समान काम के लिए समान वेतन और वेतन समानता कानून की सफलता

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यह लेख इंस्टीट्यूट ऑफ लॉ, निरमा यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद की छात्रा Nivrati Gupta द्वारा लिखा गया है। यह लेख विभिन्न क्षेत्रों में समान काम के लिए समान वेतन लागू करने के महत्व और इसे स्वीकार करने वाले विभिन्न कानूनों पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय 

भोजन और आश्रय जैसी प्राथमिक आवश्यकताओं के बाद हम क्या चाहते हैं? सभी मनुष्य सामाजिक सुरक्षा की इच्छा रखते हैं। भारत एक कल्याणकारी राज्य है, और एक कल्याणकारी राज्य में, एक कर्मचारी जो किसी गतिविधि में लगा हुआ है, उसे उस कर्मचारी से कम भुगतान नहीं किया जा सकता है जो उसी गतिविधि में लगा हुआ है और समान जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का पालन कर रहा है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह माना गया कि हमारा देश पिछले 38 वर्षों से आई.सी.ई.एस.सी.आर (आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय संविदा) के अनुच्छेद 7 का एक हस्ताक्षरकर्ता पक्ष रहा है। पीठ ने कहा कि कोई भी गतिविधि जहां दो लोग एक ही काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें अलग-अलग भुगतान किया जाता है वह शोषण का कार्य है और ऐसा नहीं किया जाएगा। भारत में, आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है, उन्हें जो भी वेतन दी जाती है, वे उसे स्वीकार करते हैं, भले ही वह सरकार द्वारा जारी न्यूनतम वेतन दिशानिर्देशों से कम हो। अपने बच्चों को स्कूल भेजने, उन्हें शिक्षा प्रदान करने और अपने परिवार के लिए दैनिक रोटी जुटाने में सक्षम होने का दबाव, इस सांस्कृतिक व्यवस्था में जीवित रहना मुश्किल हो गया है और यह उन्हें असमानता की अनुचित संस्कृति का हिस्सा बनने के लिए मजबूर करता है। 

वेतन अंतर एक ऐसा मुद्दा है जो भेदभावपूर्ण वेतन के बढ़ते मामलों के कारण राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गया है। हम, एक कल्याणकारी और लोकतांत्रिक संस्था के रूप में, पारदर्शी समान वेतन नीति के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) में कमी रखते हैं। 

कर्मचारी का अधिकार: समान काम के लिए समान वेतन

समान काम के लिए समान वेतन को न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में लैंगिक वेतन अंतर के संदर्भ में समझा जाता है। समान कार्य के लिए समान वेतन, समान कार्य करने वाले पुरुष और महिला को समान जिम्मेदारियों और कर्तव्यों के साथ समान वेतन और सुविधाएं देने की एक कार्य वातावरण अवधारणा है। भारतीय संविधान स्पष्ट रूप से इस अधिकार को मौलिक या संवैधानिक रूप से प्रदान नहीं करता है, लेकिन भारत के संविधान में विभिन्न प्रावधान समान काम के लिए समान वेतन के कार्यान्वयन की ओर इशारा करते हैं। 

  • अनुच्छेद 14 – कानून के समक्ष समानता अर्थात पुरुषों और महिलाओं को राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में समान अधिकार और अवसर प्राप्त हैं। 
  • अनुच्छेद 15(1) जाति या लिंग के आधार पर भेदभाव के निषेध की बात करता है और अनुच्छेद 15(3) जिसमें निर्धारित विभिन्न विशेष प्रावधानों का उल्लेख है जो राज्य को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव करने के लिए विभिन्न शक्तियां प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 16 विशेष अधिकार प्रदान करता है जिसमें महिलाओं और बच्चों के लाभ के लिए बनाए जाने वाले कानून शामिल हैं। 
  • अनुच्छेद 39 उन सिद्धांतों से संबंधित है जिनका पालन राज्य द्वारा पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समान वेतन के संबंध में नीतियां बनाने के लिए किया जाना है।
  • अनुच्छेद 42 में राज्य को कार्यस्थल पर एक महिला के लिए उचित और मानवीय स्थिति सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि मातृत्व राहत के संबंध में उचित प्रावधानों का पालन किया जा रहा है। 
  • अनुच्छेद 51(A)(e) में महिला की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं को छोड़ना है। 

समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धांत पहली बार वर्ष 1962 में किशोरी मोहनलाल बख्शी बनाम भारत संघ मामले में पेश किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने समान काम और समान वेतन की इस दलील को खारिज कर दिया। बाद में 1982 में रणधीर सिंह बनाम भारत संघ मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने मान्यता दी और माना कि “समान काम के लिए समान वेतन” का सिद्धांत हालांकि एक मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन निश्चित रूप से अनुच्छेद 14, 39 खंड (c) और अनुच्छेद 16 के तहत एक संवैधानिक रूप से वैध सिद्धांत है और इसलिए संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दिए गए संवैधानिक उपचारों के माध्यम से लागू होने में सक्षम है। समान काम के लिए समान वेतन के इतिहास और विकास में पंजाब और अन्य बनाम जगजीत सिंह और अन्य मामले का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इस फैसले में, न्यायमूर्ति जेएस खेहर और एसए बोबडे की पीठ ने कहा कि समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धांत उन लोगों पर लागू किया जाना चाहिए जो दैनिक वेतन भोगी, आकस्मिक और संविदा कर्मचारी हैं जो नियमित कर्मचारियों के समान कर्तव्य निभाते हैं। समान वेतन देने से इनकार को “शोषणकारी दासता (एंस्लेवमेंट)”, “जबरदस्ती” और “दमनकारी दमन” कहा जाता है।

समान काम के लिए समान वेतन के मौजूदा कानून 

कर्मकार मुआवज़ा अधिनियम, 1923 

कर्मकार मुआवजा अधिनियम, 1923 के उद्देश्य :

  • इसका उद्देश्य आकस्मिक चोट की स्थिति में श्रमिक के आश्रितों को मुआवजा देकर वित्तीय सुरक्षा प्रदान करना है। सोच यह थी कि यह केवल नियोक्ताओं के एक निश्चित वर्ग के लिए था।
  • सौदेबाजी की शक्ति में अंतर के कारण, इस बात की अधिक संभावना है कि महिलाओं को शोषण का शिकार होना पड़ सकता है। 
  • उपरोक्त सूचीबद्ध जोखिम कारकों पर इस अधिनियम में सूचीबद्ध उपयुक्त उपायों के साथ चर्चा की गई है। 

न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948

न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 के उद्देश्य :

  • न्यूनतम वेतन के वैधानिक निर्धारण का प्रावधान। 
  • भारत में श्रमिकों को कम वेतन मिलता है और उनकी सौदेबाजी की क्षमता कम होती है। 

कारखाना अधिनियम, 1948

कारखाना अधिनियम, 1948  के उद्देश्य :

  • कारखानों और उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों की स्थितियों को विनियमित करने के लिए इसे पेश किया गया। 

संविदा श्रमिक (विनियमन और उन्मूलन (एबोलिशन)) अधिनियम, 1970

संविदा श्रमिक (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम, 1970 के उद्देश्य :

  • यह अधिनियम महिलाओं के लिए उपयोगिताओं और निश्चित कार्य घंटों के लिए एक अलग प्रावधान प्रदान करता है। 

समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 

समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 के उद्देश्य :

  • पुरुषों और महिलाओं को उनके समान काम के लिए समान वेतन प्रदान करता है। 
  • यह अधिनियम गर्भावस्था और पालन-पोषण के समय एक महिला पर पड़ने वाले असमान शारीरिक और सामाजिक बोझ को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था। 

वेतन संहिता 2019

वेतन संहिता 2019 के उद्देश्य : 

  • पुरुषों और महिलाओं की द्विआधारी यौन व्यवस्था से दूर चले गए। 
  • सभी लिंगों के लिए समान काम के लिए समान वेतन की आवश्यकता को मान्यता दी गई।
  • ट्रांसजेंडरों सहित अन्य उत्पीड़ित लिंगों के लिए कानून के लाभ का दायरा बढ़ाया। 
  • सरकार को यह घोषित करने की अनुमति दी गई कि पुरुष और महिला श्रमिकों के वेतन में अंतर है लेकिन लिंग के आधार पर नहीं। 
  • धारा 16 ने सरकार को बिना किसी कारण या स्पष्टीकरण के, असमान को समान घोषित करने की शक्ति दी। 

लैंगिक वेतन अंतर और समान वेतन के लिए संघर्ष

यद्यपि समान काम के लिए समान वेतन एक निर्णायक नीति है, जैसा कि कई निर्णयों में बताया गया है और हालांकि संविधान में इसका अच्छी तरह से उल्लेख किया गया है, वास्तविक जीवन में इस सिद्धांत की प्रयोज्यता की सीमा अभी भी एक प्रश्न है। 

लैंगिक वेतन अंतर को समान कार्यभार और जिम्मेदारियों के साथ समान कार्य करने के बावजूद पुरुष और महिला की आय के बीच के अंतर के रूप में समझा जाता है। वर्ष 2013 में लिंग वेतन अंतर 24.82% सामने आया। यह भी पाया गया कि महिला भागीदारी में भारत अंतिम 10 में है। इससे साबित होता है कि न केवल महिलाओं को कम वेतन दिया जाता है बल्कि उन्हें उनके काम के लिए मान्यता नहीं दी जा रही है और प्रतिनिधित्व भी उचित नहीं है। 

किसी समुदाय में लिंग अंतर पैदा करने में योगदान देने वाले प्रमुख कारक हैं: 

  • व्यावसायिक प्राथमिकताएँ 
  • सांस्कृतिक बाधा 
  • सीधा भेदभाव
  • महिलाओं की योग्यता और कौशल का कम मूल्यांकन 
  • शिक्षा एवं प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) का अभाव 

मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों और कृषि क्षेत्र में श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। ग्रामीण क्षेत्रों में श्रम को सख्ती से लिंग के आधार पर विभाजित किया गया है और काम को भी लिंग के आधार पर विभाजित किया गया है। भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंड भी महिलाओं के लिए प्रतिकूल माने जाते हैं। बच्चों की देखभाल करना एक महिला का प्राथमिक काम माना जाता है। कई संगठन और कंपनियां बच्चों वाली विवाहित महिलाओं को काम पर नहीं रखते हैं क्योंकि उनका मानना ​​है कि महिलाएं पूरी क्षमता के साथ काम नहीं कर पाएंगी क्योंकि उन्हें अपने परिवार और जिम्मेदारियों का प्रबंधन करना होता है। महिलाओं की पदोन्नति दर भी बहुत अधिक नहीं है। मातृत्व अवकाश से वापस आने के बाद महिलाओं को कम वेतन दिया जाता है, यह मानते हुए कि वे 4 महीने के अवकाश पर थीं। महिला कर्मियों को बोझ समझा जाता है क्योंकि उन्हें संभावित मां माना जाता है और वे शादी करके घर बसाने के बाद संगठन छोड़ सकती हैं। लिंग वेतन अंतर लिंग के अनुसार घरेलू श्रम के विभाजन को भी दर्शाता है, बीमारों और बुजुर्गों की देखभाल, बच्चों की देखभाल और घरेलू काम-काज को एक महिला की ज़िम्मेदारियाँ माना जाता है। 

चूंकि घरेलू काम पुरुषों और महिलाओं के बीच समान रूप से साझा नहीं किया जाता है, इसलिए महिलाओं को करियर में बार-बार ब्रेक का सामना करना पड़ रहा है, खासकर बच्चों की परवरिश करने और परिवार में बुजुर्गों की देखभाल करने के लिए। बदले में, इसका उनके करियर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। भारत में महिलाओं की साक्षरता दर बहुत कम है, इसका कारण यह है कि ग्रामीण इलाकों में लड़कियों का एक बड़ा प्रतिशत शादी के लिए स्कूल छोड़ देता है। लड़कियों के लिए शिक्षा को आवश्यक नहीं माना जाता क्योंकि पुरुष को कमाने वाला माना जाता है। भारत में वर्तमान रोज़गार का दो-तिहाई हिस्सा कृषि क्षेत्र में है, लेकिन इस क्षेत्र में योगदान करने वाली अधिकांश श्रमिक महिलाओं को आधिकारिक तौर पर प्रलेखित (डॉक्यूमेंटेड) नहीं किया जाता है। वेतन अंतर के लिए अवैतनिक कार्य को एक प्रमुख कारण के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। हाल की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार, विशेष रूप से महिलाओं ने वेतन पाने की झूठी आशा में अपने व्यावसायिक जीवन का दो-तिहाई हिस्सा अवैतनिक श्रमिक के रूप में काम करते हुए बिताया। 

वेतन समानता, न्यूनतम वेतन और काम पर समानता

शोध से पता चलता है कि कार्यस्थल सहित कई क्षेत्रों में लैंगिक भेदभाव ज्यादातर पुरुषों का पक्ष लेता है। लिंग, जाति, विकलांगता, धर्म, राष्ट्रीयता, यौन रुझान या उम्र की परवाह किए बिना लोगों के साथ उचित व्यवहार किया जाना समानता है। भेदभाव करियर विकास और प्रगति से लेकर मानसिक स्वास्थ्य विकारों तक महिलाओं के जीवन के कई पहलुओं को प्रभावित करता है। काम या स्कूल में समानता का मतलब यह सुनिश्चित करना है कि लोगों को समान अवसर, समान वेतन दिया जाए और उनके मतभेदों को स्वीकार किया जाए। लैंगिक असमानताएँ, भारत के लिंगानुपात, महिलाओं की शैक्षिक योग्यता और आर्थिक स्थितियों जैसे विभिन्न सूचकांकों को प्रभावित करती हैं। भारत में लैंगिक असमानता एक बहुआयामी मुद्दा है जो पुरुषों और महिलाओं दोनों से संबंधित है। 

वेतन समानता को समान कार्य के लिए समान मूल्य वाले समान वेतन के रूप में परिभाषित किया गया है। प्रत्येक कर्मचारी को लिंग, धर्म, राष्ट्रीयता, उम्र या शारीरिक या मानसिक विकलांगता की परवाह किए बिना समान काम के लिए समान वेतन की उम्मीद करने का अधिकार है। चाहे वे पूर्णकालिक या अंशकालिक काम कर रहे हों। इसके अलावा, हाल के वर्षों में समानता भुगतान पर बहुत ध्यान दिया गया है। सामान्य तौर पर, इसका मतलब कर्मचारियों को उनके अनुभव के स्तर, कार्य प्रदर्शन और नियोक्ता के साथ कार्यकाल जैसे अन्य कारकों को ध्यान में रखते हुए समान कर्तव्यों के लिए मुआवजा देना है। 

प्रश्न यह उठता है कि वेतन समानता क्यों आवश्यक है? कई प्रबंधकीय सिद्धांतकारों ने समझाया है कि किसी भी संगठन में अधिकतम दक्षता और रचनात्मकता प्राप्त करने के लिए मुख्य घटक कर्मचारियों के लिए एक स्वस्थ और उत्थानशील वातावरण है। यदि कर्मचारी खुश और प्रेरित नहीं हैं तो संगठन आगे नहीं बढ़ सकता। वेतन समानता उस अंतर को भरने में मदद करती है और संगठन के प्रति प्रत्येक कर्मचारी की प्रतिबद्धता को बढ़ाती है। 

समान वेतन की अवधारणा के साथ न्यूनतम वेतन की अवधारणा भी उभरती है। समान रूप से भुगतान करना ही सब कुछ नहीं है, एक न्यूनतम वेतन है जिसे न्यूनतम राशि के रूप में परिभाषित किया गया है जिसे नियोक्ता द्वारा उस व्यक्ति द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए किए गए कार्य के लिए भुगतान किया जाएगा और इस वेतन को सामूहिक समझौते जिस पर दोनों पक्षों ने सहमति जताई है से कम नहीं किया जा सकता है। भारत में, भारत सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन 176 रुपये है जो आदर्श आठ घंटे के काम के लिए लगभग 3 डॉलर है। छूट स्थानीय अधिकारियों द्वारा दी जा सकती है और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हो सकती है। दैनिक वेतन स्थानीय अधिकारियों की निर्धारित सीमा से कम नहीं हो सकता। 

भारतीय कानून में खामियाँ

वेतन संहिता 2019 को समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 द्वारा प्रतिस्थापित (रिप्लेस) किया गया था। यह कानून बिना किसी भेदभाव के पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समान काम के लिए समान वेतन से संबंधित है। यह इस अधिनियम में संशोधन करने, प्रमुख कमियों को भरने और 21वीं सदी की समय की आवश्यकता के अनुसार महत्वपूर्ण बदलाव लाने का अवसर था। 

संहिता ने पुरुषों और महिलाओं के द्विआधारी लिंग की अवधारणा से हटकर एक कदम आगे बढ़ाया और ट्रांसजेंडर लोगों सहित अन्य लिंगों के लिए कानून का लाभ बढ़ाकर, सभी लिंगों के लिए समान वेतन की आवश्यकता को मान्यता दी। संहिता समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 की धारा 16 को समाप्त करके भी प्रगति करती है, जो सरकार को यह घोषित करने की अनुमति देती है कि किसी भी प्रतिष्ठान या नौकरी में वेतन अंतर का कारक लिंग के अलावा अन्य होगा। धारा 16 अनिवार्य रूप से सरकार को बिना किसी स्पष्टीकरण के, असमान को समान घोषित करने की शक्ति देती है।

एयर इंडिया आदि बनाम नर्गेश मिर्जा और अन्य के मामले में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा 16 के तहत एक घोषणा इस तथ्य का ‘अनुमानित प्रमाण’ थी कि समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 के तहत कोई लिंग भेदभाव नहीं था, और ऐसी घोषणा ‘मामले को पूरी तरह से सुलझाती है’। वाक्यांश ‘समान कार्य या समान प्रकृति का कार्य’ की व्याख्या अदालतों द्वारा बहुत संकीर्ण रूप से की गई है और इस प्रकार कई अधूरी खामिया छोड़ दी गई हैं। मशीनों को चलाने और बच्चों की देखभाल के लिए विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण कौशल, प्रयासों और जिम्मेदारी की आवश्यकता होती है, और इसलिए दोनों प्रकार के काम के लिए उचित वेतन मिलता है। फिर भी, संभावित तुलनाओं के संदर्भ में अदालतों का दृष्टिकोण “समान कार्य या समान प्रकृति के कार्य” वाक्यांश तक सीमित रहा है। यूनाइटेड किंगडम का समानता अधिनियम “समान कार्य” के बजाय “समान मूल्य का कार्य” वाक्यांश का उपयोग करता है। 

वेतन के अलावा भर्ती और सेवा शर्तों में भेदभाव से बचने के लिए समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 में संशोधन किया गया। इसका कारण यह था कि एयर इंडिया आदि बनाम नर्गेश मिर्जा एवं अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि महिला एयर होस्टेस और पुरुष एयर स्टीवर्ड की भर्ती प्रक्रिया और सेवा की शर्तों में अंतर इस बात का सबूत है कि ये कर्मचारियों के अलग-अलग वर्ग थे जिनकी तुलना नहीं की जा सकती, भले ही उन्होंने समान कार्य किया हो। संहिता केवल समान वेतन पर ध्यान केंद्रित करती है, और सेवा की शर्तों में भेदभाव को रोकने के प्रावधानों को शामिल नहीं करती है, और इस तरह समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 के तहत दी जाने वाली भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा को कम कर देती है। 

नियोक्ता द्वारा किये जाने वाले उपाय

  • जब कार्य समान प्रकृति का हो तो पुरुष और महिला श्रमिकों को समान वेतन देना नियोक्ता का कर्तव्य है। कोई भी नियोक्ता किसी संगठन या नौकरी में उसके द्वारा नियोजित किसी भी कर्मचारी को मुआवजा और लाभ का भुगतान नहीं करेगा, चाहे वह देय हो या उन दरों से कम अनुकूल दरों पर हो जिस पर उसके द्वारा उस कंपनी या किसी कार्य में विपरीत लिंग के कर्मचारी को भुगतान किया जाता है। 
  • भर्ती के दौरान लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। 
  • प्रत्येक संस्था में सलाहकार एवं जांच समिति का गठन। यह संगठन यह सुनिश्चित करेगा कि किसी भी लिंग के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो। यह समिति यह भी सुनिश्चित करेगी कि राज्य और स्थानीय सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन सीमा का संगठन में तर्कसंगत रूप से पालन किया जाए। 
  • श्रमिक एवं दैनिक वेतन भोगी संगठनों पर कड़ी निगरानी रखने तथा ऐसे संगठनों पर निरंतर समीक्षा बनाए रखने के लिए एक सरकारी निकाय का गठन किया जाना चाहिए। 
  • प्रत्येक कर्मचारी को समान कार्य के लिए समान वेतन पाने के उसके अधिकारों के बारे में समझाया जाना चाहिए और यदि उसके संगठन में इसका पालन नहीं किया जा रहा है तो उपलब्ध उपचारों के बारे में बताया जाना चाहिए। 

निष्कर्ष

विधायिकाओं, कार्यपालिकाओं और न्यायपालिकाओं के विभिन्न प्रयासों के बावजूद, भारत में समान काम के लिए असमान वेतन की समस्या अभी भी मौजूद है। विधायिका ने इस मुद्दे से निपटने के लिए विभिन्न कानून बनाए हैं और पूरे भारत में कई अदालतों के फैसलों के कारण समान काम के लिए समान वेतन को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता मिली है। इन सभी ने मिलकर स्थिति में काफी सुधार किया है। कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव में कमी के संकेत और रिपोर्टें हैं क्योंकि कर्मचारी अब खुल कर अपने अधिकारों के लिए बोल रहे हैं। इससे सरकार पर कार्यस्थल पर कानून और व्यवस्था को सुदृढ़ (रीइनफोर्स) करने का भारी दबाव पड़ रहा है।

यह महत्वपूर्ण है कि श्रमिक वर्ग को भी समान वेतन के उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने के उपाय लगातार किये जाते रहें। ऐसे समूह बनाने के उपाय किए जाने चाहिए जो ग्रामीण क्षेत्रों में जाएंगे और इन क्षेत्रों की महिलाओं को यह बताएंगे कि उन्हें भी उनके समान काम करने वाले पुरुष कर्मचारी के समान वेतन पाने का अधिकार है। उन्हें विभिन्न अधिनियमों के तहत उपलब्ध उपायों और उन संस्थानों से परिचित कराया जाना चाहिए जिनसे वे भेदभाव का सामना करने पर संपर्क कर सकते हैं। संगठनों के पास एक भेदभाव-विरोधी नीति होनी चाहिए, जिसमें समान कार्य के लिए वेतन में समानता के प्रति कंपनी की प्रतिबद्धता को रेखांकित किया जाना चाहिए, और इसके विपरीत किसी भी शिकायत के समाधान के लिए एक तंत्र निर्धारित किया जाना चाहिए। 

 

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