भारतीय कॉपीराइट अधिनियम के तहत एक लेखक का नैतिक अधिकार

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इस ब्लॉग पोस्ट में, उस्मानिया विश्वविद्यालय के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लॉ की छात्रा Pavitra Palagummi, जो एन.यू.जे.एस के द्वारा एंटरप्रेन्योरशिप एडमिनिस्ट्रेशन एंड बिजनस लॉ में डिप्लोमा कर रही हैं, भारतीय कॉपीराइट अधिनियम के तहत एक लेखक के नैतिक अधिकार से जुड़े हस्तांतरण (ट्रांसफर) , छूट, उल्लंघन, उपाय और बचाव की चर्चा करती हैं। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

कॉपीराइट, कलात्मक कृतियों जैसे पेंटिंग, कविताएं, उपन्यास, संगीत, सिनेमैटोग्राफिक कार्यों आदि से संबंधित है। कॉपीराइट साहित्यिक या कलात्मक कार्य की प्रतिलिपि बनाने के विशेष अधिकार से संबंधित है जैसे कि कार्य की प्रतियां जनता को जारी करना, कार्य का कोई अनुवाद या रूपांतरण (कनवर्जन) करना, किसी सिनेमैटोग्राफ फिल्म में कार्य को शामिल करना आदि, जिसे लेखक के द्वारा या उसकी अनुमति से बनाया जा सकता है। लेखक के पास, अपनी रचना में कुछ अधिकार होते  है जिनमें उसकी कृति में किसी भी प्रकार की विकृति को रोकने का अधिकार भी शामिल होता है। कॉपीराइट अधिनियम 1957 (इसके बाद अधिनियम के रूप में संदर्भित) के तहत लेखक के आर्थिक अधिकार और नैतिक अधिकार दोनों सुरक्षित होते हैं। लेखक के इन नैतिक अधिकारों को विशेष अधिकार कहा जाता है। नैतिक अधिकार जिसे अंग्रेजी में मॉरल राइट्स कहा जाता है, फ्रांसीसी वाक्यांश ड्रोइट मॉरल का अंग्रेजी अनुवाद है। वे आर्थिक अधिकारों के अतिरिक्त हैं और यह अविभाज्य (इंडिविजिबल) हैं। नैतिक अधिकार व्यक्तिगत और प्रतिष्ठित अधिकारों की रक्षा करते हैं, जो लेखकों को उनके कार्यों की अखंडता (इंटेग्रिटी) और उनके नामों के उपयोग, दोनों की रक्षा करने की अनुमति देते हैं। नैतिक अधिकारों से कार्य के लेखक को कोई प्रत्यक्ष वित्तीय लाभ नहीं मिलता है।  वे सामग्री में संशोधन या परिवर्तन से बचने में मदद करते हैं। नैतिक अधिकार लेखक के कार्य की अखंडता को सुरक्षित रखते हैं। नैतिक अधिकार न तो अनैतिक अधिकारों के विपरीत हैं और न ही कानूनी अधिकारों के विपरीत हैं।

कॉपीराइट अधिनियम की धारा 57

कॉपीराइट अधिनियम की धारा 57 के तहत लेखक के कॉपीराइट से स्वतंत्र और उक्त कॉपीराइट के पूर्ण या आंशिक रूप से कार्यभार (असाइनमेंट) के बाद भी, किसी कार्य के लेखक के पास निम्नलिखित विशेष अधिकार होगा-

  1. कार्य के लेखकत्व (ऑथरशिप) का दावा करने के लिए;  अधिकार और
  2. उक्त कार्य के बारे में किसी भी विकृति, संशोधन या अन्य कार्य के संबंध में क्षति को रोकने या दावा करने के लिए अधिकार, जो कॉपीराइट की अवधि की समाप्ति से पहले किया जाता है यदि ऐसी विकृति, संशोधन या अन्य कार्य उसके सम्मान या प्रतिष्ठा के प्रति प्रतिकूल होगा।

कार्य का संशोधित स्वरूप मूल कार्य से भिन्न दिखना चाहिए

एक बार जब लेखक के अधिकार हस्तांतरित हो जाते हैं, तो लाइसेंसधारी को अपनी स्थिति के अनुरूप कुछ आवश्यक संशोधन करने का अधिकार होता है, लेकिन संशोधन इस तरह से नहीं होना चाहिए कि कार्य का संशोधित रूप मूल कार्य से बिल्कुल अलग दिखे जो लेखक की प्रतिष्ठा को प्रभावित कर सकता है।

के.पी.एम. सुंदरम बनाम रतन प्रकाशन मंदिर के मामले में यह माना गया था कि उसमें दिखाई देने वाले शब्द “या अन्य संशोधन” को “विरूपण” और “विकृतीकरण” (डीनेचुरेशन) शब्दों के साथ पढ़ा जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि संशोधन इतना गंभीर नहीं होना चाहिए कि कार्य का संशोधित स्वरूप मूल कार्य से बिल्कुल अलग दिखने लगे।

नैतिक अधिकारों की उत्पत्ति

नैतिक अधिकारों को पहली बार फ्रांस और जर्मनी में मान्यता दी गई थी। मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा,1948 (यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स) के अनुच्छेद 27(2) में पाया गया कि नैतिक अधिकारों का मानव अधिकार परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) कार्य के लेखक के नैतिक अधिकारों की रक्षा करता है। इन मानवाधिकारों का दस्तावेजीकरण नहीं किया गया था, इसलिए नैतिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक सख्त प्रावधान की आवश्यकता थी। इसने कॉपीराइट के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (कन्वेंशन) को जन्म दिया जिसे बर्न सम्मेलन, 1886 कहा गया। बर्न सम्मेलन के अनुच्छेद 6 बीआईएस में नैतिक अधिकारों को शामिल किया गया था। अनुच्छेद 6 बी.आई.एस. पर नीचे चर्चा की गई है।

बर्न सम्मेलन का अनुच्छेद 6 बी.आई.एस. 

लेखक के आर्थिक अधिकारों से स्वतंत्र, और उक्त अधिकारों के हस्तांतरण के बाद भी, लेखक को कार्य के लेखकत्व का दावा करने और किसी भी विरूपण (डिस्टोर्शन) पर, उक्त कार्य के संबंध में संशोधन, या अन्य अपमानजनक कार्रवाई, जो लेखक के सम्मान या प्रतिष्ठा के लिए प्रतिकूल होगी, पर आपत्ति करने का अधिकार होगा।

डेविड बैनब्रिज के अनुसार, नैतिक अधिकार के अंतर्गत चार अधिकार होते हैं, जो निम्नलिखित है:

  1. कार्य के लेखक या फिल्म के निर्देशक के रूप में पहचाने जाने का अधिकार, अर्थात ‘पितृत्व (पेटरनिटी) अधिकार’।
  2. किसी कार्य के लेखक या फिल्म के निर्देशक का उस काम या फिल्म के अपमानजनक व्यवहार पर आपत्ति करने का अधिकार, अर्थात ‘अखंडता का अधिकार’।
  3. एक सामान्य अधिकार, कि प्रत्येक व्यक्ति को कोई भी कार्य गलत तरीके से अपने नाम नहीं करना चाहिए।
  4. निजी और घरेलू उद्देश्यों के लिए बनाई गई तस्वीर या फिल्म के संबंध में आयुक्त (कमिश्नर) का निजता का अधिकार।

पितृत्व अधिकार को ‘पहचान का अधिकार’ या गुणारोपण (एट्रिब्यूशन) अधिकार’ भी कहा जा सकता है। इन अधिकारों के साथ, लेखक को मूल्यवान प्रतिफल (रिवार्ड) के लिए कार्यों को बेचने का आर्थिक अधिकार भी मिला जाता है। 

नैतिक अधिकार के पीछे के तर्क को अमर नाथ सहगल बनाम भारत संघ के मामले में भी समझाया गया था, जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय के द्वारा यह कहा गया था कि “भौतिक दुनिया में, कानून समान पारिश्रमिक (रिमूनरेशन) के अधिकार की रक्षा के लिए बनाए गए हैं लेकिन जीवन भौतिक दुनिया से परे होता है, यह अस्थायी भी है, हममें से बहुत से लोग आत्मा में विश्वास करते हैं। लेखक के नैतिक अधिकार उसकी रचनाओं की आत्मा होते हैं। लेखक को अपने नैतिक अधिकारों के माध्यम से अपनी रचनाओं को संरक्षित, सुरक्षित और पोषित करने का अधिकार होता है।”

नैतिक अधिकारों के प्रकार

नैतिक अधिकार तीन प्रकार के होते हैं:

गुणारोपण का अधिकार 

इसे पितृत्व का अधिकार या लेखकत्व का अधिकार भी कहा जाता है। यह अधिकार कार्य पर स्वामित्व स्थापित करता है। इस अधिकार के माध्यम से जनता कृति के रचयिता के बारे में जान सकती है। गुणारोपण के अधिकार में कहा गया है कि यदि किसी व्यक्ति ने कोई कार्य बनाया है तो उसे कार्य के लेखक के रूप में नामित किया जाना चाहिए। इस अधिकार के माध्यम से साहित्यिक चोरी से बचा जा सकता है। कार्य के पुनरुत्पादन या रूपांतरण में लेखक का नाम भी अवश्य होना चाहिए। कुछ देशों में, गुणारोपण के अधिकार का प्रयोग दावे के माध्यम से किया जाता  है। लेखक को स्पष्ट रूप से यह दावा करना चाहिए कि वह उस कार्य का स्वामी है। अभिकथन (असेर्शन) कानूनी अनुबंध के माध्यम से किया जा सकता है। किसी प्रदर्शनी में प्रकाशित कलाकृति को कलाकृति के फ्रेम के साथ नाम जोड़कर मुखर किया जा सकता है। इस अधिकार का दावा केवल एक बार किया जा सकता है। इस अधिकार के दावे में ज्यादा समय नहीं लगना चाहिए, यह अधिकार लेखक को उपनाम (साइडोनिम) से काम करने की भी अनुमति देता है।

अपवाद

जब कलाकृति का उपयोग निम्नलिखित उद्देश्य से किया जाता है तो गुणारोपण के अधिकार का प्रयोग नहीं किया जा सकता है:

  • जब समसामयिक घटनाओं की सूचना दी जानी हो,
  • अखबार में छपवाना हो
  • किसी विश्वकोश या शब्दकोश जैसे प्रकाशन में नही किया जा सकता।

अखंडता का अधिकार

इस अधिकार के तहत कृति के लेखक के साथ अपमानजनक व्यवहार नहीं किया जा सकता है। अपमानजनक व्यवहार में कार्य को भौतिक रूप से विकृत करना, कार्य को नष्ट करना या कार्य में परिवर्तन करना शामिल होता है। यह अधिकार लेखक और कृति दोनों की अखंडता की रक्षा करता है, मूल कार्य में इस प्रकार परिवर्तन नहीं करना चाहिए कि परिवर्तन से उस कार्य को हानि पहुँचे, यह अधिकार सुनिश्चित करता है कि ऐसे में लेखक की प्रतिष्ठा नष्ट न हो। कार्य के बारे में नकारात्मक समीक्षाएँ (रिव्यू) या टिप्पणियाँ कार्य की अखंडता को प्रभावित कर सकती हैं। अखंडता के अधिकार में भी आरोपण के अधिकार के समान ही अपवाद हैं यह अधिकार तब काम में आता है जब कार्य का एक रूप से दूसरे रूप में अनुकूलन होता है।

मिथ्या आरोपण के विरुद्ध अधिकार

मिथ्या आरोपण के विरुद्ध अधिकार में इस बात का उल्लेख किया गया है कि किसी व्यक्ति को किसी कार्य के स्वामी के रूप में स्वयं का झूठा प्रतिनिधित्व नहीं करना चाहिए। यह अधिकार उस व्यक्ति को काम का गुणारोपण देने से रोकता है, जो वास्तव में उस काम का मालिक नहीं है।

अतिरिक्त नैतिक अधिकारों में गोपनीयता का अधिकार, किसी कार्य को प्रकाशित करने का अधिकार, किसी प्रकाशित कार्य को बिक्री से वापस लेने का अधिकार, कार्य को वापस लेने का अधिकार और लेखक के चरित्र के उल्लंघन को रोकने का अधिकार शामिल होते है।

नैतिक अधिकारों की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) 

कॉपीराइट, किसी कार्य के लेखक को नैतिक और आर्थिक दोनों प्रकार के अधिकार प्रदान करता है। हालांकि यदि किसी व्यक्ति ने अपना कॉपीराइट हस्तांतरित कर दिया है, तो भी नैतिक अधिकार कार्य के स्वामी के पास ही रहते हैं। इन्हें विभिन्न देशों के कॉपीराइट अधिनियमों में एक प्रावधान के रूप में शामिल किया गया है। कॉपीराइट के तहत नैतिक अधिकार किसी व्यक्ति को प्रदान किए जाते हैं, किसी निगम या संगठन को नहीं प्रदान किए गए है।

नैतिक अधिकारों से जुड़े मुद्दे

नैतिक अधिकार व्यक्तिगत होते हैं और उनका सार्वजनिक हित से कोई सरोकार नहीं होता। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग नहीं किया जाता है क्योंकि लेखक के काम की कोई भी आलोचना नैतिक अधिकारों के विरुद्ध हो सकती है। नैतिक अधिकार लेखक को कृति को नष्ट करने का अधिकार भी देते हैं। यह सांस्कृतिक विरासत को भी नष्ट कर सकता है, क्योंकि यह कार्य धर्म और संस्कृति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकता है। समाज के हितों की अनदेखी कर केवल लेखक के हितों को देखा जाता है। संस्कृति के संरक्षण का निर्णय केवल एक ही व्यक्ति पर छोड़ दिया गया है। लेखक अपने पिछले काम में बदलाव कर सकता है और जनता को इसके बारे में सूचित करना भूल सकता है। तब लोगों को गलत तरीके से प्रस्तुत किए गए काम को खरीदने के लिए धोखा दिया जा सकता है और वे लेखक के बारे में नकारात्मक विचार रख सकते हैं। नैतिक अधिकारों के साथ ऐसे मुद्दों का समाधान किया जा सकता है यदि विभिन्न देशों के कानूनों को दुनिया की बदलती तकनीक के अनुरूप बदल दिया जाए।

किसी को नैतिक अधिकार किस प्रकार तथा किस प्रकार के कार्यों से प्राप्त होते हैं

किसी कार्य पर कॉपीराइट बनते ही उस पर नैतिक अधिकार बन जाते हैं। कार्यस्थल (वर्कप्लेस) पर नैतिक अधिकारों का प्रयोग करने के लिए कोई पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) की आवश्यकता नहीं होती है। आम तौर पर, नैतिक अधिकार लेखक के जीवनकाल के दौरान और उसकी मृत्यु के कुछ वर्षों बाद तक बने रहते हैं, कुछ देशों की आवश्यकता है कि लेखक को उनका प्रयोग करने के लिए अपने नैतिक अधिकारों का दावा करना चाहिए। नैतिक अधिकार किसी व्यक्ति को हस्तांतरित या सौंपे नहीं जा सकते है। हालाँकि, नैतिक अधिकार लेखक की मृत्यु पर उसके कानूनी प्रतिनिधियों को हस्तांतरित किए जा सकते हैं।

नैतिक अधिकार निम्नलिखित से संबंधित हैं:

  • कलात्मक कार्य जैसे तस्वीरें, रेखाचित्र, पेंटिंग, शिल्पकला, भित्ति चित्र, मानचित्र और योजनाएँ
  • साहित्यिक कार्य जैसे लिखित सामग्री और कंप्यूटर कार्यक्रम (प्रोग्राम)
  • नाटकीय कार्य जैसे नाटक और पटकथा
  • संगीतमय कार्य
  • फ़िल्में जिनमें वृत्तचित्र (डॉक्यूमेंट्रीज), संगीत वीडियो, विज्ञापन और फ़ीचर फ़िल्में शामिल हैं
  • प्रदर्शन लाइव और रिकॉर्डेड दोनों

हालाँकि, ध्वनि रिकॉर्डिंग से संबंधित कार्यों में नैतिक अधिकार नहीं दिए जाते हैं।

नैतिक अधिकारों की छूट

यूरोपीय देशों में नैतिक अधिकारों की छूट नहीं दी जा सकती है। आमतौर पर, नैतिक अधिकारों को एक लिखित अनुबंध या समझौते के माध्यम से माफ कर दिया जाता है। लेखक अनुबंध में पृथक्करणीयता (सेवरेबिलिटी) खंड के माध्यम से अपने नैतिक अधिकारों को त्याग सकता है। यह आम तौर पर रोजगार अनुबंधों में होता है जहां कर्मचारी कंपनी के लिए उत्पाद विकसित करता है, और कॉपीराइट के साथ-साथ नैतिक अधिकार भी कंपनी के पास निहित होते हैं।

नैतिक अधिकारों का उल्लंघन

नैतिक अधिकारों का उल्लंघन तब हो सकता है यदि किसी ने काम का उपयोग किया है और लेखक का नाम काम में नहीं दिया गया है, या यदि किसी ने काम का उपयोग इस तरह से किया है जिससे लेखक की प्रतिष्ठा को नुकसान हो सकता है। नैतिक अधिकारों के ऐसे उल्लंघन के लिए लेखक मुकदमा दायर कर सकता है।

नैतिक अधिकारों के उल्लंघन का उपाय

मामले की परिस्थितियों और उल्लंघन की प्रकृति के आधार पर, अदालत अपने विवेक पर विभिन्न उपाय प्रदान कर सकती है, जैसा कि नीचे बताया गया है:

  1. उल्लंघन रोकने का आदेश (इंजंक्शन)- मामले की परिस्थितियों के आधार पर निषेधाज्ञा स्थायी या अस्थायी हो सकती है। अदालत से निषेधाज्ञा प्राप्त करने के लिए तीन चीजें साबित की जानी चाहिए: प्रथम दृष्टया मामला, असुविधा, और वादी को हुई चोट या क्षति।
  2. आर्थिक क्षति- वादी प्रतिवादी से क्षतिपूर्ति (कंपनसेशन) की मांग कर सकता है। यदि कार्य को किसी अन्य रूप में परिवर्तित किया गया है तो वह रूपांतरण क्षति का दावा भी कर सकता है।
  3. एंटोन पिलर आदेश – इस आदेश के तहत, प्रतिवादी को वादी के काम का उपयोग बंद कराना होगा। अदालत वादी के वकील को प्रतिवादी के परिसर की तलाशी लेने का भी निर्देश दे सकती है।
  4. कारावास – उल्लंघन की मात्रा के आधार पर, अदालत प्रतिवादी को जुर्माना और सजा भी दे सकती है।
  5. सार्वजनिक माफ़ी- अदालत प्रतिवादी को वादी के काम के दुरुपयोग के बारे में वादी से माफी मांगने के लिए सार्वजनिक बयान जारी करने का भी निर्देश दे सकती है।
  6. अपमानजनक व्यवहार को उलटने या हटाने का आदेश – इस आदेश के तहत, प्रतिवादी को ऐसी कोई भी टिप्पणी या बयान हटाना होगा जो लेखक की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा सकता हो।
  7. गलत आरोप को सही करने का आदेश – अदालत प्रतिवादी को काम पर मूल लेखक का नाम शामिल करने और काम पर किसी भी गलत आरोप को हटाने का निर्देश दे सकती है।

नैतिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए बचाव

कोई व्यक्ति नैतिक अधिकारों के उल्लंघन के परिणामों से बच सकता है यदि वह यह दिखा सके कि परिस्थितियों में उल्लंघन उचित था। अदालत, इस बचाव पर विचार करते समय, विभिन्न कारकों पर गौर करेगी जैसे:

  • कार्य की प्रकृति।
  • उद्देश्य और कार्य का उपयोग करने का तरीका।
  • उल्लंघन पर लेखक के विचार।
  • प्रासंगिक उद्योग (इंडस्ट्री) प्रथाएँ।
  • रोजगार के दौरान कार्य सृजित (क्रिएटेड) हुआ या नहीं।

तर्कसंगतता की रक्षा का उपयोग झूठे आरोप के खिलाफ नैतिक अधिकार के उल्लंघन के लिए नहीं किया जा सकता है। यदि लेखक ने किसी विशेष कार्य या कार्य के लोप के लिए सहमति दी है तो नैतिक अधिकारों का कोई उल्लंघन नहीं है। कोई व्यक्ति इस बचाव का भी उपयोग कर सकता है कि वह कार्य का उपयोग अनुसंधान (रिसर्च) के लिए कर रहा था या वह कार्य का उपयोग न्यायिक कार्यवाही के लिए कर रहा था।

क्या हस्तांतरण के बाद भी नैतिक अधिकार लेखक के पास रहते हैं

मन्नू भंडारी बनाम कला विकास पिक्चर्स प्राइवेट लिमिटेड  और अन्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि “ये अधिकार (नैतिक अधिकार) लेखक के कॉपीराइट से स्वतंत्र हैं और धारा 55 के तहत लेखक के लिए उपाय खुले हैं। दूसरे शब्दों में, धारा 57 किसी साहित्यिक कृति के लेखक को सामान्य कॉपीराइट के स्वामी की तुलना में अतिरिक्त अधिकार प्रदान करती है। बौद्धिक संपदा (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी) की विशेष सुरक्षा पर इस तथ्य से जोर दिया जाता है कि प्रतिबंध आदेश या क्षति के उपचार का दावा किया जा सकता है: “उक्त कॉपीराइट के पूर्ण या आंशिक रूप से कार्यभार के बाद भी किया जा सकता है:।” इस प्रकार भले ही कोई लेखक प्रकाशन के लिए अपने आर्थिक अधिकार किसी प्रकाशक को बेच सकता है, लेकिन नैतिक अधिकार उसके पास ही रहेंगे जिन्हें उससे छीना नहीं जा सकता है।

क्या नैतिक अधिकारों को ख़त्म किया जा सकता है?

पहले नैतिक अधिकारों को किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की तरह माना जाता था क्योंकि वे केवल व्यक्ति के लाभ के लिए नहीं है बल्कि आम जनता के लाभ के लिए सार्वजनिक नीति का विषय हैं। लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ के द्वारा सरताज सिंह पन्नू बनाम गुरबानी मीडिया प्राइवेट लिमिटेड और अन्य के मामले में इस संबंध में कहा गया था कि क्या निर्देशक किसी फिल्म के निर्देशक के रूप में स्वीकार किए जाने के अपने नैतिक अधिकार यदि कोई हो को भी छोड़ सकता है। “अदालत उस हद तक जाने के लिए तैयार नहीं है जहां तक कि किसी निर्देशक को श्रेय दिए जाने के अपने अधिकार को छोड़ने के अधिकार से इनकार कर दिया जाए, अगर किसी भी कारण से वह नहीं चाहता कि उसका नाम फिल्म के साथ जोड़ा जाए।” जब तक छूट स्वैच्छिक है, इसे सार्वजनिक नीति के विपरीत नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार इस निर्णय के बाद यदि लेखक चाहे तो अपने नैतिक अधिकारों का त्याग कर सकता है।

विभिन्न देशों में नैतिक अधिकारों की अवधारणा

विभिन्न देशों में नैतिक अधिकारों के संबंध में अलग-अलग प्रावधान और अधिनियम हैं। ऐसे प्रावधान नीचे दिये गये हैं:

  1. कनाडा – नैतिक अधिकार संरक्षण शब्द कॉपीराइट के समान है। यह अवधि लेखक के जीवनकाल के साथ-साथ उनकी मृत्यु के पचास वर्ष बाद तक होगी। कॉपीराइट अधिनियम,1985 की धारा 14.1 में नैतिक अधिकार शामिल हैं। नैतिक अधिकारों को हस्तांतरित या सौंपा नहीं जा सकता है लेकिन एक अनुबंध के तहत छोड़ किया जा सकता है।
  2. यूरोप – यूरोप में नैतिक अधिकारों को लागू करने के लिए नैतिक अधिकारों का दावा आवश्यक है। नैतिक अधिकारों को हस्तांतरित या छोड़ा नहीं जा सकता क्योंकि ऐसा माना जाता है कि संपत्ति में अधिकारों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है; यह केवल लाइसेंस पर ही दिया जा सकता है।
  3. चीन – पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना, 1990 के कॉपीराइट कानून का अनुच्छेद 20 नैतिक अधिकारों की सुरक्षा की असीमित अवधि प्रदान करता है। नैतिक अधिकारों को हस्तांतरित या सौंपा नहीं जा सकता है लेकिन एक अनुबंध के तहत छोड़ा जा सकता है।
  4. संयुक्त राज्य अमेरिका – अमेरिका में नैतिक अधिकार पूरी तरह से संरक्षित नहीं हैं। केवल दृश्य कला के कार्यों को दृश्य कलाकार अधिकार अधिनियम,1990 (वी.ए.आर.ए.) के तहत नैतिक अधिकार प्रदान किए जाते हैं। नैतिक अधिकारों को हस्तांतरित या सौंपा नहीं जा सकता है, लेकिन एक अनुबंध के तहत माफ किया जा सकता है। नैतिक अधिकारों की सुरक्षा शब्द लेखक के जीवनकाल तक कायम रहेगा। वारा कलाकारों की अखंडता (इंटेग्रिटी) के अधिकार और श्रेय के अधिकार की रक्षा करता है। बर्न सम्मेलन में शामिल होने पर इस देश में नैतिक अधिकार जुड़ गए थे।

भारत में नैतिक अधिकार

कॉपीराइट अधिनियम, 1957 की धारा 57 के तहत नैतिक अधिकारों को मान्यता दी गई है। इस धारा के तहत पितृत्व का अधिकार, प्रसार का अधिकार, अखंडता का अधिकार और वापसी का अधिकार उपलब्ध है। यदि यह सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है तो नैतिक अधिकारों की छूट की अनुमति है। नैतिक अधिकारों की अवधि लेखक के जीवनकाल तथा उसकी मृत्यु के 60 वर्ष बाद तक होगी। पहले, नैतिक अधिकार केवल साहित्यिक कार्यों तक ही सीमित थे, लेकिन मन्नू भंडारी बनाम कला विकास पिक्चर्स प्राइवेट लिमिटेड और अन्य के मामले में माना गया कि नैतिक अधिकार दृश्य और श्रव्य कार्यों पर भी लागू होने चाहिए। नैतिक अधिकार कंप्यूटर प्रोग्राम पर भी लागू होते हैं।

भारत में नैतिक अधिकारों पर ऐतिहासिक निर्णय

अमरनाथ सहगल बनाम भारत संघ

तथ्य 

इस मामले में, याचिकाकर्ता को निर्माण, आवास और आपूर्ति मंत्रालय द्वारा भारत के पहले सम्मेलन केंद्र विज्ञान भवन के लिए एक भित्तिचित्र (मुरल पेंटिंग) तैयार करने के लिए नियुक्त किया गया था। भित्तिचित्र ने दुनिया भर से परिदर्शक (विजिटर) को आकर्षित किया। कुछ वर्षों के बाद, विज्ञान भवन का नवीनीकरण हुआ, और भित्तिचित्र को उखाड़ना पड़ा। जब वादी को इसकी जानकारी हुई तो उसने सरकार से हर्जाने का दावा किया। सरकार के लापरवाह व्यवहार के कारण भित्तिचित्र क्षतिग्रस्त हो गया था इसलिए वादी ने कॉपीराइट अधिनियम, 1957 की धारा 57 के तहत सरकार पर मुकदमा दायर किया।

मुद्दा 

  • क्या कॉपीराइट अधिनियम, 1957 की धारा 57 के तहत प्रतिवादी के कार्य से याचिकाकर्ता के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है?
  • क्या प्रतिवादी के कार्यों के कारण वादी को क्षति हुई?
  • क्या वादी की स्थिति प्रतिवादियों से बेहतर है

निर्णय

प्रतिवादी ने तर्क दिया था कि वादी के पास नुकसान का दावा करने की कोई स्थिति नहीं है क्योंकि उसने अपना कॉपीराइट और आर्थिक अधिकार उन्हें हस्तांतरित कर दिया था। उन्हें कार्य को नष्ट करने का भी अधिकार था। अदालत ने माना कि भले ही वादी ने प्रतिवादी को कॉपीराइट हस्तांतरित कर दिया था, लेकिन उसके पास नुकसान का दावा करने का विशेष अधिकार था। अदालत ने माना कि कलात्मक अभिव्यक्ति की सुरक्षा आवश्यक है, भले ही कलाकार के पास आर्थिक अधिकार न हों।  इसमें यह भी कहा गया है कि केवल वादी को ही अपने काम को दोबारा बनाने का अधिकार है और इसलिए उसे प्रतिवादी के कार्यों के कारण प्रतिष्ठा, सम्मान और मानसिक क्षति की हानि के लिए मुआवजा पाने का भी अधिकार है।

मन्नू भंडारी बनाम कला विकास पिक्चर्स लिमिटेड

तथ्य

इस मामले में, वादी, एक हिंदू लेखिका, ने प्रतिवादी को एक फिल्म बनाने के लिए अपने उपन्यास “आप का बंटी” पर अधिकार सौंपे थे। प्रतिवादियों ने उपन्यास पर आधारित “समय की धारा” नामक एक फिल्म का निर्माण किया। वादी ने तर्क दिया कि फिल्म और उपन्यास अलग-अलग कथानकों पर आधारित थे, जिससे एक लेखक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा और अदालत में स्थायी निषेधाज्ञा के लिए मुकदमा दायर किया।

मुद्दा

  • क्या अपीलकर्ता को उन अनुबंध शर्तों तक सीमित किया जा सकता है जो धारा 57 के विपरीत हैं?

निर्णय

अदालत ने माना कि भले ही वादी ने अपने सभी अधिकार प्रतिवादी को हस्तांतरित कर दिए हों, फिर भी काम पर उसका नैतिक अधिकार है। नैतिक अधिकार न केवल साहित्यिक कार्यों में हैं बल्कि फिल्मों और वृत्तचित्रों पर भी लागू होते हैं। यह भी माना गया कि किसी उपन्यास को फिल्म में बदलते समय कुछ संशोधनों की अनुमति है, लेकिन इससे लेखक की प्रतिष्ठा को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।पक्षों के बीच अनुबंध के संबंध में, अदालत ने कहा कि अनुबंध में प्रावधान कॉपीराइट अधिनियम, 1957 की धारा 57 का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। अंत में, प्रतिवादियों द्वारा इस बात पर सहमति व्यक्त की गई कि वादी का नाम और उसके उपन्यास का नाम फिल्म से हटा दिया जाना चाहिए, वादी का फिल्म पर कोई अधिकार नहीं होगा।

निष्कर्ष

इस प्रकार बार-बार, एक लेखक के नैतिक अधिकारों को न्यायालयों द्वारा पवित्र माना गया है, और नैतिक अधिकार एक लेखक को उसके काम की सुरक्षा के लिए पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करते हैं, भले ही वह इसे किसी भी तरह से व्यावसायिक रूप से शोषण करने के लिए स्थानांतरित करता हो।

सन्दर्भ 

  • भारतीय कॉपीराइट अधिनियम, 1957
  • बौद्धिक संपदा अधिकार और कानून डॉ. जी.बी. रेड्डी द्वारा

 

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