छद्मता का सिद्धांत

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Constitution of India

यह लेख उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद से संबद्ध पेंडेकंती लॉ कॉलेज में कानून की छात्रा Sai Shriya Potla द्वारा लिखा गया है। यह लेख छद्मता (कलरेबल लेजिस्लेशन) के सिद्धांत के विकास और संवैधानिक प्रावधानों पर प्रकाश डालते हुए और छद्मता के सिद्धांत और विभिन्न मामलो की सीमाओं को समझाते हुए, छद्मता के सिद्धांत पर विस्तार से बात करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

संघवाद (फेडरलिज्म) भारतीय संविधान का आधारभूत संरचना (बेसिक स्ट्रक्चर) है। संविधान से प्राप्त संप्रभु (सोवरेन) सत्ता सरकार के दो स्तरों: केंद्र और राज्यों के बीच वितरित की जाती है। यह कदम बेहतर प्रशासन को बढ़ावा देता है और राष्ट्र में विकास को भी शामिल करता है। कभी-कभी, एक सरकारी निकाय ऐसे कानून बनाकर दूसरे सरकारी निकाय के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) का अतिक्रमण करने का प्रयास करता है जो उनके शासन के दायरे में नहीं है या ऐसे कानून पारित करके जो उन्हें दूसरे शासन के क्षेत्र से कानून बनाने का अधिकार देते हैं। यह संघवाद के मूल उद्देश्य को विफल कर देता है, और एक सरकारी प्राधिकरण के अधिक शक्तिशाली होने और अपने निर्णयों को दूसरे सरकारी प्राधिकरण पर थोपने का जोखिम हमेशा बना रहता है। 

छद्मता का सिद्धांत देश में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप द्वारा सरकार के विधायी अधिकार के दुरुपयोग को हतोत्साहित करता है। छद्मता के सिद्धांत का भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है; हालाँकि, न्यायपालिका ने हमारे देश की संघीय प्रकृति की रक्षा के लिए अपने निर्णयों के माध्यम से इस सिद्धांत की व्याख्या की है। जब भी केंद्र या कोई राज्य अपने विधायी क्षेत्र को असंवैधानिक रूप से विस्तारित करने का प्रयास करता है, तो सिद्धांत न्यायपालिका को उन्हें ऐसा करने से रोकने का अधिकार प्रदान करता है। 

निम्नलिखित लेख छद्मता के सिद्धांत की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डालता है और आगे छद्मता के सिद्धांत के संवैधानिक प्रावधानों, महत्व और सीमाओं का व्यापक विवरण प्रदान करता है। 

छद्मता का सिद्धांत

छद्मता का सिद्धांत एक कानूनी सिद्धांत है जिसका उद्देश्य सरकार के विधायी अधिकार के अत्यधिक और असंवैधानिक उपयोग को रोकना है। यह सिद्धांत लैटिन कहावत “क्वांडो एलिक्विड प्रोहिबेटर एक्स डायरेक्टो, प्रोहिबेटर एट पर ओब्लिकम” से लिया गया है, जिसका अर्थ है कि जो चीजें सीधे नहीं की जा सकतीं उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं किया जाना चाहिए। ब्लैक लॉ डिक्शनरी छद्मता जिसे अंग्रेजी में ‘कलरेबल’ कहा जाता है को इस प्रकार परिभाषित करती है:

  1. सत्य, वैध या सही प्रतीत होना।
  2. धोखा देने का इरादा; नकली।
  3. रूप, भेष या आभास।

शाब्दिक अर्थ में, छद्मता के सिद्धांत का अर्थ है कि सरकार अधिकार होने की आड़ में कानून बना रही है, भले ही उसके पास ऐसा करने के लिए कोई सक्षम अधिकार न हो।

न्यायपालिका के पास सरकार को अपनी शक्ति के दुरुपयोग को रोकने का अधिकार है। जब सरकार अपने निर्धारित अधिकार क्षेत्र के बाहर कानून बनाकर अपने विधायी अधिकार का दुरुपयोग करती है, तो न्यायपालिका के पास उनकी समीक्षा करने और असंवैधानिक पाए जाने पर उन्हें रद्द करने की शक्ति होती है। 

छद्मता के सिद्धांत को “संविधान पर धोखाधड़ी” के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि सरकारी प्राधिकरण की विधायिका संविधान में उल्लिखित प्रावधानों के अनुसार कानून नहीं बनाती है। विधायी प्राधिकरण यह भ्रम पैदा करता है कि वह संवैधानिक प्रावधानों के अनुपालन में कार्य कर रहा है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता है। 

आरएस जोशी बनाम अजीत मिल्स (1977) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सत्ता के छद्मता प्रयोग, विधायी शक्ति पर धोखाधड़ी और संविधान पर धोखाधड़ी जैसे शब्द निर्धारित किए, जिसका अर्थ है कि विधायिका एक विशेष कानून बनाने में अक्षम है। 

इस सिद्धांत के अनुसार, कानून की वैधता की पहचान विधायिका की किसी विशेष कानून को लागू करने की क्षमता के आधार पर की जाती है, न कि विधायिका के उद्देश्यों या इरादों के आधार पर। न्यायपालिका, यह निर्धारित करते समय कि कोई कानून छद्मता है या नहीं, विधायिका के इरादों को ध्यान में नहीं रखता है; यह केवल इस बात पर विचार करता है कि विशेष कानून सरकारी प्राधिकरण के अधिकार क्षेत्र में है या नहीं।

भारत में छद्मता के सिद्धांत का विकास

छद्मता का सिद्धांत भारत में ब्रिटिश प्रशासन द्वारा पेश किया गया था। हालाँकि अंग्रेजों ने अपने शासन के शुरुआती दिनों में सरकार का एकात्मक (यूनिटरी) स्वरूप अपनाया, लेकिन बाद में वे सरकार के संघीय तरीके में बदल गए। ब्रिटिश शासन के दौरान, सत्ता केंद्र और प्रांतीय इकाइयों के बीच वितरित की गई थी। छद्मता के सिद्धांत का उपयोग देश में विभिन्न सरकारी निकायों के अधिकार को निर्धारित करने और उनके बीच शक्ति संतुलन सुनिश्चित करने के लिए किया गया था। इस सिद्धांत को ब्रिटिश सरकार ने कनाडा और ऑस्ट्रेलिया से अपनाया था। 

  • कनाडा: छद्मता का सिद्धांत कनाडा के संविधान का एक महत्वपूर्ण घटक है। ब्रिटिश साउथ अमेरिका अधिनियम, 1867 ने नोवा स्कोटिया और न्यू ब्रंसविक के क्षेत्रों को शामिल करके कनाडा में एक संघीय सरकार की स्थापना की। अधिनियम की धारा 91-95 केंद्र सरकार और प्रांतीय इकाइयों के बीच शक्ति के वितरण से संबंधित है। बाद में, संविधान अधिनियम, 1982 में सरकारी निकायों के बीच शक्तियों के वितरण के लिए भी प्रावधान थे। इन संवैधानिक प्रावधानों से छद्मता के सिद्धांत का विकास हुआ। इस सिद्धांत का उपयोग सरकारी निकायों के विधायी अधिकार की निगरानी के लिए किया जाता है।
  • ऑस्ट्रेलिया: ऑस्ट्रेलिया ने न्यू साउथ वेल्स, तस्मानिया, क्वींसलैंड, विक्टोरिया, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया और दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया के क्षेत्रों को शामिल करके ऑस्ट्रेलिया संविधान के राष्ट्रमंडल (कॉमनवेल्थ) अधिनियम, 1901 के अधिनियमन के साथ एक संघीय सरकार को अपनाया। ऑस्ट्रेलिया में दो स्तरीय सरकार प्रणाली शामिल है- राष्ट्रमंडल सरकार या संघीय सरकार और राज्य सरकारें। ऑस्ट्रेलियाई संविधान की धारा 51 में राष्ट्रमंडल सरकार की विधायी शक्तियाँ शामिल हैं और राज्यों को धारा 51 में असूचीबद्ध विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है। इन्हें अवशिष्ट शक्तियों के रूप में जाना जाता है। इनके अलावा ऑस्ट्रेलियाई संविधान में एक समवर्ती (कंकररेंट) सूची भी शामिल है जहां राष्ट्रमंडल सरकार और राज्य सरकार दोनों कानून बना सकती हैं। छद्मता का सिद्धांत इन संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर न्यायपालिका द्वारा विकसित किया गया था। इस सिद्धांत का उपयोग सरकारी निकायों द्वारा विधायी शक्तियों के वैध अभ्यास को निर्धारित करने के लिए किया गया था।

स्वतंत्रता के बाद भी, छद्मता कानून का सिद्धांत भारतीय संविधान का अभिन्न अंग बना रहा। न्यायपालिका ने सरकारी निकायों के विधायी अधिकार को विनियमित करने के लिए अपने निर्णयों के माध्यम से छद्मता के सिद्धांत को और विकसित किया।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 246

भारतीय संविधान में छद्मता के सिद्धांत का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है। हालाँकि, अनुच्छेद 246 और अनुच्छेद 246A केंद्र और राज्यों के विधायी अधिकार को रेखांकित करता है और न्यायपालिका के पास किसी भी कानून को असंवैधानिक घोषित करने की शक्ति है यदि विधायिका अपने अधिकार से अधिक गया है।

संविधान का अनुच्छेद 246 भारत की संघीय प्रकृति की चर्चा करता है। अनुच्छेद 246 केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति का वितरण करता है और विभिन्न विषयों पर कानून बनाने के लिए उनके अधिकार को निर्दिष्ट करता है। सातवीं अनुसूची केंद्र और राज्यों के बीच विधायी अधिकार को तीन अलग-अलग सूचियों में विभाजित करती है ताकि उन्हें एक-दूसरे के विधायी क्षेत्र में हस्तक्षेप करने से रोका जा सके। 

विषयों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया है: 

  1. संघ सूची;
  2. राज्य सूची;
  3. समवर्ती (कंकरेंट) सूची

केंद्र और राज्यों के बीच विवाद से बचने के लिए प्रत्येक सूची में विषयों को सावधानीपूर्वक विभाजित किया गया है। संविधान कुशल शासन सुनिश्चित करने के लिए केंद्र और राज्यों को अपने अधिकार क्षेत्र के दायरे में कानून बनाने की पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करता है।   

संघ सूची

संघ सूची में राष्ट्रीय महत्व के मामले शामिल हैं और केंद्र सरकार को पूरे देश या किसी क्षेत्र के लिए कानून बनाने का विशेष अधिकार है। संघ सूची में उल्लिखित विषयों के संबंध में कानून बनाने की शक्ति केंद्र के पास है। संघ सूची में बाह्य (एक्सटर्नल) सुरक्षा, रक्षा, संचार (कम्युनिकेशन), व्यापार आदि जैसे 97 विषय शामिल हैं।

केंद्र सरकार को देश में बाहरी सुरक्षा और आंतरिक शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इसके संबंध में, केंद्र सरकार सशस्त्र बलों को विकसित करने और हथियारों और गोला-बारूद के निर्माण के लिए धन जुटा सकती है और युद्ध उद्योगों (वारफेयर इंडस्ट्रीज) पर आवश्यक कानून बना सकती है।

केंद्र सरकार को हमारे देश के विभिन्न हिस्सों और अन्य देशों के बीच कनेक्टिविटी में सुधार के लिए परिवहन पर कानून बनाने का अधिकार है। इनमें घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परिवहन, बुनियादी ढांचे और संचार की स्थापना के लिए सड़कों, रेलवे, राष्ट्रीय जलमार्ग, वायुमार्ग, विमान, बंदरगाह और प्रकाशस्तंभों (लाइट हाउस) का निर्माण और प्रबंधन शामिल है।

संघ सरकार कूटनीति में भी संलग्न रहती है और देश के सर्वोत्तम हित के लिए विदेशी संबंध बनाए रखती है। संघ सरकार अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और विदेशी देशों में सम्मेलनों और व्यापार वार्ताओं में भारत का प्रतिनिधित्व करती है।

इनके अलावा, केंद्र सरकार को मुद्रा, सिक्का, विदेशी मुद्रा, विदेशी ऋण, भारतीय रिजर्व बैंक, अंतर-राज्य संचार, व्यापार, निगमन (इनकॉरपोरशन), निगमों के विनियमन और समापन, बैंकिंग, स्टॉक एक्सचेंज, वायदा विनिमय (फ्यूचर एक्सचेंज), पेटेंट, कॉपीराइट, बीमा, ट्रेडमार्क और अंतर-राज्य विवाद पर कानून बनाने का अधिकार है।  

राज्य सूची

राज्य सूची में वे विषय शामिल हैं जो राज्य के प्रभावी कामकाज और प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण हैं। भारत में प्रत्येक राज्य के पास, संबंधित राज्य के लिए उपयुक्त राज्य सूची के विषयों से संबंधित कानून बनाने की विशेष शक्ति है। राज्य सूची में 61 विषय शामिल हैं। प्रारंभ में, राज्य सूची में 66 विषय थे, लेकिन भारतीय संविधान के 42वें संशोधन के बाद, शिक्षा, वन, जंगली जानवरों और पक्षियों की सुरक्षा, वजन और माप, और न्याय प्रशासन से संबंधित पांच विषय शामिल किए गए, जिनमें संविधान और सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को छोड़कर सभी न्यायालयों के संगठन को समवर्ती सूची में स्थानांतरित (ट्रांसफर) कर दिया गया। 

राज्य सरकार के पास अपने-अपने राज्यों में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक कानून लागू करने की शक्ति है। राज्य सरकार राज्य में पुलिस बलों को नियंत्रित करती है। पुलिस को राज्य के भीतर शांति और सद्भाव बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। सरकार को राज्य की आवश्यकताओं के अनुपालन में राज्य पुलिस के संबंध में कानून और नियम बनाने का अधिकार है। 

राज्य सरकार, राज्य की सामाजिक-आर्थिक मांगों के अनुसार, बेरोजगार लोगों के लिए सार्वजनिक अस्पतालों, औषधालयों, पुस्तकालयों, संग्रहालयों और प्रावधानों की सुविधा प्रदान कर सकती है।

स्थानीय स्वशासन (सेल्फ गवर्नमेंट) या ग्राम प्रशासन के उचित कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए नगर निगम, सुधार ट्रस्ट, जिला बोर्ड, खनन (माइनिंग) निपटान प्राधिकरण और अन्य स्थानीय प्राधिकरण राज्य नियंत्रण के अधीन हैं।

इनके अलावा, राज्य सूची में जेल, सुधारगृह (रिफॉर्मेटरीज), तीर्थयात्रा, शराब का निर्माण, कब्रिस्तान, कृषि, कृषि अनुसंधान (रिसर्च) और शिक्षा, सिंचाई, भूमि राजस्व (रेनेव्यू), कृषि उपज पर कर, भवन और बिजली की बिक्री या खपत भी शामिल हैं।

समवर्ती सूची 

समवर्ती सूची में ऐसे विषय शामिल हैं जो केंद्र और राज्य दोनों के लिए रुचिकर हैं। इस सूची में उल्लिखित विषयों से संबंधित कानून बनाने की विशेष शक्ति केंद्र और राज्य दोनों के पास है। हालाँकि, यदि केंद्र और राज्य दोनों सरकारें एक ही विषय पर कानून बनाती हैं, तो केंद्र सरकार के कानून को प्राथमिकता दी जाएगी। समवर्ती सूची का प्राथमिक उद्देश्य कानूनों, सामाजिक परंपराओं और संघीय प्रयोग की विविधता को बढ़ावा देना है। समवर्ती सूची में कुल 52 विषय शामिल हैं।

समवर्ती सूची के विषयों में आपराधिक कानून और प्रक्रिया, सिविल कानून, निवारक निरोध (प्रिवेंटिव डिटेंशन), विवाह और तलाक, गोद लेना, वसीयत, निर्वसीयत (इंटेस्टेसी) और उत्तराधिकार, संपत्ति का हस्तांतरण, विलेख (डीड) का पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन), राहत, अपने मूल स्थान से विस्थापित (डिस्प्लेस्ड) लोगों का निवास, ड्रग्स और जहर, धर्मार्थ (चेरिटेबल) संस्थान, धार्मिक बंदोबस्ती (एंडोमेंट) और संस्थान, समाचार पत्र, किताबें, प्रिंटिंग प्रेस, अनुयोज्य (एक्शनेबल) दावे, न्यास (ट्रस्ट) और न्यास कर्ता (ट्रस्टी), दिवालियापन (इंसोलवेंसी) और शोधाक्षम (बैंकरप्सी) और साझेदारी, एजेंसी और गाड़ी के अनुबंध सहित एजेंसी भी शामिल है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 246A

अनुच्छेद 246A को 2016 में 101वे संशोधन के माध्यम से संविधान में लागू किया गया था। अनुच्छेद 246A केंद्र और राज्यों को एक साथ कर लगाने और एकत्र करने की शक्ति प्रदान करता है। इसके परिणामस्वरूप भारत में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की शुरुआत हुई। 

जीएसटी से पहले की अवधि में, अप्रत्यक्ष करों के संग्रह के लिए मूल्य वर्धित कर (वैट) लागू किया गया था। इस प्रणाली में कच्चे माल के निर्माण से लेकर तैयार माल तक, उत्पादन के हर चरण पर करों का भुगतान करना आवश्यक था। हालाँकि, इस प्रणाली को बहुत कम सफलता मिली। राजकोषीय (फिसकल) उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) पर टास्क फोर्स की रिपोर्ट ने सभी राज्य सरकारों के एकीकरण के साथ वैट सिद्धांत पर आधारित एक व्यापक जीएसटी नीति की सिफारिश की।

जीएसटी प्रणाली 2016 में शुरू की गई थी, और यह केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लगाए गए कई अप्रत्यक्ष करों को हटाने के लिए लागू की गई एक एकल कराधान नीति है। अनुच्छेद 246A में उल्लेख है कि प्रत्येक राज्य के विधानमंडल (लेजिस्लेचर) के पास संघ या ऐसे राज्य द्वारा लगाए गए माल और सेवा करों के संबंध में कानून बनाने की शक्ति होगी। इसमें यह भी कहा गया है कि केंद्र सरकार के पास अंतर-राज्यीय व्यापार के दौरान कर लगाने और एकत्र करने की विशेष शक्ति होगी।

छद्मता के सिद्धांत का महत्व

  • छद्मता का सिद्धांत समय पर न्यायिक हस्तक्षेप के माध्यम से सरकार के विधायी अधिकार के दुरुपयोग को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • जब भी कोई सरकारी प्राधिकरण अनधिकृत तरीके से बाकियों से अधिक शक्तिशाली बनने का प्रयास करता है, तो न्यायपालिका इस सिद्धांत की सहायता से देश में संतुलन बनाए रखती है।
  • छद्मता का सिद्धांत न्यायपालिका को उसके अधिकार क्षेत्र के अनुसार कानून की योग्यता की जांच करने की शक्ति प्रदान करता है। यदि उन्हें यह असंवैधानिक लगता है तो अदालतों के पास उन्हें रद्द करने की भी शक्ति है।
  • जब विधायिका प्रमुख शक्ति बन जाती है, तो वह अपने निर्णय सरकार के अन्य अंगों पर थोप सकती है। यह शक्तियों के पृथक्करण (सेपरेशन) की अवधारणा के लिए एक गंभीर ख़तरा बन जाता है। छद्मता का सिद्धांत एक निकाय द्वारा अधिकार के इस दुरुपयोग को रोकता है।
  • यह विधायिका को अधिक सतर्क तरीके से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
  • यह सरकार को देश के प्रति उसकी जिम्मेदारियों की याद दिलाकर और लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं को बढ़ावा देकर लोकतंत्र की भावना को संरक्षित करता है।

तत्व और सार (पिथ एंड सब्सटेंस) का सिद्धांत

तत्व और सार के सिद्धांत का उद्देश्य किसी कानून के वास्तविक सार को निर्धारित करना है। शब्द “तत्व” “वास्तविक प्रकृति” या “किसी चीज़ के सार” को दर्शाता है और शब्द “सार” “किसी चीज़ के सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा” को दर्शाता है। जब विधायिका किसी अन्य विधायिका के अधिकार का अतिक्रमण करके कोई कानून बनाती है, तो ऐसा कानून शून्य या अधिकारातीत माना जाता है। ऐसी परिस्थितियों में, तत्व और सार का सिद्धांत यह जांच करता है कि क्या विधायिका द्वारा आकस्मिक या महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है, और यदि विधायिका द्वारा थोड़ा सा भी हस्तक्षेप है, तो सिद्धांत ऐसे कानून को वैध होने के लिए निर्धारित करता है।

छद्मता के सिद्धांत का उद्देश्य सरकार के विधायी अधिकार के अत्यधिक उपयोग को रोकना है, जबकि तत्व और सार का सिद्धांत कानून की वास्तविक प्रकृति से संबंधित है। छद्मता का सिद्धांत केवल यह जांचता है कि क्या कानून सरकार के विधायी क्षेत्र के भीतर है और इसे अधिकारातीत (अल्ट्रा वायर्स) मानकर खारिज कर देता है, लेकिन तत्व और सार का सिद्धांत न्यायिक समीक्षा में विधायी शक्तियों के उल्लंघन की मात्रा पर विचार करता है। 

तत्व और सार का सिद्धांत कठोर संघीय ढांचे को आसान बनाता है। यह सिद्धांत विधायिका को विधायी शक्ति पर थोड़े से भी अतिक्रमण के लिए किसी कानून को अमान्य घोषित करने की अनुमति न देकर विधायिका को उसकी शक्ति बनाए रखने में सहायता करता है।

छद्मता का सिद्धांत और तत्व और सार का सिद्धांत हमारे देश के संघीय ढांचे को बनाए रखने और विधायी निकायों की शक्तियों की रक्षा करने के लिए भारत के संविधान से अपना अधिकार प्राप्त करते हैं। जब भी विधायिका अपने अधिकार से आगे निकल जाती है तो अदालतें किसी मामले की परिस्थितियों के आधार पर किसी एक सिद्धांत को लागू करने के विवेक पर निर्भर होती हैं। 

प्रफुल्ल कुमार मुखर्जी बनाम बैंक ऑफ कॉमर्स (1947) के मामले में, बंगाल साहूकार अधिनियम, 1940 की वैधता, को बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी। यह अधिनियम धन उधार को नियंत्रित करने के लिए पेश किया गया था, जो राज्य सूची से संबंधित है; हालाँकि, अधिनियम के कुछ प्रावधानों ने वचन पत्र से संबंधित मामलों को नियंत्रित किया, जो संघ सूची के अंतर्गत आते हैं। यह तर्क दिया गया कि यह अधिनियम केंद्र सरकार से संबंधित विषय वस्तु का अतिक्रमण करता है। न्यायालय ने तत्व और सार के सिद्धांत को लागू करते हुए माना कि विधायिकाओं की शक्तियों के बीच स्पष्ट अंतर करना संभव नहीं है, और शक्तियां अतिव्यापी (ओवरलैप) होने के लिए बाध्य हैं। इस प्रकार न्यायालय ने निर्धारित किया कि बंगाल साहूकार अधिनियम की जांच केवल राज्य की विधायी क्षमता को देखने के बजाय इसकी वास्तविक प्रकृति और चरित्र के अनुसार की जानी चाहिए। न्यायालय ने तत्व और सार की अवधारणा को लागू करके अधिनियम को वैध माना।

छद्मता के सिद्धांत की सीमाएँ

जबकि छद्मता के सिद्धांत को सरकार द्वारा विधायी शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए प्राथमिक सुरक्षा उपायों में से एक माना जाता है, यह कुछ सीमाओं से भी बाधित है।

अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) विधान

अधीनस्थ विधान मौजूदा कानून की शक्ति के तहत पारित कानून है, न कि सीधे सरकार के विधायी निकाय द्वारा पारित  है। अधीनस्थ विधान को प्रत्यायोजित (डेलिगेटेड) विधान के रूप में भी जाना जाता है। चूंकि अधीनस्थ कानून सक्षम प्राथमिक कानून के प्रत्यायोजित प्राधिकारी द्वारा अधिनियमित किया जाता है, ऐसे कानूनों की वैधता की हमेशा एक धारणा होती है। सबूत का भार कानून की वैधता को चुनौती देने वाले व्यक्ति पर है।

राम कृष्ण डालमिया बनाम जस्टिस एसआर तेंडोलकर (1958) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “किसी अधिनियम की संवैधानिकता के पक्ष में एक धारणा है और यह बोझ उस पर है जो यह दिखाने के लिए उस पर हमला करता है कि इस संवैधानिक गारंटी का स्पष्ट उल्लंघन हुआ है।” इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के एक अन्य फैसले, महंत मोती दास बनाम एसपी साही (1959) में बरकरार रखा गया था।

इरादा या मकसद 

छद्मता का सिद्धांत केवल कानून पारित करने के लिए विधायिका की योग्यता की जांच करता है; इस सिद्धांत का संबंध कानून बनाने के सरकार के दुर्भावनापूर्ण या वास्तविक इरादों और उद्देश्यों से नहीं है। न्यायपालिका केवल इस बात पर कानून की समीक्षा करती है कि यह सक्षम अधिकार क्षेत्र के भीतर है या नहीं और कानून की प्रामाणिकता या अच्छे इरादों की जांच करने में विफल रहती है। कभी-कभी, एक अच्छा कानून, जनता के हितों की सेवा करने की क्षमता रखने के बावजूद, खारिज कर दिया जाता है क्योंकि यह सक्षम अधिकार क्षेत्र में नहीं है।

न्यायमूर्ति बीके मुखर्जी ने केसी गजपति नारायण देव बनाम उड़ीसा राज्य (1954) के फैसले में कहा कि “यह सवाल कि क्या कोई कानून छद्मता है, यह कानून पारित करने में विधायिका के मकसद या सद्भावना पर नहीं बल्कि योग्यता पर निर्भर करता है।” उस विशेष कानून को पारित करने के लिए ज़िम्मेदारी विधायिका की है, और ऐसे मामलों में अदालतों को यह निर्धारित करना है कि क्या विधायिका ने अपनी शक्तियों की सीमा के भीतर कार्य करने का दावा किया है, क्या वास्तव में उन शक्तियों का उल्लंघन किया है, और फिर इस उल्लघंन पर पर्दा डाला है जो प्रतीत होता है और उचित परीक्षण करने पर, वह मात्र दिखावा या छिपाव है। छद्मता का पूरा सिद्धांत इस कहावत पर आधारित है कि आप जो काम सीधे नहीं कर सकते, वह आप अप्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकते।

संवैधानिक सीमा के अंतर्गत ही लागू होता है

छद्मता का सिद्धांत तब लागू होता है जब विधायिका संविधान में उल्लिखित अपने अधिकार से अधिक जाती है। हालाँकि, यह सिद्धांत तब अप्रभावी साबित होता है जब विधायिका किसी संवैधानिक सीमा से बाधित हो जाती है। छद्मता का सिद्धांत वहां लागू नहीं होता जहां विधायिका किसी सीमा से प्रतिबंधित नहीं है।

ऐतिहासिक मामले 

बिहार राज्य बनाम महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह (1952)

बिहार राज्य बनाम महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह (1952) छद्मता के सिद्धांत में एक ऐतिहासिक निर्णय है। 

मामले के तथ्य

स्वतंत्रता के बाद, कई राज्य सरकारों ने जमींदारी प्रथा और कृषकों और राज्य के बीच बिचौलियों के उन्मूलन (एबोलिशन) पर कानून पारित किया। बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950, मध्य प्रदेश स्वामित्व अधिकार उन्मूलन अधिनियम, 1950 और उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 अपने-अपने राज्यों में समान दृष्टिकोण से लागू किए गए थे। हालाँकि, जमींदारों ने अधिनियम की वैधता को चुनौती देते हुए अपने राज्यों के उच्च न्यायालयों में मामला दायर किया। बिहार उच्च न्यायालय ने बिहार भूमि सुधार अधिनियम को संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत अवैध घोषित कर दिया जबकि अन्य दो अधिनियमों को वैध माना गया। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। इस अवधि के दौरान, भारतीय संविधान में प्रथम संवैधानिक संशोधन के माध्यम से नौवीं अनुसूची को जोड़ा गया। नौवीं अनुसूची के तहत विषयों को न्यायिक समीक्षा से छूट प्रदान की गई थी, और बिहार भूमि सुधार अधिनियम को उसी वर्ष अनुसूची में रखा गया था। इस संबंध में अनुच्छेद 31A और 31B तदनुसार पारित किये गये। इस संशोधन ने जमींदारों से संविधान के भाग III के उल्लंघन पर कानून पर हमला करने का अवसर छीन लिया।

हालाँकि, जमींदारों ने समवर्ती सूची में उल्लिखित सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए संपत्ति के अधिग्रहण के लिए मुआवजे के सिद्धांतों पर विधायी अधिकार की कमी के आधार पर अपने तर्क प्रस्तुत किए। उन्होंने तर्क दिया कि सरकार ने आवश्यक प्रावधानों का पालन न करके और बाजार मूल्य की तुलना में कम या नगण्य (नेगलिजिबल) मुआवजे की पेशकश करके संविधान के साथ धोखाधड़ी की है।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसलों को भी पीड़ित मालिकों ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी, जिसमें कहा गया था कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों द्वारा अधिग्रहित (एक्वायर) की जाने वाली कुछ संपत्तियां भारतीय रियासतों के पूर्व शासकों की थीं। उन्होंने तर्क दिया कि यह संपत्ति भारत सरकार और शासकों के बीच “विलय के वाचा (कॉवेनेंट ऑफ मर्जर)” के अधीन थी ताकि वे संपत्ति को उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों में विलय कर सकें। उन्होंने आगे तर्क दिया कि विलय के साधन के तहत उन्हें संपत्ति के “व्यक्तिगत अधिकारों” की गारंटी दी गई थी और संविधान के  अनुच्छेद 362 के अनुसार उन्हें उनके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता है।

मुद्दे

  1. क्या बिहार भूमि सुधार अधिनियम 1950 एक छद्मता है?
  2. क्या मध्य प्रदेश स्वामित्व अधिकार उन्मूलन अधिनियम, 1950 और उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 संवैधानिक हैं?

अवलोकन

सर्वोच्च न्यायालय ने तर्क दिया कि सरकार द्वारा जमींदारों से भूमि का अधिग्रहण समवर्ती सूची की प्रविष्टि 42 में उल्लिखित “सार्वजनिक उद्देश्यों” के अनुसार नहीं है। सार्वजनिक उद्देश्य शब्द को अस्पष्ट रूप से जनता के लाभ के लिए किसी भी चीज़ के रूप में परिभाषित किया गया है। न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 31(2) में कहा गया है कि भूमि का अधिग्रहण केवल सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है, जिसमें मकान मालिक को पर्याप्त मुआवजा दिया जाएगा। यद्यपि अनुच्छेद 31(4) और 31B, अनुच्छेद 31(2) के अनुसार लोगों को एक अधिनियम को चुनौती देने से रोकता है, न्यायालय ने माना कि न्यायपालिका समीक्षा (रिव्यू) के लिए खुली होगी। न्यायालय ने आगे कहा कि संवैधानिक प्रावधानों का पालन करने में विफलता प्रत्यक्ष या गुप्त हो सकती है। गैर-अनुपालन को परिवर्तित करने में, विधायिका ऐसा न करते हुए अपनी शक्ति के भीतर कार्य करने का दिखावा करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इस अधिनियम ने पर्याप्त मुआवज़ा प्रदान न करके संविधान के साथ धोखाधड़ी की है।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की संपत्तियों के मामले में, न्यायालय ने पाया कि मालिकों के अधिकारों का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है क्योंकि संपत्ति सरकार द्वारा “निजी संपत्ति” के रूप में अर्जित की गई थी और इससे अधिक कुछ नहीं।

निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि पूरे अधिनियम को अमान्य नहीं ठहराया जा सकता। न्यायालय ने बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950 की धारा 4(b) और 23(f) को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जबकि शेष अधिनियम वैध बना हुआ है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश अधिनियम से संबंधित विवादों को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।

एमआर बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1962)

एमआर बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1962) भारत में आरक्षण प्रणाली पर एक ऐतिहासिक निर्णय है। 

मामले के तथ्य

मैसूर राज्य ने एक आदेश पारित किया जिसमें ब्राह्मण समुदाय को छोड़कर सभी समुदायों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों में शामिल किया गया और सभी शैक्षणिक संस्थानों में 75% सीटें आरक्षित की गईं। बाद में, राज्य ने एक और आदेश पारित किया जिसने पिछले सभी आदेशों को हटा दिया। इस आदेश के तहत, राज्य ने दो श्रेणियां बनाईं, यानी पिछड़ा वर्ग और अधिक पिछड़ा वर्ग। सभी इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सहित उनके लिए 68% सीटें आरक्षित की गईं, जबकि अनारक्षित छात्रों के लिए केवल 33% सीटें छोड़ी गईं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह आदेश संविधान के  अनुच्छेद 15(4) के साथ धोखाधड़ी है।

मुद्दे

  1. क्या आरक्षण आदेश अनुच्छेद 15(4) के संवैधानिक दायरे में है?
  2. क्या पिछड़े वर्ग के लिए 68% आरक्षण उचित है?

अवलोकन

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के मानदंड निर्धारित करने के लिए जाति को एकमात्र आधार के रूप में उपयोग करने का हकदार है। न्यायालय ने कहा कि जाति यह स्थापित करने के लिए अप्रासंगिक है कि नागरिकों का एक वर्ग सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा है या नहीं। न्यायालय ने कहा कि आदेश के तहत किया गया आरक्षण अत्यधिक असंगत है और संविधान के अनुच्छेद 15(4) के प्रावधानों के तहत इसकी अनुमति नहीं है।

निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 15(4) द्वारा प्रदत्त शक्तियों के साथ धोखाधड़ी है। न्यायालय ने यह भी फैसला सुनाया कि सार्वजनिक हित में आरक्षण 50% से अधिक नहीं होना चाहिए।

भारतीय पशु कल्याण बोर्ड बनाम भारत संघ (2023)

भारतीय पशु कल्याण बोर्ड बनाम भारत संघ (2023) तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों में प्रचलित प्रसिद्ध पारंपरिक बैल दौड़, जिसे “जल्लीकट्टू” और “बैलगाड़ी दौड़” के नाम से जाना जाता है, पर सर्वोच्च न्यायालय का हालिया फैसला है।

मामले के तथ्य

2014 में, सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक में प्रचलित पारंपरिक बैल खेल को असंवैधानिक ठहराया और कहा कि यह खेल पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के प्रावधानों का उल्लंघन है। न्यायालय ने जल्लीकट्टू के खेल को विनियमित करने वाले तमिलनाडु जल्लीकट्टू विनियमन अधिनियम, 2009 को भी अमान्य करार दिया। हालाँकि, जल्लीकट्टू में भाग लेने के लिए बैलों को प्रशिक्षण की अनुमति देते हुए एक अपवाद बनाया गया था। तमिलनाडु सरकार ने पशु क्रूरता निवारण (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम, 2017 को पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 में संशोधन के रूप में पारित किया। पशुओं के प्रति क्रूरता निवारण (महाराष्ट्र संशोधन) अधिनियम, 2017, और संबंधित राज्यों द्वारा पशु क्रूरता निवारण (कर्नाटक दूसरा संशोधन) अधिनियम, 2017 को सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुरूप बनाए रखने के लिए अधिनियमित किया गया था। याचिकाकर्ताओं का दावा है कि संशोधन अधिनियम की खामियों को दूर करने में विफल है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि चूंकि राज्य सरकार के पास सातवीं अनुसूची की सूची II के माध्यम से कानून बनाने का अधिकार नहीं है, इसलिए वे सातवीं अनुसूची की सूची III के माध्यम से अधिनियमन लेकर आए, जबकि उनके पास सूची III के माध्यम से संशोधन पारित करने का भी अधिकार नहीं था। 

मुद्दे

  1. क्या न्यायपालिका के पास लोगों द्वारा इसका पालन न करने पर कानून को अमान्य करने का अधिकार है?
  2. क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पेश किए गए विवादित अधिनियम छद्मता हैं?

अवलोकन

सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि संबंधित राज्य विधानसभाओं द्वारा लाए गए संशोधन अधिनियमों ने संशोधन पूर्व अवधि की तुलना में जानवरों पर होने वाले दर्द और क्रूरता को काफी हद तक कम कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि न्यायपालिका अधिनियम के अनुपालन में विफलता की धारणा पर कानून को रद्द नहीं कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि 1960 का अधिनियम और संशोधन सूची III में उल्लिखित जानवरों के प्रति क्रूरता की रोकथाम से संबंधित है। चूँकि इस विषय से संबंधित किसी भी अन्य सूची में कोई अन्य प्रविष्टियाँ नहीं हैं, न्यायालय ने याचिकाकर्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया कि राज्य विधायिका के पास संशोधन पारित करने का अधिकार क्षेत्र नहीं है।

निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राज्यों द्वारा पेश किए गए संशोधन अधिनियम एक छद्मता कानून नहीं हैं, बल्कि भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची III में तत्व और सार के सिद्धांत से संबंधित हैं। न्यायालय ने कहा कि संशोधन अधिनियम जानवरों के प्रति क्रूरता को कम करता है और पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के दायरे में नहीं आएगा।

निष्कर्ष

छद्मता के सिद्धांत का उद्देश्य अनधिकृत उद्देश्यों के लिए सरकार के विधायी अधिकार के उपयोग को रोकना है। शक्तियों के विभाजन का प्राथमिक उद्देश्य एक सरकारी प्राधिकरण के तहत शक्तियों की एकाग्रता को रोकना है। जब भी कोई सरकारी प्राधिकरण अपने क्षेत्र के बाहर नए कानून बनाकर अपनी शक्तियों का विस्तार करने का प्रयास करता है, तो यह स्थिति देश में लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकती है। न्यायपालिका, छद्मता कानून के सिद्धांत को लागू करके, सरकार द्वारा पारित ऐसे कानूनों की समीक्षा करती है और अगर उन्हें विधायी प्राधिकरण के अधिकार क्षेत्र से बाहर पाया जाता है तो उन्हें रद्द कर देती है। 

छद्मता का सिद्धांत हमारे देश की संघीय प्रकृति के लिए एक ढाल के रूप में कार्य करता है और न्यायिक समीक्षा द्वारा निरंकुश शासन को रोकता है। छद्मता कानून का सिद्धांत लोकतंत्र की भावना को कायम रखता है और नेताओं को अपने लाभ के बजाय लोगों के लक्ष्यों और आकांक्षाओं के अनुसार काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

छद्मता के सिद्धांत का उद्देश्य क्या है?

छद्मता का सिद्धांत एक कानूनी सिद्धांत है जिसका उद्देश्य विधायी शक्ति के अत्यधिक उपयोग को रोकना है। जब भी विधायिका किसी अन्य विधायिका की शक्तियों का अतिक्रमण करने का प्रयास करती है, छद्मता का सिद्धांत न्यायिक हस्तक्षेप द्वारा इसे रोकता है।

छद्मता का सिद्धांत भारत में शक्ति का पृथक्करण कैसे सुनिश्चित करता है?

यदि विधायिका शक्तिशाली हो जाती है, तो यह सरकार की अन्य शाखाओं के निर्णयों को प्रभावित कर सकती है। न्यायपालिका छद्मता के सिद्धांत की सहायता से देश में शक्ति संतुलन बनाए रखती है।

छद्मता के सिद्धांत और तत्व और सार के सिद्धांत के बीच क्या अंतर है?

कानून की वास्तविक प्रकृति और उद्देश्य के निर्धारण में न्यायपालिका द्वारा तत्व और सार के सिद्धांत को लागू किया जाता है। जबकि छद्मता के सिद्धांत का उद्देश्य विधायी निकाय द्वारा उनके अधिकार के बाहर पारित कानूनों को अमान्य करना है।

छद्मता के सिद्धांत की उत्पत्ति क्या है?

छद्मता का सिद्धांत लैटिन कहावत “क्वांडो एलिक्विड प्रोहिबेटर एक्स डायरेक्टो, प्रोहिबेटर एट पर ओब्लिकम” से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है कि जो चीजें सीधे नहीं की जा सकतीं उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं किया जाना चाहिए।

वे कौन से संवैधानिक प्रावधान हैं जिनसे छद्मता के सिद्धांत को अपना अधिकार प्राप्त हुआ है?

संविधान के अनुच्छेद 246 और अनुच्छेद 246A केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण करते हैं और उन्हें विभिन्न विषयों पर कानून बनाने का अधिकार देते हैं। छद्मता का सिद्धांत विधायिका को अपने अधिकार से आगे बढ़ने से रोकने के इस संवैधानिक प्रावधान से उभरता है।

संदर्भ

 

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