सजा के सिद्धांत – एक गहन अध्ययन

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Criminal Law

यह लेख Raunak Chaturvedi के द्वारा लिखा गया है, जो एमिटी यूनिवर्सिटी, कोलकाता के छात्र है। लेखक ने इस लेख में सजा के सिद्धांत का एक गहन अध्ययन (स्टडी) प्रदान करने की कोशिश की है। इस लेख का अनुवाद Sameer Choudhary के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

सजा एक ऐसा शब्द है जो आपराधिक न्याय के लिए अंतर्निहित (इन्हेरेंट) है। यह केवल सजा शब्द के कारण है, कि कुछ कार्यों को ‘अपराध’ के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। समाज के इतिहास में, यह देखा जा सकता है कि सजा के बिना, कभी-कभी जनता की बर्बर, साथ ही आदिम प्रवृत्तियों (प्रिमिटिव टेंडेंसी) को रोकना असंभव हो जाता है। यह ‘सजा’ नाम का हथियार ही था, जिसका इस्तेमाल शासकों के द्वारा अपनी प्रजा के खिलाफ किया जाता था, जिससे वह अपनी जनता के मन में अपनी क्षमताओं और शक्तियों के बारे में भय बनाए रखते थे। सजा कभी-कभी किसी अन्य व्यक्ति के अपमान के रूप में भी दी जाती थी। हालाँकि, सबसे आम सजा जिसके बारे में हम सभी को पता है, वह डांट या मामूली सी पिटाई की सजा है, जो आम तौर पर हमें हमारे माता-पिता से मिलती है। ऐसे में, गंभीर अपराधों के मामले में वास्तव में सजा के सिद्धांत क्या हैं? उनका विकास कैसे हुआ है? लोगों को सजा प्रदान करने के विभिन्न तरीकों के गुण और दोष क्या हैं? क्या हिंदू धर्म ग्रंथों में भी, आगे इस लेख के तहत वर्णित सजाओं के किसी रूप के बारे में वर्णन किया गया है? इस लेख के माध्यम से हम ऐसे सभी सवालों के जवाब देने की कोशिश करेंगे और साथ ही यह समझने की कोशिश करेंगे कि सजा के विभिन्न सिद्धांत वर्तमान युग में कहाँ तक लागू किए जाते हैं। सजा के सिद्धांत इस प्रकार हैं:

  • सजा का प्रतिशोधी (रेट्रीब्यूटिव) सिद्धांत।
  • सजा का प्रतिरोधक (डिटेरेंट) सिद्धांत।
  • सजा का निवारक (प्रिवेंटिव) सिद्धांत।
  • सजा का अक्षमता (इनकैपेसिटेशन) सिद्धांत।
  • सजा का प्रतिपूरक (कंपेंसेटरी) सिद्धांत।
  • सजा का सुधारवादी (रिफॉर्मेटिव) सिद्धांत। 
  • सजा का उपयोगितावादी (यूटिलिटेरियन) सिद्धांत। 

आइए अब हम इनमें से प्रत्येक सिद्धांत को विस्तार से देखते हैं।

सजा का प्रतिशोधी सिद्धांत

सजा का प्रतिशोधी सिद्धांत, या ‘प्रतिहिंसा (वेंजीएंस) का सिद्धांत’, जैसा कि समाज में कई लोग इसे इस रूप में समझते हैं, एक अपराधी को सजा देने का सबसे बुनियादी सिद्धांत है लेकिन यह तब भी  एक अविवेकपूर्ण सिद्धांत है जिसके तहत अपराधी को दंडित किया जाता है। यह एक बहुत ही छोटे सिद्धांत पर आधारित है, अर्थात् लेक्स टैलियोनिस का सिद्धांत, जिसका यदि अनुवाद किया जाए, तो इसका अर्थ ‘आंख के बदले आंख’ होता है। अब, यदि गंभीर और जघन्य अपराधों जैसे की दिल्ली सामूहिक बलात्कार के मामले को, इस दृष्टिकोण से देखा जाए, तो लोगों को लग सकता है कि इस तरह की प्रतिशोधात्मक सजा देना बेहतर हो सकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि समाज में एक प्रतिरोधक प्रभाव स्थापित हो, जिससे की आने वाले भविष्य में इस तरह के अपराधों को रोका जा सके।

हालाँकि, हम कभी-कभी यह समझना भूल जाते हैं कि हमेशा एक प्रतिशोधी दृष्टिकोण रखने से समाज को न्याय की एक आदिम प्रणाली के साथ प्रस्तुत किया जाएगा, जहाँ राजाओं या न्यायाधीशों को सर्वोच्च प्राणी माना जाता था और उन्हें स्वयं भगवान का दर्जा प्रदान किया जाता था (इसलिए उन्हें माइ लॉर्ड से संबोधित किया जाता है) और इस प्रकार, यह प्रतिनिधियों (रिप्रेजेंटेटिव) के ‘नौकर’ होने की अवधारणा को ध्वस्त (कोलाप्स) कर देते हैं। इससे पहले कि हम प्रतिशोधी सिद्धांत को और बेहतर तरीके से समझने की ओर बढ़ें, हमें यहां दो अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समझने की आवश्यकता है। आइए उन दोनों सिद्धांतों पर एक नजर डालते हैं।

सामाजिक व्यक्तित्व (सोसाइटल पर्सनिफिकेशन) का सिद्धांत और सुधारात्मक प्रतिहिंसा (करेक्शनल वेन्जन्स) का सिद्धांत:

  • सामाजिक व्यक्तित्व के सिद्धांत को इस प्रकार से कहा जा सकता है-

‘जब समाज के किसी सदस्य को एक बहुत ही जघन्य (हीनियस) अपराध के अधीन किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप, पूरा समाज, जैसे की वह एक प्राकृतिक व्यक्ति ही हो, अपराध को अपने ऊपर किया गया मानता है, और वह या तो न्याय की मांग करके या अपने दम पर वही कार्य दोबारा घटित करके उस व्यक्ति के खिलाफ आता है, तो ऐसे में इस प्रकार के समाज को व्यक्तिकृत (पर्सनीफाइड) कहा जाता है।’

यह एक बहुत ही आत्म-व्याख्यात्मक (सेल्फ एक्सप्लेनेट्री) सिद्धांत है। सीधे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ यह है कि जब भी बहुत ही भयानक रूप का जघन्य अपराध किया जाता है, तो तब समाज एक प्राकृतिक व्यक्ति का रूप धारण कर लेता है और सामूहिक रूप से व्यवहार करता है ताकि पीड़ित को न्याय प्रदान किया जा सके।

उदाहरण: दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले, वर्तमान हाथरस बलात्कार मामले आदि के लिए पूरे देश भर में किए गए विरोधी प्रदर्शन।

  • सुधारात्मक प्रतिहिंसा के सिद्धांत को इस प्रकार से कहा जा सकता है-

‘जब समाज, न्याय पाने के मकसद से, संबंधित प्राधिकारियों (अथॉरिटीज) से पीड़ित को प्रतिहिंसक (मूल कार्य के समान ही दर्दनाक, या उससे भी अधिक दर्दनाक) सजा देने की मांग करता है, तो इसे सुधारात्मक प्रतिहिंसा के सिद्धांत को प्रदर्शित करना कहा जाता है।’ 

ऊपर दी गई परिभाषा भी अपनी प्रकृति में काफी आत्म-व्याख्यात्मक है। अब जब हम इन दो सिद्धांतों को समझ गए हैं, तो हमारे पास एक बुनियादी विचार है कि वास्तव में प्रतिशोधवाद या प्रतिशोधी न्याय क्या है। आइए अब उसी पर करीब से नज़र डालते हैं।

सजा के प्रतिशोधी सिद्धांत को समझना:

प्रतिशोधी न्याय की अवधारणा का उपयोग विभिन्न तरीकों से किया गया है, लेकिन इसे सबसे अच्छी तरह से न्याय के ऐसे रूप में समझा जाता है जिन्हें निम्नलिखित तीन सिद्धांतों के द्वारा समझा जा सकता है:

  1. कि जो लोग किसी भी प्रकार के गलत कार्य करते हैं, जो आदर्श रूप से गंभीर अपराध होते हैं, वे नैतिक रूप से समानुपातिक (प्रोपोर्शनेट) सजा के पात्र होते हैं;
  2. कि यह आंतरिक (इंट्रिंसिक) रूप से नैतिक (मॉरल) रूप से अच्छा है – और ऐसा अच्छा कार्य जो किसी भी अन्य अच्छे कार्यों के संदर्भ के बिना अच्छा है, जो उसमे उत्पन्न हो सकता है – यदि कोई वैध सजाक (पनिशर) उन्हें वह सजा देता है जिसके वे हकदार होते हैं; तथा
  3. यह नैतिक रूप से अनुचित होता है, कि जानबूझकर निर्दोषों को दंड प्रदान किया जाए या गलत करने वालों को असमान रूप से बड़ी सजा दी जानी चाहिए।’

ऊपर दिए गए तीन सिद्धांत प्रतिशोधी न्याय की आवश्यकताओं को और ज्यादा स्पष्ट करते हैं। हम इस प्रकार से प्रतिशोधी न्याय को समझ सकते हैं। वह स्थान, जहाँ आपराधिक कानून और नैतिक कानून दोनों मिलते हैं, वह, वह स्थान है जहाँ अधिकतर प्रतिशोधी सजा उत्पन्न होती हैं। 

वास्तव में देखा जाए तो, भले ही लोग सजाओं को सात अलग अलग प्रकारों में वर्गीकृत कर सकते हैं, लेकिन वास्तव में, प्रत्येक सजा, प्रकृति में प्रतिशोधी होती है। यह देखना बहुत दिलचस्प होता है कि टॉर्ट्स के तहत दावा किया गया नुकसान, या पर्यावरण के उल्लंघन के लिए उपाय, शायद प्रतिपूरक (कंपेंसेटरी) हो सकते हैं, लेकिन मूल रूप से देखा जाए तो, प्रकृति में वह प्रतिशोधी ही हैं। लेकिन फिर उनकी प्रकृति को प्रतिशोधी के रूप में क्यों नहीं बताया जाता है? खैर, इस सवाल का जवाब आसान है। प्रतिशोधात्मक सजा कुछ हद तक प्रतिशोधी होते हैं (आंख के बदले मे आंख)। वे हमेशा प्रतिशोधी नहीं हो सकते हैं, लेकिन शायद केवल नैतिक रूप से प्रतिशोधी हो सकते हैं। जब हम यह कहते हैं, तो इसका मतलब यह है कि हालांकि सजा वस्तुतः वह चीज नहीं है जो मूल रूप से अपराधी द्वारा की गई थी, फिर भी इसकी गंभीरता के आधार पर यह प्रतिशोध के रूप में कार्य करती है।

उदाहरण के लिए: यदि कोई व्यक्ति किसी का बलात्कार करता है, तो प्रतिशोधी उपाय के रूप में उसे मृत्युदंड दिया जा सकता है। अगर हम उस व्यक्ति को सचमुच वह ही दंड वापस दें जो उसने क्या किया, यानी यौन संबंध (सेक्स), तो यह उसके लिए यातना (टॉर्चर) देने के बजाय आनंददायक होगा। अब जब हम संक्षेप में यह समझ गए हैं कि प्रतिशोधात्मक सजा वास्तव में कैसे काम करती है, तो आइए अब हम उन तरीकों को समझने के लिए आगे बढ़ते हैं जिनमें हिंदू ग्रंथों और शास्त्रों में प्रतिशोधी सिद्धांत प्रदर्शित किया गया है।

प्रतिशोधी सिद्धांत और हिंदू शास्त्र:

हिंदू धर्मग्रंथ, विशेष रूप से रामायण, महाभारत और दुर्गा सप्तशती, मुख्य रूप से प्रतिशोधी सिद्धांतों पर ही आधारित हैं, लेकिन यह, यह भी बताते हैं कि उन्हें लागू करते समय किस तरह से किसी को आगे बढ़ना चाहिए।

  • रामायण- रामायण में पूरी कहानी प्रतिशोध से ही शुरू होती है। लक्ष्मण ने रावण की बहन की नाक काट दी, जिसके कारण रावण ने सीता का अपहरण कर लिया था। उसे छुड़ाने के लिए और उसके अपहरण का बदला लेने के लिए, राम रावण को मारने गए थे। लेकिन, दोनों के बीच प्रतिशोधी सजा को लागू करने के बीच एक बड़ा अंतर यह था कि रावण ने राम को उनके छोटे भाई के कार्य के लिए पश्चाताप करने का मौका भी नहीं दिया, लेकिन, राम ने रावण को उसके कार्य को सुधारने के लिए कई मौके दिए थे।
  • महाभारत – महाभारत, एक बार फिर, एक बहुत अच्छा उदाहरण है कि किस प्रकार प्रतिशोधात्मक सजा दी जानी चाहिए। पांडवों ने एक दम से ही युद्ध शुरू नहीं किया था। उन्होंने श्री कृष्ण को शांति दूत के रूप में कई बार कौरवों के पास भेजा था, लेकिन कौरवों ने कभी भी उनकी बात नहीं मानी। महाभारत, विशेष रूप से श्रीमद् भगवद गीता, उस समय के बारे में बात करती है जब प्रतिशोधी विधा (मोड) का उपयोग किया जाना चाहिए। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि अर्जुन युद्ध के मैदान को छोड़ने वाले थे क्योंकि वह अपने ही रिश्तेदारों के खिलाफ जाने से बहुत डरते थे, वह कृष्ण ही थे जिसने कहा था कि ‘जब अन्य सभी रास्ते बंद हो जाते हैं, तब केवल युद्ध का सहारा ही लेना पड़ता है। क्योंकि अगर तब वह व्यक्ति लड़ने से इंकार कर देता है, तो यह पूरे समाज पर घोर अन्याय होगा।’
  • दुर्गा सप्तशती – इसमें भी देवी दुर्गा विभिन्न राक्षसों, यानी महिषासुर और शुंभ-निशुंभ पर एक हत्यारा होड़ (किलर स्प्री) शुरू करने से पहले, उन को बार बार चेतावनी देती हैं।

अब, आइए हम सजा के इस सिद्धांत के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों को देखते हैं।

महत्वपूर्ण निर्णय:

  1. निर्भया मामले पर फैसला – भारत में प्रतिशोधी न्याय की बात करते हुए इस मामले को वास्तव में पहला और सबसे महत्वपूर्ण मामला माना जाता है। इस फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने एक दम जघन्य, दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले में शामिल छह अपराधियों में से चार को मौत की सजा सुनाई थी, जो समाज के लिए बहुत ही खुशी की बात थी, क्योंकि उन्होंने एक बेहद भीषण, साथ ही नैतिक रूप से अकल्पनीय अपराध किया था।
  2. अनवर अहमद बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश और अन्य – इस मामले में, अदालत द्वारा आरोपी को आधिकारिक रूप से दोषी ठहराए जाने से पहले, उसने पहले ही छह महीने की कैद की सजा काट ली थी। अदालत ने माना कि चूंकि आरोपी को पहले ही दोषी ठहराया जा चुका था और उस पर आवश्यक ‘दोष’ भी लगाए जा चुके थे, इसलिए उसे ‘प्रतिशोधी सजा’ के नाम पर फिर से सजा देने की कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि इससे उसके परिवार पर भी बहुत बड़ा नुकसान होगा।
  3. श्री आशिम दत्ता उर्फ ​​नीलू बनाम पश्चिम स्टेट ऑफ़ बंगाल  – इस मामले में, यह देखा गया था कि प्रतिरोध और प्रतिशोधी सजा दोनों का उद्देश्य किसी विशेष अपराध के लिए अनुकरणीय (एक्सेमप्लरी) सजा पारित करने वाले अन्य लोगों द्वारा अपराधों की पुनरावृत्ति (रिकर्रेंसेज) को रोकना है। लेकिन सभ्यता और समाज तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) का विकास तेजी से हो रहा है। साक्षर (लिटरेट) लोग और ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के विशेषज्ञ अलग अलग तरह से सोचने लगे हैं। आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत को अब अपराधियों के प्रति सही दृष्टिकोण नहीं माना जाता है। ऐसा सिद्धांत जंगल के शासन को कायम रख सकता है लेकिन कानून के शासन को सुनिश्चित नहीं कर सकता है।

फायदे और नुकसान:

फायदे-

  1. यह सिद्धांत एक मजबूत प्रतिरोध के रूप में कार्य करता है।
  2. यह पीड़ित को नैतिक न्याय दिलाने में मदद करता है।
  3. यह समाज के भीतर, न्यायपालिका के प्रति विश्वास की भावना को पैदा करता है।

नुकसान-

  1. कभी-कभी, यह अपराध की गंभीरता से अनुपातहीनता में हो सकता है।
  2. समाज प्रतिशोध की भावनाओं को विकसित करता है और विनाशकारी प्रवृत्तियों (टेंडेंसी) का पालन करता है।
  3. लोगों को पीड़ा देने के लिए सजा का उपयोग करके, राज्य अपने कामकाज में निरंकुश (ऑटोक्रेटिक) हो सकता है। 

सजा का प्रतिरोधक सिद्धांत

सजा के प्रतिरोधक सिद्धांत में, “प्रतिरोध” शब्द का अर्थ, किसी भी गलत कार्य को करने से बचना है। इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य अपराधियों को भविष्य में किसी भी अपराध का प्रयास करने या उसी अपराध को दोहराने से “प्रतिरोध” (रोकना) करना है। तो, इसमें कहा गया है इसका उद्देश्य भय पैदा करके अपराध को रोकना है और साथ ही अपराधी को दंडित करके व्यक्तियों या पूरे समाज के लिए एक उदाहरण स्थापित करना है। इसका सीधा सा मतलब यह है की, इस सिद्धांत के अनुसार यदि कोई व्यक्ति कोई अपराध करता है और उसे कड़ी सजा दी जाती है, तो इसका परिणाम यह हो सकता है कि समाज के लोग कुछ अपराधो के लिए कुछ प्रकार के कठोर दंडों के बारे में जानेंगे या ऐसा भी हो सकते हैं की वह जानते हों और समाज के लोगों के मन में इस प्रकार के भय के कारण, वह लोग किसी भी तरह के अपराध या गलत कार्य को करने से अपने आप को रोक सकते हैं। यहां मैंने “रोक सकते है” वाक्यांश का इस्तेमाल किया “रोकेंगे ही” के बजाय। यानी किसी भी अपराध को करने या उसी अपराध को दोहराने की संभावना बनी रहती है। 

सजा का प्रतिरोधक सिद्धांत प्रकृति में उपयोगितावादी (यूटिलिटेरियन) है। एक बेहतर समझ के लिए हम कह सकते हैं की, ‘आदमी को न केवल इसलिए दंडित किया जाता है क्योंकि उसने गलत कार्य किया है, बल्कि उसे दंडित यह सुनिश्चित करने के लिए भी किया जाता है, कि अब उसके द्वारा वह अपराध नहीं किया जा सकता है।’ यह न्यायाधीश बर्नेट के शब्द में सबसे अच्छी तरह से व्यक्त किया गया है, जिन्होंने एक कैदी से कहा था: 

“तुम्हें एक घोड़े को चुरा लेने के कारण नहीं फाँसी पर लटकाया जाएगा, परन्तु इस लिए कि अब आगे से दूसरे घोड़े चोरी न हों।” 

संभावित अपराधियों को यह एहसास कराकर कि एक अपराध करने के लिए कुछ भुगतान नहीं करना पड़ता है, प्रतिरोधक सिद्धांत समाज में अपराध दर को नियंत्रित करने की उम्मीद करता है।

न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) का स्कूल ऑफ थॉट:

प्रतिरोधक सिद्धांत न्यायशास्त्र के समाजशास्त्रीय (सोशियोलॉजिकल) स्कूल से संबंधित हो सकता है। समाजशास्त्रीय स्कूल, समाज और कानून के बीच संबंध बनाता है। यह कानून को एक सामाजिक घटना के रूप में इंगित करता है, जिसका समाज से प्रत्यक्ष और/अथवा अप्रत्यक्ष संबंध होता है। प्रतिरोध का एक मुख्य उद्देश्य सजा का भय पैदा करके समाज में व्यक्तियों के लिए एक उदाहरण स्थापित करना है।

अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न आता है; “सजा के इस प्रतिरोध सिद्धांत की स्थापना किसने की थी?”

प्रतिरोध सिद्धांत की अवधारणा को थॉमस हॉब्स (1588-1678), सीसारे बेकेरिया (1738-1794), जेरेमी बेंथम (1748-1832) जैसे दार्शनिकों के शोध (रिसर्च) के द्वारा सरल बनाया जा सकता है। इन सामाजिक अनुबंध विचारकों ने अपराध विज्ञान में आधुनिक प्रतिरोध की नींव प्रदान की थी।

हॉब्सियन दृष्टिकोण में, लोग आम तौर पर भौतिक लाभ, व्यक्तिगत सुरक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा जैसे अपने स्वयं के हितों को अपना लक्ष्य बनाते हैं और जिससे उनके दुश्मन बन जाते हैं, वे इस बात की परवाह नहीं करते कि क्या वे इस प्रक्रिया में दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं। चूंकि लोग अपने स्वयं के हितों को प्राप्त करने के लिए दृढ़ रहते हैं, इसलिए सुरक्षा बनाए रखने के लिए उपयुक्त सरकार के बिना अक्सर विवाद और प्रतिरोध (रेजिस्टेंस) का परिणाम झेलते है। बचने के लिए, लोग अपनी अहं-केंद्रितता (ईगो सेंट्रिसिटी) को छोड़ने के लिए सहमत हो जाते हैं। इसे “सामाजिक अनुबंध” कहा जाता है। इस सामाजिक अनुबंध के अनुसार, उन्होंने कहा है कि व्यक्तियों को सामाजिक अनुबंध का उल्लंघन करने के लिए दंडित किया जाता है और सामाजिक अनुबंध के रूप में राज्य और लोगों के बीच समझौते को बनाए रखने के लिए निवारण इसका कारण है।

सीसारे बेकेरिया के अनुसार, सजा के बारे में चर्चा करते समय, अपराध और सजा का अनुपात समान होना चाहिए ताकि यह एक प्रतिरोध के रूप में काम कर सके या इसका एक प्रतिरोध मूल्य हो। 

जेरेमी बेंथम के अनुसार, जो इस सिद्धांत के संस्थापक (फाउंडर) के रूप में जाने जाते हैं, यदि सजा को तेजी से, निश्चित रूप से और गंभीर रूप से लागू किया जाएगा तो मनुष्य और उस मनुष्य की एक सुखवादी (हेडोनिस्टिक) अवधारणा को अपराध से दूर रखा जाएगा। लेकिन यह जानते हुए कि सजा एक बुराई है, वे कहते हैं, यदि सजा की बुराई अपराध की बुराई से अधिक है, तो सजा लाभहीन होगा; और अपराधी ने एक बुराई से दूसरी बुराई की कीमत पर छूट खरीदी होगी। 

थॉमस हॉब्स, सीसारे बेकरिया और जेरेमी बेंथम के प्रतिरोधक सिद्धांतों से हमें पता चलाता है कि प्रतिरोध के सिद्धांत में 3 प्रमुख घटक शामिल हैं। वे इस प्रकार हैं:

  • गंभीरता: यह सजा की डिग्री को इंगित करता है। अपराध को रोकने के लिए, आपराधिक कानून को सजा पर जोर देना चाहिए जिससे नागरिकों को कानून का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। अत्यधिक कठोर सजा अन्यायपूर्ण हैं। यदि सजा बहुत गंभीर है तो यह व्यक्तियों को कोई भी अपराध करने से रोक सकती है। और यदि सजा पर्याप्त रूप से कठोर नहीं है, तो यह अपराधियों को अपराध करने से नहीं रोकेगी।
  • निश्चितता: इसका मतलब यह सुनिश्चित करना है कि जब भी कोई आपराधिक कार्य किया जाता है तो सजा अवश्य दी जानी चाहिए। दार्शनिक बेकेरिया का मानना ​​था कि यदि व्यक्तियों को पता है कि उनके अवांछनीय (अनडिजायरेबल) कार्यों को दंडित किया जाएगा, तो वे भविष्य में अपराध करने से बचेंगे।
  • तेजी: अपराध को रोकने के लिए किसी भी अपराध की सजा तेजी से दी जानी चाहिए। जितनी जल्दी सजा दी जाती है और लगाई जाती है, अपराध को रोकने के लिए इसका अधिक प्रभाव पड़ता है।

इसलिए, प्रतिरोध सिद्धांतकारों का मानना ​​​​था कि यदि सजा गंभीर, निश्चित और तेज है, तो एक तर्कसंगत व्यक्ति किसी भी अपराध को करने से पहले लाभ या हानि को मापेगा और परिणामस्वरूप यदि लाभ की तुलना में नुकसान अधिक है तो व्यक्ति को कानून का उल्लंघन करने से रोका जाएगा।

ऑस्टिन के सिद्धांत के अनुसार, “कानून संप्रभु (सोवरेग्न) की आज्ञा है”। अपने अनिवार्य सिद्धांत में, उन्होंने स्पष्ट रूप से तीन महत्वपूर्ण बातों की घोषणा की है, जो इस प्रकार हैं: 

  1. संप्रभु
  2. आज्ञा
  3. प्रतिबंध

ऑस्टिन का प्रश्न है कि ‘लोग नियम का पालन क्यों करते हैं?’। उनका मानना ​​है कि लोग कानून का पालन करते हैं क्योंकि लोगों को सजा का डर है। उनकी मान्यताओं के आधार पर, हम यहां एक छोटा सा उदाहरण देख सकते हैं: जब लोग बाइक चला रहे होते हैं, तो वे बाइकिंग नियमों के अनुसार हेलमेट पहनते हैं। अब, हम मान सकते हैं कि कुछ लोग सड़क दुर्घटनाओं से खुद को बचाने के लिए सही मायने में हेलमेट पहनते हैं, लेकिन दूसरी ओर, कुछ लोग जुर्माना से बचने या अपने बाइकिंग लाइसेंस रद्द होने के डर से हेलमेट पहनते हैं। तो, उस मामले में, वे जानते हैं कि यदि वे जल्दबाजी में बाइक चलाते हैं या बाइकिंग नियमों की अवहेलना करते हैं तो उन्हें भारी मात्रा में जुर्माना देकर दंडित किया जाएगा या उनका बाइकिंग लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा। तो यहाँ हम कह सकते हैं कि प्रतिरोध सिद्धांत का उद्देश्य सफल है और लागू भी होता है।

अब, यदि हम समय से थोड़ा पीछे जाते हैं, तो हमारे हिंदू शास्त्रों में हम यह देखते हैं कि कई सजाएं थी जैसे सार्वजनिक फांसी, केवल यह ही नहीं बल्कि लोगों को गर्म तेल या पानी में भी डुबोया जाता था। 19 वीं शताब्दी की शुरुआत तक अधिकांश सजा प्रणालियों ने सजा तंत्र के आधार के रूप में प्रतिरोध सिद्धांत का उपयोग किया था।

  • इंग्लैंड में, भविष्य में उसी अपराध को प्रतिबंधित करने के लिए सजा प्रकृति में अधिक गंभीर और बर्बर थी। ‘क्वीन एलिजाबेथ I’ के समय, भविष्य के अपराधों को प्रतिबंधित करने के लिए सजा के प्रतिरोध सिद्धांत को लागू किया गया था, यहां तक ​​कि ‘पिकपॉकेटिंग’ जैसे बहुत कम अपराधों के लिए भी।
  • भारत में भी अमानवीय सजा दी जाती हैं।

लेकिन, अगर हम आज के संदर्भ में इस सिद्धांत पर चर्चा करें या उसका पालन करें, तो यह बहुत स्पष्ट होगा कि “प्रतिरोध सिद्धांत” बिल्कुल भी लागू नहीं होता है या यह पर्याप्त रूप से उपयोगी नहीं हो सकता है कि यह मन में भय पैदा करके अपराधों को रोकने या निवारण करने के लिए पर्याप्त रूप से उपयोगी न हो। हमारे पास एक ताजा उदाहरण है कि क्यों “निर्भया बलात्कार मामला 2012” के मामले में प्रतिरोध सिद्धांत सफल नहीं है। सजा के प्रतिरोध सिद्धांत के बारे में बात करते समय यह मामला सबसे महत्वपूर्ण मामला है। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने बेहद जघन्य दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले में शामिल छह में से चार दोषियों को मौत की सजा सुनाई। अब, सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न हैं-

  • क्या दोषियों को मौत की सजा एक प्रतिरोध के रूप में कार्य करेगी? 
  • क्या हमारे समाज में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या हमेशा के लिए कम हो जाएगी? 
  • विशेष रूप से, निर्भया फैसले में, क्या प्रतिरोध सिद्धांत का उद्देश्य पूरा हुआ है? 

इन सब प्रश्नों का उत्तर हैं ‘नहीं’। प्रतिरोध सिद्धांत के अनुसार, मुख्य उद्देश्य ‘अपराध को रोकना, भय पैदा करना या समाज के लिए एक उदाहरण स्थापित करना’ है। अब मौत की सजा एक कड़ी सजा है। निर्भया मामले में अदालत ने सामूहिक बलात्कार के चारों दोषियों को मौत की सजा सुनाई है। हम कह सकते हैं कि यह भविष्य के अपराधियों के लिए एक बेहतरीन उदाहरण है जो भविष्य में बलात्कार जैसे अपराध को करने के बारे में सोचेंगे। तो इस सिद्धांत के मुताबिक निर्भया कांड के बाद बलात्कार जैसे अपराध नहीं होने चाहिए। लेकिन वे अब तक हो रहे हैं। हमारे समाज में आए दिन बलात्कार के मामले बढ़ते जा रहे हैं।

निर्भया सामूहिक बलात्कार के फैसले में, यह सुझाव दिया गया है कि आखिरकार “भारत की बेटी” को न्याय दिया गया है और हालांकि यह फैसला सात साल बाद आया है, यह महिलाओं की सुरक्षा को सुरक्षित करने और भविष्य में बलात्कार के मामलों को रोकने में मदद करेगा। लेकिन ऐसा लगता है कि वर्ष 2020 की शुरुआत में बलात्कार के कई मामले बेरोकटोक जारी हैं। एक उदाहरण के रूप में, हम हाल ही में 1 अक्टूबर 2020 को हाथरस, बलरामपुर में हुए सामूहिक बलात्कार के मामले को देख सकते हैं। तो, हम देख सकते हैं कि कठोर सजा के माध्यम से भी कोई सुधार नहीं हुआ है। “मृत्युदंड बलात्कार के मामलों को रोकने का काम नहीं करता” – यह वास्तविक संदेश है जिसे हमने समझा है। इसलिए हम कह सकते हैं कि आज की पीढ़ी में ‘सजा के प्रतिरोध सिद्धांत’ का कोई बड़ा निहितार्थ (इंप्लीकेशन) नहीं है।

सजा का निवारक सिद्धांत

सजा का निवारक सिद्धांत अपराधियों को अशक्त (डिसेबल्ड) करके संभावित अपराधों को रोकने का प्रयास करता है। निवारक सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य अपराधी को स्थायी रूप से या अस्थायी रूप से बदलना है। इस सिद्धांत के तहत अपराधियों को मौत की सजा या आजीवन कारावास आदि से दंडित किया जाता है। 

निवारक सिद्धांत का दार्शनिक दृष्टिकोण:

उपयोगितावादी जैसे इंग्लैंड के बेंथम, मिल और ऑस्टिन ने सजा के निवारक सिद्धांत का समर्थन किया क्योंकि इसकी मानवीय प्रकृति थी। निवारक सिद्धांत का दर्शन इस बात की पुष्टि करता है कि निवारक सिद्धांत एक प्रभावी निवारक के रूप में कार्य करता है और एक सफल निवारक सिद्धांत भी मुस्तैदी (प्रोम्पटनेस) के कारकों पर निर्भर करता है। इस सिद्धांत के गहनतम ने माना कि सजा का उद्देश्य अपराधों को रोकना है। अपराधी और उसकी कुख्यात गतिविधियों की जाँच होने पर अपराधों को रोका जा सकता है। अशक्तता से जांच संभव है। अशक्तता विभिन्न प्रकार की हो सकती है। कारावास के अंदर सीमित होना अशक्तता का एक सीमित रूप है, जो अस्थायी है और जब यह अक्षमता का असीमित रूप है, तो यह स्थायी है। यह सुझाव देता है कि कारावास अपराध की रोकथाम का सबसे अच्छा तरीका है, क्योंकि यह समाज से अपराधियों को खत्म करने का प्रयास करता है, इस प्रकार उन्हें अपराध दोहराने से अक्षम कर रहा है। मृत्युदंड भी इसी सिद्धांत पर आधारित है। यह सिद्धांत प्रतिरोधक सिद्धांत का दूसरा रूप है। एक समाज को रोकना है जबकि दूसरा अपराधी को अपराध करने से रोकता है। एक समग्र अध्ययन से, हमें पता चलता है कि निवारक सजा के तीन सबसे महत्वपूर्ण तरीके हैं, वे इस प्रकार हैं: 

  • सजा का डर पैदा करके।
  • अपराधी को स्थायी रूप से या अस्थायी रूप से कोई अन्य अपराध करने से अक्षम करके।
  • सुधार के माध्यम से या उन्हें समाज का एक शांत नागरिक बनाके। 

महत्वपूर्ण निर्णय:

  • डॉ. जैकब जॉर्ज बनाम केरल राज्य : इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि सजा का उद्देश्य निवारक, सुधारात्मक, निवारक, प्रतिशोधात्मक और प्रतिपूरक होना चाहिए। एक सिद्धांत को दूसरे पर वरीयता दी जाती है, वह सजा की ठोस नीति नहीं है। सजा के प्रत्येक सिद्धांत को स्वतंत्र रूप से इस्तेमाल किया जाना चाहिए या मामले की योग्यता के आधार पर शामिल किया जाना चाहिए। यह भी कहा गया है कि “हर संत का अतीत होता है और हर पापी का भाग्य होता है”। अपराधी समाज का एक हिस्सा हैं इसलिए यह समाज की भी जिम्मेदारी है कि उन्हें सुधारे और उन्हें समाज का जागरूक नागरिक बनाएं। क्योंकि अपराध की रोकथाम समाज और कानून का प्रमुख लक्ष्य है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
  • सुरजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य : इस मामले में एक आरोपी पुलिस वाला बलात्कार करने की नीयत से मृतक के घर में घुसा, लेकिन ऐसा करने में नाकाम रहा क्योंकि मृतक के बेटे मदद के लिए चिल्लाने लगे। एक अन्य आरोपी ने पुलिसकर्मी को मृतक को मारने की सलाह दी। आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 450 के तहत उत्तरदायी ठहराया गया था। जबकि इसके विपरीत, मृत्युदंड अशक्तता का एक अस्थायी रूप है।

सजा का अक्षमता सिद्धांत

अर्थ: 

शब्द “अक्षमता” का अर्थ है ‘दंडित करके अपराध को रोकना, ताकि आने वाली पीढ़ी को आपराधिक कार्य करने का डर हो।’ अक्षमता या तो समाज से व्यक्ति को अस्थायी रूप से या स्थायी रूप से हटाने से होती है, या किसी अन्य तरीके से, जो उसे शारीरिक अक्षमता के कारण प्रतिबंधित करती है। अक्षमता के सबसे सामान्य तरीकों में से एक अपराधियों को कैद करना है, लेकिन गंभीर मामलों में मृत्युदंड भी लागू किया जाता है। अक्षमता का समग्र (ओवरऑल) उद्देश्य भविष्य में खतरे को रोकना या नियंत्रित करना है।

परिभाषा: 

“अक्षमता किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतिबंध को संदर्भित करती है जो कि आम तौर पर समाज में होती है।” 

अक्षमता सिद्धांत का उद्देश्य: 

इस सिद्धांत का एक प्राथमिक उद्देश्य समाज से पर्याप्त रूप से खतरनाक व्यक्तियों को हटाना है। अपराधियों द्वारा उत्पन्न होने वाला जोखिम काफी हद तक शुरुआत का मामला है। इसलिए, यदि एक देश एक अपराध को एक तरह से मानता है, तो दूसरा देश उसी अपराध को अलग तरीके से करेगा। उदाहरण के लिए, अमेरिका में, वे अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक दर पर अपराधियों को अक्षम करने के लिए कारावास का उपयोग करते हैं। यह देखा गया है कि दण्ड के अन्य सिद्धांतों जैसे प्रतिरोध, पुनर्वास और पुनर्स्थापन के विपरीत, अक्षमता का सिद्धांत समाज में अपराधियों के वितरण को सरलता से पुनर्व्यवस्थित करता है ताकि समाज में अपराध की दर कम हो। अक्षमता के सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य अतीत में अपराधियों से दूसरों को दूर करना है, ताकि भविष्य की पीढ़ी द्वारा इसका पालन न किया जा सके। 

सिद्धांत का अनुप्रयोग: 

अक्षमता का सिद्धांत केवल उन लोगों के लिए आरक्षित हो जाता है जिन्हें या तो जेल की सजा दी जाती है या आजीवन कारावास की सजा दी जाती है। फिर भी, इसमें समुदाय के भीतर के विभागों द्वारा पर्यवेक्षित की जाने वाली परिवीक्षा (प्रोबेशन) और पैरोल जैसी चीज़ें भी शामिल हैं।

मूल: 

अक्षमता का सिद्धांत, 18 वीं और 19 वीं शताब्दी के दौरान ब्रिटेन में उत्पन्न हुआ था, जहां दोषी अपराधियों को अक्सर अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे स्थानों पर ले जाया जाता था। बाद में 21 वीं सदी में, सिद्धांत को कुछ हद तक बदल दिया गया था, जहां अपराधियों को अक्षमता की प्राथमिक पद्धति में रहना था जो कि अधिकांश समकालीन सजा प्रणालियों में पाया गया था। इसलिए, सिद्धांत आमतौर पर कारावास का रूप लेता है, जिसे अक्षमता के अन्य तरीकों के बजाय अक्षमता का सबसे अच्छा रूप माना जाता है।

तो क्या अक्षमता अपराध को कम कर सकती है?

शिकागो विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, यह साबित हो गया है कि अपराध दर को 20 प्रतिशत तक रोका जा सकता है। साथ ही, यह भी देखा गया है कि यदि अन्य सिद्धांतों को लागू किया जाता है जैसे प्रतिशोधी सिद्धांत, प्रतिपूरक सिद्धांत, आदि, तो वे अपराधी को कम से कम 5 साल के लिए सलाखों के पीछे डालने के लिए सजा को काफी सख्त तरह से लागू करते हैं। साथ ही, अगर बाकी सिद्धांतों को लागू किया जाए तो जेल की आबादी में वृद्धि हो सकती है। यदि उच्च दर वाले अपराधियों की एक छोटी संख्या अनुपातहीन रूप से बड़ी मात्रा में अपराध करती है, तो इन अपराधियों पर सीमित जेल संसाधनों को लक्षित करके जेल की आबादी को अनुचित रूप से बढ़ाए बिना अपराध नियंत्रण में वृद्धि हासिल करनी चाहिए। यह नीति किए गए अपराध की डिग्री और अपराधी अपने इस कार्य में जल्दी है या नहीं इस पर निर्भर करेगी। 

सजा का प्रतिपूरक सिद्धांत

परिभाषा: 

अपराधों के कानून में मुख्य रूप से अपराधी को दंडित करना, और/या न्यायालयों और अन्य सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से उपलब्ध सभी संसाधनों और सद्भावना के साथ उसके सुधार और पुनर्वास की तलाश करना है। यह देखा जाना चाहिए कि अपराधियों को उनके द्वारा किए गए अपराधों और पीड़ित और उनके परिवार के सदस्यों और संपत्ति के प्रति उत्पीड़न के लिए उचित निर्णय मिलना चाहिए। अपराध में पीड़ितों को मुख्य रूप से दो आधारों पर मुआवजा दिया जा सकता है, अर्थात्-

  1. एक अपराधी जिसने व्यक्ति (या व्यक्तियों के समूह) या संपत्ति के खिलाफ कोई हानि पहुंचाई थी, उसे पीड़ित को हुए नुकसान के लिए मुआवजा दिया जाना चाहिए, और
  2. जो राज्य अपने नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहा है, उसे हुए नुकसान का मुआवजा मिलना चाहिए।

मुआवजा निवारक, सुधारात्मक और प्रतिशोध का एक आवश्यक योगदान का सही सार है।

महत्त्वपूर्ण निर्णय:

  • डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य  के ऐतिहासिक मामले में  सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक पीड़ित जो हिरासत के अधिकार के तहत है, उसे जीवन के अधिकार के रूप में मुआवजा पाने का पूरा अधिकार है, जिसका उल्लंघन राज्य के अधिकारी द्वारा संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किया गया था।  
  • गुजरात राज्य बनाम गुजरात के माननीय उच्च न्यायालय, के मामले मे, न्यायमूर्ति थॉमस ने कहा था कि, “सुधारवादी और सुधारात्मक सिद्धांत गंभीर विचार के योग्य हैं, जहां अपराध के शिकार पीड़ित या उसके परिवार के सदस्यों को, अपराधी के द्वारा जेल में अर्जित मजदूरी से मुआवजा मिलना चाहिए।” न्यायालय ने सुझाव दिया कि विशेष राज्य को अपराध के पीड़ित को देय उसके मुआवजे के संबंध में एक व्यापक कानून बनाना चाहिए।

सजा का सुधारवादी  सिद्धांत

सुधारवादी सिद्धांत का विचार परिकल्पना (हाइपोथेसिस) है। इस परिकल्पना के अनुसार, अनुशासन का उद्देश्य यह है की वैयक्तिकरण (इंडिविजुअलाइजेशन) की रणनीति के माध्यम से आरोपी का परिवर्तन होना चाहिए। यह मानवतावादी नियम पर निर्भर करता है कि चाहे गलत काम करने वाला कोई भी कार्य करे, लेकिन वह एक व्यक्ति होने से नहीं रुकता है। इस प्रकार, उसके हिरासत के समय में उसे बदलने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि उसने ऐसी परिस्थितियों में बुरा व्यवहार किया हो जो फिर कभी न हो। इसलिए उसके कारावास के समय में उसे बदलने का प्रयास किया जाना चाहिए। आदेश का उद्देश्य उत्तरदायी पक्ष में नैतिक अंतर को पूरा करना होना चाहिए। उसे बताया जाना चाहिए और उसके कारावास के समय के दौरान कुछ शिल्प कौशल या उद्योग का प्रदर्शन करना चाहिए ताकि उसके पास जेल से आने के बाद अपना जीवन फिर से शुरू करने का विकल्प हो।

सिद्धांत का इतिहास :

मानव विकास को लगातार एक अतुलनीय बल के मानक (स्टैंडर्ड) के तहत प्रशासित किया गया है। लंबी अवधि में नौकरी और पूर्व-प्रतिष्ठित बल का प्रकार बदल गया है। आदिम प्रकार की सरकार से लेकर वर्तमान न्यायपूर्ण, गणतांत्रिक और विभिन्न प्रकार की सरकारों तक, अतुलनीय सत्ता का दायित्व बहुत बदल गया है। लंबे समय में राज्य कर्तव्य के विचार की तरह अनुशासन का विचार भी बदल गया है। अनुशासन का विचार धर्म के आधार और राजाओं के संगठन पर निर्भर करता था। पुराने अवसरों के दौरान, अनुशासन का विचार प्रतिशोधात्मक आधार था, जहां गुंडों को असभ्य प्रकार का अनुशासन दिया जाता था। बाद में, उम्र के प्रवेश पर, सामान्य स्वतंत्रता के महत्व का विस्तार हुआ जिसने संक्षेप में सुधारात्मक और पुनर्वास संबंधी परिकल्पनाओं द्वारा प्रतिकारक परिकल्पना के प्रतिस्थापन के लिए रास्ता साफ कर दिया। सुधारात्मक और पुनर्वास संबंधी परिकल्पनाओं के तहत दोषियों को अनुशासन के लिए ऐसी संरचनाएँ दी जाती हैं जो उन्हें बदल दें और उन्हें इस तरह के गलत कामों को करने से रोकें। 

भारत में आरोपियों को बदलने के लक्ष्य के साथ सजा के सिद्धांत का पालन किया जा रहा है क्योंकि उन्हें सजा देने का विरोध भारत में उल्लंघन की घटना से बचने के लिए मजबूर नहीं है। कानून का आवश्यक विचार स्थिर नहीं होना है, बल्कि प्रकृति में गतिशील होना है। ठीक उसी समय कानून के पास आम जनता के सभी क्षेत्रों में सफल होने का विकल्प होगा।

मुख्य उद्देश्य सुधारवादी सिद्धांत:

अनुशासन की इस परिकल्पना का कारण अपराधी को उसके बुरे व्यवहार पर निस्तेज (लैंग्विश) बनाना है। यहां अनुशासन के पीछे की प्रेरणा को गहराई से अनुकूलित किया गया है और यह व्यक्ति या उसके परिवार के मानसिक आउटलेट के चारों ओर घूमता है। प्राथमिक कारण पैरोल और परिवीक्षा के लिए पूरा किया जा सकता है, जिसे दुनिया भर में दोषी पक्षों को सुधारने की वर्तमान प्रक्रियाओं के रूप में स्वीकार किया गया है। नतीजतन, इस परिकल्पना के समर्थक केवल अपराधियों को अलग करने और उन्हें समाज से खत्म करने के लिए कारावास को वैध नहीं ठहराते हैं। अनुशासन की उन्नत सुधारात्मक प्रक्रियाओं में से कई को अनिवार्य रूप से दोषी पक्षों के इलाज के लिए उनकी मानसिक विशेषताओं के अनुसार गढ़ा नहीं गया है, उदाहरण के लिए, परिवीक्षा, पैरोल, अनिश्चित सजा, उपदेश (एक्जोरटेशन) और क्षमा। सुधारात्मक तकनीकों ने किशोर दुराचार, पहली गलत काम करने वालों और महिलाओं की स्थिति में मूल्यवान होने का प्रदर्शन किया है। यौन अपराधियों के मामले भी अनुशासन के लिए सुधारात्मक रणनीति पर अच्छी प्रतिक्रिया देते हैं। हाल ही में, सुधारात्मक परिकल्पना का व्यापक रूप से उपयोग, बौद्धिक (इंटेलेक्चुअल) रूप से अस्वीकृत अपराधियों के उपचार के लिए तकनीक के रूप में किया जा रहा है।

आलोचना:

  1. सुधारवादी सिद्धांत जेल में बेहतर ढांचे और कार्यालयों, विभिन्न नियंत्रणों के बीच वैध सह-नियुक्ति और अपराधियों को आकार देने के लिए उनकी ओर से कड़ी मेहनत की उम्मीद करता है। इसके लिए विशाल उपक्रमों (वेंचर) की आवश्यकता है, जिसकी कीमत गरीब राष्ट्र वहन नहीं कर सकता।
  2. कानून के लिए उच्च सम्मान रखने वाले बहुत से निर्दोष व्यक्तियों को मौलिक शिष्टाचार प्राप्त करने में मुश्किल हो रही है, जो जेल के अंदर बेहतर कार्यालय देने के लिए नैतिक व्यवसाय की परिकल्पना करते हैं। 
  3. साथ ही, परिकल्पना की सुदृढ़ता प्रतिकार (काउंटरेकशन) के बजाय गलत कार्य करने के लिए प्रेरकों की ओर अधिक है। 
  4. परिवर्तन उन व्यक्तियों पर काम कर सकता है जिन्हें सुधारा जा सकता है, ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें बदला नहीं जा सकता है जैसे कि कानून तोड़ने वाले, गहराई से निर्देशित और गुंडे। 
  5. यह सिद्धांत संभावित गलत काम करने वालों और उन लोगों की अवहेलना करता है जिन्होंने गलत काम किया है लेकिन वह कार्य कानून के अर्थ के अंदर नहीं है। इसके अलावा, यह उल्लंघन से बचे लोगों के मामलों की अनदेखी करता है।
  6. पतित (डिजेनरेट) सामाजिक पारिस्थितिकीय (इकोलॉजिकल) गलत कामों के लिए उत्तरदायी है फिर भी व्यक्ति कर्तव्य नहीं, सुधार की सोच का तरीका है जिसे संसाधित (प्रोसेस) करना मुश्किल है। किसी भी मामले में, पुनर्निर्माण के माननीय विचार को पूर्ण निराशा के रूप में माफ करना अनुचित है। सभी उन अवसरों के बारे में जानते हैं जहां जेल में प्रतिभाहीन, बेख़बर और जाहिर तौर पर कानून तोड़ने वालों ने ऐसी योग्यताएँ उत्पन्न की हैं, जिसने उन्हें बेहद मूल्यवान लोगों में बदल दिया है।

सजा का उपयोगितावादी सिद्धांत

अनुशासन का उपयोगितावादी सिद्धांत दोषी पक्षों को भविष्य के बुरे व्यवहार को कम करने, या “बाधित” करने के लिए दंडित करने की कोशिश करता है। उपयोगितावादी दर्शन (फिलोसॉफी) के तहत, समाज के आनंद को बढ़ाने के लिए कानूनों का उपयोग किया जाना चाहिए। चूंकि अधर्म और अनुशासन आनंद के साथ परस्पर विरोधी हैं, इसलिए उन्हें एक आधार पर रखा जाना चाहिए। उपयोगितावादी समझते हैं कि एक गलत कार्य-मुक्त समाज जैसा कुछ नही होता है, फिर भी वे भविष्य के उल्लंघनों को रोकने के लिए जितना आवश्यक हो उतना अनुशासन लेने का प्रयास करते हैं। 

उपयोगितावादी परिकल्पना प्रकृति में “परिणामवादी (कंसीक्वेंशियलिस्ट)” है। यह मानता है कि अनुशासन का प्रभाव, गलत करने वाले और समाज दोनों पर पड़ता है और यह मानता है कि अनुशासन द्वारा बनाए गए सभी अच्छे कार्यों को पूर्ण द्वेष को पार करना चाहिए। अंत में, अनुशासन असीम नहीं होना चाहिए। अनुशासन में परिणामवाद का एक चित्रण एक अक्षम बीमारी का अनुभव करने वाले अपराधी का आना है। इस घटना में कि कैदी की मृत्यु निकट आ रही है, समाज को उसके प्रतिबंध के साथ कार्यवाही नहीं की जाती है क्योंकि वह इस समय गलत काम करने के लिए उपयुक्त नहीं है। 

उपयोगितावादी सोच के तहत, आपराधिक सुराग के लिए अनुशासन का संकेत देने वाले कानूनों का इरादा भविष्य के आपराधिक प्रत्यक्ष को रोकने के लिए होना चाहिए। निराशा एक विशेष और समग्र स्तर पर काम करती है। सामान्य हतोत्साह का तात्पर्य है कि अनुशासन को दूसरों को आपराधिक कार्य करने से रोकना चाहिए। अनुशासन, शेष समाज के लिए एक उदाहरण के रूप में भरता है, और यह दूसरों को सलाह देता है कि आपराधिक आचरण को दंडित किया जाएगा। स्पष्ट निराशातात्पर्य यह है कि अनुशासन को समान व्यक्ति को उल्लंघन करने से रोकना चाहिए। स्पष्ट रोकथाम दो अलग-अलग तरीकों से काम करती है। प्रारंभ में, एक दोषी पक्ष को जेल में रखा जा सकता है ताकि उसे पूर्वनिर्धारित अवधि के लिए एक और गलत काम करने से रोका जा सके। दूसरे, इस कार्य को इस हद तक अवांछनीय बनाने का इरादा है कि यह दोषी पक्ष को उसके आपराधिक आचरण को दोबारा करने से हतोत्साहित करेगा।

क्या उपयोगितावादी सिद्धांत मृत्युदंड का समर्थन करता है:

मृत्युदंड की स्पष्ट गंभीरता, इस मुद्दे को लेकर एक असाधारण बहस हुई है। मृत्युदंड के विरोधियों का कहना है कि यह बर्बर और कठोर है इसलिए प्रशासन को इससे नही प्रदान करना चाहिए। फिर से, उसके समर्थक इस बात पर कायम हैं कि मृत्युदंड एक मौलिक प्रकार का अनुशासन है जिसे लोगों की नज़र में सबसे भयानक दोषी पर इस्तेमाल किया जाना चाहिए। मृत्युदंड पर असाधारण रूप से मोहित चर्चा काफी लंबे समय से चल रही है। इस असाधारण संदिग्ध मुद्दे के उत्तर को गढ़ने के लिए नैतिक परिकल्पनाओं का उपयोग किया जा सकता है। नैतिकता यह पता लगाती है कि किसी परिस्थिति में सही रणनीति क्या है। लंबी अवधि के दौरान शोधकर्ताओं और विद्वानों द्वारा विभिन्न मजबूत नैतिक परिकल्पनाओं का प्रस्ताव दिया गया है। यह लेखय, ह प्रदर्शित करने के लिए कि मृत्युदंड निश्चित रूप से वैध है, सबसे व्यापक रूप से लागू नैतिक परिकल्पनाओं में से एक का उपयोग करेगा, जो उपयोगितावाद है।

उपयोगितावादी सिद्धांत की समीक्षा:

उपयोगितावादी दृष्टिकोण से, सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े हिस्से की संतुष्टि को आगे बढ़ाने वाली गतिविधियों की तलाश की जानी चाहिए, जबकि इस आनंद को रोकने वाली गतिविधियों से बचना चाहिए। उपयोगितावादी परिकल्पना को मृत्युदंड के मुद्दे पर लागू किया जा सकता है क्योंकि इस प्रकार का अनुशासन सकारात्मक और नकारात्मक दोनों परिणाम देता है। 

लाभ:

  • मृत्युदंड द्वारा दिया जाने वाला प्रमुख महत्वपूर्ण लाभ यह है कि यह एक बहुत बड़ा हतोत्साहन होता है। आपराधिक इक्विटी ढांचे का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य व्यक्तियों को गलत कामों में भाग लेने से कमजोर करना है। 
  • यह इस लक्ष्य के साथ अनुशासनों को उल्लंघनों में शामिल करके पूरा किया जाता है कि एक व्यक्ति गैरकानूनी गतिविधियों में भाग लेने के लाभों को परिणामों से अधिक के रूप में देखता है। उस क्षमता में, एक आदर्श समाज वह होगा जहां किसी को भी दंडित नहीं किया जाता है क्योंकि अनुशासन का खतरा हर किसी को गलत कामों में भाग लेने से बचाता है। मृत्युदंड सबसे चरम अनुशासन है और इसकी पहुंच शायद उन व्यक्तियों को विचलित करने वाली है जो शायद लंबी जेल की सजा से भयभीत नहीं होंगे। 
  • उपयोगितावादी दृष्टिकोण से, रोकथाम कार्य नैतिक है क्योंकि यह आम जनता की सामान्य संतुष्टि को जोड़ता है। उस बिंदु पर जब आरोपी गलत कामों में भाग लेने से विचलित होते हैं, तो आम जनता अधिक सुरक्षित होती है और व्यक्ति अपने आस पास सद्भाव और सुरक्षा की सराहना करते हैं।
  • मृत्युदंड द्वारा आम जनता को दिया जाने वाला एक और बड़ा लाभ यह है कि यह आरोपी व्यक्ति की स्थायी दुर्बलता को प्रेरित करता है। मृत्युदंड विभिन्न प्रकार के अनुशासन की तरह बिल्कुल नहीं, जो दोषी पक्ष के अवसरों के एक हिस्से को सीमित करता है, बल्कि यह उसके जीवन को समाप्त कर देता है।

निष्कर्ष

इस प्रकार, हमने सजा के विभिन्न सिद्धांतों को विस्तार से देखा है। हम समझ गए कि उनके पीछे के मार्गदर्शक सिद्धांत क्या हैं, वे एक दूसरे से कैसे भिन्न हैं और उसी से संबंधित कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय क्या हैं। हालाँकि, हमें बहुत स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है कि सजा एक ऐसी चीज है जिसे बहुत सावधानी से दिया जाना चाहिए। जैसा कि प्रसिद्ध कहावत है कि ‘एक निर्दोष को दंडित करने के बजाय, सौ दोषियों को जाने देना चाहिए’, हमें यह समझने की जरूरत है कि किसी को सजा देने से उसकी मानसिक, शारीरिक और सामाजिक स्थिति में भारी बदलाव आता है। इसका उस पर और उसके अस्तित्व पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार, आपराधिक न्याय का प्रशासन करते समय, पूरी सावधानी बरती जानी चाहिए, अन्यथा न्याय के सिद्धांत ही समाप्त हो जाएंगे।

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