दोहरे दंड का सिद्धांत

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Constitution of India
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यह लेख सत्यबामा इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के छात्र Michael Shriney द्वारा लिखा गया है। यह लेख दोहरे दंड (डबल जियोपार्डी) का वर्णन करता है, जिसमें इसकी उत्पत्ति, इससे जुड़ी मूल बातें, संबंधित महत्त्वपूर्ण निर्णय और अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) भी शामिल किए गए हैं। यह लेख इस बात पर भी चर्चा करता है कि दोहरे दंड को कैसे लागू किया जाता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

दोहरे दंड का सिद्धांत एक कानूनी बचाव है जो की एक आरोपी या प्रतिवादी को कानूनी रूप से उनकी दोषमुक्ति (एक्विटल) या दोषसिद्धि (कनविक्शन) के बाद वैसे ही समान आरोपों और तथ्यों के लिए फिर से उन पर विचारण (ट्रायल) किए जाने से बचाता है। दोहरा दंड भारतीय संविधान का एक सिद्धांत है, जो की विशेष रूप से अनुच्छेद 20 (2) के तहत दिया गया है, जो दोहरे दंड के सिद्धांत से संबंधित है और इसका अर्थ निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) करता है। इसे भारतीय संविधान के संस्थापकों (फाउंडर्स) द्वारा भाग III के तहत, हमारे मूल अधिकार के एक हिस्से के रूप में शामिल किया गया है। आपराधिक न्याय प्रणाली कुछ सिद्धांतों की धारणा पर काम करती है जहां कोई समझौता स्वीकार्य नहीं है, जैसे कि दोहरा दंड सिद्धांत, जिसमें प्रणाली द्वारा मूल्यों का बचाव किया जाता है।

सामान्य तौर पर, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 20 अपराधियों को दोषसिद्धि से सुरक्षा प्रदान करता है। इसके तहत एक आरोपी व्यक्ति को दोषी ठहराए जाने से रोकने के लिए तीन सुरक्षा उपाय प्रदान किए गए हैं, अर्थात्, कार्योत्तर कानून (एक्स पोस्ट फैक्टो लॉ) यानी की जिन कानूनों का पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) प्रभाव होता है [अनुच्छेद 20(1)], दोहरा दंड [अनुच्छेद 20(2)], और आत्म दोषारोपण (सेल्फ इंक्रिमिनेशन) [अनुच्छेद 20(3)]। यह सिद्धांत ऑडी अल्टरम पार्टेम की अवधारणा का भी समर्थन करता है जिसका अर्थ है कि दूसरे पक्ष को कानून द्वारा सुना जाना चाहिए।

जब कोई निर्णय किसी न्यायालय द्वारा पारित किया जाता है और उसी निर्णय को क्रमशः उसी न्यायालय में चुनौती दी जाती है, तो इसे दोहरे दंड के सिद्धांत के तहत लाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, निचली अदालत द्वारा पारित निर्णय को उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, लेकिन इसे फिर से निचली अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। केवल न्यायिक निकाय (बॉडी), न्यायालय, न्यायिक न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) दोहरे दंड के सिद्धांत के दायरे में आते हैं। प्रशासनिक संगठन (एडमिंसिट्रेटिव आर्गेनाइजेशन), सरकारी संगठन दोहरे दंड के सिद्धांत के तहत नहीं आते है।

संयुक्त राज्य के संविधान के पांचवें संशोधन में दोहरे दंड का प्रावधान शामिल किया गया है। दोहरे दंड का उपयोग विशेष रूप से आपराधिक अदालतों में किया जाता है, और यह प्रतिवादियों को सिविल अदालत में एक ही अपराध के लिए फिर से आरोपित होने से नहीं रोकता है। इस लेख में, इस सिद्धांत की उत्पत्ति, अनिवार्य तत्व, परिस्थितियाँ जिनके तहत इस को लागू नहीं किया जा सकता है, अन्य देशों के साथ इसका अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य, और इससे संबंधित महत्त्वपूर्ण मामलो को विस्तार से शामिल किया गया है।

दोषसिद्धि के खिलाफ संरक्षण 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 20 किसी अपराध के लिए दोषसिद्धि के मामले में सुरक्षा प्रदान करता है। यह स्वतंत्रता के अधिकार से संबंधित है, जो भारतीय संविधान द्वारा प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों में से एक है। अनुच्छेद 19, 20, 21A और 22 स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करते हैं। अनुच्छेद 20 स्वतंत्रता के अधिकार का एक हिस्सा है, क्योंकि यह अपराधी व्यक्तियों के लिए तीन प्रकार के सुरक्षा उपाय स्थापित करता है, जो इस प्रकार हैं:

कार्योत्तर कानून [अनुच्छेद 20(1)]

एक कार्योत्तर कानून वह कानून है जो पहले से किए गए अपराधों पर दंड या दोषसिद्धि लगाते है और ऐसे कार्यों के लिए सजा को बढ़ाते है। यह संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान पर आधारित है। इसका पूर्वव्यापी प्रभाव भी है। इसका मतलब यह है कि जब कोई कानून किसी ऐसे कार्य के लिए दंड या सजा लागू करता है जो अपराध को करने के समय दंड के अधीन नहीं था, या अपराध को करने के समय निर्धारित किए गए अतिरिक्त दंड को लागू करता है, या जब साक्ष्य या प्रक्रिया के नियम में परिवर्तन होता है जिसके लिए दोषसिद्धि की आवश्यकता होती है।

दोहरा दंड [अनुच्छेद 20(2)]

दोहरे दंड का सिद्धांत एक ऐसा नियम है जिसमें कहा गया है कि एक ही अपराध को करने के लिए किसी भी व्यक्ति को दो बार दंड नहीं दिया जाना चाहिए। भारतीय संविधान के तहत अनुच्छेद 20 (2) में कहा गया है कि “किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार गिरफ्तार और दंडित नहीं किया जाएगा,”। यह सिद्धांत संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के पांचवें संशोधन से विकसित हुआ है, हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका और इंग्लैंड के बीच कुछ भिन्नता हैं। भारत में, इसके तहत सुरक्षा का दायरा सीमित है। यह सिद्धांत भारत के संविधान से पहले भी भारत में मौजूद था, जैसा कि सामान्य खंड (जनरल क्लॉजेस) अधिनियम, 1897 की धारा 26  और आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973  की धारा 300 द्वारा प्रदान किया गया है।

आत्म दोषारोपण [अनुच्छेद 20(3)]

आत्म दोषारोपण को प्रतिबंधित किया गया है क्योंकि कानून के अनुसार “किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को खुद के खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।” यह इस कानूनी कहावत पर आधारित है, जो है: ‘निमो टेनेटर प्रोडेरे एक्यूसारे सीप्सम’, जिसका अर्थ है कि कोई भी अपने आप को दोष देने के लिए बाध्य नहीं है। यह सिद्धांत दबाव में की गई स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) की स्वीकार्यता (एडमिसिबिलिटी) से संबंधित है, जिसे सबूत के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जाती है। इसके अलावा, किसी को भी खुद के खिलाफ ऐसी टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं होती है जिससे उस व्यक्ति को नुकसान हो या जिसे स्वीकारोक्ति माना जाता हो।

दोहरे दंड के सिद्धांत की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) के लिए आधार 

कानूनी शब्दों में, जियोपार्डी यानी की दंड उस खतरे को संदर्भित करता है जो आपराधिक मामलों में प्रतिवादियों को भुगतना पड़ता है, जैसे कि जेल या कोई अन्य सजा। कुछ स्थितियों में, दोहरे दंड को एक वैध बचाव के रूप में बताया गया है:

  1. सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, व्यक्ति पर अपराध का आरोप लगाया जाना चाहिए।  सामान्य खंड अधिनियम, 1897 के तहत, ‘अपराध’ शब्द को परिभाषित किया गया है। कोई भी कार्य या चूक जिसे उस समय लागू कानून के तहत अपराध माना जाता है।
  2. अदालत या न्यायिक न्यायाधिकरण के समक्ष, जांच या कार्यवाही हो चुकी है।
  3. पहले की प्रक्रिया में, व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाना चाहिए और उसे दंडित किया जाना चाहिए।
  4. अपराध वही होना चाहिए जिसके लिए उसे पहले दोषी ठहराया गया था और सजा सुनाई गई थी।

ऐसी स्थितियां जहां दोहरे दंड का सिद्धांत लागू नहीं होता है

दोहरे दंड वाले खंड की सुरक्षा हर परिस्थिति में लागू नहीं हो सकती है। अदालतों ने एक वैध बचाव के रूप में दोहरे दंड की प्रयोज्यता को निर्धारित करने के लिए कुछ सिद्धांत विकसित किए हैं, इतिहास मे ज्यादातर सिद्धांत कानूनी व्याख्याओं के माध्यम से हैं।

  • सिविल मुकदमा: दोहरा दंड एक बचाव है जिसका उपयोग केवल आपराधिक अदालत में ही किया जा सकता है और सिविल अदालत में इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। आपराधिक अदालत में किए गए समान अपराध के लिए सिविल अदालत में सजा के खिलाफ प्रतिवादी अपना बचाव नहीं कर सकता है। उदाहरण के लिए, यदि ‘A’ ने ‘B’ को शराब पीकर गाड़ी चलाने के मामले में मार डाला, तो ‘B’ का परिवार सिविल और आपराधिक दोनों अदालतों में मुकदमा कर सकता है। वे ‘B’ के वित्तीय नुकसान की वसूली के लिए सिविल अदालत में मुकदमा कर सकते हैं। एक सिविल कार्यवाही में, ‘A’ अपने अपराध के लिए सजा से बचाने के लिए दोहरे दंड के सिद्धांत के तहत अपना बचाव नहीं कर सकता। हालांकि, वह आपराधिक अदालत में अपना बचाव करने के लिए दोहरे दंड के सिद्धांत का इस्तेमाल कर सकता है।
  • दंड शुरू होना चाहिए: कार्यकारी (एग्जीक्यूटिव) अधिकारियों को दोहरे ख़तरे के सिद्धांत को लागू करने से पहले प्रतिवादी को दंड देना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि बचाव के रूप में दोहरे दंड के सिद्धांत का दावा करने से पहले प्रतिवादियों पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए। विचारण कर रही ज्यूरी को बुलाए जाने के बाद, दंड शुरू हो जाता है या मामले से जुड़ जाता है।
  • दंड ख़त्म होना चाहिए: दंड एक ही तरह से शुरू और ख़त्म होना चाहिए। इसे दूसरे तरीके से बोलने के लिए हम यह कह सकते हैं की प्रतिवादी को गिरफ्तार होने और उसी अपराध के लिए दंडित करने से रोकने के लिए दोहरे दंड के सिद्धांत का उपयोग करने से पहले, मामले को निष्कर्ष पर आना चाहिए। जब कोई न्यायाधीश मामले को ज्यूरी को सौंपने से पहले या जब सजा दी गई हो, तब दोषमुक्त करने का फैसला करता है। जब अदालत फैसला सुनाती है, तो आमतौर पर खतरा खत्म हो जाता है।

दोहरे दंड के सिद्धांत की उत्पत्ति

शब्द दोहरा दंड जिसे अंग्रेजी में ‘डबल जियोपार्डी’ कहा जाता है, यह अंग्रेजी सामान्य कानून नियम ‘निमो बिस पुनीटर प्रो ईओडेम डेलिक्टो’ से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है “किसी को भी एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित नहीं किया जाना चाहिए।” शब्द ‘दोहरा दंड’ सामान्य कानून नियम ‘निमो डेबेट बिस वेक्सारी’ से आया है, जिसका अर्थ है “एक आदमी को एक ही अपराध के लिए दो बार खतरे में नहीं डाला जाना चाहिए।” सरल शब्दों में, इसका अर्थ है ‘दो बार जुर्माना’ या “एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार दी गई सजा।”

इस सिद्धांत के लिए कोई विशिष्ट (स्पेसिफिक) उत्पत्ति नहीं है, जिसे किसी भी अदालत में उल्लिखित किया गया है और न्यायशास्त्र (ज्यूरोस्प्रिडेंस) की हर प्रणाली के अलावा इंग्लैंड में यह आम कानून का हिस्सा प्रतीत होता है, तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसकी कोई शुरुआत नहीं है और यह हमेशा से अस्तित्व में है। दोहरे दंड के सिद्धांत के बारे में यूनानियों (ग्रीक) और रोमन को पता था, और अंततः जस्टिनियन की डाइजेस्ट में एक नियम के रूप में स्वीकार किया गया था, जिसमे कहा गया था कि राज्यपाल (गवर्नर) को एक ही व्यक्ति को उस अपराध के लिए आरोपित करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए जिसके लिए उस पर पहले ही मुकदमा चलाया जा चुका है और उसे उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जा चुका है। उस समय की आपराधिक प्रक्रिया भिन्न थी जो अब हमारे पास है, जिसमे यह भी शामिल था की प्रतिवादी को दोष मुक्त होने के बाद 30 दिनों के भीतर अभियोजकों (प्रॉसिक्यूटर) द्वारा गिरफ्तार किया जा सकता है। 

मैग्ना कार्टा के तहत दोहरे दंड के सिद्धांत पर चर्चा नहीं की गई है और न ही इसकी व्याख्या इसके आशय से की जा सकती है। कॉन्टिनेंटल और अंग्रेजी प्रणालियों ने कैनन कानून के साझा किए गए स्रोत से दोहरे दंड का सिद्धांत तैयार किया है। 847 ईस्वी में, कैनन कानून में कहा गया था कि किसी को भी, यहां तक ​​कि भगवान को भी, एक ही अपराध के लिए फिर से दंडित नहीं किया जा सकता है। इस विचार को जस्टिनियन कोड के माध्यम से रोमन कानून में शामिल कर लिया गया था। 

संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, मैक्सिको और भारत सहित कई देशों में दोहरे दंड को संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकार के रूप में मान्यता दी गई थी। भारत में, पुरानी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 403 (1) के रूप में दोहरे दंड का सिद्धांत मौजूद था, जिसे अब संशोधन के द्वारा धारा 300 में बदल दिया गया है और 1897 के सामान्य खंड अधिनियम की धारा 26 द्वारा प्रतिस्थापित (रिप्लेस) किया गया है। यह सिद्धांत भारतीय संविधान के गठन से पहले मौजूद था।  नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा (इंटरनेशनल कॉवनेंट) के अनुच्छेद 14 (7), मानवाधिकार पर यूरोपीय सम्मेलन (यूरोपियन कन्वेंशन ऑन ह्यूमन राइट्स) के अनुच्छेद 4 (1) प्रोटोकॉल 7, और मौलिक अधिकारों के यूरोपीय संघ चार्टर के अनुच्छेद 50 सभी को अंतरराष्ट्रीय दस्तावेजों के रूप में मान्यता प्राप्त है।

यदि किसी व्यक्ति पर संयुक्त राज्य अमेरिका या इंग्लैंड में किसी अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाता है, तो उस पर एक ही अपराध के लिए दो बार मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है, चाहे वह पहले मुकदमे में दोष मुक्त हुआ हो या न हुआ हो। हालांकि, भारत में, एक व्यक्ति जिसे दोषी ठहराया गया है और दोष मुक्त कर दिया गया है, उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है और अनुच्छेद 20 (2) के तहत फिर से दंडित किया जा सकता है। यदि उस पर एक समान अपराध के लिए ही मुकदमा चलाया गया है और उसे दोषी ठहराया गया, तो वह बचाव के रूप में अनुच्छेद 20 (2) का उपयोग कर सकता है। संविधान का अनुच्छेद 20(2) दोहरे दंड से सुरक्षा प्रदान करता है। इसमें कहा गया है कि किसी को एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार गिरफ्तार या दंडित नहीं किया जाएगा।

दोहरे दंड के सिद्धांत पर न्यायिक परिप्रेक्ष्य

भारत में अदालतों ने विभिन्न मामलों के तहत अपने निर्णयों के माध्यम से इस सिद्धांत के संबंध में कुछ टिप्पणियां की हैं, अदालतें बताती हैं कि दोहरे दंड का सिद्धांत एक कहावत में अंतर्निहित (एंबेडेड) है, जो है: ‘निमो डिबेट बिस वेक्सारी सी कॉन्स्टैट क्यूरी क्वॉड सिट प्रो उना एट एडेम कॉसा’, इसका मतलब है कि किसी को भी दो बार दंडित नहीं किया जाना चाहिए अगर वह एक ही कारण के लिए प्रतीत होता है, यह अदालत ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम पी.डी. यादव (2001) के मामले में घोषित किया था। इस अवधारणा के कुछ विवरण (डिटेल्स) थे जिनकी अदालतों ने जांच की और फिर बाद के फैसलों में परिभाषित किया है।

दिए गए निर्णय यह स्पष्ट करते हैं कि एक जांच एक मुकदमे के समान नहीं है। यह वेंकटरमण बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1954) के मामले में निर्धारित किया गया था, जहां आरोपी को उसकी नौकरी से निकाल दिए जाने के बाद जांच आयुक्त (कमिश्नर) द्वारा जांच के अधीन किया गया था। उसके निर्वहन (डिस्चार्ज) के बाद, उस पर भारतीय दंड संहिता, 1860 और भ्रष्टाचार निवारण (प्रिवेंशन) अधिनियम, 1988 के प्रावधानों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया था। उन्होंने अदालत के समक्ष दोहरे दंड का तर्क दिया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला किया कि जांच आयुक्त द्वारा उनके रोजगार को समाप्त करने के लिए की गई जांच कोई मुकदमे के समान नहीं थी और इसलिए आरोप लगाए जा सकते हैं, और दोहरे दंड के बचाव को खारिज कर दिया गया था।

दूसरी ओर, दोहरे दंड के सिद्धांत का उपयोग केवल तभी किया जा सकता है जब सजा उसी अपराध के लिए हो। इस सिद्धांत को तब लागू नहीं किया जा सकता है जब अपराध एक अलग प्रकृति का हो, जैसा कि लियो रॉय बनाम अधीक्षक (सुपरिटेंडेंट) जिला जेल (1957) के मामले में उल्लेख किया गया था, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि भले ही उस व्यक्ति पर समुद्री सीमा शुल्क (सी कस्टम) अधिनियम,1878 के तहत मुकदमा चलाया गया था और उसे दोषी ठहराया गया था, लेकिन तब भी भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत उन पर फिर से मुकदमा चलाया जा सकता था क्योंकि मामले में दो अलग-अलग आरोप और दो अलग अपराध थे।

बार बार अपराध करने के मामले में, प्रत्येक दिन जब कोई व्यक्ति अपराध करता है, तो उस अपराध को एक अलग अपराध के रूप में माना जाता है, और आरोपी को प्रत्येक अपराध के लिए अलग से दंडित किया जा सकता है। यह दोहरे दंड का गठन नहीं करता है, जैसा की इलाहाबाद के उच्च न्यायालय द्वारा मोहम्मद अली बनाम श्री राम स्वरूप (1963) के मामले में निर्धारित किया गया था।

दोहरे दंड के सिद्धांत के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय

मकबूल हुसैन बनाम स्टेट ऑफ़ बॉम्बे, 1953

मामले के तथ्य

इस मामले में, याचिकाकर्ता (पेटीशनर), एक भारतीय नागरिक था, जिस ने जेद्दा से बॉम्बे के सैंटा क्रूज हवाई अड्डे की यात्रा की थी। उतरते समय उसने यह नहीं बताया कि वह 1250.361 ग्राम सोना अपने साथ ले गया था, लेकिन जब उसकी तलाशी ली गई थी तो वह भारत सरकार की अधिसूचना (नोटिफिकेशन) का उल्लंघन करते हुए पाया गया था। सीमा शुल्क अधिकारियों द्वारा, 1878 के समुद्री सीमा शुल्क अधिनियम VIII के अनुच्छेद 167, खंड (8) के तहत उसके पास से सारा सोना जब्त कर लिया गया था। हालांकि, सोने के मालिक के पास 12,000 रुपये का जुर्माना देने का भी विकल्प था, जिसे उसे आदेश की तारीख के चार महीने के अंदर अंदर चुकाना था। अपीलकर्ता (अपीलेंट) को आदेश की एक प्रति (कॉपी) प्राप्त हुई थी, लेकिन कोई भी सोने का दावा करने के लिए आगे नहीं आया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि इस याचिका पर, आपराधिक अपील के साथ साथ संविधान के प्रावधानों के तहत विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि वैसा ही समान मुद्दा “ऑट्रेफॉइस कनविक्ट” या “दोहरे दंड” के संदर्भ में बनाया गया था।

मामले में शामिल मुद्दे

इसमें शामिल मुख्य सवाल यह था कि क्या समुद्री सीमा शुल्क अधिनियम, 1878 और न्यायालय या न्यायिक न्यायाधिकरण के आदेश का इस्तेमाल दोहरे दंड की याचिका का समर्थन करने के लिए किया जा सकता है।

न्यायालय का फैसला 

फॉरेन रेगुलेशन एक्ट, 1947 के तहत चलाए जा रहे मुकदमे को बरकरार रखा गया था क्योंकि सीमा शुल्क अधिनियम, 1878 के तहत उसकी पहले की गई कैद, दोहरे दंड के तर्क का समर्थन करने के लिए अदालत या न्यायिक न्यायाधिकरण के फैसले या आदेश का गठन नहीं करती थी।

कलावती बनाम स्टेट ऑफ़ हिमाचल प्रदेश, 1953

मामले के तथ्य 

इस मामले में आरोपी (वादी) ने खुद को पति (प्रतिवादी) की क्रूरता से बचाने के लिए, पति की हत्या कर दी थी। तथ्य यह था कि वह अपने पति द्वारा प्रताड़ित किए जाने के बाद खुद को क्रूरता से बचाने का प्रयास कर रही थी। इस मामले में प्रताड़ित करने पर आरोपी ने पति की हत्या कर दी। सबूतों की कमी होने के कारण उसे दोष मुक्त कर दिया गया था। हालांकि, राज्य ने अंत में उसके खिलाफ उच्च न्यायालय में एक अपील दायर की थी।

मामले में शामिल मुद्दे

यहां शामिल सवाल यह था कि क्या संविधान के अनुच्छेद 20(2) के तहत अपील करने का अधिकार इस मामले का उल्लंघन करता है या नही।

न्यायालय का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह फैसला दिया गया था कि यह अपील उसी अपराध के लिए एक नए मुकदमे के बजाय, पहले के परीक्षण की निरंतरता में ही है, और यह कि दोष मुक्त करने के फैसले के खिलाफ की गई अपील अनुच्छेद 20 (2) के अधीन नहीं होगी क्योंकि पहले मुकदमे में कोई जुर्माना घोषित नहीं किया गया था। इस प्रकार, हत्या के मुकदमे में दोष मुक्त करने के आदेश के खिलाफ की गई अपील, संविधान के तहत अनुच्छेद 20(2) का उल्लंघन नहीं करेगी।

थॉमस डाना बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब, 1959

मामले के तथ्य

इस मामले में, दो याचिकाकर्ताओं को पुलिस के द्वारा भारतीय और विदेशी मुद्रा के साथ साथ  अवैध रूप से अन्य आयात (इंपॉर्ट) किए गए सामानों को भारत से बाहर ले जाने का प्रयास करते हुए हिरासत में लिया गया था, और केंद्रीय उत्पाद शुल्क (सेंट्रल एक्साइज) और भूमि सीमा शुल्क के कलेक्टर ने पकड़े गए माल को जब्त करने के आदेश जारी किए थे और साथ ही उन दोनों अपराधियों पर भारी व्यक्तिगत दंड लागू करने के भी आदेश दिए थे। अतरिक्त जिला मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्ताओं को दोषी ठहराते हुए दोनों को दंडित किया। इसलिए इस आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गई थी।

न्यायालय का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला किया कि अनुच्छेद 20 (2) के तहत सुरक्षा का अनुरोध करने के लिए, निम्नलिखित आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिए:

  1. पहले ही एक मुकदमा चल रहा था।
  2. उसका नतीजा यह हुआ कि आरोपी को सजा हुई थी।
  3. सजा उस ही अपराध के लिए दी गई थी।

दोहरे दंड के सिद्धांत का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य

सभी सामान्य कानून राष्ट्रों में उनके कानूनों में दोहरे दंड के संबंध में प्रावधान होते हैं, हालांकि कुछ राष्ट्रों के द्वारा इसे अपने संविधान में शामिल करना आवश्यक बना दिया गया है, जबकि अन्य राष्ट्रों के द्वारा इसे अपने कानून में शामिल किया गया है। हालांकि इसकी उत्पत्ति इतनी आम है, लेकिन यह पता चला है कि इसकी व्याख्या और निष्पादन (एग्जिक्यूशन) हर राष्ट्र में विविध हैं।

इंगलैंड

स्टीफन लॉरेंस की हत्या के बाद, मैकफेरसन रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि हत्या के मामलों में दोहरे दंड के नियम को निरस्त (रिपील) किया जाना चाहिए और यह कि दोष मुक्त किए गए हत्या के संदिग्ध पर फिर से मुकदमा करने की अनुमति दी जानी चाहिए, यदि कुछ “नए और वैध” सबूत बाद में उसके खिलाफ़ उपलब्ध हो जाते हैं। विधि आयोग (लॉ कमीशन) ने अपनी रिपोर्ट ‘दोहरे दंड और अभियोजन अपील’ में, अंततः 2001 में इस निष्कर्ष का समर्थन किया। यदि “नए, सम्मोहक (कंपेलिंग), विश्वसनीय और महत्वपूर्ण सबूत” का पता चलता है जिसके बारे में पहले से पता नहीं था और बाद में पता चलता है, तो आरोपी संदिग्ध हो सकता है। नई परिस्थितियों में नए सिरे से मुकदमा किया जाना चाहिए।

जर्मनी

जर्मनी के संविधान के अनुच्छेद 103(3) के तहत दोहरे दंड के सिद्धांत का उल्लेख किया गया है, जो सामान्य कानून के तहत एक से अधिक बार किए गए एक ही अपराध के लिए दंड को रोकता है।

जापान

जापानी संविधान का अनुच्छेद 39 दोहरे दंड के सिद्धांत से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उस कार्य के लिए आपराधिक रूप से दंडित नहीं किया जा सकता है जो पहली जगह में कानूनी था या जिसके लिए उसे दोष मुक्त कर दिया गया था, और किसी को भी दोहरे दंड में नहीं डाला जा सकता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका

दोहरे दंड के सिद्धांत को संयुक्त राज्य के संविधान के पांचवें संशोधन द्वारा परिभाषित किया गया है, जिसमें दोष मुक्त होने, दोषसिद्ध होने, कुछ प्रक्रियात्मक त्रुटियों (एरर) और एक ही आरोप में बार-बार दंड के बाद निरंतर मुकदमा शामिल है। दोहरे दंड का नियम सरकार को किसी को दो बार ‘दंड’ देने या एक ही अपराध के लिए किसी को आपराधिक रूप से ‘दंडित’ करने से रोकता है। 

निष्कर्ष

दोषसिद्ध होने के बाद, प्रत्येक आरोपी व्यक्ति के पास कम से कम एक अपील का विकल्प होता है। यदि अपील में साक्ष्य की कमी के कारण दोषसिद्धि को असंवैधानिक पाया जाता है, तो आरोपी को दोष मुक्त कर दिया जाता है, और आगे कोई मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी जाती है। दोहरे दंड के सिद्धांत का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(2) के तहत किया गया है, जो आपराधिक मुकदमा शुरू होने से पहले या बाद में विभागीय जांच को प्रतिबंधित नहीं करता है। नतीजतन, किसी व्यक्ति को दोषी ठहराए जाने और दंडित किए जाने के बाद, यह सिद्धांत हमारी न्यायिक प्रणाली के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस सिद्धांत को पूरी दुनिया में कानूनी प्रणालियों में शामिल किया गया है।

संदर्भ

  • Lectures on Constitution law- I, Dr. Rega Surya Rao.

 

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