हिंदू कानून के तहत विभाजन का आलोचनात्मक विश्लेषण

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Hindu Law
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यह लेख सिम्बायोसिस लॉ स्कूल, हैदराबाद के छात्र Sparsh Agrawal और बेनेट यूनिवर्सिटी (टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप), ग्रेटर नोएडा (यूपी) के Devansh Singh के द्वारा लिखा गया है। इस लेख में, प्रासंगिक प्रावधानों और मामलों के अनुसार हिंदू कानून के तहत विभाजन का एक महत्वपूर्ण विश्लेषण किया गया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

संपत्ति को दो भागों में बाटने को विभाजन के रूप में जाना जाता है। हिंदू कानून के तहत, विभाजन का मतलब एक संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति का विभाजन है ताकि अविभाजित सहदायिकों (कोपार्सनर) को अलग से दर्जा दिया जा सके। यह ध्यान देने योग्य है कि संयुक्त परिवार में केवल एक ही सहदायिक होने पर कोई विभाजन संभव नहीं है। एक सहदायिक वह व्यक्ति होता है जो संपत्ति को दूसरों के साथ सह-अस्तित्व के रूप में प्राप्त करता है।

एक सहदायिक की अवधारणा हिंदू कानून के अनुसार संयुक्त परिवार की संपत्ति का एक अभिन्न (इंटीग्रल) अंग है। प्रत्येक सहदायिक के पास संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति का समान हिस्सा होता है और उनमें से प्रत्येक संपत्ति में एक अंतर्निहित (इन्हेरेंट) शीर्षक सुरक्षित रखता है। यदि एक हिंदू संयुक्त परिवार विभाजन करने का फैसला करता है तो उसके परिवार की संयुक्त स्थिति समाप्त हो जाती है। हालांकि, एक परिवार में सहदायिकों के बीच संयुक्तता की स्थिति स्थापित करने के लिए, परिवार में कम से कम दो सहदायिकों का होना अनिवार्य है।

उस संपत्ति का विभाजन संभव हो सकता है जो विभाजन करने में सक्षम है। यदि संयुक्त परिवार में किसी भी सहदायिक की अलग संपत्ति है तो उसका विभाजन नहीं किया जा सकता। मृत्युंजय महापात्र बनाम प्राण कृष्ण महापात्र के मामले में, अदालत ने कहा कि जब बड़े भाई ने अपने निजी कोष (फंड) से संपत्ति खरीदी थी तो इसे विभाजन के अधीन नहीं किया जा सकता है और छोटे भाई के कहने पर संयुक्त परिवार में शामिल नहीं की जा सकती है।

इसके अलावा, प्रफुल्ल कुमार महापात्र बनाम जॉय कांता कृष्ण महापात्र के मामले में अदालत ने कहा कि जब संपत्ति चाचा की है और दावेदार के पिता की संपत्ति के हिस्से के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं है, तो इसे अलग संपत्ति के रूप में माना जाएगा और यह संयुक्त हिंदी परिवार की संपत्ति नहीं होगी।

मिताक्षरा और दयाभाग स्कूल के तहत विभाजन

हिंदू कानून के तहत विभाजन की अवधारणा मुख्य रूप से विचार के दो स्कूलों, अर्थात् मिताक्षरा और दयाभाग द्वारा नियंत्रित होती है। ‘विभाजन’ शब्द के लिए दोनों स्कूलों के दो अलग-अलग अर्थ हैं। जहां तक ​​मिताक्षरा स्कूल का संबंध है, विभाजन का अर्थ केवल सहदायिकों के बीच कुछ या विशिष्ट हिस्सों में संपत्ति का विभाजन नहीं है, लेकिन इसका वास्तव में अर्थ है हित के पृथक्करण (सेवरेंस) के साथ स्थिति का विभाजन, यानी, पैतृक संपत्ति में, सहदायिक के हिस्से में सहदायिक के जन्म और मृत्यु के अनुसार उतार-चढ़ाव होता है, जिसका अर्थ है कि जब भी एक संयुक्त परिवार में जन्म होता है, तो सहदायिकों के हिस्से कम हो जाते हैं, जबकि जब मृत्यु होती है तो सहदायिकों के हिस्सों में वृद्धि होती है। इस विचारधारा के तहत, संपत्ति के अधिकार जन्म से बनते हैं, और हस्तांतरण (डिवोल्यूशन) उत्तरजीविता (सर्वाइवरशिप) के माध्यम से होता है। इसलिए, हिस्सों को परिभाषित करने के बाद विभाजन को पूरा होने के लिए कहा जाता है, और इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि संपत्ति का विभाजन सीमा के माध्यम से होना चाहिए। इसलिए, मिताक्षरा विचारधारा के तहत, स्वामित्व की एकता को सहदायिकी का एक सार माना जाता है।

  • दयाभाग स्कूल: एक दयाभाग स्कूल में प्रत्येक वयस्क (मेजर) सहदायिक अपने हिस्सों के भौतिक सीमांकन (फिजिकल डिमार्केशन) द्वारा विभाजन की मांग करने का अधिकार सुरक्षित रखते है। इस तरह का विभाजन, विभाजन के विशिष्ट हिस्सों के सीमांकन के अनुसार होना चाहिए अर्थात सीमा द्वारा विभाजन।
  • मिताक्षरा स्कूल: मिताक्षरा स्कूल में विशिष्ट हिस्सों में संपत्ति का कोई सीमांकन नहीं होता है, और एक सहदायिक की अनिवार्यता स्थापित करने की आवश्यकता है, लेकिन संयुक्त संपत्ति का अस्तित्व विभाजन की मांग के लिए एक आवश्यक तत्व नहीं है। एक विभाजन की मांग करने के लिए केवल एक निश्चित और स्पष्ट घोषणा है जो परिवार से अलग होने के उनके इरादे को बताती है।

कानूनी और वास्तविक विभाजन (डी ज्यूरे एंड डी फैक्टो पार्टिशन)

  • कानूनी-विभाजन: अविभाजित सहदायिकी में, सभी मौजूदा सहदायिकों का संपत्ति में एक संयुक्त हिस्सा होता है, और जब तक विभाजन नहीं हो जाता, तब तक कोई भी सहदायिक यह नहीं बता सकता कि संपत्ति में उसके पास कितनी हिस्सेदारी है।

इसके अलावा, उत्तरजीविता के सिद्धांत के लागू होने के कारण, अन्य सहदायिकों के जन्म और मृत्यु के कारण हितों में उतार-चढ़ाव बना रहता है। लेकिन, जब सामुदायिक हित को एक सहदायिक के कहने पर या आपसी सहमति से तोड़ दिया जाता है कि हिस्से अब स्पष्ट रूप से तय या सीमांकित हैं, तो इस प्रकार के विभाजन को कानूनी विभाजन के रूप में जाना जाता है जिसमें उत्तरजीविता के सिद्धांत के लिए लागू होने की कोई गुंजाइश नहीं होती है।

  • वास्तविक विभाजन: कब्जे की एकता जो सहदायिकों द्वारा संपत्ति के आनंद का प्रतीक है, संयुक्त स्थिति या सामुदायिक हितों के विभाजन के पृथक्करण के बाद भी जारी रह सकती है। संपत्ति में हिस्सों की मात्रा निश्चित नहीं हो सकती है, लेकिन कोई भी सहदायिक किसी भी संपत्ति को उसके अनन्य (एक्सक्लूजिव) हिस्सों का दावा करने का अधिकार सुरक्षित नहीं रखता है। “कब्जे की एकता का यह टूटना संपत्ति के वास्तविक विभाजन से प्रभावित होता है और इसे वास्तविक विभाजन कहा जाता है।”

एक वैध विभाजन की अनिवार्यता

यह ध्यान देने योग्य है कि एक सहदायिक अन्य सहदायिकों की सहमति के बिना किसी भी समय विभाजन की मांग करने का अधिकार सुरक्षित रखता है। इसलिए, विभाजन की मांग लाने के लिए निम्नलिखित अनिवार्यताएं स्थापित की जानी चाहिए: –

  1. संयुक्त परिवार से अलग होने का इरादा होना चाहिए।
  2. एक स्पष्ट और एकतरफा घोषणा होनी चाहिए जो संयुक्त परिवार से अलग होने के इरादे को बताती हो।
  3. इरादे को कर्ता या अन्य सहदायिक को उनकी अनुपस्थिति में सूचित किया जाना चाहिए।

विभाजन की मांग के हकदार व्यक्ति

हिंदू कानून के अनुसार, संयुक्त हिंदू परिवार का प्रत्येक सहदायिक संपत्ति के विभाजन की मांग करने का हकदार है। हालांकि, प्रत्येक सहदायिक के पास विभाजन को लागू करने का अयोग्य और अप्रतिबंधित अधिकार नहीं है।

वे व्यक्ति, जो विभाजन की मांग करने के हकदार हैं, वे इस प्रकार हैं;

  • सहदायिक

हिंदू कानून के अनुसार, एक बड़े और छोटे सहदायिक दोनों को विभाजन के दौरान हिस्सा पाने का अधिकार है, भले ही वे बेटे, पोते या परपोते के रूप में विभाजन की मांग कर रहे हों। एक सहदायिक किसी भी समय या बिना कारण के विभाजन की मांग कर सकता है, यह ध्यान में रखते हुए कि इस मांग को परिवार के कर्ता द्वारा कानूनी रूप से पालन किया जाना है। यहां, सभी सहदायिकों का संपत्ति में अविभाजित हित होता है, और एक विभाजन के माध्यम से, शीर्षक उनके बीच विभाजित किया जाता है, जिससे अनन्य स्वामित्व होता है। अवयस्क (माइनर) के मामले में, विभाजन की मांग के लिए एकमात्र शर्त जिस पर विचार किया जाना है, वह है; अवयस्क की ओर से विभाजन के लिए मुकदमा, जो अवयस्क के अभिभावक (गार्डियन) द्वारा दायर किया जाना चाहिए।

  • महिला सदस्य

इस संबंध में महिला सदस्यों में तीन प्रकार की महिलाएं शामिल हैं, यानी पिता की पत्नी, विधवा मां और पैतृक दादी। आम तौर पर, महिला हिस्सेदारों को विभाजन के लिए पूछने का अधिकार नहीं होता है, लेकिन जब संयुक्त परिवार की संपत्ति वास्तव में विभाजन के बाद विभाजित हो जाती है, तो वे अपना हिस्सा प्राप्त कर सकती हैं। जहां तक ​​पिता की पत्नी का संबंध है, जब एक पिता और उसके पुत्रों के बीच विभाजन होता है, तो पत्नी पुत्र के बराबर हिस्सा पाने की हकदार होती है, भले ही विभाजन पिता द्वारा स्वयं प्रभावित किया गया हो या यह एक बेटे के कहने पर हुआ हो। किसी कारणवश पिता की मृत्यु बिना विभाजन के हो जाती है, तो उत्तरजीविता के सिद्धांत के अनुसार, पूरी संपत्ति पुत्र द्वारा ले ली जाएगी, और पत्नी को कुछ भी नहीं मिलेगा। दूसरी तरफ, अगर हम एक विधवा मां के बारे में बात करते हैं, तो वह भाई के बराबर हिस्सा पाने की हकदार होती है, जब पिता की मृत्यु के बाद वास्तव में विभाजन होता है, जबकि एक पैतृक दादी को एक पोते के बराबर हिस्सा मिलता है जब उसके बेटों की मृत्यु के बाद एक विभाजन होता है।

  • अयोग्य सहदायिक

कोई भी सहदायिक जो जन्म के समय से असाध्य (इंक्यूरेबल) अंधापन, पागलपन, कुष्ठ रोग (लेप्रोसी), आदि जैसी किसी विकृति के कारण संपत्ति का आनंद लेने और प्रबंधन करने में असमर्थ है, उसे अयोग्य माना जाएगा और विभाजन के दौरान हिस्सा पाने के लिए उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा, लेकिन, यदि संयुक्त परिवार में, किसी सदस्य की जन्मजात अयोग्यता नहीं है, तो वह सहदायिक संपत्ति में जन्म से अधिकार प्राप्त करेगा, और इस प्रकार, यदि वह बाद के समय में पागल हो जाता है, तो उसे उसके हित से वंचित नहीं किया जाएगा।

  • विभाजन के बाद पैदा हुआ बेटा

जन्म के बाद के बेटों को आमतौर पर दो प्रमुखों के तहत वर्गीकृत किया जाता है;

  1. पहला, वे पुत्र जो विभाजन के बाद पैदा हुए या मां ने विभाजन के बाद गर्भ धारण किया, और
  2. दूसरे, वे पुत्र जो विभाजन के बाद पैदा हुए लेकिन विभाजन से पहले मां ने गर्भ धारण कर लिया था। 

दूसरे शब्दों में, यदि एक पुत्र को अपनी माँ के गर्भ में माना जाता है, तो उसे कानून की दृष्टि में अस्तित्व में माना जाएगा और अपने भाइयों के साथ समान हिस्सा प्राप्त करने के लिए वह विभाजन को फिर से खोल सकता है। दूसरी ओर, यदि कोई बेटा विभाजन के बाद पैदा हुआ है, और यदि उसके पिता ने संपत्ति में अपना हिस्सा ले लिया है और अन्य बेटों से अलग हो गया है, तो नवजात पुत्र भी विभाजन से अपने पिता के हिस्से का हकदार होगा। लेकिन यहां, इस मामले में, वह अपनी अलग संपत्ति के लिए विभाजन को फिर से खोलने का हकदार नहीं होगा।

  • एक शून्य या शून्यकरणीय (वॉयडेबल) विवाह से पैदा हुआ बेटा

एक शून्य या शून्यकरणीय विवाह से पैदा हुए पुरुष बच्चे को उसके माता-पिता की वैध संतान माना जाता है और इस प्रकार, वह कानून के अनुसार अपनी अलग संपत्ति का हिस्सा लेने का हकदार है। यह माता-पिता के रिश्तेदारों की संपत्ति के उत्तराधिकारी नहीं हो सकते है। जहां तक ​​वैधानिक वैधता का संबंध है; पिता की संपत्ति के लिए पुरुष बच्चे को एक सहदायिक के रूप में माना जा सकता है। उसे पिता के जीवन काल में विभाजन की माँग करने का अधिकार नहीं है। इसके अलावा, वह पिता की मृत्यु के बाद ही विभाजन की मांग कर सकता है। इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि एक शून्य या शून्यकरणीय विवाह से पैदा हुए बेटे के अधिकार एक नाजायज बच्चे की तुलना में बहुत बेहतर हैं, लेकिन वैध विवाह से पैदा हुए बच्चे के अधिकार से कम हैं।

  • गोद लिया हुआ बेटा

वर्तमान परिदृश्य के अनुसार, गोद लिया हुआ बेटा वैध दत्तक ग्रहण (एडॉप्शन) के माध्यम से संयुक्त परिवार का सदस्य बन सकता है। यह बदलाव हिंदू दत्तक तथा भरण पोषण अधिनियम, 1956 के पारित होने के बाद लाया गया था, जहां गोद लेने से संबंधित सभी कानूनों को स्पष्ट और संशोधित किया गया था। अब, गोद लेने के बाद, एक गोद लिए हुए पुत्र को प्राकृतिक परिवार के लिए मृत माना जाता है और उसे गोद लेने वाले परिवार में पैदा होने वाला माना जाता है, जिसका अर्थ है कि वह गोद लेने की तारीख से संयुक्त परिवार की संपत्ति में जन्म से अधिकार प्राप्त करता है। इसलिए, वह संयुक्त परिवार की संपत्ति में विभाजन की मांग करने का हकदार है और गोद लेने वाले पिता के बराबर हिस्से का अधिकार रखता है।

  • नाजायज बेटा

हिंदू कानून के तहत, विभाजन के समय एक नाजायज बेटे का हिस्सा पाने का अधिकार उस जाति पर निर्भर करता है जिससे वह संबंधित है। वर्तमान में, एक नाजायज बेटा पिता से विरासत में नहीं ले सकता है, लेकिन वह अपनी मां से विरासत में ले सकता है। जहां तक ​​तीन जातियों का संबंध है, अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, एक नाजायज पुत्र, इसके तहत एक सहदायिक के रूप में नहीं माना जाता है और संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में उनका कोई निहित स्वार्थ नहीं है, और इस प्रकार, वह विभाजन की मांग करने का हकदार नहीं है। हालांकि, वह अपने पिता की संपत्ति से भरण-पोषण का हकदार है।

विभाजन का प्रभाव

एक विभाजन से संयुक्त परिवार में संपत्ति का पृथक्करण हो सकता है। विभाजन के बाद, एक व्यक्ति को उसके अधिकारों, दायित्वों, कर्तव्यों और संयुक्त परिवार से उत्पन्न होने वाली जिम्मेदारियों से मुक्त माना जाता है। विभाजन होने के बाद प्रत्येक मौजूदा सहदायिक के हिस्सों की निश्चित संख्या परिभाषित हो जाती है। इसके अलावा, विभाजन के बाद से हिस्सों की संख्या तय हो गई है, एक परिवार में जन्म और मृत्यु के कारण होने वाले उतार-चढ़ाव बंद हो जाते हैं और वह संपत्ति जो बंटवारे के बाद सहदायिक द्वारा अर्जित की गई है, उसकी अलग संपत्ति या स्वयं अर्जित संपत्ति के रूप में जानी जाएगी।

सहदायिक संपत्ति का विभाजन

यदि सहदायिक संपत्ति के विभाजन का इरादा व्यक्त किया जाता है, तो सहदायिकों का प्रत्येक हिस्सा स्पष्ट और सुनिश्चित हो जाता है। यह ध्यान देने योग्य है कि एक बार सहदायिक का हिस्सा निर्धारित हो जाने के बाद, यह एक सहदायिक संपत्ति नहीं रह जाती है। ऐसी घटना में पक्षों के पास संयुक्त किरायेदारों के रूप में संपत्ति नहीं होगी, लेकिन उनके पास सामान्य किरायेदारों के रूप में संपत्ति होगी। सामान्य किरायेदारी एक ऐसी व्यवस्था है जहां दो या दो से अधिक लोग संपत्ति में अधिकार साझा करते हैं।

विभाजन के विभिन्न तरीके

  • पिता द्वारा विभाजन

हिंदू कानून के तहत पिता के पास अन्य सहदायिकों की तुलना में श्रेष्ठ शक्तियां हैं, जिसमें वह अपने अधिकारों यानी ‘पैट्रिया पोटेस्टस’ के आधार पर खुद को संयुक्त परिवार से अलग कर सकता है और एक विभाजन को प्रभावित करके अवयस्को सहित प्रत्येक पुत्र को अलग कर सकता है।

  • समझौते के द्वारा विभाजन

यदि सभी सहदायिक संयुक्त को भंग कर देते हैं, तो इसे समझौते द्वारा विभाजन के रूप में जाना जाता है। अदालत के पास किसी भी विभाजन को मान्यता देने की शक्ति नहीं है, जब तक कि पक्षों के बीच पारस्परिक रूप से सहमत शर्तों पर कोई समझौता न हो। इसके अलावा, एक विभाजन समझौता परिवार के सदस्यों के बीच एक आंतरिक व्यवस्था भी हो सकती है, जिसमें परिवार की गरिमा बनाए रखने और अनावश्यक मुकदमेबाजी से बचने के लिए अधिकारों से समझौता किया जाता है। यह ध्यान देने योग्य है कि एक आपसी समझौते से सहदायिक सहमत हो सकते हैं कि वे कुछ घटना, विशिष्ट समय अवधि या यहां तक ​​कि किसी विशेष सहदायिक के जीवन तक विभाजन को प्रभावित नहीं करेंगे।

  • वाद द्वारा विभाजन

संयुक्त परिवार की संपत्ति से खुद को अलग करने के इरादे को व्यक्त करने का सबसे आम तरीका अदालत में मुकदमा दायर करना है। जैसे ही वादी अदालत में अलग होने का अपना स्पष्ट इरादा व्यक्त करता है, संयुक्त परिवार की संपत्ति में उसकी स्थिति समाप्त हो जाती है। हालांंकि, अदालत से एक डिक्री की आवश्यकता होती है जो सहदायिकों के संबंधित हिस्सो को तय करती है। अदालत में इस तरह का मुकदमा दायर करने की तारीख से स्थिति का पृथक्करण होता है। इस उद्देश्य के लिए एक अवयस्क और एक वयस्क सहदायिक दोनों अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं।

जिंगुलैया सुब्रमण्यम नायडू बनाम जिंगुलैया वेंकटसुलु नायडू के मामले में, विरोधी पक्ष की पत्नी के नाम पर संपत्ति के विभाजन की मांग की गई थी, जिसमें दावा किया गया था कि वे संयुक्त संपत्ति हैं और शीर्षक धारक को पक्ष नहीं बनाया था। इसलिए, अदालत ने कहा कि जब किसी पक्ष के विभाजन की मांग की जाती है, तो शीर्षक धारक को एक आवश्यक पक्ष के रूप में बनाना एक अनिवार्य शर्त है।

  • रूपांतरण (कन्वर्जन) द्वारा विभाजन

गैर-हिंदू धर्म में परिवर्तन से संयुक्त परिवार से संबंधित सहदायिक की स्थिति का पृथक्करण हो सकता है। जो सदस्य किसी अन्य धर्म में परिवर्तित हुआ है, वह सहदायिकी की अपनी सदस्यता खो देगा लेकिन यह अन्य सहदायिकों की स्थिति को प्रभावित नहीं करेगा।

  • मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) द्वारा विभाजन

विभाजन के इस तरीके में, एक संयुक्त परिवार के सहदायिकों के बीच एक समझौता किया जाता है जिसमें वे मध्यस्थता और संपत्ति को विभाजित करने के लिए एक मध्यस्थ नियुक्त करते हैं। ऐसा विभाजन उसकी तिथि से प्रभावी हो जाता है।

  • नोटिस द्वारा विभाजन

विभाजन का आवश्यक तत्व अलग करने का इरादा है जिसे अन्य सहदायिकों को सूचित किया जाना चाहिए। इसलिए, सहदायिकों को नोटिस देकर भी एक विभाजन प्रभावी हो सकता है, चाहे वाद के साथ हो या नहीं।

विभाजन की मांग का अधिकार

एक सामान्य नियम के रूप में, एक हिंदू संयुक्त परिवार के प्रत्येक सहदायिक को सहदायिकी/हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति के विभाजन की मांग करने की अनुमति है।

  1. पिता की विशेष शक्ति: एक हिंदू पिता अपने और अपने पुत्रों के बीच विभाजन को प्रभावित करने का अधिकार सुरक्षित रखता है। अपने बेटों की स्पष्ट सहमति या असहमति के बावजूद, वह इस अधिकार का प्रयोग कर सकता है। इसलिए पिता को दी गई विशेष शक्ति के अनुसार संपत्ति का पृथक्करण किया जा सकता है।
  2. बेटा, पोता और परपोता: सभी सहदायिक, जो वयस्क और स्वस्थ दिमाग के हैं, वे किसी भी समय विभाजन की मांग करने के हकदार हैं, चाहे वे बेटे, पोते या परपोते हों। किसी भी सहदायिक द्वारा कारण के साथ या बिना कारण के की गई स्पष्ट मांग पर्याप्त है और कर्ता कानूनी रूप से उसकी मांग का पालन करने के लिए बाध्य है।
  3. बेटी:- इसके अलावा, बेटियां, मां के गर्भ में बेटा, गोद लिया हुआ बेटा, शून्य या शून्यकरणीय विवाह के बाद पैदा हुआ बेटा, एक नाजायज बेटा आदि भी विभाजन की मांग करने का अधिकार सुरक्षित रखते है।

पाची कृष्णम्मा बनाम कुमारन के मामले में, अदालत ने कहा कि बेटी ने संयुक्त परिवार की संपत्ति के विभाजन में बेटे के बराबर अपने हिस्से का दावा किया, लेकिन वह अपने रीति-रिवाजों को साबित करने में विफल रही, जो कहती है कि बेटी को बेटे के बराबर हिस्सा मिल सकता है। लेकिन हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में 2005 के संशोधन के बाद, इसने यह शक्ति दी कि एक बेटी को विभाजन के लिए पूछने का अधिकार है और संयुक्त परिवार की संपत्ति के विभाजन में बेटे के बराबर हिस्से का दावा कर सकती है।

प्रकाश और अन्य बनाम फुलावती और अन्य के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने फैसले के पैरा नंबर 23 में कहा कि: तदनुसार, हम मानते हैं कि संशोधन के तहत अधिकार जीवित सहदायिकों की जीवित बेटियों पर लागू होते हैं, भले ही ऐसी बेटियों का जन्म 9-9-2005 को हुआ हो। उक्त तिथि से पहले लागू होने वाले कानून के अनुसार 20-12-2004 से पहले हुए विभाजन सहित अलगाव अप्रभावित रहेगा। इसके बाद विभाजन का कोई भी लेनदेन स्पष्टीकरण द्वारा शासित होगा।

दानम्मा सुमन सुरपुर और अन्य बनाम अमर और अन्य, के मामले में 1 फरवरी 2018 को भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि: बेटियों को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार हैं, भले ही वे हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अधिनियमन से पहले पैदा हुई हों।

नयनाबेन फ़िरोज़खान पठान @ नसींबानु फ़िरोज़खान पठान बनाम पटेल शांताबेन भीखाभाई और अन्य, के मामले में 26/09/2017 को गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा कि एक हिंदू बेटी एक मुस्लिम लड़के से शादी करने के बाद हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत संपत्ति का अधिकार नहीं खोती है। आगे यह देखा गया कि:

“प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी), मेरा विचार है कि अधिकारों के रिकॉर्ड में उसका नाम दर्ज करने के उद्देश्य से, केवल यह बताना आवश्यक था कि आवेदक प्रथम श्रेणी के कानूनी वारिसों में से एक है। उसके लिए यह घोषित करना आवश्यक नहीं था कि उसने एक मुस्लिम से शादी की है और उसने अपने हिंदू धर्म को त्यागकर इस्लाम स्वीकार कर लिया है। एक बार जब आवेदक के पक्ष में कानून के प्रश्न का उत्तर दिया जाता है, तो मुझे आवेदक द्वारा दायर एक हलफनामे के मुद्दे पर अधिक जोर देने का कोई अच्छा कारण नहीं दिखता है।”

4. अवयस्क सहदायिक: अवयस्क सहदायिक के मामले में विभाजन के लिए परीक्षण यह है कि क्या विभाजन अवयस्क के लाभ या हित में है या क्या यह अवयस्क व्यक्ति के हितों के लिए खतरा पैदा कर सकता है। यह ध्यान रखना उचित है कि यह निर्णय करना न्यायालय के विवेक पर है कि कोई विशेष मामला अवयस्क के हितों के दायरे में आता है।

हिंदू कानून के अनुसार, यदि किसी अवयस्क का संयुक्त परिवार में अविभाजित हिस्सा है, तो संयुक्त परिवार का कर्ता अवयस्क के अभिभावक के रूप में कार्य करेगा। हालांकि, जब किसी व्यक्ति द्वारा विभाजन की मांग करने के अधिकार की बात आती है, तो अवयस्क के अधिकार और वयस्क के अधिकार प्रकृति में समान होते हैं।

अवयस्क अपने अभिभावक के माध्यम से एक मुकदमा दायर करके एक वयस्क सहदायिक की तरह विभाजन का दावा करने का अधिकार सुरक्षित रखता है। लेकिन, अगर यह पाया जाता है कि वाद अवयस्क के लिए फायदेमंद नहीं है तो मुकदमा खारिज किया जा सकता है। इसलिए, अदालत का यह कर्तव्य है कि वह अवयस्को के अधिकारों और हितों की रक्षा करके उन्हें न्याय दिलाए।

विभाजन को फिर से खोलना

विभाजन के बाद हिंदू कानून ने विभाजन को फिर से खोलना या विभाजन को रद्द करना संभव बना दिया है। गलती, अनुपस्थित सहदायिक, धोखाधड़ी, गर्भ में पुत्र, विभाजन के बाद गर्भ धारण करने और जन्म लेने वाला पुत्र, अयोग्य सहदायिक और विभाजन के बाद अतिरिक्त संपत्ति के मामलो में हिंदू कानून के अनुसार इसे फिर से खोला जा सकता है।

  1. गलती: यदि संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों ने गलती से अपनी संयुक्त परिवार की संपत्ति छोड़ दी है और विभाजन से बाहर रह गए हैं, तो विभाजन बाद में हो सकता है।
  2. धोखाधड़ी: किसी भी विभाजन को रद्द किया जा सकता है जो कपटपूर्ण गतिविधियों के कारण किया गया हो। उदाहरण के लिए- यदि संपत्ति का धोखाधड़ी से प्रतिनिधित्व किया जाता है, तो सहदायिक विभाजन को फिर से खोलने के अपने अधिकार का दावा कर सकते है।
  3. अयोग्य सहदायिक: ऐसे उदाहरण हो सकते हैं जिनमें कुछ तकनीकी बाधाओं के कारण, विभाजन के समय अयोग्य सहदायिक अपने हिस्से से कम हो सकता है। वह अयोग्यता को हटाकर विभाजन को हटाने का अधिकार सुरक्षित रखता है।
  4. गर्भ में पुत्र: यदि कोई पुत्र गर्भ में है, और विभाजन के समय उसे कोई हिस्सा आवंटित नहीं किया गया था, तो बाद में इसे फिर से खोला जा सकता है।
  5. अनुपस्थित सहदायिकी: यदि विभाजन के समय वह अनुपस्थित है और उसे कोई हिस्सा आवंटित नहीं किया गया है तो सहदायिक विभाजन को फिर से खोल सकता है।

हिंदू कानून के तहत पुनर्मिलन (रियूनियन)

दयाभाग, मिताक्षरा और मद्रास स्कूल ऑफ लॉ का मत है कि जब एक संयुक्त परिवार के सदस्य एक बार अलग हो जाते हैं, तो वे केवल पिता, भाई और चाचा के साथ ही मिल सकते हैं, न कि परिवार के अन्य सदस्यों के साथ। यह ध्यान देने योग्य है कि यह केवल सहदायिक है जो संयुक्त स्थिति को प्रभावित कर रहे हैं और केवल एक सहदायिक के कहने पर ही पुनर्मिलन हो सकता है।

एक पुनर्मिलन का गठन करने के लिए, पक्षों का इरादा होना चाहिए जो उनकी रुचि को फिर से व्यक्त करता हो। पुनर्मिलन का इरादा दिखाते हुए पक्षों के बीच संयुक्त परिवार में पुनर्मिलन के लिए एक समझौता होता है। इस तरह के समझौते को आवश्यक रूप से व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है और इसे निहित भी किया जा सकता है। इसके अलावा, पुनर्मिलन के प्रमाण का भार उस व्यक्ति पर होगा जो इसे करने के लिए तैयार है। सदस्य एक साथ वापस आ जाते हैं यदि वे पृथक्करण को बनाए रखते हैं लेकिन एक साथ रह भी सकते हैं या एक साथ व्यापार भी कर सकते हैं। यह एक साथ आना एक औपचारिक पुनर्मिलन से बिल्कुल अलग है।

विभाजन के लिए वाद

विभाजन और संयुक्त हिंदू परिवार के लिए वाद

जहां संयुक्त परिवार की आय का कोई लेखा-जोखा नहीं है और न ही कोई ठोस सबूत है जो यह दिखाने के लिए प्रस्तुत किया गया हो कि कथित संपत्ति वास्तव में संयुक्त परिवार की आय से पिता द्वारा खरीदी गई थी और दूसरी ओर, प्रतिवादी भाई ठोस और आवश्यक साक्ष्य द्वारा यह साबित करने में सफल रहा कि विवादित संपत्ति वास्तव में उसकी अपनी आय और संसाधनों से अर्जित की गई थी अर्थात संयुक्त परिवार की आय से कोई सहायता लिए बिना, इसलिए वादी-भाई द्वारा दायर मुकदमा खारिज किए जाने योग्य है।

इसके अलावा, यह भी कहा गया कि यदि परिवार का कोई भी सदस्य एक ही परिसर में रह रहा है, तो जहां तक ​​आय का संबंध है, तब तक संयुक्त परिवार के नाभिक (न्यूक्लियस) के संबंध में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता है जब तक कि यह उसके किसी भी ठोस कानूनी सबूत के अनुसार साबित न हो।

अवयस्क बेटे द्वारा दायर विभाजन और अलग कब्जे के लिए वाद

जब अवयस्क बेटे द्वारा विभाजन के लिए वाद दायर किया गया था और इस तथ्य के संबंध में कोई विवाद नहीं था कि कर्ता और उनके बेटे दोनों वाद वाली संपत्ति में आधे हिस्से के हकदार थे, हालांकि, बाद के चरण में यह पाया गया कि कर्ता ने अवयस्क बेटे की सहमति और जानकारी के बिना वाद की संपत्ति का एक हिस्सा बेच दिया था।

तब तदनुसार यह माना गया कि पक्षों के बीच विभाजन की स्थिति में कर्ता द्वारा पहले से ही बिक्री के तहत बेचे जाने वाले हिस्से को उसके प्रस्तावित हिस्से में आवंटित नहीं किया जा सकता है और इस तरह से विचाराधीन बिक्री के कारण अवयस्क पुत्र के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं होगा और इसलिए विवादित आदेश बिक्री को लेकर था और इसलिए तदनुसार यह माना गया कि आक्षेपित आदेश वैध है और इसके लिए किसी निष्कर्ष की आवश्यकता नहीं है।

विधवा द्वारा दायर विभाजन के लिए वाद

यदि कोई वाद किसी विभाजन अर्थात संयुक्त हिंदू परिवार के सदस्य द्वारा स्थापित किया जाता है, तो प्रतिवादी के रूप में सभी सहदायिकों को इसका पक्ष बनाना होगा। इसके अलावा, जहां शाखाओं के बीच विभाजन की मांग की जाती है, केवल वही शाखाएं जो प्रतिनिधि पक्ष हैं, को ही वाद में पक्ष बनाया जाएगा। यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि परिवार की सभी महिलाएं विभाजन के समय हिस्सा पाने की हकदार हैं या एक सहदायिक के निहित स्वार्थ के खरीदार को भी प्रतिवादी के रूप में फंसाया जा सकता है।

जिंगुलैया सुब्रमण्यम नायडू बनाम जिंगुलैया वेंकटसुलु नायडू के मामले में, विरोधी पक्ष की पत्नी के नाम पर संपत्ति का विभाजन मांगा गया था और वे तदनुसार दावा कर रहे थे कि वे संयुक्त परिवार के स्वामित्व के रूप में थे और इसलिए तत्काल संपत्ति का ऐसा शीर्षकधारक नहीं बनाया गया है। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जब किसी विशेष संपत्ति का विभाजन होता है, तो शीर्षकधारक को ऐसी संपत्ति के लिए एक आवश्यक पक्ष बनाया जाना चाहिए।

मौखिक विभाजन का प्रभाव

राम चरण शर्मा बनाम सुरेश चंद पाठक और अन्य में, निचली अदालत द्वारा निष्कर्ष दर्ज किया गया था कि मृतक ने अपने पति और बेटों की उपस्थिति में अपने जीवनकाल के दौरान विवादित संपत्ति को दो बेटों के पक्ष में समान रूप से विभाजित किया था।

हालांंकि, पति विवादित संपत्ति में एक-तिहाई हिस्से का दावा कर रहा था, लेकिन पति की ओर से विफलता के कारण यानी एक निचली अदालत के समक्ष खुद की जांच करने के लिए शपथ पर यह बताने के लिए कि उसकी पत्नी के जीवनकाल में कोई विभाजन नहीं हुआ था, यह विधिवत रूप से कहा गया है कि पति संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा पाने का हकदार नहीं होगा जो कि मौखिक विभाजन के कारण पहले ही विभाजित हो चुका है, जो की हिंदू कानून के अनुसार अनुमेय (पर्मिसिबल) है।

इसके अलावा, इसी मामले में, यह देखा गया था कि मृतक ने अपने पति और बेटों की उपस्थिति में अपने जीवनकाल के दौरान दो बेटों के पक्ष में समान रूप से विवादित संपत्ति का मौखिक रूप से विभाजन किया था, हालांकि, एक तिहाई हिस्से के लिए पति का दावा  विवादित संपत्ति को एक अलग वाद के अभाव में खारिज कर दिया गया था या एक पति द्वारा अपेक्षित अदालत शुल्क के साथ निचली अदालत से एक डिक्री की मांग की गई थी, इसलिए, पति को बेटे के पक्ष में विभाजन डिक्री के खिलाफ अपील करने का अधिकार नहीं था।

ऐसे मामले में जहां यह विवादित नहीं था कि वाद की संपत्ति एक संयुक्त परिवार की संपत्ति थी और विभाजन के संबंध में दस्तावेज मौखिक विभाजन के शुरू होने के बाद अस्तित्व में आया था, इसलिए पूर्वोक्त दस्तावेज को न तो स्टाम्प की आवश्यकता होगी या न ही पंजीकरण की। यदि मौखिक विभाजन होता है, तो मौखिक विभाजन स्वयं उस विशिष्ट संपत्ति में निहित स्वार्थ पैदा करता है, न कि दस्तावेज़ जो बाद में अस्तित्व में आता है, दस्तावेज़ का उपयोग स्थिति के पृथक्करण को साबित करने के लिए किया जा सकता है।

संयुक्त हिंदू परिवार में मौखिक विभाजन

यह ध्यान देने योग्य है कि, जहां संयुक्त हिंदू परिवार में एक मौखिक विभाजन हुआ था और भूमि को पिता और उसके पुत्रों के बीच विधिवत विभाजित किया गया था और भूमि भी तदनुसार राजस्व (रिवेन्यू) कागजात में दर्ज की गई थी, उसके बाद, यदि पिता ने तदनुसार बड़े बेटे के साथ रहने के लिए चुना हो जो भोजन और कृषि के मामले में पिता की देखभाल कर रहा है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि परिवार का पुनर्मिलन था क्योंकि यह केवल बड़े बेटे या परिवार के किसी अन्य बेटे का बूढ़े पिता की देखभाल करने के लिए एक पवित्र कर्तव्य और दायित्व था।

इसलिए, जब बड़े बेटे द्वारा पिता की देखभाल की जाती थी, तो पिता के हिस्से में आने वाली भूमि की देखभाल बड़े बेटे द्वारा की जाती है, और जो भूमि पिता के हिस्से में आती थी, उसे पुनर्मिलन की एक घटना के रूप में नहीं माना जा सकता है।

यह अनिवार्य है कि पक्षों के बीच एक ऐसा समझौता होना चाहिए जो विशिष्ट या निहित प्रकृति का हो जिसे दी गई परिस्थितियों से भी इकट्ठा किया जा सके और पुनर्मिलन को साबित करने का भार उस व्यक्ति पर है जो विभाजित परिवार के पुनर्मिलन का दावा करता है। इसलिए, केवल रहने या भोजन प्रदान करने और बूढ़े पिता की भूमि की देखभाल करने के लिए परिवार के पुनर्मिलन के रूप में माना जाने के लिए बाध्य नहीं है यानी अन्य भाइयों को पिता की संपत्ति के उत्तराधिकारी से वंचित करने के लिए, उनकी मृत्यु पर परिणाम यह होगा कि सभी बेटों को बराबर का हिस्सा मिलेगा।

विभाजन पर महिला सदस्यों का हिस्सा

मिताक्षरा सहदायिक विभाजन में महिला सदस्यों को हिस्सों का आवंटन काफी अनिश्चितता और संदेह को जन्म देता है, खासकर उत्तराधिकार, गोद लेने और भरण पोषण के कानून को संहिताबद्ध (कोडीफाई) करने वाले नए अधिनियमों के पारित होने के बाद।

इसमें से अधिकांश हिंदू कानून के आंशिक संहिताकरण के कारण है। विवाह, उत्तराधिकार, गोद लेने और भरण-पोषण के हिंदू कानून को संहिताबद्ध करते हुए, विधायिका ने विभाजन के कानून को अपरिवर्तित छोड़ दिया और यहां तक ​​कि संशोधन के लिए विभाजन के कानून की अनदेखी भी की है। हालांकि, प्रथा के तहत, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 मिताक्षरा के तहत एक सहदायिकी को बनाए रखने का प्रावधान करती है, इस प्रकार अनुसूची की कक्षा I की महिला सदस्यों या ऐसी महिला सदस्यों के माध्यम से दावा करने वाले पुरुष सदस्यों को उत्तराधिकार अधिकार प्रदान करती है।

पिता के जीवनकाल में विभाजन

  1. एक उदार (लिबरल) दृष्टिकोण रखते हुए कि पिता के जीवनकाल में विभाजन पर एक पत्नी का अधिकार पति की संपत्ति में उसके सह-स्वामित्व के कारण मौजूद है, पत्नी को पिता के जीवनकाल के दौरान विभाजन पर एक हिस्सा आवंटित किया जाना चाहिए।
  2. भले ही यह मान लिया जाए कि यह भरण पोषण के स्थान पर है, कोई स्पष्ट या निहित प्रावधान नहीं है, जो परिवार के जीवनकाल के दौरान, विभाजन पर इस तरह के हिस्से के अधिकार को नकारता है। इस तरह के मामले को हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 22 (2) द्वारा संरक्षित नहीं किया जा सकता है, यदि इसका कोई प्रभाव पड़ता है, क्योंकि यह भरण पोषण द्वारा संपत्ति के हस्तांतरण के बाद केवल भरण पोषण के मुद्दे से संबंधित है।

एक विभाजन पर नाती-पोतों के बीच साझा करने का पैतृक अधिकार प्रभावित नहीं होता है।

एक विभाजन का दावा दायर किया जाता है और पति या पुत्र की मृत्यु तब होती है जब वाद लंबित होता है

  1. यदि विभाजन विवाद में एक प्रारंभिक डिक्री पारित की गई है, तो वह दोनों हिस्सों यानी विभाजन के साथ-साथ विरासत की भी हकदार होगी।
  2. जहां विभाजन का वाद पेश किए जाने के बाद उत्तराधिकार खुलता है लेकिन प्रारंभिक डिक्री पारित होने से पहले, मुद्दे को खुला माना जाना चाहिए। इसके अलावा, सबसे बेहतर दृष्टिकोण यह होगा कि वह हिस्से की हकदार है।

जहां एक मां या पत्नी को पति या बेटे की मृत्यु पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत हिस्सा मिलता है और उसके बाद सहदायिकों के बीच एक वास्तविक विभाजन होता है

  1. अपने पिता की मृत्यु के बाद विभाजन में हिस्सा लेने के लिए एक महिला का अधिकार हिंदू महिला अधिकार अधिनियम 1937 द्वारा “प्रतिस्थापित” किया गया था। हिंदू महिला अधिकार अधिनियम को निरस्त करने में, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 को उस प्रभाव के किसी भी स्पष्ट विधायी प्रावधान के अभाव में मां के अधिकार को पुनर्जीवित करने के रूप में नहीं माना जा सकता है।
  2. पिता की मृत्यु के बाद बंटवारे पर मां को दिया जाने वाला हिस्सा भरण-पोषण के एवज में होता है। चूंकि हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम ने कानून को संहिताबद्ध किया और मां को एक विशिष्ट अधिकार दिया, इसलिए पुराने नियम को समाप्त माना जाना चाहिए।

निर्णायक विश्लेषण

लेखक ने विनम्रतापूर्वक सुझाव दिया है कि विभाजन के लिए स्थापित प्रक्रिया को थोड़ा संशोधित किया जाना चाहिए, ताकि हिंदू कानून के तहत विभाजन आसानी से किया जा सके। इस शोध (रिसर्च) पत्र में चर्चा की गई है कि विभाजन के लिए एक वाद दाखिल करने और मौखिक विभाजन के प्रभाव से संबंधित बहुत सारी भौतिक विसंगतियां हैं। इसके अलावा, यह कहा गया है कि विभाजन के कानून को महिलाओं के विभाजन के अधिकार को मान्यता देनी चाहिए क्योंकि ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें माताओं और बेटियों के अधिकारों को त्याग दिया गया है।

एक विभाजन को हिंदू कानून की एक अवधारणा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो मुख्य रूप से दो प्रकार के विचारों के स्कूलों द्वारा नियंत्रित होता है, अर्थात् क्रमशः मिताक्षरा और दयाभाग स्कूल। विभाजन मुख्य रूप से संयुक्त हिंदू परिवार के सदस्यों के बीच किया जाता है, जिसका अर्थ है संयुक्तता की स्थिति का पृथक्करण और संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच कब्जे की एकता है।

यह ध्यान देने योग्य है कि हिंदू कानून के तहत विभाजन मध्यस्थता, नोटिस या समझौते, वसीयत आदि के माध्यम से हो सकता है। कानून के मिताक्षरा स्कूल के तहत, यह विधिवत कहा गया है कि विभाजन शाखा या धारियों द्वारा हो सकता है। हालांकि, दयाभाग की विचारधारा के तहत परिवार में कर्ता की मृत्यु के बाद ही विभाजन संभव है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि दयाभाग स्कूल सहदायिकी जैसी किसी अवधारणा का पालन नहीं करता है।

तो, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विभाजन एक ऐसा तरीका है जो एक हिंदू संयुक्त परिवार को समाप्त करने की भूमिका निभाता है। विभाजन की प्रक्रिया के माध्यम से, एक संयुक्त परिवार की संपत्ति हिस्सों के अनुसार प्रत्येक सहदायिक की स्व-अर्जित संपत्ति बन जाती है। विभाजन भूमि को सीमा से अलग करके, या आपसी संबंध तोड़कर, या दोनों से प्राप्त किया जा सकता है। संक्षेप में, विभाजन वास्तविक अर्थों में तभी होता है जब एक हिंदू अविभाजित परिवारों की संयुक्त स्थिति समाप्त हो जाती है।

संदर्भ

 

 

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