हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के तहत विवाह की वैधता

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Hindu Marriage Act

यह लेख कोलकाता के एमिटी लॉ स्कूल की Oishika Banerji ने लिखा है। यह लेख हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के तहत विवाह की वैधता से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

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परिचय 

1955 का हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू विवाहों को नियंत्रित करने वाला एक संहिताबद्ध (कोडीफाइड) कानून है। 18 मई, 1955 को एक संहिताबद्ध कानून बनने पर, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 सभी हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों या सिखों के लिए लागू हो गया था। यह अधिनियम उन सभी व्यक्तियों के लिए भी उपयोगी है जो मुस्लिम, ईसाई, पारसी, या यहूदी धर्म से नहीं हैं, जैसा कि अधिनियम की धारा 2 (1) (c) द्वारा प्रदान किया गया है। इस लेख का उद्देश्य इस अधिनियम की धारा 5 का विश्लेषण प्रदान करना है, जो एक हिंदू विवाह के लिए उन शर्तों से संबंधित है जिन्हें विवाह को वैध मानने के लिए पूरा किया जाना आवश्यक है। इसके साथ ही, यह लेख 1955 के अधिनियम की धारा 5 की व्याख्या करने के इरादे से भारतीय अदालतों द्वारा दिए गए ऐतिहासिक निर्णयों के साथ भी आता है। 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अध्याय II में धारा 5 हिंदू विवाह के लिए शर्तों को निर्धारित करती है। प्रावधान में पांच शर्तें शामिल हैं जिनका पालन दो हिंदुओं के बीच विवाह को संपन्न करने के लिए किया जाता है। इस धारा के संबंध में चर्चा के साथ आगे बढ़ने से पहले, यह उल्लेख करना उल्लेखनीय है कि व्याख्या के शाब्दिक नियम को लगाने से यह स्पष्ट होता है कि प्रावधान विवेकाधीन (डिस्क्रिशनरी) है, और प्रकृति से अनिवार्य नहीं है। “होगा” के स्थान पर “हो सकता है” शब्द इस व्याख्या को स्पष्ट करता है। लेकिन दूसरी ओर, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यदि उक्त प्रावधान के तहत प्रदान की गई शर्तों का पालन नहीं किया जाता है, तो धारा 11 और 12 के अनुसार विवाह शून्य और शून्यकरणीय हो सकता है। इसके अलावा, धारा 5 के खंड (iii), (iv) और (v) का उल्लंघन, विवाह में शामिल व्यक्तियों को इस अधिनियम की धारा 18 के तहत प्रदान किए गए दंड के अधीन कर सकता है।  

प्रावधान के पीछे के उद्देश्य और कारण 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के उद्देश्यों और इसके निर्माण के पीछे के कारणों को जानने के लिए, पांच शर्तों को समझने की आवश्यकता है। धारा 5 द्वारा प्रदान की गई पाँच शर्तें यहाँ दी गई हैं: 

विवाह में शामिल पक्षों का, विवाह के समय जीवित पति या पत्नी नहीं होना चाहिए 

1955 के अधिनियम की धारा 5 के तहत निर्धारित पांच शर्तों में से पहली शर्त यह है की, जिसका पालन न करने पर वह विवाह को उसी अधिनियम की धारा 11 के तहत प्रदान किए गए प्रावधान के अनुसार शून्य बना देगा। यमुनाबाई अनंतराव अधव बनाम अनंतराव शिवराम अधव (1988) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि कोई भी विवाह जो हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11 का पालन नहीं करता है, उसे अधिनियम की शुरुआत से ही शून्य माना जाना चाहिए। 

इस स्थिति के तहत उद्देश्य को समझने के लिए, स्थिति का एक सरल पठन पर्याप्त है। कई दशकों से भारतीय समाज में द्विविवाह का प्रचलन भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक ढांचे का स्पष्ट प्रतिबिंब रहा है। इसलिए इस शर्त के पीछे का मकसद ऐसी प्रथाओं को पूरी तरह से खत्म करना है। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 और 495 के तहत कोई कार्य करना, जो द्विविवाह को गैर-संज्ञेय (नॉन कॉग्नीजेबल) अपराध के रूप में मान्यता देता है, जिसमें 7 साल की कैद, और/या, जुर्माना हो सकता है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 यह भी सुनिश्चित करता है कि समाज में ऐसा कोई कार्य न हो जैसा की धारा 17 के तहत दिया गया गया है और ऐसा करके यह समाज में द्विविवाह की प्रथा को अस्तित्वहीन करता है। 

विवाह में शामिल पक्षों को वैध सहमति प्रदान करने के लिए विकृत दिमाग या मानसिक विकार नहीं होना चाहिए

धारा 5 के तहत प्रदान की गई दूसरी शर्त तीन आधारों को निर्धारित करती है, जिनमें से एक का उल्लंघन विवाह में पक्षों द्वारा नहीं किया जाना चाहिए, अन्यथा विवाह प्रकृति से शून्यकरणीय हो जाएगा, जैसा कि धारा 12 के खंड (1) (b) के तहत प्रदान किया गया है। ये शर्तें हैं: 

  1. मन की अस्वस्थता के कारण दोनों में से कोई भी पक्ष वैध सहमति देने में अक्षम है; या
  2. दोनों में से कोई भी पक्ष, हालांकि वैध सहमति प्रदान करने में सक्षम है, लेकिन मानसिक विकार, नपुंसकता या वैवाहिक संबंधों में प्रवेश करने के लिए अयोग्य है; या
  3. कोई भी पक्ष बार-बार पागलपन के दौरों से ग्रस्त है।

इन तीन शर्तों को वैध आधार माना जा सकता है जिन्हें वैध हिंदू विवाह होने के लिए ध्यान में रखा जाना चाहिए। किसी भी पक्ष में मन की अस्वस्थता, पागलपन के दौरे, या मानसिक विकार की उपस्थिति, विवाह में दोनों पक्षों के लिए एक गंभीर मुद्दा हो सकता है, इसलिए, इन आधारों पर विवाह के निषेध (प्रोहिबीट) को पक्षों द्वारा ध्यान में रखा जाना आवश्यक है। 

विवाह के समय वर और वधू की कानूनी आयु

धारा 5 द्वारा निर्धारित तीसरी शर्त का अपने आप में अत्यधिक महत्व है। यह शर्त क्रमशः वर और वधू के लिए विवाह की कानूनी आयु 18 वर्ष और 21 वर्ष अनिवार्य करती है। इस शर्त के उल्लंघन के परिणाम को इस कानून के तहत स्पष्टीकरण के साथ प्रदान नहीं किया गया है। ऐसे में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा वी. प्रेमा कुमारी बनाम एम. पलानी (2011) के मामले में एक आदेश दिया गया था। अदालत ने माना कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में ऐसा प्रावधान नहीं है जो नाबालिग बच्चों को वयस्कता (एडल्ट हुड/मैच्योरिटी) प्राप्त करने के बाद शादी से बचने की अनुमति देता है, जिससे तीसरी शर्त के उल्लंघन में विवाह को शून्यकरणीय करने योग्य घोषित किया जाता है, ऐसा पक्ष जो शादी के समय बच्चा होता है उसे उसके विवाह के बारे में एक जिला न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर करनी होती है, जिससे एक डिक्री प्राप्त होती है जो इस तरह के विवाह को अमान्य और शून्य घोषित कर देगा। यह निर्णय हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (2) (iv) द्वारा भी मान्य है जो तलाक के लिए आधार प्रदान करती है।

इसलिए, धारा 5 के तहत तीसरी शर्त के पीछे का मकसद स्व-व्याख्यात्मक प्रकृति का है। इसके अलावा, बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 एक ऐसा कानून है जो बाल विवाह की क्रूर प्रथा को रोकने की दिशा में एक मजबूत न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) के रूप में कार्य करता है, जिसकी जड़ें भारतीय समाज में गहरी हैं। 

पक्षों द्वारा निषिद्ध (प्रोहिबीटेड) संबंधों की डिग्री का पालन नहीं किया गया है और वे संपिड नहीं हैं 

धारा 5 की शर्त 4 और 5 को समझने के लिए, निषिद्ध संबंध की शर्तों की डिग्री और संपिड संबंध के बारे में जानना सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है। 1955 के अधिनियम की धारा 3 (f) और (g) क्रमशः संपिड संबंध की परिभाषा और निषिद्ध संबंधों की डिग्री प्रदान करती है। सरल शब्दों में, इन दोनों परिभाषाओं का उद्देश्य इस तथ्य को सुनिश्चित करना है कि हिंदू विवाह उन पक्षों के बीच नहीं होना चाहिए जो अपने पूर्वजों के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, या पारिवारिक संबंधों के रूप में इन दो प्रावधानों में प्रदान किए गए हैं। धारा 5 की अंतिम दो शर्तों का उल्लंघन करने वाले किसी भी हिंदू विवाह को अधिनियम की धारा 11 के तहत शून्य घोषित कर दिया जाएगा। 

लेकिन, धारा 5 के तहत चौथी और पांचवीं शर्तों के लिए उल्लेखनीय कारक यह है कि दोनों किसी भी अन्य नियमों या विनियमों (रेगुलेशन) पर प्रथा को लागू करने की अनुमति देते हैं। इस प्रकार, यदि प्रथा निषिद्ध संबंधों की डिग्री के भीतर विवाह की अनुमति देती है, और/या पक्ष एक-दूसरे के संपिड हैं, तो ऐसा विवाह, 1995 के अधिनियम की धारा 5 के तहत मान्य होगा। 

अधिनियम, 1955 की धारा 5 के तहत सहमति की भूमिका 

हिंदू विवाह एक अनुबंध है या एक संस्कार है, इस विवाद में सहमति के महत्व को पहचाना गया है। यदि हिंदू विवाह को एक संस्कार के रूप में माना जाता है, तो पक्षों की सहमति शायद ही कोई प्रासंगिकता (रिलेवेंसी) पा सकती है, लेकिन यदि यह एक अनुबंध है, तो सहमति विवाह की एक शर्त के रूप में आती है। हिंदू विवाह में सहमति की भूमिका का पता 1995 के अधिनियम के तीन आवश्यक प्रावधानों की मदद से लगाया जा सकता है, जो धारा 5, 11 और 12 हैं। 

जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है, धारा 5 हिंदू विवाह के लिए शर्तें प्रदान करती है, धारा 11, और 12 क्रमशः शून्य और शून्यकरणीय विवाह से संबंधित है। यदि कोई अधिनियम की धारा 5 को केवल पढ़ता है, तो दो सहमति से सम्बंधित तत्व हैं जो दूसरी और तीसरी शर्त में पाए जाते हैं जो क्रमशः आयु और मन की स्थिरता को निर्धारित करता है। इन दो तत्वों के समर्थन में धारा 11, और 12 शामिल हैं जो सहमति के महत्व को कम होने से को रोकने, विवाह को क्रमशः शून्य और शून्यकरणीय घोषित करने को सुनिश्चित करता है। लेकिन इन दोनों प्रावधानों से कितनी रोकथाम को सफलतापूर्वक अंजाम दिया जा सकता है यह एक सवाल बना हुआ है। 

सहमति को अनुबंध के कानून में बुनियादी सिद्धांतों में से एक के रूप में स्थापित किया गया है। ऐसे में, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में एक ही सिद्धांत लागू नहीं होता है, भले ही हिंदू विवाह को एक अनुबंध माना जाता है। उसी का एक  उदाहरण धारा 5 के तहत दूसरी शर्त की भाषा है। यह शर्त तीन आधारों को निर्धारित करती है लेकिन इसकी प्रयोज्यता (एप्लीकेशन) अस्पष्ट हो जाती है जब तीन आधारों में से केवल एक का पालन करने की आवश्यकता होती है।

इसका मतलब यह है कि भले ही पक्षों में से एक विकृत दिमाग का है, या उसे मानसिक विकार है, या बार-बार पागलपन के दौरे से पीड़ित है, उस पक्ष के साथ विवाह कानूनी दृष्टि से मान्य होगा। कानून में यह खामी शादी में सहमति के महत्व को खत्म कर देती है। कानून में लापरवाही के लिए इसी तरह के मुद्दे, शादी के लिए निर्धारित उम्र के प्रति उसके रवैये को मापते हुए देखे जा सकते हैं। अतः ऊपर दिए गए तीनों प्रावधानों को एक साथ पढ़ने और विवरण देने से जो निष्कर्ष निकाला जा सकता है वह यह है कि कानून में निश्चितता की कमी का परिणाम यह है कि वैध सहमति के बिना एक हिंदू विवाह को वैध माना जाएगा। 

ऐतिहासिक निर्णय 

यह केवल हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 की न्यायिक व्याख्या के माध्यम से है कि इसके उद्देश्यों, पक्ष और विपक्षों के साथ प्रावधान को तार्किक (लॉजिकल) स्पष्टीकरण के साथ प्रदान किया जा सकता है। 

पिनिन्ति वेंकटरमण और अन्य बनाम राज्य

इस मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कानून के सवाल पर विचार किया कि क्या हिंदू विवाह जो धारा 5 की तीसरी शर्त का पालन किए बिना होता है, उसे ऐसे विवाह के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा जो प्रारंभ से ही शून्य है, या इसमें की कानून मे ऐसा कोई विवाह, विवाह नहीं है। जैसा कि धारा 11, और धारा 12, धारा 5 (iii) की बात करते समय खुद को वहा से अलग कर लेते हैं, तो माननीय न्यायालय ने देखा कि शर्त की भाषा की व्याख्या करते समय शर्तो का उल्लंघन करने वाला, विवाह के बारे में निष्कर्ष के लिए जगह प्रदान नहीं करता है। इसलिए यदि धारा 5(iii) का उल्लंघन किया जाता है तो ऐसा कोई महत्वपूर्ण परिणाम नहीं दिखता है। 

गुरविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने हाल के एक फैसले में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के जीवन की रक्षा करने और प्रत्येक नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्व को बरकरार रखा, जो उस राज्य द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए जिस पर सुरक्षा का कर्तव्य निहित किया गया है। न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (iii) पर विचार करते हुए कहा कि हालांकि प्रावधान द्वारा निर्धारित शर्तों का उल्लंघन विवाह को शून्य नहीं बनाता है, लेकिन इससे विवाह में शामिल पक्षों के जीवन और स्वतंत्रता की जरूरतें पूरी हो, इस आधार पर संरक्षित किया जाना चाहिए कि अनुच्छेद 21 हिंदू विवाह कानून की तुलना में उच्च स्थान रखता है। न्यायालय ने मामले के गुण-दोष के आधार पर फैसला सुनाया। 

अरुणकुमार बनाम इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ रजिस्ट्रेशन

मद्रास उच्च न्यायालय ने हाल ही में अरुणकुमार बनाम पंजीकरण महानिरीक्षक (2019) के मामले में दिए गए एक फैसले में एक ट्रांसजेंडर महिला के लिए उपलब्ध मौलिक अधिकारों को बरकरार रखा और इस तरह एक “दुल्हन” के दायरे में एक ट्रांसजेंडर महिला को शामिल किया, जिसे हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (iii) में शामिल किया गया है। न्यायमूर्ति जी आर स्वामीनाथन ने कहा कि एक पुरुष और एक ट्रांसवुमन के बीच एक विवाह, दोनों के हिंदू होने के कारण हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के तहत एक वैध विवाह माना जाएगा। यह निर्णय न्यायालय द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(a), 21 और 25 के महत्व को ध्यान में रखते हुए किया गया था।

श्री जितेंद्र कुमार शर्मा बनाम राज्य और अन्य

दिल्ली उच्च न्यायालय ने 11 अगस्त 2010 को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के तहत विवाह की वैधता के आधार पर जितेंद्र कुमार शर्मा बनाम राज्य और अन्य (2010) के प्रसिद्ध मामले में फैसला किया। इस मामले में, शादी दो नाबालिग पक्षों के बीच हुई थी, जो प्यार में थे और शादी के बाद भाग गए थे। लड़की के पिता ने अदालत के समक्ष दलील दी कि उनकी बेटी और याचिकाकर्ता जितेंद्र कुमार के बीच की शादी अवैध थी क्योंकि यह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (iii) का उल्लंघन करती है। अदालत ने धारा 5 (iii) की ओर इशारा करते हुए कहा कि इसमें न तो शून्य विवाह का आधार है और न ही एक शून्यकरणीय विवाह के लिए है और यह मत व्यक्त किया कि अवयस्क युगल (माइनर कपल) संबंधित परिवारों की किसी बाध्यता के बिना एक साथ रहने के लिए स्वतंत्र है। 

ऊपर चर्चा किए गए निर्णयों के तीन अनुपात-निर्णय (रेश्यो डिसीडेंडी) को ध्यान में रखते हुए, यह स्पष्ट है कि धारा 5 से संबंधित मुद्दे विशेष रूप से तीसरी शर्त से संबंधित हैं जो वास्तव में हिंदू विवाह कानून का एक प्रमुख बचाव है। 

निष्कर्ष 

जैसा कि हम इस लेख के अंत में आते हैं, तो यह उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 कानून के अन्य प्रावधानों के साथ पढ़ने पर एक सराहनीय मूल्य रखती है। इस प्रावधान के तहत उल्लिखित प्रत्येक शर्त के निर्माण के पीछे एक कारण है। हिंदू रीति-रिवाजों और सामाजिक जरूरतों के बीच एक सामंजस्यपूर्ण (हार्मोनीयस) संबंध बनाए रखने के उद्देश्य से, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 हिंदू विवाहों को सफलतापूर्वक नियंत्रित करने के लिए एक उल्लेखनीय क़ानून रहा है। फिर भी, हर कानून अपने स्वयं के नुकसान के संच (सेट) के साथ आता है। इसे केवल तार्किक संशोधनों के द्वारा ही मिटाया जा सकता है। 

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