रेस ज्यूडिकाटा और रेस सब-ज्यूडिस के बीच अंतर

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Code of Civil Procedure

यह लेख बीबीए.एलएलबी की पढ़ाई कर रही छात्रा Raksha Yadav द्वारा लिखा गया है, जो और लॉसिखो से जेनरल कॉर्पोरेट प्रैक्टिसेस: ट्रांजेक्शन, गवर्नेंस एंड डिस्प्यूट में डिप्लोमा कर रही हैं। यह लेख रेस ज्यूडिकाटा और रेस सब-ज्यूडिस के बीच अंतर बताता है। यह दोनों तत्वों का गहन ज्ञान भी प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

न्यायपालिका हमेशा किसी भी वाद (सूट) में निर्णय सुनाने के लिए कुछ सिद्धांतों और मिसालों (प्रिसिडेंट) को देखती है। ये सिद्धांत न्यायपालिका को कुशलता से काम करने और निर्णय देने की गति को तेज करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। हमारे देश में प्रतिदिन बड़ी संख्या में मामले दर्ज होने के कारण मुकदमेबाजी की प्रक्रिया बहुत समय लेने वाली और महंगी है। इसलिए, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) के तहत दो सिद्धांत हैं, अर्थात्, रेस ज्यूडिकाटा और रेस सब-ज्यूडिस जिसका उद्देश्य कार्यवाही के दौरान दक्षता (एफिशिएंसी) और प्रक्रिया में त्वरिता प्रदान करना है।

‘रेस ज्यूडिकाटा’ एक लैटिन कहावत है, जो कहती है कि ‘मामला तय हो चुका’ है। इस सिद्धांत में कहा गया है कि जब अदालत द्वारा समान तथ्यों और मुद्दों पर एक वाद की सुनवाई की जाती है, तो अंतिम निर्णय पारित किया जाता है। यदि मुद्दा अपील करने योग्य नहीं है, तो यह सिद्धांत समान आधारों और समान पक्षों पर कार्यवाही को जारी रखने पर रोक लगाता है।

दूसरी ओर, ‘रेस सब-ज्यूडिस’ भी एक लैटिन कहावत है जिसका अर्थ है ‘निर्णय के तहत’। जब पक्ष एक ही मामले पर दो या दो से अधिक वाद दायर करते हैं, तो सक्षम न्यायालय के पास वाद की समानांतर (पैरलल) कार्यवाही करने का अधिकार होता है। यह सिद्धांत दोहराव और विपरीत आदेशों से बचने के लिए वाद पर रोक लगाने का आदेश देता है।

रेस ज्यूडिकाटा और रेस सब-ज्यूडिस के बीच अंतर

अर्थ और परिभाषा

रेस ज्युडिकाटा

रेस का अर्थ है विषय वस्तु, और ज्यूडिकाटा का अर्थ है निर्णय। रेस ज्युडिकाटा के सिद्धांत को ‘रेस ज्युडिकाटा प्रो वेरिटेट एक्सिपीटर’ से अपनाया गया है, जिसमें कहा गया है कि एक बार निर्णय हो जाने के बाद, इसे सही और अंतिम निर्णय के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। यह अंग्रेजी आम कानून से विकसित हुआ है। सामान्य कानून व्यवस्था न्यायिक एकरूपता (यूनिफोर्मिटी) के मूल विचार से विकसित हुई थी। रेस ज्युडिकाटा को शुरू में सामान्य कानून से सिविल प्रक्रिया संहिता में अपनाया गया था, और बाद में इसे भारतीय कानूनी प्रणाली में अपनाया गया था। सीपीसी की धारा 11, रिस ज्यूडिकाटा के प्रावधान से संबंधित है। इस धारा के अनुसार, एक अदालत किसी भी ऐसे वाद पर विचार नहीं कर सकती है, जिसे पहले ही समान तथ्यों और मुद्दों पर सुलझाए गया है, जिन्हे प्रत्यक्षतः (डायरेक्टली) और सारतः (सब्सिक्वेंटली) पूर्व वाद में निपटाया गया था। और एक समान शीर्षक के तहत एक सक्षम अदालत में कार्यवाही हुई थी।

यह सिद्धांत, जिसे दावा अपवर्जन (क्लेम प्रीक्लूजन) के रूप में भी जाना जाता है, एक पक्ष को समान तथ्यों और आधारों पर एक ही पक्ष के खिलाफ नई कानूनी कार्रवाई शुरू करने से रोकता है। कई बार, एक पक्ष दूसरे पक्ष को परेशान करने के लिए फिर से कार्यवाही शुरू करता है। इसलिए, एक समान वाद दायर करने के पश्चाताप को रोकने के लिए, यह सिद्धांत लागू होता है।

सत्यध्यान घोषाल और अन्य बनाम एस.एम. देवराजिन देबी और एक अन्य (1960), में सर्वोच्च न्यायालय ने समझाया कि रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत मामले के अंतिम समाधान पर जोर देता है। किसी भी पक्ष को बाद के वाद में या समान पक्षों के बीच कार्यवाही में, एक ही मुद्दे को उठाने की अनुमति नहीं दी जाएगी, जब कोई मामला, चाहे तथ्य या कानून के प्रश्न पर, एक ही कार्यवाही में दो पक्षों के बीच, हल हो गया हो और निर्णय अंतिम हो, क्योंकि या तो उच्च न्यायालय में कोई अपील दायर नहीं की गई थी या अपील खारिज कर दी गई थी, या क्योंकि कोई अपील व्यवहार्य (वाएबल) नहीं है।

दरियाओ और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (1961), मे सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत, जिसमें कहा गया है कि मुकदमेबाजी समाप्त होनी चाहिए, सभी अदालतों द्वारा साझा किया गया एक मौलिक सिद्धांत है और यह केवल रिकॉर्ड पर लागू नहीं होता है।

कानूनी प्रतिनिधि द्वारा लाल चंद (मृत) और अन्य बनाम राधा किशन (1976) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक बार अंतिम निर्णय पहले किए जाने के बाद, न्यायाधीश इसे वर्तमान वाद में एक ही पक्ष के बीच दायर किए गए फैसले के रूप में मानते हैं।

रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत कुछ सिद्धांतों पर आधारित है, जो निम्नलिखित हैं:

  1. निमो डिबेट लिस वेक्सारी प्रो ईडेम कोजा:

इस कहावत में कहा गया है कि ‘एक ही तरह के विवाद में किसी व्यक्ति पर दो बार वाद नहीं चलाया जाता’। यह मुकदमेबाजी प्रक्रिया को समाप्त करने के लिए, सिविल और आपराधिक दोनों प्रकार के वाद में लागू होता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(2) में यह भी कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति पर दो बार वाद नहीं चलाया जा सकता है और न ही उसे दंडित किया जा सकता है।

2. इंटरेस्ट रिपब्लिके यू सिट फिनिस लिटियम:

इस कहावत का अर्थ यह है कि मुकदमेबाजी का अंत होना चाहिए क्योंकि यह राष्ट्र के हित में है। 

3. री ज्युडिकाटा प्रो वेरिटेट ओसीपिटर:

इसका मतलब यह है कि एक न्यायिक निर्णय को वैसे ही स्वीकार किया जाना चाहिए जैसा वह है।

रेस सब ज्यूडिस

‘रेस’ शब्द का अर्थ है मामला, और ‘सब ज्यूडिस’ का अर्थ विचाराधीन (कंसीडरेशन) है। इसलिए, इस सिद्धांत का अर्थ एक ऐसा मामला है जो अभी भी विचाराधीन है। सीपीसी की धारा 10 का कहना है कि कोई भी अदालत एक ही पक्ष और उन्हीं मुद्दों के बीच ऐसी कार्यवाही शुरू नहीं कर सकती है जो पिछले मुकदमे में सीधे या बाद में प्रश्न में थे, यदि पिछला वाद अभी भी सक्षम अदालत में लंबित है। जब एक ही पक्ष के बीच एक ही अदालत में दो या दो से अधिक मामले दायर किए जाते हैं तो रेस सब-ज्यूडिस के सिद्धांत का उद्देश्य कार्यवाही पर रोक लगाता है। इस सिद्धांत का उद्देश्य अदालत में समय बर्बाद करने से बचना है और एक ही वाद में विरोधाभासी फैसलों से बचना है। यह पक्षों को अनावश्यक अदालती कार्यवाही और अन्य पक्षों द्वारा उत्पीड़न से भी बचाता है। यह सिद्धांत वाद, अपील और पुनरीक्षण (रिवीजन) पर लागू होता है। यह किसी न्यायालय को निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) या स्थगन (स्टे) देने के लिए अस्थायी आदेश जारी करने से नहीं रोकता है।

एस्कॉर्ट्स कॉन्स्ट. इक्विपमेंट लिमिटेड बनाम एक्शन कांस्ट. इक्विपमेंट्स लिमिटेड (1998), में दिल्ली उच्च न्यायालय ने देखा कि संहिता की धारा 10 को लागू करने के लिए, एक मुद्दा होना चाहिए और पहले और बाद के वाद में पक्ष समान होने चाहिए, एक पूर्व वाद जो वांछित राहत देने के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) वाली अदालत में दायर किया गया होना चाहिए, और यह उसी अदालत में या किसी अन्य में होना चाहिए।

इंडियन बैंक बनाम महाराष्ट्र राज्य को-ऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन (1998) में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि रेस सब-ज्यूडिस के सिद्धांत का उद्देश्य इस विषय पर विरोधाभासी फैसलों से बचने के लिए अदालतों को एक साथ दो समानांतर मामलों पर विचार करने से रोकना है।

पावर द्वारा प्रतिनिधि, अरुमुघा उदयार बनाम लक्ष्मी (2005) के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि संहिता की धारा 10 को लागू करने के लिए, चार आवश्यक शर्तें होनी चाहिए:

  1. दूसरे वाद में मुद्दा भी, पहले वाद में मुद्दे से सीधे तौर पर समान होना चाहिए;
  2. दूसरे वाद में शामिल पक्ष वही होने चाहिए, जिनके तहत उन्होंने अपने या उनमें से किसी की ओर से कार्यवाई करने का दावा किया था;
  3. दूसरे वाद की राहत उस अदालत में स्वीकार्य होनी चाहिए जहां प्रारंभिक वाद दायर किया गया था;
  4. पिछला वाद सक्षम न्यायालय, या भारत में स्थित किसी न्यायालय, या सर्वोच्च न्यायालय, या किसी न्यायालय, या भारत के बाहर केंद्र सरकार द्वारा स्थापित या गठित किसी न्यायालय में लंबित होना चाहिए।

उद्देश्य

रेस ज्युडिकाटा

रेस ज्युडिकाटा का सिद्धांत सभी सिविल और आपराधिक मामलों पर लागू होता है और यह न्याय, समानता और अच्छे विवेक के सिद्धांतों पर आधारित है। इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य पुन: मुकदमेबाजी की प्रक्रिया को प्रतिबंधित करना है। सिद्धांत का अन्य उद्देश्य इस प्रकार है:

  1. यह न्यायालय के समय और संसाधनों (रिसोर्सेज) का दुरुपयोग होने से रोकता है।
  2. यह प्रतिवादी को क्षति से सुरक्षा प्रदान करता है।
  3. यह एक ऐसे मामले में पक्षों के बीच विवादों को रोकता है जिसे आधिकारिक तौर पर एक फैसले को समाप्त करने और भविष्य के किसी भी दावे को छोड़कर हल किया गया है।
  4. यह उस भ्रम को रोकता है जो एक ही वाद में कई निर्णयों के कारण हो सकता है।

रेस सब-ज्यूडिस

रेस सब-ज्यूडिस के सिद्धांत का उद्देश्य न्यायपालिका के समय को अनावश्यक मुकदमों से बचाना है। इसके अलावा, सिद्धांत के कुछ और उद्देश्य हैं जो इस प्रकार हैं:

  1. यह वादी को एक ही प्रतिवादी के खिलाफ सभी मुद्दों और तथ्यों के लिए एक वाद दायर करने की अनुमति देता है।
  2. यह इसी तरह के मुद्दे पर विरोधाभासी फैसलों से बचाता है।
  3. समवर्ती (कंकर्रेंट) अधिकार क्षेत्र वाली अदालतों को एक ही दावे, एक ही मुद्दे और समान उपाय से जुड़े दो समानांतर मुकदमों पर एक साथ सुनवाई और निर्णय लेने से रोकता है।
  4. प्रतिवादी को दो बार मुआवजे या हर्जाने का भुगतान करने से बचाता है।
  5. अनावश्यक भ्रम को रोकता है।

अनिवार्यताएं

रेस ज्युडिकाटा

रेस ज्यूडिकाटा की अनिवार्यताएं इस प्रकार हैं:

  1. एक वाद पहले और एक बाद में दायर किया जाना चाहिए।
  2. मामला प्रत्यक्षतः और सारतः बाद के वाद से संबंधित है।
  3. जिन पक्षों ने वाद दायर किया है, वे उन पक्षों के समान होने चाहिए जिन्होंने पूर्व में भी वाद दायर किया था।
  4. दोनों सूटों के शीर्षक भी एक जैसे ही होना चाहिए।
  5. वाद सक्षम अधिकार क्षेत्र में दायर किया जाना चाहिए।
  6. अदालत ने पहले उस मुद्दे को सुना और तय किया होगा जो बाद के वाद में सीधे और काफी हद तक प्रश्न में है।

रेस सब-ज्यूडिस

रेस सब-ज्यूडिस की अनिवार्यताएं इस प्रकार हैं:

  1. एक ही पक्ष के बीच दो सिविल वाद होने चाहिए।
  2. पूर्व वाद अंतिम निर्णय के लिए सक्षम न्यायालय के समक्ष लंबित है और बाद में एक और वाद लाया जाता है।
  3. बाद का वाद भी पूर्व वाद के समान शीर्षक के तहत दायर किया गया है।
  4. विदेशी अदालत में लंबित कोई भी वाद संहिता की धारा 10 को लागू नहीं करता है।
  5. यदि बाद में आवेदन तहसीलदार के समक्ष दायर किया जाता है और वाद अदालत के समक्ष लंबित है, तो यह भी सिद्धांत के दायरे में आएगा।
  6. वाद दायर करने के लिए वाद प्रस्तुत करने की तिथि पर विचार किया जाता है, और अपील को भी वाद में शामिल किया जाता है। 
  7. कार्यवाही पर रोक लगाने के लिए न्यायालय के पास अंतर्निहित (इन्हेरेन्ट) शक्ति होनी चाहिए।
  8. यदि धारा 10 के उल्लंघन के लिए कोई डिक्री पारित की जाती है तो वह शून्य (वॉइड) और अमान्य होगी।
  9. पक्ष धारा 10 के तहत अपने अधिकार का त्याग कर सकते हैं।
  10. न्यायालय को अंतरिम (इंटरिम) आदेश पारित करने का अधिकार है।

मनोहर लाल चोपड़ा बनाम राय बहादुर राव राजा सेठ हीरालाल (1961) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 10 की आवश्यकताओं का पालन किया जाना चाहिए, और अदालत के पास कोई विवेक नहीं है।

डॉ गुरु प्रसाद मोहंती और अन्य में बनाम बिजॉय कुमार दास (1984), में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 10 का उद्देश्य समवर्ती अधिकार क्षेत्र वाली अदालतों को एक ही दावे, एक ही मुद्दे और एक ही समय में समान राहत से जुड़े दो समानांतर मुकदमों पर सुनवाई और निर्णय लेने से रोकना है। 

अपवाद 

रेस ज्युडिकाटा

रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत, पक्षों को मुकदमेबाजी की प्रक्रिया को फिर से दाखिल करने से रोकता है, लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं जब यह सिद्धांत लागू नहीं होता है।

  1. जब डिक्री और आदेश, तथ्यों या मुद्दों की धोखाधड़ी और गलत बयानी करके प्राप्त किया गया हो।
  2. जब गुण-दोष के आधार पर फैसला नहीं सुनाया जाता है।
  3. जब विशेष अनुमति याचिका को निर्णय की घोषणा या निर्धारण किए बिना खारिज कर दिया जाता है।
  4. जब बाद के मुकदमों में कार्रवाई का एक अलग कारण होता है। यदि बाद के वाद में कार्रवाई का एक अलग कारण है, तो अदालत इसे खारिज नहीं कर सकती है।
  5. जब न्यायालय के पास पूर्व वाद में सक्षम अधिकार क्षेत्र नहीं था।
  6. जब मामले में कानून का सवाल हो।
  7. जब एक पूर्व वाद में वार्ता (इंटरलॉक्युटरी) आदेश पारित किया गया था।
  8. यदि मौजूदा कानून में कोई संशोधन है जो पक्ष को नए अधिकार प्रदान करता है, तो यह सिद्धांत लागू नहीं होगा।
  9. जब वाद डिफ़ॉल्ट रूप से खारिज कर दिया गया था।
  10. यदि पक्ष रेस ज्यूडिकाटा के लिए याचिका नहीं उठाता है।

रेज सब-ज्यूडिस

कुछ मामले ऐसे होते हैं जहां रेज सब-ज्यूडिस का सिद्धांत लागू नहीं होता है। ये इस प्रकार हैं:

  1. जब प्रत्येक वाद में दावे एक दूसरे से अलग हों।
  2. जब सामान्य और अद्वितीय दोनों मुद्दे हों, तो यह नियम लागू नहीं होता है।
  3. जब एक ही पक्षों के बीच अलग-अलग मुद्दे हों।
  4. धारा 10 के लागू होने के लिए पहले के वाद के सभी मुद्दों को बाद के वाद में उठाने की ज़रूरत नहीं है।

रेस ज्यूडिकाटा और रेस सब-ज्यूडिस के बीच मुख्य अंतर

क्रमांक। अंतर के आधार रेस ज्युडिकाटा रेस सब-ज्यूडिस
1. अर्थ इसका मतलब है कि एक मामला पहले ही तय हो चुका है और दोबारा नहीं सुना जा सकता है। रेस ज्युडिकाटा पूर्व में सुलझाए गए विवादों के दूसरे विचारण को रोकता है। यह लंबित वाद पर लागू होता है। यह समानांतर कार्यवाही को रोकता है। रेस सब-ज्यूडिस एक ही मामले पर समानांतर कार्यवाही को रोकता है।
2. प्रावधान  सीपीसी की धारा 11 सीपीसी की धारा 10
3. प्रयोज्यता  रेस ज्युडिकाटा वादों और आवेदनों पर लागू होता है। रेस सब-ज्यूडिस वाद और अपीलों पर लागू होता है।
4. अनिवार्यता  वाद का निर्णय सक्षम न्यायालय द्वारा किया जाता है। मामला बाद के और पूर्व के मुकदमों में समान होना चाहिए। वाद एक ही पक्ष के बीच दायर किया जाना चाहिए। अदालत का अधिकार क्षेत्र होना चाहिए। पूर्व और बाद के मुकदमों का एक ही शीर्षक होना चाहिए। दो वाद होने चाहिए और एक पहले ही शुरू हो चुका होना चाहिए। मुद्दा एक ही होता है। वाद एक सक्षम अदालत में दायर किया जाना चाहिए। वाद अदालत में लंबित होना चाहिए। वाद का शीर्षक और पक्ष समान होने चाहिए।
5. उद्देश्य वाद की कार्यवाही का अंत है। यह समान पक्षों के बीच समानांतर कार्यवाही को प्रतिबंधित करता है।

निष्कर्ष

कुछ अनावश्यक और बार-बार मुकदमों के कारण न्यायपालिका पर अत्यधिक बोझ आ जाता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रत्येक व्यक्ति को न्याय मिले और न्यायपालिका के सुचारू संचालन के लिए, इन सिद्धांतों को कुशलता से लागू किया जाना चाहिए। यह न्यायपालिका के लिए बहुत समय बचाता है क्योंकि अंतिम निर्णय के लिए कई विवाद लंबित हैं, और यह प्रतिवादी के अधिकारों की रक्षा भी करता है। यदि इस सिद्धांत का कोई उपयोग नहीं है, तो मुकदमेबाजी प्रक्रिया का भी कोई अंत नहीं है। रेस ज्यूडिकाटा पक्षों को वाद दायर करने से रोकता है, जबकि रेस सब ज्युडिस, पक्षों के बीच वाद को रोकता है। रेस ज्यूडिकाटा में, वाद का निर्णय सक्षम न्यायालय में किया जाना चाहिए, लेकिन रेस सब ज्युडिस में, वाद सक्षम न्यायालय के समक्ष लंबित होना चाहिए। इसलिए न्यायपालिका की प्रक्रिया को तेज और प्रभावी बनाने के लिए इन सिद्धांतों का क्रियान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) आवश्यक है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

रचनात्मक (कंस्ट्रक्टिव) रेस ज्यूडिकाटा क्या है?

रचनात्मक रेस ज्यूडिकाटा का नियम कहता है कि यदि कोई पक्ष उसे और प्रतिवादी को शामिल करने वाली कार्यवाही में एक याचिका में प्रवेश करता है, तो उसे भविष्य में उसी विषय को शामिल करने वाली कार्यवाही में उसी पक्ष के खिलाफ याचिका दर्ज करने की अनुमति नहीं है। यह सार्वजनिक नीति के खिलाफ है।

रेस ज्यूडिकाटा और विबंध (एस्टॉपल) के नियम में क्या अंतर है?

विबंध का नियम एक व्यक्ति को अदालत में दो विरोधाभासी बयान देने से रोकता है। हालांकि, न्यायिक निर्णय पक्षों को वाद फिर से दाखिल करने से रोकता है।

विबंध, पक्षों को कुछ कार्यों में शामिल होने से मना करता है, जैसे कि उसने जो पहले कहा था उसे अस्वीकार करना। रेस ज्यूडिकाटा अदालत को उसी मामले से संबंधित कुछ कार्रवाई करने से रोकता है जिसे पहले ही किसी अन्य अदालत द्वारा हल किया जा चुका है।

क्या विदेशी अदालत में लंबित वाद, संहिता की धारा 10 के तहत कार्यवाही पर रोक लगाता है?

धारा 10 के अनुसार, एक मामला जो एक विदेशी अदालत में लंबित है, भारतीय अदालतों को मामले की सुनवाई से नहीं रोकेगा।

कार्यवाही पर रोक लगाने के लिए न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति क्या है?

सीपीसी की धारा 151, अदालत को न्याय के लक्ष्यों को बनाए रखने और कानूनी प्रणाली के दुरुपयोग को रोकने के लिए, कुछ भी आवश्यक आदेश जारी करने की शक्ति प्रदान करती है। यह न्याय के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए विवेकाधीन अधिकार भी प्रदान करता है।

संदर्भ

  • Takawani, C.K. Civil Procedure, 8th Edition, (Reprint) 2018, Eastern Book Company.

 

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