यह लेख गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, दिल्ली से संबद्ध विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज की छात्रा Aparajita Balaji ने लिखा है। उन्होंने अदालतों की रचना और शक्तियों के साथ-साथ भारत में आपराधिक न्यायालयों का पदानुक्रम (हाइरार्की) क्या है, इस पर चर्चा की है। इसके अलावा, यह लेख सभी को न्याय प्रदान करने के लिए अदालतों के इतने बड़े पदानुक्रम के महत्व और आवश्यकता को स्पष्ट करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय
भारतीय न्यायपालिका दुनिया की सबसे कुशल न्यायिक प्रणालियों में से एक है। न्यायपालिका भारत के संविधान से अपनी शक्तियाँ प्राप्त करती है। विधायिका या कार्यपालिका (एग्जिक्यूटिव) द्वारा प्रदान की गईप्रदान की हुई शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए न्यायालयों के अस्तित्व की आवश्यकता है। भारतीय न्यायपालिका नागरिकों के मौलिक अधिकारों की संरक्षक (गार्डियन) होने के साथ-साथ भारत के संविधान की संरक्षक भी है।
न्यायपालिका काफी लंबी और जटिल अदालतों के पदानुक्रम के साथ अच्छी तरह से स्थापित है। न्यायिक व्यवस्था इस तरह से स्थापित की गई है कि यह देश के प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता को पूरा करती है। भारत में न्यायिक व्यवस्था एक पिरामिड के रूप में है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय पदानुक्रम में सबसे ऊपर है। पदानुक्रम इस तरह से बनाया गया है कि एक दूरस्थ (रिमोट) क्षेत्र से भी एक व्यक्ति के लिए अपने विवादों को हल करने के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाना संभव है। यह प्रणाली संघ के मुद्दों के साथ-साथ राज्य के कानूनों से निपटने के लिए अच्छी तरह से सुसज्जित है।
आपराधिक न्यायालयों का पदानुक्रम
भारत में आपराधिक न्यायालयों का पदानुक्रम इस प्रकार है:
- भारत का सर्वोच्च न्यायालय – भारत का सर्वोच्च न्यायालय, सर्वोच्च होने के नाते, भारत के संविधान के भाग V और अध्याय IV के अनुच्छेद 124 के तहत स्थापित किया गया था।
- भारत के उच्च न्यायालय- उच्च न्यायालय पदानुक्रम के दूसरे स्तर पर हैं। वे भारत के संविधान के अनुच्छेद 141 द्वारा शासित होते हैं और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से बाध्य हैं।
- भारत के निचले न्यायालयों को निम्नानुसार वर्गीकृत किया गया है।
- मेट्रोपॉलिटिन न्यायालय
- सत्र (सेशन) न्यायालय
- चीफ मेट्रोपॉलिटिन मजिस्ट्रेट
- प्रथम श्रेणी मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट
- जिला न्यायालय
- सत्र न्यायालय
- प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट
- द्वितीय श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट
- कार्यकारी मजिस्ट्रेट
भारत में आपराधिक न्यायालयों की रचना
- सत्र न्यायाधीश– सीआरपीसी की धारा 9 सत्र न्यायालय की स्थापना के बारे में बात करती है। राज्य सरकार सत्र न्यायालय की स्थापना करती है जिसकी अध्यक्षता, उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त न्यायाधीश द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालय अतिरिक्त और साथ ही सहायक सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति भी करता है। सत्र न्यायालय आमतौर पर उच्च न्यायालय के आदेशानुसार ऐसे स्थान या स्थानों पर बैठता है। लेकिन किसी विशेष मामले में, यदि सत्र न्यायालय की राय है कि उसे पक्षों और गवाहों की सुविधा को पूरा करना होगा, तो वह अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) और आरोपी की सहमति के बाद किसी अन्य स्थान पर अपनी बैठकों की अध्यक्षता करेगा। सीआरपीसी की धारा 10 के अनुसार, सहायक सत्र न्यायाधीश सत्र न्यायाधीश के प्रति जवाबदेह होते हैं।
- अतिरिक्त/सहायक सत्र न्यायाधीश- इन्हें किसी विशेष राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त किया जाता है। वे सत्र न्यायाधीश की अनुपस्थिति के मामले में हत्या, चोरी, डकैती, जेबकतरे और ऐसे अन्य मामलों से संबंधित मामलों को देखते हैं।
- न्यायिक मजिस्ट्रेट- प्रत्येक जिले में, जो मेट्रोपॉलिटिन क्षेत्र नहीं है, प्रथम श्रेणी और द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट कितने भी हो सकते है। पीठासीन (प्रेसिडिंग) अधिकारियों की नियुक्ति उच्च न्यायालय द्वारा की जाएगी। प्रत्येक न्यायिक मजिस्ट्रेट सत्र न्यायाधीश के अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) होगे।
- मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट- मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र को छोड़कर, प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त किया जाएगा। केवल प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में नामित किया जा सकता है।
- मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट- ये मेट्रोपॉलिटन क्षेत्रों में स्थापित होते हैं। उच्च न्यायालयों के पास पीठासीन अधिकारियों की नियुक्ति करने की शक्ति है। मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट को मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त किया जाएगा। मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट सत्र न्यायाधीश के निर्देशों के तहत काम करेगे।
- कार्यकारी मजिस्ट्रेट- प्रत्येक जिले में और प्रत्येक मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र में धारा 20 के अनुसार, राज्य सरकार द्वारा एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट की नियुक्ति की जाएगी और उनमें से एक जिला मजिस्ट्रेट बन जाएगा।
आपराधिक न्यायालयों की शक्तियां
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सर्वोच्च न्यायालय
सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक प्रणाली में सबसे ऊपर का न्यायालय है। हमारे देश में इसका सर्वोच्च न्यायिक अधिकार है।
- संघीय (फेडरल) न्यायालय– अनुच्छेद 131 केंद्र और राज्यों के बीच या दो राज्यों के बीच उत्पन्न होने वाले विवाद को हल करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को मूल अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) की शक्ति देता है।
- संविधान की व्याख्या- संविधान से संबंधित किसी भी मुद्दे के आधार पर किसी प्रश्न को देखने की शक्ति केवल सर्वोच्च न्यायालय के पास है।
- न्यायिक समीक्षा (रिव्यू) की शक्ति (अनुच्छेद 137) – सभी अधिनियमित कानून न्यायपालिका द्वारा जांच के अधीन हैं।
- अपील की अदालत – सर्वोच्च न्यायालय भारत में अपील के लिए न्यायालय है। यह हमारे देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों में पड़े सभी मामलों की अपील सुनने की शक्ति रखता है। कानून के प्रश्न से जुड़े उच्च न्यायालय के सभी मामलों के किसी भी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 132(1), 133(1) और 134 के अनुसार अनुदान का एक प्रमाण पत्र प्रदान किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय में अपील निम्नलिखित श्रेणियों के अंतर्गत की जा सकती है:-
- संवैधानिक मामले
- सिविल मामले
- आपराधिक मामले
- विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी)
2. उच्च न्यायालय
- मूल अधिकार क्षेत्र- कुछ मामलों में, मामला सीधे उच्च न्यायालयों में दायर किया जा सकता है। इसे उच्च न्यायालय के मूल अधिकार क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। जैसे, मौलिक अधिकारों, विवाह और तलाक के मामलों से संबंधित मामले।
- अपीलीय अधिकार क्षेत्र- निचली अदालत से आने वाले मामलों के लिए उच्च न्यायालय अपीलीय न्यायालय है।
- पर्यवेक्षी (सुपरवाइजरी) अधिकार क्षेत्र- यह सभी अधीनस्थ न्यायालयों के मामलों पर उच्च न्यायालय के सामान्य अधीक्षण की शक्ति को संदर्भित करता है।
भारत के संविधान में विभिन्न न्यायालयों की शक्तियों पर प्रकाश डाला गया है। इन अदालतों के अलावा, अधीनस्थ आपराधिक अदालतों की शक्ति और कार्य दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत प्रदान किए गए हैं, जैसा कि धारा 6 के तहत उल्लेख किया गया है।
- सत्र न्यायालय
- प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट और, किसी भी मेट्रोपोलिटन क्षेत्र में मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट
- द्वितीय श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट
- कार्यकारी मजिस्ट्रेट
दंड प्रक्रिया संहिता के तहत धारा 26–35 से विभिन्न अधीनस्थ न्यायालयों की शक्ति का उल्लेख किया गया है, जिसका वर्णन नीचे किया गया है।
धारा 26 में उन न्यायालयों की सूची का उल्लेख है जो अपराधों की सुनवाई करते हैं – धारा 26 के अनुसार, भारतीय दंड संहिता के तहत उल्लिखित किसी भी अपराध पर मुकदमा किया जा सकता है:
- उच्च न्यायालय द्वारा
- सत्र न्यायालय द्वारा
- दंड प्रक्रिया संहिता की पहली अनुसूची में निर्दिष्ट किसी अन्य न्यायालय द्वारा
हालांकि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता की धारा 376, धारा 376A, धारा 376B, धारा 376C, धारा 376D और धारा 376E के तहत किए गए किसी भी अपराध पर एक महिला न्यायाधीश द्वारा मुकदमा चलाया जता है।
3. सत्र न्यायालय
राज्य सरकार सत्र न्यायालय की स्थापना करती है जिसकी अध्यक्षता उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त न्यायाधीश द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालय अतिरिक्त और साथ ही सहायक सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। सत्र न्यायालय आमतौर पर उच्च न्यायालय के आदेशानुसार ऐसे स्थान या स्थानों पर बैठता है।
4. मजिस्ट्रेट न्यायालय
मजिस्ट्रेट न्यायाधीशों की नियुक्ति आमतौर पर उच्च न्यायालय द्वारा की जाती है।
- किशोरों के मामले में अधिकार क्षेत्र (धारा 27)- कोई भी व्यक्ति जो 16 वर्ष से कम आयु का है, जो किशोर है, उसे मृत्युदंड और आजीवन कारावास की सजा से छूट दी गई है। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, या कोई अन्य न्यायालय जिसे विशेष रूप से बाल अधिनियम, 1960 (1960 का 60) या किसी अन्य कानून के तहत विशेष रूप से सशक्त बनाया गया है, जो युवा अपराधियों के उपचार, प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) और पुनर्वास के लिए प्रदान करता है, इस तरह के मामले का विचारण करने के लिए पात्र हैं।
विविध शक्तियां
- शक्तियों को प्रदान करने का तरीका – धारा 32 में कहा गया है कि उच्च न्यायालय या राज्य सरकारों के पास लोगों को उनके खिताब से सशक्त बनाने के आदेश के आधार पर शक्ति है।
- शक्तियों की वापसी- धारा 33 के अनुसार, उच्च न्यायालय या राज्य सरकार को इस संहिता के तहत उनके द्वारा प्रदत्त शक्तियों को वापस लेने की शक्ति है।
न्यायाधीशों और मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ जिनका प्रयोग उनके उत्तराधिकारियों द्वारा किया जा सकता हैं- धारा 35 के अनुसार, इस संहिता के अन्य प्रावधानों के अधीन, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट की शक्तियों और कर्तव्यों का प्रयोग उनके उत्तराधिकारियों द्वारा किया जा सकता है।
सजा जो विभिन्न न्यायालयों द्वारा पारित की जा सकती हैं
- सजा जो उच्च न्यायालय और सत्र न्यायाधीश पारित कर सकते हैं (धारा 28)। यह सजा निम्नलिखित है:-
- कानून द्वारा अधिकृत (ऑथराइज्ड) कोई भी सजा उच्च न्यायालय द्वारा पारित की जा सकती है।
- एक सत्र या अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश को कानून द्वारा अधिकृत किसी भी सजा को पारित करने का अधिकार है। लेकिन, मौत की सजा सुनाते समय उच्च न्यायालय से पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है।
- एक सहायक सत्र न्यायाधीश के पास कानून द्वारा अधिकृत किसी भी सजा को पारित करने का अधिकार होता है। ऐसा न्यायाधीश मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक कारावास की सजा नहीं दे सकता।
2. मजिस्ट्रेट द्वारा पारित सजा (धारा 29) – मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत मौत की सजा, आजीवन कारावास या सात साल से अधिक के कारावास को छोड़कर कानून द्वारा अनुमोदित (एप्रूव) किसी भी सजा को पारित करने के लिए अधिकृत है।
- प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट तीन साल से कम की अवधि के लिए कारावास की सजा, या दस हजार रुपये से कम का जुर्माना या दोनों के लिए पात्र है।
- द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट एक वर्ष से कम की अवधि के लिए कारावास, या जुर्माना या दोनों की सजा दे सकता है। लगाया गया जुर्माना पांच हजार रुपये से अधिक नहीं हो सकता है।
- मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के पास प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट की शक्तियों के अलावा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के साथ-साथ मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की शक्तियां होती हैं।
3. जुर्माने की चूक के लिए सजा (धारा 30)- इस धारा के अनुसार, मजिस्ट्रेट को कानून द्वारा निर्दिष्ट जुर्माने के भुगतान में चूक के लिए कारावास की सजा पारित करने की शक्ति है। लेकिन निम्नलिखित शर्तों को पूरा करने की जरूरत है:-
- यह शब्द मजिस्ट्रेट की शक्तियों (धारा 29 के तहत) के दायरे से बाहर नहीं जाना चाहिए।
- यह अवधि कारावास की अवधि के एक-चौथाई से अधिक नहीं होनी चाहिए, जिसे मजिस्ट्रेट केवल तभी प्रदान करने के लिए सक्षम है जब कारावास की सजा, अपराध के लिए दंड के रूप में मूल सजा का एक हिस्सा होता है।
- इस धारा के तहत सुनाई गई सजा धारा 29 के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा दी जाने वाली अधिकतम अवधि के लिए कारावास की मूल सजा के अतिरिक्त हो सकती है।
- एक मुकदमे में कई अपराधों के मामलों में सजा (धारा 31)- इस धारा के अनुसार, जब एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक अपराधों के लिए दोषी ठहराया जाता है, तो अदालत उसे एक मुकदमे में ऐसे अपराध के लिए सजा दे सकती है।
- अदालत को कई दंड देने की शक्ति है। कारावास की ऐसी सजाएं अन्य दंडों की समाप्ति के बाद शुरू होती हैं। जब तक अदालतें ऐसा निर्देश नहीं देतीं कि ऐसी सजाएं एक-दूसरे के साथ-साथ चल सकती है। न्यायालय के लिए अपराधी को उच्च न्यायालय के समक्ष भेजना आवश्यक नहीं है। यदि कई अपराधों के लिए सजा अदालत द्वारा दी जाने वाली एक अपराध के लिए सजा उसकी शक्ति से अधिक है। लेकिन :
- यह कारावास 14 वर्ष की अवधि से अधिक नहीं होनी चाहिए।
- कुल सजा भी सजा की राशि के दोगुने से अधिक नहीं होगी जिसे न्यायालय एक ही अपराध के लिए देने के लिए सक्षम है।
अपील के लिए, इस धारा के तहत अपराधी के खिलाफ पारित कुल सजा को आम तौर पर एक सजा के रूप में माना जाता है।
न्यायालयों के बीच शक्ति के मौजूदा वितरण में किए जाने वाले परिवर्तन
वर्तमान में, भारत में, आपराधिक मामलों में मौत की सजा जारी करने पर कोई विशेष दिशानिर्देश नहीं हैं। इसके अलावा, अधिकांश अपराधों में या तो अधिकतम या न्यूनतम सजा का ही उल्लेख किया गया है। यह निर्णय करने के लिए न्यायाधीश पर छोड़ दिया गया है कि किसी विशेष परिस्थिति में सजा की सही अवधि क्या होनी चाहिए।
समान परिस्थितियों के मामलों में न्यायाधीशों को विशेष सजा देने के लिए कोई समान प्रक्रिया या प्रदर्शन नहीं है। समान तथ्यों वाले मामलों में भी सजा की मात्रा भिन्न होती है। इसलिए न्यायाधीशों को उन मानदंडों का उल्लेख करते हुए एक संरचित स्थिति में दिया जाना चाहिए जिस पर उन्हें अपने निर्णयों को आधार बनाना चाहिए।
निष्कर्ष
भारत का संविधान भारत में पूर्ण अधिकार और मूल्य रखता है। इसलिए, इसकी सुरक्षा के लिए सुरक्षा उपाय प्रदान करना आवश्यक हो जाता है और इसलिए, अदालतों को जांच करने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि कोई भी प्राधिकरण अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करे और दूसरों के अधिकारो पर अतिक्रमण न करे, उन्हें विभिन्न शक्तियों के साथ निहित किया गया है। अदालत वह स्थान हैं जहां लोग अपनी शिकायतें ले जा सकते हैं और सरकार की अन्य प्रणालियों के विफल होने पर अपने विवादों का समाधान करवा सकते हैं।
न्यायालयों का पदानुक्रम इस प्रकार विकसित किया गया है कि इस देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए जब भी कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो उनके लिए न्यायालयों का दरवाजा खटखटाना आसान हो जाता है। यह नागरिकों को उच्च न्यायालयों में अपील करने के लिए एक मंच प्रदान करता है, अगर उन्हें लगता है कि निचली अदालतों ने उन्हें न्याय से वंचित कर दिया है। भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश है। इसलिए, इसे न्यायपालिका की इस मौजूदा प्रणाली को समृद्ध करने और इसकी प्रक्रिया को आसान बनाने की आवश्यकता है, ताकि लोग इसे आसानी से प्राप्त कर सकें और इस देश के सभी नागरिकों को न्याय मिल सके।
संदर्भ
- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973
- आर.वी. आपराधिक प्रक्रिया पेपरबैक पर केलकर के व्याख्यान – 2018, डॉ के.एन. चंद्रशेखरन पिल्लै