यह लेख वी.आई.पी.एस., नई दिल्ली से Namrata Singhal द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत में ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ और ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ के अंतर्संबंध की जांच करता है और विभिन्न न्यायिक व्याख्याओं के माध्यम से ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के सिद्धांत के विकास और उन्नति और इसके साथ ही ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ की जांच विभिन्न न्यायिक व्याख्याओं और घोषणाओं के माध्यम से करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
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परिचय
‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ विधायिका द्वारा विधिवत अधिनियमित कानून है जो तब मान्य होता है जब वह निर्धारित प्रक्रिया और आवश्यकताओं का अनुपालन करता है। ‘कानून द्वारा उचित प्रक्रिया’ यानि की ‘ड्यू प्रोसेस’ की अमेरिकी अवधारणा, जो मैग्ना कार्टा के क्लॉज 39 में एक अंग्रेजी अवधारणा थी, को अमेरिका में बरकरार रखा गया था। संविधान सभा ने संविधान के मसौदे में अनुच्छेद 15 के तहत ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ शब्द का इस्तेमाल स्पष्ट रूप से किया है, जो कि संविधान सभा के सलाहकार सर बी.एन. राऊ ने संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश फ्रैंकफर्टर के साथ एक चर्चा के बाद किया गया था, जिन्होंने व्यक्त किया कि उचित प्रक्रिया का खंड (क्लॉज) न्यायपालिका के लिए अलोकतांत्रिक और बोझिल है क्योंकि इसने न्यायाधीशों को लोकतांत्रिक बहुमत द्वारा अधिनियमित कानून को अमान्य करने का अधिकार दिया है। संविधान सभा का उद्देश्य ‘उचित’ शब्द की अनिश्चितता से बचना था जिसने संयुक्त राज्य अमेरिका में विसंगतियों (एनोमली), गैर-एकरूपता को उत्पन्न किया और न्यायपालिका को विधायिका की तुलना मे अधिक मजबूत किया। तर्क मौलिक अधिकारों की पवित्रता और विधायिका और न्यायपालिका के कार्य क्षेत्र पर हावी थे। ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ को अपनाने के लिए जो कारक सामने रखा गया वह विभाजन के बाद देश के सामने आने वाली सांप्रदायिक (कम्यूनल) हिंसा की वास्तविक समस्या थी। यह माना जाता था कि उचित प्रक्रिया की संवैधानिक गारंटी के बिना ब्रिटिश औपनिवेशिक (कॉलोनियल) शासन के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली निवारक निरोध (प्रीवेंटिव डिटेंशन) नीतियां सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में सबसे प्रभावी होंगी, जिसे संविधान में अनुच्छेद 22 को शामिल करने के बाद आंशिक (पार्शियल) रूप से हल किया गया था। इस शब्द को संविधान सभा में आलोचना का सामना करना पड़ा क्योंकि इसका पक्षपातपूर्ण आधारों, पक्ष पूर्वाग्रहों (प्रेजुडिस) और विचारों पर दुरुपयोग किया जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को खतरा होता है। उन्होंने कोई विशेष प्राथमिकता (प्रिफरेंस) व्यक्त नहीं की क्योंकि वे वाक्यांशविज्ञान की प्रतिबंधात्मक (रिस्ट्रिक्टिव) व्याख्या से डरते थे जिसने नागरिक स्वतंत्रता की स्थिति और नियुक्ति के अभ्यास को खतरे में डाल दिया था।
संविधान के वाद विवाद में ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’, जैसा की व्यक्त किया गया था, की प्राथमिकता, न्यायिक सर्वोच्चता के खिलाफ ‘निजता की स्वतंत्रता’ के लिए पर्याप्त संवैधानिक और न्यायिक सुरक्षा उपायों के साथ कानून बनाने में संसदीय सर्वोच्चता देना था। संविधान सभा ने विधायिका की सर्वोच्चता को सबसे ऊपर रखा था। गोपालन के मामले में, बहुमत ने अनुच्छेद 21 की सख्त और शाब्दिक व्याख्या का समर्थन किया। अदालत का दृष्टिकोण नकारात्मक था और कानून के अनिवार्य सिद्धांत (इंप्रेटिव थ्योरी) से प्रभावित था। हालाँकि, बैंक राष्ट्रीयकरण (नेशनलाइजेशन) मामले में अदालत के रवैये को कुछ हद तक उदार (लिबरल) बनाया गया।
आश्चर्यजनक मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले के बाद, जिसने यह माना कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया उचित, निष्पक्ष और न्यायसंगत होनी चाहिए; ने गोपालन के मामले को खारिज कर दिया था। न्यायिक सक्रियता (एक्टिविज्म) और शब्द की उदार व्याख्या लोकतंत्र, कानून के शासन (रूल ऑफ़ लॉ) के पक्ष में शासन और प्राकृतिक न्याय के मूल्यों की स्थापना करना था। संवैधानिक गारंटी और जीवन, स्वतंत्रता, संपत्ति के साथ निष्पक्ष, न्यायसंगत, उचित प्रक्रिया और सुनवाई, बचाव और निष्पक्ष कानूनी कार्यवाही का अवसर नागरिक स्वतंत्रता को कम करने के लिए सरकार की निरंकुश (अनफेटर्ड), और अनियमित शक्ति के विपरीत प्रदान किया गया था।
‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ का निहितार्थ (इंप्लीकेशंस)
भारत में, अभिव्यक्ति “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” का अर्थ राज्य के कानून द्वारा निर्धारित एक प्रक्रिया या संविधि (स्टेट्यूट) द्वारा निर्धारित प्रक्रिया है। 1950 में संविधान के आने के बाद, ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य में ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ की व्याख्या का सवाल उठाया गया था जिसमे, अनुच्छेद 21 में इस्तेमाल किए गए शब्दों को सर्वोच्च न्यायालय की जांच के तहत लाया गया था, जिसमें प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट, 1950 की वैधता को चुनौती दी गई थी।
यह माना गया कि कानून की प्रणाली ‘लेक्स’ है यानि की जस’ नहीं है, इसलिए विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों का परीक्षण न्यायसंगतता और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर किया जा सकता है जो अस्पष्ट, अनिश्चित और अलग थे। संविधान का औपचारिक दृष्टिकोण वहां अपनाया गया था जहां अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 22 परस्पर अनन्य (एक्सक्लूसिव) थे। बिना किसी प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की एक पूर्ण स्वतंत्रता थी। जिस तरह से अनुच्छेद 21 की व्याख्या की गई थी, उसने विधायी शक्ति के खिलाफ इसे प्रभावहीन बना दिया, जो कोई भी ऐसे कानून को बना सकती थी, जो किसी व्यक्ति पर इस उद्देश्य से बिना किसी उचित प्रक्रिया का निर्धारण किए बिना उसकी निजता की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकती थी। यह अदालत के लिए न्याय करने के लिए नहीं था कि प्रदान किया गया कानून निष्पक्ष या उचित प्रक्रिया है या नहीं।
दूसरी ओर, न्यायाधीश फ़ज़ल अली, ने बहुमत की राय से असहमत होकर, अनुच्छेद 21 में “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” वाक्यांश की अधिक विस्तृत व्याख्या को अपनाया और माना कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत देश के सामान्य कानून का हिस्सा हैं, इसे अनुच्छेद 21 में पढ़ा जाना चाहिए। इसके अलावा, उन्होंने संविधान के एक व्यापक और संरचनात्मक पठन का सुझाव दिया जिससे अनुच्छेद 19 में निहित मौलिक अधिकारों को अनुच्छेद 21 और 22 के साथ पढ़ा जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 19 को अनुच्छेद 21और 22 से अलग कर दिया था। यह दृश्य काफी समय तक टिका रहा, कभी-कभी यह राय असंगत परिणाम तक ले जाती थी।
अदालत ने शाब्दिक रूप से “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” को विधायिका द्वारा यांत्रिक (मैकेनिकल) रूप से निष्पक्षता की किसी भी वास्तविक धारणा के बिना निर्धारित कानूनी ढांचे के रूप में समझा और पूरी तरह से संविधान सभा के वाद विवाद पर भरोसा करके कार्यात्मक (फंक्शनल) व्याख्या को नजरअंदाज कर दिया।
इसी तरह, राम सिंह बनाम दिल्ली राज्य, के मामले में एक व्यक्ति को निवारक निरोध अधिनियम, 1950 के तहत सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए प्रतिकूल भाषण देने के लिए हिरासत में लिया गया था। उस समय, अनुच्छेद 19(2) ने ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगाया था। इसलिए, उस आधार पर भाषण की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता था। लेकिन ऐसे भाषणों को जो सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए प्रतिकूल होते है, के लिए एक निवारक निरोध आदेश जारी किया गया था। यह माना गया कि आदेश की वैधता को अनुच्छेद 19 से संबंधित नहीं माना जा सकता है और यह अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 22 के अनुपालन पर निर्भर करता है।
खड़क सिंह बनाम यूपी राज्य में न्यायाधीश सुब्बा राव ने कहा कि “यदि अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है, तो राज्य कार्रवाई करने के लिए एक कानून पर भरोसा कर सकता है; लेकिन यह तब तक पूर्ण उत्तर नहीं हो सकता जब तक कि उक्त कानून अनुच्छेद 19 (2) में निर्धारित परीक्षण को संतुष्ट नहीं करता, जहां तक अनुच्छेद 19(1) में शामिल विशेषताओं का संबंध है।”
बैंक राष्ट्रीयकरण मामले का निर्णय, कानून पारंपरिक कठोर प्रत्यक्षवाद (पॉजिटिविज्म) से भिन्न था और निजता की स्वतंत्रता के अधिकार के साथ संपत्ति की रक्षा के अधिकार की रक्षा के लिए आग्रहपूर्ण (सॉलिसिटस) था। अदालत ने अनुच्छेद 31 (2) को अनुच्छेद 19 (1) (f) से जोड़ा और अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 22 के बीच एक कड़ी स्थापित करने की नींव रखी।
हालांकि, आपातकाल की अवधि के दौरान कुख्यात बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) मामला, भारतीय न्यायपालिका के इतिहास पर कलंक है जिसने निवारक निरोध की वैधता या आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम, 1971 के तहत निरोध आदेश की न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) के दायरे को चुनौती दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा व्यक्त किए गए विचारों को खारिज कर दिया और माना कि किसी भी व्यक्ति के पास बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट या किसी अन्य रिट के लिए उच्च न्यायालय के समक्ष कोई याचिका दायर करने के लिए कोई अधिकार नहीं है, जो किसी भी आधार पर निरोध आदेश को वैधता को चुनौती देने के लिए है। उदाहरण के लिए, यह अधिनियम के तहत नहीं था, या इसके अनुपालन में नहीं था, या अवैध था, या बाहरी विचारों पर आधारित था। न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि अनुच्छेद 21, जीवन और निजता की स्वतंत्रता के अधिकार का एकमात्र भंडार नहीं है और “यह सिद्धांत, कि कानून के अधिकार के बिना किसी को भी उसके जीवन और स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा, संविधान का उपहार नहीं था”। यह निर्णय नागरिक स्वतंत्रता और कानून के शासन को सुरक्षित करने के लिए अनुच्छेद 21 की स्थिति के लिए एक घोर अवहेलना था और इसने गोपालन के मामले से न्यायिक घोषणाओं द्वारा की गई प्रगति को उलट दिया था।
प्राकृतिक न्याय और कानून के शासन के व्यापक सिद्धांतों के संदर्भ में अनुच्छेद 14, 19 और 21 का संबंध
मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया आपातकाल के बाद की अवधि का एक ऐतिहासिक निर्णय था जिसने भारतीय संविधान के निर्माताओं के इरादों से प्रतिमान (पैराडिग्म) बदलाव को प्रकट किया और अनुच्छेद 21 के शरीर को आत्मा दी। इस निर्णय की विशेषता न्यायिक सक्रियता की भावना थी जिसने ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ को बड़ी हुई शक्तियां और वास्तविक अर्थ दिया था। इस मामले में याचिकाकर्ता का पासपोर्ट बिना किसी नोटिस के जब्त कर लिया गया था और ‘सामान्य हित’ के आधार पर इस निर्णय के लिए कोई कारण न बताते हुए, उनको सुनवाई का अवसर भी नहीं दिया गया था। अनुच्छेद 21 के दायरे का विस्तार तब किया गया जब निजता की स्वतंत्रता के अधिकार में विदेश यात्रा का अधिकार शामिल था। इसने अनुच्छेद 21 के अर्थ को एक नई दिशा दी। यह माना गया कि अनुच्छेद 21 निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित होना चाहिए और काल्पनिक, दमनकारी (ऑप्रेसिव) और मनमाना नहीं होना चाहिए। ‘प्रक्रियात्मक उचित प्रक्रिया’ के अमेरिकी मानक ने अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के बीच संबंध स्थापित किए थे।
न्यायाधीश ने कहा कि, “न्यायसंगतता का सिद्धांत, जो कानूनी रूप से और साथ ही दार्शनिक (फिलोसॉफिकल) रूप से, समानता या गैर-मनमानापन का एक अनिवार्य तत्व है, एक सर्वव्यापीता (ओमनिप्रेसेंस) की तरह अनुच्छेद 14 में व्याप्त (पर्वेड) है और अनुच्छेद 21 द्वारा परिकल्पित (कंटेंप्लेटेड) प्रक्रिया को अनुच्छेद 14 के अनुरूप होने के लिए न्यायसंगतता की परीक्षा का उत्तर देना चाहिए। यह ‘सही और न्यायसंगत और निष्पक्ष’ होना चाहिए और मनमाना, काल्पनिक या दमनकारी नहीं होना चाहिए, अन्यथा, कोई प्रक्रिया नहीं होगी और अनुच्छेद 21 की आवश्यकता पूरी नहीं होगी।
इसने इस बात पर प्रकाश डाला कि अनुच्छेद 21 के तहत परिकल्पित कोई भी कानून जो अनुच्छेद 19 के तहत किसी मौलिक अधिकार को कम करता है या छीनता है, उसे अनुच्छेद 14 के तहत निर्धारित न्यायसंगतता की कसौटी पर खरा उतरना होता है। इसलिए, यह न केवल प्रक्रिया है जिसे निष्पक्ष और उचित होना चाहिए, बल्कि यह भी है कि कानून को ही न्यायसंगतता की परीक्षा का जवाब देना चाहिए।
इसके अलावा, रमेशभाई चंदूभाई राठौड़ बनाम गुजरात राज्य, में यह माना गया था कि, “निष्पक्षता, न्याय और न्यायसंगतता जो जीवन की गारंटी का सार है, और संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित स्वतंत्रता भी संहिता की धारा 235(2) और 354(3) में सजा नीति में व्याप्त है। वे दो प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 21 के अर्थ के भीतर “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” की अवधारणा को वस्तुतः (वर्चुअली) आत्मसात (एसिमिलेट) करते हैं ।
‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के आवश्यक परिणाम के रूप में स्वतंत्र, न्यायसंगत और उचित कानूनी कार्यवाही
‘उचित प्रक्रिया’ शब्द में मूल और साथ ही प्रक्रियात्मक उचित प्रक्रिया शामिल है। “उचित प्रक्रिया” की मूलभूत आवश्यकता है की सुनवाई का अवसर, इस बात पर जागरूक होना कि कोई मामला लंबित है, एक सूचित विकल्प बनाने के लिए स्वीकार करना या चुनाव करना और उचित निर्णय लेने वाले निकाय के सामने इस तरह के विकल्प के कारणों पर जोर देना। कानून की उचित प्रक्रिया के आवश्यक तत्व हैं निष्पक्ष न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल), नोटिस और सुनवाई का अवसर और व्यवस्थित रूप से बचाव करना। मामले की प्रकृति के अनुकूल कार्यवाही और उचित प्रक्रिया की गारंटी के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति को अदालत संरक्षण और सामान्य कानून का लाभ मिले।
स्लॉटर-हाउस मामले, अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मामलों की एक श्रृंखला थी, जिसमें यह देखा गया था कि 14वें संशोधन ने राज्यों की विधायी शक्तियों को किस हद तक सीमित कर दिया था। संशोधन की संकीर्ण (नैरो) व्याख्या के बावजूद, न्यायमूर्ति स्टीफन जे. फील्ड की असहमतिपूर्ण राय ने तर्क दिया कि व्यक्तियों को राज्य के कानून से संरक्षित किया जाता है, जिसने संघीय (फेडरल) संविधान के तहत संशोधन द्वारा उनके “विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों (इम्यूनिटी)” का उल्लंघन किया था, जो कि मूल उचित प्रक्रिया के आधुनिक सिद्धांत की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
ऐतिहासिक रूप से, ग्रेट ब्रिटेन के किंग जॉन की 13वीं शताब्दी के ‘मैग्ना कार्टा’ का खंड, कानूनी और निष्पक्ष प्रक्रिया के वादे को स्पष्ट करता है। किसी भी व्यक्ति के जीवन और निजता की स्वतंत्रता से वंचित करने से पहले उचित, निष्पक्ष और उचित प्रक्रिया के वादे का पालन किया जाना चाहिए।
मेनका गांधी मामले में, उसका पासपोर्ट उसके बचाव के लिए सुनवाई का अवसर दिए बिना जब्त कर लिया गया था और उस अनुच्छेद के अर्थ के भीतर ‘प्रक्रिया’ निर्धारित नहीं करता है और यदि यह माना जाता है कि प्रक्रिया निर्धारित की गई है, तो यह मनमाना है और अनुचित है। न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ को ‘प्रक्रियात्मक उचित प्रक्रिया’ की अमेरिकी अवधारणा का पर्याय बना दिया और कहा कि अनुच्छेद 21 में प्रक्रिया को औपचारिक (फॉर्मल) और अधिनियमित प्रक्रिया के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। सुनवाई का अधिकार जो की प्राकृतिक न्याय का महत्त्वपूर्ण भाग है, को निष्पक्ष और न्यायसंगत होना चाहिए। एक व्यवस्थित प्रक्रिया में सुनवाई और मामले को सुनने और निर्धारित करने की शक्ति वाले न्यायालय के समक्ष अपने अधिकारों को लागू करने और संरक्षित करने का अवसर होता है। इसने उन्हें केवल उस प्रक्रिया की जांच करने में ही सक्षम नहीं किया जिसका पालन किया जाना है बल्कि इसने कानून की न्यायसंगतता की जांच करने मे भी उन्हे सक्षम बनाया है।
आपराधिक न्यायिक प्रणाली पर ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ का प्रभाव
न्यायेतर (एक्स्ट्राज्यूडिशियल) मामलों के संकोचशील मामलो से न्यायपालिका की निकासी और न्यायिक सक्रियता के आंदोलन ने न केवल संवैधानिक न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) को बल्कि आपराधिक न्यायशास्त्र को भी बढ़ाया है। ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ शब्द के व्यापक आयाम (एंप्लीट्यूड) की उदार व्याख्या ने अनुच्छेद 21 के अर्थ के भीतर जीवन और निजता की स्वतंत्रता को एक महत्त्वपूर्ण अस्तित्व दिया है। इसने न्यायपालिका को ऐसे अधिनियमित कानूनों की व्याख्या और उन्हें अमान्य करने की शक्ति दी है, जो की किसी व्यक्ति के अधिकार में हस्तक्षेप करते हैं।
यह प्रकट होता है कि ‘उचित प्रक्रिया’ ने आरोपी व्यक्ति के अधिकारों को मनमानी और विवेकहीन सजा के खिलाफ मान्यता दी है। आरोपी व्यक्ति को अनुच्छेद 22(1) के तहत गिरफ्तारी के कारणों के बारे में जानने और सूचित करने का अधिकार दिया गया है, जिसे उचित परिश्रम और उचित पहचान के साथ दिया जाना चाहिए। जैसा कि न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर द्वारा प्रख्यापित (प्रोमलगेट) किया गया है, अनुच्छेद 21 “मानव मूल्यों का अभयारण्य (सैंक्चुअरी) है जो बर्बरता को प्रतिबंधित करता है” और मनमानी से बचने के लिए विचाराधीनों को हथकड़ी लगाने की प्रथा को रोकता है जब तक कि आरोप से खतरा स्पष्ट और आसन्न (इमीनेंट) न हो। अनुच्छेद 21 में गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है और पूछताछ और जांच के दौरान पुलिस की कार्यप्रणाली के शारीरिक अत्याचारों की निंदा करता है।
फ्रांसिस कोराली मुलिन बनाम दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र के मामले में यह देखा गया था कि, “अब स्पष्ट रूप से, किसी भी प्रकार की यातनापूर्ण (क्रूएल) या क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार मानवीय गरिमा (डिग्निटी) के लिए अपमानजनक होगा और जीने के इस अधिकार का उल्लंघन होगा और इस दृष्टिकोण पर, यह अनुच्छेद 21 द्वारा निषिद्ध होगा, जब तक कि यह कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार न हो, लेकिन इसमें कोई भी ऐसा कानून शामिल नहीं होगा जो अधिकृत नहीं करता है और कोई भी प्रक्रिया जो इस तरह की यातनापूर्ण या क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार की ओर ले जाती है, वह कभी भी न्यायसंगतता और गैर-मनमानापन मे परीक्षण खरी नहीं उतर सकती है : यह स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 14 और 21 के उल्लंघन के रूप में असंवैधानिक और शून्य (वॉयड) होगा। इस प्रकार यह देखा जाएगा कि अनुच्छेद 21 में यातना या क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार के खिलाफ सुरक्षा का अधिकार निहित है… ”
निष्पक्ष प्रक्रिया में अपील करने का अधिकार है, निष्पक्ष सुनवाई, जो न्याय का परिणाम है और कानूनी सहायता और प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) के प्रावधान की भी मांग है। न्यायाधीश भगवती ने कहा कि, “अब, एक प्रक्रिया जो एक आरोपी व्यक्ति को कानूनी सेवाएं उपलब्ध नहीं कराती है, जो की एक वकील का खर्च उठाने के लिए बहुत गरीब है और इसलिए, उसे कानूनी सहायता के बिना ही मुकदमा लड़ना होगा, इसे संभवतः ‘उचित, निष्पक्ष और न्यायपूर्ण’ नहीं माना जा सकता है। अदालत की प्रक्रिया के माध्यम से अपनी मुक्ति की मांग करने वाले कैदी के लिए उचित, निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रक्रिया का यह एक अनिवार्य घटक है कि उसे कानूनी सेवाएं उपलब्ध होनी चाहिए।
निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार आपराधिक न्यायशास्त्र के केंद्र में लोकतांत्रिक राजनीति और कानून के शासन का एक पहलू है। इसका अर्थ है न्याय की अवधारणा में निष्पक्ष न्यायाधीश, निष्पक्ष गवाहों और निष्पक्ष अभियोजक (प्रॉसिक्यूशन) के समक्ष परीक्षण। हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य में, न्यायालय ने माना कि हालांकि हमारे संविधान में त्वरित सुनवाई का विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, यह मेनका गांधी बनाम भारत संघ में व्याख्या के रूप में अनुच्छेद 21 की व्यापकता और सामग्री में निहित है ।
सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य में, यह माना गया था कि अनैच्छिक प्रशासन और विषय की सहमति के बिना नार्को-विश्लेषण परीक्षण, लाई-डिटेक्टर परीक्षण, पॉलीग्राफ और ब्रेन-मैपिंग असंवैधानिक हैं। उन्होंने ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ के विचार को लागू करके आत्म-अपराध के खिलाफ अधिकार और निष्पक्ष परीक्षण की गारंटी के बीच एक अंतर्संबंध को आकर्षित किया।
यह देखा गया था कि, “मूल उचित प्रक्रिया’ की गारंटी संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा संरक्षित ‘निजता की स्वतंत्रता’ के विचार का एक हिस्सा है और यह कि ‘मूल उचित प्रक्रिया’ का मानक, निश्चित रूप से, सरकारी कार्रवाई की सभी श्रेणियों, जो ‘निजता की स्वतंत्रता’ के विचार का उल्लंघन करती है। की वैधता की जांच करने के लिए दहलीज है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक सक्रियता की अपनी स्व-निर्मित अवधारणा के माध्यम से समाज के लगभग हर हिस्से में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मानवाधिकारों के क्षेत्र में जनहित याचिका द्वारा इसे काफी हद तक सुगम बनाया गया है। कार्यपालिका द्वारा उनके अधिकार से ज्यादा कार्य करने के परिणामस्वरूप कैदियों और विचाराधीन कैदियों के मूल अधिकारों से वंचित किया जाता है, जिसने इस क्षेत्र में अदालत का ध्यान आकर्षित करना जारी रखा है जिसके कारण अदालत में इन कारणों की सीधी और त्वरित पहुंच संभव हो गई है।
निष्कर्ष
न्यायपालिका ने संकीर्ण और यांत्रिक अर्थ दिया और प्रत्यक्षवाद, कानून के अनिवार्य सिद्धांत और संसदीय सर्वोच्चता को प्रभावित किया। न्यायपालिका एक जीवित हाथी के दांत की मीनार थी, जो प्राकृतिक न्याय और कानून के शासन के मूल्यों से परे, सामाजिक दायरे से असंबद्ध (अनकनेक्टेड) और असंबंधित थी। इसने मूल इरादे और ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के अर्थ को प्रतिबंधित तरीके से स्वीकार किया, जैसा कि न्यायाधीश फ्रैंकफर्टर की सलाह पर भरोसा करके संविधान निर्माताओं द्वारा प्रख्यापित किया गया था। पूर्व-आपातकाल युग में पूर्व सिद्धांत के निहितार्थ ने नागरिक स्वतंत्रता के साथ समझौता किया क्योंकि प्राकृतिक न्याय के लिए कोई अपील नहीं थी। न्यायपालिका की अनिच्छा को राज्य की सुरक्षा के साथ-साथ निजता की जीवन और अधिकारों की प्राथमिकता के साथ यांत्रिक व्याख्या और अधिनियमित कानूनों को लागू करने में प्रकट किया जा सकता है। लेकिन यह कहना सही नहीं होगा कि अनुच्छेद 21 किसी काम का नहीं है क्योंकि यह कार्यपालिका के मनमाने और अधिकारहीन फैसलों पर प्रतिबंध लगाता है। लेकिन अनुच्छेद 21 की भ्रांति न्यायपालिका को इसकी समीक्षा करने के लिए सवाल करने की शक्ति के बिना प्राकृतिक न्याय और कानून के शासन के सिद्धांतों के खिलाफ किसी भी कानून को लागू करने की विधायी शक्तियों के खिलाफ शक्तिहीन में निहित है।
मेनका के मामले की आपातकाल के बाद की प्रमुख न्यायिक सक्रियता ने ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ की उदार व्याख्या को व्यापक आयाम तक पहुँचाया और ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ के अमेरिकी सिद्धांत में बदल दिया। इसने अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 की त्रिमूर्ति की स्थापना की अनुमति दी है जिसके द्वारा एक प्रक्रिया या कानून न केवल एक अधिनियमित कानून है, बल्कि न्यायसंगतता की परीक्षा से गुजरता है और निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित होना चाहिए। इसने न केवल संवैधानिक न्यायशास्त्र पर बल्कि आपराधिक न्यायशास्त्र पर भी व्यापक प्रभाव के साथ कानूनी कार्यवाही के स्वतंत्र और त्वरित परीक्षण के तंत्र की स्थापना की है। इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में अमेरिकी ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ के अर्थ को प्राप्त करने के द्वारा ‘संविधान के दिल और आत्मा’ के रूप में अनुच्छेद 21 का सूक्ष्म (न्यूएंस) अर्थ हासिल किया गया है।
संदर्भ
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- D. K. Basu v. State of W.B, AIR 1997 SC 610 See here https://indiankanoon.org/doc/501198/.
- Prem Shankar v Delhi Administration, AIR 1980 SC 1535 See here https://indiankanoon.org/doc/853252/.
- AIR 1981 SC 608.
- MH Hoskot v State of Maharashtra, AIR 1979 SC 1548 See here http://lawtimesjournal.in/madhav-hayawadanrao-hoskot-vs-state-of-maharashtra/.
- Varkey Joseph v State of Kerala, AIR 1993 SC 1892 See here https://indiankanoon.org/doc/541683/.
- Hussainara Khatoon v State of Bihar, AIR 1979 SC 1373 See here https://indiankanoon.org/doc/1373215/.
- Rattiram v State of MP through Inspector of Police, AIR 2012 SC 1485 See here https://indiankanoon.org/doc/146351380/.
- AIR 1979 SC 1360 : (1980) 1 SCC 81. See here https://indiankanoon.org/doc/1373215/.
- AIR 1978 SC 597 : (1978) 1 SCC 248 See here https://indiankanoon.org/doc/1766147/.
- AIR 2010 SC 1974 See here https://indiankanoon.org/doc/338008/.
- Dr.K.S.Rathore, “Historical Overview of Judicial Activism in India”, Indian Bar Review Vol. XXXIX (2) 2012.
- S. Muralidhar, “Public Interest Litigation” Annual Survey of Indian Law Vol. XXXI: 1995.
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