सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 8 नियम 1 के तहत लिखित बयान दर्ज करने की समय सीमा

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Code of Civil Procedure

 यह लेख Navtej Kakran द्वारा लिखा गया है, जो लॉसिखो से एडवांस्ड क्रिमिनल लिटिगेशन एंड ट्रायल एडवोकेसी में सर्टिफिकेट कोर्स कर रहे हैं। यह लेख सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 8 नियम 1 के तहत लिखित बयान दर्ज करने की समय सीमा के अनिवार्य होने पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 8 नियम 1 में प्रतिवादी द्वारा लिखित बयान दाखिल करने की समय सीमा का प्रावधान है। प्रक्रियात्मक (प्रोसीजरल) प्रावधान प्रतिवादी को समन के वितरित होने के बाद एक लिखित बयान दाखिल करने के लिए उचित समय प्रदान करता है और यह भी सुनिश्चित करता है की इस प्रावधान का प्रतिवादी द्वारा दुरुपयोग करके, कार्यवाही में देरी ला कर वादी को परेशान नहीं किया जाए।

प्रावधान में कहा गया है कि एक बार समन जारी होने के बाद, प्रतिवादी को अपना जवाब प्रस्तुत करने के लिए 30 दिनों का समय दिया जाता है जिसे लिखित बयान कहा जाता है (प्रतिवादी को समन के वितरण के अधीन)। यदि प्रतिवादी 30 दिनों के भीतर लिखित बयान दर्ज नहीं करता है, तो लिखित बयान जमा करने की समय अवधि 90 दिनों तक बढ़ाई जा सकती है और विस्तार के कारणों को अदालत द्वारा दर्ज किया जाना चाहिए। 

दुविधा का जवाब

सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश VIII नियम 1 में समन की तामील (सर्विस) पूरी होने के बाद लिखित बयान दाखिल करने के लिए अधिकतम 120 दिनों की समय सीमा का प्रावधान है। चाहे वह अनिवार्य हो या निर्देशक (डायरेक्टरी), यह मामले की प्रकृति या मामले की विषय वस्तु पर निर्भर करती है।

उक्त आदेश की व्याख्या माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में देखी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि लिखित बयान दाखिल करने के लिए प्रदान किया गया अधिकतम समय 120 दिनों (समन के वितरित होने के 30 दिन बाद + 90 दिनों की छूट अवधि) से अधिक नहीं हो सकता है। इस प्रावधान का प्रतिबंध सख्ती से केवल वाणिज्यिक वाद (कमर्शियल सूट) पर लागू होता है। वाणिज्यिक वादों में 90 दिनों के भीतर लिखित बयान दाखिल करने की समय सीमा अनिवार्य है। वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 में अधिनियमित (इनैक्ट), वाणिज्यिक वादों के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत आदेश VIII नियम 1 में संशोधन का प्रावधान करता है, जिसमें प्रतिवादी द्वारा समन प्राप्त होने के 90 दिनों के भीतर लिखित बयान दर्ज करना अनिवार्य है।

यह कहा जा सकता है कि गैर-वाणिज्यिक वादों में संहिता के आदेश VIII नियम 1 के तहत लिखित बयान दर्ज करने की समय सीमा एक निर्देशक है और अनिवार्य नहीं है। इसका मतलब यह है कि 120 दिनों से अधिक का अतिरिक्त समय प्रदान करना अदालत के विवेक पर निर्भर है और मामले पर आधारित है। कानून द्वारा गैर-वाणिज्यिक वाद में कुछ छूट इस तथ्य के कारण प्रदान की जाती है कि विवाद में विषय वस्तु (राशि या संपत्ति मूल्य) हमेशा अधिक नहीं होती है और जोखिम विशिष्ट व्यक्तियों तक सीमित होता है। जबकि वाणिज्यिक वाद में, एक कंपनी के सैकड़ों कर्मचारियों से संबंधित एक उच्च जोखिम वाले कारक के साथ-साथ विवादित मामला उच्च मूल्य का होता है। यह लेख कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णयों के आलोक में वाणिज्यिक और गैर-वाणिज्यिक दोनों तरह के वादे में सीपीसी के तहत लिखित बयान दर्ज करने की समय सीमा के बारे में बात करेगा।

वाणिज्यिक वाद

मेसर्स एस.सी.जी कॉन्ट्रैक्ट्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम के.एस. चमनकर इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड

मैसर्स एस.सी.जी कॉन्ट्रैक्ट्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम के.एस. चमनकर इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड (सीए 1638/2019)“, में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि प्रतिवादियों को एक वाणिज्यिक वाद में समन करने की तामील की तारीख से 120 दिनों के भीतर एक लिखित बयान दाखिल करना अनिवार्य है। यदि प्रतिवादी 120 दिनों के भीतर लिखित बयान प्रस्तुत करने में विफल रहता है, तो उत्तर प्रस्तुत करने का उसका अधिकार जब्त कर लिया जाता है। ऐसे परिदृश्य में, अदालत भी सीपीसी की धारा 151 के तहत अपनी अंतर्निहित (इन्हेरेंट) शक्तियों का उपयोग करके समय सीमा नहीं बढ़ा सकती है। अतः यह कहा जा सकता है कि वाणिज्यिक वादों में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 8 नियम 1 के तहत लिखित बयान दाखिल करने की समय सीमा अनिवार्य है। 

मामले के संक्षिप्त तथ्य

  • मेसर्स एस.सी.जी कॉन्ट्रैक्ट्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (“अपीलकर्ता”) ने मेसर्स के.एस. चमनकर इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड (“प्रतिवादी”) के खिलाफ वाद दायर किया। दावा की गई राशि लगभग रु. 6,94,63,114/- की राशि थी। यदि किसी वाद का विषय वाणिज्यिक विवाद है तो वह वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम के दायरे में आता है। नतीजतन, वाद दिल्ली उच्च न्यायालय के वाणिज्यिक प्रभाग (डिवीजन) के समक्ष दायर किया गया था।  
  • मामले के तथ्यों के अनुसार उक्त वाद के प्रतिवादी को दिनांक 14.07.2017 को समन प्राप्त हुआ था। इसलिए, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश V नियम 1 के प्रावधान और आदेश VIII नियम 1 के प्रावधान के अनुसार, प्रतिवादी को 14.07.2017 से गणना के लिए अधिकतम 120 दिनों के भीतर अपना लिखित बयान दाखिल करने के लिए बाध्य किया गया था, जो 11.11.2017 को समाप्त हो गया था। 
  • प्रतिवादी ने 11.11.2017 तक अपना लिखित बयान दर्ज नहीं किया और इसके बजाय आदेश VII नियम 11 के तहत एक आवेदन दायर किया जिसमें वाद को खारिज करने की मांग की गई थी, जिसे उच्च न्यायालय ने अपने आदेश दिनांक 05.12.2017 द्वारा खारिज कर दिया था, हालांकि प्रतिवादी को 25,000/- की लागत के अधीन लिखित बयान दाखिल करने के लिए, 15.12.2017 तक का समय दिया गया था।
  • प्रतिवादी ने 15.12.2017 को लिखित बयान दायर किया, हालांकि, 06.08.2018 को वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 के अधिनियमन द्वारा संहिता में किए गए संशोधनों का हवाला देते हुए एक आपत्ति उठाई गई थी। 
  • इसलिए लिखित बयान दर्ज नहीं किया जा सका। उच्च न्यायालय ने अपने आदेश 24.09.2018 के माध्यम से, आदेश दिनांक 05.12.2017 को अंतिम माना, और कहा लिखित बयान को रिकॉर्ड में लिया जाना चाहिए। उक्त दो आदेशों दिनांक 05.12.2017 और 24.09.2018 से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दे

  1. क्या एक वाणिज्यिक वाद में 120 दिनों की समय सीमा के बाद प्रस्तुत लिखित बयान की अनुमति दी जा सकती है? 
  2. क्या आदेश VII नियम 11 के तहत वाद को खारिज करने की मांग करने वाले आवेदन पर मुकदमे के लंबित रहने के लिए विचार किया जा सकता है?

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

  1. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 23.10.2015 के अनुसार सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश V नियम 1 और आदेश VIII नियम 1 के प्रावधान के साथ, प्रतिवादी पर समन की तामील के 120 दिनों के भीतर एक लिखित बयान दर्ज करने के लिए एक सख्त दायित्व मौजूद है।
  2. सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना कि आदेश VII नियम 11 के तहत वादपत्र को खारिज करने के लिए लंबित आवेदन को 120 दिनों के भीतर लिखित बयान दाखिल नहीं करने का एक वैध कारण नहीं माना जा सकता है।
  3. सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि “यहां तक ​​कि अदालतें भी संहिता की धारा 151 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्ति का उपयोग समन की तामील से 120 दिनों की समाप्ति के बाद लिखित प्रस्तुतीकरण (सबमिट) की अनुमति देने के लिए नहीं कर सकती हैं।”

माननीय न्यायालय ने अपने उपरोक्त निर्णय में सख्ती से कहा है कि प्रतिवादी को समन देने के बाद लिखित बयान दाखिल करने के लिए 120 दिनों की समय सीमा का, प्रत्येक मामले में सम्मान किया जाना चाहिए। वाणिज्यिक मामले उच्च मूल्य के होते हैं और उन्हें कुशलतापूर्वक निपटाने की आवश्यकता होती है। वाणिज्यिक मामलों में देरी न केवल कंपनी और कर्मचारियों के संचालन को प्रभावित करती है बल्कि देश में “व्यापार की आसानी” कारक को भी प्रभावित करती है। अनावश्यक देरी से निवेशकों के विश्वास में कमी आ सकती है और जिसके परिणामस्वरूप किसी देश की वैश्विक (ग्लोबल) प्रतिष्ठा भी कम हो सकती है। यहां तक ​​कि वाणिज्यिक मामलों से निपटने के लिए 120 दिनों से अधिक की समय सीमा बढ़ाने के लिए, धारा 151 जो न्यायालय को उसकी अंतर्निहित शक्तियां प्रदान करती है, वह भी न्यायालयों को उपलब्ध नहीं है। समय सीमा बढ़ाने के लिए बहुत मजबूत असाधारण कारणों पर विचार किया जाएगा और यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। हालांकि यह ठीक ही कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस तरह के फैसले से वाणिज्यिक मामलों के त्वरित निपटान में मदद मिली है।

गैर-वाणिज्यिक वाद

जिन वादों का विषय वाणिज्यिक विवाद नहीं है, उन्हें गैर-वाणिज्यिक वाद कहा जाता है। इस प्रकार के वाद में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि “सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश VIII नियम 1 के तहत लिखित बयान दर्ज करने की समय सीमा एक निर्देशक है और अनिवार्य नहीं है।” दर्ज किए जाने वाले कारणों पर अदालत समय सीमा को 90-दिन की छूट अवधि से आगे भी बढ़ा सकती है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि केवल असाधारण और दुर्लभ मामलों में ही इस प्रकार का विस्तार प्रदान किया जाएगा। इसे विस्तार देने का नियमित तरीका नहीं बनना चाहिए क्योंकि इसका दुरुपयोग हो सकता है और इसे देरी की रणनीति के हिस्से के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया है कि आदेश 8 नियम 1 द्वारा प्रदान की गई समय सीमा सुनवाई में तेजी लाने के लिए है न कि इसे रोकने के लिए। इसलिए,

  • सलीम एडवोकेट बार एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (एआईआर 2005 एससी 3353) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि अदालत आदेश 8 नियम 1 के तहत 90 दिनों की अवधि समाप्त होने के बाद विस्तार दे सकती है लेकिन उसे ऐसा विस्तार बार बार नहीं देना चाहिए। इसलिए, आदेश VIII नियम 1 के तहत लिखित बयान दर्ज करने की समय सीमा एक निर्देशक और अनिवार्य है।
  • एटकॉम टेक्नोलॉजीज लिमिटेड बनाम वाई.ए चुनावाला और कंपनी (2018) 6 एससीसी 639, में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि अदालत असाधारण मामलों में 90 दिनों की समाप्ति के बाद लिखित बयान दाखिल करने के लिए विस्तार दे सकती है। प्रतिवादी को 90 दिन की अवधि के विस्तार का अनुरोध करने के लिए अदालत को बहुत मजबूत वैध कारण प्रदान करना होगा।
  • देशराज बनाम बालकिशन 2020 में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने गैर-वाणिज्यिक वाद में लिखित बयान दाखिल करने के लिए एटकॉम टेक लिमिटेड बनाम वाई.ए चुनावाला 2018 के मामले में निर्धारित नियम को दोहराया। सर्वोच्च न्यायालय ने 90 दिनों की समाप्ति के बाद एक लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति देने के लिए एक वैध कारण के रूप में एक मामले की असाधारण परिस्थितियों पर फिर से जोर दिया।

निष्कर्ष

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों की व्याख्या की है जो प्रतिवादी के अधिकार की रक्षा करता है और वादी को त्वरित न्याय भी प्रदान करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने वाणिज्यिक वाद और गैर-वाणिज्यिक वाद से संबंधित प्रावधानों की स्पष्ट रूप से व्याख्या की है। वाणिज्यिक वाद की प्रकृति कंपनी को प्रभावित करती है जो कंपनी के संचालन और कर्मचारियों को भी प्रभावित कर सकती है। वाणिज्यिक वाद में लेन-देन का मूल्य आमतौर पर अधिक होता है और इसीलिए वादी को शीघ्र न्याय की व्यवस्था करना आवश्यक है। इसके अनुसार सिविल प्रक्रिया संहिता में प्रावधान निर्धारित किए गए हैं। इसलिए, सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश VIII नियम 1 के तहत लिखित बयान दाखिल करने की समय सीमा अनिवार्य है न कि निर्देशक है। यह प्रावधान वादी और प्रतिवादी दोनों की मदद करने के लिए है। वादी को जानबूझकर या अनावश्यक देरी से बचाया जाता है और दूसरी ओर, प्रतिवादी को निर्धारित अवधि के भीतर लिखित बयान तैयार करने और दर्ज करने के लिए उचित समय प्रदान किया जाता है।

गैर-वाणिज्यिक वाद के मामले में, प्रावधान के तहत कुछ लचीलेपन की अनुमति है, लेकिन केवल असाधारण मामलों में। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 8 नियम 1 के तहत निर्धारित 90 दिनों की समाप्ति के बाद प्रतिवादी को लिखित बयान दर्ज करने की अनुमति देने के लिए एक वैध कारण प्रदान करना होगा। अदालत तब प्रतिवादी द्वारा दिए गए कारण को मान्य करेगी और मामले के तथ्यों का विश्लेषण करने के बाद, अदालत उचित समझे जाने पर एक आदेश पारित करेगी। इसलिए, प्रावधानों में अस्पष्टता के लिए कोई जगह नहीं है और स्पष्ट रूप से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की श्रेणी द्वारा व्यक्त किए जाते हैं।

 

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