ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकार का संरक्षण) अधिनियम, 2019: मानव अधिकारों का पूरी तरह से उल्लंघन

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Violation of Human Rights
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यह लेख गुरु घासीदास विश्व विद्यालय की छात्रा Shivangi Agrawal द्वारा लिखा गया है। इस लेख मे वह, ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकार का संरक्षण) अधिनियम (ट्रांसजेंडर पर्सन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स) एक्ट), 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारो के उल्लंघन (वॉयलेशन) पर चर्चा करती हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

हिजड़ा, भारत के सबसे पिछड़े हुए समुदायों में से एक है। वे शारीरिक से लेकर यौन (सेक्शुअल) तक की हिंसा के शिकार होते हैं और अक्सर उनके पास भीख मांगने, यौन कार्य करने या विवाह समारोह या नवजात शिशु के अवसर पर परिवारों से धन इकट्ठा करने के बजाय कोई आजीविका (लाइवलीहुड) का विकल्प नहीं बचा होता है। समकालीन (कंटेंपरेरी) भारत में, देश की कानूनी न्याय प्रणाली (लीगल जस्टिस सिस्टम) इन लोगों के मुद्दों को संबोधित करने में विफल रही है और उनके लिए मौजूदा कानून अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून (इंटरनेशन ह्यूमन राइट्स लॉ) के तहत भारत के दायित्वों के बिल्कुल विपरीत हैं जो सार्वभौमिकता (यूनिवर्सलिटी), समानता और गैर-भेदभाव के सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) द्वारा निर्देशित है। भेदभाव को बढ़ावा देने वाली प्रथाओं को खत्म करने के लिए राज्यों को सकारात्मक (पॉजिटिव) उपाय करने चाहिए। केवल न्यायिक तंत्र (ज्यूडिशियल मैकेनिज्म) तक कानूनी पहुंच की गारंटी देना यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि सभी व्यक्तियों की न्याय तक वास्तविक पहुंच भी हो।

कानूनी ढांचा (फ्रेमवर्क) संभवतः (पॉसिबली) समानता और न्याय की गारंटी देने में परिवर्तनकारी (ट्रांसफॉर्मेटिव) हो सकता है। इनकी किस्मत काफी हद तक इनके लुक्स से तय होती है। आर्टिकल 14 में “व्यक्ति” शब्द का उपयोग किया गया है और आर्टिकल 15 और 16 में “नागरिक” और “लिंग” शब्द का उपयोग किया गया है। आर्टिकल 19 में भी “नागरिक” शब्द का प्रयोग किया गया है। आर्टिकल 21 में “व्यक्ति” शब्द का प्रयोग किया गया है। ये सभी भाव स्पष्ट रूप से “लिंग-तटस्थ (जेंडर न्यूट्रल)” हैं, जो मनुष्यों की ओर इशारा करते हैं। इसलिए, उनके तहत हिंजड़े और ट्रांसजेंडर आते हैं और यह केवल पुरुष या महिला लिंग के लिए ही सीमित नहीं होते हैं। हमें अपने दिन भर के हाव-भाव में ‘लैंगिक तटस्थता’ की अवधारणा (कांसेप्ट) को समझने और अपनाने की जरूरत है। इस समुदाय के बहुत अधिक सामाजिक बहिष्कार (सोशल एक्सक्लूजन) ने एच.आई.वी., मानसिक स्वास्थ्य रोगों, शिक्षा के बिगड़ते स्तर और रोजगार अनुपात (एम्प्लॉयमेंट रेश्यो), और सामाजिक और आर्थिक (इकनॉमिक) उन्नति के नुकसान को बढ़ा दिया है और यह हिंसा बार-बार अप्रभावित रहती है।

वर्तमान परिदृश्य (प्रेजेंट सिनेरियो)

भारत की 2011 की जनगणना (सेंसस) के अनुसार, यह कहा गया है कि भारत में ट्रांसजेंडर की कुल आबादी 4,87,803 है और चुनाव आयोग (इलेक्शन कमीशन) के साथ केवल 30,000 पंजीकृत (रजिस्टर्ड) हैं। सामान्य आबादी की साक्षरता दर (लिट्रेसी रेट) 74% है जबकि इसकी तुलना में ट्रांसजेंडर समुदाय की साक्षरता दर 56.07% है। साक्षरता दर का निम्न स्तर (लो लेवल) कोई चौंकाने वाला आंकड़ा नहीं है, क्योंकि ज्यादातर ट्रांसजेंडर बच्चे परेशान करने वाली या भेदभावपूर्ण टिप्पणियों (रिमार्क) के कारण स्कूल छोड़ देते हैं। इससे पहले, भारतीय जनगणना ने वर्षों से जनगणना के आंकड़े एकत्र करते हुए कभी भी ट्रांसजेंडर को मान्यता नहीं दी है। इस संख्या के तहत बड़ी संख्या में लोगों की पहचान नहीं की गई है क्योंकि अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों को तीसरे लिंग के रूप में पहचानने से इनकार करते हैं। एन.जी.ओ. साल्वेशन ऑफ ऑप्रेस्ड जेंडर के 2011 के एक सर्वेक्षण (सर्वे) के अनुसार ट्रांसजेंडर की अनुमानित वास्तविक जनसंख्या 19 लाख है।

वे भी इंसान हैं और वे टैक्स भी देते हैं तो फिर उन्हें कानूनी और संवैधानिक अधिकारों से वंचित (डिनाइ) क्यों किया जाता है। उनको ‘व्यक्ति’ के रूप में पहचाने जाने के उनके अधिकारों से लगातार वंचित किया जा रहा है। 2018 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन) (एन.एच.आर.सी.) की ओर से केरल डेवलपमेंट सोसाइटी द्वारा किए गए पहले अध्ययन (स्टडी) में पाया गया कि ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों से ‘अत्यधिक समझौता’ किया गया है। अध्ययन ने निम्नलिखित बिंदुओं पर प्रकाश डाला:

  • 99% ट्रांसजेंडर लोग कई जगहों पर सामाजिक अस्वीकृति के शिकार होते हैं,
  • ट्रांसजेंडरों में ड्रॉप-आउट प्रतिशत अधिक है क्योंकि उनमें से 52% अपने सहपाठियों द्वारा स्कूल में उत्पीड़न का अनुभव करते हैं और 15% शिक्षकों द्वारा,
  • 96% ट्रांसजेंडर लोगों को कम वेतन वाले या अशोभनीय (अनडिग्निफाइड) काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और आजीविका के अन्य साधनों जैसे भीख मांगना और यौन कार्य का सहारा लेना पड़ता है।
  • इस समुदाय के 57% लोग सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी करवाना चाहते हैं लेकिन उनके पास इसके लिए पर्याप्त पैसा नहीं होता है।

यह बताता है कि भारत, नालसा के फैसले द्वारा दिए गए सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों (गाइडलाइंस) को लागू करने में विफल रहा है। तमिलनाडु एकमात्र ऐसा राज्य है जिसने इस समुदाय की बेहतरी के लिए कुछ कदम उठाए हैं।

चुनाव आयोग की रिपोर्ट में रिकॉर्ड किया गया है कि केवल 40,000 ट्रांसजेंडर मतदाता (वोटर्स) पंजीकृत हैं यानी उनकी कुल आबादी का लगभग 10% ही पंजीकृत है। इसका कारण उन्हें चुनावी मतदान में पंजीकृत कराने में शामिल लंबी प्रक्रिया है। उन्हें शपथ आयुक्त (ओथ कमिश्नर) से अपनी साख (क्रिडेंशियल्स) साबित करने के लिए एक कानूनी दस्तावेज प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, फिर उन्हें ट्रांसजेंडर के रूप में पुष्टि (कंफर्म) करने के लिए कम से कम दो स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित (पब्लिश) करना होता है और कानूनी दस्तावेजों पर अपने माता-पिता/अभिभावकों (गार्जियन) के हस्ताक्षर लेने होंते हैं।

नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 2014 इस कानून के पीछे  का ऐतिहासिक निर्णय था। याचिकाकर्ताओं (पेटिशनर्स) ने दावा किया था कि चूंकि उन्हें उचित मान्यता नहीं दी जाती है, इसलिए वे कई अधिकारों और विशेषाधिकारों (प्रिविलेज) से वंचित होते हैं, जिनके लिए हर कोई देश के नागरिक के रूप में हकदार है। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संधियों (इंटरनेशनल ट्रीटी) और संयुक्त राष्ट्र निकायों (यूनाइटेड नेशन बॉडीज) द्वारा ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों को भी मान्यता दी गई है। इस मामले ने योग्याकार्ता सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) को भी रखा है जो मानव अधिकारों और यौन अभिविन्यास (सेक्शुअल ओरिएंटेशन) लिंग पहचान के मुद्दों पर इसके आवेदन (एप्लीकेशन) को संबोधित (एड्रेस) करते हैं। इन सिद्धांतों का, संयुक्त राष्ट्र निकायों, मानवाधिकार निकायों, सरकारी आयोगों (कमीशन), यूरोप परिषद (काउंसिल ऑफ़ यूरोप) आदि द्वारा समर्थन (एंडोर्स) किया गया है। अन्य देशों में मौजूद कानूनों का भी संदर्भ दिया गया था। लेकिन, दुर्भाग्य से, ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों से निपटने के लिए देश में कोई कानून नहीं था।

संबंधित प्रावधान भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड), 1860 में धारा 377 के तहत भी निहित था, जो प्रकृति के आदेश के खिलाफ किसी भी शारीरिक संभोग (कार्नल इंटरकोर्स) को अपराध बनाता है। सुरेश कुमार कौशल और अन्य बनाम नाज़ फाउंडेशन और अन्य के मामले में, धारा 377 को संवैधानिक ठहराया गया था और नाज़ फाउंडेशन बनाम एन.सी.टी. दिल्ली की सरकार के निर्णय को उलट दिया गया था।  2018 में, सुरेश कुमार मामले को नवतेज सिंह जौहर बनाम यू.ओ.आई. मामले में खारिज कर दिया गया था।

अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांतों का पालन करने के लिए भारत का दायित्व

भारत के संविधान के आर्टिकल 253 में कहा गया है कि “संसद के पास किसी भी संधि (ट्रीटी), समझौते या सम्मेलन (कन्वेंशन) को लागू करने के लिए भारत के पूरे क्षेत्र या किसी भी हिस्से के लिए कोई कानून बनाने की शक्ति है।”

अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के मूलभूत उपकरणों (फाउंडेशनल इंस्ट्रूमेंट) में दो आधिकारिक बुनियादी संधियाँ शामिल हैं, नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा (इंटरनेशनल कोवनेंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स) (आई.सी.सी.पी.आर.) और आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा (इंटरनेशनल कोवनेंट ऑन इकनॉमिक, सोशल एंड कल्चरल राइट्स) (आई.सी.ई.एस.सी.आर.)। यह सब संधियाँ मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स) (यू.डी.एच.आर.) से ली गई थीं, जिसके सिद्धांत की वे रक्षा करना चाहते हैं। भारत ने इन वाचाओ (कोवनेंट) की पुष्टि की है और इस प्रकार, संसद सामंजस्य (डॉक्ट्रिन ऑफ़ हार्मोनाइजेशन) के सिद्धांत को लागू करके उन्हें लागू करने के लिए नगरपालिका (म्युनिसिपल) अदालतों के तहत कानून बना सकती है।

इसलिए, इन अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और योग्याकार्ता सिद्धांतों में उल्लिखित मानवाधिकारों के सिद्धांतों को देश के घरेलू कानूनों में मान्यता दी जानी चाहिए और इन्हे शामिल किया जाना चाहिए। कुछ अन्य उपकरण हैं जिन्हें भारत देख सकता है, जैसे कि यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक उपचार या सजा के खिलाफ़ सम्मेलन, (कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर एंड अदर क्रूएल, इनह्यूमन और डिग्रेडिंग ट्रीटमेंट और पनिशमेंट) 2008, राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गेनाइजेशन) (नाको), और राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम (नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम) IV (एन.ए.सी.पी. IV)।

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019

यूनियन ऑफ़ इंडिया के खिलाफ 2012 में साल्वेशन ऑफ ऑप्रेस्ड हिजड़ों (एस.ओ.ओ.ई.) द्वारा बॉम्बे हाईकोर्ट में 2012 में एक जनहित याचिका (पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन) दायर की गई थी। जुलाई 2012 में, कैबिनेट सेक्रेटेरिएट ने निर्णय लिया कि सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ़ सोशल जस्टिस एंड एंपावरमेंट), अन्य मंत्रालयों के परामर्श (कंसल्टेशन) से जनहित याचिका और संबंधित मामलों को संभालेगा। इसके बाद मंत्रालय को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों से संबंधित कार्य आवंटित किया गया है।

विशेषज्ञ समिति (एक्सपर्ट कमिटी) की रिपोर्ट, 2014

ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों और समस्याओं का अध्ययन (स्टडी) करने के लिए गठित (कांस्टीट्यूटेड) एक विशेषज्ञ समिति ने 27 जनवरी 2014 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। समिति की कुछ प्रमुख सिफारिशें (रिकमेंडेशन) कुछ इस प्रकार हैं:

  1. सबसे पहले ‘ट्रांसजेंडर’ व्यक्तियों को ‘तीसरे लिंग’ के रूप में पहचानना और ‘अन्य’ या ‘अन्य लोगो’ जैसे नामों के उपयोग से बचाना है। एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति का ‘पुरुष’, ‘महिला’ या ‘ट्रांसजेंडर’ के रूप में पहचाने जाने का अधिकार है।
  2. एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को उसके लिंग की पहचान की मान्यता के रूप प्रमाण पत्र (सर्टिफिकेट) जारी किया जाना चाहिए, जो जिला समाज कल्याण अधिकारी (डिस्ट्रिक्ट सोशल वेलफेयर ऑफिसर), मनोवैज्ञानिक (साइकोलॉजिस्ट), मनोचिकित्सक (साइकाइट्रिस्ट), एक सामाजिक कार्यकर्ता (सोशल वर्कर), ट्रांसजेंडर समुदाय के दो प्रतिनिधि (रिप्रेजेंटेटिव) और ऐसे अन्य अधिकारी जिन्हें सरकार उचित समझे, से युक्त कलेक्टर/डी.एम. की अध्यक्षता वाली जिला स्तरीय (डिस्ट्रिक्ट लेवल) स्क्रीनिंग समिति की सिफारिश पर राज्य स्तरीय प्राधिकरण द्वारा जारी किया जाएगा। 
  3. जन्म प्रमाण पत्र में ‘पुरुष’, ‘महिला’ या ‘ट्रांसजेंडर’ के रूप में लिंग परिवर्तन (चेंज) के लिए, 18 वर्ष या उससे अधिक की आयु के बाद अनुमति दी जानी चाहिए और प्रमाण पत्र सभी आधिकारिक दस्तावेजों के लिए मान्य होगा।
  4. समुदाय के सशक्तिकरण (एंपावरमेंट) के लिए एक अम्ब्रेला योजना (स्कीम) तैयार की जाएगी।
  5. इसने सिफारिश की कि संकट परामर्श सेवाओं (क्राइसिस काउंसलिंग सर्विसेज) को बलात्कार और संकट हस्तक्षेप केंद्रों, कार्यस्थल यौन उत्पीड़न नीतियों के निर्माण, शैक्षणिक संस्थानों में भेदभाव-विरोधी कोशिकाओं और करियर मार्गदर्शन और ऑनलाइन प्लेसमेंट सहायता के लिए हेल्पलाइन के अनुरूप स्थापित किया जाना चाहिए।
  6. ट्रांसजेंडर के अधिकारों का उल्लंघन करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ उचित और सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए।
  7. यौन उत्पीड़न की घटनाओं को कवर करने के लिए आई.पी.सी. के तहत कड़े प्रावधान, लिंग पहचान पर प्रतिकूल टिप्पणी को शामिल करने के लिए धारा 153A में संशोधन (अमेंडमेंट) किया जाना चाहिए।
  8. छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप), शुल्क-माफी, मुफ्त पुस्तकें, पुस्तकालय, संसाधन केंद्र (रिसोर्स सेंटर), ऑडियो विजुअल कंटेंट सरकार द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए।
  9. वरिष्ठ (सीनियर) नागरिकों के लिए राष्ट्रीय परिषदों (नेशनल काउंसिल) के तहत ट्रांसजेंडर के लिए राष्ट्रीय परिषद की स्थापना की जानी चाहिए।

नालसा बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 2014 का ऐतिहासिक निर्णय

इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि उनके यौन अभिविन्यास की गैर-मान्यता संविधान के आर्टिकल 14 और 21 का उल्लंघन करती है। “ट्रांसजेंडर” शब्द का उपयोग व्यक्तित्वों (पर्सनेलिटी) की एक विस्तृत श्रृंखला (वाइड रेंज) को परिभाषित करने के लिए किया गया है, जो अपने जैविक (बायोलॉजिकल) सेक्स के विपरीत लिंग के साथ खुद को सशक्त (एंफेटिकल) रूप से पहचानते हैं। उन्होंने इसी तरह हिंदू पौराणिक कथाओं और अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी इसे पाया है। हालाँकि, स्थिति 18वीं शताब्दी से शुरू हुई जब अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति अधिनियम (क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट), 1871 को अधिनियमित (इनैक्ट) किया था, जिसने ट्रांसजेंडर के पूरे समुदाय को ‘अपराधी’ और ‘गैर-जमानती (नॉन बेलेबल) अपराधों के व्यवस्थित कमीशन के आदी’ घोषित कर दिया था। इस अधिनियम ने उन्हें उनके नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया था, जिससे उन्हें अभिभावक (गार्जियन) के रूप में कार्य करने, उपहार देने या वसीयत करने या बेटे को गोद लेने से वंचित किया गया था।

15 अप्रैल 2014 को नालसा के फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देश

  1. हिजड़ों, किन्नरों, ट्रांसजेंडर को उनके अधिकारों की सुरक्षा के उद्देश्य से ‘तीसरे लिंग’ के रूप में माना जाएगा।
  2. सुप्रीम कोर्ट ने उनके ‘स्व-पहचाने गए लिंग (सेल्फ आइडेंटिफाइड जेंडर)’ को तय करने के उनके अधिकार को बरकरार रखा और केंद्र और राज्य सरकार को उनकी लिंग पहचान को कानूनी मान्यता देने का निर्देश दिया गया था।
  3. केंद्र और राज्य सरकार ट्रांसजेंडर समुदाय को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के रूप में मानने वाले शिक्षण संस्थानों और सार्वजनिक रोजगार के मामलों में आरक्षण (रिजर्वेशन) प्रदान करेंगे।
  4. ट्रांसजेंडर समुदाय के स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों को दूर करने के लिए अलग से एच.आई.वी. सेरो-निगरानी केंद्र संचालित (ऑपरेट) करना और उन्हें अलग सार्वजनिक शौचालय और अन्य सुविधाएं प्रदान करना भी शामिल है। इसने अपने फैसले के अनुरूप विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट की जांच करने और 6 महीने के भीतर सिफारिश को लागू करने को कहा था।

निजी सदस्य विधेयक (प्राइवेट मेंबर बिल): ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार विधेयक, 2014

इस विधेयक (बिल) को राज्यसभा में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी.एम.के.) नेता, तिरुचि शिवा द्वारा 12 दिसंबर, 2014 को एक निजी सदस्य के विधेयक के रूप में पेश किया गया था और 24 अप्रैल, 2015 को राज्यसभा द्वारा इसे सबकी सहमती से पास किया गया था। इस दिन विजिटर्स गैलरी से ट्रांसजेंडर समुदाय के 40 सदस्य अपने अधिकारों की मान्यता की उम्मीद के साथ वहां मौजूद थे। विधेयक को 26 फरवरी, 2016 को लोकसभा में पेश किया गया था। लेकिन, विधेयक पर चर्चा में देरी हुई थी। विधेयक के प्रावधान (प्रोविजन) इस प्रकार हैं:

  1. जहां परिवार बच्चे की देखभाल करने में असमर्थ है, तो तब न्यायालय उस बच्चे के लिए उसके विस्तारित (एक्सटेंडेड) परिवार या ऐसे समुदाय के साथ पारिवारिक सेटिंग में रहने की व्यवस्था करेगा।
  2. शिक्षण संस्थानों में अन्य छात्रों के समान पहुंच का अधिकार, रियायती दरों (कंसेशनल रेट) पर ऋण (लोन) का प्रावधान और उनके लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) और स्वरोजगार कार्यक्रम आयोजित करना।
  3. उचित आश्रय (शेल्टर) या आजीविका, सुरक्षित पेयजल, स्वच्छता सुविधाओं, पेंशन योजनाओं और बेरोजगारी भत्ते के प्रावधान।
  4. ट्रांसजेंडर के लिए संगीत और नृत्य उत्सवों का प्रायोजन (स्पॉन्सर) और उनके ऐतिहासिक अनुभवों (एक्सपीरियंस) को दर्शाने वाले ट्रांसजेंडर इतिहास संग्रहालय (म्यूजियम) की स्थापना।
  5. सभी के लिए सीटों के लिए प्रतिस्पर्धा (कॉम्पटीशन) में बिना किसी भेदभाव के सरकार से सहायता प्राप्त करने वाले प्राथमिक (प्राइमरी), माध्यमिक और उच्च शिक्षा के छात्रों में 2% का आरक्षण। विधेयक में सरकारी प्रतिष्ठानों (एस्टेब्लिशमेंट) में 2% रिक्तियों को आरक्षित करने का भी प्रावधान था। अधिनियम के लागू होने के 5 वर्षों में आरक्षण के अनुरूप कर्मचारियों को भी प्रोत्साहन प्रदान किया जाना था।
  6. ट्रांसजेंडर के लिए विशेष रोजगार कार्यालय का प्रावधान।
  7. ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय और राज्य आयोग (कमीशन), जिसे ट्रांसजेंडर व्यक्ति के अधिकारों से वंचित करने के संबंध में किसी भी व्यक्ति द्वारा की गई शिकायत पर अपने आप ही पूछताछ करने और अन्य अधिकारियों के साथ आवश्यक कदम उठाने का अधिकार था और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत मुकदमा चलाने के लिए, सिविल कोर्ट की सभी शक्तियों के साथ निहित (वेस्ट) था। 
  8. उनसे संबंधित मामलों के त्वरित निपटान (स्पीडी डिस्पोजल) के लिए विशेष ट्रांसजेंडर अधिकार न्यायालय (स्पेशल ट्रांसजेंडर राइट्स कोर्ट) का प्रावधान भी था।

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ़ सोशल जस्टिस एंड एंपावरमेंट) (एम.ओ.एस.जे.ई.), 2015 द्वारा ड्राफ्ट विधेयक

इस बीच, एम.ओ.एस.जे.ई. ने 3 दिसंबर, 2015 को मसौदा (ड्राफ्ट) विधेयक को मंत्रालय की वेबसाइट पर अपलोड कर जनता से सुझाव मांगे। ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण (प्रोटेक्शन)) विधेयक को 2 अगस्त, 2016 को लोकसभा में पेश किया गया था। 2016 के विधेयक के प्रावधान इस प्रकार हैं:

  1. ट्रांसजेंडर की परिभाषा इस प्रकार है: “एक व्यक्ति जो (i) न तो पूरी तरह से महिला है और न ही पूरी तरह से पुरुष है; या (ii) महिला या पुरुष का संयोजन (कॉम्बिनेशन) है; या (iii) न तो महिला और न ही पुरुष; और जिसकी लिंग की भावना जन्म के समय उस व्यक्ति को दिए गए लिंग से मेल नहीं खाती है, और इसमें ट्रांस-मेन और ट्रांस-महिला, इंटरसेक्स भिन्नता वाले व्यक्ति और लिंग-क्वीर भी शामिल हैं।
  2. ट्रांसजेंडर व्यक्ति को ‘स्व-पहचान वाले लिंग’ को समझने का अधिकार।
  3. मुख्य चिकित्सा अधिकारी के अधीन जिला स्क्रीनिंग समिति की अनुशंसा (रिकमेंडेशन) पर जिलाधिकारी द्वारा प्रमाण पत्र जारी किया जाएगा।
  4. ट्रांसजेंडर व्यक्ति को अपने जन्म प्रमाण पत्र में लिंग बदलने का अधिकार और सभी आधिकारिक दस्तावेजों के लिए इसके भविष्य की वैधता।
  5. परिवार और तत्काल (इमीडिएट) परिवार के सदस्यों के साथ निवास का अधिकार।
  6. ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय परिषद का गठन किया जाएगा।

स्थायी समिति (स्टैंडिंग कमिटी) की रिपोर्ट, 2017

विधेयक को 8 सितंबर, 2016 को भाजपा सांसद रमेश बैस की अध्यक्षता वाली सामाजिक न्याय और अधिकारिता पर 31 सदस्यीय स्थायी समिति को भेजा गया था। समिति ने विधेयक की जांच के दौरान पांच बैठकों के बाद और लॉयर्स कलेक्टिव नामक गैर सरकारी संगठनों (नॉन गवर्नमेंट आर्गेनाइजेशन), जिन्होंने ट्रांसजेंडर समुदाय और उनके मुद्दों और चिंताओं आदि का प्रतिनिधित्व किया था, के विचारों पर ध्यान करने के बाद, 21 जुलाई, 2017 को राज्यसभा में रिपोर्ट प्रस्तुत की। समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें की थी:

  1. समिति ने पाया कि बिल इंटरसेक्स व्यक्तियों के हितों (इंटरेस्ट) को संबोधित नहीं करता है, वह समुदाय जो ट्रांसजेंडर व्यक्तियों से पूरी तरह से अलग है और इस प्रकार विधेयक का नाम बदलकर “ट्रांसजेंडर और इंटरसेक्स व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2016” करने के लिए कहा गया था। मंत्रालय अपने जवाब में कहा कि ‘ट्रांसजेंडर’ एक बहुत व्यापक शब्द है और इसमें ‘इंटरसेक्स’ व्यक्ति शामिल होंगे। इस जवाब से आश्वस्त समिति सरकार से सहमत थी।
  2. समिति ने ‘ट्रांसजेंडर’ की नीचे दी गई परिभाषा की सिफारिश की:

” ‘ट्रांसजेंडर व्यक्ति’ का अर्थ उस व्यक्ति से है जिसका लिंग जन्म के समय उस व्यक्ति को दिए गए लिंग से मेल नहीं खाता है और इसमें ट्रांस-पुरुष और ट्रांस-महिलाएं शामिल हैं (चाहे उन्होंने सेक्स रीअसाइनमेंट सर्जरी या हार्मोन थेरेपी या लेजर थेरेपी आदि से गुजरना हो या नहीं) , लिंग-श्रृंखला और कई सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान जैसे- किन्नर, हिजड़ा, अरवानी, जोगता आदि।”

समिति ने विधेयक के अध्याय 1 में ‘भेदभाव’ की परिभाषा को शामिल करने की सिफारिश की, जिसमें योग्याकार्ता सिद्धांतों के अनुरूप ट्रांसजेंडर व्यक्तियों द्वारा सामना किए जाने वाले उल्लंघनों की सीमा शामिल है। यह भी देखा गया कि विधेयक में कोई शिकायत निवारण तंत्र (ग्राइवेंस रिड्रेसल मैकेनिज्म) प्रदान नहीं किया गया है जहां किसी भी प्रतिष्ठान में या किसी व्यक्ति द्वारा ट्रांसजेंडर के अधिकारों के उल्लंघन के लिए शिकायत की जा सकती है।

  1. समिति ने स्क्रीनिंग समिति में चिकित्सा अधिकारी को शामिल करने और संविधान के आर्टिकल 14, 19 और 21 के उल्लंघन के रूप में प्रमाण पत्र जारी करने की प्रक्रिया पर आपत्ति जताई और ‘स्व-कथित (सेल्फ पर्सिव्ड) पहचान’ के लिए सुप्रीम कोर्ट के नालसा निर्णय के दिशानिर्देशों (गाइडलाइंस) का विरोध किया था। यह भी पाया गया कि समिति के सदस्य होने के लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं की गई है और समिति में जिला समाज कल्याण अधिकारी की कोई भूमिका नहीं मिली है। इसने आगे आग्रह किया कि यदि सभी डी.एस.डब्ल्यू. अधिकारी को शामिल करना है; उसे ट्रांसजेंडरों के साथ काम करने का 5 साल का अनुभव होना चाहिए और उनके विनिर्देशों (स्पेसिफिकेशन) से अच्छी तरह परिचित होना चाहिए और यदि ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिलता है, तो उसी क्षेत्र के एक प्रसिद्ध व्यक्ति को नियुक्त किया जा सकता है।
  2. समिति ने ‘बिल में स्क्रीनिंग समिती के फैसले के खिलाफ अपील करने का अधिकार’ शामिल करने का भी प्रस्ताव रखा।
  3. समिति ने अनावश्यक देरी से बचने के लिए मसौदे में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के कल्याण के लिए केंद्र और राज्य सरकार की भूमिकाओं के स्पष्ट सीमांकन (डिमार्केशन) का आग्रह किया।
  4. इसने बिल में स्पष्ट रूप से उल्लेख करने के लिए कहा की सभी प्रतिष्ठान, चाहे सार्वजनिक हों या निजी, कर्मचारियों की संख्या के बावजूद, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की शिकायतों से निपटने के लिए एक शिकायत अधिकारी को नामित करेंगे और ऐसे अधिकारी के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को परिव्यय (आउटले) करेंगे।
  5. समिति ने मसौदा विधेयक के क्लॉज 13(1) को इस प्रकार बदलने की सिफारिश की:

“कोई भी बच्चा जो ट्रांसजेंडर है, उसे ट्रांसजेंडर होने के आधार पर उसके माता-पिता या तत्काल परिवार से ऐसे बच्चे के हित में सक्षम न्यायालय के आदेश के अलावा अलग नहीं किया जाएगा।”

और क्लॉज 13(3) के रूप में:

“जहां कोई माता-पिता या उसके परिवार का कोई सदस्य एक ट्रांसजेंडर बच्चे की देखभाल करने में असमर्थ है या बच्चा उनके साथ नहीं रहना चाहता है, तो सक्षम न्यायालय यदि आवश्यक हो तो एक आदेश द्वारा, ऐसे बच्चा को अपने विस्तारित परिवार के साथ, या समुदाय में परिवार की स्थापना या पुनर्वास केंद्र (रिहैबिलिटेशन सेंटर) में रखने के लिए हर संभव प्रयास करेगा।”

समिति ने ट्रांसजेंडरों के लिए विशिष्ट पुनर्वास केंद्र स्थापित करने के लिए भी कहा, जो उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए पुरुष, महिला और बच्चों से अलग हो। यह भी देखा गया कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति के विरासत अधिकारों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, जिसमें उन्हें उनकी लिंग पहचान के आधार पर विरासत में नहीं दिया जा सकता है।

  1. इसमें शिक्षा का अधिकार अधिनियम (राइट टू एजुकेशन), 2009 के अनुरूप निजी शिक्षण संस्थानों पर बाध्यता लागू करने का प्रावधान शामिल करने और व्यावसायिक और तकनीकी प्रशिक्षण (ट्रेनिंग), परामर्श (काउंसलिंग) और करियर मार्गदर्शन (गाइडेंस) प्रदान करने का आग्रह किया गया।
  2. समिति ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए राज्य परिषदों की स्थापना, परिषद के कर्तव्यों का व्यापक लेआउट और इसे केवल सलाहकार निकाय के रूप में कम करने के बजाय परिषद के साथ प्रवर्तन शक्तियों को निहित करने की सिफारिश की।
  3. समिति ने अनुसूचित जाति के नालसा के फैसले के संदर्भ में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की श्रेणी (क्लास) के तहत ट्रांसजेंडरों को आरक्षण देने का आग्रह किया।
  4. विवाह, तलाक, गोद लेने आदि के प्रावधानों को शामिल किया जाना चाहिए।
  5. हवाई अड्डों, संस्थानों आदि में सार्वजनिक शौचालयों, चेक जोन की स्थापना का प्रावधान भी होना चाहिए।
  6. विधेयक में अध्याय 1 के अंत में ‘अंतरलिंग भिन्नता वाले व्यक्ति’ की परिभाषा को शामिल करना चाहिए।
  7. इंटरसेक्स भ्रूणों (इन्फेंट्स) के गर्भपात और इंटरसेक्स शिशुओं के लिंग के जबरन सर्जिकल असाइनमेंट के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई के प्रावधान।
  8. समुदाय के ठिकाने को जानने के लिए जनगणना के निर्धारण में एक अलग अभ्यास शामिल किया जाना चाहिए।

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019

वोट देने से इनकार करने वाले विपक्षी सदस्यों के द्वारा बहुत आलोचना (क्रिटिसिजम) की गई, और इसके बावजूद भी 5 अगस्त, 2019 को स्थायी समिति (स्टैंडिंग कमिटी) की सिफारिशों को शामिल किए बिना विधेयक को उसके मूल रूप में लोकसभा में पास कर दिया गया था और 26 नवंबर, 2019 को राज्यसभा में पास कर दिया गया था। राष्ट्रपति ने 5 दिसंबर, 2019 को विधेयक पर सहमति दी और उसके बाद इसे भारत के राजपत्र (गैजेट) में अधिसूचित (नोटिफाई) किया गया था। इस प्रकार, यह अधिनियम 10 जनवरी, 2020 से राजपत्र में एक अधिसूचना के माध्यम से लागू हुआ।

हालांकि, इन दोनों विधेयकों के खिलाफ काफी सवाल उठाए गए हैं:

  • लोकसभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन (कंडक्ट) के नियमों के तहत नियम 67, में यह प्रावधान है कि “जब कोई विधेयक सदन के सामने लंबित (पेंडिंग) होता है, तो एक समान विधेयक की सूचना, चाहे वह लंबित विधेयक को पेश करने से पहले या बाद में दो गई हो, तो उसको हटा दिया जाएगा, या लंबित नोटिस की सूची में उसे दर्ज नहीं किया जाएगा, या जैसा भी मामला हो, जब तक कि अध्यक्ष (स्पीकर) इसके विपरीत निर्देश न दें। ”

इसी तरह, नियम 112(2) कहता है की, “सदन के समक्ष लंबित विधेयक को भी सदन में लंबित विधेयकों के रजिस्टर से हटा दिया जाएगा यदि सदन द्वारा पर्याप्त रूप से समान विधेयक पारित किया जाता है या नियम 110 के तहत विधेयक को वापस ले लिया जाता है।”

तिरुचि शिव के विधेयक और इन नियमों के लंबित होने के बावजूद, सरकार ने अपना स्वयं का विधेयक विचार के लिए रखा। यह स्पष्ट किया गया कि एक बार जब सरकार अपना स्वयं का विधेयक पेश करती है, तो वह उसी विषय पर किसी भी निजी सदस्य के विधेयक पर प्राथमिकता लेती है और इस प्रकार, बाद वाले को अपना विधेयक वापस लेने के लिए कहा जाता है। प्राथमिकता इसलिए दी जाती है क्योंकि सरकार का विधेयक किसी भी निजी सदस्य के विधेयक की तुलना में अधिक व्यापक होता है क्योंकि यह शौकिया के बजाय पेशेवरों (प्रोफेशनल) और विशेषज्ञों (एक्सपर्ट्स) द्वारा तैयार किया जाता है। लेकिन, तिरुचि शिवा ने विधेयक को वापस नहीं लिया और फिर भी कानून पारित किया गया था।

  • लोकसभा में तिरुचि शिव के विधेयक के इतने लंबे समय तक लंबित रहने पर भी सवाल उठाए गए हैं। यह आरोप लगाया गया था कि देरी जानबूझकर की गई थी क्योंकि पूर्व विधेयक ने “सरकार पर बहुत अधिक बोझ” डाला है क्योंकि इसमें ट्रांसजेंडर समुदाय को सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर आरक्षण देने का प्रावधान था।
  • यह दावा किया गया है कि सरकार द्वारा पास किया गया कानून तिरुचि शिवा के विधेयक के सभी प्रावधानों को कमजोर करता है और पूरी तरह से अज्ञात रहता है। यह भी दावा किया गया था कि यह विधेयक ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों के साथ पूर्ण विश्वासघात है और उम्मीद है कि यह उन सभी लाभों को उलट देगा जो उन्होंने लंबे वर्षों के संघर्ष के माध्यम से हासिल किए हैं।

कानून की आलोचना (क्रिटिसिजम ऑफ़ द लेजिस्लेशन)

1.पहचान का परीक्षण (टैस्ट ऑफ़ आइडेंटिफिकेशन): बिल ने ‘ट्रांसजेंडर’ की अपमानजनक गलत परिभाषा दी है जिसमें: “ट्रांसजेंडर व्यक्ति” का अर्थ है एक ऐसा व्यक्ति जो:

  1. न तो पूरी तरह से महिला और न ही पूरी तरह से पुरुष; या
  2. महिला या पुरुष का संयोजन; या
  3. न तो महिला और न ही पुरुष; और जिसकी लिंग की भावना जन्म के समय उस व्यक्ति को दिए गए लिंग से मेल नहीं खाती है, और इसमें ट्रांस-मेन और ट्रांस महिला, इंटरसेक्स भिन्नता वाले व्यक्ति और लिंग-क्वीर शामिल हैं।

यह परिभाषा, नालसा के फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई परिभाषा, तिरुचि शिव के विधेयक और केंद्र सरकार की एक विशेषज्ञ समिति के उल्लंघन में है और ड्राफ्ट बिल के 2015 के संस्करण (वर्जन) ने नीचे दी गई परिभाषा दी:

‘ट्रांसजेंडर व्यक्ति’ का अर्थ उस व्यक्ति से है, जिसका लिंग जन्म के समय उस व्यक्ति को दिए गए लिंग से मेल नहीं खाता है और इसमें ट्रांस-मेन और ट्रांस-महिला शामिल हैं (चाहे उन्होंने सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी या हार्मोन थेरेपी या लेजर थेरेपी आदि करवाई हो या नहीं) , लिंग-क्वीर और कई सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान जैसे – किन्नर, हिजड़ा, अरवानी, जोगटा आदि भी शामिल हैं। एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति के पास ‘पुरुष’, ‘महिला’ या ‘ट्रांसजेंडर’ में से किसी एक को चुनने का विकल्प होना चाहिए और साथ ही सर्जरी/हार्मोन से स्वतंत्र किसी भी विकल्प को चुनने का अधिकार है।

2019 का वर्तमान अधिनियम उपर प्रदान की गई परिभाषा का प्रतीक है, लेकिन उस अंतिम पंक्ति को बाहर कर देता है, जिसने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को उनके लिंग का निर्धारण (डिटरमाइन) करने का अधिकार दिया था। कानून ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को ‘प्रमाणित’ करने के लिए एक जिला स्क्रीनिंग समिती का गठन किया है। प्रावधान में कहा गया है कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति को जिला मजिस्ट्रेट से पहचान का प्रमाण पत्र प्राप्त करना होगा जो समिति की सिफारिशों के आधार पर जारी किया जाएगा। यह उनके लिंग का फैसला करने के उनके अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है और आर्टिकल 14 के तहत सभी नागरिकों को दिए गए समानता के अधिकार, आर्टिकल 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आर्टिकल 21 के तहत जीवन के अधिकार के खिलाफ भी है। यह फिर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है जहां यह उनकी पहचान को ध्यान में रखते हुए कहा गया था। उनकी पहचान की मान्यता के लिए प्रमाण पत्र जारी करने का उक्त कार्य प्रकृति में अनुचित और मनमाना है।

कानूनी लिंग पहचान के लिए पालन करने के लिए कोई ठोस प्रक्रिया निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) नहीं की गई है और न ही यह स्क्रीनिंग समिति द्वारा पालन किए जाने वाले आधारों को बताती है। चिकित्सा पेशेवरों की उपस्थिति, लिंग पहचान के लिए कुछ चिकित्सा या जैविक परीक्षणों (बायोलॉजिकल टेस्ट) के जोखिम को बढ़ाती है और इस प्रकार, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार का बहुत अधिक उल्लंघन करती है।

प्रावधान अंतरराष्ट्रीय मानकों (स्टैंडर्ड) के भी विरोधाभासी (कांट्रेडिक्टरी) हैं- जिनमें संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों, वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन (डब्लू.एम.ए.), और वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांसजेंडर हेल्थ (डब्ल्यू.पी.ए.टी.एच.) शामिल हैं- जो लिंग पुनर्मूल्यांकन (रीअसाइनमेंट) के लिए कानूनी और चिकित्सा प्रक्रियाओं को अलग करने की मांग करते हैं। इसमें चिकित्सा विशेषज्ञों, मनोवैज्ञानिकों (साइकोलॉजिस्ट) या चिकित्सकों द्वारा मूल्यांकन से इनकार करना शामिल है। 2015 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन) और एशिया-पैसिफिक ट्रांसजेंडर नेटवर्क द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में भी सरकार को किसी भी चिकित्सा परीक्षण के बिना प्रत्येक व्यक्ति द्वारा स्वयं के पहचाने गए लिंग को पहचानने के लिए सभी विधायी (लेजिसलेटिव), प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) और अन्य उपाय करने की सिफारिश की गई थी।

हितधारकों (स्टेकहोल्डर्स) ने यह भी सुझाव दिया था कि स्क्रीनिंग समिति में केवल तीन व्यक्ति शामिल होने चाहिए: पुरुष से महिला (एम.टी.एफ.) ट्रांस-समुदाय का एक प्रतिनिधि (रिप्रेजेंटेटिव), महिला से पुरुष (एफ.टी.एम.) ट्रांस कम्युनिटी का एक प्रतिनिधि और एक समाज कल्याण मंत्रालय से एक प्रतिनिधि होना चाहिए। मंत्रालय का यह तर्क कि चिकित्सा अधिकारी को बाहर करने से प्रमाण पत्रों का दुरुपयोग होगा, यह दोबारा से अस्पष्ट है। इसके अलावा, अधिनियम ‘ट्रांसजेंडर’ व्यक्तियों के रूप में एक प्रमाण पत्र प्राप्त करने का प्रावधान करता है और यह आत्म-कथित पहचान के उनके अधिकार का घोर उल्लंघन है।

अधिनियम में इस ही परिभाषा में ‘अंतरलिंग भिन्नता’ वाले व्यक्तियों को भी शामिल किया गया है, जबकि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और इंटरसेक्स भिन्नता वाले व्यक्तियों के बीच एक बड़ा अंतर मौजूद है। सेक्स और लिंग समान नहीं हैं। वे एक दूसरे से असंबंधित हैं। जबकि ‘सेक्स’ पुरुष, महिला और इंटरसेक्स को इंगित (सिग्नीफाई) करने के लिए एक जैविक (बायोलॉजिकल) शब्द है, ‘लिंग’ एक लिंग के रूप में स्वयं की गहन (प्रोफाउंड) भावना है और इसका सेक्स के साथ संतुलित सह-संबंध (बैलेंस्ड को-कनेक्शन) नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए, किसी बच्चे को जन्म के दौरान ‘सेक्स फीमेल’ का लिंग आवंटित (अलॉट) किया गया था, किसी भी घटना में, जब महिला होने के सभी शारीरिक, फिजियोलॉजिकल और गुणसूत्र (क्रोमोसोमल) प्रमाणों को बरकरार रखा जाता है, तो वह ‘सेक्स फीमेल’ के रूप में स्वयं को अलग नहीं कर सकता है और इसके विपरीत भी नहीं कर सकता है।

दूसरी ओर, इंटरसेक्स की विविधता (वैरायटी) उन व्यवहारों की ओर इशारा करती है, जिसके द्वारा किसी का सेक्स माना जाता है कि वह पुरुष या महिला के सेक्स के विचार के समान नहीं है- किसी के बाहरी जननांग (जेनेशियल्स) के तत्व (एलिमेंट) के समान नहीं है। सभी इंटरसेक्स लोग को ट्रांसजेंडर के रूप में पहचाना नहीं जा सकता है। इसके अलावा, हर एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को इंटरसेक्स नहीं होते है।

इंटरसेक्स भिन्नता वाले व्यक्तियों को उस अवसर पर नैदानिक ​​​​(क्लिनिकल) विचार की आवश्यकता होती है, जिस अवसर पर उन्होंने इसे देखने, और काम और गैर-भेदभावपूर्ण उपचार (नॉन डिस्क्रिमिनेटरी ट्रीटमेंट) करने का फैसला किया था। ये वे जगह हैं जहां ट्रांसजेंडर लोग और इंटरसेक्स किस्मों की नीति ओवरलैप होती है।

बिल को इंटरसेक्स व्यक्ति के विशेषाधिकारों (प्रिविलेज) के दायरे को बढ़ाने की जरूरत है, और अलग प्रावधान होने चाहिए जो इंटरसेक्स लोगों की जरूरतों को कवर करते हैं। उदाहरण के लिए, यह सावधानी से अधिकृत होना चाहिए कि कोई विशेषज्ञ या आपातकालीन क्लिनिक किसी व्यक्ति को महिला या पुरुष यौन अभिविन्यास के रूप में निर्दिष्ट करने के लिए, नवजात बच्चों और बच्चों के लिए नैदानिक (क्लिनिकल) ​​या चिकित्सा सर्जरी नहीं करता है। इसके अलावा, यह गारंटी दी जानी चाहिए कि इंटरसेक्स नवजात बच्चों के जन्म प्रमाण पत्र पर लिंग/यौन अभिविन्यास चिह्न दर्ज नहीं किए गए हैं। उन्हें कानूनी दस्तावेज जारी किए जाने चाहिए जो उनके पसंदीदा लिंग को दर्शाते हों।

बहरहाल, वर्तमान विधेयक ने विरोधाभासों के इन उद्देश्यों को नजरअंदाज कर दिया है, इसके अलावा ट्रांसजेंडर और इंटरसेक्स लोगों को एक वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) में डाल दिया है। यह भविष्य के मुद्दों को प्रेरित कर सकता है, विशेष रूप से व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति के चिकित्साकरण (मेडिकलाइजेशन) पर अत्यधिक जोर डालता है। समुदाय ने विधेयक का नाम बदलकर ‘ट्रांसजेंडर और इंटरसेक्स व्यक्तियों के अधिकार विधेयक’ के रूप में करने के लिए भी कहा था।

ज्यादातर कानूनी प्रणालियाँ (लीगल सिस्टम्स) ट्रांसजेंडर व्यक्ति को उनकी पसंद के लिंग को उचित मान्यता देने में विफल रही हैं। इसी तरह, यह वही है जहां अधिनियम विफल रहता है क्योंकि यह इस शक्ति को स्क्रीनिंग समिति के विवेक (डिस्क्रेशन) पर रखता है। अधिनियम इस तथ्य को पहचानने में भी विफल रहा है कि लिंग पहचान के कई तरीके मौजूद हैं। समिति ने यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान के संबंध में अंतरराष्ट्रीय कानून और योग्याकार्ता सिद्धांतों में वर्तमान विकास के अनुरूप ‘लिंग पहचान’ और ‘लिंग अभिव्यक्ति’ शब्द का उपयोग करने का प्रस्ताव रखा था। सिद्धांतों में दोनों शामिल हैं जो एक लिंग से दूसरे लिंग में चिकित्सा हस्तक्षेप के माध्यम से संक्रमण कर चुके हैं और जो अपने लिंग को पोशाक, बोलने के तरीक़े और आचरण (कंडक्ट) के माध्यम से व्यक्त करते हैं।

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय परिषद की स्थापना भी, समुदाय के नेताओं को संतुष्ट नहीं करती है क्योंकि नौकरशाहों (ब्यूरोक्रेट्स) से भरी किसी भी परिषद की पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) पर केवल सलाहकार निकाय (एडवाइजरी बॉडी) और बिना किसी प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) शक्ति के संदेह मौजूद है।

कानून ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण के प्रावधान को भी छोड़ दिया है, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के नालसा फैसले और निजी सदस्य विधेयक में परिकल्पित (इनविसेज) था।

ट्रांसजेंडर अपराधों का अपराधीकरण (क्रिमिनलाइजिंग): कानून ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए भीख मांगने को अपराध बनाता है। ट्रांसजेंडर अधिकार के कार्यकर्ता ने दो पहलुओं में इस प्रावधान का विरोध किया है। पहला कहा जाता है कि समुदाय के सदस्यों के पास कोई विकल्प मौजूद नहीं है, इसलिए वे भीख मांगते हैं या यौन कार्य में संलग्न होते हैं। यह महसूस किया जाना चाहिए कि भीख मांगना संरचनात्मक मतभेदों (स्ट्रक्चरल डिफरेंसेज) के कारण आता है जिसके कारण शैक्षिक और रोजगार के अवसरों की कमी हुई है।

इस प्रकार, यदि कानून ने भीख मांगने के कार्य को अपराध बना दिया है, तो उसे कोई अन्य वैकल्पिक रोजगार या कौशल विकास प्रदान करना चाहिए था, क्योंकि यह प्रावधान न केवल मानव अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि पुलिस जैसे अधिकारियों को मजबूरी में सड़कों पर भीख मांगने वाले ट्रांसपर्सन को अपराधी बनाने का अधिकार भी देता है। दूसरा यह कि भीख माँगना अनिवार्य रूप से इस समुदाय की एक पारंपरिक प्रथा है जिसकी रक्षा के लिए वे अधिकृत (ऑथराइज्ड) हैं। जैसा कि स्थायी समिति ने उल्लेख किया है की इस प्रावधान को “अपनी इच्छा से भीख मांगने वाले ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अपराधी बनाने” के रूप में बनाया जा सकता था।

समिति ने “इंटरसेक्स भ्रूणों के गर्भपात और इंटरसेक्स शिशुओं के लिंग के जबरन सर्जिकल असाइनमेंट के खिलाफ दंडात्मक प्रावधानों” के लिए भी कहा है। कानून ने घृणा अपराधों, अत्याचारों और अपराधों के विभिन्न कार्यों के खिलाफ नगण्य (नेगलिजिबल) सुरक्षा प्रदान की है।

कानून किसी भी प्रतिष्ठान या कंपनी में काम कर रहे ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए कोई निवारण प्रणाली स्थापित करने में भी विफल रहता है। मंत्रालय का यह तर्क कि गठित राष्ट्रीय परिषद इसका ध्यान रखेगी और भारतीय न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी) पर्याप्त है लेकिन यह प्रकृति में पूरी तरह से अस्पष्ट और भेदभावपूर्ण है। कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम (सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस (प्रीवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल) एक्ट), 2013 की तुलना में, असंगठित क्षेत्र (अनऑर्गेनाइज्ड) में स्थानीय शिकायत समिति (एल.सी.सी.) की स्थापना की जानी चाहिए, जहां ट्रांसजेंडर लोगों के लिए 10 से कम लोग काम कर रहे हों, जहां वे पहुंच सकें और उनकी शिकायतें सुनी जाए।

पारिवारिक मुद्दों को सुलझाना: स्थायी समिति ट्रांसजेंडर व्यक्तियों द्वारा उनके परिवार और साथियों के समूहों में होने वाली हिंसा को नोट करती है। ज्यादातर ट्रांसजेंडर बच्चे बेघर होते हैं और उन्हें लगातार यौन और शारीरिक शोषण का खतरा होता है। यह प्रावधान करता है कि योग्यकार्ता सिद्धांतों के सिद्धांत 30 A में सन्निहित (एंबोडीड) भेदभाव को रोकने, दंडित करने और समाधान प्रदान करने के लिए राज्य को उचित परिश्रम करना चाहिए। समिति ने रिपोर्ट में ‘परिवार’ को “रक्त, विवाह या ट्रांसजेंडर व्यक्ति को गोद लेने से संबंधित लोगों के समूह” के रूप में परिभाषित किया है। इस तरह के पारिवारिक ढांचे की मान्यता को कानून में पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है।

2015 के पहले के एम.एस.जे.ई. ड्राफ्ट बिल में यह प्रावधान था कि:

“जहां तत्काल परिवार एक ट्रांसजेंडर बच्चे की देखभाल करने में असमर्थ है, तब सक्षम न्यायालय ऐसे बच्चे को उसके विस्तारित परिवार के भीतर, या समुदाय के भीतर एक पारिवारिक सेटिंग में रखने के लिए हर संभव प्रयास करेगा।”

जबकि वर्तमान अधिनियम धारा 12(3) के तहत कहता है, “जहां कोई माता-पिता या उसके परिवार का कोई सदस्य ट्रांसजेंडर की देखभाल करने में असमर्थ है, सक्षम न्यायालय एक आदेश द्वारा ऐसे व्यक्ति को पुनर्वास केंद्र में रखने का निर्देश देगी।”

इस प्रकार, ‘परिवार’ शब्द में दत्तक (एडॉप्टिव) परिवारों की मान्यता की व्यापक परिभाषा पुनर्वास केंद्र के साथ समाप्त हो जाती है। यह हिजड़ा परिवार के अपनी पसंद के परिवार के साथ रहने के अधिकारों का उल्लंघन है।

आरक्षण के प्रावधानों की उपेक्षा (नेगलेक्ट): ट्रांसजेंडर लोगों को उनके यौन व्यक्तित्व के कारण शैक्षिक और रोजगार के अवसरों से वंचित किया जाता है और इस प्रकार, उनके सामने आने वाली असमानताओं और बाधाओं को दूर करने के लिए आरक्षण अविश्वसनीय रूप से बुनियादी है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने नालसा फैसले में ओ.बी.सी. श्रेणी में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को शामिल करने के लिए कहा, और यह भी कहा कि यदि उपरोक्त व्यक्ति एस.सी. (शेड्यूल्ड कस्ट)/एस.टी. (शेड्यूल्ड ट्राइब) श्रेणी के अंतर्गत आते हैं, तो समुदाय के लोगों को ओ.बी.सी. और ट्रांसजेंडर दोनों होने के कारण आरक्षण का दावा करने की अनुमति दी जाएगी। लेकिन दुर्भाग्य से, कानून में ओ.बी.सी. या जाति आधारित आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं किया गया है।

व्यक्तिगत और धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) कानूनों के तहत अलग सार्वजनिक शौचालय, पुलिस हिंसा, शादी का अधिकार, विरासत और गोद लेने के मुद्दों को कवर नहीं किया गया है। अधिनियम ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ अपराध करने वालों के लिए 6 महीने से 2 साल के कारावास का प्रावधान करता है, जो समाज में महिलाओं के अन्य हाशिए के वर्गों के लिए निर्धारित सजा से काफी कम है।

परामर्श प्रक्रिया को अनदेखा करना: अन्य हितधारकों और सांसदों द्वारा बताए गए सुझावों और प्रस्तावों को अनदेखा करते हुए अधिनियम पास किया गया था। उदाहरण के लिए, तिरुवनंतपुरम निर्वाचन क्षेत्र (कांस्टीट्यूएंस) के एक सांसद शशि थरूर ने निम्नलिखित संशोधन पेश किए:

  • स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम (करिकुलम) में ट्रांसजेंडर विषय को शामिल करना और इसके लिए शिक्षकों को प्रशिक्षण देना।
  • ट्रांसजेंडर बच्चों को छात्रवृत्ति के माध्यम से सभी स्तरों की शिक्षा प्रदान करने के लिए अनिवार्य प्रावधान प्रदान करना और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को रोजगार देने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन प्रदान करना।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को बलात्कार, यौन उत्पीड़न, पीछा करने के प्रावधानों के दायरे में शामिल करना जो केवल भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) में महिलाओं पर लागू होते हैं।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को उनकी पहचान देने के लिए उनकी शारीरिक जांच पर रोक लगाना। उन्होंने आत्म-पहचान को केवल ट्रांसजेंडर होने का आधार बनाने के लिए कहा है।

इसलिए, यह देखा गया है कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम जितना ट्रांसजेंडर समुदाय को विफल करता है, इस देश के लाखों लोगों की उम्मीदें चकनाचूर हो जाती हैं और आवाजें अनसुनी रह जाती हैं क्योंकि प्रस्तावों की संख्या, समुदाय के साथ परामर्श को समिति की रिपोर्ट में शामिल किया जाता है जिसे खारिज कर दिया जाता है। यह महत्वपूर्ण है कि स्थायी समिति के तंत्र, जो लोकतांत्रिक भागीदारी (डेमोक्रेटिक पार्टिसिपेशन) को सुगम बनाता है, उसको गंभीरता से लिया जाए।

स्थायी समिति की रिपोर्ट ने एक सुंदर टिप्पणी की, “जबकि गे, लेस्बियन, बायसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर या इंटरसेक्स या यहां तक ​​कि स्ट्रेट होने में कोई शर्म नहीं है- एक होमोफोब, एक ट्रांसफोब और एक कट्टर होने में सबसे निश्चित रूप से शर्म और अपमान है।” समुदाय और इंटरसेक्स समूहों ने इस कानून को ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का हनन और उल्लंघन) विधेयक (ट्रांसजेंडर पर्सन्स (डेसिमेशन एंड वॉयलेशन ऑफ़ राइट्स)), 2016 और जिस दिन लोकसभा में विधेयक पास किया गया था, उसे ‘ब्लैक डे’ या ‘जेंडर जस्टिस मर्डर डे’ के रूप में संदर्भित किया जाता है। फिर भी अन्य लोगों ने इसे ‘कठोर और भेदभावपूर्ण’ बताया।

कुछ भारतीय राज्यों द्वारा उठाए गए कदम

  1. महाराष्ट्र: 

यह राज्य, ट्रांसजेंडर के लिए कल्याण बोर्ड स्थापित (एस्टेब्लिश) करने वाला दूसरा राज्य था और उनके लिए सांस्कृतिक संस्थान स्थापित करने वाला पहला राज्य था। यह 2013 का परिणाम था, जब यू.एन.डी.पी. ने सेक्स वर्क में लगी महिलाओं पर इनपुट प्रदान करने के लिए महिला एवं बाल विकास विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ वूमेन एंड चाइल्ड डेवलपमेंट), महाराष्ट्र सरकार के साथ भागीदारी की।

1. उड़ीसा: 

2015 में, उड़ीसा ने ट्रांसजेंडर समुदाय से संबंधित मामलों को संभालने के लिए विकलांग व्यक्तियों के सामाजिक सुरक्षा और अधिकारिता विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ सोशल सिक्योरिटी एंड एंपावरमेंट ऑफ़ पर्सन्स विद डिसेबिलिटी) (एस.एस.ई.पी.डी.) का गठन किया गया था। इसने समुदाय को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट), 2013 के लाभों का भी विस्तार किया और उन्हें विभिन्न योजनाओं के तहत गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के समान सामाजिक लाभ प्रदान करने का वादा किया था। इसने भारत सरकार की छत्र योजना के तहत 5 उप-योजनाओं के लाभों को भी बढ़ाया जैसे कि प्री-मैट्रिक और पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति, ट्रांसजेंडर बच्चों के माता-पिता को वित्तीय सहायता, कौशल (स्किल) विकास के लिए वित्तीय सहायता (फाइनेंशियल एड) और पेंशन योजनाएं।

2. केरल: 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए नालसा के फैसले के अनुसार 2015 में ट्रांसजेंडर नीति रखने वाला यह पहला राज्य बन गया था। इसने कोच्चि में समुदाय के लिए आवासीय (रेजिडेंशियल) स्कूल भी खोले और ट्रांसजेंडर लोगों को महानगरों में भी रखा था। राज्य में न्याय बोर्ड हैं जो कानूनी सहायता प्रदान करते हैं और समुदाय के लोगों के खिलाफ भेदभाव और हिंसा के उदाहरण लेते हैं। इसने पहली राज्य स्तरीय स्पोर्ट्स मीट, लिंग-तटस्थ फुटबॉल लीग, सिर्फ ट्रांसजेंडरों के स्वामित्व वाली और चलाई जाने वाली सर्विस टैक्सियों का भी आयोजन किया था। जुलाई 2018 में, राज्य ने समन्वय के तहत यू.जी. और पी.जी. पाठ्यक्रमों में ट्रांसजेंडर छात्रों के लिए प्रत्येक कक्षा में दो सीटों का आरक्षण बढ़ाया, जो केरल राज्य साक्षरता मिशन प्राधिकरण (के.एस.एल.एम.ए.) के तहत शुरू किए गए ट्रांसजेंडरों के लिए एक शिक्षा कार्यक्रम था। 2019 में, इसने ‘अन्य/तीसरे लिंग’ शब्द के उपयोग से बचने और इसे ‘ट्रांसजेंडर’ से बदलने और समुदाय के लोगों को पुरुष और महिला के बराबर रखने के लिए एक प्रगतिशील कदम उठाया है।

3. तमिलनाडु: 

2008 में, इसने ट्रांसजेंडरों के लिए पहला विशेष डेटाबेस बनाने और उन्हें राशन कार्ड जारी करने की योजना बनाई थी। राज्य ने देश को पहला ट्रांसजेंडर पुलिस सब-इंस्पेक्टर दिया।

4. पंजाब और हरियाणा: 

राज्य के उच्च न्यायालय ने बसों में स्कूली बच्चों के साथ छेड़खानी और यौन शोषण की जांच के लिए ट्रांसजेंडर लोगों को स्कूल बस सहायक के रूप में शामिल करने का निर्णय लिया है।

5. छत्तीसगढ़: 

राज्य ने ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को पुलिस बल में भर्ती करने का निर्णय लिया है। इसके लिए उसने प्रशिक्षण सेशन भी शुरू कर दिया है।

अन्य देशों से सबक

1. बेल्जियम: 

आई.एल.जी.ए. के रेनबो यूरोप इंडेक्स के 2019 के एडिशन में देश दूसरे स्थान पर है। बेल्जियम ने सदियों पहले 1795 में समलैंगिक यौन गतिविधियों को वैध कर दिया था। राज्य के पूर्व प्रधान मंत्री एलियो डि रूपो, दुनिया में राज्य के हेड बनने वाले कुछ खुले तौर पर समलैंगिक पुरुषों में से एक बन गए थे। बेल्जियम में सभी शादियों में सेम सेक्स मैरिज का हिस्सा भी 2.5% है। हालाँकि, इसे अभी और काम करने हैं जैसे कि घृणा अपराधों पर कानून और कानूनी दस्तावेजों में तीसरे लिंग को शामिल करना।

2. स्पेन: 

इस देश ने गोद लेने, विरासत कर (टैक्स), उत्तरजीवी (सर्वाइवर) पेंशन का अधिकार, कर उद्देश्यों के लिए समान व्यवहार, आप्रवासन (इमिग्रेशन) उद्देश्यों के लिए मान्यता और घरेलू हिंसा से सुरक्षा के सिद्धांतों को समायोजित किया है। वास्तव में, स्पेन में अटलांटिक तट से दूर एक द्वीपसमूह ग्रैन कैनरिया एक अंतरराष्ट्रीय एल.जी.बी.टी.क्यू. पर्यटन स्थल है और 2018 में, 27 वर्षीय एल.जी.बी.टी. कार्यकर्ता एंजेला पोंस मिस यूनिवर्स में प्रतिस्पर्धा करने वाली पहली ट्रांसजेंडर महिला बनीं, जिनके लिए सबने खड़े हो कर तालियां बजाईं थीं।

3. स्वीडन: 

यह यूरोपीय देशों में एल.जी.बी.टी.क्यू. कानूनों के लिए सबसे प्रगतिशील देशों में से एक है। इसमें हाल के कानूनों में शामिल हैं; 2009 में पास किया गया लिंग-तटस्थ विवाह कानून (जेंडर न्यूट्रल वेडिंग लॉ), 2003 में गोद लेने का अधिकार, 2005 में समलैंगिकों के लिए गर्भाधान (इनसेमिनेशन) अधिकार और यौन अभिविन्यास के आधार पर भेदभाव का निषेध (प्रोहिबिशन) 2011 में संविधान में जोड़ा गया था और प्रेस अधिनियम की स्वतंत्रता में शामिल करके घृणा अपराधों के खिलाफ कानूनी संरक्षण 2019 में शामिल किया गया था।  इसमें उन लोगों को शरण देने का भी प्रावधान है, जिन्हें उनके देश से उनके यौन अभिविन्यास के कारण सताया गया है।

4. पुर्तगल: 

पुर्तगल दुनिया के उन कुछ देशों में से एक है जिसने वास्तव में अपने संविधान में यौन अभिविन्यास के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध को शामिल किया है। इसमें उन्नत  (एडवांस्ड) लिंग पहचान कानून भी हैं जो 2011 से ट्रांसजेंडर लोगों के लिए लिंग और नाम का आसान परिवर्तन प्रदान करते हैं।

5. नॉर्वे: 

नॉर्वे, 1981 में यौन अभिविन्यास पर भेदभाव विरोधी कानूनों को लागू करने वाला पहला देश था। इसके पास दुनिया में ट्रांसजेंडर के लिए सबसे उदार कानून हैं। 2016 में, इसने कानून पास किया जो किसी भी चिकित्सा या लिंग पुनर्मूल्यांकन सर्जरी के बिना पूरी तरह से आत्मनिर्णय पर कानूनी प्रेषक (सेंडर) को बदलने की अनुमति देता है। इसने 2009 में समलैंगिक जोड़ों के लिए समलैंगिक विवाह, गोद लेने और आई.वी.एफ. को भी वैध कर दिया है, और सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि 1979 से एल.जी.बी.टी.क्यू. के सभी सदस्य खुले तौर पर सशस्त्र बलों (आर्म्ड फोर्सेज) में सेवा कर रहे हैं।

6. अर्जेंटीना: 

लैटिन अमेरिका में 2010 में समलैंगिक विवाह को वैध बनाने वाला यह पहला देश था, जो किसी भी कैथोलिक देश के लिए एक आसान काम नही था। दत्तक ग्रहण और आई.वी.एफ. को पूरी तरह से मान्यता प्राप्त है। जेल समलैंगिक कैदियों के लिए वैवाहिक मुलाकातों की भी अनुमति देती हैं।

7. कनाडा: 

1960 के दशक में समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करने के बाद से देश ने ट्रांसजेंडर समुदाय का असाधारण रूप से स्वागत किया है। कैनेडियन चार्टर ऑफ़ राइट्स एंड फ्रीडम ने 1982 से एल.जी.बी.टी.+ समुदाय को मौलिक अधिकारों की गारंटी दी है। लोगों को समान कर लाभ, पेंशन, वृद्धावस्था (ओल्ड एज) सुरक्षा और दिवालियापन (बैंकरप्टसी) सुरक्षा का आनंद मिलता है। जो लोग सेक्स सर्जरी के लिए जाते हैं वे सार्वजनिक स्वास्थ्य कवरेज का लाभ उठा सकते हैं। 2017 से, नॉन बाइनरी लिंग पहचान वाले लोग अपने पासपोर्ट पर भी इसका उल्लेख कर सकते हैं। 2019 में, देश ने समलैंगिकता के आंशिक (पार्शियल) अपराधीकरण के 50 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में एक सिक्का लूनी (एक डॉलर का सिक्का) जारी किया। यह 2019 गे ट्रैवल इंडेक्स के अनुसार एल.जी.बी.टी. यात्रियों के लिए सबसे दोस्ताना देशों में पहले स्थान पर है, इसके बाद पुर्तगाल और स्वीडन आते हैं।

8. यू.के.: 

इस समय, यू.के. के पास 2017 के चुनावों में चुने गए 45 एल.जी.बी.टी.क्यू. सांसदों के साथ, संसद में चुने गए एल.जी.बी.टी.क्यू. समुदाय के सबसे अधिक सदस्य होने का रिकॉर्ड है।

9. नीदरलैंड्स: 

एम्स्टर्डम अपनी सुंदरता और गुलजार नाइटलाइफ़ के लिए जाना जाता है। 1993 से देश में भेदभाव गैरकानूनी है और समलैंगिक गोद लेने और समलैंगिक विवाह दोनों को 2001 में कानूनी बना दिया गया था। इस समुदाय के साथ देश का भावनात्मक संबंध है; इसने 1987 में होमोन्यूमेंट का अनावरण (अनवेल) किया, जो नाजियों द्वारा मारे गए समलैंगिकों के लिए एक स्मारक है। समान-लिंग वाले जोड़े समान कर और विरासत अधिकारों का आनंद लेते हैं और डच नागरिक भी लिंग-तटस्थ पासपोर्ट के लिए आवेदन कर सकते हैं।

10. दक्षिण अफ्रीका: 

2007 से समलैंगिक विवाह को वैध बनाने वाला यह अफ्रीका का एकमात्र देश है। समान-लिंग वाले जोड़ों को बच्चे गोद लेने, आई.वी.एफ. या सरोगेसी का सहारा लेने का अधिकार है। विदेशी भी देश में शादी कर सकते हैं। हालाँकि, होमोफोबिया अभी भी यहाँ एक मुद्दा है।

सिफारिशें (रिकमेंडेशन)

  1. आवास, रोजगार, स्वास्थ्य, पहचान का प्रमाण और वित्तीय सुरक्षा को प्रमुख प्राथमिकता (प्रायोरिटी) वाले क्षेत्रों के रूप में पहचाना गया है जहां वे शिक्षा, व्यावसायिक सेवाओं और नागरिक अधिकारों जैसे अन्य मुद्दों के साथ सरकारी सहायता चाहते हैं। मौजूदा योजनाएं शायद ही कभी समुदाय की आकांक्षाओं (एस्पिरेशंस) का प्रतिनिधित्व करती हैं। कुछ ऐसे हैं लेकिन वह भी उनके लिए असफल साबित होते हैं क्योंकि समाज से उन्हें कलंक का सामना करना पड़ता है। स्थायी समिति और अन्य हितधारकों द्वारा दी गई सिफारिशों को अधिनियम में शामिल किया जाना चाहिए।
  2. सरकार को शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर जोर देना चाहिए ताकि उन्हें समावेशी शिक्षण विधियों (मेथड्स) को अपनाने में मदद मिल सके ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इन बच्चों के साथ अन्य कर्मचारियों या बच्चों द्वारा भेदभाव या उत्पीड़न नहीं किया जाता है। वे अक्सर बदमाशी के शिकार होते हैं। आई.सी.जे. और यूनेस्को ने नोट किया कि बदमाशी के कारण ट्रांसजेंडर लोगों के वर्ग को शैक्षिक अवसरों से वंचित किया जाता है। उनमें से कुछ को स्कूल के अधिकारियों ने अपने लिंग के तरीके को बदलने या घटना को अनदेखा करने के लिए कहा है।
  3. स्थापित कल्याण बोर्ड को नियमित (रेगुलर) रूप से और ठीक से काम करना चाहिए। बड़ी संख्या में ऐसी शिकायतें मिली हैं जहां नाम के लिए बोर्डों का गठन किया गया है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु की यह रिपोर्ट कि 2006 और 2011 के बीच कल्याण बोर्ड का गठन किया गया था और हर 6 महीने में नियमित बैठकें आयोजित की जाती थीं। सरकार ने 15 अप्रैल, 2008 को कल्याण बोर्ड के गठन के उपलक्ष्य में 15 अप्रैल को ‘तिरुनांगी दिवस’ (ट्रांसजेंडर दिवस) के रूप में भी मनाया। लेकिन, 2011 के बाद परिदृश्य बदल गया है। सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है कि उसने 2016 में ट्रांसजेंडर कल्याण के लिए आवंटित, 1 करोड़ रुपये कहां खर्च किए है।  अधिकारियों की भर्ती में लापरवाही, वित्तीय खर्च के रिकॉर्ड को बनाए रखने में त्रुटियां (एरर), असमान बैठकें और सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी के लिए डॉक्टर न होने की घटनाएं हुई हैं।
  4. आई.पी.सी., सी.आर.पी.सी. और अन्य अधिनियमों में सुधार करने की आवश्यकता है। अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम (इम्मोरल ट्रैफिकिंग प्रीवेंशन एक्ट), 1956 में सुधार की आवश्यकता है क्योंकि इसका उपयोग वेश्यालयों (ब्रोथेल) के मालिकों की तुलना में कमजोर लोगों, यानी यौनकर्मियों को डराने के लिए किया जाता है।
  5. नागरिक अधिकार कानून जैसे राशन कार्ड प्राप्त करने का अधिकार, पासपोर्ट, उत्तराधिकार, और इच्छा शक्ति सभी के लिए उपलब्ध होनी चाहिए, चाहे सेक्स या लिंग कुछ भी हो।
  6. सभी राज्यों को नोडल विभाग (जैसे राज्य महिला आयोग या राज्य एड्स नियंत्रण सोसायटी) विकसित करने की आवश्यकता है ताकि ट्रांसजेंडर लोग मौजूदा योजनाओं और संसाधनों का लाभ उठा सकें। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण कदम ट्रांसजेंडर आबादी का तेजी से पुनर्मूल्यांकन करना है ताकि उनके आकार का एक तगड़ा अनुमान लगाया जा सके, उनकी सामाजिक-आर्थिक और स्वास्थ्य देखभाल की स्थिति का आकलन किया जा सके।
  7. लंबी अवधि की योजनाओं को हासिल करने के लिए, ट्रांसजेंडर विशिष्ट (स्पेसिफिक) योजनाएं और बजट संबंधित राज्य विभागों को प्रस्तुत किया जा सकता है जो तब भारत सरकार की योजना का हिस्सा बन सकते हैं। हर स्तर (लेवल) पर ट्रांसजेंडर लोगों को शामिल करना- नीतियों का निर्माण, कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) और मूल्यांकन सकारात्मक परिणाम देगा।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

  • Study on Human Rights of Transgender as a Third Gender,
  • 28 Top 10 LGBT friendly countries for Expats,  Keith J Fernandez, April 23, 2020,
  • 29 Forbes, Friendliest Countries for LGBT Travelers? Canada No. 1, U.S. No. 47, Gary Stroller, Feb 26, 2019,

 

 

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