के लिए प्रक्रिया प्रदान करती है। 

अनुशासन संहिता के खंड VIII के अनुसार, मान्यता प्राप्त ट्रेड यूनियन को गैर-मान्यता प्राप्त यूनियन की तुलना में निम्नलिखित अधिकार प्रदान किए जाते हैं:

  1. मुद्दों को उठाने और नियोक्ताओं के साथ सामूहिक समझौते करने का अधिकार, 
  2. सदस्यता शुल्क और सदस्यता लेने का अधिकार,
  3. उपक्रम के परिसर में प्रमुख स्थानों पर नोटिस लगाने और घोषणा करने का अधिकार,
  4. विवादों को रोकने या निपटाने के उद्देश्य से श्रमिकों और नियोक्ताओं के साथ चर्चा करने का अधिकार,
  5. शिकायत समिति, संयुक्त प्रबंधन परिषदों (ज्वाइंट मैनेजमेंट काउंसिल) और अन्य गैर-सांविधिक द्विदलीय (नॉन स्टेच्यूटरी बायपार्टी) समितियों जैसे कल्याण समिति, कैंटीन समिति आदि में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार। 

औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) के साथ, केंद्र सरकार ने औद्योगिक संबंध (केंद्रीय) वार्ता (नेगोशिएटिंग) यूनियन या वार्ता परिषद की मान्यता और ट्रेड यूनियनों के विवादों के निर्णय पर नियम, 2021 को भी पेश किया है। एक बार इसके प्रभावी हो जाने के बाद, ट्रेड यूनियनों की मान्यता के लिए एक केंद्रीय ढांचा होगा। 

कुछ महत्वपूर्ण निर्णय 

कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय हैं जो ट्रेड यूनियन की भूमिका और अधिकारों को बेहतर ढंग से समझने में हमारी मदद करते हैं, उनमें से कुछ संक्षेप में नीचे दिए गए हैं:

  1. इंडियन बैंक के श्रमिक बनाम इंडियन बैंक के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा था कि प्रत्येक ट्रेड यूनियन एक कॉर्पोरेट निकाय होता है, और इस तरह इसको कॉरपोरेट निकाय के सभी अधिकार प्रदान किए जाते हैं। इस मामले में यह भी निर्धारित किया गया था कि ट्रेड यूनियन के पदाधिकारियों और अधिकारियों को कार्यालय के समय के दौरान और बाद में यूनियन की गतिविधियों में शामिल होने का पूरा अधिकार है और प्रबंधन या नियोक्ता उनके द्वारा की जा रही यूनियन की वैध गतिविधियों के लिए अपना सहयोग प्रदान करने के लिए बाध्य है।
  2. बामर लॉरी वर्कर्स यूनियन, बॉम्बे एंड अदर बनाम बामर लॉरी एंड कंपनी लिमिटेड एंड अदर के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रेड यूनियन की बहुलता के अस्तित्व पर फैसला किया, और मान्यता प्राप्त और गैर-मान्यता प्राप्त अधिकारों के बीच की भिन्नताओ को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने यह माना कि ट्रेड यूनियन की मान्यता सौदेबाजी को प्रभावी बनाने में सहायता करती है।
  3. आर.एम.एल. अस्पताल बनाम वेलिंगटन हॉस्पिटल वर्कर्स यूनियन के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि श्रमिकों और यूनियन के पास अपनी शिकायतों को शांतिपूर्वक व्यक्त करने का अधिकार होता है, लेकिन आंदोलनकारी संसाधनों को इस्तमाल करने का कोई अधिकार नहीं होता है जो दूसरों के जीवन और अस्पताल सेवाओं को खतरे में डालते हैं।
  4. बी.आर. सिंह बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में, एक हड़ताल को सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा विवाद निवारण के एक वैध तरीके के रूप में मान्यता दी गई थी थी। 
  5. वेस्ट इंडिया स्टील कंपनी लिमिटेड बनाम अज़ीज़ के मामले में, केरल उच्च न्यायालय के द्वारा यह अयोजित किया गया की एक ट्रेड यूनियन श्रमिकों के हितों की वकालत कर सकता है, हालांकि, एक व्यक्तिगत कार्यकारी (एग्जीक्यूटिव) या यूनियन के नेता को किसी कर्मचारी को काम पर जाने से रोकने या किसी अन्य तरीके से एक प्रतिष्ठान के कार्य मे बाधा डालने का अधिकार नहीं है।

निष्कर्ष

एक अर्थव्यवस्था का विकास निगमों (कॉर्पोरेशन) की वृद्धि पर निर्भर करता है, जो बदले में उसके श्रमिकों और कर्मचारियो पर निर्भर करता है। यह केवल एक ऐसे वातावरण की उपस्थिति में संभव है जो श्रमिकों को उन मामलों पर अपनी शिकायतें और राय देने की अनुमति देता है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनके रोजगार से संबंधित हैं। अक्सर, शक्ति नियोक्ताओं के पक्ष में प्रदान की जाती है, इसलिए संतुलन बनाना अतिआवश्यक हो जाता है क्योंकि यदि अधिक नहीं, तो कम से कम श्रमिकों को उनके समान शक्तियां प्रदान की जानी चाहिए और यहीं से ट्रेड यूनियन का महत्व आता है। 

हालांकि राजनीतिक हस्तक्षेप, यूनियन की बहुलता, यूनियन के बीच एकता की कमी, कम सदस्यता, गैर-मान्यता या गैर-पंजीकरण यूनियन के प्रभावी कामकाज में समस्याएं पैदा करते हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर वे सफल रहे हैं, खासकर के असंगठित क्षेत्र में। इसके अलावा, कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में प्रौद्योगिकी क्षेत्र में यूनियन के बढ़ने के साथ, ट्रेड यूनियन आंदोलन निश्चित रूप से बढ़ रहा है। वार्ता यूनियन और उनकी मान्यता, नए पेश किए गए औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 में शिकायत निवारण की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित (स्ट्रीमलाइन) करने जैसे परिवर्तनों के साथ, ट्रेड यूनियन का महत्व और भूमिका की वृद्धि होते रहना निश्चित है।  

संदर्भ

 

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